Bhartiya Sanskruti Banaam Pakshyat sansurti in Hindi Magazine by डॉ. ऋषि अग्रवाल books and stories PDF | भारतीय संस्कृति बनाम पाश्चात्य संस्कृति

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भारतीय संस्कृति बनाम पाश्चात्य संस्कृति

भारतीय संस्कृति बनाम पाश्चात्य संस्कृति

संस्कृति एवं सभ्यता ये दो प्रकार के मुख्य स्तम्भ हैं। जिससे संसार का निर्माण होता हैं। संस्कृति शब्द का उल्लेख यजुर्वेद में सर्वप्रथम किया गया है। संस्कृति चिन्तन और कलात्मक सृजन है जो जीवन को समृद्ध बनाती हैं। सरल शब्दों में मनुष्य द्वारा सृजित विभिन्न कलाएँ विशेषकर ललित कलायें, साहित्य, संगीत, चित्र, शिल्प संस्कृति के उपदान हैं। सभ्यता से आशय मानव जीवन के रहन-सहन के लिये जुटाये गये श्रेष्ठ उपकरण हैं। सभ्यता एक सामाजिक व्यवस्था है जिसके द्वारा मानव की जीवन यात्रा सरल-सुखद होती है।

किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम संस्कृति है जो उस समाज के कार्य से लेकर सोचने-विचारने, रहन-सहन, खान-पान, बोलने, साहित्य, कला, नृत्य, गायन, वस्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घकाल तक अपनाई गई पद्धतियों का परिणाम होता है। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधार और उन्नत करता रहता है।

विश्व की संस्कृतियों में हिन्दुस्तान की संस्कृति प्राचीनतम मानी गई है। सिन्धु घाटी में इसके अवशेष उपलब्ध हुए हैं। वैदिक काल के साहित्य से भारतीय संस्कृति की परम्परा मिलती है। भारतीय संस्कृति अनोखी तथा अद्भुत है। इसकी जीवनी शक्ति की तुलना में विश्व की कोई भी सभ्यता तथा संस्कृति नहीं ठहरती है।

हमारी भारतीय संस्कृति में अलग-अलग प्रकार के धर्म, जाति, रीति-रिवाज, पद्धति, बोली, पहनावा, रहन-सहन, खान-पान व अनेक प्रकार के उत्सव-पर्व हैं, जिन्हें वर्ष भर बड़े धूमधाम से मनाये जाने की परम्परा है। ये उत्सव और पर्व हमारी भारतीय संस्कृति की अनेकता में एकता की अनूठी पहचान कराते हैं।

भारतीय संस्कृति में रथ यात्राएं हो या फिर किसी महापुरुष की जयंती हो या फिर ताजिये हो, मन्दिर-दर्शन हो या कुंभ-अर्द्धकुम्भ या स्थानीय मेला या फिर कोई तीज-त्यौहार ये सब हमारी संस्कृति की अनूठी पहचान हैं। भारतीय संस्कृति की यह महानता है कि उसमें प्रत्येक प्राणी को आदर-सत्कार प्रदान किया है। भारतीय संस्कृति हमें भाईचारा, स्नेह, प्रेम, विश्वास, मान-सम्मान, आदर-सत्कार करना सिखाती हैं।

पाश्चात्य संस्कृति भारतीय संस्कृति से भिन्न है। पाश्चात्य संस्कृति मुख्यतः प्राचीन यूनान तथा आधुनिक यूरोप तथा अमेरिका की संस्कृति है। पश्चिमी संस्कृति शब्द का इस्तेमाल मोटे तौर पर सामाजिक मानदंडों, नैतिक मूल्यों, पारंपरिक रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं, राजनीतिक प्रणालियों और विशिष्ट कलाकृतियों और प्रौद्योगिकियों की एक विरासत को संदर्भित करने के लिए किया जाता है।

प्रायः हमारे देश में अब दो प्रकार की संस्कृति हमें देखने को मिल रही हैं एक हमारी भारतीय संस्कृति और दूसरी अंग्रेजों की संस्कृति मतलब पाश्चात्य संस्कृति। भारतीय संस्कृति जिसमें सदाचार, त्याग, बलिदान, संयम, धर्म, जाति, भाषा, सामाजिक परंपराएँ, रीति-रिवाज आदि हैं। वही पाश्चात्य संस्कृति में साफ-सफाई, सुरक्षा, नई सोच, नई तकनीकी के साथ नग्नता, फूहड़ता, अश्लीलता व नशा व्याप्त हैं।

आज हमारें देश में अजीब तरह के लोग विकसित हो गये हैं जो पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उमड़ तो रहे हैं पर उसका अनुसरण सिर्फ अधूरा कर रहे हैं। जिसके कारण फूहड़ता, अपराध बढ़े हैं। पाश्चात्य संस्कृति का कुप्रभाव आज के युवकों पर पड़ रहा है। आधुनिकता थोड़ा सुख दे सकती है। लेकिन जीवन बर्बाद भी कर देती है। वही सब तो हमारें देश के युवाओं के साथ हो रहा हैं वो आधुनिकता की चकाचैंध में इस कदर खो गये हैं कि वो हर रिश्ते-नाते, मान-सम्मान, आदर-सत्कार सब भूल गये हैं। पाश्चात्य संस्कृति में हम उनकी चाल-ढाल, उनके पहनावें और शिक्षा का अनुसरण तो कर रहे हैं पर उनकी जैसी सोच-विचारधाराओं से हम अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।

नंगापन, गिटर-पिटर अंग्रेजी, रिश्तों में भारी गिरावट, प्यार शब्द पर हवस की छाप, नारी का हनन इत्यादि हमें पाश्चात्य संस्कृति से ही तो मिल रहा हैं। जहाँ एक तरफ हम भारतीय संस्कृति का हनन कर रहे हैं वही दूसरी तरफ अंग्रेज लोग हमारे देश में आकर हमारी संस्कृति को अपनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। अंग्रेज लोग अपनी संस्कृति को छोड़कर हमारी संस्कृति में खुद को रंगना चाहते हैं इसका मतलब साफ जाहिर हैं कि हमारी संस्कृति सर्वगुण सम्पन्न हैं और हम उसी संस्कृति का हनन कर रहे हैं। जहाँ नजरों की शर्म हुआ करती थी आज वो ही शर्म बेहया बन गई हैं।

शिक्षा पद्धति की अगर बात की जाये तो आज हमारे शिक्षण संस्थानों पर इंटरनेट और टीवी के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति हावी हो चुकी है, जिसकी वजह से बच्चों की शिक्षा व उनके संस्कारों में भारी गिरावट आई है। आज हमारें शिक्षा संस्थानों में शिक्षा व्यवस्था पाश्चात्य संस्कृति को ध्यान में रख कर तैयार की जा रही है। बच्चों का उठना, बैठना और बोलना सभी पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप ढाला जा रहा है। आज शिक्षण संस्थान खुद को आधुनिक बनाने के लिए बच्चों की पोशाक को भी आधुनिक रूप दे रहा है। संस्थानों की पोशाक बच्चों के लिए कुछ इस प्रकार की रखी गई हैं कि बच्चे आकर्षक दिखें।

मैं मानता हुं कि इसमें कुछ भी बुराई नहीं है। आधुनिक दिखना कोई बुरी बात नहीं है और ये अच्छा भी है कि विद्यालय में जाने वालें बच्चें सुन्दर सुसजित पोशाक में ज्यादा खुबसुरत दिखेंगे। लड़कों की पोशाक फिर भी ठीक हैं पर लड़कियों की पोशाक को ज्यादा ही आधुनिक रूप दे दिया हैं। जहाँ कभी बेटियों की पोशाक सलवार सूट हुआ करती थी वही आज पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करते हुवे हमारें शिक्षण संस्थान बेटियों की पोशाक मिनी स्कर्ट बना दी हैं। पांचवीं कक्षा तक की बच्ची अगर मिनी स्कर्ट पहने तो फिर भी लाजमी हैं पर शिक्षिण संस्थानों ने 12 वीं क्लास तक की बच्ची को भी मिनी स्कर्ट पहनने के लिए मजबूर कर दिया हैं। जिसके कारण बेटियों कों विकृत मानसिकता से परिपूर्ण लोगो की गन्दी नजरों का शिकार होना पड़ रहा है।

अब जरा सोचिये कि क्या यह शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा है ? क्या शिक्षा प्राप्त करने के लिए नारी का अंग प्रर्दशन करवाना जरूरी है ? क्या शिक्षा भारतीय परिधान में नहीं हो सकती है ? क्या आधुनिक रूप धरकर बच्चे सुसंस्कारित हो जायेंगे ? क्या पाश्चयतीकरण ही हमारी शिक्षा पद्धति का जरूरी हिस्सा बन गया है ? क्या गिटर पिटर अंगे्रजी बोलकर हम पूर्ण रूप से विदेशी बन जायेंगे ?

