Is budhe ko kahi dekha hai in Hindi Short Stories by Ratan Chand Ratnesh books and stories PDF | इस बूढ़े को कहीं देखा है

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इस बूढ़े को कहीं देखा है

इस बूढ़े को कहीं देखा है

‘‘कल छुट्टी है क्या?’’ शाम को सात बजे दफ्तर से निकलते हुए मनोज ने विशाल से पूछा।

‘‘क्यों कल क्या है जो छुट्टी रहेगी?’’

‘‘मैं अपनी छुट्टी की बात नहीं कर रहा। हमारी तो वैसे भी संडे को छोड़कर साल भर में ले-देकर पांच-सात से अधिक छुट्टियां नहीं बनतीं। कई बार वे भी इमरजेंसी वर्क या मीटिंग की भेंट चढ़ जाती हैं। मैं तो पब्लिक होलीडे की बात कर रहा था यार।’’

धीरे-धीरे सीढि़यां उतरकर वे दफ्तर से बाहर निकल आए और हर दिन की तरह टहलते-टहलते सामने सड़क के साथ एक पेड़ के नीचे बैठे पान-सिगरेट विक्रेता के पास जा पहुंचे।

मनोज ने एक सिगरेट सुलगाकार उसक धुआं ऊपर पेड़ की ओर फेंका। पेड़ को भी शायद बुरा लगा। अभी कुछ देर पहले वह हवा में झूम रहा था, अब अचानक नि​ष्क्रिय-सा हो गया।

दोनों वहां से हटकर सिगरेट का कस लगाने लगे। पेड़ के पत्ते फिर से हिले।

‘‘टीचर की पोस्ट के लिए कल रेनू का इंटरव्यू है। कल कहीं सरकारी छुट्टी न हो। एक बार इंटरव्यू कैंसल हुआ तो समझो कई महीने लटके।’’ मनोज अपनी पत्नी की नौकरी के प्रति चिंतित दिख रहा था।

‘‘पर कल छुट्टी होने का सवाल ही नहीं खड़ा होता। न शिवरात्रि है और न होली। 26 जनवरी भी अभी-अभी बीता है।’’

‘‘यार कल गांधी जी की पुण्यतिथि है न?’’

‘‘पर मेरे ख्याल से गांधीजी की पुण्यतिथि पर पब्लिक होलीडे नहीं होती। सिर्फ 2 अक्तूबर को उनके जन्मदिन पर छुट्टी होती है।’’

‘‘आर यू श्योर?’’ मनोज तसल्ली कर लेना चाहता था।

‘‘हां यार, अपन जनरल नाॅलेज में इतने गए गुजरे भी नहीं। उस पर मेरे पिताजी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं। सरकारी छुट्टियों की कुछ जानकारी मुझे भी है।’’ विशाल ने जब मनोज से कहा तो उसने एक तर्क गढ़ा।

‘‘यार तेरे पिताजी कब के रिटायर हो चुके हैं। जरूरी नहीं कि जो छुट्टियां उनके जमाने में न होती हों, अब भी नहीं होती होंगी।..... तुझे पता है, पिछले दिनों मैं किसी अखबार में पढ़ रहा था कि इस साल सरकारी कर्मचारी साल के 365 दिनों में से केवल 200 दिन ही काम करेंगे। बाकी दिनों छुट्टियां मनाएंगे यानी कि सार्वजनिक अवकाश।’’

‘‘यह तो गलत है यार। ऐसे भला देश कैसे तरक्की करेगा? ये सरकारी कर्मचारी वैसे भी काम के मामले में बड़े सुस्त होते हैं। इसीलिए तो एक सरकारी कर्मचारी होते हुए भी मेरे पिताजी ने हमेशा सरकारी नौकरी के लिए मुझे हतोत्साहित ही किया। उस पर ये ही नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते रहते हैं। न जाने कितने लोगों के जरूरी काम इन सरकारी कार्यालयों में महीनों-सालों फंसे रहते हैं।’’

उनकी बातें सुनकर वहां जोरदार ठहाके की एक तीसरी आवाज सुनाई दी। मनोज और विशाल दोनों चौंककर इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा कि सड़क के किनारे जहां वे खड़े थे, वहीं एक बूढ़ा पास ही खड़े खाली आॅटो-रिक्शा पर बैठा हुआ था। वही उनकी बातों पर हंस रहा था। सिगरेट सुलगाकर वे उससे अनजान उसके पास ही खड़े होकर बातें कर रहे थे।

