पागलपन का इलाज,भाग-१ (कहानी)-प्रदीप कुमार साह
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बिहारी युवक आज भी बड़ी संख्या में आजीविकोपार्जन हेतु पड़ोस के प्रांत में पलायन करते हैं.वैसे युवक या तो किसी त्योहार के अवसर पर अथवा किसी आकस्मिक वजह से ही छुट्टी लेकर गाँव आते हैं.मैं भी कुछ दिनों की छुट्टी लेकर गाँव आया.अपेक्षित कार्य निपटने के पश्चात राहत अनुभव किया और छुट्टी के जो दो-चार दिन बचे थे उसे सकुन से मित्रो के साथ गुजारना चाहता था. किंतु गाँव में जान-पहचान के हमउम्र युवक के दर्शन भी दुर्लभ थे.
पूरे गाँव में सिर्फ औरत,बच्चे और बूढ़े ही नजर आते थे,जिन्हें काम पर तो कहीं जाना नहीं होता या अब कमजोर शारीरिक क्षमता की वजह से लाचार हो चुके थे.यद्यपि इसी गाँव के धूल-मिट्टी में खेल-कूदकर मैं भी बड़ा हुआ,आस-पड़ोस के सभी लोगों से मैं अच्छी तरह परिचित था और सभी भली-भाँति मुझे जानते थे. किंतु अभी मुझे छुट्टी के वे चार दिन भी अपने गाँव में गुजारना मुश्किल जान पड़ता था.आखिर कोई युवक बूढ़े-बुजर्गों के साथ कितने समय तक बैठ सकता है?
माना कि बुजुर्गों के पास बैठने से ज्ञान की प्राप्ति होती है,किंतु उस ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग और परीक्षण के लिये तो स्वयं के हमउम्र लोगों के चयन की आवश्यकता ही होती है.फिर एक युवक और एक बच्चे में उम्र,ज्ञान और विवेक में काफी अंतर होते हैं.फिर आज के उन बच्चों का सान्निध्य भी बेहद तकलीफदेह होते.क्योंकि वे उज्जड बच्चे पूरे दिन खेलते रहते और धमा-चौकड़ी मचाते, बड़े-बुजुर्ग द्वारा रोक-टोक करने पर उन्हीं पर पिल पड़ते और उन्हें खूब चिढ़ाते थे.तब बुजुर्ग स्वयं को ही रोक लेते,खुद ही संभलते और स्वयं ही को समझाने लगते कि जैसा कर्म करोगे वैसा फल देगें भगवान.
आखिर वे कर भी क्या सकते थे?मन मसोस कर रह जाना उनकी मजबूरी और नियति दोनों थी.क्योंकि उनके लाड़ले परदेश में होते थे और इधर सात्विक ज्ञान तथा मन पर स्व-नियंत्रण रहित एवं सुदृढ़ नेतृत्व विहीन कम पढ़ी-लिखी बहूएँ अपने बच्चे पर थोड़ी सी कड़ाई होने पर बिलकुल लड़ाई-झगड़ा करने पर उतारू हों जाती थीं.शायद बहूओं को भी बेसब्री से उसी अवसर के तलाश रहते,जब बच्चे के बहाने अपनी मनमानी के संरक्षण हेतु हरसंभव उपाय कर सकती थी.तब लगभग सभी तरीके से लगातार कई दिनों तक घर के बुजुर्गों पर अपनी खुनस निकालती रहती थीं.किंतु गाँव में बुजुर्गों की मुश्किलें उतनी ही कम नहीं थीं.
पहले तो बड़े दिनों के बाद जब उनके लाड़ले परदेश से छुट्टी पर गाँव आते भी तो उनके परिवार से दूर रहने की वजह से उपजे उनके प्रेम भूख के तृप्ति के उपाय के बदले उनके बीवी-बच्चों की शिकायत करना उन बुजुर्गों को स्वयं ही अच्छा नहीं लगता,फिर दूसरी बात यह थी कि कभी पोते-बहूओं की शिकायत करते भी तो लाड़ले को अपनी बीवी-बच्चों की शिकायत सुनना नागवार गुजरता.ऐसे में उन बुजर्गों का एकमात्र काम यही बचता कि वे अपना सारा ध्यान परिवार और समाज से हटाकर किसी चौराहे अथवा अन्य खाली जगह ढूंढ कर ताश की पत्तियों और जुए खेलने में केंद्रित कर ले,जो अब उनके दैनिक आदत में शुमार हो चुका था.इस तरह गाँव का माहौल बच्चे के पूरे उज्जड बनने में पूर्ण सहायक थे.बच्चे विद्यालय तभी जाते जिस दिन विद्यालय में सरकारी प्रसाद अर्थात बच्चों का पोषक आहार "खिचड़ी" मिलने(वितरण) की जानकारी उनके माताओं को होता.
