व्यंग्य संग्रह
अक्रमण्येऽवादिकारस्तै..
सर्ब फलैसू सदाचन...
— विनोद विप्लव
विशय सूची
कर्मवीर बनाम फलवीर
अकर्मण्ये वधिकारस्ते
कृश्ण कब वादा निभायेंगे
महानता का जुगाड़
ओबामा के खिलाफ भी पार्टी लड़ेगी चुनाव
भारतीय चाय पार्टी
चोरी मेरा काम
मैं, मैं नहीं हूं
मजबूत राश्ट्र के मजबूत यात्री
लोकपाल बनाम भ्रश्टपाल
वीर अनशनकारियों का देश
तोप के मुकाबिल जूते
समाज सुधार का ठेका
कर्मवीर बनाम फलवीर
गीतोपदेष के आधार पर कहा जा सकता है कि हमारे देष में दो तरह के लोग हैं। पहले तरह के लोगों को केवल कर्म का अधिकार है। कर्म के फल पर उनका कोई अधिकार नहीं है, जबकि दूसरे तरह के लोगों का केवल फल पर अधिकार होता है, उनका कर्म पर कोई अधिकार नहीं होता है। अर्थात पहले तरह के लोग केवल कर्म के अधिकारी होते हैं, उनके कर्म के फल के अधिकारी दूसरे लोग होते हैं। दूसरे तरह के लोग केवल फल के अधिकारी होते हैं, उन्हें कर्म करने का नहीं केवल फल पाने और खाने का अधिकार होता है।
इस तरह से समाज में दो वर्गं है — कर्मवीर ओर फलवीर और इन दोनों का ही महत्व है। अगर कर्मवीर नहीं होंगे तो समाज चलेगा नहीं और अगर फलवीर नहीं होंगे तो कर्मवीरों के कर्मों से भारी मात्रा में उत्पन्न होने वाले फलों को खायेगा कौन और अगर इतने सारे फल खाये बगैर रह जायेंगे तो समाज में भयानक सडांध पैदा होगी और समाज रहने लायक रहेगा नहीं।
कर्मवीर कर्म करने के लिये ही बने हैं। वंष दर वंष निरंतर कर्म करते रहने के कारण उनमें कर्म का जीन या कीड़ा विकसित हो गया है। वे अगर कर्म नहीं करें तो उनका जीना मुहाल हो जायेगा। इनका पूरा जीवन कर्म को समर्पित रहता है। वे एक सेकेंड भी खाली नहीं रहते। मानो अगर वे काम नहीं करेंगे तो जलजला आ जायेगा। ऐसे कर्मवीर लोग खुद को ही नहीं अपने मातहतों को भी काम में झोंके रहते हैं।
कर्मवीरों की जीन में आराम करने का फैक्टर ही गायब होता है। कर्म करते रहना उनकी नियति नहीं, नीयत है, उनकी मजबूरी नहीं उनकी आदत है। अगर वे कर्म नहीं करें तो उन्हें अपच, मोटापा, मधुमेह, हृदय रोग और ब्लड प्रेषर जैसी बीमारियां हो जायेगीं। जिस दिन वे काम करने से वंचित हो जाते है उस दिन उन्हें रात में नींद नहीं आती। यही कारण है कि कष्श्ण से लेकर आधुनिक संत एवं उपदेषक फल की चिंता किये बगैर इन्हें निरंतर कर्म करते रहने की सलाह देते रहे हैं। क्योंकि अगर ये लोग कर्म छोड़ कर आराम करने लगेंगे तो इन्हें हजार तरह की बीमारियां घेर लेंगी जिससे व्यापक मानव श्रम एवं राश्ट्रीय संसाधनों की हानि होगी।
दूसरी तरफ फलवीर लोगों का जन्म खाने के लिये होता है। इनमें कर्म का जीन नहीं बल्कि केवल खाने और डकार लिये बगैर पचाने का जीन होता है। वंष दर वंष दूसरों के कर्मों का फल खाते रहने से इनका हाजमा इतना दुरूस्त हो जाता है कि सब कुछ हजम कर लेते हैं — करोड़ों रूपये की लागत से बनने वाले पुल, रेल पटरियां, सड़कें, बांध, भवन, राहत सामग्रियां और बड़ी—बड़ी परियोजनायें।
कई समाज विरोधी लोग सदियों से सुचारू रूप से जारी वर्ग विभाजन की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। लेकिन इसमें जरा सा भी बदलाव देष को विनाष की ओर ले जायेगा। आप सोचिये कि जिन लोगों ने कभी कर्म नहीं किया, उन्हें अगर कर्म करने को कहा जायेगा तो उल्टा—पुल्टा काम करेंगे जिससे देष का कितना नुकसान होगा। इसी तरह से जिन लोगों ने कभी फल नहीं खाया, उन्हें अगर दूसरों के कर्मों के फल को भी खाने को कहेंगे तो वे कैसे पचायेंगे। वे तो अपने कर्मों का भी फल नहीं खा सकते। ऐसे में तो यही होगा कि ये लोग फलों को पचा नहीं पायेंगे और जगह—जगह उल्टियां करते फिरेंगे जिससे देष में गंदगी और बदबू फैलेगी।
अक्रमण्येऽवादिकारस्तै
चुनाव के मौसम ने दस्तक दे दी है। काम के आधार पर वोट मांगने और वोट देने का परम्परागत पंचवार्शिक नाटक एक बार फिर दोहराया जाने लगा है। आपने देख लिया कि साठ साल से ‘‘काम के लिये'' वोट देने का नतीजा क्या रहा। आज जरूरत ‘‘काम के लिये'' नहीं बल्कि ‘‘काम नहीं करने के लिये'' वोट देने की है। केवल उन्हीं उम्मीदवारों को वोट दिया जाना चाहिये कि जो ‘‘काम नहीं करने'' का वचन दें। वोट देने से पहले उम्मीदवारों को ठोक—बजाकर परख लिया जाना चाहिये कि चुनाव जीतने के बाद वाकई वे काम तो नहीं करने लगेंगे।
देषहित में ऐसा किया जाना जरूरी है। हमारे देष में मुख्य दिक्कत काम नहीं करने की नहीं बल्कि काम करने की है। समस्या यह नहीं है कि लोग खास तौर पर मंत्री, नेता, अधिकारी और सरकारी कर्मचारी आदि काम नहीं करते, बल्कि रोना तो इस बात का है कि ये काम करते हैं। देष की तमाम समस्याओं की जड़ यह है कि जिन्हें काम नहीं करना चाहिये या यूं कहें कि जिनकी प्रकष्ति ‘‘कार्य विरोधी'' है, वे काम करते हैं अथवा उन्हें काम करने के लिये मजबूर किया जाता है जबकि जिन्हें काम करना चाहिये अर्थात् जिनकी प्रकृति ‘‘कार्यसम्मत'' है वे या तो काम नहीं करते या उन्हें काम करने नहीं दिया जाता। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि ‘‘कार्यविरोधी'' प्रकृति के लोगों के कार्य करने का नतीजा देष और समाज के लिये विनाषकारी साबित हुआ है।
कई मंत्री और अधिकारी जब तक कोई काम नहीं करते, महीनों तक दफ्तर नहीं आते, तब तक सबकुछ ठीक चलता है, लेकिन जब वे नियमित दफ्तर आने लगते हैं और काम करने लगते हैं तो जलजला आ जाता है। कई कंपनियां आर्थिक मंदी या घाटे के कारण नहीं बल्कि अधिकारियों के काम करने के कारण डूबी है।
जो अधिकारी एवं मंत्री समझदार एवं विकासप्रिय होते हैं वे दफ्तर जाते ही नहीं और अगर भूले—भटके से दफ्तर चले भी गये तो काम नहीं करते। केवल विनाष प्रेमी एवं विकासविरोधी लोग ही दफ्तर जाते हैं और काम करने का खतरनाक खेल खेलते हैं।
एक अधिकारी जो पहले तो मानसिक तौर पर ठीक—ठाक थे और अपनी कंपनी का भला भी कर रहे थे लेकिन अचानक पता नहीं उनपर क्या पागलपन सवार हुआ कि रोज दफ्तर जाने और काम करने पर आमादा हो गये। कंपनी का हित चाहने वाले अधिकारियों ने उन्हें समझाया कि वे सैकड़ों कर्मचारियों के बीबी—बच्चों के पेट पर लात नहीं मारें। लेकिन वह मानें नहीं। नतीजा सामने था। कंपनी बंद हो गयी और सैकड़ों लोग सडक पर आ गये।
