धूल के गुबार में एक अहसास
यह बस के पिछले पहियों से उठे धू के बगूले हैं या उन तमाम दिनों की सीली जिंदगी का थमा हुआ घना धुआं, जब सुबोध आई.ए.एस. की परीक्षा की तैयारी के लिए गांव गया था। गर्मियों की उमस भरी शाम को छत पर ढेर सा पानी सींचकर माया उसे ठंडा बना देती और घर के कामकाज में उलझ जाती। वह किताबों में सिर खपाता रहता। पढ़ते-पढ़ते ऊब जाता, तो माया की नजदीकी पाने का खयाल जुनून सा हावी हो जाता। माया सब काम निपटाकर पल्लू से गीले हाथ पोछती पास आकर खड़ी हो जाती।
'बड़ी देर करती हो? क्या करती रहती हो इत्तनी देर तक?' वह पूछता।
माया इत्मीनान की सांंस ले उसके पैरों पर धीरे-धीरे हाथ फिराती हुई कहती- 'ढेरों काम, खाना, चौका, दूध-दही निपटाते, ऊषा को अम्माजी के पास सुलाते इतना समय तो हो ही जाता है। इतनी देर में तुम पढ़ भी तो लेते हो इत्ता सारा।' माया पांव दबाती रहती और सुबोध उसे निहारता रहता स्नेहिल निगाहों से। फिर वे दोनों खो जाते भविष्य के ढेरों सपनों में। गर्मियों की तारों भरी रात निरभ्र आकाश में गहराती रहती। चमेली महकती रहती।
सुबोध का सपना आई.ए.एस. आॅफिसर बनकर शहर में ही रहने का है। लगन का पक्का है सुबोध। जो सोचता है, कर डालता है। बीवी भी गऊ है। समर्पिता। अत: किसी भी प्रकार के अवरोध की गुंजाइश न थी।
माया को वह आसमान की ऊंचाइयों तक पेंगे भरवाता और कहता जाता, 'फिर देखना माया, रानी बनकर रहोगी तुम। उषा को कान्वेन्ट स्कूल में पढ़ायेंगे।' और शरारती अंदाज में माया के गर्भ में पल रहे नये मेहमान की ओर संकेत करते हुए बोला- ' ये जो महाशय आ रहे हैं न। इन्हें तो अपनी तरह आॅफिसर बनाऊंगा।' सुबोध ने बड़े प्यार से उसे स्पर्श किया। माया शरमा गयी, 'क्या करते हो?'
माया नौंवी पास थी। गांवों में लड़की का इतना पढ़ लेना भी काफी माना जाता है, सो पढ़े-लिखों में गिनती थी उसकी। घर की सबसे बड़ी लड़की थी, पंद्रह साल की उम्र में ही खूब धूम-धाम से ब्याह दी गयी। संयुक्त परिवार, ससुर और सुबोध के चाचा का परिवार साथ ही रहता था। ऊंचे दालानों वाला दो मंजिला मकान, खेत, बाग, बगीचे, गाय... खाते-पीते गांव के घर लायक सब कुछ था। माया सुबह से उठ जाती, ग्वाले के दूध दुह के लाते ही चौके-चूल्हे का काम शुरू हो जाता। सबके लिये नाश्ता, चाय, दूध फिर दोपहर के भोजन की तैयारी। दोपहर को जरा सा फुरसत पाती, तो बीनना-चुनना, बड़ी पापड़, अचार में दोपहर ढल जाती। तब तक आंगन में लगे नीम कचनार के पेड़ों से पीले पत्ते झर चुके होते...। सूरज अस्त होते ही पश्चिम में ढेर सी लाली बिखेर देता। ससुर कभी-कभी झल्लाते, 'अरे, कोई भी तो झाड़ लो और आंगन बुहार दो...। करे तो बहू करे बस।'
और दूसरे दिन सरेशाम आंगन झड़ जाता। ससुर की खटिया पर सफेद चादर बिछ जाती। घर के सभी सदस्य बहू की मुस्तैदी से अवाक थे। नन्हीं, नाजुक-सी जान और ढेरों काम, पर 'उफ' तक नहीं। माया के लिये सुबोध का हर कथन आदेश था। इतना निश्छल, समर्पित प्रेम तो कहीं देखा नहीं अब तक। उसका यह रूप कभी तो बहुत आकृष्ट करता सुबोध को और कभी पूजा बनकर मन को विचलित कर देता। उसका पुरुषत्व मानो गुहार लगाता...। जीवनसंगिनी अथवा दासी। पत्नी के किस रूप की वह सराहना करे। माया के अंदर दास्यभाव अधिक था।
