गांव की झील
दीपक पूरे पांच वर्ष बाद गांव लौटा था। उसने इसी गांव से कुछ दूर बने स्कूल से शिक्षा प्राप्त की थी और वह अकेला ऐसा लड़का था जो आगे की शिक्षा प्राप्त करने दक्षिण भारत के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में गया था।
गांव आज भी उतना ही सुंदर था जैसा वह चाहता था और जिस गांव के पर्यावरण को बचाने के लिए उसने अपने नन्हें मित्रों के साथ मदद की थी। तब वह पर्यावरण का अर्थ भी नहीं जानता था। शायद आज भी इस गांव के अधिकांश युवा इसका अर्थ नहीं जानते होंगे। लेकिन इतना तो जानते ही हैं जब उन्होंने प्रकृति की रक्षा की थी।
बात कुछ वर्ष पूर्व की है तब दीपक सात-आठ वर्ष का था। उसके चारों साथी भी उसके हम उम्र। बस गुड़िया थोड़ी छोटी थी, लेकिन खूब मेहनती और ढेर सारी बातें करने वाली। चारों साथी में दीपक जिसे सब दीपू कहते थे, ओंकार, शंकर, राजू और छोटी गुड़िया... शायद उसका नाम ही गुड़िया था।
गांव में हरे-भरे पेड़ थे। गांव के तीन तरफ पहाड़ियां जो बारिश में हरी दिखती थीं और इन हरे भरे पेड़ों के बीच वह मीठे पानी की छोटी-सी झील जो बारहों महीने स्वच्छ जल से भरी होती थी। झील का पानी इतना स्वच्छ था कि तलहठी के कंकर, पत्थर तक साफ दिखते थे। पूरे गांव के लोग इसी झील का पानी पीते थे। ये पांचों मित्र प्रतिदिन इसी झील के पास से होते हुए स्कूल जाते थे। झील का पानी और पेड़ों के कारण यहां सभी प्रकार के पक्षी आते थे। गुड़िया सभी पक्षियों की आवाजों की नकल कर लेती थी। जब वह पक्षी की आवाज निकालती तो वहीं पक्षी पेड़ से वैसी ही आवाज निकालता। मानो वह गुड़िया को उत्तर दे रहा हो। बहुत शीघ्र ही वे लोग पक्षियों को पहचानने भी लगे थे और अपने अनुसार उनके नाम भी रख लिए थे। वे सभी इस झील को पक्षियों को और पेड़ों को बहुत प्यार करते थे। इतनी हरियाली, झील और ठंडा शांत वातावरण देखकर ये सभी बच्चे स्कूल जाते-आते हुए यहां मौज-मस्ती करते। छुट्टी के दिन तो पूरा दिन ही गांव के बच्चों का यहां जमावड़ा रहता था। लेकिन इन बच्चों का अलग ही समूह था।
कुछ समय बीता होगा कि अचानक झील के आसपास पेड़ों के नीचे कहीं से एक लोगों का समूह आकर बस गया। गांव वालों का मुख्य व्यवसाय तो सब्जी-भाजी उगाना था और उसे पास की मंडी में बेचना था। परन्तु यहां जो अन्य लोग आकर बसने लगे वे मिट्टी के बर्तन और त्यौहारों आदि पर बेचने के लिए मिट्टी के खिलौने बनाते थे। खिलौनों को रंगों से रंगा जाता था।
दीपू, शंकर, ओंकार, गुड़िया, राजू सभी खिलौने देखकर खूब खुश हुए थे। उसे छूकर भी देखते थे। लेकिन, कुछ समय बीतने के बाद वे बच्चे अपने आपको दु:खी महसूस करने लगे। झील के आसपास रंगों भरी मिट्टी फैलने लगी। मिट्टी के कारण झील का मोती जैसा पानी गंदा होने लगा। धीमे-धीमे झील का पानी कम होने लगा क्योंकि इसके इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ चुकी थी। जलाऊ लकड़ी के लिए आसपास के पेड़ भी इन नई बस्ती वालों ने काटने आरंभ कर दिए। बच्चों को न अब नीली-पीली-सफेद चोंच वाली चिड़ियों का कलरव सुनाई देता, ना ही झील पर तैरने वाले लंबी पूंछ के पक्षी। जिस झील के मीठे पानी से उनकी सुबह होती थी अब वही पानी उन्हें गंदा दिखाई देता और ल्तलहटी पर रंग, कीचड़ में लिथड़े दिखाई देते।