एक अन्य कंपनी के एक अधिकारी के बारे में कुछ सिरफिरे लोगों ने कंपनी के बॉस से षिकायत कर दी कि वह कोई काम नहीं करते। इसका नतीजा हुआ कि उस अधिकारी का तबादला दूसरे षहर मेें कर दिया गया। उस अधिकारी ने कंपनी पर गुस्सा निकालने के लिये नयी जगह पर पहुंच कर काम करना षुरू कर दिया और इसका नतीजा हुआ कि छह माह के भीतर उस षहर में कंपनी के सारे व्यवसाय चौपट हो गये और उस षहर में कंपनी के कामकाज को बंद करके उस अधिकारी को वापस बुलाना पड़ा तथा उन्हें काम नहीं करने पर राजी किया गया।
दिल्ली में एक अनुभवहीन पार्टी की सरकार के मंत्रियों ने पिछले दिनों जो काम किये और उन कामों के जो खतरनाक नतीजे निकले उससे मतदाताओं को यह सीख मिली है कि अगले चुनाव में उन्हें उन्हीं उम्मीदवारों को वोट देना चाहिये जो पांच साल तक काम नहीं करने का लिखित वायदा करें। यही नहीं वोट देने से पहले उम्मीदवारों को ठोक—बजाकर परख लिया जाना चाहिये कि चुनाव जीतने के बाद वाकई वे काम तो नहीं करने लगेंगे।
यह ठीक है कि आप चुनाव जीते हैं और मंत्री भी बन गये हैं, लेकिन इसका मतलब तो यह नहीं है कि आप अन्य लोगों के आराम करने की प्रक्रिया में खलल डालें। यार, चुनाव जीते हा,े तो पांच साल नहीं तो कम से कम कुछ साल या कुछ महीने ही आराम करो। यह क्या कायदा हुआ कि कुछ लोग आपके पास फरियाद लेकर पहुंचे और आप बजाय उन्हें कल — परसों आने या आपकी बात सरकार तक पहुंचा दी जायेगी, सरकार आपकी षिकायत पर कार्रवाई करेगी जैसी बातें कह कर उन्हें टरकाने के बजाय उसी समय उनके साथ निकल पड़े। खुद काम करने को निकले तो निकले, पुलिस वालों को भी काम करने को मजबूर कर रहे हैं। अगर ऐसा सभी लोग करने लगें तब तो देष की कानून — व्यवस्था ही खतरे में पड़ जायेगी। हर बात के नियम—कायदे हैं।
अब तक के हमारे अनुभव एवं आंकड़े इस बात के गवाह है कि सांसदों, विधायकों और नेताओं के काम करने का नतीजा विनाषकारी होता है। जब ये लोग काम नहीं करते हैं तो देष ठीक—ठाक चलता रहता है और देष का विकास होता है लेकिन जब ये कुछ करते हैं तो देष विनाष की ओर जाने लगता है। अगर हिसाब लगाया जाये कि इन्होंने काम करके राजस्व और राश्ट्रीय संसाधनों की कितनी बर्बादी की है तो साफ हो जायेगा कि इनका ‘‘काम नहीं करना'' ही देषहित में है।
मेरे विचार से तो कम से कम पांच साल के लिये और अधिक से अधिक हमेषा के लिये सांसदों, विधायकों, मंत्रियों आदि पर ‘‘कार्य प्रतिबंध'' लगा दिया जाना चाहिये। जो लोग चुनाव जीतकर काम करें, उन्हें दोबारा चुनाव जीतने नहीं दिया जाना चाहिये। हालांकि आज कई सांसद और विधायक अपनी प्रकष्ति से अच्छी तरह वाकिफ हैं और वे देषहित की खातिर कोई भी काम नहीं करना चाहते हैं लेकिन कुछ राश्ट्रविरोधी जनसंगठनों, मीडिया और लोगों के दबाव के कारण इन्हें काम करना पड़ता है। इन पर इस तरह का दबाव डाला जाना देष के खिलाफ घोर साजिष है और इस बात की जांच करायी जानी चाहिये कि इन्हें काम करने के मजबूर किये जाने के पीछे कहीं देषविरोधी ताकतों, आई एस आई या सी आई ए का हाथ तो नहीं है।
जब मंत्रिगण भी कुछ नहीं करते हैं तो देष ठीक चलता रहता है लेकिन जब कुछ करते हैं तो देष विनाष की ओर जाने लगता है। अगर हिसाब लगाया जाये कि मंत्रियों ने काम करके कितनी बकवास परियोजनाओं को मंजूरी दी और उन परियोजनाओं के नाम पर कितने रुपये बर्बाद किये तो साफ हो जायेगा कि ऐसे मंत्रियों का लिख लोढा पढ पत्थर रहना ही देष हित में है।
देष के विकास के लिये मंत्रियों एवं अधिकारियों पर पांच—दस वर्शों के लिये काम करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिये लेकिन कुछ राश्ट्रविरोधी जनसंगठनों, मीडिया और लोगों के दबाव के कारण मंत्रियों और अधिकारियों को अपनी प्रकष्ति के विरुद्ध काम करना पड़ता है जिसका नतीजा विनाषकारी होता है। गनीमत यह है कि आज भी कई मंत्री इतने देषप्रेमी हैं एवं देष के विकास के प्रति समर्पित हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये अपनी प्रकष्ति के विरुद्ध नहीं जाते। चाहे लाख उनके पुतले जलते रहें, उनके खिलाफ प्रदर्षन होते रहें और उनपर जूते चलते रहें, देष के हित में काम नहीं करने के अपने संकल्प से डावांडोल नहीं होते जबकि कमजोर और थाली के बैंगन टाइप के मंत्री एवं अधिकारी ऐसे दबावों के आगे झुक जाते हैं और काम करके देष का बंटाधार कर देते हैं।
कृश्ण कब वादा निभायेंगे
कृश्ण ने महाभारत के समय वादा किया था कि कि जब—जब धर्म की ग्लानि होगी और अधर्म बढ़ेगा तब—तब वह धर्म के उत्थान के लिये, साधुओं के त्राण के लिये, दुश्टों के विनाष के लिये तथा धर्म संस्था की स्थापना के लिये जन्म लेंगे।
जब से कृश्ण ने यह वादा किया तब से लाखों—करोड़ों भारतवासी कृश्ण के जन्म लेने का बेसब्री से इंतजार कर रह हैं लेकिन कृश्ण हैं कि जन्म लेते ही नहीं। उन्होंने यहां—वहां वादा थोड़े ही किया था। गीता में वादा किया था। इसका लिखित दस्तावेज है। इसके बावजूद वह जन्म लेने के अपने वादे से मुकर रहे हैं। लाखों—करोड़ों लोगों के साथ वादा खिलाफी कर रहे हैं। उनसे अच्छे तो आज के नेता हैं जो कम से कम पांच साल में एक बार जनता के सामने प्रकट हो जाते हैं और अपना वादा निभा जाते हैं लेकिन कृश्ण हैं कि सैकडों—हजारों साल से लाखों—करोड़ों लोगों को झांसा पर झांसा दे रहे हैं।
गोकुल, मथुरा, द्वारिका और वष्ंदावन समेत पूरे भारत में कृश्ण का इंतजार है। कहीं गोपियां उनकी विरह में जान दे रही हैं तो कहीं ग्वालबाल उनके इंतजार में पागल हो रहे हैं। पूरा भारतवंष उन्हें पुकार रहा है, ‘‘अब तो दर्षन दो धनष्याम। कितना चकमा दोगे। अब तो गीतावाला वचन निभा जाओ। अब तो हमारा उद्धार करो और अधर्मियों का नाष करो।'' लेकिन कृश्ण हैं कि आते ही नहीं। उपर से ही कहला भेजते हैं, ‘‘अभी अधर्म बढ़ा नहीं है। अगर तुम सब चाहते हो कि मैं इस युग में जन्म लूं, तो तुम सब मिलकर धर्म की ज्यादा से ज्यादा ग्लानि करो, क्योंकि अभी अधर्म उतना नहीं है कि मैं जन्म लूं। जब तक समाज में कूट—कूट कर अधर्म भर नहीं जाता तब तक मुझे जन्म लेने में मजा नहीं आता।''
