Dipak Sharma kaun hai in Hindi Short Stories by Ratan Chand Ratnesh books and stories PDF | दीपक शर्मा कौन है

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दीपक शर्मा कौन है

दीपक शर्मा कौन है ?

मौसम बदलने लगा था। वातावरण में ठंड उतर रही थी। ऐसी खुशनुमा शाम को घर के दालान में बैठा मैं हवा को पेड़ के पत्तों संग खेलते देख रहा था। हवा रह रहकर आती और तन-मन को शीतल कर जाती। हाथ में मोबाइल थामे एक कुर्सी पर आराम से बैठा मैं उस शाम को अपनी आदत के अनुसार ढलने दे रहा था। कुछ-कुछ ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं सभी कामों के बोझ से मुक्त हो गया हूं। न मन में कोई भटकन थी और न इसके कहीं भूत या भविष्य में उलझने की आशंका। ऐसी शाम जीवन में आती रहती हैं पर अक्सर हम उस समय उसका लुत्फ उठाने से वंचित रह जाते हैं।

कुछ देर यों ही आनंद उठाने के बाद अपनी हथेली में किसी बच्चे की तरह सो चुके मोबाइल को दायें अंगूठे से दो खास स्थानों पर दबाया जैसे उसे एक्यूप्रेश करने लगा हूं। फिर धीरे-धीरे उसमें फीड किए हुए नामों को पढ़ना शुरू किया। एक-एक कर नाम उनके फोन नंबरों के साथ उभरने लगे। उन नामों के साथ-साथ उनका चेहरा भी चलचित्र की तरह आंखों के सामने से गुजरता रहा। कुछ के लिए कुछ देर ठहरता, फिर आगे बढ़ जाता। लगभग एक सौ पचास-साठ के करीब नाम इस मोबाइल के हृदय में समाए हुए थेे जो एक-एक कर ऊपर की ओर जाकर कहीं गुम हो जाते। फिर एक नाम आया दीपक शर्मा और उसका मोबाइल नंबर भी, पर जेहन में कोई चेहरा नहीं उभरा। कुछ-कुछ ऐसा लगा जैसे किसी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुए उम्मीदवारों के चित्र अखबार के एक पृष्ठ पर भरे पड़े हों और उनमें एक चेहरा अचानक गायब हो गया हो। बस सिर्फ उसका नाम और कोई नंबर मौजूद हो। मैंने दिमाग पर बहुत जोर डाला। कौन है यह दीपक शर्मा ? मेरे सगे-सम्बंधियों में एक दीपक शर्मा है जो मेरे रिश्ते के साले का बेटा है, पर उससे मिले तो पन्द्रह साल से भी अधिक हो गए हैं। उसका नंबर होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। अब वह कहां है, मुझे इसका भी इल्म नहीं। वैसे भी वह अपने पिता की तरह शर्मा न लगाकर अपने नाम के साथ अग्निहोत्री लगाया करता था। ....... तो फिर कौन है यह दीपक ? मैंने कुछ देर के लिए इस नाम को छोड़ा और आगे बढ़ गया। आखिरकार इस खेल में अंत तक जा पहुंचा। सभी नाम जाने-पहचाने थे। इस उम्र में भी उनके चेहरे याद आए। लिहाजा यह दीपक शर्मा मेरे मन-मस्तिष्क में एक गांठ बन गया। मैंने इस गांठ को खोलने की जितनी भी कोशिश की, वह और भी उलझता चला गया। इस तरह अपने इस खामख्वाह के खेल से खुद उद्विग्न हो उठा।