ये पांचों मित्र अब उदास-अदास से झील के किनारे से निकलकर स्कूल की ओर जाते थे। एक दिन इन बच्चों ने सोचा क्यों न हम मास्टर जी को अपनी कठिनाई बताएं। स्कूल में दो ही मास्टर थे, जो सभी कक्षाओं को पढ़ाते थे। उनमें से एक मास्टर जी बच्चों की समस्याएं सदैव सुनते थे और उनका कोई न कोई हल अवश्य निकालते थे। बच्चों ने अपनी उदासी का कारण बताया कि झील का पानी गंदा हो चुका है और किसी भी पक्षी की आवाज तक सुनाई नहीं देती। झील में पानी भी कम होता जा रहा है। आसपास के सारे पेड़ भी कट चुके हैं। मास्टर जी ने चिन्ता जताई- पेड़ों को काटने से बारिश प्रभावित होती है। बारिश नहीं होगी तो झील कैसे भरेगी? उन्होंने बच्चों को उपाय सुझाया। यह भी कहा कि झील के आसपास नए लोगों ने जो बस्ती बसाई है, उन्हें समझाना होगा कि वृक्ष न काटें और झील को प्रदूषित न करें। उन्होंने झील को भरने का उपाय भी बताया। सभी बच्चे इतने खुश हो गए मानो झील अभी भरने वाली है। और कटे हुए पेड़ तुरन्त बढ़ने वाले हैं। मास्टर जी ने बताया था कि इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है।
गुड़िया ने पूछा - दीपू । ये धैर्य क्या होता है?
अरे, गुडिया धैर्य से मतलब है हमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। काम तो सभी होंगे, लेकिन समय अवश्य लगेगा। दीपू ने कहा।
इन चारों बच्चों में गुड़िया थी तो सबसे छोटी, लेकिन सबसे अधिक उत्साहित वही रहती थी।
पांचों बच्चों ने मिलकर गांव के अन्य बच्चों को तैयार किया और सभी मिलकर झील को बारिश के पानी से भरने की तैयारी में जुट गए। सर्वप्रथम उन्होंने झील से कुछ दूरी पर मिट्टी लाकर एक ऊंचा टीला खड़ा किया। फिर अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उसमें नालियां बनार्इं।
लेकिन पेड़ों का क्या करें? इतने बड़े-बड़े पेड़ इतनी जल्दी कैसे बड़े होंगे।
मास्टर जी ने बताया था - छोटे पौधे लगाओ, फिर वे बड़े होंगे।
अभी मानसून आया भी नहीं था कि पहली तेज बारिश में उनका मिट्टी का टीला बह गया। चारों तरफ कीचड़ पानी इकट्ठा हो गया।
गांव के बाकी बच्चों ने उनकी बहुत हंसी उड़ाई। कहा- चले थे पहाड़ बनाने कि पानी बहेगा और झील भर जाएगी। उन लोगों ने इन पांचों का साथ देने से इन्कार कर दिया।
इन पांचों बच्चों ने मास्टरजी को अपनी व्यथा सुनाई, और यह भी बताया कि अब गांव के अन्य बच्चे उनका साथ नहीं देंगे।
मास्टर जी ने कहा - तुम्हारे पास दस हाथ हैं। घर जाकर अपने माता-पिता और गांव वालों को अपनी बात समझाओ। अगर वे समझते हैं तो ठीक है, वरना तुम्हारे दस हाथ ही बहुत कुछ कर लेंगे। मास्टर जी ने आगे कहा- छोटा-सा मिट्टी का टीला बनाने से कुछ नहीं होगा। तुम लोग वहां से नालियां बनाओ जहां बड़े पहाड़ प्राकृतिक रूप से खड़े हैं।
पहाड़ों पर बरसता हुआ पानी यहां-वहां बहकर चला जाता है। यदि पानी किसी नाली में इकट्ठा होकर झील में जाएगा तो झील में पानी भर जाएगा। तुम लोगों को पानी की कमी भी नहीं होगी।
अब इन बच्चों के साथ कोई और बच्चे आने के लिए तैयार नहीं थे। पहाड़ दूर थे, वहां से नालियां खोदना है और झील तक लाना है। कितना कठिन कार्य लग रहा है। वे सभी उदास हो गए। इतना मेहनती काम वे कर तो लेंगे, लेकिन उन्हें अपने बड़े होने का इंतजार करना पड़ेगा।