भारत आज एक ऐसा विशाल देश हैं जिसका अतीत इतना गौरवमयी हैं कि जितना गर्व किया जाएं उतना कम पड़ेगा। हमारें देश में इतनी परम्पराएँ, विभिन्नताएं, भाषाएं, धर्म, जातियां हैं कि उन्हें गिनना और उन्हें याद रखना भी बहुत मुश्किल हैं। हमारा देश आज सभी देशों के लिए आश्चर्यजनक बना हुआ हैं फिर भी हम इतने काहिल और नकारा हो गए है कि न तो हमें सुनाई देता है और न दिखाई देता है यानि कि इस आधुनिकता कि दौड़ में हम और हमारा समाज पंगु हो गया है।

भारत दौलत और सम्पन्नता के कारण सोने की चिडि़या कहलाता था। हमारे देश को लुटने के लिए कई विदेशी भारत पहुँचे। उनके साथ नई संस्कृतियों और उनकी भाषाओं का देश में आगमन भी हुआ। उन संस्कृतियो और उनकी भाषाओं ने हमारी भाषा हिन्दी को भी प्रभावित किया। लेकिन इससे हिन्दी के वजूद पर कभी कोई भी असर नही पड़ा था। लेकिन अंग्रेजो के आगमन के साथ अंग्रेजी भी भारत में आई। सात समंदर पार से आई इस भाषा ने भारत की सबसे लोकप्रिय भाषा हिन्दी की जड़ो को हिला कर रख दिया।

आज हमारे देश में अंग्रेजी इस तरह विद्यमान हो चुकी हैं कि हमारें कई महत्वपूर्ण कार्य इसी भाषा में संचालित होने लगे। कोर्ट से लेकर बच्चों की शिक्षा तक अंग्रेजी अपना आधार बना चुकी हैं। अंग्रेजी आज के युवाओं की जरूरत बन चुकी हैं। अंग्रेज चले गये पर आज भी अंग्रेजो की गुलामी की दास्ताँ अंग्रेजी और अब उनकी संस्कृति हम पर हावी हो चुकी हैं। चीन, जापान, रसिया, जर्मनी, फ्रांस ने आज तक अपनी संस्कृति और अपनी भाषा के साथ कभी छेड़-छाड़ नहीं की। तभी आज वो विकसित हैं और हमसे हर स्तर में आगे हैं।

हम भारतीय क्यूँ अपनी भाषा हिन्दी और संस्कृति के वजूद की अहमियत को नहीं समझ पा रहे हैं। हिन्दी भाषा भारत मे सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा होने के साथ-साथ देश की मुख्य साहित्यिक भाषा भी है। आजादी की लड़ाई के समय हिन्दी ने ही पूरे देश को एकजूट किया था। हमारी संस्कृति और हमारा इतिहास हिन्दी भाषा के जरिए ही हम तक पहुंचा है। भारत की प्राचीनतम देव भाषा संस्कृत से विकसित हुई हिन्दी, संस्कृत के अस्तित्व के लिए भी बेहद जरूरी है। संस्कृत भाषा भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। इसलिए संस्कृत और भारतीय संस्कृति दोनो का प्रचार-प्रसार हिन्दी बिना नामुमकिन है। हिन्द से हैं हम और हिन्दी से ही हमारा वजूद है। इसलिए इस आधुनिकता के दौर में इतना मत खोइए की हम भारतीय की जगह अंग्रेज बन जाएँ।

हिन्द से हम, हिन्दी बोलने में फिर क्यों शर्म

ये हैं देश की गरिमा, बोलना इसे हमारा धर्म

मीठी वाणी इसकी लागे, जैसे हिवड़े के बोल,

दो शब्द गर बोल लोगे, ना लगेगा कोई मोल

हिन्दी सबसे सरल, हैं ये हमारे देश की शान

अपना लो दिल से, होगी सब भाषा से महान

त्याग दो तुम सब, मोह विदेशी भाषाओं का

गर्व करो देश की आन-बान हिन्दी भाषा का

छोडो अंग्रेजी, हिन्दी से बनी हमारी पहचान

हिन्दी से ना होंगे हम अंजान, देती हमें ज्ञान

हिन्दी तिरंगा, हिन्दी गंगा, ये ही जीवनधारा हैं,

‘ऋषि’ संतो ने भी माना, हिन्दी ही उजियारा हैं

ये सच भी है कि हमारा उदय सिर्फ हिन्दी भाषा ही कर सकती हैं। क्योंकि पहले हमें अंगे्रजों ने दो सौ साल तक लुटा और आज उनकी भाषा और उनकी संस्कृति हमारा हनन कर रही हैं। हिन्दी भाषा से हमारी पहचान होती है कि हम भारतीय है। हिन्दी भाषा में जितना प्रेम स्नेह है उतना रोमन भाषा में नहीं है।

आज हमारी मानसिकता का इस तरह पाश्चात्यीकरण हो चूका हैं कि हम क्या से क्या हो गए हैं। हम फैशन की होड़ में इतने अंधे हो गये हैं कि हम अपने संस्कार और अपने आचरण ही भूल चुके हैं। युवाओं को माँ-बापुजी बोलने में शर्म आने लगी हैं अब हमारें युवा माँ को मम्मी कहते हैं तो वही पिता को डेड बना दिया। सही मायने में देखा जाएँ तो मम्मी तो एक संरक्षित शव को कहते हैं जिसके अंग एवं त्वचा को जान बूझकर या बिना बूझे समझे ही किसी विधि से संरक्षित कर दिया जाता है। वही डेड का मतलब मृत। वैसे आजकल माँ को मम्मी के साथ-साथ मोम भी बन दिया हैं मतलब साफ हैं पाश्चात्य ने हमारे सारे रिश्ते मृत कर दिए हैं। तभी तो माता-पिता को इस तरह के नामों से पुकारा जाने लगा हैं।

भाई ब्रो तो बहन सिस बन चुकी हैं। दोस्त गायज तो खुद युवा डयूड बन चुका हैं। पत्नीे संबोधन भी ‘वाइफ’ और ‘मिसेज’ नाम से पुकारा जाने लगा है। लेकिन ग्रन्थों में ऋषि मुनियों द्वारा पत्नी और उसके पर्यायवाची शब्दों का औचित्य (अर्थ) समझाया गया है और उसका हमारें जीवन से गहरा सम्बन्ध बताया गया है।

‘पत्नी‘ मतलब पति को पतन से बचाने वाली स्त्री ही पत्नी है। इसी तरह पत्नी का दूसरा पर्यायवाची शब्द ‘भार्या’ है। भार्या मतलब समूचे परिवार का भरण-पोषण करने वाली। इसी तरह ‘अर्धांगिनी’। ‘अर्धांगिनी’ की उत्पत्ति शिव के अर्धनारीश्वर रूप से हुई है। हर स्त्री में आधा पुरुष और हर पुरुष में आधी स्त्री छुपी होती है। अर्धांगिनी स्त्री-पुरुष के बीच समानता का द्योतक है। जिस समानता के लिए पश्चिमी लोग नारीवादी आंदोलन करते रहे हैं वह समानता हमारे समाज में सहज मिल रहा है। पश्चिम के कई देशों में तो अब जाकर स्त्रीं को मताधिकार का अधिकार मिला है। अमेरिका में आज तक स्त्री राष्ट्रपति नहीं बन पाई है जबकि भारत में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के रूप में प्रतिभा पाटिल रह चुकी हैं।

हमने अपनी संस्कृति को ये कैसा रूप दे दिया है, उस पर अब हमें चिन्तन करना होगा। जहाँ एक तरफ हमारी भारतीय संस्कृति रिश्तों को जोड़ना सिखाती हैं वही पाश्चात्य संस्कृति रिश्तों में दरार पैदा कर रही हैं। जहाँ आज हमारे माता-पिता अपने शादीशुदा जिंदगी का सफर आनन्द के साथ निभा रहे हैं वही आज की पीढ़ी रिश्तों को दो पल में जोड़कर, दो पल में तोड़कर आगे बढ़ रही हैं। जहाँ हमारे माता-पिता हर सुख दुःख में एक दुसरे का साथ निभा रहे हैं वही युवा पीढ़ी ना सुख के साथी बनते हैं ना दुःख के। ऐसा क्यों हो रहा हैं ? क्यूँ आज हम रिश्तों की परिभाषा और मर्यादा भूल रहे हैं ? क्यूँ हम अपने संस्कार और संस्कृति का हनन करने पे तुले हुवे हैं ?

आज की वर्तमान स्थिति को देखे तो पाश्चात्य की वजह से लोग योग-व्यायाम को छोड़ जिम की तरफ रुख अपना लिया हैं। साधारण परिधान त्याग कर लोवेस्ट जींस या फटी हुई जींस या फिर मिनी स्कर्ट को पहनावा बना लिया हैं। माँ के हाथ के पराठे त्याग कर आजकल के बच्चें पिज्जा, बर्गर और फास्ट फूड की तरफ भागने लगे हैं। दूध-लस्सी को त्याग कर कोल्ड्रिंक को पीने लगे हैं। हिन्दी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी भाषा की तरफ भागने लगे हैं। देश के बारे में बात करें तो पुराने ख्यालात लगने लगे हैं। रिश्तें-नातो के नाम पर कतराने लगे हैं। ये कैसा आधुनिकरण हुआ हैं हमारा कि हम खुद से खुद को दूर करने लगे हैं। ऐसी विकृत मानसिकता का स्थायी घर बनाने से पहले इसकी रोक बेहद जरूरी हैं वरना हमारी नैतिकता का पतन होना लाजमी बन जाएगा।

मानता हूँ आधुनिकता की हमें जरूरत हैं क्यूंकि हमारी रुढि़वादी सोच और कुरुतियाँ इसी आधुनिकता की वजह से खत्म हो रही हैं। पर भारतीय समाज में आधुनिकीकरण के नाम पर पाश्चात्यीकरण हो रहा है। फिर ऐसी आधुनिकता हमारे किस काम की जिसमें सिर्फ अपराध हावी हुवे हैं। जिससे एक दुसरे के प्रति मान-सम्मान की दृष्टि खत्म हो रही हो। जिसमें रुढि़वादी सोच तो खत्म हो रही हैं पर संस्कार को दंश लग गया हैं। बहन-भाई के रिश्ते भी अब सोचनीय स्थिति के बन चुके हैं। जहाँ भाभी माँ सम्मान हुआ करती थी आज उसे ही हवस की कुदृष्टि लग गई हैं।

