Anubhuti ek nazar in Hindi Poems by Kavita Raizada books and stories PDF | Anubhuti ek nazar

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Anubhuti ek nazar

अनुभूति

काव्य संग्रह

लेखिका

डॉ0 कविता रायज़ादा

एम0ए0,एम0कॉम0,पी—एच0डी0

अनूभूति की यात्रा

जीवन की इस यात्रा के दौरान सांसारिक परिदृश्य में मिले कटु अनुभवों एवं असीम भयावह घटनाओं की उथल—पुथल ने हृदय में संवेदना जागृत कर दी, इन्हीं अनुभवों ने शब्दों का रूप ले लिया और कविता के रूप में परिणित होते गये मन की पीड़ा कविता के रूप में कागज़ पर अवतरित हुई। जीवन से जुड़ी सभी अच्छाइयॉ बुराइयॉ एवं तरह—तरह की पीड़ा को महसूस किया है । वही पीड़ा काव्य संग्रह ‘अन्तर्ज्वार‘ के रूप में आपके हाथों में है । इसमें कुल 33 कवितायें हैं। छंद के बंधन में न बंधकर भावावेश की तरंग एवं अतंस की अभिव्यक्ति की इच्छा ने ही कविताओं को आकार दिया है।

मेरी काव्य यात्रा लगभग 30 साल पहले प्रारंभ हुई, जब मैं मात्र 15 साल की थी। मुझे कविता नाम ही नहीं, रक्त में कविता मिली है इसलिये शाायद नाम भी कविता है।

मैंने इनको गढ़ने का प्रयास नहीं किया क्योंकि मुझे डर था कि इनकी मूल संवेदना, आक्रोश, पीड़ा इस प्रयास में लुप्त न हो जाये। अगर आप शब्दों के घॅूघट को उठाकर देखेंगें तो इसमें भावों का मधुमास दिखाई देगा। इसमें सोच, आकांक्षा, जिज्ञासा स्पष्ट दिखाई देगी।

‘अनुभूति ‘ लिखने का उद्‌देश्य कविता के माध्यम से गुफ्‌तगू करके मन हल्का करना ही नहीं, अपितु इससे भी महत्वपूर्ण उद्‌देश्य ये है कि समाज को सच्चाई से अवगत कराना।

यदि यह कवितायें अन्तस्तल में संवेदनाये जगा सकी, जिसके लिये यह रची गई हैं तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समझॅूगी। इनमें से कुछ कवितायें पन्द्रह , बीस साल पूर्व लिखी गई, कुछ पूर्व में प्रकाशित भी हो चुकी हैं।

मैं उन संयोगों की कृतज्ञ हॅू ,जिन्होंने ये रचनायें लिखने का अवसर दिया । दयालबाग की पावन धरा, उसका सुसंस्कारी वातावरण ,संत सतगुरू का सानिध्य मेरे लिये विशेष प्रेरक रहा है।

मेरे इस संकलन में विशेष रूप से प्रेरणा के स्रोत मेरे जन्मदाता मेरे पिता डॉ0 बाबूलाल वत्स एवं माता श्रीमती चन्द्रकान्ता वत्स रहे हैं जिनके आशीर्वाद के बिना यह कार्य असंभव था।

मेरा यह द्वितीय प्रयास कितना सफल रहा है, यह तो सुधिजन पाठकों की मेधा ही निश्चित करेगी। मुझे इस कार्य में कुछ विशिष्ट लोगों का सहयोग मिला।

ए0आई0पी0सी0 के जन्मदाता प्रो0 लारी आज़ाद को मैं अपना प्रेरणा स्रोत मानती हॅु जिनके माध्यम से मैंने ताशकंद, समरकन्द (2010), दुबई, आबूधाबी (2011) साउथ अफ्रीका (2012) और श्री लंका (2012) में कवयित्री सम्मेलन में कविता और मंच संचालन के माध्यम से अपने देश का परचम लहराया।

मैं आभारी हॅू पिता समान स्व0 श्री सी0एम0 शैरी साहब एवं माता समान श्रीमती लता शैरी जी की जिनका आशीर्वाद मुझे पग—पग पर मिलता रहा है। आपने हमेशा मुझे आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया है।

इस काव्य सफर के राही व रचनाधर्मिता के सभी सहभागी, कवि, बन्धुओं व बान्धवों की हृदय से आभारी हॅू जिनका सहयोग मुझे सदैव मिलता रहा है।

मैं अपने पतिदेव श्री आर0 पी0 रायज़ादा, दोनों बच्चे जुबली एवं जुबिन की हृदय से आभारी हॅू जो सदा मेरे कार्यों में सहयोगी रहते हैं।

