संस्मरण
वे दिन जो
कभी ढले नहीं
श्याम बिहारी श्यामल
लेखक परिचय
श्याम बिहारी श्यामल
1998 में छपे अपने उपन्यास ‘ धपेल ‘ से साहित्य जगत में छा जाने वाले कथाकार श्याम बिहारी श्यामल ने कविता, कहानी, लघुकथा, वयंग्य, संस्मरण, आलोचना और रिपोर्ताज से लेकर वृहद उपन्यास तक सभी विधाओं में लेखन-कार्य किया है। हाल के वर्षों में उन्होंने अथक परिरम करके महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर वृहत औपन्यासिक कृति ‘कंथा’ की रचना की है जो हिन्दी की बहुप्रतिष्ठित पत्रिका ‘नवनीत’ में तीन साल तक धारावाहिक छपकर चर्चे में है। वह पेशे से पत्रकार और दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण में मुख्य उप संपादक हैं।
डाक का पता : सी. 27 / 156, जगतगंज, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
ई मेल आईडी :
shyambiharishyamal1965@gmail.com
मोबाइल फोन नं : 09450955978
प्रकाशित कृतियां : धपेल ( उपन्यास / राजकमल
प्रकाशन, 1998 , प्रेम के अकाल में ( कविता-
पुस्तिका / प्रथम प्रकाशन, 1998 , अग्निपुरुष (
उपन्यास / राजकमल पेपरबैक्स, 2001, चना चबेना गंग-जल ( ज्योतिपर्व प्रकाशन / 2013)
लकुकथाएं अंजुरी भर (सत्यनारायण नाटे के साथ साझा संग्रह / सांप्रत प्रकाशन, 1982)।
वे दिन जो कभी ढले नहीं
रात तन्हाई की छत पर कटती रही
चांद अपने झरोखे से झांकता रहा
दो पंक्तियों का यह काव्यांश बीती शताब्दी के अस्सी के दशक के किसी शुरुआती साल में मेरे मनोमस्तिष्क पर ऐसा छपा कि आज तक जस का तस अंकित है। यह है पलामू के सुकवि हरिवंश प्रभात के एक गीत का आरंभिक अंश। अब ठीक-ठीक स्मरण नहीं कि पहली बार मैंने इसे कहीं मुद्रित रूप में पढ़ा था या स्वयं कवि ने संग-साथ चलते-फिरते हुए कभी यों ही कहीं सुना दिया था! स्वयं का लिखना चाहे जैसा बनता आया हो, पढ़ने के बारे में इतना तो दावा किया जा सकता है कि अखबारी नौकरी की इस ध्वस्त दिनचर्या में जब कभी भी कुछ पठनीय सामग्री चुनने का मौका मिला है, भरसक श्रेष्ठ और अत्यावश्यक ही उठाता रहा हूं। इस दौरान कितना-कुछ दिमाग पर चढ़ता चला गया, इसका हिसाब नहीं।
असंख्य काव्यांश ही नहीं, आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कई लेख और प्रेमचंद-जयशंकर प्रसाद सरीखे अपने महान पुरखे-पुरनियों की अनेक रचनाओं के पैरेग्राफ के पैरेग्राफ मुझे कंठाग्र होते चले गए! स्मृति-पृष्ठ पर हुई यह कुछ ऐसी छपाई है जिसकी स्याही में आज भी वही सुगंध से भरी मौलिक चमक कायम है!
आज यह सोचते हुए चकित हूं महान रचनाकारों की बहुचर्चित रचनाओं के अंशों की इस यशस्वी स्मृति-श्रृंखला में कैसे एक छोटे-से स्थान के प्राय: ख्याति-वंचित कवि हरिवंश प्रभात का यह लगभग अर्चित काव्यांश भी शामिल हो गया! मानना ही पड़ेगा कि इसमें वह तत्व अवश्य विद्यमान है जो प्रज्ज्वलित काव्यानुभूति की रचना करता है! इसे छोटी जगह की बाड़ेबंदी का दुष्परिणाम या रोजी-रोटी की मार से उत्पन्न विफलता का ही सटीक उदाहरण भी कहेंगे कि ऐसी पंक्तियां लिखने की क्षमता रखना वाला यह कवि उस फलक को नहीं छू सका जहां उसे पहुंचकर चमकना चाहिए था। आज हिन्दी साहित्य में कविता या गीत का जो मानचित्र उभर रहा है उसमें हरिवंश प्रभात का मुकाम कोई शायद ही खोज पाये!