कृश्ण के कहे अनुसार भारतवासी पूरे जी जान से अधर्म बढ़ाने में जुटे हैं। इसके लिये वे दिन—रात एक कर रहे हैं। हर व्यक्ति इसी कोषिष में है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा अधर्म बढ़े ताकि कृश्ण जन्म लें। अच्छे खासे अधर्मी अधर्म बढ़ा—बढ़ा कर आजिज आ चुके हैं। अधर्म बढ़ाते—बढ़ाते थक कर चूर हो गये हैं, हिम्मत जबाव दे चुकी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि अब कितना अधर्म बढ़ाये। कई तो लस्त—पस्त होकर थक—हार कर बैठ गये हैं कि अब उनसे अधर्म नहीं बढता। वर्शों से तो अधर्म बढ़ा रहें हैं। अधर्म बढ़ाने के चक्कर में खाना—पीना भूल गये, आदमी—आदमी की पहचान भूल गये और यहां तक कि खुद को ही भूल गये। लेकिन कृश्ण कह रहे हैं कि अभी भी अधर्म उतना नहीं बढ़ा है। अधर्म बढ़ने की अभी काफी गुंजाइष है। थोड़ा और जोर लगाओ।
लोगों को समझ में यह नहीं आ रहा है कि अब कितना जोर लगायें। अब हर तरफ तो अत्याचार है, बलात्कार है, लूट है, झूठ है। इससे ज्यादा अधर्म क्या होगा। कोई बताये तो सही कि आखिर अधर्म का कौन सा रूप है जो भारत में नहीं है। लेकिन कृश्ण को यह सब दिखाई ही नहीं दे रहा है। वह इस भयानक अधर्म को देखकर भी संतुश्ट नहीं हैं। वह कहते हैं कि उनके लिये इतना अधर्म काफी नहीं। कम से कम महाभारत काल इतना तो अधर्म पैदा करो, ताकि मैं जन्म ले सकूं।
अब पता नहीं कब कृश्ण की संतुश्टि लायक अधर्म देष में कब और कैसे पैदा होगा। अब तो अधर्म का घड़ा छलछला रहा है। इसमें अब कुछ और अधर्म कैसे अटेगा। महाभारत काल में तो एक द्रौपदी की साड़ी खींची गयी थी। यहां तो हर रोज और हर रोज न जाने कितनी द्रौपदियों को सरेआम नंगा किया जाता है, उन्हें जम कर पीटा जाता है, बाल पकड़ कर घसीटे जाते हैं, उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। उन्हें घरों में पीटा जाता है, सड़कों पर पीटा जाता है, पार्कों में पीटा जाता है, पबों में पीटा जाता है। उनके साथ जो—जो किया जाता है उसकी कल्पना खुद कृश्ण ने नहीं की होगी। अत्याचार के एक से बढ़कर एक रूपों का इजाद किया जा चुका है। अमरीका तक ने मान लिया कि भारत में अधर्म फैलाने में उसने जो योगदान दिया वह वाकई सफल रहा। स्लमडॉग मिलिनेयर को ऑस्कर अवार्ड देकर इसकी पुश्टि कर दी है। अब देखना यह है कि कृश्ण अधर्म फैलाने के वर्शों से चल रहे अभियान को कब सफल मानते हैं और भारत को अधर्म से मुक्त के लिये कब जन्म लेते हैं।
महानता का जुगाड़
दुनिया में दो तरह के महान होते हैं। पहले दर्जे के महान बिना कुछ किये महान होते हैं। ये जेनेटिकली महान हैं। ऐसे लोग महान होने के अलावा कुछ और नहीं होते। दूसरे दर्जे के महान वे होते हैं, जो कुछ करके महान बन जाते हैं। ये प्रमोटेड अथवा जुगाडु महान हैं। महान बनने के लिये अगर कुछ करना पड़े तो यह महानता का अपमान नहीं तो और क्या है? सच्चे महान तो जन्मजात होते हैं। वे मुंह में महानता का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। ये लोग महान पैदा होते हैं, ताउम्र महान बने रहते हैं और महान रहते हुये स्वर्गलोक सिधारते हैं। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे गये गुजरे होते हैं जो जन्म से तो महान नहीं होते लेकिन कुछ न कुछ करके अथवा यूं कहें कि किसी न किसी तरह का जुगाड़ करके महान बन जाते हैं।
सच्चे महान लोगों में लेखक भी होते है, अभिनेता भी होते हैं और नेता भी। सच्चे महान लेखक वे होते हैं जो जीवन भर में बिना कुछ लिखे महान बने रहते हैं जबकि कुछ नामुराद लेखक जीवन—भर लिख—लिख करके महान बनने का जुगाड कर लेते हैं। लिख कर महान बनना बहादुरी नहीं है। सच्चे महान लेखकों को तो नहीं लिखने पर फक्र होता है। जो वाकई महान हैं वे क्यों लिखें, लिखें तो वे जो महान नहीं हैं।
राष्ट्रीय—अंतर्राष्ट्रीय सभा—सम्मेलनों में ऐसे सच्चे महान मानवों के दर्शन होते हैं। ये लंबी—लंबी चमचमाती गाड़ियों से चलते हैं, इनके आगे—पीछे दो—चार लगुये—भगुये होते हैं, जहां—तहां पान की पीक थूकते चलते हैं। ये जहां जाते हैं चैनलों के रिपोर्टर इनसे माइकल जैकसन, माराडोना और बिपाषा बसु से लेकर बलात्कार, हत्या और अपराध जैसे विशयों पर बाइट लेते हैं, केवल उन विशयों पर बाइट नहीं लेते जिनमेंं में वे महान होते हैं। ऐसे ही एक माहौल में मैने किसी से पूछा कि फलां महान सज्जन ने ऐसा क्या किया है कि वे महान हैं। एक ने मुझे दुत्कारते हुये बताया, ‘‘वह महान हैं, बस। कुछ करने से आदमी महान थोड़े ही बन जाता है।'' सच कहा। कुछ करने से लोग अगर महान बनने लगें तो हर गली—मोहल्ले में महानों की लाइन लग जायेगी।
लिखे या कुछ किये बिना जो महान होते हैं वे अकादमियों के अध्यक्ष, सभापति आदि पदों को सुशोभित करते हैं जबकि लिख—लिख कर महानता का जुगाड़ करने वाले लेखक तो जीवन भर अपनी किताबें छपवाने और रायल्टी पाने के लिये प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाते हुये, बसों में धक्के खाते हुये और रोजी—रोटी की जुगाड़ करने के लिये अपने बॉस की गालियां खाते हुये मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं।
उपदेष — इससे यह सीख मिलती है कि महानता कुदरत की देन है जिसे हासिल करने की कोशिश करने का नतीजा बुरा होता है।
ओबामा के खिलाफ भी पार्टी लड़ेगी चुनाव
दो साल पुरानी एक पार्टी ने चुनाव के लिये उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की। इस संबंध में पार्टी प्रमुख से हमारे संवाददाता की बातचीत यहां प्रस्तुत है।
प्रष्न — आपने लोकसभा चुनाव के लिये अपनी पार्टी के उम्मीदवारों पहली सूची जारी की है। लेकिन आपने केवल अपनी पार्टी के ही नहीं बल्कि बाकी दलों के उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी। क्या बाकी दलों का भी नेतृत्व आप ही करते हैं।
उत्तर — हम बाकी दलों को राजनीति सीखा रहे हैं। ये राजनीतिक दल तो हमारे सामने बच्चे हैं। अभी उन्हें बहुत कुछ सीखना है। उन्हें मालूम नहीं है कि चुनाव में कैसे उम्मीदवार उतारने चाहिये, किस क्षेत्र से किस उम्मीदवार को खड़ा करना चाहिये। इसलिये हमने बाकी दलों के उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी है ताकि उन दलों के नेताओं को अपने उम्मीदवारों के नाम तय करने में सिर—फुटौव्वल नहीं कर पड़े। हम राजनीति में अपने फायदे के लिये नहीं आये हैं। हम राजनीति करने थोड़े ही आये हैं। हम तो राजनीति बदलने आये हैं। हम इन्हें सिखा रहे हैं कि राजनीति कैसे की जाती है, चुनाव प्रचार कैसे किया जाता है, किस तरह के उम्मीदवार उतारने चाहिये।