उस बूढ़े ने उन्हें इशारे से अपने पास बुलाया।

‘‘खड़े क्यों हो बाबू?... इत्मीनान से इस आॅटो-रिक्शा पर बैठ जाओ। पता नहीं कब से यह आॅटो यों ही खड़ा है। शायद इसका मालिक किसी काम से कहीं गया हुआ है। यहीं मेरे पास बैठकर बातें करो।’’

मनोज और विशाल को उस बूढ़े की शक्ल जानी-पहचानी सी लगी। एक चिर-परिचित बिसुरी-सी मुस्कान। कहीं देखा है इसे? कहां देखा है ख्याल नहीं आ रहा। पर एक सम्मोहन के वशीभूत वे दोनों उस आॅटो-रिक्शा की खाली सीटों पर जा बैठे। अपनी सफेद धोती संभालते हुए बूढ़ा भी आगे की सीट पर जा बैठा। अच्छी-खासी ठंड होने के बावजूद उसने एक मामूली-सा स्वेटर पहन रखा था।

विशाल ने अंतिम कस लेकर सिगरेट को एक ओर फेंकते हुए कहा, ‘‘हमारी बातों पर तुम इतनी जोर से क्यों हंसे बाबा?’’

बूढ़े ने पूर्ववत् हंसते हुए कहा, ‘‘इसलिए कि तुम नियम-कानून की बात कर रहे थे और खुद उसे धुएं में उड़ा रहे थे।’’

मनोज ने पूछा, ‘‘क्या मतलब? हम समझे नहीं। हम कौन-सा नियम-कानून भंग कर रहे थे?’’

‘‘बस बेटा, यही तो बात है। हमें याद ही नहीं रहता या यों कह सकते हैं कि जिस नियम-कानून पर हम अमल करना नहीं चाहते, उसे याद भी नहीं रखते। उस पर नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाना आप जैसे पढ़े-लिखे नौजवानों का फैशन-सा हो गया है। कभी ट्रैफिक-लाइट का उल्लंघन कर किसी और की जान आफत में डाल देते हो, कभी नियमों को दरकिनार कर अपनी मनमर्जी किए जाते हो। झूठ, फरेब जैसे तरह-तरह के हथकंडे। बहुत कुछ दिख रहा है, पर हम देखकर भी जानबूझकर नहीं देख रहे हैं। है न?’’

मनोज की त्योरियां चढ़ने लगीं। उसने मन ही मन कहा, उपदेश देने के लिए इसे हमीं मिले थे इस वक्त। इन बूढ़ों के साथ यही मुसीबत है। जब इनसे कोई बातचीत नहीं करना चाहता तो इन्हें जो मिल जाय, उन्हें ही धर्म, नैतिकता और आदर्श का पाठ पढ़ाने लगते हैं, जबकि अब वह दकियानुसी जमाना नहीं रहा। अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जीत तभी होती है जब येन-केन-प्रकारेण सफलता की सीढि़यां चढ़ते चले जांय।

इसके विपरित विशाल कुछ और ही सोचे जा रहा था। ‘‘यह बूढ़ा कोई अनपढ़-गंवार नहीं। कोई पहुंची हुई चीज है। वेश बदलकर कुछ जानकारी जुटाने आया हो जैसे।’’

वह मनोज का स्वभाव अच्छी तरह जानता था। उसने उसके अंदर उफन रहे गुस्से को भांप लिया और उसकी बांह पर अपनी दायीं हथेली का दबाव बनाते हुए कहा, ‘‘मनोज, बाबा ठीक ही कह रहे हैं। हमारे शहर में कुछ सालों से सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध है और उसके बाद 2 अक्तूबर महात्मा गांधी के जन्मदिन पर ही इसे पूरे देश में लागू किया गया था। इसके बावजूद हम यहां सरेआम उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं।’’

बूढ़ा पहले की तरह हंसा, ‘‘चलो, अच्छा है। कम-से-कम तुमलोगों में गलतियों को स्वीकार करने का साहस तो है।....... वरना मैं इसके लिए तैयार बैठा था कि तुमलोगों के हाथों से दो-चार कहीं पड़ न जांय। द ग्रेट यंगिस्तान.......बहरहाल तुमलोगों को अपने बचपन की एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूं----

‘‘अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी को यह ख्याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा है, अथवा उसकी गंध में आनंद है। पर हमें लगा कि सिर्फ धुंआ उड़ाने में ही कुछ मजा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआं उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूंकने की इच्छा हुई। गांठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काका जी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूंठ फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया। पर बीड़ी के ठूंठ हर समय मिल नहीं सकते थे और उनमें से बहुत धुआं भी निकलता था। इसलिए नौकरों की जेब में पड़े दो-चार पैसों से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे। पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहां? हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया। इस बीच सुना कि एक प्रकार का पौधा होता है, जिसका नाम मैं भूल रहा हूं, उसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फूंके जा सकते हैं। हमने उन्हें प्राप्त किया और फूंकने लगे। पर हमें संतोष नहीं हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुःख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम उब गए और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया।