यहां यह कहना भी जरूरी है कि यह वस्तुतः कवि की नहीं बल्कि हमारे उस समय-समाज की सीमा है जहां किसी ऐसे कवि को अपनी रचना-क्षमता के संपूर्ण प्रयोग की गुंजाइश ही नहीं मिल पा रही, जो व्यक्तिगत तौर पर किसी बड़े पद या हैसियत वाला न हो। हरिवंश प्रभात चूंकि एक प्राइमरी टीचर रहे और कवि-स्वभाव के कारण अपनी जिम्मेवारी को अधिकतम ईमानदारी के साथ निभाने वालों में से एक, लिहाजा पूरे सेवा-काल के दौरान पलामू के सुदूर ग्रामीण अंचलों से लेकर पहले अपने पैतृक गांव कोयल-पार के पूर्वडीहा और बाद में डाल्टेनगंज के हमीदगंज मोहल्ले की रिफ्यूजी कॉलोनी तक की अथक दौड़ लगाते और अनवरत धूल फांकते रह गये। यद्यपि इन पंक्तियों के लेखक को दुर्भाग्यवश उनके पिछले तीन दशक के दौरान के रचना-प्रयासों की विधिवत् जानकारी नहीं है किंतु यह तो प्रकट ही है कि या तो हरिवंश प्रभात अपनी रचना-क्षमता का संपूर्ण प्रयोग नहीं कर सके या छोटी जगह का दंश झेलते हुए ही उस ख्याति से वंचित रहे जो उन्हें मिलनी चाहिए थी।
जबसे यह सूचना मिली है कि पलामू में कुछ लोग उनके व्यक्तित्व-कृतित्व को रेखांकित करने के लिए कोई ग्रंथ छपाना चाहते हैं और इसमें मुझसे भी कुछ रचनात्मक योगदान की अपेक्षा की जा रही है, जितना ही प्रसन्न हूं उससे कहीं अधिक परेशान कि उन पर लिखना कहां से शुरू करूं, क्या-क्या लिखूं! मेरे पास उनसे संपर्क के कुछ ही सालों की किंतु ढेरों स्मृतियां हैं! सबसे पहली बात तो यही कि जिन दिनों मेरे मन में साहित्य-प्रेम के मेघ-खंड तैयार हो रहे थे, मैं हरिवंश प्रभात के साथ परिचित हो गया था। माध्यम बना था मेरा अतिशय पत्राचार का स्वभाव। आज जबकि एसएमएस और मेल से किसी को संदेश भेजना चुटकी बजाते ही संभव हो गया है और यह संस्मरण ही उस ब्लॉग पर लिखा जा रहा है जिसे ‘पोस्ट’ का एक क्लिक दबाते ही सेकेंडों में दुनिया भर में पढ़ा जा सकेगा ; बिल्कुल समकालीन पीढ़ी के लोगों के लिए उस बेचैनी को ठीक-ठीक समझना आसान नहीं होगा कि गहरी जिज्ञासा और गहन साहित्यिक प्रेम के तहत अपने प्रिय रचनाकारों को पत्र लिखने वाले किसी नौसिखुए के लिए पत्रोत्तर का प्रतीक्षा करना कितना यातनापूर्ण होता था! तो, प्रतिदिन साहित्यकारों को कम से कम आधा दर्जन पोस्टकार्ड लिखना और बेचैनी के साथ राह ताकते हुए डाकिये से इतने ही प्राप्त कर परम प्रसन्न हो जाने की दिनचर्या! पत्राचार भी ऐसे बड़े-बड़ों से, जो यदि सचमुच कहीं साक्षात दिख जायें तो उनके सामने शायद ही जुबान खुल पाये! संपर्क के लिए जिन्हें पत्रों से दस्तक देता था उनमें हरिवंशराय बच्चन, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, अमृत राय, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, विष्णु प्रभाकर, विमल मित्र, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी ताबां आदि-आदि जैसे बड़े-बड़े नाम शामिल थे। अपने शहर के बहुप्रतिष्ठित 'अभ्युदय हिन्दी साहित्य समाज पुस्तकालय' का सदस्य बन गया था। यहां कुछ पढ़ाकू दोस्त बने जिनमें से चेहरे तो कई के अब भी आंखों के सामने घूम रहे हैं किंतु नाम एक ही ध्यान में आ रहा है सुरेंद्र कुमार मिश्र। यह कॉलेज में सहपाठी भी रहे और फिलहाल दिल्ली में उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत करते हैं। स्मृतियों में सुरेंद्र का वह किशोर या युवा चेहरा ही अब भी कायम है। वह विद्यार्थी परिषद से जुड़ा था और हमेशा खादी का कुर्ता-पायजामा झाड़े रहता। हमीदगंज में पत्थर मिल के पास मंदिर के निकट ही उसका निवास था। लगभग तीन दशकों से भेंट तो नहीं हो सकी किंतु हाल ही सुरेंद्र ने कहीं से मेरा संपर्क नंबर खोज कर मोबाइल फोन पर बात की है इस जुमले के साथ ' देखो मैंने तुम्हें इतने दिनों बाद डिस्कवर कर ही लिया'। उनि दिनों मेरे लिए सुरेंद्र का तकयाकलामी संबोधन होता 'कवि'। हमलोग पुस्तकालय से नियमित पुस्तकें लेने वालों में थे। पुस्तकालय वालों से लड़-झगड़ कर मैं रोज चार-पांच पुस्तकें उठा लाता। दूसरे दिन वापस कर फिर इतने ही ले लेता। पहले तो कर्मियों ने संदेह किया कि मैं यों ही पुस्तकें लेता-देता हूं किंतु बाद में जब वे प्रश्न आदि पूछकर आश्वस्त हो गये कि मुझे समझ में चाहे जितनी आती हों किंतु किताबें पढ़ तो सभी जाता हूं, वे जमा जमानत-राशि की सीमा की परवाह छोड़कर उसके मुकाबले तिगुने-चौगुने मूल्य की महंगी-महंगी किताबें भी स्वयं खोज-खोज कर देने लगे। पुस्तकालय के सभी कर्मियों के चेहरे अब भी आंखों के सामने घूम रहे हैं किंतु नाम एक ही याद आ रहा है- 'लाला जी'। बुजुर्ग व्यक्ति। कौन किताब किस कमरे में कहां किस आलमारी में है, यह सब उन्हें जैसे एकदम याद हो। लाला जी जेलहाता में 'जगत कुटीर' के पास रहते थे।.. एक बार हमें पता चला कि पुस्तकालय कर्मियों को वेतन समय पर नहीं मिलता तो हमने अखबार में समाचार छाप दिया। अच्छा-खासा बावेला मचा लेकिन अंतत: कर्मियों को फायदा ही हुआ।..
