jatayu in Hindi Short Stories by Manish Kumar Singh books and stories PDF | जटायु

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जटायु

जटायु

''अंकल नमस्‍ते। अभी तक जिन्‍दा हैं? मैंने सोचा कि सर्दी काफी पड़ रही है कहीं आप गुजर तो नहीं गए।'' मेरे साथ हवा खाने निकले मित्र ने सिगरेट के धुए से आकर्षक आकृतियॉ बनाते हुए सामने से गुजर रहे वृद्ध से कहा। स्‍पष्‍ट था कि वे दोनों पूर्व-परिचित थे।

''अरे बेटा ये जिन्‍दगी तो ऊपर वाले के हाथ में है। जब तक सांसें लिखी हैं जिऊगॉ ही।'' वृद्ध ने बोलने के लिए मॅुह खोला तो उसका पोपलापन और जाहिर हो गया। मित्र की बात पर मुझे हल्‍की सी हैरानी हुई। किसी के बारे में ऐसी बात कहना कहॉ तक उचित है। पर उनके सम्‍बन्‍ध के विषय में मुझे पूर्वज्ञान नहीं था इसलिए चुप रहा।

''ये मेरे दोस्‍त हैं।'' मित्र ने वृद्व से मेरा परिचय कराते हुए कहा। ''हिन्‍दी के अच्‍छे कहानीकार हैं। इनसे बात करके आपको आनन्‍द आएगा।'' वह अपनी रौ में कह रहे थे। मैंने नमस्‍तें किया। ''नमस्‍ते-नमस्‍ते!'' वृद्ध के चेहरे पर उत्‍साह झलका। ''किस विषय पर लिखते हैं?''''जी सामाजिक और पारिवारिक विषयों पर।'' मैंने उत्‍तर दिया।''सामाजिक और पारिवारिक विषयों पर..।'' उसने मेरी बात दुहरायी। लम्‍बे कद का बिखरे बालों और बढ़ी हुई ढ़ाढ़ी वाला व्‍यक्ति एक इंसानी खण्‍डहर लग रहा था। थोड़ा गौर करने पर पाया कि फटे मोजे के साथ चप्‍पल पहन रखा था। हालॉकि ठंड़ की शुरुआत भर थी परंतु उसने एक पुराना सा पूरे बॉह वाला स्‍वेटर भरी दोपहरी में धारण कर रखा था। इसके अतिरिक्‍त सर पर टोपी भी विद्यमान थी। वह बेंच पर बैठ गया। हमारे बीच मित्र बैठे थे। मैं उनसे बातें करने लगा। वह शून्‍य में देखता नितान्‍त तटस्‍थ बैठा था। कहीं वह उपेक्षित न अनुभव करे यह सोचकर मैंने उसकी पृष्‍ठभूमि, घर-परिवार के विषय में पूछा। वह ठंड़े स्‍वर में अपने घर-देहात और बच्‍चों के व्‍यवस्थित जीवन के बारे में बताने लगा। दो मिनट में खामोश हो जाने से ऐसा लगा कि उसके पास कहने को कुछ खास नहीं है। उसके प्रति मेरी सहानुभूति का कोष रिक्‍त हो गया। अब मैं मित्र के साथ औपचारिक हालचाल और पारिवारिक बातों से बाहर आकर अपने प्रिय विषयों यथा, सामाजिक-राजनीतिक और यहॉ तक कि सांस्‍कृतिक चर्चा करने को उद्यत हुआ। मित्र जो अब तक तनिक परिहास से हमारे संवाद का श्रवण कर रहे थे, अब आजादी के बाद से लेकर अब तक के विकास और उसका विभिन्‍न वर्गो में असमान लाभ को लेकर बातें करने लगे।

''ऐसा हैं हमें आजादी गलत समय पर मिली।'' मित्र ने सारगर्भित मत प्रकट किया। ''उस समय देश-दुनिया के हालात चाहे जो भी रहे हो हमारी लीडरशिप सही कंड़ीशन में नहीं थी।....अब देखिए सारे बड़े नेता बहुत बूढ़े हो चुके थे। आजादी पाने की जल्‍दी में कम्‍प्रोमाइज करने को तैयार थे। कुछेक आजादी के दो-चार साल के अन्‍दर चल बसे। ऐसे में आप क्‍या उम्‍मीद करेगें.. ? बाद के लोगों को अपनी जेब भरने और रिश्‍तेदारी निभाने से फुरसत नहीं मिली। अभी जो चल रहा है उसका हाल अच्‍छी तरह देख रहे हैं।''