प्रष्न — लेकिन अगर कोई पार्टी किसी क्षेत्र से किसी अन्य उम्मीदवार को चुनाव लड़ाना चाहे या आपने अन्य किसी पार्टी के जिस उम्मीदवार की घोशणा की है चुनाव ही लड़ना नहीं चाहे या राजनीति से ही संन्यास ले ले। ऐसे में क्या होगा।
उत्तर — जब हमने अन्य दलों के उम्मीदवारों की घोशणा कर दी है तो उन्हें चुनाव लड़ना ही होगा अन्यथा उसे पराजित माना जायेगा। चुनाव लड़ना कोई सहुलियत नहीं है — यह नहीं हो सकता है कि आप एक बार एक जगह से दूसरी बार दूसरी जगह से चुनाव लड़ें। यही तो भ्रश्टाचार है। इस तरह की राजनीति को तो हमें खत्म करना है। हम स्वच्छ और पारदर्षी राजनीति करने आये हैं। हम बतायेंगे कि राजनीति कैसे की जाती है, पार्टी कैसे चलायी जाती है, सरकार कैसे बनायी जाती है और सरकार कैसे गिरायी जाती है।
प्रष्न — लेकिन आपने तो मौजपुरी सीट से डेमोक्रेटिक पार्टी से उम्मीदवार के रूप में बराक ओबामा का भी नाम घोशित कर दिया है। यह आप कैसे तय कर सकते हैं कि अमरीका के राश्ट्रपति किस क्षेत्र से चुनाव लडं़ेगे। फिर अमरीका के राश्ट्रपति को भारत से चुनाव लड़ने की क्या जरूरत क्या पड़ी है।
उत्तर — उन्हें चुनाव लड़ना होगा। अगर वह चुनाव मैदान से हटते हैं तो यह साबित हो जायेगा कि वह हार मान चुके हैं। वह जहां से भी चुनाव लड़ेंगे, हम उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार उतारेंगे। हम अगली बार अमरीकी राश्ट्रपति के चुनाव में भी बराक ओबामा के खिलाफ भी अपने उम्मीदवार खड़े करेंगे और उन्हें हरा कर दिखायेंगे। हम केवल भारत के लोगों को ही राजनीति सिखाने नहीं आये हैं हम पूरी दुनिया के लोगों को राजनीति सिखायेंगे।
प्रष्न — लेकिन अमरीका में आप चुनाव कैसे लड़ेंगे। अमरीका का चुनाव इस बात की अनुमति देता है क्या। यह तो अमरीकी संविधान के अनुसार संविधान विरोधी काम होगा।
प्रष्न — क्या भ्रश्टाचार दूर करना संविधान विरोधी है, क्या भ्रश्टाचारियों को जेल भेजना संविधान विरोधी है। हमने संविधान पढ़ा है। अमरीका के संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है। अगर कोई बता दे कि ऐसा कहीं लिखा है तो राजनीति ही छोड़ देंगे। हमें छोड़ने में ज्यादा समय नहीं लगता है। अभी देखा ना आपने। हमने आव देखा ना ताव — मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी। भ्रश्टाचार मिटाने के लिये हम एक लाख बार राजनीति छोड़ने को तैयार है।
प्रष्न — लेकिन अमरीका में चुनाव कैसे लड़ेगे। आपका वहां कोई संगठन नहीं है।
उत्तर — हम चुनाव थोड़े ही लड़ रहे हैं। चुनाव तो जनता लड़ रही है। यह जनता की लडाई है। हमारी कोई औकात नहीं है। हम बहुत छोटे लोग हैं।
प्रष्न — आपका लक्ष्य क्या है।
उत्तर — हमारा लक्ष्य भ्रश्टाचार मुक्त विष्व की स्थापना है। हमने दिल्ली से 49 दिन में भ्रश्टाचार खत्म कर दिया। जैसे ही यह काम पूरा हो गया हमने सरकार गिरा दी। लोकसभा चुनाव के बाद हम इससे दोगुने दिन में पूरे भारत से भ्रश्टाचार खत्म कर देंगे। यह काम पूरा होने पर हम सरकार गिरा देंगे उसके बाद पुरी दुनिया से में अपनी सरकार बनायेंगे और इससे दोगुने दिन में पूरी दुनिया से भ्रश्टाचार खत्म कर देंगे।
भारतीय चाय पार्टी
लक्ष्य : भारतीय चाय पार्टी का लक्ष्य जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्र से परे समस्य भारतवासी को एक समान गुणवत्ता की चाय पिलाकर देष में सर्वधर्म सम्भाव स्थापित करना और भारत को विष्व गुरू बनाना है।
सामाजिक—ऐतिहासिक परिदृष्य : चाय एक ऐसा पेय है जो लोगों को जोड़ता है और साम्प्रदायिक सदभाव का वातावरण कायम करता है। हमारे देष में चाय हालांकि सर्वाधिक आम पेय है लेकिन इसके बावजूद इसे पीने—पिलाने की परम्परा बहुत सीमित रही है। आजादी के 60 साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी सरकार अथवा किसी अन्य पार्टी ने चाय पिलाने की परम्परा को व्यापक बनाने की दिषा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। हमने इस सामाजिक समस्या की गंभीरता को महसूस किया और चाय पीने—पिलाने की परम्परा को व्यापक तौर पर बढ़ावा देने तथा देष के हर नागरिक को चाय उपलब्ध कराने के लक्ष्य को पूरा करने के लिये भारतीय चाय पार्टी का गठन किया। हमारी पार्टी के सर्वेसर्वा का बचपन से ही चाय पीने—पिलाने का ताल्लुक रहा है जिसके कारण उन्हें इस लोकप्रिय एवं सामाजिक पेय के सार्वजनिक वितरण से जुड़े विभिन्न पहलुओं का सम्पूर्ण ज्ञान एवं अनुभव है। उन्होंने खुद भी चाय पिलाने के काम से जुड़े लोगों के संकट को भी झेला है।
चुनौतियां : हमारे देष में पिछले कई वर्शों से चाय पिलाने की परम्परा की अनदेखी होती रही है। यह देखा गया है कि इस कलयुग में चाय पीने—पिलाने की परम्परा खत्म होती जा रही है। कई लोग ऐसे है जो हमेषा दूसरे के पैसे से चाय पीने की फिराक में रहते हैं। ऐसे लोग दूसरों की चाय तो पी लेते हैं लेकिन खुद जीवन भर कभी किसी को एक कप क्या एक घूंट चाय नहीं पिलाते। ऐसे लोग कितने पैसे बचाते हैं आप सोच सकते हैं। हमारी पार्टी ऐसे लोगों की पहचान करेगी और उन्हें सुधारने के लिये राश्ट्रीय अभियान चलायेगी। समाज में ऐसे भी लोग देखने को मिलते हैं जो हालांकि दूसरों के पैसे की चाय तो नहीं पीते हैं लेकिन वे कभी किसी को चाय नहीं पिलाते। मतलब यह कि ना उधो की चाय पीना ना माधो को चाय पिलाना। भारतीय चाय पार्टी ऐसी परम्परा स्थापित करेगी ताकि लोग दूसराें को चाय पिलायें। इस तरह का वातावरण स्थापित होने पर समाज में सम्प्रदायिक सदभाव और सौहार्द्र बढेगा। हमारी देखादेखी कुछ पार्टियां लोगों को दूध पिलाने का और कुछ पार्टियां चाय के साथ एक रोटी देने का वायदा कर रही है। लोगों को चाहिये कि वे ऐसी झुठी पार्टियों से दूर रहें, क्योंकि ऐसे वायदे पूरे ही नहीं किये जा सकते। आपको याद होगा कि एक नयी और अनुभवहीन पाटी ने दिल्ली के लोगों को मुफ्त पानी, बिजली आदि देने का वायदा कर दिया था लेकिन जब वायदा पूरा करने का वक्त आया तो वह सरकार गिरा कर भाग खडी हुयी।
चुनावी वायदे : हमारी पार्टी सत्ता में आने पर निम्न लिखित वायदों को पूरा करेगी। अगर इनमें से कोई एक भी वायदा पूरा नहीं हुआ तो हम केजरीवाल की तरह सरकार नहीं गिरायेंगे बल्कि पूरे पांच साल तक स्थायी सरकार चलाते रहेंगे। हमारे वायदे हैं :
समाज के अंतिम आदमी को उच्च कोटि की चाय उपलब्ध कराना।
संसद से चाय सेक्युरिटी बिल पारित करना।