न जाने कितने व्रत, पूजा-अर्चना व मन्नत की थी माया ने सुबोध के आई.ए.एस. आॅफिसर बन जाने की। सुबोध के सपने की सार्थकता में ही माया का सुख है। पति राज करेगा, तो पत्नी खुद-ब-खुद राजपाट संभालेगी। कभी सुबोध कहता-'जब हम शहर चलकर रहेंगे, तुम बाकायदा आधुनिक व आकर्षक कपड़े पहनना, पांच गज की साड़ी लपेटे रहती हो।'
वह हंस देती-'तो आपकी पसंद शहरी है। देखना, कहीं किसी शहरी बाला के चक्कर में मुझ बेपढ़ी-लिखी को न भूल जाना।'
सुबोध लपककर माया के मुंह पर हथेली रख देता-'ऐसा न कहो, कहीं पढ़ाई-लिखाई या, अफसर बनने से रिश्ते टूटते हैं। तुम तो मेरी सांसों में बसी हो।' फिर मुस्कराते हुए जुमले जोड़ता-'लेकिन सांसों को चाहिये सुगंध, तब मन खुश रहता है। तुम्हारे कपड़ों से घरेलू गंध आती है। गोबर, प्याज, लहसुन व मसालों की। कपड़े क्यों नहीं बदल कर आती हो तुम?'
माया लज्जित सी हो जाती। चाहती तो वह भी थी कि सुबोध के पास तरोताजा होकर बैठे, पर दूसरे कपड़े लाये कहां से? जब तक सुबोध कमाने न लगे...। वैसे माया सुंदर है। गोरा रंग, सुड़ौल भोला-भाला नाक-नक्श। जो भी पहनती है, खिल उठता है उस पर। पढ़ाई का भी बहुत शौक था उसे। गजब की पकड़ थी उसकी, जो भी अंग्रेजी शब्दों का सुबोध प्रयोग करता, माया तुरन्त करने लगती।
समय ने करवट ली, माया के जीवन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, सुबोध का आई.ए.एस. का रिजल्ट, शानदार नौकरी, बंगला-जीप और बेटे उदित का जन्म। माया ने मानो आसमान समेट लिया हो आंचल में। ससुर ने पूरे गांव में लड्डू बंटवाये। सत्यनारायण की कथा करवायी। गांव के लोग उन लोगों से रश्क करते...। एख साथ बेटे का शहर में अफसर पद और पोते का आगमन...। बहू तो साक्षात लक्ष्मी निकली और माया मंद-मंद मुस्कराती। सोचती... पति का सपना साकार हो गया। अब वह भी शहर जाकर रहेगी। उषा और उदित अच्छे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ेंगे। नौकर-चाकर, गाड़ी-बंगला... सब है, बताते हैं। वह सोचने लगी, तो दिन भर क्या करूंगी? पहली सर्दी तो स्वेटरों को बुनने में बीत जायेगी। गर्मियों में सुबोध मसूरी घुमा लाने की बात कह रहे थे... फिर नाते-रिश्तेवालों का आना-जाना फुरसत ही कहां मिलेगी।
सुबोध के बॉस थे नारायण प्रसाद श्रीवास्तव। उनकी इकलौती बेटी दीप्ति बेहद लाड़ली थी। सुंदर भी थी और आधुनिक तौर-तरीकों से पली बढ़ी। वह अक्सर सुबोध के साथ घूमने निकल जाती। दोनों के बंगले एक ही कैंपस में थे। संकोचवश सुबोध मना भी नहीं कर पाता। होटल, क्लब, सिनेमा के साथ-साथ घंटों सुबोध के साथ रमी खेलना। यह सिलसिला महीनों चलता रहा। एक दिन मौका देख श्रीवास्तवजी ने सुबोध से कहा-' सुबोध, दीप्ति मेरी इकलौती लाड़ली बेटी है, उसकी इच्छा मेरे लिये पत्थर की लकीर है, मैं सारी दुनिया को उसके लिये दांव पर लगा सकता हूं।'
'जी।' सुबोध कुछ समझा नहीं, तो बस इतना ही कहा। ' और वह नादान तुम्हें चाहने लगी है, और तुमसे शादी करना चाहती है।'
'जी।' सुबोध हैरत से उनकी ओर देखने लगा।
'मैं जानता हूं, तुम शादीशुदा हो, दो बच्चों के पिता हो, पर मैं दीप्ति के लिये मजबूर हूं। और फिर ऐसा हो जाता है अक्सर, तुम अपनी उस गांव की पत्नी को वहीं रहने दो और यहां दीप्ति के साथ अपना घर बसा लो। अपना परिवेश तो देखो, उच्च सोसायटी में तुम्हारा उठना-बैठना है...। कहां रखोगे उस ग्रामीण पत्नी को अपने साथ?'