तो, उसी पुस्तकालय में पहली बार दिखी अपने शहर के एक कवि की किताब। नाम ‘बढ़ते चरण’, कवि हरिवंश प्रभात! बगल में खड़े लाला जी ने यह बताने में जरा भी देर नहीं कि यह पलामू के ही एक कवि की रचनाओं का संग्रह है। आलमारियों में सजी दिल्ली के राजकमल-राजपाल जैसे प्रकाशकों की सुंदर-स्वस्थ पुस्तकों के मुकाबले बहुत दीन-हीन प्रोडक्शन, किंतु मेरे लिए यही सर्वाधिक आकर्षण और सुखद आश्चर्य की बात कि यह अपनी ही धरती के रचनाकार की कृति है, जिनसे संपर्क साधा जा सकता है! हालांकि किताब नियमानुसार पुस्तकालय को उन्हीं दिनों वापस हो चुकी और जहां तक याद है फिर दुबारा हाथ में नहीं लौटी किंतु आज भी मेरी आंखों के सामने उसका ढांचा-भूगोल घूम रहा है। हल्के गुलाबी रंग के खसखसिया गत्ते का पतला कवर, तन्वंगी-सी पुस्तिका। समर्पण-वाक्य तो शब्दश: याद नहीं किंतु उसमें ध्वन्यांकित भावों की प्रतिध्वनि आज भी स्मृति-शिखरों के बीच टहलती-टकराती रहती है : कवि ने दरअसल अपनी यह कृति भटके हुए लोगों को राह दिखाने वाली लालटेन को अर्पित की थी। कवर के अंतिम पार्श्व-पृष्ठ पर कवि का चित्र, परिचय और “ ग्राम: कोल्हुआ खूर्द, पूर्वडीहा, पलामू “ पता। तो, रात भर में बांच गया और सुबह पोस्टकार्ड रोज की तरह पोस्टऑफिस जाकर स्वयं पोस्टबॉक्स में डाल आया।
असली चमत्कार तब हुआ जब तीन-चार दिनों बाद ही कवि दरवाजे पर हाजिर! यह पहला पत्र था जिसकी प्रतीक्षा में एक दिन भी बेचैनी में नहीं बीता और पत्रोत्तर के रूप में स्वयं कवि ही सामने उपलब्ध! कांख में दबा चमड़े का कागज से ठसा हैंडबैग, मोहल्ले में स्थित म्युनिसपल द्वारा संचालित नावाटोली स्कूल के किसी भी गुरु जी जैसा ही साधारण-सा पहनावा-व्यक्तित्व और चेहरे पर वैसी ही घरेलू मुस्कान। अपने दरवाजे पर पहली बार आकर खड़े हुए हरिवंश प्रभात का वह चेहरा आज भी मेरी आंखों के सामने स्थिर है! उनके हाथ में मेरा लिखा वह पोस्टकार्ड भी था जिसमें दर्ज पते के आधार पर वह नावाटोली के ‘श्रीद्वारिकापुरी’ नामक साधारण-से घर तक आ पहुंचे थे। पहली ही बार अपना लिखा ऐसा पत्र देख रहा था जो अपने गंतव्य तक पहुंच चुका हो! पता नहीं क्यों, इसे देखकर किंचित संकोच या लज्जा जैसी अनुभूति होने लगी। उनके साथ उस दिन का तत्काल निकलना और बातें करते हुए छहमुहान तक जाना-घूमना अब भी स्मरण में अपनी समूची ताजगी और चमक के साथ अंकित है। बाद में पता चला कि अपने नगर से छपने वाले मजदूर-नेता सत्यपाल वर्मा के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पलामू दर्पण’ में डा.चंद्रेश्वर कर्ण ने समीक्षा लिखी है जिसका शीर्षक है ‘बढ़ते चरण को रोको’! डा. कर्ण से तब कोई खास परिचय तो था नहीं, बस इतना भर पता था कि वह पलामू में उच्च शिक्षा के सबसे बड़े संस्थान जीएलए कॉलेज के प्राध्यापक हैं, किंतु इससे अब उनके बारे में एक डरावनी-सी छवि बन गई! नयों को भी डंडे से हांकने वाले किसी खूंखार-से आचार्य!