फिर से गहराई से सोचना आरंभ किया। मन-ही-मन निश्चय किया कि अब तो इस दीपक शर्मा को ढूंढकर ही छोड़ूंगा। यों ही बेमतलब मेरे मोबाइल के अंदर आकर नहीं बैठा है वह। दफ्तर से रिटायर हुए कई साल हो गए हैं। स्टाफ ही कितना था ? हर नाम और चेहरा अब तक याद है। हो सकता है मेरे पीछे और भी कई रिटायर हो गए हों। मैंने उनके बेटों, भाइयों और उनके करीबियों को याद किया। दीपक शर्मा वहां कहीं नहीं था। पुरानी यादों में अपने दफ्तर से निकलकर मैं आसपास के दफ्तरों में जा आया, बाजार में गया, अपने किराये के घर पर गया, मकान-मालिक के परिवार में पता किया, आस-पड़ोस में पूछा, अपने जाने-पहचाने दुकानों को छान मारा, लाइब्रेरी जा पहुंचा, परिचितों के हो आया पर दीपक शर्मा कहीं नहीं था। इन यादों के सागर में गोते लगाने के बाद जो दीपक मिले वे ढडवाल, वर्मा, अरोड़ा, सिंह, खेतरपाल और रावत थे, शर्मा कहीं कोई नहीं था। गलत नाम लिख डाला हो, ऐसा भी नहीं हो सकता क्योंकि मुझसे कभी इस तरह की गलती हुई नहीं है। फिर से एक बार कोशिश की। बैंक-कर्मियों, जीवन-बीमा से जुड़े लोग, म्यूचुअल फंड एजेंटों में ढूंढ आया पर वहां से भी असफलता ही हाथ लगी।

वर्तमान में लौटकर अपने आसपास देखा। इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, घर पर आकर ब्लड-सैंपल लेने वाले तकनीनिशयन, अस्पताल और क्लिनिक के डाॅक्टर तथा वहां के दूसरे स्टाफ, गैस का डिलेवरीमैन, पड़ोस का दुकानदार, भूल से कभी कोई अंकल कह देने वाला छोकरू, कोरियर वाला, पत्नी के मायके का कोई करीबी, बचपन-स्कूल-काॅलेज के दोस्त ------- नहीं, कहीं नहीं था दीपक शर्मा।

मस्तिष्क बोझिल होता चला गया। पत्नी से एक कप चाय बनाने के लिए कहता पर वह मोहल्ले में एक कीर्तन में गई थी, जहां से हवा में तैरकर आती एक पुरानी फिल्म की धुन मुझे यहां तक सुनाई दे रही थी। वह होती तो उससे ही पूछ लेता। हो सकता है उसकी जानकारी या उसके मायके के रिश्ते का कोई दीपक शर्मा हो जिसे मैं भूल रहा हूं। मैंने निश्चय किया कि अब उसके कीर्तन से लौटने के बाद ही यह गुत्थी सुलझाऊंगा। अतः मोबाइल जेब में डालते हुए मैं आकाश की ओर नज़रें उठाए एक-दो कर पूर्व की दिशा में जाते हुए चमगादड़ों को गिनने लगा। किसी खास मौसम में शाम को किसी खास दिशा की ओर इस तरह चमगादड़ों को जाते हुए गिनने का शौक मुझे बचपन में खूब था। अपने मित्रों से बकायदा मैं शर्त भी लगाया करता था कि कम से कम समय मेें कौन सबसे पहले सौ चमगादड़ों की गिनती कर लेता है। हममें से जो हारता था वह दूसरे को थियेटर में लोअर-स्टाल पर पैंसठ पैसेेवाली फिल्म दिखाता था। अचानक मैंने देखा कि एक चमगादड़ निश्चित दिशा को छोड़कर दूसरी दिशा की ओर मुड़ गया।

‘‘कौन हो सकता है यह दीपक शर्मा ?’’

इससे पहले कि मैं पुनः इस प्रश्न पर उलझता, अंतरमन से एक और आवाज आई----

‘‘इस नाम को लेकर इतना परेशान होने की जरूरत ही क्या है ? क्यों नहीं रिंग करके पूछ लेते। गुत्थी अपने आप सुलझ जाएगी।’’

‘‘सोच तो मैं भी ऐसा ही रहा था, पर संकोचवश कर नहीं पाया।’’ मैंने अपने आप से कहा।

‘‘इसमें संकोच कैसा ? कोई जानकार ही होगा।’’

‘‘हां, ऐसा ही करता हूं। खामख्वाह इतनी देर से इस नाम के पीछे उलझा पड़ा हूं।’’

मैंने वह नंबर काॅल कर दिया। हां, रिंग बज रही है। एक परिचित-सी धुन।...... धुन बजती रही। कान से मोबाइल लगाए मैंने उस भटके हुए चमगादड़ को लौटकर फिर से अपनी दिशा में जाते देखा। मोबाइल मेरे कान से लगा हुआ था। कान के पीछे लगे हियरिंग-एड पर मैंने हल्का-सा दबाव डाला।

मोबाइल की धुन बंद हुई और एक पुरुष-स्वर गूंजा --- ‘‘ यस पापा, कहिए कैसे याद किया ?’’

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