मैं विशेष रूप से आभारी हॅू अपने पिता तुल्य ससुर श्री प्रेम प्रसाद रायज़ादा जी एवं माता तुल्य सास श्रीमती आशा रायज़ादा जी की जिनका आशीष मुझे हमेशा मिलता रहा है।

मैं अपने इस काव्य संग्रह ‘अनुभूति ‘ के लिये केवल इतना ही कह सकती हॅू कि आप इसे महसूस करके देखिये, यदि उपयोगी लगे तो इस पर अमल करके देखिये।

लेखनी को विराम देने से पूर्व मैं अपने पिता डॉ0 बाबूलाल वत्स जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त करती हॅु जिन्होंने लिखने और उसे आप तक पहॅुचाने के लिए उत्साहित किया।

उन्होंने हमेशा यही कहा —

‘धमनियों में रक्त है तुम्हारे ,वत्स परिवार का

रोशन करना नाम हमेशा, रायज़ादा ख़ानदान का। ‘

डॉ0 कविता रायज़ादा

37 सी श्यामजी विहार,सरलाबाग

एक्सटेंशन रोड,दयालबाग,आगरा—282005

दूरभाष संख्या 09319769552,05622570098

ई मेल — तंप्रंकंणंअपजं5/हउंपसण्बवउ

अनुक्रमणिका

1.गरम सोते

2.ख़ता

3.स्ांबंध

4.स्त्री सौन्दर्य

5.आज़ादी

6.सूरज

7.मनुष्य

8.स्लेट

9.वासंती हवा

10.मधुमक्खी

11.कवि

12.वह कौन था

13.बेशरम

14.कर्म ही सेवा का सार

15.वह चले गये

16.बेटी का बाप

17.भगवन

18.डी0ई0आई0 एक साधना

19.दयालबाग

20.ख्याल

21.जश्नेशताब्दी

22.तीन ताल

23.खाली

24.सम

25.दीपचंदी ताल

26.रूपक

27.कहरवा

28.एकताल

29.ताली

30.ठेका

31.सूलताल

32.रेला

33.दादरा

34.चारताल

गरम सोते

है गिरती बर्फ पहाड़ों पर, झरने देते है शीतल जल।

फिर क्यों फूटते कभी—कभी, है गरम सोते यॅू पर्वत पर !