आधुनिकरण के इस युग में युवाओं को अपने परिधान का भी ध्यान नहीं रहता। वह अपने परिधान अपनी पंसद और विज्ञापनों को देख कर पहनता है जबकि माता-पिता का मत का मुल्य ही खत्म हो गया है। माता-पिता की पंसद के परिधान आज एक नन्हा बालक भी नहीं पहनता। आज फैशन के नाम पर युवा ऐसी पतलून पहनने लगा है कि पतलून कमर से निचे खिसकने लगी हैं और उसका अधिकांश समय तो अपनी पतलुन सही करने में ही बीत रहा हैं। आज विद्यालय और काॅलेज के छात्र भी फिल्मी सितारों को देख नित नये-नये फैशन के तरीको को अपना रहे हैं। इस बदलाव के दौर में लड़कियों ने भी फैशन के नाम पर दुपट्टा त्याग दिया हैं। नाभि से निचे कपड़े पहने जाने लगे हैं। आज युवाओं ने अपने पहनावें को पूर्णतः बदल दिया हैं और उनके पहनावे को अभिभावकों ने भी नजरअंदाज कर दिया है। और इस कारण भावी पीढ़ी इस फैशन के दुषित वातावरण में जी रही है जिसे बचाने का प्रयास अब कोई नहीं कर पा रहा है।

आज हमारें देश के कर्णधार कहे जाने वाला युवा वर्ग नशे के जाल में फंस गया है। लड़के हो या लड़कियां नशे में धुत रहने लगे हैं। नशें को भी फैशन की तरह अपनाया जा रहा हैं। युवकों को देख कुछ युवतियाँ भी उसका अनुसरण कर नशे का शिकार हो रही हैं। सही मायने में हमारी आजादी के नाम का हनन हो गया हैं। आज हमारें देश के कर्णधार कहे जाने वाले युवा शराब, गांजा, सिगरेट, जुआ, कोकीन, हवस, पैसों की चमक और अपराध की ओर ज्यादा अग्रसर हैं।

अब हमारे युवाओं की शारीरिक स्थिति भी ऐसी नहीं रही है कि वो देश के कर्णधार बने। आज का युवा कुछ डगर पैदल भी नहीं चल सकता है। सभी को स्कूटर, बाईक या कार चाहिए। फिर चाहे स्कूल जाना हो या फिर मन्दिर जाना हो या फिर आधा या एक किलोमीटर कहीं ओर। बिना स्कूटर, बाईक, कार के उनका जीवन ही थम जाता है। पैदल चलना और साइकिल चलाना दोनों मेहनत के काम अब युवाओं से नहीं होते है। और इसी वजह से शारीरिक रूप से वो कमजोर हो रहे है। जिस तरह से हमारे देश में बदलाव का बिगुल बज रहा हैं उससे बदलाव कम युवाओं को पथ भ्रष्ट जरुर देखा हैं। जो युवा आज खुद का नहीं सोच पा रहा हैं वो भला क्या देश का कर्णधार बनेगा।

असल में मूर्ख, अपने शब्दों से अज्ञान और अनुगामी पीढ़ी केवल भेड़ सदृश्य नकल कर सकती है, वास्तविकता से ऐसे लोगों का व्यक्तित्व कोसों दूर होता है। परिवर्तन प्रत्येक संस्कृति की अनिवार्य आवश्यकता है। लेकिन इतना परिवर्तन भी किस काम जो हानिकारक हो, जिससे आज नैतिक मूल्य ही समूल नष्ट होने लगे।

सच कहुं तो

वक्त बदल रहा हैं, इंसान की फितरत बदल रही हैं

रहन -सहन, वेशभूषा, संस्कृति भी बदल रही हैं

मौन हो चूका इन्सान, आदर - सत्कार भूल रहा हैं

रिश्तो की मर्यादा के साथ, मानवता खत्म हो रही हैं

युवा अच्छाई छोड़कर, नशाखोर, जुआरी हो रहा हैं

जिन्दगी से ज्यादा तो मौत सस्ती होती जा रही हैं

ये कैसा युग हैं, इंसान का दुश्मन इंसान हो रहा हैं

झूठ, कपट के आगे ‘ऋषि’ दुनिया नमन हो रही हैं

एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धांत, विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे हुए होते थे। उनकी सोच, उनके विचार देश भक्ति में लिप्त थे। वे स्वयं ही अपने संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज हमारा युवा वर्ग पाश्चात्य संस्कृति की चकाचैंध में भ्रमित हो चुका हैं। भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछडेपन का अहसास होने लगा है। जिस देश की युवा पीढ़ी पर पुरे देश के भविष्य की जिम्मेदारी हैं, जिसकी उर्जा से रचनात्मक कार्य सृजन होना चाहिए। आज उस युवा पीढ़ी की पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है।

आज प्रायः देखे तो युवा वर्ग अपनी जिम्मेदारियों से कोसो दूर भागने लगे हैं। संस्कारो के साथ अपने अंदर के नैतिक मूल्यों का भी उन्होंने हनन कर दिया हैं। पश्चिम की इस दूषित व्यवस्था ने न केवल भारतीय समाज को दूषित किया है अपितु भटकाया भी है। मानता हूँ कि आज आधुनिकता की जरूरत हैं हर तरफ आज देश और दुनिया बदल रही है, इसके साथ-साथ सोच विचार और मूल्य भी बदल रहे हैं, पर इसका ये अर्थ तो नहीं कि हम स्वतंत्रता के नाम पर हमारी सनातन परम्पराओं एवं नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दें। बदलाव जरूरी हैं पर ऐसे बदलाव की कदैव आवश्यकता नहीं कि हम अपनी सभ्यता, आचरण, संस्कार, संस्कृति को ही खत्म कर दें।

हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते हैं जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज पश्चिमी देशो में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र, औषधियां का ख्याल भी तब आता है जब पश्चिमी देश उन्हें पेटेंट करवा लेता है।

योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया था पर जब से वही योग ‘योगा’ बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं। मतलब साफ हैं हमारे पूर्वज जिस चीज का अनुसरण करते थे वो हमने फैशन के नाम पर त्याग दिया और जब पश्चिमी ने वही चीजें अपनाई तो हम वापस उसका अनुसरण करने लगे।

आज नगरों-महानगरों की बात तो दूर अब तो छोटे-छोटे गाँव, कस्बों, देहातों में भी पाश्चात्य सभ्यता अपना रंग बिखेरने लगी है। हाय हमारी किस्मत कि हमारा परिवेश तो बदल रहा हैं साथ में खान-पान, रहन-सहन भी बदल रहा हैं पर हमारी सोच वही की वही आज भी स्थिर हैं। आज जहाँ हमें पूर्व की तरफ प्रस्थान करना चाहिए वही हम पश्चिम की ओर जा रहे हैं।

आज हमारा पतन पाश्चात्य संस्कृति के कारण ही तो रहा है। हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए पश्चिमीकरण का त्याग करना ही होगा। क्योंकि पाश्चात्य का प्रभाव ऐसा है कि मनुष्य की तो बात ही क्या पश्चिम में जाकर तो सूर्य भगवान भी डूब जाते हैं। वो कहावत तो सुनी होगी उगते सूरज को सब सलाम करते हैं पर छिपते हुवे सूरज को कोई प्रणाम नहीं करता। वही कहावत हम पर सही लागू हो रही हैं। हम आधुनिकता के पीछे की दौड़ में इतने पागल हो गये हैं कि हम सही गलत का फैसला करना ही भूल गये हैं।

आज महानगरों में प्रायः देखते हैं कि सड़कों पे दौड़ती गाडि़यां एक दुसरे से होड़ करती हुई नजर आती हैं। हर कोई एक दुसरे को पीछे छोड़ने की जुगाड़ में लगा हुआ हैं। हर दूसरी गाड़ी में भारी भरकम आवाज वाले ऑडियो सिस्टम लगे होते हैं। ऊँची आवाज में संगीत बजाना और तेज रफ्तार में गाड़ी चलाना आजकल के युवाओं के लिए फैशन बन गया हैं। आजकल के पॉप संगीत, अश्लीलता भरे गाने युवाओं की पहली पसंद बन चुकी हैं। इससे ये एहसास हो रहा है कि आज के युवा कितने भ्रमित है अपनी संस्कृति को छोड़कर उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर ज्यादा है। ये भारतीय संस्कृति के लिए बहुत दुःख की बात है।

एक समय हुआ करता था जब युवा वर्ग अपनी सुबह की शुरुवात माता-पिता, बड़े बुजर्गो को प्रणाम से लेकर, परमात्मा की पूजा पाठ कर करता था पर आज परिस्थिति विपरीत हो गई हैं आज युवा सुबह उठते ही माता-पिता के चरण नहीं मोबाइल की बटन दबाते हैं परमात्मा की पूजा पाठ नहीं टीवी का रिमोट हाथ में लेकर रोमांटिक फिल्में देखकर अपनी सुबह की शुरुवात करते हैं। चैपाल छोड़कर फेसबुक, टिवटर पर समय व्यतीत हो रहा है। इसमें गलती युवाओं की नहीं उनके अभिभावकों की भी हैं जो उन्हें बचपन में संस्कार का पाठ पढ़ाना भूल गये थे।

आज हमारी फिल्मों और विज्ञापनों में भी कितना औछापन आ गया हैं कि दो पैसे कमाने के चक्कर में नंगापन परोसा जा रहा हैं। आज हमारी मानसिकता को गुलाम बनाने में फिल्मों, विज्ञापनों और नाटकों का भी भारी योगदान है। आज फिल्में हो या धारावाहिक हो किसी सार्थक सोच को लेकर नहीं बनते हैं। आज तो अश्लील दृश्य को डाल कर युवा वर्ग को परोसा जाता है, जिससे उनके कोमल मन पर बहुत बुरा और बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, जो उनको गहरे गर्त में डाल देता है। ऐसा क्यों हो रहा हैं ? कभी इस बात पे चिन्तन किया।