हरिवंश प्रभात ने उन दिनों कुछ ऐसी किताबें लिखी-छपाई थी जो छोटी कक्षाओं के बच्चों को व्याकरण और भाषा-ज्ञान देने के लिए तैयार की गयी थीं और स्कूलों में लगती-चलती थीं। ऐसी अनेक किताबें खूब व्यवस्थित ढंग से लिखने-चलाने वाले अपने ही नगर के विपिन बिहारी सिंह से उनकी लगभग अघोषित जंग चलती थी।
हरिवंश प्रभात पलामू के सुदूर पांकी प्रखंड के ढूब गांव के प्राइमरी स्कूल में पदस्थापित थे। वहीं के प्रतिष्ठित कांग्रेसी नेता बाबू भानुप्रताप सिंह के यहां रहते थे। सप्ताह की समाप्ति पर शनिवार को डाल्टनगंज आते और कुछ लोगों से मिल-जुलकर अंधेरा होने से पहले कोयल नदी की छिछली धाराएं हेलकर बालू का विस्तार धांगते पूर्वडीहा की चढ़ाई चढ़ जाते जो हमीदगंज के सामने उस पार साफ-साफ दिखाई पड़ती रहती। अक्सर शनिवार को मैं उनकी प्रतीक्षा कभी छहमुहान तो कभी कनीराम स्कूल के पास खड़ा होकर भीड़ के हर चेहरे को खंगालता हुआ किया करता। उनके साथ खाई गई जलेबियों और बतियाते हुए ली गईं चाय की चुस्कियों का स्वाद अब भी जेहन में जिंदा है!
हिन्दी में लघुकथा लेखन की जब बयार चली तो इसमें प्रमुख आलोचक की भूमिका निभाने वाले डा. व्रजकिशोर पाठक से रोज शाम में उनके रेड़मा स्थित आवास में जाकर मिलने और घंटों साहित्य-चर्चा चलाने का सिलसिला शनिवार को हरिवंश प्रभात के कारण ही टूटने लगा। डा.चंद्रेश्वर कर्ण, कृष्णानंद कृष्ण, सत्यनारायण नाटे, विनयरंजन ‘वीनू’, दधिबल सिंह, संजय सहाय आदि ढेरों लोग थे जो लघुकथा लेखन में शामिल हो गये थे। हिन्दी की तत्कालीन प्रमुख कथा-पत्रिका ‘सारिका’ के संपादकीय विभाग के सदस्य व कथाकार बलराम ने उन्हीं दिनों होसंगाबाद के एक सम्मेलन में लघुकथा के मुकाबले ‘लघु कहानी’ का एक नया नारा दिया था। रांची के समीक्षक डा. बालेंदुशेखर तिवारी ने इसके साथ सुर में सुर मिलाकर विवाद को हवा दी थी। इस पर डाल्टेनगंज में तीखी प्रतिक्रिया हुई।
डा.चंद्रेश्वर कर्ण की प्रेरणा से जेलहाता के दुर्गा प्रेस में एक संगोष्ठी हुई जिसमें उनके साथ ही डा.जगदीश्वर प्रसाद, और डा. व्रज किशोर पाठक ने गरमागरम पर्चे प्रस्तुत किये। लघुकथा की अवधारणा के विकल्प के तौर में पर ‘लघु कहानी’ को पेश करने पर बलराम के खिलाफ डा. कर्ण ने अपने आलेख में काफी रोष दर्ज कराया और इस कार्रवाई को ‘डाकुओं के आत्म समर्पण’ की संज्ञा दी थी। नई विधा के शास्त्रीय पक्ष की पड़ताल करने वाले डा.पाठक के आलेख का शीर्षक तब हमें गजब का लगा था- ‘लघुकथा का शरीर-विज्ञान और इसकी प्रसव-गाथा’!
इसी आयोजन की अगली कड़ी के रूप में कृष्णानंद कृष्ण ने बाद में अपनी पत्रिका ‘पुनः’ का लघुकथा विशेषांक निकाला। इसमें उक्त तीनों आलेख शामिल किये गये जो चर्चित हुए और बाद में लघुकथा विधा के दावे को मजबूती देने वाले भी साबित हुए। कहना चाहिए कि इसी के बाद लघु कहानी वाली बहस सदा के लिए लगभग दफन ही होकर रह गयी। ‘पुनः’ के विशेषांक में देश भर के रचनाकारों के साथ ही हम सबकी लघुकथाएं शामिल हुई थीं। इसे उसी दौरान किताब की जिल्द में ‘लघुकथा: सर्जना और मूल्यांकन’ नाम से जारी किया गया। इसमें मेरी ‘हराम का खाना’ शीर्षक लघुकथा शामिल हुई जो मेरे द्वारा प्रेषित मूल पाठ से काफी अलग किंतु बेशक अपेक्षाकृत काफी उन्नत रूप में प्रस्तुत हुई थी। यह रचना बाद में सत्यनारायण नाटे के साथ प्रकाशित मेरे साझा संग्रह ‘लघुकथाएं अंजुरी भर’ में छपी और आज भी इंटरनेट पर ‘लघुकथा डॉट कॉम’ पर संचयन श्रृंखला में शामिल मेरी लघुकथाओं में शामिल है। तो, पुनः के विशेषांक के लिए आई रचनाओं में से अधिकांश का डा. कर्ण ने लगभग पुनर्लेखन किया था। यह जानकारी पाते ही उनकी वह छवि मन में उलट गई जो हरिवंश प्रभात की किताब की तीखी समीक्षा से उत्पन्न हुई थी।
बाद में उन्हें मैंने अपनी ताजा लिखी दो लघुकथाएं दिखाई जिनमें से एक का शीर्षक ‘सुलगते लोग’ था, जबकि दूसरी का शायद ‘सही लड़ाई’। इसके उपरांत तो मैं और विनयरंजन ‘वीनू’ उनके खास स्नेहभाजनों में ही शामिल हो गये।