''ऐसी तरक्‍की किस काम की?'' मैंने पुरजोर समर्थन वाले अंदाज में हाथ हिलाया‍।

''लोगों को परिवार, समाज किसी का लिहाज नहीं रहा। सफल होना इकलौता मकसद है।'' बगल में स्थित बूढ़ा खॉसने के बाद एकाएक बोल पड़ा। ''बाबूजी एक बात बताइए। एक आम हिन्‍दुस्‍तानी का गुजारा कितने रुपयों में चल सकता है?'' मैं उसके इस अप्रत्‍याशित हस्‍तक्षेप से जरा हड़बड़ा गया।

''क्‍या मतलब.... ?''''मैं यह पूछ रहा हॅू कि आज एक आदमी कितने में अपना गुजारा कर सकता है?''

''भई मुझे क्‍या पता। यह तो उसके खर्च के तरीके और परिवार के साइज पर निर्भर करेगा।''

-2-

''नहीं फिर भी एवरेज बताइए।'' उसने हठ किया।

''मैंने एवरेज नहीं निकाला।'' मुझे खीझ हुई।''देखिए मेरा ख्‍याल है कि सन् सैंतालीस के बाद से आज तक गरीब-गुरबे का कोई भला नहीं हुआ है। पहले अमीरों का महल और भव्‍य हुआ। अब मध्‍यम वर्ग की बन आयी है। गरीब जस का तस है।''

हमें उसके इस आकलन के एकतरफा रुख पर बिल्‍कुल ऐतबार नहीं हुआ। लेकिन मुझे उसका बात करने का तरीका सही नहीं लगा। इसलिए कुछ नहीं कहा वरना कहने को दुनिया भर के उदाहरण गिनाकर बताता कि बच्‍चू क्‍या इत्‍ती सारी योजनाओं का लाभ गरीबों को नहीं हुआ है। पर बोलने पर बात बढ़ती।

वह मंदबुद्धि मनुष्‍य की तरह बिना किसी प्रोत्‍साहन के जारी रहा। ''आज तक हमारे देश पर बस कुछ परिवार राज कर रहे हैं। चाहे वह दिल्‍ली से हो या राज्‍यों से। फिर पुरानी रियासतों के राजा और नबावों से ये किस तरह अलग हैं?'' न चाहते हुए भी मैंने एक सवाल किया। ''क्‍या आप यह मानेगें कि पहले कोई मिडिल क्‍लास नहीं था या बेहद छोटा था जबकि आज एक बड़ा मध्‍यम वर्ग है जो हर चीज जानता-समझता है?'' आखिर एक बुद्धिजीवी कब तक न्‍यून बौद्धिक क्षमता वाले के सम्‍मुख दबता।

वह अपरिष्‍कृत अंदाज में हॅसने लगा। जोरों से हिलते हुए उसका व्‍यक्तित्‍व और भी विद्रूपित हो चला था। ''सुनिए..सुनिए..,''वह अभी भी हॅसता हुआ हिल रहा था,''तब का इंसान अपना जीवन और परिवार को देश पर न्‍योछावर करने को तैयार था। पढ़ता भी था और बम भी बनाता था। अहिंसक आन्‍दोलन में शामिल होकर लाठी-गोली खाता था। आज इंटरनेट, अखबार, चौबीसों घंटे के न्‍यूज चैनल सब हैं। पर अपनी गाड़ी की टंकी के पेट्रोल, बैंक-बैलेंस और ज्‍यादा से ज्‍यादा बेटा-बेटी का सही जगह प्‍लेसमेंट के आगे कुछ नहीं सूझता। बगल के पड़ोसी का नाम तक हमें नहीं पता।....हॉ तो साहब आप बताइए कि एक फैमिली का महीने का औसत खर्चा कितना बैठेगा?'' वह बेहद गंभीरता से पुन: वही प्रश्‍न करने लगा। मुझे तो वह नितान्‍त बेशर्म दिख रहा था। झॅुझलाहट का प्रदर्शन स्‍वयं को नीचा दिखाने सद्दश्‍य है। इसलिए महापुरुषों की उस उक्ति को याद करके कि यदि कोई तुम्‍हें क्रोधित करने में सफल रहा तो समझो कि उसने तुम पर विजय प्राप्‍त कर ली। मैंने कोई उत्‍तर नहीं दिया। वह आगे जारी रहा। ''आप बोल गए। चलिए मैं बताता हॅू। अब मेरा ही लीजिए। मेरा राशन-पानी, बच्‍चों की पढ़ाई, रिश्‍तेदारी, कपड़ा-लत्‍ता मिलाकर पन्‍द्रह हजार महीने का खर्च है। कतर-ब्‍योत करु तो भी बाहर से नीचे नहीं आएगा। बीमारी में यह ऊपर जा सकता है।''