एक समय था कि किसी फिल्म में चुम्बन और कामुकता का सीन भी नहीं दिखाया जाता था पर जब से हमारा पाश्चात्यीकरण हुआ हैं तब से हमारी फिल्मों में चुम्बन के पन्द्रह से बीस दृश्य, कामुकता के दृश्य, अश्लीलता से भरे गाने, गंदे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा हैं और आज के युवाओं को इसी तरह की फूहड़ता ज्यादा पसंद आने लगी हैं।

दो कौडी के निर्माता-निर्देशक नारियों को फिल्मों के माध्यम से नग्न परोस रहा हैं। इसमें गलती फिल्म निर्माता-निर्देशक की नहीं हैं ये गलती हमारे देश के युवाओं की हैं क्यूंकि उन्हें अब धार्मिक, पारिवारिक फिल्में नहीं पसंद आती हैं। कभी हम पुरे परिवार के साथ टेलीविजन पर धारावाहिक, फिल्म देखते थे पर आज एक साथ बैठ कर कुछ भी देखना हानिकारक हो गया हैं। फिल्मों की तो छोड़ो आजकल के विज्ञापन में भी नग्नता परोसी जा रही हैं।

ये सब देखकर मन बहुत दुःखी होता है कि हम कहां से कहां पहंुच गये। फिर मन में एक सवाल उत्पन्न हुआ कि

जाने क्यूँ ? चल पड़ा नाच नंगाई का

तंग कपड़ो पे, फर्क पड़ा महंगाई का

ज्यूँ-ज्यूँ नग्नता सिंहासन थामने चली

वक्त आने लगा सिर्फ जग हंसाई का

लाज, शर्म, हया बिक रही सरे बाजार

रिश्ते खेल खेलने लगे आँख चुराई का

बड़े बुजुर्गो का भूल बैठे मान-सम्मान

पाश्चात्य ने जकड़ा आसमां उच्चाई का

होता खेल अय्याशी का हर चैराहें पर

सामना करों, घट रही इस सच्चाई का

मती हुई खराब, खत्म नजरों की शर्म

भूल बैठे सब डर खुदा तेरी खुदाई का

‘ऋषि’ मिट्ठी की सौंधी गंध, हुई हलाल

कैसे चले अभियान, स्वच्छ सफाई का

यह सवाल सोचनीय स्थिति का बन गया है कि ऐसा क्या हो गया कि हम पर अश्लीलता हावी हो चुकी है। लगता है ये अश्लीलता मंहगाई का शिकार हो गई है तभी नंगाई अपना नाच दिखाने लगी है। लाज, शर्म तो किताबी बातें लगनी लगी है। आज हमारी मती इतनी भ्रष्ट हो गई है कि हमे ना तो खुदा का डर रहा ना ही अपने बडे़ बुजुर्गो का। आज हमारी युवा पिढ़ी ने मान मयार्दा को लांघकर भारतीय संस्कृती और सभ्यता में भारी बदलाव कर दिया है। अब सुघार करें भी तो करे कैसे ?

आजकल की अधिकतर युवा पीढ़ी बड़ों का सम्मान करना भूल सी गयी है। संस्कारों का अभाव देखने को कहीं भी मिल सकता है। युवाओं की आम बोलचाल की भाषा में गाली गलोच घुलमिल गयी है। अधिकांश बुडे-बुजुर्ग लोगो की जिंदगी घर के एक कोने में बेबस सी होकर रह गयी है क्योंकि बिना संस्कारित बेटे आज अपने बाप के बाप बन रहे हैं।

हमारी पुरानी पिढ़ी के बुजुर्गों और अनुभवी लोगों को छोड़़ दिया जाए तो आज हमारी युवा पीढ़ी की पूरी जिन्दगी ही ऐसी हो गई है कि जिसे देख कर ग्लानि और हीनता का अनुभव होता है। मन बड़ा दुःखी होता है कि हमारा भविष्य किस कदर अंधकार की ओर अग्रसर है। हालांकि इसके लिए जितनी जिम्मेदार पाश्चात्य संस्कृति है, उतने ही हम भी। क्योंकि हमने भी अपनी सारी मानवता को भुलाकर सामाजिक व्यवस्थाओं और मर्यादाओं का चीरहरण करने में कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

पाश्चात्य संस्कृति के कारण नैतिक चरित्र इतना गिर चुका है कि हम नारी जाति का सम्मान और इज्जत करना भूल गए है। जहाँ कभी हर रिश्ते के लिए आदर-सम्मान व सत्कार हुआ करता था आज वही उन पर हवस की कुदृष्टि डाली जा रही हैं। हमारी मानसिकता हमारी सोच इतनी विकृत हो चुकी है कि हम अपने पराए का भेदभाव भी भूल चुके है।

आज पाश्चात्य संस्कृति का रंग हम पर हावी हो चूका हैं जहाँ हमारे आदर्श महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रानी लक्ष्मी बाई, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आहिल्या, सावित्री, चन्द्रशेखर आजाद होने चाहिए वही आज हमारें आदर्श फिल्म अभिनेता-अभिनेत्री, खिलाड़ी, राजनेता हो गये हैं। जहाँ कभी गीता, कुरान, बाइबिल, गुरुग्रन्थ साहिब जैसी पवित्र पुस्तक पढ़ी जाती थी आज वही फिल्मी मैगजीन, अश्लील फिल्में, अश्लील पुस्तकें पढ़ना रुतबा बन गया हैं।

आज मौजूदा दौर के बुरे हालातों के लिए हमारे स्वार्थ और समझौते जिम्मेदार हैं जिनकी वजह से हमने सिद्धान्तों का त्याग कर दिया, अपने आदर्शों से पल्ला झाड़ लिया और नैतिक मूल्य को दाँव पर लगा दिया। हमनें ये सब क्यों और किसलिए किया ? प्रायः देखे तो यह सिर्फ और सिर्फ दौलत और शोहरत पाने के लिए किया गया। अपने नाम को उच्चाई पर लाने के लिए हमनें संस्कारों का स्वाह कर दिया। पर इस कारण इन परिवेशीय हालातों में अंकुरित और पल्लवित नई पीढ़ी को न संस्कारों की खाद मिल पाई, न स्वस्थ विकास के लिए जरूरी स्वच्छ वातावरण मिल पाया। उन्हें मिला तो सिर्फ प्रदूषित माहौल और नकारात्मक भावभूमि। आज का युवा अधिकतर मामलों में नकारात्मक मानसिकता के साथ जीने लगा है। उसे दूर-दूर तक कहीं कोई रोशनी की किरण नजर नहीं आ रही।

यही कारण है कि आज युवा वर्ग अपने आपको पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगने को मात्र अपना विकास समझते है। आज युवाओ के आतंरिक मूल्य और सिद्धांत भी बदल गये है। आज उनका मुख्य उद्देश्य सिर्फ दौलत और शोहरत कमाना है। उनकी नजर में सफलता की एक ही मात्र परिभाषा है दौलत और शोहरत। चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो। इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है।

आज जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति ने इन्हें सममोहित किया है उसी मोहपाश कि वजह से हम इंसान कम हैवान ज्यादा हो गए है। क्योंकि

इन्सान अब इंसान को प्यारा ना लगे

जान से भी ज्यादा, पैसा प्यारा लगे

मात-पिता को साथ रखते आती शर्म

कुत्ते को साथ रखना मानते हैं सत्कर्म

रोटी, कपड़ो के लिए तरस रहा इंसान

मानवता छोड़कर, बन बैठे हैं शैतान

मात-पिता की रोटी लगने लगे भारी

इन्सान की इंसानियत हुई अत्याचारी

रूप-सौन्दर्य का होने लगा गुणगान

खिलाड़ी-अभिनेता बन गए भगवान

जिन्दगी से ज्यादा मौत हो गई सस्ती

प्यार बन चूका अब भोग और मस्ती

नारी के कपडें होने लगे धीरे-धीरे तंग

इंसान गिरगिट जैसे बदलने लगा रंग

मर्द. मर्दानगी भूल, बन बैठा जानवर

रिश्तों की मर्यादा भूले, नारी और नर

‘ऋषि’ चारों ओर मची गई हाहाकार

हम पे हावी हुआ हत्या, लुट, दुराचार

आज पाश्चात्य ने हमारें अंदर की मानवता भी खत्म कर दी है। भोग-विलास ने इस तरह हमारी मानसिकता पर प्रहार किया है कि कुछ नारी जहां अपनी पवित्रता भुल रही है तो वही मर्द अपनी मर्दानगी भूल जानवर का रूप धरने लगा है। रिश्तों कि मर्यादा, प्यार महोब्बत में किया वादा सब वासना में लिप्त हो चुका हैं। इंसान ही इंसान का दुश्मन बन गया हैं। पैसों के खातिर अपना ईमान, अपना शरीर बेचने लगा है। माता-पिता कि दो वक्त कि रोटी भी उसे अब भारी लगने लगी है।