उनके माताओं को इस बात की जानकारी गाँव के टमाटर मण्डली के जरिये होती थी.दरअसल पूरे गाँव में जो थोड़े युवक थे उनकी अपनी ही ख़ास मंडली थी और उनके विचार-व्यवहार से मेरे विचार के मेल न थे.क्योंकि वह मंडली उन युवाओं से बनी थी जो या तो अमीर बाप के बिगड़ैल बेटे थे अथवा होशियार और कमाऊ बाप के निठ्ठले बेटे थे. अथवा वैसे युवक थे जो दो पैसे कमाने परदेश जरूर गये किंतु मेहनत करने से घबड़ा कर वापस गाँव लौट आये और मंडली में शामिल होकर वैसे बिगड़ैल युवक के अर्दली कर अपना खर्च चलाने लगे.यद्यपि वह विशिष्ठ या शिष्ट मण्डली न थी,किंतु वह खासम-ख़ास टमाटर टाइप मंडली आवश्य थी.उस मंडली में अच्छे खासे गुण भी थे.
वह परदेश से कमाई कर वापस गाँव आने वाले प्रत्येक ग्रामीण बंधु के स्वागत में इस कदर जुट जाती मानो स्वयं ग्राम देवी अपने पुत्र-रत्न के लौट आने पर प्रसन्न और उत्साहित होकर मनुज रूप में पलक-पावड़े बिछाए खड़ी हो.वह मंडली एक जीवन संगनी की भाँति वैसे बन्धुओं के आस-पास तब तक मंडराती रहती जब तक उक्त बन्धु की जेब से उनका खर्च-पानी चलता रहता.जब इस मंडली को अनुभव होता कि अमुक बंदा अब कंगाली के कगार पर आ गया तो एक खड़ूस बाप के तरह घुड़कियाँ देना शुरू कर देता,"चल हट,बड़ा आया कमानेवाला. परदेश से चंद रुपये जेब में लेकर आने से थोड़े ना कोई पैसे वाला हो जाता है.अरे,हमारे तो दस दिन के जेबखर्च भी तुम्हारे महीने भर के पगार से ज्यादा आते हैं.पैसे के भूखे, फिर भी परदेश जाना चाहते हो......."
वह बानगी तो उस मंडली के शुरुआती घुड़कियाँ मात्र हैं.किसी बंधु के जेब जब पूरे खाली होने की स्थिति में होती तो वह वापस परदेश जाने के लिये कभी उतना विवश पत्नी और बच्चे के कोलाहल से होते,ना होते जितना इस मंडली के बारंबार के घुड़की और कूट से आजिज आकर आवश्य हो जाते थे.यद्यपि इस मंडली के शिकार मुझ जैसे ऊँगली पर गिनती के चंद युवक ही नहीं बनते थे,क्योंकि उन्हें शुरू से पता होता कि इस जैसे मक्खीचूस के पीछे समय और मेहनत लगाना पानी में इमारत खड़ी करने की कोशिश के जैसे बर्बाद जाने हैं.हाँ,इससे मंडली की भृकुटी हम जैसे लोगों पर सदैव तनी आवश्य रहती है कि बंदा कहीं तो थोड़ी सी गलती करे कि उसे कब किसी मामले में फाँस सकूँ.
ऐसा नहीं था कि सभी इस मंडली से परेशान ही थे.बच्चे और नई-नवेली पर इस मंडली के विशेष दया-कृपा बनी रहती थी.बच्चों का पोषक आहार विद्यालय में कब मिलेगा,यह उनको पक्का पता होता था.इस तरह बच्चे रोजाना विद्यालय गए बिना भी पोषक आहार से वंचित नहीं रहते थे.इसके लिये मंडली के कुछ सदस्य वकायदा विद्यालय के शिक्षक से भी मिलते-जुलते रहते थे.कभी कभी तो विद्यालय में छात्रों की नगण्य उपस्थति की वजह से शिक्षक भी उन्हें ही ढूँढ़कर उन्हीं के जरिये बच्चों के पोषक आहार मिलने सम्बंधी सुचना से बच्चों को इत्तिला करते थे.उस मंडली ने बच्चे के नित्य विद्याध्यन करने विद्यालय जाने के उसूल के खिलाफ भी आवाज बुलंद कर रखे थे.