''अंकल जी आजकल तो आपका खर्च बहुत बढ़ गया होगा। बुढ़ापे में आदमी बीमार पड़ता रहता है।'' मित्र ने अनजाने में मेरी मदद की। ''कितना खर्च दवा-दारु पर करते हैं?'' उसके स्‍वर में व्‍यंग्‍य के साथ मनोविनोद का मकसद भी था। लेकिन हठी बूढ़ा विषयांतर से दूर रहा। ''हमारे क्षेत्र को ही लीजिए। जितने मॉल खुले हैं उसका छठवॉ हिस्‍सा भी सरकारी अस्‍पताल ऑर पाठशालाऍ नहीं बनीं।''

''अंकल जी आप तो इमोशनल हो गए।'' मित्र ने चुटकी ली। वे मेरी ओर ऑख दबाकर यह इशारा कर रहे थे कि उसकी बातों को गंभीरतापूर्वक लेने की आवश्‍यकता नहीं है।

आधा घंटा बरबाद करने के बाद मैं मित्र के साथ वहॉ से मुक्‍त हुआ। बूढ़े ने बेंच से उठते हुए अपने घुटनों ‍को हाथों से कई बार दबाया और कहा,''बाबूजी अगर भूल-चूक हो गयी हो तो माफ कीजिएगा।''

''अरे नहीं आप बुजुर्ग हैं, कैसी बातें करते हैं।'' मैंने पढ़े-लिखों वाली शिष्‍टता से काम लेते हुए उसका कंधा दबाया।

-3-

''घर से फालतू है बेचारा।'' मित्र ने उसके ओझल होने से पूर्व ही टिप्‍पणी की। अनुमान लगा लिया था कि ध्‍वनि तरंगें उसके कर्णो तक सम्‍प्रेषित नहीं हो पाएगी। 'फालतू' और 'बेचारा' दोनों को एक ही वाक्‍य में पिरो कर उसके जीवन और व्‍यक्तित्‍व पर पर्याप्‍त प्रकाश डाल दिया। मुझे यह सुनकर एक किस्‍म का संतोष हुआ। ''मैं इस बन्‍दे को जानता हॅू।'' मित्र ने आगे कहा। ''हमारे एक परिचित हैं उनका रिश्‍तेदार लगता है। पिछले एक हफ्ते से वहॉ टिका हुआ है और करीब महीने भर और ठहरेगा।''

''बाप रे....!'' मेरे मॅुह से निकला।

''अजी आपको क्‍यों गश आ रहा है। यह बन्‍दा मानवतावादी है। जब हर किसी को अपने गरीबखाने में फ्री की रोटी खिलाता है तो दूसरे के यहॉ भी धूनी रमाने का हक रखता है। हजूर इसके ऐसे-ऐसे कारनामे हैं कि दांतों तले उॅगली दबा लेगें। पहले कभी पी.एच.डी. करना शुरु किया था। बीच में छोड़ दिया। जवानी में किसी छात्रा की मदद के चक्‍कर में अपना कैरियर तबाह कर लिया। अच्‍छी-खासी नौकरी को छोड़कर स्‍टूडेंट मूवमेंट में कूदा। नौकरी भी गयी। बीबी गॉव-देहात की थी। छोड़कर नहीं गयी। मॉ-बाप ऐसे नालायक औलाद को कब तक झेलते। भाईयों ने इसका हिस्‍सा भी खा लिया।''

मुझे वृद्ध से सहानुभूति हो गयी। मित्र ने मेरा मनोभाव ताड़ लिया। ''ऐसे लोगों से हमदर्दी रखने की कोई जरुरत नहीं है। निकम्‍मा इंसान सब कुछ खो देता है। यह कोई अकेला एक्‍जॉमपल नहीं है। घर में खाने को चना-चबैना नहीं है और अपने साथ बुआ को भी रखे हुए है। एक विधवा बहन है। उसे भी मदद भेजता है। पत्‍नी और बच्‍चे भी हैं। अब बच्‍चे कमाने लगे तो इसकी हरकतों से आजिज होकर अलग ठौर जमा लिया। इस पर वह कुढ़ता है। जिसके यहॉ चला जाएगा बस गले पड़ जाएगा। कुर्त्‍ता-पाजामा कहीं भी टॉग देगा, बाथरुम में घंटा भर नहाना और फिर पूजा-पाठ..। भई आज के जमाने में कौन इतना सब झेलेगा?''