हमारे देश में आज के युवा और पहले के युवा में बहुत बड़ा अंतर हैं पहले के युवा त्याग, बलिदान, परिश्रमी, साहस, कौशलता व जटिलता पर ही आधारित था। देश की आजादी के लिए अंग्रेजो के शोषण, दमन, गुलामी और हिंसा भरी राजनीति का डटकर मुकाबला किया और हमें आजाद भारतीय होने को गौरव दिया। खुली हवा में बसर करने और राहत भरी जिन्दगी दी। उस समय के युवा परिश्रमी, समझदार और साहसी हुआ करते थे। अपने साथ होने वालें अन्याय विरूद्ध मिलकर जुलकर लड़ते थे पर आज परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ ज्यादा विकट हो गई है। आज भारत की राजनीति अकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी है। देश आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर हो चुका है। हर तरफ महंगाई बांहे पसार कर हमें जकड़ लिया हैं। ऐसे में हमारे देश के युवा भ्रष्टाचार, मंहगाई और कुशासन से लोहा लेने के बजाय उनका समझौतावादी दृष्टिकोण का सिद्धांत बन गया है। आज वो पाश्चात्य और भोगविलासिता में इस तरह से रंग चुका है कि अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आँखे मूंद ली हैं। आज का युवा या तो नशे में डूबा हुआ हैं या फिर विलासिता में डूब चूका हैं अब उनके लिए जीवन में नैतिक मूल्यों और संघर्षो के लिए कही कोई स्थान नहीं है।

आजकल बडे़ बुजुर्ग इस बात को लेकर भी बड़े चिंतित हैं कि आजकल के युवाओं को हमारें रीति-रिवाज, क्रियाकांड में कोई भी दिलचस्पी नहीं रही है। पाश्चात्य संस्कृति इतनी हावी होती जा रही है कि समाज दिशाहीन हो रहा है, युवाओं को अतीत के प्रति कोई सम्मान नहीं है। आज का युवा पथ भ्रष्ट हो चुका है। जहाँ एक तरफ हमारी सभ्यता-संस्कृति रिश्ते-नातों, रीती-रिवाजों से पहचानी जाती हैं वही आज पाश्चात्य में लिपित हमारे देश के युवा नए तरह के रिश्तों का संचार कर रहे हैं।

आजकल प्यार से बढ़कर योन सम्बन्धों को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। लड़का-लड़की बिना शादी किये एक साथ रहकर लिव इन रिलेशनशिप नामक एक नये रिश्ते का निर्माण कर रहें हैं। आज जिस रिश्ते की नींव बनाई जा रही हैं इसका जन्मदाता पाश्चात्य संस्कृति ही तो हैं। जहाँ एक तरफ हमारी संस्कृति सात फेरों से लेकर सात जन्मों के बंधन का महत्व समझाती हैं वहीँ पाश्चात्य संस्कृति योन सम्बन्धों से लेकर तलाक का महत्व समझा रहीं हैं। आज हमारी नींव धीरे-धीरे खोखली हो रही हैं। हमारे देश के युवा नशे में लिप्त, हवस की आग में अंधे और अपराध जगत में ज्यादा सक्रिय हो रहे हैं।

पाश्चात्य संस्कृति ने वैवाहित रिश्तो की परिभाषा बदल दी है। सगाई पूर्व ही वैवाहिक जीवन व्यतित करना, बढ़ते परिवार में कलह पाश्चात्य संस्कृति की ही तो देन है। शादीशुदा जीवन से ज्यादा तलाक को ज्यादा महत्व मिलने लगा है। परिवार में माता की अहम भुमिका संतानों की परवरिश करना होता है पर इस पाश्चात्य संस्कृति ने संतान की परवरिश का दौर भी खत्म कर दिया हैैं और आजकल नौकरों के भरोसे संतानों का लालन-पालन हो रहा है। और आने वाली पीढ़ी भी माता-पिता की संभाल नौकरों से करवा रही है।

भारतीय संस्कृति में सदा से मेहनत, लगन, सच्चाई का मूल्यांकन किया जाता रहा है, परंतु आज युवाओं की सोच बदल चुकी है, अब वो सिर्फ अपने स्टेट्स सिम्बल की ओर रुझान रखते हैं जिन्हे वो रूपयो के बदले दुकानो से खरीद सकते हैं। महंगे परिधान, आभूषण, चश्मे, घड़ी, बाइक या कार, मंहगे खेलों में रूचि, क्लब की मेंबरशिप से लेकर बड़े-बड़े कसीनों से अपना स्टेट्स सिम्बल तैयार कर रहे हैं। अपने आप को सम्पन्न दिखाने की उनमें एक होड़ सी लगा गई हैं बस उनका एक ही मकसद रह गया हैं कि कैसे भी हो खुद को श्रेष्ठ दिखाया जाये।

आज पाश्चात्य संस्कृति हमें अंधकारमय रस्ते पे ले जा रही हैं जो हमें रिश्ते नातों से दूर कर रही हैं। बड़े बुजर्गो का मान-सम्मान करने से वंचित कर रही हैं। वही हमारी भारतीय संस्कृति संस्कार, नैतिकता, सार्वभौमिकता, अन्त्योदय, सर्वोदय, परोपकार, लचीलापन, उदारता, त्याग, बलिदान, आदर-सत्कार, सरलता तथा सादगी जैसे मूल्यों के लिए प्रोत्साहित करती है।

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार में रहना समाज की आधारशिला थी। परिवार पितृसत्तात्मक होते थे। भूमि जीवन यापन का प्रमुख साधन थी, जिस पर परिवार का सामूहिक अधिकार होता था। लेकिन जब से पाश्चात्य संस्कृति ने अपने पाँव पसारे हैं तब से संतानों के लिए माता-पिता बोझ बन गये हैं। उन्हें संयुक्त परिवार नहीं एकल परिवार पसंद आने लगे हैं। माता-पिता को वृद्धाश्रम की राह देखनी पड़ रही हैं। भाई, भाई को फुठी आँख नहीं सुहाता हैं। जिनके साथ बचपन खेल में गुजरा, आज उन्हीं के वो दुश्मन बन रहे हैं। जहाँ एक समय परिवार बड़ा हुआ करता था आज वही परिवार सिमित हो गया हैं। पाश्चात्यीकरण के कारण परिवार के सभी सदस्यों का एक साथ रहना असम्भव हो गया हैं।

आज रिश्तों का महत्व ही खत्म हो गया है। एक समय हुआ करता था जब पैसों से ज्यादा महत्व रिश्तों को दिया जाता था पर आज के हालात ही बदल गये है। सबको ऐशो आराम की जिन्दगी पसन्द आने लगी है। रिश्तों की नींव तो चरमरा ही गई है। आज इंसानियत का इस तरह खात्मा हो गया है कि पैसे वाले भाई-बहन को अपने गरीब भाई-बहन की दुर्दशा से कोई मतलब नहीं रहा। जिनके साथ बचपन गुजरा आज उनकी गरीबी देखकर मुंह फेरने लग गये हैै। लाखों करोड़ो रूपये शानों शौकत में फालतू का बहाना पसन्द है। पर अपनों की दुर्दशा को सुधारने के लिए उनके पास पैसा नहीं है। दान-धर्म के नाम पर दिखावा कर खुद को समाजसेवी चि़त्रण करना ज्यादा पसन्द है पर जिनके साथ एक थाली में खाना खाया, उत्सव-पर्व मनायें, आज वो ही भाई-बहन उनका दुःख-दर्द समझना तो दूर, उनके पास बैठना भी पसन्द नहीं करते। धन्य है वो जिन्होंने पैसो की अंधकार में अपने सभी रिश्तों को स्वाह कर दिया। सच में घोर कलयुग आ गया है।

आज ये तथ्य सत्य हैं कि

वक्त नहीं हैं आज, किसी के पास किसी के लिए

सब जीते हैं अपनी जिन्दगी, अपनी खुशी के लिए

कोई तड़फ रहा हैं भूख से, किसी को मलाल नही

कचरें में फेंक देते हैं रोटी, लजीज पकवान के लिए

क्यूँ रूठी गरीब की निद्रा, ये जानने का वक्त नहीं

कर देते हैं लम्हें बर्बाद, दो पल आवारगी के लिए

कोई तड़फ रहा हैं प्यास से, किसी का ध्यान नहीं

लुटा देतें हैं लाखों महफिलों में, एक जाम के लिए

लुट रहें हैं नारी की अस्मत, क्यूँ जागता कानून नहीं

मर्द दिखा रहा मर्दानगी अपनी, हैवानियत के लिए

माँ का आंचल खून से लथपथ, किसी को खबर नहीं

खुर्च रहें हैं इंसानियत, कफन नही आजादी के लिए

उजड़ा किसी का धरोंदा, मदद को कोई तैयार नहीं

यूँ कर देतें बर्बाद करोड़ो, चंद हसीन ख्वाब के लिए

गरीब सुनाएँ किसे दास्ताँ, यहाँ कोई रखवाला नहीं

बिक जातें ईमान ‘ऋषि, चंद कागजी टुकडो के लिए

सच में आज गरीब का कोई रखवाला नहीं है ना अपने और ना ही कानुन। किसी को किसी मतलब नहीं रहा। चाहे कोई दर्द से तड़फे या फिर खून से लथपथ सड़क पर मदद की राह देखेे। किसी का घर उजड़ जाये इस बात का आज किसी को अफसोस नहीं है उनकी मदद के लिए कोई भी दो रूपये भी खर्च नहीं करेगा। पर फालतू काम और फालतू कार्य के लिए करोड़ो रूपये खर्च करने पड़े तो कर देंगे। आज के वक्त ने सब कुछ तमाशा बना दिया है। सच में ये युग बड़ा भारी है आने वाले कल के लिए। आज ना नारी सुरक्षित, ना ही रिश्ते-नाते। संस्कृति, सभ्यता तक हनन होने लगा है।

जहाँ हम अपनी सभ्यता-संस्कृति को त्याग रहे हैं वही विदेशी सैलानी हमारे देश में आकर हमारी वेशभूषा, हमारी संस्कृति और हमारी परम्पराओं को अपनाने का प्रयत्न करते हैं। जहाँ आजकल धोती-कुर्ता, पगड़ी पहना, सलवार शूट, साड़ी पहनना हमें पुरानी फैशन लगने लगी हैं। वही हमारे भारतीय परिधान उन्हें बहुत पसंद और आकर्षित करते हैं। प्रायः आप देखते भी होंगे, हमारे यहाँ आने वाले विदेशी हमारी वेशभूषा पहने हुवे मिलते हैं। वही दुसरी तरफ हमारी युवा पीढ़ी को पाश्चात्य संस्कृति के लोगों की तरह संवरना और कपड़े पहनना ज्यादा पसंद आता है। हम सिर्फ नकलची बन्दर बनकर रह गये हैं।