सुबोध तिलमिला गया। लेकिन अपने से कई पद सीनियर आॅफिसर के सामने नॉर्मल होने का नाटक करता रहा।
'और फिर कानून भी कुछ नहीं कर सकता जब तक पहली बीवी आपत्ति न करे, और तुम्हारी पत्नी में इतनी होशियारी होगी नहीं? क्यों?'
'जी.. बहुत सीधी है माया।'
माया के इसी सीधेपन को सोच-सोच वह दस दिनों का अवकाश ले कमरे में बंद रहा। एक ओर माया थी और दूसरी ओर बहुप्रतीक्षित उच्च पद की नौकरी, किसे छोड़े और किसे अपनाये? क्या भविष्य में फिर यह पद मिलेगा? नौकरी क्या आसानी से मिलती है। बना रहता बच्चू खेतों में हल चलाते बैल। यही तो चाहते थे न बिरादरी वाले। सोचते-सोचते पूरी रात बीत गयी। सुबह उठा, तो एक नया निश्चय था-ठीक है वह दीप्ति से विवाह करेगा और माया को गांव में रखेगा, साल में दो-तीन चक्कर गांव के लगा लिया करेगा। बेकार में भावनाओं में बहकर क्यों अपना भविष्य बिगाड़े और फिर माया के सुख-दुख में साथ देने का बीड़ा भी तो उठा रखा है उसने।
दीप्ति से विवाह के पांच-छह महीने तो यूं गुजर गये जैसे दिनों को पंख लग गये हैं। घूमना, हनीमून, शॉपिंग। इन सबके बीच माया जरा भी याद न आयी। सुबोध को एक अलग सी दुनिया का अहसास हो रहा था। शादी के बाद इतना सुख भी मिलेगा, उसने सोचा तक न था। गांव की जिंदगी सचमुच फीकी, उद्देश्यहीन थी। किन्तु मन के किसी कोने में माया भी बसी थी, सो सुबोध को एक दिन अचानक अहसास हुआ कि वह माया के प्रति अन्याय कर रहा है। वह सीधी-सादी औरत उशकी प्रतीक्षा में दिन काट रही है और वह है कि... तुरन्त जीप निकाली, दस दिन की छुट्टी ली और गांव चला आया।
माया उसे देख दरवाजे की आड़ में शरमाई सी खड़ी रही। वह अम्मा-बाबूजी से बात करता रहा। अपनी शादी की भनक भी न लगने दी उन्हें। बाबूजी की जिद थी ' बहू को ले जाओ, यहां पड़ी-पड़ी ऊबती है, ऊषा और उदित की पढ़ाई भी बेतरतीब हो रही है। उदित भी तीन साल का हो गया। स्कूल जाने लायक उमर तो उसकी भी हो गयी।' पर सुबोध अच्छी तरह सेटल हो जाने के बाद ले जाने की रट लगाये रहा। माया ने सुना, तो उदास हो गयी।
'आप सैटल तो हो गये हैं न? गाड़ी, बंगला सब तो है, हमें ले चलिये इधर मन नहीं लगता।''बस, थोड़ा सबर और कर लो, जल्दी ही बुलाऊंगा।'
माया मन मसोस कर रह गयी। फिर सोचा, होगी कोई वजह, जो नहीं ले जा पा रहे हैं। जैसे इधर वह अकेली उनके लिये तड़पती है, वो भी तो उधर उसके लिये तड़पते होंगे। और वह मन को तसल्ली दे, सुबोध का मनपसंद भोजन तैयार करने लगी।
दस दिन यूं आरती के कपूर की तरह उड़ गये। जाते वक्त माया ने इतना भर कहा-' आपने तो ऊषा और उदित को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने को कहा था।'
'हां, पढ़ाऊंगा ना।' सुबोध ने नजरें चुराते हुए कहा और झट से जीप स्टार्ट कर दी। नुक्कड़ से जीप मोड़ते ही उसने देखा बेबस, उदास माया दरवाजे पर खड़ी है। सुबोध ने गौर किया वह पीली और दुबली भी दिख रही है। उषा जीप पर चढ़ गयी, बाद में उषा जीप के पीछे दौड़ी, कुछ कदम उदित भी दौड़ा। उसने दोनों बच्चों के हाथ में दस-दस रुपये का नोट पकड़ा दिया।