डा. कर्ण पैदल ही शहर छानते। नगर में साहित्य के नये से नये नागरिक की पहचान, उसे प्रोत्साहन या पुराने से पुराने पुरोधा के दरवाजे पर दस्तक और उसका सृजनात्मक पुनर्जागरण। सबको जगाये-जोड़े रखने का उनका प्रयास अनोखा और सतत। उन्होंने अंग्रेजी विषय से ताल्लुक रखने वाले डा.नगेंद्रनाथ शरण से लेकर प्रो.सुभाषचंद्र मिश्र तक को हिन्दी साहित्य से जोडा़ तथा लघुकथा-लेखन में शामिल कर लिया था।
बाबू शिवशंकर सिंह ‘छोटानागपुर भूमि’ साप्ताहिक अखबार निकालते थे। वह समय ऐसे ही छोटे अखबारों का था। जेलहाता में सड़क पर ही उनका घर लेखकों-पत्रकारों का हंगामेदार अड्डा बना रहता। उनके यहां जुटने वालों में चंद्रेश्वर कर्ण से लेकर भोजपुरी के चर्चित कथाकार कृणानंद कृष्ण, इन्दुभूषण, फैसल अनुराग, महात्मा (व्यंग्यकार), सिद्धेश्वरनाथ ओंकार, सत्यनारायण नाटे आदि जैसे लेखक-पत्रकारों के अलावा पूर्व विधायक समाजवादी मोहन सिंह, साम्यवादी चिन्तक-नेता नन्दलाल सिंह, उस समय के प्रखर युवा कांग्रेसी नेता हृदयानंद मिश्र, दुर्गा प्रेस वाले समाजवादी दीवाने मिश्रा जी ( नाम स्मरण नहीं आ रहा ) और एक विचित्र आध्यात्मिक-वैचारिक पात्र फोटू बाबू आदि जैसे-जैसे लोग भी होते। सक्रियता के क्षेत्र या सिद्धांत-प्रभाग चाहे जितना परस्पर विपरीत, लेकिन सभी एक ही गति-क्रम में शामिल होकर बहस-विचार करने वाले। जाहिरन ऐसे सारे लोगों में एक बात जो आम थी वह थी वैचारिक आकुलता।
कृष्णानंद कृष्ण खड़ी बोली हिन्दी कभी-कभार ही बोलना शुरू करते लेकिन कुछेक शब्द या एकाध वाक्य के बाद ही आरा वाले खांटी अंदाज में भोजपुरी पर लौट जाते। डा. कर्ण के साथ उनकी संगत को लेकर खूब किस्से उड़ते लेकिन उनकी जोड़ी ने पलामू के साहित्य जगत की प्रकाशन गतिविधियों में कुछ मूल्यवान अध्याय भी जोड़े। इंदुभूषण मूल निवासी पटना के निकट कहीं के थे किंतु सरकारी नौकरी के सिलसिले में उस समय पलामू में रहे। उनकी मंद मुस्कान का गोल चेहरे पर धीरे-धीरे खिलना और कुछ समय लेते हुए क्रमश: खुलते-खुलते गोलगप्पे हंसी में तब्दील हो जाना अनोखा अनुभव देता। उन्होंने हिन्दी के शीर्षस्थ कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु से संबंधित चुनावी दौर का एक संस्मरण लिखा था जो 'सारिका' में छपा था। फैसल अनुराग जेपी मूवमेंट के बर्बाद युवा के रूप में देखे जाते। वह आंदोलन की पत्रिका ‘एक तरीका’ के उप संपादक रह चुके थे और संप्रति आधुनिक कविता के गहरे अनुरागी के रूप में प्रस्तुत होते। मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर के काव्यांश अक्सर सुना डालते।
महात्मा का मूल नाम कुछ और था। लंबी-चौड़ी काया लेकिन छोटे-छोटे कदम बढ़ाते धुंधली धोती-कुर्ता वाले एकदम शांत व्यक्ति। पलामू के रचनाकारों की नाटे जी वाली ही पीढ़ी के रचनाकार। वह रहे तो किसी सरकारी नौकरी में लेकिन कायदे का व्यंग्य लिखते। सिद्धेश्वरनाथ ओंकार को आग-मार्का या फायर ब्रांड कवि कहा जाता। अपनी आयु-पीढ़ी के लोगों में वह जितने ही आलोचित होते नयों में उनकी स्वीकार्यता उससे कहीं ज्यादा। वह जिस किसी गोष्ठी में पांव रख देते पुराने लोगों के कान खड़े हो जाते जबकि नयों की आखों में चमक आ जाती। वह रचना-पाठ शुरू करते तो जमाखोरी, महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी और दोमुंहापन आदि के बहाने उनके शब्दों की बरछी चौतरफा वार करने लगती। वहां बैठे किसी न किसी व्यापारी, अफसर या प्रोफेसर जैसे रचनाकार को यह स्वयं पर किया हुआ सीधा हमला महसूस होकर रहता और वह तिलमिला उठता। बात बिगड़ ही जाती। अक्सर उन्हें बीच में चुप कराने को कई वरिष्ठ तीखे स्वर गूंजने लगते। कहा जाता कि आप हमेशा ऐसी ही उल्टी-सीधी चीजें कब तक लिखते रहेंगे। ओंकार को काव्य-पाठ बंद करना पड़ जाता तब भी वह प्रतिरोधी स्वर में लोगों को ललकारना-धिक्कारना जारी रखते।