पाश्चात्य संस्कृति ने आज के युवा को दिशाहीन कर दिया है और इसी दिशाहीनता कारण युवाओं की ऊर्जा का नकारात्मक दिशाओं की ओर मार्गान्तरण व भटकाव होता जा रहा है। लक्ष्यहीनता के माहौल ने युवाओं को इतना भ्रमित करके रख दिया है कि उन्हें सूझ ही नहीं पड़ रही कि जाना किधर है, करना क्या है, हो क्या रहा है, और आखिर उनका होगा क्या ? इस प्रश्नों के साथ वो भ्रमित राह पर खड़े है।

आज युवा सच में भ्रमित हो चुका है वो इतना नकलची और दिशाहीन हो गया है कि उसे अपने उत्सव-पर्वो के बारे में भी ज्ञान नहीं है। उसे ये तक नहीं मालुम कि हमारें देश में मनायें जाने वाले त्यौहार और उत्सवों के पीछे कहानी क्या है ? आज का युवा तो बस पाश्चात्य संस्कृति की जानकारी रखता हैं। या फिर यूँ कहना सही होगा की वो अंग्रेजी सभ्यता, संस्कृति में ज्यादा रंग गये हैं कि आज उन्हें उसी संस्कृति के उत्सव-पर्व मनाना और याद रखना ज्यादा पसंद आने लगा हैं।

मेरी एक सच्ची घटना बताता हूं। 2015 का जब अंगे्रजी नववर्ष आया था तो मेरे फेसबुक के मित्रों ने मुझे अंग्रेजी नववर्ष की बधाई दी तो मैंने कहाँ - मैं अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनाता। इसलिए अगर हो सके तो आप मुझे भारतीय नववर्ष पर बधाई और शुभकामनाएं दे। कुछ मित्र जिन्हें ज्ञात हैं भारतीय नववर्ष के बारें में तो वो चुप रह गए। पर किसी ने मुझसे ही सवाल कर लिया कि भारतीय नववर्ष ? ये कब आता हैं ? और हमने तो आज तक एक ही नववर्ष सूना था। हमें तो किसी ने नहीं बताया की नववर्ष कोई और भी हैं।

पहले तो मैं खामोश हो गया की अजीब बात है ये भारत में रहता हैं और इसे ये तक नहीं मालूम। फिर भी मैंने धैर्य से काम लिया और उसे बताया की आप जिस नववर्ष की बधाई दे रहे हैं वो अंग्रेजी नववर्ष हैं जो हमारी संस्कृति से नहीं पाश्चात्य संस्कृति से उत्पन्न हुआ हैं। हमारा भारतीय नववर्ष तो हर साल चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की तिथि १ को आता हैं।

ये सब बताकर मैं चुप हुआ ही था कि तभी उसका दूसरा सवाल मेरे सामने आया की ये चैत्र महिना कब आता हैं ? और हम भारतीय नववर्ष क्यूँ मनाते हैं ? और ये कौनसे महीने की कौनसी दिनांक को मनाया जाता हैं ? ये तिथी क्या है ?

उनके ये सवाल पढ़कर तो मैं एकदम दंग रह गया। मन में अजीब सवाल उत्पन्न होने लगे की अजीब परिस्थिति हैं भारत में रहता हैं और इसे ये तक भी ज्ञात नहीं। पर माना जाय तो उसके सवाल भी सही थे क्यूंकि ये उसकी गलती नहीं थी। ये गलती थी उसके माता-पिता, उसके बडे़ बुजुर्गो की। जो उसे इस ज्ञान से अनभिज्ञ रखा। गलती थी आज की शिक्षा की। जहाँ शिक्षा कम पाश्चात्य संस्कृति में ज्यादा रंगा जा रहा है। जहाँ भारतीय संस्कृति से जुड़े उत्सव-पर्व नहीं पाश्चात्य संस्कृति से जुड़े उत्सव़ पर्व बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं। इसलिए युवा पीढ़ी तो वो ही सीखेगी और जानेगी जो उसे सिखाया और बताया जाएगा।

थोड़ी देर फिर खामोश रहने के बाद मैंने उसे बताया कि भारतीय नववर्ष कभी एक निश्चित दिनांक को नहीं मनाया जाता हैं वो सिर्फ तिथि के अनुसार मनाया जाता हैं और भारतीय नववर्ष ही क्यूँ ? हमारे देश में तो हर उत्सव-पर्व तिथि के अनुसार ही मनाये जाते हैं उनकी कोई निश्चित दिनांक या निश्चित महीना नहीं होता।

भारतीय संस्कृति और सभ्यता की यही तो खासियत हैं कि हमारे कई उत्सव-पर्व हिन्दी महीने और तिथि के कारण एक साथ मनाये जाते हैं। प्रायः देखा भी होगा दो धर्मो के त्यौहार दिपावली और ईद को एक साथ एक ही दिन मनाते हुए। इसीलिए तो कहा हैं कि भारतीय संस्कृति और भारतीय उत्सव, त्यौहार भाईचारे और एकता की मिशाल हैं।

और हम भारतीय नववर्ष भी इसलिए मनाते हैं क्यूंकि चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की तिथि १ को ८ ९ १०

१. पितामह ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि का निर्माण कार्य सूर्योदय से प्रारम्भ किया।

२. मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्य अभिषेक हुआ जो गुड़ी पड़वा के रूप में मनाया जाता हैं।

३. उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने विक्रम संवत्् का आरम्भ किया।

४. महर्षि दयानंद सरस्वती जी द्वारा आर्य समाज की स्थापना की गई।

५. सिक्ख परम्परा के द्वितीय गुरु अंगदेव जी का जन्म हुआ।

६. संत झूलेलाल जी का भी जन्म हुआ जिस कारण सिंधी लोग चेटीचण्ड का त्यौहार मनाते है।

७. धर्मराज युधिष्ठिर राजा बने और उन्होंने ही युगाब्द (युधिष्ठिर संवत) का आरंभ किया।

८ . माँ दुर्गा का उपासना पर्व मतलब नवरात्रा का प्रारम्भ होता हैं और ऐसी मान्यता है कि साल के पहले नौ दिनों में माता की आराधना से प्राप्त शक्ति से साल भर जीवन शक्ति का क्षय नहीं होता।

और रहा सवाल तिथी क्या है ? तो तिथी - चंद्रमा के पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने को एक माह माना जाता है जबकि यह 29 दिन का होता है। हर मास को दो भागों में बांटा जाता है। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। कृष्णपक्ष में चांद घटता है और शुक्लपक्ष में चांद बढ़ता है। दोनों पक्ष प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी आदि ऐसे ही चलते हैं। कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन अमावस्या को चंद्रमा बिल्कुल दिखाई नहीं देता, जबकि शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन पूर्णिमा को चांद पूरे यौवन पर होता है।

ये सब जानकर उधर खामोशी छा गई। कुछ घण्टों बाद फिर अचानक उसने नया सवाल कर दिया कि नववर्ष ये मनाओं चाहे वो क्या अंतर हैं ? नववर्ष तो नववर्ष हैं फिर असमानता क्यूँ भला ?

मैं फिर खामोश हो गया सोचा कि सवाल असामनता का तो सही हैं पर दोनों नववर्ष में अंतर ? मैं अपनी खामोशी को तोड़ते हुवे कहाँ कि दोनों नववर्ष में रात दिन का अंतर हैं। जहाँ हमारा नववर्ष हमें जोड़ना सिखाता हैं वही अंग्रेजी नववर्ष हमें तोड़ना सिखाता हैं।

हम भारती नववर्ष इसलिए मनाते है कि विक्रम संवत का पहला दिन यानी शुक्ल पक्ष १ (प्रतिपदा) अपने आप में अनूठा है। इसे नव संवत्सर भी कहते हैं। इस दिन पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करती है तथा इसी दिन-रात बराबर होते हैं। इसके बाद से ही रात की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है। काली अंधेरी रात के अंधकार को चीर कर चांदनी अपनी छटा बिखेरना शुरू कर देती है। ऋतुओं का राजा होने के कारण बसंत में प्रकृति का सौंदर्य अपने चरम पर होता है। फागुन के रंग और फूलों की सुगंध से तन-मन प्रफुल्लित रहता है।

और रहा अन्तर का सवाल तो -

१. अंग्रेजी नववर्ष का प्रारम्भ मध्यरात्रि को होता हैं तो हमारें नववर्ष का प्रारम्भ सूर्योदय को होता हैं। अर्थात रात्रि के अंधकार में नववर्ष का स्वागत नहीं होता। नववर्ष सूरज की पहली किरण का स्वागत करके मनाया जाता है।

२. अंग्रेजी नववर्ष पर प्रकृति में कोई बदलाव नहीं होता हैं लेकिन हमारे नववर्ष पर प्रकृति में सकारात्मक बदलाव होता हैं। पेड़ों पर नवीन पत्तियों और कोपलों का आगमन होता है। पतझड़ खत्म और बसंतोत्सव आरंभ होता है। प्रकृति में हर जगह हरियाली छाई होती है प्रकृति का नवश्रृंगार होता है।

३. अंग्रेजी नववर्ष रात को डिस्को, पब, होटलों में तड़क-भड़क, अशलीलता भरें गानों व फुहड़ता करके मनाया जाता हैं। वही हमारे नववर्ष के दिन हर घर में पुजा पाठ होतीे हैं। मंदिर जातें है। भजन-किर्तन होते है। जगह-जगह कवि सम्मेलनों का आयोजन कर बडे़ हर्षो उल्लास से मनाया जाता है।