शायद पर्वत के भीतर भी, होगी गन्धक की परत कहीं।

लगता मुझको है यही उष्णता, देती है जलधार वही।

फिर लगता पर्वत में शायद, है शीतलता अक्षुण्य अनन्त।

इसीलिए गन्धक जैसी, परतों को देता है फेंक तुरन्त।

शायद वह भी है यही जानता, दुर्गुण होना है बुरी बात।

पर उन्हें छिपाना और बुरा, लगता उसको यह बार—बार।

काश ! मानव यह जान पाता, शालीनता में भी आनन्द है।

फेंक देता दुर्व्यसनों को, जो छिपे हुए है अन्तर में।

———

ख़ता

उससे ऐसी है ख़ता हुई

बया करूॅ या दॅू सज़ा उसको

ख़्ाता है ऐसी नामुराद

सताती है पल—पल मुझको

फिर भी ख़ता पे ख़ता

वह किये जा रहे हैं

सताते और सताते हमको

जा रहे हैं

हमने पूछा, जब उनसे यह सवाल

तो कहते हैं वो

हमें तो आता है मजा

सिर्फ और सिर्फ सताने में

यह सुनकर हम अवाक रह गये

क्योंकि कैसे बताये ये हम उनको

क्योकि हद से ज्यादा

चाहते हैं हम उनको

बस यही ख़ता है हमारी

बस यही ख़ता है हमारी

————

स्ांबंध

स्ांबंध हमें जोड़ता है

सुन्दरता का अहसास देता है

इसी की छॉव में पनाह पाकर

हमारा तन मन भीग जाता है

वह संबंध ही है

जो नवीन उल्लास

उमंग व स्फूर्ति देता है

परंतु आज संबंध के मायने बदल गये हैं

कार्य निकल जाने के बाद

हाथ जोड़े खड़ा व्यक्ति भी

अपरिचित सा बन जाता है

आज आधुनिक संसार के संबंधों की

यही एक परिभाषा है ।

किसी के आने पर

हमारा व्यवहार भी,

व्यावसायिक हो जाता है

ओठों पर मुस्कान तो होती है

परंतु दिलों के तार नहीं जुड़ पाते हैं

रोज पास बैठते हैं

हॅसते हैं ,बोलते हैं

लेकिन अंदर से उतने ही

अजनबी बने रहते हैं

आज के संदर्भ में

यही संबंध है, यही संबंध हैं।

———————

स्त्री सौन्दर्य

लड़कियों का सौन्दर्य ही

उनकी संपदा है

यह वाक्य,

स्त्री प्रगति के विरूद्ध़

एक राजनीतिक अस्त्र है,

क्योंकि यही सौन्दर्य

बरकरार रखने के लिए

लड़कियॉ पैसा

पानी की तरह

बहा रही हैं

लेपों को लगा लगाकर

खूबसूरत होने का प्रयास कर रही हैं।

जो मिथ्या है, उसे सही मान रही हैं।

दरअसल,

सौन्दर्य जाल ने उसे

इस क़दर उलझा दिया है

सम्पूर्ण जीवन

उसने बरबाद कर दिया है।

अधिकार, अनाधिकार के

विषय में सोचना

बंद कर दिया है

उसने।

लगता है, यही है

वह भयावह राजनीति

जो स्वयं पर उसका आत्मविश्वास

कम कर रही है।

नारी का साहस

आत्मनिर्भरता ,

बढ़ते कदमों को

दिन प्रतिदिन

पीछे कर रही है।

इसलिए हे!नारियो

अब शक्ति को पहचानो ,

उसे सही दिशा में लगाओ,

कृत्रिमता रूपी आवरण न अपनाओ

आत्मविश्वास जगाओ।

और प्रगति पथ पर

बढती ही जाओ, बढती ही जाओ।

—————

आज़ादी

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर

रिक्शेवाले से पूछा जब मैंने

जानते हो, क्या होती है आज़ादी ?

पसीने से लथ पथ,

जीर्ण—शीर्ण वह गरीब बोला

हमें क्या लेना देना

इस आजादी से

हमें तो चिन्ता है

बस रोजी —रोटी की।

इंसानी भार ढोना ही

हमारी मजबूरी है,

फटेहाली बरकरार है

ऊर्जा समाप्त है

हम क्या जानें आजादी !

कैसी आजादी, कौन सी आजादी

हमें तो चाहिए बस

रोटी और कपड़ा।

अरे ! वह भी नहीं दे पाई

तुम्हारी यह आज़ादी ।

आज मैं यह समझ गई थी

गरीब के लिए, ‘आज़ादी‘

गरीबी से आजादी है

सोचते —सोचते कब रात बीत गई

स्वतंत्रता दिवस की प्रातः बेला में

बस यही बात समझ में आई

हर गरीब को चाहिए

एक छत,

जिसमें रोशनी हो,

बिजली हो, पानी हो

और हो भरपेट खाना

और हो अशिक्षा से आज़ादी।

तभी मिलेगी असली आजादी।

यह भाव कहीं न कहीं

भटक गया है

गरीब और गरीब होता

जा रहा है

पेट की इस भूख से

आज़ादी के अर्थ को

भूलता ही जा रहा है

भूलता ही जा रहा है।

——————

सूरज

आकाश में बादल छा गये

और सूरज को छुपा ले गये

अहंकार वश बादल को लगने लगा

कि उसने सूरज को,

कैद कर लिया है

धूप के सारे रास्ते

बंद कर दिये हैं

उससे ज्यादा शक्तिशाली

कोई भी नहीं

लेकिन वह भूल गया कि

जब सूरज उदय होता है

तभी दिन निकलता है

अगर प्रकाश दिन का न हो

तो वह दिखाई भी न देता

भले ही इस वक्त सूरज

बादल के पीछे हैे

लेकिन उसका प्रकाश

उससे आगे है।

इंसान भी इसी

भ्रम जाल में जीता है

बेटा ,डॉक्टर, इंजीनियर

बनने के बाद

अपने आपको अहंकारी

बादल समझता है

वह भूल जाता है

सूरज रूपी माता —पिता को

जो वृद्धावस्था में

उसके सहारे हैं

आज उन्हीं का प्रकाश,

उन्हीं का आशीर्वाद

उसको रास्ता दिखा रहा है

और वह दिन दूनी

रात चौगुनी प्रगति कर

चमकता ही जा रहा है।

चमकता ही जा रहा है।

——————

मनुष्य

क्या हम मनुष्य हैं ?

यह प्रश्न बार—बार

मेरे मन में उठता है,

मुझे झकझोरता है,

परेशां करता है।

मैं जानती हॅु यह

आज संवेदनाएं मर चुकी हैें।

संवेदनाओं में जितनी गहराई होती है

मनुष्यता में उतनी ही ऊॅचाई होती है।

संग्रह में जितनी ऊॅचाई होती है

मनुष्यता में उतनी ही निचाई होती है।

संवेदना और संग्रह

जिन्दगी की दो दिशाएं हैं

संवेदना सम्पूर्ण हो

तो संग्रह शून्य हो जाता है।

आज मनुष्य जीवन पर्यन्त

संग्रह की लालसा में ही

भटकता रहता है

और एक दिन

स्ांवेदना शून्य ही हो जाता है,

मनुष्यता को ही गंवा देता है।

और सवाल ज्यों का त्यों ही

रह जाता है

क्या हम मनुष्य हैं ?