यदि कोई बुजुर्ग अपने प्रपौत्र को विद्यालय जाने के लिये डांट-फटकार लगाते और इस सम्बंध में उनकी अपने बहू से हल्की सी नोंक-झोंक भी हो जाती तो वह मंडली तत्क्षण किसी बोतल की जिन्न की भाँति हाजिर हो जाता और बुजुर्गों का ध्यान दहेज प्रताड़ना कानून की तरफ आकृष्ट करते. यदि संयोग से उक्त बुजुर्ग के उक्त लाड़ला अर्थात उक्त बहू के पतिदेव परदेश से वापस गाँव पधारे होते और वैसे वक्त में बुजुर्ग के पक्ष में खड़े होते या मूक दर्शक बने पिता और पत्नी के तमाशा ही देख रहे मात्र होते तो वह मंडली उसे दहेज प्रताड़ना के साथ-साथ शारीरिक उत्पीड़न, बगैर सहमति के संभोग अर्थात रेप,धोखाधड़ी अथवा घर-गृहस्थी खर्च हेतु डाक से मनीऑर्डर नहीं भेजने की स्थिति में जान-बूझकर मानसिक प्रताड़न करने जैसे अन्य क़ानूनी पचड़े में फंसाने की धमकियाँ देता.
खैर वह जो कुछ भी थे,उस मंडली के जिन्न के तरह तुरंत हाजिर हो जाने की प्रवृति की वजह से उस परिवार में मजेदार संदेश ही जाते.बच्चों को विद्यालय जाकर मोटी-मोटी किताबों में अपना भेजा पकाने से मुक्ति मिल जाती,बुजुर्गों को अपने चौथपन के स्मरण हो आते कि उन्हें सचमुच अब मोह-माया का त्याग करनी चाहिये और संयास सह वानप्रस्थ जीवन अंगीकार कर लेनी चाहिये.नयी-नवेली अर्थात अबलाओं में अपने ससुराल में ही अपने पितृ अथवा सहोदर बड़े भाई के अनमोल संरक्षण प्राप्ति के सुख का अनुभव होता.और उस अबला के भलमनसाहत पतिदेव उस मंडली के ततपरता और तीव्रता देखकर प्रभावित होते कि चलो,उनके परदेश गमन और अनुपस्थिति में उसके पत्नी के प्रति वह मंडली एक बांके चौकीदार मंडली के कर्तव्य तो उसी तेजी-तीव्रता और प्रचंडता से निभायेंगें.
कदाचित दम्पत्ति मामलों में वैसे उग्रता और तीव्रता से दखल देंने से हमारे एक्के-दुक्के ग्रामीण बंधु उक्त मंडली के प्रति चिंतित भी थे.उन्हें मंडली के नेक-नियत पर शक था.किंतु इसमें उस ग्रामीण बंधु के चरित्र के कोई दोष नहीं,बल्कि दोष उनके रूढ़ और पुराने सामंती विचार धारा की थी जो उन्हें अपने बंधन से मुक्त ही नहीं करते.उस विचार धारा की पहली मान्यता यह हैं कि जोरू,जमीन जोर (सामर्थ्य)के, नहीं तो किसी और का.भई, जोरू और जमीन को जब तक एक वस्तु मानते रहोगे,जब तक अपने सामर्थ्य के झूठे दंभ में जीते रहोगे तभी तक उपरोक्त चिंताएं तुम्हें तड़पाती रहेंगी. उन्हें साक्षात चंचला श्रीलक्ष्मी जी और उनके कृपा स्वरूप नहीं समझने के और क्या प्रतिफल हो सकते हैं?
अस्तु,उसी संकीर्ण सामन्तवादी विचार धारा की अगली मान्यता है कि स्त्री अबला होती हैं.भई स्त्री अबला नहीं होती अपितु प्रकृति स्वरूप हैं,साक्षात सृष्टि कारिणी और संहार कारिणी हैं.वही पवित्र रूप से महागौरी हैं.काली,महाकाली और कालरात्रि स्वरूप में उसी अबला के हाथों महिषासुर जैसे असुरादि सामन्तवादी विचार धारा के परुषों की हालत तबला वाद्ययन्त्र से नाजुक हो जाते हैं.फिर संसार में रहकर कोई का-पुरुष स्त्री से विरक्त हो नहीं सकते और ना सामान्यजन हेतु स्त्री-विरक्ति उचित हैं,क्योंकि वैसा करने से सृष्टि के अस्तित्व और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेंगे तथा स्वयं के कर्तव्य एवं जिम्मेदारी से च्युत होना निश्चित है.फिर शादी के लड्डू जो ना खाये सो पछताये, जो खाये सो पछताये फिर पछता-पछता कर खाये?