ओंकार और राजू एक साथ बोल पड़े- हम घर-घर जाकर एक बार फिर मास्टर जी की बात सबको बताएंगे।
पांचों बच्चे एक बार फिर यह प्रयत्न करने तैयार हो गए। वे घर-घर गए और गांव वालों को इकट्ठा करके दीपू ने कहा- सोचो, जरा झील का पानी खतम हो गया तो हम लोग कहां जाएंगे? पानी का कोई अन्य स्रोत भी तो हमारे पास नहीं है। गांव के सभी लोग जानते थे कि वहां की मिट्टी उपजाई है, जिसमें वे सब्जी-भाजी के अलावा थोड़ा अन्न भी उगाते थे। वे यह भी जानते थे कि अन्य जगहों से जो लोग आ गए हैं उनके ही कारण परेशानी पैदा हो गई है। लेकिन वह जमीन उनकी नहीं थी। वे उन लोगों के वहां रहने का विरोध भी नहीं कर सकते थे। पेड़, पहाड़, नदी, झील तो सभी की होती है, अत: उसके लिए भी कुछ नहीं कर सकते थे।
गांव वालों को दीपू की कही बात समझ में आई। अत: वे लोग बारिश का पानी पहाड़ों से नालियों द्वारा झील तक लाने को तैयार हो गए।
गुड़िया खुशी से चहकी- मास्टर जी कहते हैं सब मिलकर काम करोगे तो झील का पानी भर जाएगी।
गांव के लोगों ने पहाड़ की निचली जगहों से नालियां खोदनी शुरू की। दस हाथों की जगह अब सैकड़ों हाथ जुड़ गए थे। इसी बारिश में झील पानी से भर गई। गांव वालों ने झील के आसपास फिर पौधे लगाए।
सभी मिलकर मिट्टी का काम करने वाली बस्ती में गए। गांव के बड़े-बुजुर्गों ने समझाया- तुम सबने हमारे गांव की रौनक छीन ली है। बच्चे बोल पड़े- न चिड़ियां आती हैं, न पेड़ों पर उनका कलरव अब सुनाई देता है, क्योंकि तुम सबने पेड़ काट लिए हैं। अब कोई पेड़ नहीं कटेगा, जो छोटे पौधे लगाए हैं, उनकी सभी रक्षा करेंगे।
गुड़िया ने कहा- झील के पानी को कोई गंदा नहीं करेगा। हम सभी उसका पानी पीते हैं।
उन लोगों को भी बात समझ में आ गई थी। सभी ने गांव वालों की मेहनत देखी थी, तभी झील पानी से भर पाई थी। सभी ने मिलकर निर्णय लिया कि हम पेड़-पौधे, पानी, झील की रक्षा करेंगे।
आज दीपू झील के पास खड़ा होकर सोच रहा था कि यदि हम पांचों बच्चों ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया होता तो झील सूख चुकी होती। छह वर्ष पूर्व लगाए पौधे आज पेड़ नहीं बने होते। पहाड़ से बहते .......................................................... ............................... बदल गया था। नालियां बनाने से खेती में पानी भरता था, जिससे फसल को फायदा होता था।
दीपू इंजीनियर बनकर गांव आया है सुनकर ओंकार, शंकर, राजू भी दौड़कर दीपू से मिलने आ गए। सभी की आंखें खुशी के अश्रुओं से भरी हुई थीं। आपस में सभी गले मिल रहे थे।
ओंकार ने बताया - गुड़िया की शादी नजदीक के गांव में हो गई है।
शंकर ने कहा- हम सभी गुड़िया से मिलने चलेंगे। वह बहुत खुश होंगी। उसका पति बहुत अच्छा है। डाकिया है। गांव में डाक लाकर देता है।
दीपू ने देखा पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। जैसे वे छोटे-छोटे थे जब यहां के पेड़ काटे गए थे। आज उन्हीं के लगाए पेड़ों पर चिड़िया बैठी अपनी-अपनी आवाजों में कलरव कर रही छीं, और बच्चे उनकी आवाजों की नकल भी कर रहे थे। जैसे गुड़िया पक्षियों की आवाजों की नकल करती थी।