—————

स्लेट

पढ़ते थे हम बचपन में जब

एक छोटी सी स्लेट पर

पूरी पढ़ाई कर लेते थे हम

सिर्फ उसी एक स्लेट पर

पर आज कॉपियों का अंबार है

जो बिक जाता है हरदम

रद्‌दी के एक ढेर में।

रद्‌दी का वही ढेर

कोने में पड़ी स्लेट को देखकर

हॅसता है, ठहाका लगाता है

और चिढ़ाते हुए मुस्कुराता है

आती है मुझको दया

तेरी इस ्रदुर्दशा पर।

रहम आता है मुझको

तेरी इस बदनसीबी पर।

कितनी कंगाल है तू

जो भी लिखता है तुझ पर

तुरन्त पोंछ देता है

रह जाती है तू खाली की खाली।

स्लेट हल्के से मुस्कुराती है

और कहती है

मानती हॅू तुझ पर जो भी

लिखा जाता है

तुझ में ही समा जाता है

लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है

जब तुम्हारे अक्षर जीर्ण—शीर्ण हो जाते है

लेकिन मैं अथाह सागर हॅू

नित नये अर्थ, नित नये शब्द

अपने अन्दर समाहित

करती रहती हॅू

अपने ज्ञान को बढ़ाती ही रहती हॅू।

बेशक वह शब्द मिटा दिए जाते हैं

लेकिन वह सभी मेरे सीने में समा जाते हैं

देख! कितनी सम्पन्न हॅू मैं

कितनी भाग्यशाली हॅु मैं

फिर भी कोरी की कोरी ही

कहलाती हॅू मैं।

———————

वासंती हवा

वासंती हवा का झोंका आया

और भर गया शीतल सुंगंध से

तन मन को मेरे।

पूछा मैंने जब उससे

बनाओगी अपने जैसा मुझे कब ?

तभी आया झोंका गरम हवा का

झुलसा गया तन मन को वह मेरे

और निकल गया कहता हुआ मुझे वह

तुम नादान हो, नासमझ हो

मैं तो भाग रहा हॅू

युगों—युगों से

पाने को इसकी सुगंध व शीतलता

पर सफल न हो सका मैं

आज तक

और न हो सका मैं शीतल।

पर मैंने उसकी बात न मानी

और प्रतीक्षा करने लगी

उस शीतल समीर की

वह फिर आई

मैंने फिर याचना की ,

फिर कहा उससे

वह बोली, ‘याचना और अनुकरण से

कुछ भी नहीं मिलता है।

पहचानो, अपने को पहचानो

तुम्हारे अन्दर भी वही शीतलता व सुगंध है

प्रयत्न करो, बदलो, अपने को बदलो

वादा है यह मेरा तुम से

तुम भी शीतल व सुगंधित हो जाओगे

सबके मन को हरषाओगी

वासंती हवा बनकर छा जाओगी।‘

————————————

मधुमक्खी

जब टकराया मेरा हाथ भूल वश

मधुमक्खी के एक छत्ते से

जहॉ —जहॉ लगा डंक

वहॉ—वहॉ लगा सूजने

कराह उठी दर्द से मैं

और लगी सोचने

शायद वह सोचती होगी

यह घर मेरा है

यहॉ कोई क्यों आया।

शायद उसको

हमारा हस्तक्षेप पसन्द नहीं आया

इसीलिए बल दिखाकर

हमें मजा चखाया।

यदि ऐसी ही बात है

तो यह मधुमक्खियों की मूर्खता है

क्योंकि यह संसार तो ईश्वर का घर है।

उनका निवास तो पेड़ों पर है

फिर घर पर कब्जा करने की

लालसा तो व्यर्थ है

इसी ऊहा—पोह में

वह स्वयं घायल हुई

और मर भी गई

यदि वह क्रोध और गर्व न दिखाती

तो शायद इतनी हानि न उठाती

फिर सोचती हॅू

इन मधुमक्खियों को ही

क्यों कोसा जाय !