सत्यनारायण नाटे अपनी पीढ़ी में अकेले ऐसे व्यक्ति, जो ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ व ‘मनोरमा’ जैसी देश की तत्कालीन प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में नियमित छपते रहते। उन्होंने कहानी से लेकर आलेख, व्यंग्य, लघुकथा, बालकथा व चुटकुला तक सभी गद्य विधाओं में भरपूर लेखन-कार्य किया। पूर्व विधायक समाजवादी नेता मोहन सिंह के पास जनता पार्टी-युग के अपने छोटे-से विधायकी-काल के ही ढेरों कहानियां थीं। इनमें से ज्यादातर राजधानी पटना के दिनों की मीडियाकर्मियों से जुड़ी होतीं। इनमें से कुछ को वह अक्सर पूरी संजीदगी से दोहराना शुरू करते। सारे लोग उठकर चले जाते तब भी वह बगल वाले को कंधे पकड़कर रोके रहते और पूरी सुनाकर ही दम लेते। साम्यवादी चिन्तक-नेता नन्दलाल सिंह और उस समय के प्रखर युवा कांग्रेसी नेता हृदयानंद मिश्र आदि का अपना अलग अड्डा रहा लेकिन रास्ते से आते-जाते उनका रुकना-बैठना भी चलता रहता। दुर्गा प्रेस वाले समाजवादी दीवाने मिश्रा पड़ोसी होने के नाते आना-जाना बनाए रहते। किसी चर्चा को चरम पर पहुंचाकर बीच में ही अचानक चुपके खिसक लेने की उनकी कला अनोखी थी। जारी बहस पर जवाब लेने या देने के लिए उन्हें खोजने वालों को अक्सर आश्चर्य के साथ झुंझलाते देखना विचित्र अनुभव बनता।
फोटू बाबू शहर के पुराने रईस परिवार के ऐसे अविवाहित छूटे व्यक्ति रहे जो वृद्धावस्था तक पहुंचकर साधनहीन और अकेले-असहाय रह गए थे। वह बनारस में कुछ वर्ष पड़ाव वाले औघड़ पीठ से जुड़कर गुजार आए थे। उनके पास औघड़ेश्वर भगवान राम, उनके कुष्ठ सेवाश्रम और आश्रम की पत्रिका ‘सर्वेश्वरी टाइम्स’ से अपने जुड़ाव के ढेरों संस्मरण थे जिन्हें वह अनुकूल माहौल पाकर कभी-कभी शुरू करते। ऐसे अवसरों पर शिवशंकर बाबू के अलावा कोई एक-दो हमारे जैसे नए लोग ही बतौर श्रोता टिके होते।
गोकुल वसंत ‘छोटानागपुर भूमि’ के जबकि मैं मोतीलाल साहू द्वारा सत्यनारायण प्रेस से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘पलामू दर्शन’ का संपादक था। साहित्य-सामग्री की प्रस्तुति को लेकर कुछ दिनों तक दोनों पत्रों में अघोषित तनातनी भी चली। हरिवंश प्रभात का गोकुल वसंत से पुराना याराना रहा। रचना देने की बात आयी तो उन्होंने ‘छोटानागपुर भूमि’ को चुना। हरिवंश प्रभात ने गोकुल वसंत को ‘ठक् ठक् ठक्’ शीर्षक लघुकथा दी जो ‘छोटानागपुर भूमि’ में तीन अंकों में प्रकाशित और चर्चित हुई। उसी दौरान मैंने ‘पलामू दर्शन’ का लघुकथा विशेषांक निकाला जो तत्कालीन अविभाजित बिहार में किसी भी समाचार पत्र द्वारा लघुकथा पर केंद्रित पहले विशेषांक के रूप में चर्चित रहा। इसमें कुछेक स्थानीय रचनाकारों की रचनाओं के अलावा डा. शंकर पुणतांबेकर, जगदीश कश्यप, विक्रम सोनी आदि की भी ताजा लघुकथाएं भी शामिल की गई थीं।
विशाल कद-काठी वाले बाबू शिवशंकर सिंह राजनीति में समाजवादियों और साहित्य में डा. कर्ण की टोली के साथ खड़े होते। हमेशा खादी की झक कुर्ता-धोती और मुंह में पान। सन् 1967 के कुख्यात अकाल के दौरान अज्ञेय के नेतृत्व में फणीवरनाथ रेणु आदि जैसे पत्रकारों की टीम जब संतप्त पलामू-भूमि का मुआयना करने आई थी, तो सूचना-सहयोग देने वालों में शिवशंकर बाबू अग्रणी थे। बहरहाल, उनका स्वभाव कुछ ऐसा कि बात-बात में अपने धीमे स्वर में मिर्ची जैसी टिप्पणी किया करते। कुछ लोग तो हमेशा उनके निशाने पर रहते जबकि ऐसा कोई न था जो कभी न कभी उनके तीर से घायल न हो चुका हो। इसके बावजूद सबको यह पता था कि मन से वह ऐसे हर व्यक्ति की खास चिंता करते और बिना बताये-जताये मदद करते रहते जो लिखने-पढ़ने से जुड़ा व समस्याओं से परेशान होता। रोज जुटने वाले दर्जनाधिक लोग वहां घंटों गाज-फेन छोड़ते और बाबूसाहब की चाय पीकर ही देरशाम उठते।