''पागल है और क्‍या।'' मैंने बात समाप्‍त करने के इरादे से फरमाया।''पगला कहीं का कहिए जनाब। पागल शब्‍द से तो तिरस्‍कार की बू आती है। पगला कहीं का में प्‍यार और रोमांस की गुंजाइश होती है।'' मित्र ने अपने विनोदपूर्ण स्‍वभाव के अनुरुप बात कही। ''कुछ भी कहिए यह आदमी है बड़ा इंटेरेस्टिंस कैरेक्‍टर। जिस जगह नौकरी करता था वहॉ बॉस से झगड़ा जरुर होता था। कहता कि छुट्टी के लिए एप्‍लाई करने और देर से आने पर टोके जाने पर उसे गुलामी की बू आती है। आखिरकार सब छोड़कर फ्रीलांसिंग शुरु की। लेकिन सरकार इतने काबिल तो हैं नहीं कि अपने दम पर गाड़ी खींच पाए सो थक हार कर हॉफने लगे। हर तरफ अपनी ईमानदारी का विज्ञापन करते फिरते हैं पर वक्‍त-जरुरत पर कोई भी नहीं बचा जिसके आगे हाथ न फैलाया हो। ऊपर से तुर्रा यह कि मैं खुद भूखा रह लॅूगा पर अपने परिवार को भूखा कैसे सुलाऊ।'' मित्र ने उपसंहार के रुप में आगे जोड़ा। ''कोई पास बैठने की गलती करे तो जनाब प्राचीन काल से लेकर आज तक की गाथा गाने लगेगें। जैसे इनसे बड़ा विद्धान पृथ्‍वी पर न कोई हुआ है और न होगा।''

करीब हफ्ते भर बाद वृद्ध का दुबारा दर्शन हुआ। मैं किनारा करके निकलने लगा था। तभी वहॉ का द्दश्‍य देखकर ठिठक गया। सात-आठ साल के कुछ गरीब बच्‍चे हाथ में बिस्‍कुट का पैकेट लिए हुए थे। दो-तीन शोहदे किस्‍म के लोग उनसे बिस्‍कुट झपटने के फिराक में थे। उन्‍हें डरा-धमका कर अपने पास बुला रहे थे। वृद्ध ने कड़क कर कहा,''खबरदार जो बच्‍चों से कुछ लिया। इनकी चीज है। इन्‍हें खाने दो। शर्म नहीं आती तुम सबको?'' वे लोग तितर-बितर हो गए। दरअसल पास के मंदिर में किसी श्रद्धालु ने बच्‍चों को टॉफी-बिस्‍कुट बॉटे होगें। वे उसे लेकर अपने घर जा रहे थे तभी यह काण्‍ड हुआ। जाते हुए एक शोहदे ने जोर से कहा,''ओ बुढ़ढ़े तूझे कोई और काम नहीं है ?'' इस पर वृद्ध नीचे झुककर कोई पत्‍थर ढूढ़ने लगा। ''रुक जा अभी बताता हॅू।''

-4-

उसकी द्दष्टि तब तक मुझ पर पड़ गयी। उत्‍तेजित स्‍वर में बोला,''देखा आपने यहॉ कोई भी बदमाशी का विरोध नहीं करता है। सब को अपना घर सेफ चाहिए। बॉलकनी और खिड़की से तमाशा देखने वाले हैं।'' सात्विक क्रोध से लबालब भरा वह तमतमाया हुआ इधर-उधर देख रहा था। बाद में मुझे पता चला कि वह आज बिजली विभाग में भी झगड़ा कर चुका है। आखिर उसे ऐसा क्‍यों लगता था कि वह सार्वजनिक असंतोष को वाणी दे रहा है। चारों ओर शांति व्‍याप्‍त है। लोग काम-धंधे में लगे हैं। सड़क पर ट्रैफिक सामान्‍य है। रेलगाडि़यों का आवागमन अगर बाधित भी हो रहा है तो कोहरे के कारण। कहॉ कोई आन्‍दोलन हो रहा है?