बूढ़ा अपनी कहानी सुना ही रहा था कि मनोज का मोबाइल बज उठा। उसने एक निगाह मोबाइल पर डाली और कान से लगाते हुए उधर से आ रही आवाज का उत्तर यों दिया, ‘‘बस थोड़ी देर में पहुंच रहा हूं।’’

फोन शायद उसकी पत्नी रेनू का था, पर वह बूढ़े की इस दिलचस्प कहानी को बीच में छोड़कर नहीं जाना चाहता था। उसी ने बूढ़े से इसरार किया, ‘‘फिर क्या हुआ बाबा?’’

बूढ़े की झुर्रियां मुस्कुरायीं, ‘‘...... पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दे? इतना सुलभ नहीं था उन दिनों। हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आए। शाम का समय तय किया। केदारनाथ जी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकान्त खोज लिया। पर जहर खाने की हिम्मत नहीं हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाये। अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी। दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि राम जी के मंदिर में जाकर दर्शन करके शान्त हो जांय और आत्महत्या की बात भूल जांय।

बूढ़े ने अपना गोल फ्रेम का चश्मा उतारा और उसे धोती से रगड़ते हुए कहने लगा, ‘‘मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं। इसलिए कोई आत्महत्या करने की धमकी देता है, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर होता ही नहीं।

उसने चश्मे को फिर से अपने कान से टिकाया और सड़क पर अंधाधुंध भगायी जा रही एक मोटरसाइकिल की रफ्तार को दूर तक पकड़ने की कोशिश करते हुए एक बार फिर ‘यंगिस्तान’ बुदबुदाकर अपनी कहानी जारी रखी।

‘‘आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फूंकने की आदत भूल गए। फिर बड़ेपन में बीड़ी-सिगरेट पीने की कभी इच्छा नहीं हुई। मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी-सिगरेट का इतना जबरदस्त शौक क्यों है, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूं। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी-सिगरेट पी जाती है, वहां बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और उसके धुएं से मेरा दम घुटने लगता है। बीड़ी के ठूंठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गम्भीर मानता हूं। बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर बारह-तेरह साल की रही होगी, शायद इससे कम भी हो।’’

इतना कहकर बूढ़ा चुप हो गया। उसकी कहानी खत्म होते ही मनोज और विशाल सम्मोहन की स्थिति से बाहर निकले। शहर के बढ़ते अंधेरे में रोशनियों की जगमगाहट चारों ओर पसरकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी थी। पान-सिगरेट वाले के पास एक मद्धिम-सी रोशनी सिमटी हुई थी, कुछ स्ट्रीट-लाइट की और कुछ उसके पास जलते लैम्प की। हेड-लाइटों से आंखों को चुंधियाते वाहन अपनी-अपनी दिशाओं में भागे जा रहे थे।

मनोज ने अपनी कलाई-घड़ी पर एक उचटती-सी निगाह डालते हुए कहा, ‘‘विशाल बहुत देर हो गई। अब निकलते हैं। रेनू भी परेशान हो रही होगी।’’

दोनों आॅटो-रिक्शा से वैसे उतरे जैसे अभी-अभी कोई कला-फिल्म देखकर थियेटर से बाहर निकले हों। बूढ़ा उन्हें अपलक देखे जा रहा था। उसे अपनी कहानी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं चाहिए थी और न इसकी उम्मीद थी। ऐसी कहानियां हल्की-फुल्की होने के बावजूद विचारों के सागर में बहुत देर और दिनों तक लहरें पैदा करती रहती हैं। बूढ़े की उम्र भी इतनी नहीं थी कि उन पर अधिक सोच-विचार करे। उसके गोल चश्मे के फ्रेम में मुस्कुराहट चमक रही थी।

‘‘अच्छा बाबा, हम चलते हैं।’’ कहकर दोनों ने आपस में हाथ मिलाया और अलग-अलग दिशाओं की ओर बढ़ गए। अभी-अभी हवा की तरह उड़कर आई एक कहानी उनके साथ कहां तक गई, यह कहना उतना ही मुश्किल है जितना इस बूढ़े को पहचानना। दोनों के मस्तिष्क में रह-रह कर फिर से वही ख्याल आने लगा कि इस बूढ़े को कहीं देखा है।..... पर कहां देखा है........?

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