साल भर के अंदर ही सुबोध और दीप्ति की शादी की खबर गांव पहुंच गयी। बाबूजी सदमा सहन नहीं कर पाये। जो बिस्तर पर गिरे, तो उठ ही नहीं पाये। सुबोध चाहकर भी गांव नहीं गया। जाता तो मात्र हिकारत ही उसके हिस्से में आती, चाचा ने उसे धमकी भी दे डाली। बाबूजी के बाद मां बिस्तर पर आ लगीं, उन्होंने छह माह बीमारी और सदमा भोगा। वे भी चल बसीं। माया का संसार सूना हो गया था। अब वह चाचा-चाची की दया पर जीवित थी। उषा को गांव के प्राइमरी स्कूल में चाचा ने डलवा दिया था। उदित भी वहीं जाने लगा। माया ने इसे अपनी नियति मान लिया था। मन में विचार जरूर आता था कि उसकी किस कमी से सुबोध ने उसे ठुकरा दिया। सुबोध ने जैसा चाहा, वैसा माया करती रही, कभी कुछ नहीं बोली। किसी बात का विरोध नहीं किया उसने। सुबोध की इस हरकत से वह एकदम टूट चुकी थी। नहीं जानती किस पल उसने सुबोध का दिल तोड़ा, जो यह सब देखना पड़ रहा है। सुबोध कहते, तो क्या वह शहरी रहन-सहन नहीं सीख लेती? और क्या गांव के लोग बिल्कुल बेशऊपर ही होते हैं। चाचा-चाची के घर का काम करते, सारे घर की हाड़तोड़ सेवा करते कई माह गुजर गये। एक दिन चाचा ने आव देखा न ताव, तीनों को बस में बैठाया और सुबोध के घर ला पटका। माया तब तेज बुखार से तप रही थी। माया की बीमारी और खांसी ने भी चाचा को चिड़चिड़ा कर दिया था।
चाचा ने कॉलबेल बजाते ही दीप्ति सुंदर सी काली लाल मैक्सी में मेहंदी रचे कटे बालों को झुलाती आयी, द्वार पर अजनबियों को पा प्रश्न सा किया-'कहिये?'
चाचा दहाड़े...'कहां है सुबोधवा? दो बच्चे वहां हमारी जान लेने को पैदा कर रखे थे... और इधर के ठाठ तो देखो... अपनी मां को फूंकने भी न आया, ठाठ से जी रहा है पट्ठा...।'
सुबोध तब तक उठ आया था। माया और बच्चों को सामने देख अचकचा गया। चाचा के पैर छूने को हाथ बढ़ाया, तो पैर पीछे हट गये। चाचा गुस्से में खड़े रहे, खाना, नाश्ता क्या पानी तक नहीं पिया उन्होंने उस घर का। बेडरूम से एक गोल-मटोल गुड़िया सी लड़की को झांकते पा आंखें तरेरी उन्होंने। 'लड़की भी पैदा कर ली... सात पुश्तों का सर झुकाया है तूने... हमारे खानदान में यह गुल किसी ने न खिलाया। अब समम्भालो अपने इन तीन मनहूसों को। क्या चाचा के सर पर जिंदगी भर बिठाओगे? और समझ लेना बरखुरदार, खेती, जमीन में कभी हिस्से की बात की, तो मुझसे बुरा कोई न होगा।'
चाचा उलटे पैर वापस हो लिये। बच्चे और माया ठंड से ठिठुरते से नीचे कालीन पर बैठे रहे। माया को लगा दीप्ति उससे बहन सा बर्ताव कर करेगी, कुशल क्षेम पूछेगी, सुबोध खुश होंगे। बच्चों की रौनक से घर भर जायेगा, पर सबको जैसे सांप सूंघ गया था, दीप्ति तो सामने आयी ही नहीं, सुबोध खामोश सोफे पर बैठे रहे। नौकर थोड़ी देर में चाय-नाश्ता ले आया, बच्चे कालीन पर ही सहमे से बैठे खाते रहे और पिता का वैभव देखते रहे। माया सोचती रही,'क्या इस वैभव में उसके लिये एक कोना भी मौजूद नहीं है।'...