शाम को मित्र अपने पड़ोसी के यहॉ सपत्निक पधारे जहॉ वृद्ध ठहरा हुआ था। ''सुनिए बड़े मियॉ, हम शहरी गॉव-देहात के लोगों जैसे नहीं रह सकते। यहॉ छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा अफोर्ड करना हमारे बस का नहीं।''

वृद्ध हाथ जोड़कर कृत्रिम विनम्रता से बोला,''बजा फरमाया आपने। सड़क पर गाड़ी में हल्‍का सा डेन्‍ट लग जाए तो लोगबाग एक दूसरे को गोली मार देते हैं पर दूसरों के मामले में खामोश रहेगें। बगल के फ्लैट में चार दिन से लेकर चालीस रोज तक लाश पड़ी रहती है तब पड़ोसी पुलिस को खबर करते हैं। अन्‍दर कोई बुढि़या पड़ी है या मुर्दाखोर कुछ पता नहीं। ऐसी लाइफ का क्‍या कहना।'' वह समस्‍त नागर सभ्‍यता को लानत भेजने लगा।

अन्‍दर के कमरे में स्त्रियॉ वार्तालाप कर रही थीं। पड़ोसी की स्‍त्री ने कहा,''हमारे यहॉ वॉटर प्‍यूरिफॉयर सिस्‍टम खराब हो गया है। चाचा जी रोजाना दो बड़े बोतल पानी पीते हैं। आज भाभी जी आपके यहॉ से पानी ले जाऊगी।''

''हॉ-हॉ क्‍यों नहीं।'' मित्र की स्‍त्री ने मैत्रीभाव से इसकी स्‍वीकृति दे दी।

''बहनजी जब से आए हैं मैं तो हैरान हॅू। सुबह-सुबह योगाभ्‍यास, प्राणायाम से शुरु करके पूजा के बाद कुछ मॅुह में डालेगें। अखबार घंटों पढ़ेगें। पेन से कहीं निशान लगाएगें फिर एकाध बार उसपर चर्चा भी करने लगेगें। बच्‍चों को मिठाई-टॉफी जरुर देते हैं। कुछ ज्‍यादा बोलते जरुर हैं। कभी तो बिल्‍कुल चुप हो जाएगें लेकिन जब बोलेगें तो राजनीति, समाज और देश पर बोलते जाएगें।''

''लगता है भाभी उन्‍हें बोलने का मौका जिन्‍दगी में ज्‍यादा नहीं मिला है।'' मित्र की स्‍त्री भी परिहास पर उतर आयी।

वृद्ध बहुधंधी नहीं था। सिंगल ट्रैक वाले मनुष्‍य के लिए संभावनाऍ सीमित होती हैं। कर्मयोग के द्धारा कुछ उपार्जन अवश्‍य कर लेता था परंतु परिणाम वही ढाक के तीन पात जैसा था। बाहर बैठक में पुरुष वार्तालाप कर रहे थे। संदर्भ न जाने क्‍या परंतु वृद्ध ने अपना फलसफा सुनाना प्रारम्‍भ कर दिया। ''आप फरमाते हैं कि यहॉ मेरी सेटिंग नहीं हो पा रही है। पर बात ऐसी नहीं है। सभी जगह लोग एक जैसे होते हैं। हर कोई प्‍यार चाहता है। किसी को कष्‍ट पसंद नहीं है। यहॉ जबलपुर में गोरखपुर मिल जाता है। दिल्‍ली में गाजीपुर है। कौन कहॉ नहीं है।''

पड़ोसी की स्‍त्री सब्‍जी काटने लगी। ''सब लोग साथ खाना खाएगें।'' उसका आत्‍मीय अनुरोध था। ''नहीं बहनजी घर पर बना रखा है।'' मित्र की पत्‍नी ने संकोच किया। ''यही तो बात है।'' वृद्ध ने बात को कुशल क्षेत्ररक्षक जैसा लपक लिया। ''आज कोई प्रेम सहित बुलाए तो इंकार नहीं करना चाहिए। हमारे यहॉ कोई न्‍योता छोड़ा नहीं जाता है।'' सब्‍जी काटती महिला को देखकर वह बोला,''परवल को बारीक काट कर सब्‍जी बनाइए और महज दो फॉक करके पकाइए। फिर जरा स्‍वाद का अन्‍तर देखिएगा।'' उपस्थित जनों को समझ में नहीं आ रहा था कि इन सबका पिछली कहीं बातों से क्‍या मतलब है। ''इधर आकर देखा कि कुछ लोग खाने से पहले भूख लगने के लिए सूप पीते हैं। हम लोग तब खाते हैं जब जोरदार भूख लगी हो।'' वह जारी रखा।