चाय की कालाबजारी रोकना।
विदेषों में जमा काली चाय को स्वदेष लाना। हमारी पार्टी ने अनुमान लगाया है कि विदेषों में विदेषी बैंकों में अरबों रूपये की काली चाय जमा है अगर यह चाय स्वदेष आ जाये तो विदेषी कर्ज, महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से निजात मिल जायेगा और देष का तेजी से विकास होगा।
हमारी पार्टी चाय बिल आधा कर करेगी।
हमारी पार्टी चाय वितरण करने वाली कंपनियों की सीएजी से आउडिट करायेगी। जिस कंपनी को कालाबाजारी अथवा भ्रश्टाचार के लिये दोशी पाया जायेगा उसका लाइसेंस कैंसिल कर दिया जायेगा।
हमारी पार्टी राश्ट्रीय चाय आयोग का गठन करेगी जो चाय पिलाने की परम्परा को बढ़ाने के लिये राश्ट्रीय कार्यक्रम चलायेगा। आयोग के सदस्य वैसे चाय व्रिकेता होंगे जिनके पास चाय बेचने का कम से कम पांच साल का अनुभव होगा।
पांच साल के भीतर हर घर में चाय पाइप लाइन बिछायी जायेगी और सुबह, दोपहर और षाम को तीन बार चाय की सप्लाई की जायेगी।
पूरी दुनिया में भारत की चाय को गौरवपूर्ण प्रतिश्ठा दिलाना।
चोरी मेरा काम
पिछले कुछ दिनों ंसे हमारी संस्कृति पर हमले की जोरदार कोषिषें हो रही हैं। उत्तम माने जाने वाले देष के एक प्रदेष के एक मंत्री ने भारतीय संस्कृति के इस खूबसूरत पक्ष के बारे में हल्का सा उद्गार क्या कर दिया, संस्कृति विरोधी तत्वों ने सिर पर आकाष उठा लिया। आखिर उन्होंने क्या गलत कह दिया? ऐसी नापाक कोषिषों में विदेषी हाथ होने का सबूत कुछ घंटे बाद ही उस समय मिल गया जब भारतीय मूल के महान पत्रकार एवं लेखक को एक नामी अमरीकी मीडिया संस्थान ने केवल इस कारण से नौकरी से निकाल दिया क्योंकि उन्होंने अपने एक लेख में किसी और के लेख से एक पैरा चुरा लिया था।
यह हमारी संस्कृति को छिन्न—भिन्न करने की विेदेषी साजिष नहीं तो और क्या है ? अगर इस आधार पर नौकरी से निकाला जाये तब हमारे देष के 99 प्रतिषत पत्रकारों और लेखकों की नौकरी चली जायेगी और हिन्दी पत्रकारिता एवं साहित्य की बात की जाये तो एक की भी नौकरी बचेगी नहीं। मुझे तो उस अमरीकी मीडिया संस्थान के प्रबंधकों की बुद्धि पर तरस आती है जो कहते हैं कि विचार ही नहीं भाशा भी मौलिक होनी चाहिये। क्यों मौलिक होनी चाहिये? मौलिक होने का क्या फायदा है? हमारे देष में हिन्दी में हजारों की संख्या में फिल्में बनती हैं। अगर मौलिक फिल्म बनाना अनिवार्य कर दिया जाये तो पूरा का पूरा हिन्दी फिल्म उद्योग ही बंद हो जायेगा। हजारों लोग बेरोजगार हो जायेंगे। हमारे यहां तो एक—दो को छोड़ कर सभी फिल्में चोरी की ही होती है। चाहे पटकथा हो, आइटम सांग हो, डायलॉग हो, एक्टिंग हो, सब चोरी की होती है लेकिन ये फिल्में खूब चलती हैं। जबकि जो निर्माता—निर्देषक मौलिक फिल्म बनाने का दुस्साहस करते हैं उन्हें कोई दर्षक नसीब नहीं होती और अगली बार से मौलिक फिल्म नहीं बनाने की कसम खाते हैं तब जाकर उनका नसीब खुलता है।
असल में जब तक चीजें चोरी की नहीं होती है, तब तक हमें हजम नहीं होती—न पेट हजम कर पाता न दिमाग। हमारे यहां तो कृश्ण भगवान चोरी करके मक्खन खाते थे। क्या बुरा करते थे? अगर ऐसा नहीं करते तो कौन भगवान मानता। चोरी की चीजेंं लिखने, पढ़ने, खाने और देखने का अलग ही मजा है। मैं भी अदना सा व्यंग्यकार और लेखक हूं, और मुझे भी यही लगता है कि वो भी कोई लेखन हुआ जो चोरी किये बगैर लिखा जाये। ऐसी रचनाओं को न केवल लिखने का बल्कि पढ़ने का भी अलग ही मजा है। मौलिक लेखन तो कोई भी कर देगा। असली हाथ की सफाई तो चोरी करके लिखने में हैं। यही असली कला है कि पूरा का पूरा लेख चोरी का हो और फिर भी मौलिक लगे। यही तो हम भारतीय लेखकों की खासियत है।
मैं, मैं नहीं हूं
आप जो हैंं, वह दरअसल आप नहीं, मैं हूं। मैं जो हूं, दरअसल मै नहीं, कोई और हूं। मेरी कंपनी का जो मालिक है वह दरअसल यहां का चपरासी है और मैं जो इस कंपनी का अदना सा कर्मचारी हूं, सच्चाई यह है कि मैं ही इस कंपनी का मालिक हूं। आप षायद चक्कर में पड़ गये। दरअसल यह घपला पुनर्जन्म के कारण हो रहा है। अगर आप इसे समझ लेंगे तो सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी की तरह हो जायेगा।
पुनर्जन्म ंहम भारतीयों के लिये अत्यंत प्रिय विशय है। इससे आदमी को जीवन में कुछ भी नहीं करने का दुख नहीं होता। जीवन भर निक्कमा—निठल्ला रहने वाला व्यक्ति भी गर्व और संतोश के साथ मर सकता है कि अगले जन्म में वह अमरीका का राश्ट्रपति होगा। राजनीतिक पार्टियों को भी इससे काफी सुविधा होती है, क्योंकि वे अपनी सुविधा के अनुसार तय कर सकती हैं कि फलां इमारत जो इस समय मस्जिद है वह पूर्वजन्म में मंदिर थी और फलां जमीन जिस पर मुसलमानों की बस्ती हैं वह जमीन दरअसल पूर्वजन्म में हिन्दुओं की थी। फलां बंगला जिसमें कोई मुस्लिम या इसाई परिवार रहता है वह दरअसल किसी हिन्दू संगठन के प्रमुख का है।
जहां तक मेरी बात है मैंने भी अपने पुनर्जन्म के बारे में काफी सोचा और एक लोकप्रिय चैनल देखकर सीखा कि पूवर्जन्मों की स्मष्तियाें को कैसे जिंदा किया जाता है। जब से मैंने अपने पूर्वजन्मों के बारे में जाना है, मेरा दिल बाग—बाग हो रहा है, मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। जो लोग मुझे निठल्ला, आलसी, भाग्यहीन, मूर्ख, पागल और न जाने क्या—क्या समझ रहे हैं, वे अब जान लें कि मैं कोई मामूली व्यक्ति नहीं, बहुत बड़ी हस्ती हूं। ये जो करोड़ों—अरबों रुपये का रिलायंस गु्रप है दरअसल वह मेरा ही है, यह ऐष्वर्य राय, जो अपनी सुदंरता से पूरी दुनिया को दीवाना बनाये हुये है वह किसी और की नहीं मेरी ही बीबी है और ये सलमान खान तथा रणबीर कपूर जैसे हीरो जिन—जिन हीरोइनों के साथ प्रेमलीलायें कर रहे हैं दरअसल वे सभी उनकी नहीं, मेरी प्रेमिकायें हैं। जिस जमीन पर दिल्ली का कनाट प्लेस है वह दरअसल मेरी जमीन है। आपको कहां तक गिनाउं कि क्या—क्या मेरा है और क्या—क्या मेरी है। हो सकता है कि आपको मेरे पूर्वजन्म की सच्चाइयों पर विष्वास नहीं हो रहा हो, लेकिन अगर दुनिया में कोई सच है तो बस यही है, क्योंकि अगर चैनलों ने कहा है कि पुनर्जन्म होता है, तो बस होता है। चैनलों के इतने महान, जानकार और बुद्धिमान लोग गलत कैसे हो सकते हैं। वे तो सच्चाई की साक्षात प्रतिमूति हैं।