शिवशंकर बाबू हर व्यक्ति का एक गुणवाचक नाम रख लिया करते। उन्होंने हरिवंश प्रभात के लिए ‘ठक् ठक् ठक्’ नाम रख लिया था। मुझे देखते ही पूछते- कहां हैं ‘ठक् ठक् ठक्’ जी? हरिवंश प्रभात निर्मल हंसी के साथ अपने बारे में की जाने वाली टिप्पणियों को पचा जाते। कविवर सिद्धेवर नाथ ओंकार से मेरी निकटता को हरिवंश प्रभात ने कभी कोई आपत्त्िा तो नहीं जताई लेकिन उनकी तीक्ष्ण असहमति अक्सर छलकती रहती। ओंकार परंपरावाद, ब्राह्मणवाद से लेकर धर्म-अध्यात्म आदि की अक्सर धज्जियां उड़ाते जो हरिवंश प्रभात को बहुत नागवार गुजरता। उन्होंने ओंकार के लिए ’रावण’ नाम तय कर रखा था। इसके बावजूद दोनों के मिलने-जुलने के व्यवहार में कभी कोई तल्खी नहीं दिखी।
पलामू में पत्रकारों के अगुआ रामेश्वरम् उन्मुक्त किंतु निष्कलुष बोल-व्यवहार के व्यक्ति थे। जब जो सोचते बेसाख्ता बोल जाते। इस स्वभाव के कारण वह अपने ही मित्र-प्रशंसकों के बीच अक्सर विवाद का विषय बन जाते। कभी इस, तो कभी उस से अबोला। इसकी खूब चर्चा चल निकलती। शिवाजी मैदान से लेकर जेलहाता और कचहरी तक। लेकिन, ऐसे समय दोनों पक्षों ही नहीं प्राय: पूरे लेखक-पत्रकार समाज को यह पता होता कि यह संवाद-शून्य दौर लम्बा खिंचने वाला नहीं। कारण रामेश्वरम् का स्वभाव। वह अबोला छेड़ तो देते किंतु झेल नहीं पाते। कभी दो-चार दिन भी नहीं बीतता तो कभी महीने दो महीने भी निकल जाता लेकिन प्राय: हर बार वही दूसरे पक्ष की पीठ पर हाथ रख देते या यदि अमुक व्यक्ति वरिष्ठ हुआ तो हाथ पकड़ लेते। ऐसे हर अवसर पर वह लगभग यही वाक्य कहते, “...जे होलई से भूल जा ...अरे, हमनीं के एक दूसरा के बिन भला काम चले वाला हई...?” (..जो हुआ उसे भूल जाइए ..अरे, हमलोगों का एक दूसरे के बिना भला काम वलने वाला है?)।
उनके इस एक वाक्य से संबंधों का अवरुद्ध प्रेम-प्रवाह कोयल-औरंगा ( पलामू की पमुख नदियां ) की मीठी धाराओं की तरह फिर बहने लग जाता। रामेवरम् को हरिवंश प्रभात अपना गुरु मानते। जब कभी हमलोग उनके सामने या उनसे रामेश्वरम् को लेकर ज़रा भी कुछ प्रतिकूल चर्चा करते, वह बिगड़ जाते। साफ कहते, “ हमारे गुरु हैं रामेश्वरम् जी... उन्होंने हमें पढ़ाया है... मैं यह सब नहीं सुनूंगा...”। रामेश्वरम् जी हृदय-मन से कवि थे किंतु साठ के दशक में अपने आरम्भिक दौर में ही उन्होंने सघन साहित्यिक-प्रयास चलाए, बाद में लेखन को लेकर वह लगातार योजनाएं बनाते रहे। वह उसी दौरान पलामू से छपे वहां के रचनाकारों के दो संग्रहों ( कविता संग्रह ‘मोर के पंख मोर के पांव’ और कहानी-संग्रह का नाम संभवत: ‘आकृतियां उभरती हुई’ ) में से किसी या दोनों में शामिल भी किए गए थे। बाद में उनके रचनाकार के ऊपर पत्रकार हावी हो गया। पलामू को लेकर उन्होंने इतनी सारी सूचनाएं जमा कर रखी थी कि तब के इंटरनेट-विहीन युग में वह आज की शब्दावली में कहें तो पलामू के संदर्भ में तो 'गूगल सर्च इंजन' जैसे ही बन चुके थे। मोटे-मोटे रजिस्टरों में रंगीन रूल या लकीरों से बनाई हुई सारणियों में व्यवस्थित ढंग से आंकड़े और सूचनाएं। जिले में उन्होंने ही वह बंधुआ मुक्ति अभियान भी चलाया था जिससे स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी आदि जुड़ गए थे। वह वस्तुत: स्वयं में एक संस्थान जैसे बन चुके थे। इस रूप में उनकी ख्याति देश भर के लिखने-पढ़ने वालों में थी।