बुरा भला कहा जाय

मूर्ख कहा जाय

जबकि मानव भी आज

इसी राह पर चल रहा है,

हर व्यक्ति जितना हड़प सकता है।

हड़प रहा है

और बाकी पर कब्जा जमाने के लिए

लड़ रहा है

वह अधिकार लिप्सा व स्वार्थ में अंधा हो रहा है

जब मैं यह सोचती हॅू

तो बेचारी मधुमक्खियों को

बुरा भला कहने में

जीभ सकुचाने लगती है।

——————

कवि

एक कवि,

जब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाता है

स्थान—स्थान पर ख्याति पाता है

तो गर्व से फूला नहीं समाता है।

बार—बार कविताओं को

पढ़ता है, पढ़ाता है

मगर एक दिन वही कविता

कहती है कि

मैं वही हॅू

जिसके कारण आज संसार में

तुम्हारा नाम है

इसलिए मैं ही श्रेष्ठ हॅू।

यह बात कवि को नहीं सुहाती है

वह झल्लाता है, चिल्लाता है

जो इसका जन्मदाता है

यह उसी पर अकड़ दिखाती है

मैं न चाहॅू

तो तेरी अभिव्यक्ति ,कौन करे

इसलिए समझ ले

मै ही श्रेष्ठ हॅू।

विवाद चलता रहा

कोई हार मानने को तैयार न हुआ

तभी वहॉ मौजूद शब्द बोले

मेरे बिना तो तुम दोनों ही

अस्तित्वहीन हो

तुम्हारी अभिव्यक्ति का माध्यम

मैं ही हॅू

और तुम ,

तुम तो आकार मुझसे ही पाती हो

इसलिए मैं ही दोनों में श्रेष्ठ हॅू

असलियत से रूबरू होते ही

कवि की ऑखें खुल जाती हैं

उसका गर्व रफूचक्कर हो जाता है

वह कवि का कवि ही रह जाता है।

———————

वह कौन था

वह कौन था

जो दिल के दरवाजे पर

दस्तक दे गया ?

सोये हुए सभी अरमानों को

फिर से जगा गया ?