सुबोध अंदर गया, तो दीप्ति और उसकी तेज-तेज स्वरों में लड़ने की आवाजें आने लगीं। काफी देर तक दोनों एक-दूसरे पर क्रोध करते रहे।
'पीछे सर्वेन्ट क्वार्टर हैं, वहीं ठहरा दो तीनों को। यहां रिश्ते-नाते पता न लगें, नहीं तो सोसायटी में मेरी नाक कट जायेगी।'
'आफ्टर आॅल माया मेरी बीवी है, कुछ तो सोचो।'
'और मैं, मैं क्या उठाईगीर हूं। तुम्हारी बेटी की बाकायदा मां हूं मैं।'
सुबोध हारे हुए जुआरी-सा बाहर निकला और उनके सामान सहित तीनों को क्वार्टर में छोड़ आया। यह सामान वह नौकरों से उठवाता भी कैसे? टीन के टूटे बक्से और कनस्तर ही तो था सामान के नाम पर।
माया के मन में अब भी उम्मीद की किरण थी कि सब ठीक हो जायेगा। वह तो दीप्ति के साथ आराम से रह लेगी, नन्हीं मुनिया को भी संभाल लेगी और कराहते हुए माया खाट पर लेट गयी। बुखार अब भी था। सुबोध क्रोसिन और बिस्किट दे गया था। माया सारे दिन क्वार्टर में अकेली पड़ी रही। उसकी खोज-खबर लेने न दीप्ति आयी न ही मुनिया और न ही नौकर-चाकर। बच्चे जरूर कालीन जैसी घास पर लोट आये थे। उषा बड़ी हो रही थी, सब कुछ समझती थी, पर चुप थी। उदित के सैकड़ों सवालों का जवाब माया के पास न था। रात को सुबोध आया, उस समय माया को खांसी का अटैक सा आ रहा था।
'ये खांसी कबसे है?' सुबोध ने पूछा।
'बहुत समय से।' माया ने टूटी आवाज में कहा।
'कल डॉक्टर के पास चलना।'
'नहीं, अब कोई फायदा नहीं। अब तुम सिर्फ बच्चों को संभाल लेना। अपने बेटे को अपने जैसा आॅफिसर बनाना। गांव में बच्चों की दुर्दशा हो जायेगी, वहां मत भेजना।' थके स्वर में माया ने कहा।
'अब ये सेशन तो निकल चुका। अगले साल दोनों को अच्छे स्कूल में डालूंगा।' सुबोध ने कहा।
सुबोध की महत्वाकांक्षा ने माया के अरमानों की बलि ले ली। क्या यह वह समझ पायेगा? वह दो सालों से बीमार है, खांसी, बुखार पीछा ही नहीं छोड़ते, न भरपेट खाना मिला, न आराम। रंग गिर गया, शरीर दुबला व शक्तिहीन हो गया। फिर भी एक उम्मीद थी कि सुबोध आयेगा और वह हमेशा के लिये गांव छोड़ देगी। गांव हमेशा के लिये क्या छोड़ा, जिन्दगी ही छूट गयी। सांस टूट-टूट कर फेफड़ों तक पहुंचती...। क्वार्टर में रहते हफ्ता गुजर गया।
एक दिन माया की सांस उखड़ती देख उषा तेजी से बंगले की ओर दौड़ी-'बाबू, अम्मा को क्या हुआ? जल्दी चलो बाबू।'
सुबोध तेजी से क्वार्टर की तरफ भागा। दीप्ति ने वक्त की नजाकत देख डॉक्टर को फोन घुमा दिया। दोनों बच्चे माया के पलंग के पास खड़े थे। माया कुछ नॉर्मल हुई, तो सुबोध ने उसका सिर गोद में ले लिया। बरसों बाद सुबोध का स्पर्श व नजदीकी पा माया फूट-फूट कर रोने लगी।'मुझसे क्या अपराध हुआ था, जो तुमने ऐसा किया, तुम कहते, तो क्या मैं शहरी कपड़े नहीं पहनती, मॉर्डन नहीं बनती, अंग्रेजी नहीं पढ़ती? पर...पर। ' शब्द टूटने लगे।