कोई भी पत्रकार या साहित्यकार पलामू आता तो उसकी जेब में रामेश्वरम् का नाम-पता अवश्य होता। वह ऐसे लोगों को अपने यहां ठहराने और मदद करने में जान तक लड़ा देते। बांग्ला की विख्यात रचनाकार महाश्वेता देवी तो उनकी कुछ इस कदर प्रशंसक बनीं कि उन्हें नायक बनाकर “भूख” उपन्यास ही रच डाला। अस्सी के दशक में महाश्वेता ने रामेवश्रम् पर उस समय की प्रमुख समाचार पत्रिका 'रविवार' में आलेख भी लिखा था। संपादन-कार्य को लेकर उनके पास लीक से हटकर कल्पना-धारणाएं थीं। अस्सी के ही दशक में उन्होंने तब की पुरानी तकनीक व अल्प संसाधनों से ही खूबसूरत साप्ताहिक अखबार ‘इषुमान’ का खाका तैयार किया। इसके पहले ही सुसज्जित अंक में देश के प्रमुख साहित्यकारों की रचनाओं की प्रभावशाली प्रस्तुति देख स्थानीय रचनाकारों का मन डोलकर रह गया। उल्लेखनीय घटना तब घटी जब रामेश्वरम् ने अपनी पीढ़ी के पचास साल तक के वरिष्ठ रचनाकारों तक के नामों के स्वरुप पर आपत्ति जाहिर की और आउटडेटेड बताया। उन्होंने प्रचारित कराया कि रचना से पहले वह लेखक के नाम का संपादन करेंगे! इस क्रम में उन्होंने बगैर अपने पास पहुंचे ही नगर के वरिष्ठ वकील, पत्रकार और रचनाकार महेंद्र नाथ त्रिपाठी का नाम ‘मनात्रि’ और वर्षों से ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में छप रहे सत्यनारायण नाटे का ‘सनाटे’ कर देने की मंशा तक व्यक्त कर दी। यह नहीं पता चला कि उक्त दोनों वरिष्ठों की इस पर क्या प्रतिक्रिया रही लेकिन नाम-संपादन की मंशा की लंबे समय तक रसदार चर्चाएं होती रहीं। हालांकि नाम-संपादन में रामेश्वरम् को ‘भारतेंदु की गद्यभाषा’ के लेखक वरिष्ठ रचनाकार-आलोचक डा. व्रजकिशोर पाठक पर कामयाबी मिल गई थी। उन्होंने डा. पाठक का मगही उपन्यास ‘गांजा बाबा’ छापना शुरू किया तो इसमें लेखक का नाम ‘व्रजकिशोर’ गया।
महेंद्र उपाध्याय, विजय रंजन और हीरानन्द पाठक आदि जैसे रचनाकार कुछ बाद में मैदान में आये। पत्रकारों में गोकुल वसंत और शंभु चौरसिया के साथ हमारी तिकड़ी थी। सुरेन्द्र सिंह रुबी से मेरी निकटता रही किंतु वह और उनके भी वरिष्ठों में महेन्द्र नाथ त्रिपाठी व देवव्रत आदि हमेशा अग्रज कोटि में रहे। जनार्दन द्विवेदी दीन नौकरी से अवकाश-ग्रहण के बाद पत्रकारिता में आए थे। खादी की कुर्ता-धोती और गांधी टोपी। श्रद्धा-भाव उत्पन्न करने वाले बुजुर्ग, किंतु अखबारी से लेकर लेखन स्तरों तक, उनकी सक्रियता देखते बनती। गनौरी ठाकुर पलामू के पत्रकारों में आयु में सबसे बड़े थे। गोकुल और शंभु के साथ हमारी तिकड़ी 1988 के पहले कई वर्षों तक निभी। इसके दशक भर बाद कुछ महीने 'राष्ट्रीय नवीन मेल' में तो ओम प्रकाश अमरेंद्र का संग-साथ भी रहा, लेकिन आलोक पुतुल ( इंटरनेट जगत में आज की विख्यात वेबपत्रिका 'रविवार' के संपादक ), विष्णु गुप्त और विनय कुमार शर्मा आदि के साथ पलामू-भूमि पर पत्रकारी संगत ज़्यादा सम्भव नहीं हुई है। वैसे, संजय कुमार सहाय के साथ खबरिया अभियान खूब चला है। पलामू की इप्टा टीम ने पूरे बिहार में खास पहचान बना ली थी जिसका श्रेय उपेन्द्र मिश्र, प्रेम प्रकाश, विनय कुमार शर्मा और संजय सिंह आदि को जाता है। जमशेदपुर में अंग्रेजी अखबार के पत्रकार इलियास की जब हत्या हुई थी उस दौरान हुए आंदोलन में इस टीम की सलाह पर मैंने नाटक 'कलम के दुश्मन हाय-हाय' लिखा था जिसका लगातार मंचन होता रहा। रांची में डा. बालेन्दु शेखर तिवारी के संयोजन में जो 'लघुकथा उत्सव' हुआ था, उसमें पहुंची पलामू इप्टा की टीम ने मेरी कुछ लघुकथाओं का जीवंत मंचन किया था। इनमें से एक ‘राज की चिंता’ का मंचन देख भावविह्वल हो उठे प्रख्यात व्यंग्यकार डा. शंकर पुणतांबेकर ने मंच पर पहुंच डबडबायी आंखों से कलाकार प्रेम प्रकाश को अंकवार में भरकर शाबाशी दी थी।
मैं 1988 में पलामू से निकलकर नौकरी करने धनबाद आ गया। मेरे पलामू छोड़ने पर महेंद्र उपाध्याय ने एक मार्मिक पत्र भेजा था जिसे यादकर आज भी अपनी धरती से अलग होने का दर्द दुगना हो जाता है, लेकिन वही रोजी-रोटी की विवशता! इसके बाद जब-जब पलामू जाना हुआ है, पुराने लोगों को खोज-खोजकर मिलने का प्रयास चलता रहता है। कुछ साल पहले तो महेंद्र उपाध्याय को लेकर हरिवंश प्रभात के गांव भी चला गया था किंतु उस दिन वहां वह पहुंचे ही न थे। लौटना पड़ा।
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