शायद यह उसी का जादू है

जो मुझ पर छाता जा रहा है,

हरदम उसी के ख्यालों में

डुबाता जा रहा है,

शायद यह उसी की दुआ है

जो दिल के तारों को

झकझोर रही है

शायद वही मेरा अपना है

इसका अहसास दिला रहा है।

शायद यही वह प्यार है

जो अपनी ओर

खींचे ले जा रहा है

बेहतर जीवन जीने का

सही मकसद बता रहा है।

———————

बेशरम

मैंने सर्दी के मौसम में

फूलों के पौधे रोप दिये

बसंत आते ही वह

मनमोहक छटा बिखेर गये।

खिलखिलाते, मुस्कुराते

बेहतरीन गुलाब ही गुलाब,

जिनकी खूबसूरती पर

दाग़ लगा रहे थे कुछ

जंगली खरपतवार ।

आब देखा न ताव

जड़ से उसको उखाड़ दिया

जतन किये बहुत

रसायन डाले बहुत

मगर वह बेशरम

नाम को साकार कर रहे थे

तंत्र मंत्र तक फेल कर रहे थे

बगिया को बेकार कर रहे थे

जब पूछा उपाय, उसे मिटाने का

तो बोला वह माली

जो उसका रखवाला था

‘हैं यह खरपतवार

हैं यह जंगली फूल

जो होते हैं बिल्कुल

शादी शुदा जीवन की तरह

जिसमें होती हैं, कुछ बातें अच्छी

तो कुछ अनचाही

यदि नहीं कर सकते तुम इन्हें प्यार

तो नजरअदांज करना सीख लो

बदल दो जीवन का नजरिया

इस बेशरम को भी पसंद करना सीख लो

इस बेशरम को भी पसंद करना सीख लो।‘

—————

कर्म ही सेवा का सार

सेवा कर्म को जीवंत किया है, दयालबाग की बहनों ने,

दिखे कोई न कष्टों में, संकल्प लिया है हम बहनों ने।

जरूरतमंद की सुन पुकार, हम दौड़ी—दौड़ी जाती हैं,

परमात्मा का शुक्र समझकर, अपना कर्तव्य निभाती हैं।

रहे खुशी ऑखों में सबके, ग़म का कभी नाम न हो,

लगे रहे सेवा में नित दिन, फिर भी हमें गुमान न हो।

वह दिन कभी न आये जीवन में, हद से ज्यादा अभिमान हो,

इतना ही नीचा रखना प्रभु मुझको, हरदम बनी विनम्र रहॅू।

कर्म ही सेवा का सार, कर्म ही वेदों का आधार,

कर्म का ही लेकर नवमंत्र, पहुॅचना होगा हमको पार।

वह चले गये

आया भूकम्प, कॉपी वसुधा

घन ने भी ऑसू बरसाये

बिजली की उस कड़कन से

कॉप—कॉप हम जाये

कुछ होने वाला है अप्रिय

यह आभास सभी को हो गया

रो पड़े सभी परिवारीजन

सब बच्चों को आघात हुआ

चले गये वो चले गये

जन्मदाता अब चले गये

बेसहारा सबको छोड़ गये

वह जन्मदाता अब चले गये

बेटी का बाप

भागा—भागा एक आदमी,

बदहवाश सा वह आदमी

जब आया मेरे पास,

समझ नही ंमुझको कुछ आया

तब हाले बयां उसने सुनाया

बोला वह मुझसे घबराते—घबराते

बिटिया मेरी भोली—भाली

पेपर देने घर से निकली

क्या पहॅुची अपने गन्तव्य स्थान पर

इसी बात ने मुझको भरमाया

चिन्ता से मैं ग्रसित हो गया

काम से मेरा मन हट गया

तब भागा—भागा मैं आ गया

माजरा क्या है फिर भी मुझको

कुछ समझ न आया

दरअसल जिस टैम्पो में उसने

अपनी प्यारी बेटी को बिठाया

उसमें पहले से पॉच

लड़के बैठे थे

इसी बात से उसके

मन में भय समाया

हो रही दिन प्रतिदिन

अनहोनी घटनाओं से

हर मासूम लड़का भी उनको

यमदूत नज़र आया

हाय रे ! कलियुग

बेटी हर पल असुरक्षित है

बेटी का बाप

पल—पल भय से मरता आया।

भगवन

संस्कृति की रक्षा करें, तजे अन्धविश्वास,

चित्रगुप्त के पूत हम, जग में करें नाम।

थमे कभी ना लेखनी, ऐसा दो वरदान,

सेवा में भगवन आपकी, लगे रहें दिन रात।

पुत्र आपके मॉगते, भगवन यह वरदान,

चरणों में हरदम रखो, सद्‌बुद्धि दो भगवान।

सेवा कर लो दीन की, मत लाओ अभिमान,