४. अंग्रेजी नववर्ष में शराब की महफिलें जमती हैं रात भर जमकर बदमाशियां, हुडदंग मचाई जाती हैं। वही हमारे नववर्ष पर घर-घर में रंगोली बनाई जाती हैं घर के दरवाजों पर वंदनवार लगाई जाती हैं और दीपक जलाकर खुशियाँ मनाई जाती हैं।

इसलिए अब आप खुद सोचों कौनसा नववर्ष ज्यादा बेहतर। वो नववर्ष (अंग्रेजी) जिसकी स्थापना हमारे विक्रम संवत के 57 वर्ष पश्चयात हुई। जिससे हमें कुछ भी सिखने को नहीं मिलता या फिर वो नववर्ष (भारतीय) बेहतर है जिसके पिछे अनेक रोचक तथ्य जुड़े है जिसके हमारी संस्कृति और इतिहास का ज्ञान मिलता है।

और एक महत्वपूर्ण बात और बताता हुं हमारे सभी उत्सव-पर्व शुभ तिथि को ही मानये जाते है पर अंग्रेजों के उत्सव-पर्व एक निश्चित दिनांक और निश्चित महीने में मनायें जाते है चाहे वो दिन शुभ हो या फिर अशुभ।

मैं अपनी बात कहकर फिर सोच में पड़ गया कि सच में कितना हमारा आधुनिकता के नाम पर पाश्चयतीकरण हो गया। किस तरह से हमनें अपने हर उत्सव-पर्व कि रोचक जानकारियों को भुला दिया है। मन इतना पीड़ा से भर गया कि आंसु छलक गयें और मन ही मन में सवाल उठे कि

पाश्चात्य के दौर में हमने अपनी संस्कृति को भुला दिया

अंग्रेजी सन के चक्कर में, विक्रम संवत को भुला दिया

हम अपने उत्सव-पर्व, तिथि संवत के अनुरूप मनाते हैं

पाश्चात्य के दौर में अपना गौरवमयी इतिहास भुला दिया

संवतसर के स्वागत में, प्रकृति भी अपना रूप बदलती

फिर क्यों घर की तुलसी को, अपने हाथों से जला दिया

जिस देश में मनाये जाते हैं ईद - दीपावली के पर्व संग

क्यों फिर पाश्चात्य के चक्कर में, अपना देश भुला दिया

ये किस आधुनिकता के नाम पर हो रहा पाश्चात्यीकरण

कि युवा पीढ़ी को ‘ऋषि’, नशे के झूले पर ही झुला दिया

सच में हमारा ऐसा पाश्चयतीकरण हुआ कि आज हमारे देश में वेलेंटाइन-डे को दीपावली से अधिक महत्व दिया जाने लगा है। जहाँ कभी हमारें उत्सव-पर्व मिलकर मनाएं जाते थे। आजकल सब कुछ सिमिट सा गया हैं। आजकल के युवा होली-दीपावली का नहीं वेलेंटाइन-डे का इंतजार करता है। अब उनके लिए भारतीय संस्कृति से सुसजित उत्सव-पर्व मात्र एक छुट्टी का रूप बनकर रह गये हैं वही पाश्चात्य संस्कृति के पर्व उनके लिए जरूरत बनते जा रहे हैं।

कभी प्रेम, महोब्बत, इश्क, प्यार जैसे शब्द पवित्र माने जाते थे। किसी से प्यार करना और उसे हर पल निभाना हमारी भारतीय परम्परा रही हैं। हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, लैला- मजनूं जैसे नाम आज भी इतिहास में महोब्बत की मिशाल हैं। आज भी प्यार को पर्दे के अंदर की वस्तु माना जाता हैं। पर आज के युवाओं का जिस तरह से पाश्चात्यीकरण हुआ हैं कि प्यार सिर्फ शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति का जरियां बन गया हैं। एक जमाने पहले लोग अपने प्रेमी-प्रेमिका के लिए कुछ भी कर गुजरने का दम भरते थे आज वही पैसा और हवस प्यार शब्द को बली चढ़ा रहा हैं। जहाँ कभी सुख दुःख में साथ निभाने के वादें हुआ करते थे आज वही वादें पैसा और हवस कि आग में स्वाह हो रहे हैं। मोबाइल और इंटरनेट ने तो प्यार कि परिभाषा को ही बदल कर रख दिया। ये कैसा हमारा आधुनिकरण हुआ हैं कि हमने रिश्तों को महत्व देना ही बंद कर दिया।

आज प्यार को सही मायने में देखा जाये तो

वासना में लिप्त इंसान, मोहब्बत कर नहीं सकता

दौलत की भूख वाला, अच्छे रिश्ते बना नहीं सकता

जिसकी नजर में इंसान की कीमत होती सिर्फ शून्य

‘ऋषि’ वो इन्सान सुखी जीवन बसर कर नहीं सकता

ये सत्य है कि आज जिस दौर से हम गुजर रहे वहां महोब्बत सिर्फ वासना से लिपित है। अच्छे से अच्छा रिश्ता भी दौलत की भुख में खो चुका हैं। आज इसी वजह से इन्सान का इन्सान पर भरोसा खत्म हो गया है। आज इंसानियत को खटमल ने घेर लिया है। जहां अब सुखी जीवन की परिकल्पना करना भी मुश्किल हो चुका है।

पाश्चात्यीकरण के बाद आज हमें किसी का भी भय नहीं रहा है। आज मर्यादाहीनता के इस भयानक दौर में हम अनुशासनहीनता की सारी सीमाएँ लांघ चुके है और अब हम इतने स्वच्छन्द, निरंकुश, स्वेच्छाचारी और उन्मुक्त हो चले हैं कि अब हमें किसी लक्ष्मण रेखा में बाँधना शायद बहुत बड़ा मुश्किल काम हो गया है।

पर भारतीय संस्कृति हमारी मानव जाति के विकास का उच्चतम स्तर है। हमारी संस्कृति में जहां जन्म से लेकर मृत्यु तक और जन्म के पूर्व से मृत्यु के पश्चात् तक मानवी चेतना को संस्कारित करने का क्रम निर्धारित है। मनुष्य, मनुष्य ही रहे और उसमें पशुता के संस्कार उभर न पाये, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है। भारतीय संस्कृति मानव के विकास का आध्यात्मिक आधार बनाती है।

पर आज इसी पाश्चात्य संस्कृति ने हमें जानवर बना दिया हैं। आज हर युवा पीढ़ी के मुख में जय हिन्द, वंदेमातरम् नहीं अपशब्दों का संचार मिलेगा। घर में गाय नहीं कुत्तों वास मिलेगा। किताबों में भगवान की तस्वीर नहीं कामुकता से भरी तस्वीरें मिलेंगी। युवा गंगाजल को नहीं शराब को पीकर जिन्दगी को अमृतमयी बनाता हुआ मिलेगा।

ये किस सभ्यता और संस्कृति को हमने अपना लिया जिसके कारण -

माँ का आंचल अब, पुरानी सी बात हो गई

कुत्तो के साथ घूमना फैशन की बात हो गई

शर्म - हया सब, बाजारों में बिकाऊ हो गई

गौ माता आजकल के दौर में काऊ हो गई

माता-पिता लगे बोझ, रिश्तों में होड़ हो गई

युवा नशे में लिप्त, मयखानें में दौड़ हो गई

कपड़े तंग तो जुबान की शैली, बेढंग हो गई

मर्यादा भूल नारी, अश्लीलता के संग हो गई

माँ, बहन, बेटी, पत्नी, वाह क्या माल हो गई

प्यार के नाम पे नारी, हवस की ढाल हो गई

माँ, मम्मी, पिता, डेड तो बहन सीस हो गई

युवा पीढ़ी संस्कार में, टाय-टाय फीस हो गई

मातृभाषा हिन्दी छोड़, अंग्रेजी प्रमुख हो गई

संतों की वाणी छोड़, गालियां श्रीमुख हो गई

नैतिकता की बात ‘ऋषि’, गुजरी रात हो गई

बड़ो का आदर करना, शर्म की बात हो गई

ये कैसी पाश्चत्य संस्कृति की ऊँगली थाम ली हमने, जिसमें कपड़े तंग हो गये हैं, जुबान बेढंग हो गई हैं। मात-पिता बोझ लगने लगे, देशभक्ति छोटी सोच लगने लगे। प्रणाम, राम-राम जैसे शब्दों के उद्घोष, हाय-हेलो के सामने फीके पड़ जाए। गिटर-पिटर अंग्रेजी ने इस कदर लिया हैं जकड़ कि गौ माता काऊ हो गई, शर्म-हया सब धुँआ और बिकाऊ हो गई हैं। नारी कभी माँ, बहन, बेटी लगती थी आज बस वह, ‘वाह क्या माल’ बन कर रह गई हैं। माँ का आंचल अब बीती सी लगने लगी हैं, कुत्तो के साथ घूमना फैशन की बात बन चुकी हैं। ये अच्छी संस्कृति अपना ली हमने, जिसने सब कुछ तहस नहस कर दिया।

आज जिस तरह से हमने हमारी संस्कृति को दरकिनार किया हैं उससे हमारें पतन का अध्याय शुरू हो चूका हैं हम जिस पाश्चत्य संस्कृति को अपना रहे हैं उससे हमें फायदे कम नुकसान ज्यादा हो रहे हैं। विदेशी लोगो की जीवनशैली बहुत हद तक आत्म-केन्द्रित होती है। वो लोग जहाँ एक निश्चित आयु के बाद आत्म-निर्भर हो जाते हैं और कम आयु में ही अपने माता-पिता से दूर हो जाते हैं।