सुबोध के भी आंसू टपकने लगे। 'कुछ न कहो माया, बस... कुछ न कहो।'
'कभी कुछ नहीं कहूंगी। बस, इतना वादा करो कि बच्चों को अपने पास रखकर पढ़ाओगे।'
सुबोध ने स्वीकृति में सिर हिलाया। माया ने सुबोध का हाथ पकड़ा... जब तक डॉक्टर कमरे में कदम रखते, माया दम तोड़ चुकी थी, बच्चे हाहाकार कर उठे। अपराधबोध से सुबोध अंदर ही अंदर सुबकता रहा।
बच्चों को सुबोध बंगले में ले आया। उषा रोज सुनती बाबू और नयी मां के झगड़े। यह भी सुनती कि वे दोनों मुनिया को बिगाड़ देंगे, जबकि मुनिया उनके पास फटकती भी नहीं थी। मुनिया नाम अम्मा का दिया था। नयी मां की जिद थी कि बच्चे गांव लौट जायें। वहां उनका खर्चापानी चाचा को भेज दिया जायेगा। लेकिन ऐसा कहीं होता है, दोनों में खूब झगड़े हुए, कितने कांच के गिलास और दूसरी चीजें फूटीं। बाबू बिना खाये-पिये भूखे ही जीप लेकर चले गये। घर में किसी ने नहीं खाया। उदित भूख से खामोश रुलाई रोता रहा।
रात फिर झगड़ा हुआ। बाबू ने अपना सिर दिवाल पर मारा, भलभलाकर खून निकल आया। उदित डर के मारे जो-जोर से रोने लगा। बिस्तर अंदर थे। डर के मारे उषा अंदर गयी ही नहीं, फिर किसी ने उन्हें खाने को नहीं पूछा। बाबू शराब पीते रहे, दोनों बगैर ओढ़े पेट में पैर घुसाकर सो गये। रात किसी ने कंबल ओढ़ाया। उषा कुनमुनायी, लगा अम्मा आयी हैं- कह रही हैं...'बेटा लौट जाओ गांव में। उधर चाचा की डांट फटकार है, पर घर आंगन पराया नहीं है। इधर सब कुछ पराया है, तुम्हारे बाबू भी।'
सुबह के हल्के धुंधुलके में सुबोध हड़बड़ाकर उठा... रात की सारी घटना आंखों में बिजली के बल्ब सी जल उठी। याद आया, बच्चों ने तो कुछ खाया ही नहीं होगा। भागकर ड्राइंगरूम की तरफ आया... बच्चे वहां नहीं थे। गेट पर आया, वॉचमन से पूछा... सभी तरफ से नकारात्मक उत्तर पा उसके पांव तले की जमीन शिसक गयी।
शीघ्र ही जीप निकाली और बस स्टैंड की तरफ भागा। अनुमान सही निकला। दोनों बच्चे बस के बारे में पूछ रहे थे। फिर उसने उषा को उदित के साथ हाथ पकड़े गांव जाने वाली बस पर चढ़ते देखा। वह भागा, कंडक्टर उसे पहचान गया, उसने सुबोध को सलाम ठोंका। सुबोध ने बस कंडक्टर को टिकट के पैसे तथा रास्ते में कुछ खिला देना कहकर कुछ और रुपये दिये। बच्चे हैरत से अपने बाबू को देख रहे थे। बच्चों ने सुबोध को उसकी परिस्थिति से उबारा था अथवा सुबोध ने बच्चों को, कोई नहीं समझ पाया। सुबोध ने जीप स्टार्ट की... बच्चों ने देखा, उनके बाबू धूल की गुबार में एक अङसास मात्र बन चुके थे।