यही भगवन का जाप है, यही है दर्शन जाप।

ज्ञान चक्षुओं से देखें, रखें नहीं अभिमान,

सबसे हिलमिल कर चलें, सबको अपना जान।

डी0ई0आई0 एक साधना

मैं कल्पना करती हॅू

ऐसे जीवन की जो

सहज हो, सरल हो,

निश्छल हो और सुखमय हो।

मैं कामना करती हूॅ

ऐसे जगत की

जो वास्तविकता से परे हो

अतीत से अनभिज्ञ हो

लेकिन वही उसका

प्रारब्ध हो।

मैं वर्तमान की उपेक्षा करके

स्वप्नलोक में विचरण करने लगती हूॅ।

किसी के सुन्दर भवन को देखकर

उसकी छवि को अन्तर में बैठा लेती हॅू

और जब कोई वस्तु पसन्द आ जाती है

तो उसे, उस भवन में लाकर सजा देती हॅू ।

आहिस्ता—आहिस्ता भवन में

भीड़ इकट्‌ठी हो जाती है

और मैं स्वयं को विस्मृत कर बैठती हॅू।

फिर सोचने लगती हॅू

कि शायद उस विस्मृति को

खेाजने का नाम ही साधना है ।

और वही साधना

आज पूर्ण हो गयी

प्रतीत होती है

क्योकि जिस भवन में मैंने

शिक्षा प्रारम्भ की थी,

जिस भवन से जीवकोपार्जन

शुरू किया था।

यह तो वही है,

वही है, वही है।

दयालबाग

दयालबाग है स्थल ऐसा, करता जीवोद्धार,

आध्यात्मिकता से परिव्याप्त है, बहती अविरल धार।

श्रद्धायुक्त स्वर्गोपम नगरी में, प्रेम भाव है भारी,

कण—कण में है जिसके चमके, कठिन परिश्रम बानी।

नवजीवन का प्रारम्भ यहीं से, अनुशासनबद्ध रहनी,

सतगुरू दया बरसती पल—पल, हम सबने है जानी।

सन्तुलित है खान—पान, और रहनी गहनी अच्छी,

पी0टी0 और खेतों की सेवा, है सबको ही भाती।

राधास्वामी, राधास्वामी का,जहॉ गॅूजता नाम,

सच्चा निज ध्वन्यात्मक है ये,कुल मालिक का नाम।

दयालबाग की महिमा पावन, जन—जन ने है मानी,

दयालबाग का दयाल बगीचा, है ही बड़ा रूहानी।

ख़्याल

होता है हर शख़्स को

ख़्यालों से अपने प्यार ।

लगता है उसको उम्दा

सिर्फ अपना ही बस ख़्याल ।

है ये इंसानी फितरत

जिसे करता है वह बार—बार ।

ख़्याल कितना भी हो खूबसूरत,

जब तक नहीं होता है

उसका इज़हार ।

फ़ना हो जाता है यह

पड़े—पड़े पन्नों में ।

महरूम रह जाता है

रोशनी में आने से ।

यदि बनाना है उसे दमदार

तो शब्दों में पिरोना होगा ।

दिल की गहराईयों में डूबकर

कागज़ पर उकेरकर,

प्रियतम तक पहुॅचाना होगा, प्रियतम तक पहुॅचाना होगा

जश्ने शताब्दी

जश्ने शताब्दी मना रहे हम, सतगुरू के आशीषों से।

जन—जन में भ्रातृत्व जगायें, सतगुरू के आशीषों से।

चिन्तन जिनका अतिशय पावन, अतिशय पावन नाम,

स्वामीजी महाराज सतगुरू को नमन प्रणाम।

दिव्य स्नेह के अभिषिंचन से जिनने पाला है,

हुजूर महाराज नाम है उनका, सेवा प्रतिमान निराला है।

जश्ने शताब्दी मना रहे.......................................................

रचना का रहस्य खोलकर, हमको सभी बताया है,

महाराज साहब ने ‘डिस्कोर्सेज‘ में, अद्‌भुत रूप दिखाया है।

सरकार साहब ने सतगुरू महिमा, हम सबको समझाई है,

‘करता के कर्ता के कर्ता‘ कहकर के बतलाई है।

जश्ने शताब्दी मना रहे .........................................................

साहब जी महाराज की महिमा, हम सबने ही जानी है,

दयालबाग से ‘स्वप्न लोक‘ को, रचकर के दिखलाई है।

मेहता जी महाराज कदाचित, सेवा की प्रतिमूर्ति बने,

खेतों की सेवा सिखला कर, मुक्ती राह दिखाई है।

जश्ने शताब्दी मना रहे .........................................................