जब से मुझे अपने पूर्वजन्मों की सच्चाइयाेंं का पता चला है तब से मैं यही सोच रहा हूं कि अपनी चीजें कैसे हासिल करूं। इसके लिये मुझे अदालत की षरण लेनी होगी या मानवाधिकार आयोग से गुहार करनी होगी या पहले पुलिस में एफ आई आर दर्ज करानी होगी। अगर आप अभिशेक बच्चन से मेरी पत्नी को, सलमान खान और रणबीर कपूर से मेरी प्रेमिकाओं को और अंबानी बंधुओं से रिलायंस गु्रप को मुझे वापस दिलाने में मदद करें तो मैं आपसे वायदा करता हूं कि मैं आधी रिलायंस इंडस्ट्रिज और अपनी आधी प्रेमिकाओं को आपको उपहार स्वरूप भेंट कर दूंगा।
मजबूत राश्ट्र के मजबूत यात्री
जब ममता दीदी रेल मंत्री थी तब उन्होंने नई दिल्ली के रेलवे स्टेषन पर यात्रियों की धक्का—मुक्की के कारण कई लोगों के घायल होने की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए बिल्कुल दुरूस्त फरमाया था कि नयी दिल्ली स्टेषन पर हुये हादसे के लिये खुद रेल यात्री जिम्मेदार हैं। बिल्कुल सही बात है। रेलवे इतने सालों से यात्रियों को दुरूस्त करने में लगा हुआ है फिर भी कुछ यात्री दुरूस्त होते ही नहीं। इन्हें अभी तक धक्के—मुक्के खाने की तमीज नहीं आयी है। जरा सा धक्का क्या खा लिया, हाय—तौबा मचाने लगते हैं। कितने तो इतने नाजुक हैं कि मामूली धक्के बर्दाष्त नहीं कर पाते और हाथ—पैर—सिर तुड़वा बैठते हैं। इतने दिनों से धक्के खा रहे हैं, फिर भी इन्हें धक्के खाने का षउर नहीं आया है।
ऐसे कुछ बेषउर यात्री षिकायत करते हैं कि अंतिम समय में गाड़ी का प्लेटफार्म बदल दिया गया जिससे भगदड़ और धक्का—मुक्की मच गयी। यह कौन नयी बात है। अंतिम समय में गाड़ियों के प्लेटफार्म बदलना तो रेलवे की नीति ही है। रेलों को आपस में भिड़ाने से पहले यात्रियों को आपस में भिड़ाया जाता है ताकि यात्री धक्के खाने के अभ्यस्त हो जायें। इससे फायदा यह होता है कि नाकाबिल यात्री पहले ही छंट जाते हैं, और वे ट्रेनों पर बैठने के बजाय अस्पताल चले जाते हैं। अब सोचिये जो लोग यात्रियों के धक्के को झेल नहीं सकते वे ट्रेनों केे धक्के को कैसे झेल सकते हैं। रेल यात्रा करने से नाकाबिल यात्रियों को ममता दीदी से सीख लेनी चाहिये, जो कितनी जीवट हैं। इसका प्रमाण यह है कि पष्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने उन पर न जाने कितने हमले करवाये, लेकिन उनका बाल—बांका नहीं हुआ। अब जब रेल मंत्री इतनी मजबूत हैं तो रेल यात्रियों को भी तो मजबूत होना चाहिये। अब अगर वह कह रही हैं कि हादसों में मरने अथवा घायल होने के लिये खुद यात्री जिम्मेदार हेैं तो गलत क्या है।
भई, अगर आप रेल यात्रा करने चले हैं तो नाजुक बने रहने से काम नहीं चलेगा। भारत को एक मजबूत राश्ट्र बनाना है कि नहीं। मजबूत राश्ट्र के लिये मजबूत नागरिकों का होना जरूरी है। इसमें भारतीय रेल का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्शों से भारतीय रेल इस काम में जुटा है। रेलवे ने ऐसे कई इंतजाम किये हैं जिनकी बदौलत भारतीय ट्रेन में एक बार भी सफल यात्रा करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से मजबूत होकर राश्ट्र को मजबूत बनाता है। यात्रियों के स्टेषन पहुंचते ही रेलवे उन्हें मजबूत बनाने के काम में जुट जाता है। स्टेषन में घुसने, टिकट खरीदने, गाड़ी में घुसने और सीट पर बैठने के लिये तमाम तरह की कलाबाजी दिखानी पड़ती है। सीट मिल भी जाये तो कई लटके और झूलते यात्रियों का बोझ उठाना पड़ता है। इतने धक्के—मुक्के खाने के बाद यात्री काफी हद तक धक्कों के प्रति इम्यून हो जाते हैं। ऐसे में ट्रेनें भिड़ भी जाये तो इन ‘‘इम्पैक्ट इम्यून'' यात्रियों का कुछ नहीं होता है। कुछ यात्री जो धक्के खाये बगैर गलत तरीके से ट्रेनों में चढ़ आते हैं और जो धक्कों के प्रति इम्युन नहीं बने होते हैं वे ट्रेनों के भिड़ने पर टें बोल जाते हैं और भारतीय रेल तथा रेल मंत्री का नाम बदनाम होता है।
लोकपाल बनाम भ्रश्टपाल
विष्वस्त सूत्रों से खबर मिली थी कि जब सरकार भ्रश्टाचार समाप्त करने के लिये लोकपाल विधेयक को संसद में लाए जाने पर राजी हो गई थी तब कई मौजूदा और पूर्व मंत्री तथा अधिकारी सरकार पर भ्रश्टपाल विधेयक लाने के लिये दवाब बनाने लगे। इन्होंने इस विधेयक का पूरा मसौदा तैयार कर लिया है और इसे ‘‘जन भ्रश्टपाल विधेयक'' नाम दिया है। इस विधेयक का उद्देष्य देष में ईमानदारों का खात्मा करना तथा भ्रश्टाचार को बढ़ावा देना होगा। इन लोगों की प्रधानमंत्री और मंत्रिसमूह (जीओएम) के साथ कई दौर की बैठकें हो चुकी है। प्रधानमंत्री और मंत्रिसमूह ने इन्हें समझाया है कि हमारे देष में भ्रश्टपाल कानून बनाने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इस समय जितने भी कानून और सरकारी आयोग एवं विभाग हैं वे सभी भ्रश्टाचार को बढ़ावा देने के लिये ही तो है और फिर ऐसे में भ्रश्टपाल कानून बनाने की क्या जरूरत है। लेकिन भ्रश्टपाल समर्थक मान नहीं रहे हैं। उनका कहना है कि सारे कानूनों में कुछ ऐसी खामियां रह गयी हैंं जिनका फायदा उठाकर देष को बर्बादी की ओर ले जाने वाले चंद मुट्ठी भर ईमानदार लोग एवं जनसंगठन देष के विकास में चार—चांद लगाने वाले भ्रश्ट अधिकारियों एवं मंत्रियों के कामों में बाधा डालने में सफल हो जाते हैं और यही कारण है कि देष की अपेक्षित रफ्तार से प्रगति नहीं हो रही है अन्यथा वर्शों पूर्व हमारा देष ट्रांसपरेंसी इंटरनेषल की सर्वाधिक भ्रश्ट देषों की सूची में पहले नम्बर पर पहुंच चुका होता। इनका कहना है कि ईमानदारों की देषविरोधी कोषिषों को विफल करने के लिये तमाम कानूनों की खामियों को दूर करना होगा और ऐसे में सबसे आसान तरीका यही होगा कि एक ऐसा भ्रश्टपाल कानून बना दिया जाये जो सभी कानूनों से उपर होगा। भ्रश्टपाल सर्वोच्च अधिकारों से युक्त षीर्शस्थ होगा जिसके फैसले को कहीं चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
भ्रश्टपाल समर्थकों ने प्रधानमंत्री को चेतावनी दी है कि अगर संसद के मानसून सत्र में भ्रश्टपाल विधेयक पारित नहीं कराया गया तो वे संसद भवन में आमरण अनषन पैर बैठ जायेंगे जिसमें हजारों—लाखों लोगों का हिस्सा लेना तय है क्योंकि अनषनकारियों का अनषन जूस पिलाकर नहीं बल्कि उन्हें नोटों से भरी अटैचियांं देकर तुड़वाया जायेगा। सरकार भी भ्रश्टपाल समर्थकों की चेतावनी से डरी हुयी है क्योंकि उन्हें पता है कि अगर भ्रश्टपाल को लेकर आंदोलन चला तो उसे काबू करना असंभव हो जायेगा। ऐसे में वह भ्रश्टपाल विधेयक को संसद में पेष करने के बारे में गंभीरता से सोच रही है। वैसे भी सरकार प्रधानमंत्री एवं मंत्रिसमूह अपनी तरफ से भी देष में भ्रश्टाचार को बचाने के लिये जी—जान कोषिष कर रहे हैं क्योंकि उन्हें बखूबी पता है कि देष में देष के लिये भ्रश्टाचार को बचाना कितना जरूरी है।