अतः उत्तम दांपत्य सुख प्राप्ति हेतु उत्तम दांपत्य सुख भोगने वालों को अपना आदर्श बनाना और उनके गुण ग्रहण करना ही उत्तम होंगें.वैसे उत्तम आदर्श और प्रेरणा श्रोत बैकुंठाधिपति और कैलाशेश्वर से बढ़ कर कौन होंगें? अतः हमे उन्हीं के गुणों का अनुसरण करना चाहिये.बैकुंठाधिपति हमेशा अर्ध-ध्यानावस्था में होते हैं और कैलाशेश्वर तो अधिकांश समय पूर्ण ध्यानस्थ होते हैं.शायद वे अपनी शक्ति की ध्यान लगाते हैं,शक्ति ही तो सब कुछ हैं,वह जगत जननी पार्वती हैं,श्री लक्ष्मी हैं और उनकी अर्धांगनी भी हैं.अतः हमे भी अपने-अपने पत्नियों का ध्यान लगाना चाहिये तभी उत्तम दांपत्य सुख प्राप्त होंगे.भई मैंने तो तय कर लिया कि मुझे उन्हीं के अनुसरण करने हैं.
मेरे फैसले सुनकर हमारे वैसे ग्रामीण बंधु आवश्य चौंक जायेंगे.शायद हर कोई चौंक जाये, किंतु गुण-अवगुण से रहित क्या एक भी संसारिक प्राणी हैं?तब किसी स्त्री के अवगुण को नजर-अंदाज कर यदि उसे देवी स्वरूप में नहीं देखे जा सकते तो उसके गुण को नजर-अंदाज कर उसे नाचीज या एक उपभोग की वस्तु मात्र क्यों समझना चाहिये? प्रकृति के यह शाश्वत नियम हैं की जिस किसी चीज के क्षेत्र या उसके अधिकार का अत्यधिक अतिक्रमण हो अथवा आवश्यकता से अधिक छूट मिल जाय वही चीज घातक हो जाते हैं.फिर वह हमारे ही समान गुण-अवगुण युक्त हैं तब वह अबला कैसे हैं और उसे समानता का अधिकार क्यों न हो? फिर अधिकार के साथ स्वत: ही कर्तव्य जुड़े होते हैं और दोनों की प्राप्ति और रक्षा के लिये स्वयं संघर्ष करने और जागृत रहने होते हैं,फिर कर्म फल सिद्धांत के अनुगामी होने होते हैं.
ये लो,मुद्दे से भटक कर पगला वह सब क्या अंट-बंट लिख दिया. कहाँ तो गाँव के टमाटर मंडली की बातें कर रहा था और कहाँ अंट-बंट लिख दिया?...सचमुच एक गवाँर और देहाती ही हूँ न,अपनी व्यथा-कथा से बंधे रहना और उसे सिलसिलेवार तरीके से सामने रखने-बताने के गुण अथवा एक किस्सागो के मंजे गुण तो दूर-दूर तक नही मुझमें.हाँ,... तो वैसा नहीं था कि सभी उस मंडली से परेशान ही थे.पंचायत चुनाव से विधान सभा और लोक सभा के चुनाव के समय में यह मंडली उम्मीदवारों के विशेष चहेते होते थे.ग्रामीणों के बीच मंडली की धमक भी थी और वे ग्रामीणों के प्यारे भी थे ही, जिससे मन-माफिक उम्मीदवारों को वोट दिलावा कर विजयी बना सकते थे.फिर उसके एवज में मंडली पर नेताओं का छत्रछाया भी पड़ जाता.भला जिस मंडली पर नेताओं का छत्रछाया हो उसकी बातें अफसर न सुने,उस मंडली से कोई ना डरे वह किस तरह संभव हो सकते हैं?फिर जिसके तूती चहुँ ओर हो भला उसे गुणहीन कौन कहे और वह किसे प्यारा न हो?
और एक कमबख्त मैं था जिसके विचार-व्यवहार ही उक्त मंडली के विचार से मेल न खाते थे.शायद इसी गलती के प्रतिफल स्वरूप मुझे छुट्टी के वे चार दिन भी अपने गाँव में गुजारना मुश्किल जान पड़ता था.किंतु कहते हैं न कि हारे के हरि नाम,सो तब मुझे भी हरि के नाम के स्मरण हो आये. हरि नाम के स्मरण के साथ ही मेरी बाँछें खिल गई.अरे,इस नाम से तो मेरे पुराने रिश्ते हैं.मेरी माँ अकेले में जब-तब भागवत भजन गाती थीं और पिताजी शिव नाम जपते थे,इसलिये जब मैं छात्र जीवन जी रहा था और परीक्षा सिर पर होते थे तब बकायदा मन ही मन भगवत नाम जपता था.फिर भगवत नाम के मनन से वैसा चस्का लग गया कि गाँव के बुजर्गों के एक मानस सत्संग मंडली में आने-जाने लगा और वह चस्का मेरे परदेश गमन तक कायम रहे.
तब उसी कथा श्रवण आनन्द का स्मरण करते हुये मेरा गाँव में उस जगह पहुँचना हुआ जहाँ पूर्व समय में गाँव के कुछ बुजुर्ग सत्संग करने इकट्ठा होते थे.संयोग से तत्समय वहाँ सत्संग कार्यक्रम जारी थे.(क्रमशः भाग-२में)