लाल साहब ने डी0ई0आई0, रचकर मत विस्तार किया,

दुनिया वालों को शिक्षा के, सौरभ से परिपूर्ण किया।

ग्रेशस हुजूर सतसंगी साहब, ने नैनो तकनीक सिखा,

जोड़ दिया विज्ञान धर्म से, हम सबको ही धन्य किया।

नए सृजन की नए जोश से, करें नई हम तैयारी,

जश्ने शताब्दी मना रहे हम, सतगुरू के आशीषों से।

़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़

तीन ताल

तीन ताल की ताली सबके

मन को भाने वाली है ।

धा धिं धि धा, धा धिं धि धा

इसकी बात निराली है ।

भाग चार मात्रा सोलह

तीन ताली एक खाली है।

एक, पॉच, तेरह पर ताली

बाकी नौ तो खाली है।

धा धिं धि धा, धा धिं धि धा

तीन ताल की ताली है ।

ताल एक पर रूप अनेक

इसकी बात निराली है ।

टुकड़े, रेले, पेशकार से

बनती बात निराली है ।

तीन ताल की ताली सबके

मन को भाने वाली है ।

खाली

खाली तो बस खाली है

इसकी गरिमा न्यारी है

संगीतकार ने इसकी महिमा

बड़े ध्यान से जानी है

निःशब्द क्रिया है इसकी

जो मध्य युग से आई है

प्रत्येक ताल खाली होना

आवश्यक नहीं बताई है

सम

प्रत्येक ताल की प्रथम मात्रा

उसी ताल का सम होता

गीतों की बंदिश में ही तो

उसी बात का बल होता

गीतों के आरम्भ स्थान को

ग्रह भी हम सब कहते हैं

ताल शास्त्र की तालों में

दस प्राणों का अध्ययन होता

दीपचंदी ताल

दीपचंदी एक अर्द्ध सम ताल

इसका छंद रूप तीन चार

ताली खाली मात्रा संख्या समान

बोल प्रयोग विधि में है अन्तर महान

ठुमरी, होरी में संगत की है मुख्य ताल

नहीं है परम्परा आजादी वादन की

यह तो है मध्य लय की ताल

रूपक

रूपक ताल तो है बस तबले की ताल

वादन मध्य लय में है होता

गणना होती प्रचलित ताल

पेशकार,कायदा,टुकड़ा

परन आदि भी समायें हैं

यह तो एक असमपद ताल है

छंद रूप तीन दो दो भी समान हैं

कहरवा

ताल कहरवा ताल प्रधान

रस श्रृंगार भी होता है

असका वादन ढोलक तबला

नाल खोल पर होता है

जिसका संबंध फिल्मी गीतों

लोक भाव में होता है

प्रकृति चंचल वादन इसका

मध्यताल में होता है

चार चार छंद रूप हैं इसके

सम पद ताल निराली है

वादन आजादी वर्जित है

लग्गी लड़ी भी बजती है

एकताल

एकताल की महिमा न्यारी एक सम पद ताल है

तन्त्र वाद्य मंें तबले पर भी वादन आजादी रखता है

छंद रूप है बिल्कुल न्यारा दो दो दो दो दो दो दो होता है

आधुनिक युग में ख्याल ख्याति का ही डंका बजता है

ताली

ताली तो वह होती है

जो जोर जोर से बजती

सशब्द क्रिया यह ताली की

जो ताल शास्त्र में होती

प्रथम मात्रा सम होने के

कारण ही ताली बजती

खाली को छोड़ सभी विभाग

की प्रथम मात्रा पर ताली

ठेका

धा धी ना धा तू ना

सुन्दर कानों को लगता

निश्चित मात्रा ताल की

बोल समूह का ठेका

सूलताल

सूलताल को सूलफाक

से भी जाना जाता

है ये ताल पखावज की

कथक नृत्य में होता

वादन आजादी है इसकी

पखावज पर ही बजती

सूरताल रेला पहाड़,तिहाई

परन,चक्रदार बजती

दो दो दो दो दो दो छंद

सम पद ताल बजाई जाती

स्पष्ट प्रभाव है चार ताल का

इसके बोलों है पर होता

धु्रपद अंग की गायन शैली

में संगत ही होता

रेला

रेला में पलटा नहीं होता

एक तरह ही बजता

इसमें हाथों की तैयारी का

डंका ही बजता

रेला,चौगुन,अठगुन में

भी बजता रहता

कायदा का है यही फायदा

दुगुन चौगुन में ही बजता

दादरा

मात्रा छःऔर दो विभाग

ताली पहली मात्रा पर

चौथी मात्रा खाली पर

दादरा ताल की ताली पर

गजल भजन और लोकगीतों में

इसकी बात निराली है

चंचल स्वभाव है महिमा इसकी

तिस्त्र जाति की ताली है

चार ताल

चार ताल में मात्रा बारह

छः विभाग भी होते

ताली पड़ती नौ,पांच

और ग्यारह मात्रा पर

खाली होती तीसरी

धुपद नाम की गायकी

इसकी महिमा भारी है

गंभीर प्रकृति,चतस्त्र जाति की

यह चार ताल की ताली है

संक्षिप्त जीवन परिचय

नामः डॉ0 कविता रायज़ादा

जन्म तिथिः 5 अप्रैल 1968, आगरा

पिता का नामः स्व0 डॉ0 बाबूलाल वत्स

शिक्षाः एम0ए0,( हिन्दी) एम0कॉम, पी—एच0डी0( हिन्दी)

व्यवसायः नौकरी, दयालबाग एजूकेशनल इंस्टीट्‌यूट,डीम्ड

विश्वविद्यालय,दयालबाग, आगरा—5 (लगभग 25 वषोर्ं से)

साहित्यिक सेवाः विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में सामाजिक मूल्यों पर आधारित

लेख एवं कविताओं का प्रकाशन ।

आकाशवाणीः आकाशवाणी आगरा पर लगभग 16 वर्षो तक कम्पेयर

दूरदर्शनः दूरदर्शन स्थानीय इन केबिल टी0वी0 आगरा पर 2000 से

2003 तक समाचार वाचिका

ः लाइफ ओ0के0 सावधान इण्डिया में उ0प्र0 की सत्य

घटनाओं पर आधारित सीरियल में कार्य, प्रसारण 12

नवम्बर 2012

पुरस्कारः राष्ट्रीय—50, अन्तर्राष्ट्रीय—07

प्रकाशित रचनायेंः पं0श्रीराम शर्मा आचार्य की सांस्कृतिक सामाजिक चेतना

(शेाध ग्रन्थ—2007),

: कृति (अनसोल्वड पेपर)

: अन्तर्ज्वार (काव्य संग्रह—2013),

: चाहत (कहानी संग्रह—2014)

: अन्तरिक्ष के झरोखों से—हिन्दी (ई बुक 2015)

ः सैर धरती, आकाश, पाताल की (यात्रा वृतांत—2015)

नामांकनः वूमेन ऑफ द ईयर सम्मान हेतु 2003 में नामांकित

,अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टीट्‌यूट, इंटरनेशनल बोर्ड ऑफ

रिसर्च द्वारा।

विशिष्ट उपलब्धि : 21 वीं सदी की 111 महिलाओं में नाम दर्ज, द सण्डे

इंडियनस, दिल्ली।

ः एस0आर0एस0 मेमौरियल शिक्षा शोध संस्थान,

आगरा में कार्यकारी निदेशक।

ः स्काउट गाइड में विशेष ड्‌यूटी अधिकारी, आगरा

संपर्क सूत्रः 37 सी, श्यामजी विहार, सरलाबाग एक्सटेंशन रोड,

दयालबाग,आगरा — 282005

ई मेलः तंप्रंकंणंअपजं5/हउंपसण्बवउ

मो0 09319769552, 05622570098,09897062222