वैसे तो सरकार को अन्ना हजारे के मूर्ख समर्थकों के दवाब में भ्रश्टाचार समाप्त करने के लिये संसद में लोकपाल विधेयक लाने पर राजी होना पड़ा, लेकिन उसे पता है कि देष की दिन—दूनी रात चौगुनी प्रगति के लिये भ्रश्टाचार को बढ़ाना कितना जरूरी है। समस्या यह है कि अन्ना हजारे जैसे कुछ नासमझ और भोले लोगों को यह पता ही नहीं है कि देष और सरकार को कौन चला रहा है। अगर भ्रश्टाचार को ही खत्म कर दिया गया तो फिर देष और सरकार को कौन चलायेगा। भ्रश्टाचार ही खत्म हो गया तो कौन नेता और मंत्री बनेगा। आप सोचिये कि वह कितना भयावह दौर होगा कि जब कोई नेता ट्रक भर—भर कर रूपये बांटने के बाद चुनाव जीत जाये और रूपयों की पेटियां पहुंचाने के बाद मंत्री बन जाये तब पता चले कि जिसके लिये इतना कुछ किया वही नहीं रहा। ऐसे में उनके पास आत्महत्या करने के अलावा और क्या चारा रह जायेगा। जिन लोगों ने दारू—षराब पीकर उन्हें चुनाव जिताया है उनका क्या होगा, उनके बच्चों का क्या होगा। मंत्रियोंं, नेताओं, अधिकारियों और सरकारी बाबुओं के घर कैसे चलेंगे। कितने घर—परिवार उजड़ जायेंगे। अगर भ्रश्टाचार नहीं रहा तो क्या देष रहने लायक रहेगा। सुनसान मरघर नहीं बन जायेगा। न तो कोई स्कैम होगा, न कोई छापा पड़ेगा, न टेलीफोन टैपिंग होगी, न जेपीसी गठित होगी, न जांच आयोग होगा, न संसद में हंगामा होगा, न कहीं कोई हलचल होगी, न कोई खबर होगी। न कोड़ा होगा, न कलमाडी होगा, न राजा होगा, न रानी होगी और न राडिया होगी। इतने टेलीविजन चैनलों की टीआरपी का क्या होगा। देष कहां से कहां पहुंच जायेगा। यही कारण है कि सरकार भी लोकपाल की काट के लिये कोई रास्ता निकालने पर गंभीरता से सोच रही है ताकि अगर लोकपाल के कारण भ्रश्टाचार को देष से थोड़े समय के लिये बाहर होना भी पड़़े तो उसे देष में वापस आने का रास्ता मिल सके।
वीर अनशनकारियों का देश
अन्ना हजारे ने जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अनषन करके वाहवाही लूटी तक हमारे देष के कई महान नेताओं और मंत्रियों को इस बात पर घोर आपत्ति हुई कि केवल 12 दिन भूखे रह कर एक मामूली आदमी जननायक बन गया लेकिन वषोर्ं से देश सेवा में जी—जान से जुटे उन नेताओं और मंत्रियों को कोई भाव नहीं दे रहा है, जिनकी बदौलत देश के लाखों गरीब, मजदूर और किसान वषोर्ं आमरण अनशन कर रहे हैं।
अन्ना का अनशन तो 12 दिन में ही खत्म हो गया लेकिन देश के नेताओं के कारण लाखों लोग महीनों—वषोर्ं तक आमरण अनशन कर रहे हैं और कई तो अपने अनशन के प्रति इतने समर्पित होते हैं कि वे भूख के कारण स्वर्ग सिधार जाते हैं, लेकिन अपना अनशन नहीं तोड़ते, लेकिन इन्हें कोई महत्व नहीं दे रहा है।
इन नेताओं का कहना है कि अन्ना हजारे का अनशन महज प्रचार पाने का हथकंडा भर ही था। नाम दिया आमरण अनशन का और 12 दिन में टूट गया। दूसरी तरफ हमारे देश के लाखों गरीब हैं जो हो—हल्ला और प्रचार किये बगैर ताउम्र अनशन करते हुये जन्नत को नसीब हो रहे है, लेकिन मीडिया की नजर में इनका बलिदान खबर नहीं है। यह मीडिया का दोहरा चरित्र नहीं तो और क्या है। एक आदमी ने 12 दिन अनशन किया तो मीडिया वालों ने उसे सर आंखों पर बिठा लिया, चौबीसों घंटे उसी की खबर जबकि जो लाखों लोग अनशन करते हुये खुशी—खुशी मौत को गले लगा रहे हैं और जिन नेताओं ने उन लाखों लोगों के आमरण अनशन के लिये माकूल परिस्थितियां बनायी, उनकी बाइट कोई नहीं ले रहा है।
उल्टे नेताओं के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। उन्हें यह कहकर बदनाम किया जा रहा है कि उन्होंने देश को बर्बाद कर दिया। इसके पीछे जरूर गहरी साजिश है। और नेताओं की तो छोडि़ये, उस महान नेता की भी कहीं वाह—वाही नहीं हो रही है जिन्होंने इस बात के लिये हर संभव कोशिश की कि गरीबों का अनशन किसी तरह से टूटे नहीं। उन्होंने सभी गरीबों को अनशन पर रखने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिये गोदामों में भरे करोड़ों टन अनाज को सड़ा दिया। अदालत,
विपक्ष, मीडिया और विपक्ष सड़े अनाज को गरीबों में बांट देने की सलाह देते रहे लेकिन वह अपने संकल्प से नहीं टिगे और उन्होंने इस बात की भरसक कोशिश की कि किसी भी गरीब के पेट में अन्न का एक दाना नहीं पहुंचे, चाहे सड़ा हुआ अन्न क्यों नहीं हो। उनकी कोशिश काफी हद तक सफल रही, लेकिन उनकी सफलता सरकार, सरकारी एजेंसियों और कई राजनीतिक दलों के पारस्परिक सहयोग से ही संभव हुयी।
हमारे नेताओं की वषोर्ं की कोशिश का नतीजा है कि आज देश में ऐसी परिस्थितियां तैयार हुयी है जिसके कारण न केवल लाखों गरीब ताउम्र अनशन करने को मजबूर हैं, बल्कि उनकी आने वाली सात पुश्तें भी नेताओं के दिखाये मार्ग पर चलती रहेंगी। इन नेताओं के कारण ही हमारा देश शहीदों एवं बलिदानियों का देश कहलाता है। हमारे देश में हर जगह वीर अनशनकारी भरे हुये हैं जो अनशन करते—करते शहीद हो गये। इन सबका श्रेय नेताओं को ही तो मिलना चाहिये, लेकिन आज उल्टे इन नेताओं को कोसा जा रहा है। सोचिये लाखों लोगों को ताउम्र अनशन पर रखना कितना धर्म का काम है। धर्म शास्त्रों में भी पुण्य प्राप्त करने के लिये भूखे रहने की सलाह दी गयी है। हमारे देश में प्राचीन काल में संत महात्मा और धार्मिक औरतें और कुछ महान लोग ही भूखे रहकर पुण्य प्राप्त करते थे। लेकिन आज नेताओं और मंत्रियों की बदौलत आम आदमी भी यह पुण्य प्राप्त कर रहा है और स्वर्ग जा रहा है।
वैसे तो हमारा देश तो सदियों से वीर अनशनकारियों का रहा है। लेकिन ये नेता चाहते हैं कि हर व्यक्ति अनशनकारी बनकर देश के लिये कुर्बानी दे। हमारे कर्तव्यनिष्ठ एवं जनप्रेमी नेता अपने कठोर इरादे को पूरा करने में काफी सफल हा चुके हैं और उम्मीद है कि ये नेता अगर सत्ता में बने रहे और अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुये तो बची—खुची सफलता अगले कुछ वषोर्ं में पूरी हो जायेगी। जरूरत तो इस बात की है कि देशवासियों को अन्ना हजारे जैसे फर्जी अनशकारियों के भुलावे में आने से बचाया जाये। अगर ऐसा हो गया तो जल्द ही हमारे महान नेताओं एवं मंत्रियों का सपना पूरा हो जायेगा।