-5-

''एक बार की बात है,'' उसने आगे अपना अनुभव सुनाया,''मैं ट्रेन से कहीं जा रहा था। उस समय आप लोगों की तरह जवान था इसलिए सबसे ऊपर की बर्थ पर चढ़कर अपना सामान बिछाकर मजे से लेट जाता। वेश भूषा मेरी जरा देहाती थी। एक पुलिस के साहब आए और जरा कड़क आवाज में पूछने लगे‍ कि आप क्‍या करते हैं? हमने बताया कि प्रोफेसर हॅू। छात्रों को पढ़ाता हॅू। वे मेरा बैग टटोलने लगे। एक जगह उगली घूमाकर पूछा कि यह क्‍या है? मैंने बता दिया कि भाई साहब यह सत्‍तू है। वे रुक गए। जाते-जाते बोलते गए कि प्रोफेसर हैं और सत्‍तू खाते हैं।....अब तो भईया मेरा दिमाग सनक गया। गॉव-ज्‍वार का आदमी जाग उठा। तुरंत बोला, सुनिए साहब आप चाहे सार्जेन्‍ट हो या मेजर, जरा सुनिए। सत्‍तू खाना आपके बस का नहीं है। इतनी जानदार चीज हर कोई नहीं न खा सकता और न ही पचा पाएगा। इसकी कीमत भी दूसरी चीजों से कम नहीं है। यह बस गरीबों और कम पढ़े-लिखों का भोजन नहीं है। इसे प्रोफेसर भी खा सकते हैं।....यकीन मानिए ट्रेन में हंगामा हो गया। वे साहब चुपचाप खिसक गए।''

निष्‍कर्ष के रुप में उस प्रलापी वृद्व ने कहा,''हम सब ऐसी नाव पर सवार हैं जिसमें सूराख ही सूराख है।'' उसकी हरकत जमीन में मिट्टी में घुसकर काम करने वाले कृमि सद्दश्‍य थी। कीड़ा अपना काम कर रहा था। उसका कार्य पारिस्थितिक तंत्र के लिए उपयोगी ही नहीं अपरिहार्य है। मेहनत वह कर रहा था। चाहे एक साधक की भॉति कर रहा हो या समर्थ सांसारिक बनने के लिए। समय का सदुपयोग करने में वह बड़े-बड़ों से कम नहीं था। वह भारत के आम जन से मिलता-जुलता दिख रहा था। एकबारगी तो ऐसा लगा कि जनता घनीभूत होकर उसके शरीर, भाषा, शब्‍दों और मिजाज में घुस गयी है। वह बेहद दुर्दान्‍त दिख रहा था और साथ ही अत्‍यन्‍त जीवन्‍त भी। न जाने कैसे हर अवसर पर प्रतिवाद के गुण को गोरस की गगरी की भॉति सॅभालकर रखा था। मित्र उपहाससूचक कोई टिप्‍पणी करना चाहते थे। मैं भी विनोद के मूड में था। लेकिन सीधे-सच्‍चे अर्ध पागलों का सदैव मजाक उड़ाना शायद सम्‍भव न था। हम सब जरा देर के लिए अवाक से रह गए। विचित्र व्‍यक्त्वि वाले वृद्व का प्रतिरोध मिट्टी के स्‍वभाव सद्श्‍य था जो अग्नि की तपिश सहकर भी पुन: न जाने किस नमी के सहारे फिर से तृण को अपने गर्भ से बाहर ले आती है।

(मनीष कुमार सिंह)

लेखक परिचय

मनीष कुमार सिंह। भारत सरकार,सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,कथाक्रम,समकालीन भारतीय साहित्‍य,साक्षात्‍कार,पाखी,दैनिक भास्‍कर,नयी दुनिया,नवनीत,शुभ तारिका,लमही, अनभै सॉंचा इत्‍यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह-'आखिरकार','धर्मसंकट','अतीतजीवी',’वामन अवतार’ और ‘आत्‍मविश्‍वास’ प्रकाशित।

पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्‍तर प्रदेश। पिन-201019

मोबाइलः 9868140022

ईमेलःmanishkumarsingh513@gmail.com