तोप के मुकाबिल जूते
जूतों का महत्व अचानक बढ़ गया है। इनकी टी आर पी पैर से उठकर सिर तक पहुंच गयी है। जो लोग कल तक जूतों को पैरों तले रौंदा करते थे, वे आज जूतों को सिर आंखों पर बिठा रहे हैं। कई ने तो जूते पहनने बंद करके उन्हें मलमल के कपड़ों में लपेट कर लोहे की संदूक में रख दिया है। इसके बाद भी उन्हें जूते चोरी होने का डर लगा रहा है और रोज सोते—जागते उनके दिमाग में जूते ही घूमते रहते हैं। रात को सोने के पहले और सुबह जागने पर जूते देख कर जब तक तसल्ली नहीं नहीं कर लेते मन को चैन नहीं मिलता है। कई लोग तो बैंक लॉकरों में से जेवरात आदि निकाल कर उनमें जूते रखने के बारे में सोच रहे हैं। हमारे एक पडोसी षर्मा जी ने तो अपने बैंक के मैनेजर से जूतों के लिये विषेश लॉकर बनाने की मांग कर दी।
पहले जिन लोगों ने अपनी जमा कमाई षेयरों में बर्बाद कर दिये वे अब पछता रहे हैं कि उन पैसों को जूते अथवा जूते की कंपनियों के षेयर खरीदने में क्यों नहीं लगाया। जार्ज बुष पर जूतेबाजी की घटना के बाद जूतों का महत्व जिस तेजी से बढ़ रहा है उसे देखते हुये जूते और जूते बनाने वाली कंपनियों के षेयर खरीदना पक्के तौर पर मुनाफे का सौदा है।
जूतों के महत्व कवि लोग भी स्वीकार रहे हैं। आज अगर अकबर इलाहाबादी होते तो वे भी यही लिखते — जब तोप मुकाबिल हो तो जूते निकालो। कई लोग मान रहे हैं कि सद्दाम हुसैन को अमरीका एवं उसके मित्र देषों की सेना से मुकाबले के लिये तोपों, लडाकू विमानों और स्कड् बैलिस्टिक मिसाइलों के बजाय जूतों से काम लिया होता तो वह खुद को और इराक को नेसतनाबुद होने से बचा ले जाते। जो काम इराक के लडाकुओं, सैनिकों, दुनिया भर के अखबारों, चैनलों, बुद्धिजीवियों के लेखों ओर मानवाधिकार समर्थकों के प्रदर्षनों ने नहीं किया वह काम एक जोड़ी जूते ने कर दिया।
इस घटना से जूते की कारगरता एवं प्रभाव क्षमता जिस तरह से स्थापित हुयी है उसे देखते हुये ऐसा लगता है कि आने वाले समय में दो देषों के बीच युद्ध में तोप चलाये जाने के बजाय जूते ही चलने लगेंगे। यह भी किया जाना चाहिये कि भारतीय संसद में नेता लोग एक दूसरे पर व्यंग्य बाण चलाने के बजाये जूते चलायें। संसद में प्रष्नकाल के दौरान जिस सांसद को सवाल पूछने के लिये कहा जाये वह मंत्री की तरफ जूते फेंके और मंत्री जबावी जूते फेंके। चुनावों में हार जीत का फैसला करने के लिये मतपत्रों का इस्तेमाल करने के बजाय जूते का इस्तेमाल हो। एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को एक जगह बिठा करके उनपर जूते फेंके जायें और जिसे सबसे कम जूते लगे उसे चुना हुआ मान लिया जाये। अगर दो देष एक दूसरे से युद्ध करना चाहते हों तो एक दूसरे देषों की सेना को लड़ने के बदल उन देेषों के प्रधानमंत्रियों या राश्ट्रपतियों को एक जूते मारे जायें।
भविश्य में जूतों के ऐसे कई तरह के उपयोगों के प्रचलन में आने की संभावना है। अगर ऐसा हुआ तो सोचा जा सकता है कि किस भारी पैमाने पर संसाधनों को बर्बाद होने से बचाया जा सकता है।
अगर जूतों के इस तरह के उपयोग षुरू होने पर भारत में कुछ तरह की दिक्कतें आ सकती है क्योंकि यहां आधे से ज्यादा लोगों को तो जूते या चप्पल ही नसीब नहीं है। ऐसे में जूता विहीन आबादी को जूते मुहैया कराया जाना एक बडी चुनौती है, क्योंकि अगर उनके पास जूते ही नहीं होंगे तो चलायें क्या। दूसरी बात यह कि यहां कुछ लोग चमड़े, रबर या प्लास्टिक के बजाये लकडी के खडाउं पहनते हैं। यह भी तय करना होगा कि खडाउं चलाने के इजाजत दी जानी चाहिये या नहीं क्योंकि इससे खून खराबे का डर है।
समाज सुधार का ठेका
ठेके कई तरह होते हैं। कुछ ठेके हासिल करने के लिये षारीरिक एवं आर्थिक कवायत करनी पड़ती है — दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं, अधिकारियों से लल्लू—चप्पू करनी पड़ती है, संपर्क भिड़ाने पडते हैं, जेब ढीली करनी पड़ती है बगैरह—बगैरह। लेकिन कुछ ऐसे ठेके हैं जिन्हें लेने के लिये यह करने की जरूरत नहीं पड़ती, केवल बौद्धिक और तर्क क्षमता दिखानी पड़ती है। ऐसा ही एक ठेका है समाज सुधार का ठेका।
यह ठेका बहुत काम की चीज है। एक बार अगर आपने यह ठेका ले लिया तो जीवन भर आपके पास ही रहता है। इस ठेके के साथ खास बात यह है कि यह ठेका दिया नहीं जाता, बल्कि लिया जाता है या यूं कहें कि यह ठेका कोई देता नहीं है, बल्कि खुद लेना पड़ता हैैै। यह ठेका हर लल्लू—जगधर नहीं ले सकता है। समाज सुधार का ठेका लेने के लिये अपने—अपने षौक एवं क्षमता के अनुसार कई तरह के जतन करने पड़़ते हैं।
यह ठेका लेने के कई गुणों एवं कौषल की जरूरत है। यह ठेका आप लें इसके लिये सबसे पहली षर्त यह है कि आपको आप समाज बिगाड़ने की कला में माहिर हों। क्योंकि समाज जितना बिगड़ेगा आपका और आपके ठेके का महत्व बढ़ता जायेगा। भ्रश्टाचार, भाई—भतीजावाद से लेकर उन हर काम में आपको महारत होना चाहिये जो लोकतंत्र के लिये जरूरी है।
सबसे पहला जतन तो यही है कि समाज सुधार की हर कोषिष का विरोध करना, क्योंकि अगर समाज सुधार अगर हो गया तो उन जैसे लाखों करोड़ों ठेकेदारों एवं उनके समर्थकों का क्या होगा। अगर आप समाज सुधार का विरोध करने में माहिर हो गये तब आप समझिये कि आप यह ठेका लेने के हकदार हो गये हैं। यह ठेका लेने वालों के लिये जरूरी है कि वह पहले तो समाज सुधार की कोषिष को होने नहीं दे और अगर कोई कहीं समाज सुधार की कोषिष कर दे तो उस कोषिष को विफल करने के लिये सक्रिय हो जाये। इसके लिये सीडी, पीआईएल, टेलीफोन टैपिंग, मीडिया में बयानबाजी जैसे उपायों का सहारा लेना पड़ता है।
समाज सुधारने का ठेका जिन लोगों ने लिया होता है उनकी खास मानसिक स्थिति होती है और वे कभी नहीं चाहते कि कोई और समाज सुधार का ठेका ले। समाज सुधार के ठेकेदारों की कई श्रेणियां होती है। लेकिन इन्हें मुख्य तौर पर तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं — एक तो वैसे लोग होते हैं, जिन्होंने वर्शों से समाज सुधार का ठेका लिया तो होता है, लेकिन समाज सुधार की हर कोषिष का यह कहकर विरोध करते हैं कि अभी समाज सुधार का सही समय नहीं आया है और जब समय आ जायेगा तब वह समाज सुधार के बारे में सोंचेंगे।