पर हमारे देश में माता-पिता की भूमिका बहुत अहम् रही हैं। माता-पिता बचपन से लेकर जवानी और जवानी से लेकर एक उम्र के पड़ाव तक हमारें लिए सोचते हैं और हमारा हर पल साथ निभाते हैं। लेकिन यह भी अब गुजरे जमाने की बात हो गई है क्योंकि अब हम पूर्ण रूप से आधुनिक हो चुके हैं और आधुनिक जीवन कि दिनचर्या में अभिभावकों को जीवन में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। इसमें कुछ हद तक अभिभावक भी जिम्मेदार हैं वो अपने बच्चों की खुशियाँ उपहारों के तराजू में तोल देते हैं और तरह-तरह के तोहफे देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। ऐसे में बच्चों का आधुनिक बनना स्वभाविक हैं। पाश्चात्य ने हमें इस तरह घोल लिया हैं कि उसका स्वाद कैसा भी हो बस चखना है और उसे अपनी दिनचर्या बनाना है।

आज पाश्चात्य ने हमें भोगवाद, विलासिता की गर्त की ओर धकेल दिया हैं। जहाँ से अगर हम समय रहते नहीं निकले तो वो दिन दूर नहीं होगा कि हमारी आने युवा पीढ़ी हमसे योन सम्बन्धों की बात करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करेगी। भाई-बहन भी एक दुसरे से योन सम्बन्ध के विषय में वार्तालाप करते हुए लिप्त मिलेंगे। बच्चे माता-पिता के सामने अपने प्रेमी-प्रेमिका को बाँहों में बांहें डाल विचरण करते नजर आयेंगे। बच्चे खुले आम सिगरेट के कश लगाकर धुवे के छल्ले बनायेंगे।

कुछ से समय कुछ सवाल जो मेरे मन मस्तिष्क पर हावी हो चुके हैं कि

१. क्या तंग कपड़े ही तन ढकने का एक विकल्प है ?

२. क्या नशा करना आपके वयस्क होने का प्रमाण है ?

३. क्या लड़कीयों को छेड़़ना ही मर्दानगी का प्रमाण है ?

४. क्या अश्लील फिल्में देखना आधुनीकरण है ?

५. क्या अंग्रेजी भाषा बोलना आधुनिकता का प्रमाण हैं ?

६. क्या एकल परिवार सुखी परिवार का प्रमाण हैं ?

७. क्या योन शिक्षा शिक्षित होने एक मात्र विकल्प हैं ?

इन सवालों को अपने मन में उतार कर इनका जवाब ढूंडने का प्रयत्न करें और फिर अपने जवाबों का मंथन कीजिए। शायद तब आपको ज्ञात होगा कि अब हम भारतीय कम इन्डियन ज्यादा बन चुके हैं। जहाँ हम गिटर-पिटर अंग्रेजी तो बोल लेते हैं पर मर्यादा की बात पर खामोश नजर आते हैं। जहाँ आज के युवाओं को योग शिक्षा नहीं, योन शिक्षा चाहिए। जहाँ फैशन के नाम पर हमारी मानसिकता का गिरता हुआ स्तर नजर आएगा। जहाँ हमारें युवाओं के अंदर देश भावना कम, नशा और अश्लीलता ज्यादा नजर आएगी। जहाँ हमारें युवा बहन बेटियों की रक्षा की बात कम उन्हें तंग और उनसे छेड़खानी करने के तरीके बताते हुवे नजर आयेंगे।

सच कहा हैं कि

लोभात् पापस्य कारणम

अर्थात लोभ ही पाप का कारण है।

आज हम पाश्चात्य संस्कृति के लोभ में पड़कर भारतीय संस्कृति को भूलते जा रहे है। इसी लोभ के कारण हमारी संस्कृति और हमारे समाज का पतन हो रहा है। अगर हमें अपना देश और संस्कृति को बचाना है, तो हमें पाश्चत्य संस्कृति अनुसरण छोड़ना होगा। भारतीय संस्कृति का अनुसरण करते हुवे हमें संस्कारवान चरित्रवान बनना होगा।

माँ-बहन-बेटी की रक्षा करनी होगी। नारी जाती का सम्मान करना सीखना होगा। कपड़ो से लेकर मानसिकता को सुधारना होगा। पाश्चत्य संस्कृति को तिलांजली दें, हमें अपनी भारतीय संस्कृति को अपनाना होगा। अंग्रजी भाषा को प्रमुख भाषा ना बनाकर हिन्दी भाषा को महत्वपूर्ण बनाना होगा। तभी हमारें देश का कल्याण होगा। तभी हमारें देश में खुशहाली, विकास और उन्नति का दौर आएगा। तभी हम उन्नति, समृद्धी और विकास की और अग्रसर होंगे।

आज जरूरत नैतिक मूल्यों की है। आदर्श जीवन मूल्यों की है। जब हमारी सोच बदलेगी तो समाज भी बदलेगा। सोच बदलने में, मानसिकता बदलने में समय का अंतराल हो सकता है, मगर हमें बदलना होगा। निश्चित ही अब समय आ गया है की हम अंधाधुन्ध पश्चिमी सभ्यता और भोग विलास का अनुसरण को त्याग कर भारतीय सभ्यता और संस्कारों को ठोस रूप में स्थापित करने की दिशा में सही कदम उठायें।

अन्यथा वो कहावत जरुर चरितार्थ हो जाएगी कि

अब पछताए होत क्या, जब चिडि़या चुग गई खेत

अर्थात अगर अभी हमने ध्यान नहीं दिया तो हम केवल हाथ मलते ही रह जायेंगें।

आज हमें बदलाव की सख्त जरूरत हैं और इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी घटिया सोच और तुच्छ मानसिकता को सुधारने के लिए सुसंस्कारित हवन करना होगा और उसमें अच्छी सोच, अच्छे विचार की शुद्ध सामग्री डालनी होगी। वरना चाहे भारतीय संस्कृति हो या चाहे पाश्चात्य संस्कृति कोई अन्तर नहीं होगा। एक अच्छी और समझदार सोच व मानसिकता हमें सही दिशा की ओर बढ़ा सकती हैं वरना ठेकेदार तो समाज में बहुत हैं जो सिर्फ संस्कृति का बोझा ढोते हैं और सोच वहीं पुरानी रखते हैं। इसलिए वेशभूषा बदलने से पहले हमें अपनी मन मस्तिष्क में बैठी कुंठित सोच और मानसिकता को बदलना होगा वरना जहाँ से शुरू हुवे हो वही आकर खत्म हो जाओगे।

आज हमें वक्त रहते समझना होगा कि -

हमारी संस्कृति, हमारी पहचान हैं

सुनो गौर से, ये सद्गुणों की खान हैं

गंगा, जमुना, सरस्वती जहाँ विराजे

वो पश्चिमी देश नहीं, हिन्दुस्तान हैं

जिस धरा के लिए होते वीर कुर्बान

वो माँ भारती, हम सबकी शान हैं

जहाँ हो प्रांगण ज्ञान, भक्ति, कर्म का

सचमुच में वहां पर रहता इन्सान हैं

रंग-बिरंगी हमारी सभ्यता, संस्कृति

धानी चुनरिया, जिसका परिधान हैं

त्याग, बलिदान की हो जहाँ गाथाएं

वहां पे होता हर बच्चे का उत्थान हैं

आरती-आजान जहाँ होते एक संग

वही पर रहते, अल्लाह - भगवान हैं

जहाँ बसर करते संत, ज्ञानी, ‘ऋषि’

सोचो वो देश कितना बड़ा महान हैं

आज हमें हमारी संस्कृति एवं सभ्यता को समझना होगा। हमारी संस्कृति हमारी धरोहर है। जिसके पाँच महत्त्वपूर्ण आधारस्तंभ गुरु, गायत्री, गंगा, गौ व गीता हैं। जिस संस्कृति में गंगा, जमुना, सरस्वती, नर्मदा जैसी पवित्र नदियां का वास हो। जहां अनेक प्रकार की वेशभुषा, अनेक प्रकार की बोलियां, अनेक प्रकार के धर्म जाति, अनेक प्रकार की परम्पराएं हो, जहां हिमालय एक स्तम्भ के रूप में खड़ा हो और जहां ऋषि, मुनि संत, सुधारक, वीर योद्धाओं का जन्म हुआ हो तो सोचो वो धरती और वो संस्कृति कितनी निराली, कितनी सौन्दर्य पूर्ण और कितनी पवित्र हो सकती है।

मानता हुं कि हम आजाद भारतीय हैं और हमें पूर्ण अधिकार हैं अपने निजी जीवन के साथ कुछ भी करें। किसी भी तरह जीवन बसर करें लेकिन मैं फिर भी सभी आजाद भारतियों से निवेदन करता हूँ कि आप अपने निजी जीवन के साथ कुछ भी करें पर भारतीय संस्कृति और सभ्यता के साथ छेड़-छाड़ कर हमें और खुद को गर्त की ओर ना धकेले।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जा रहा हैं। हमने जब-जब प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया हैं तब-तब हम गुलामी की बेड़ी में जकड़े गये हैं। आज युवा अपनी संस्कृति के खुद दुश्मन बन गये हैं। उनकी पाश्चात्य के प्रति दीवानगी अगर इसी तरह बदस्तुर जारी रही तो हमारी नैतिकिता, सभ्यता और संस्कृति का हनन हो जायेगा। जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है और पूरा विश्व जो भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है।

अब युवाओं को अपनी संस्कृति का महत्व समझना होगा। हम जल्द खुद को सम्भालना होगा वरना हम अपनी सभ्यता और संस्कृति का अस्तित्व खो देंगे। परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमे अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए। पाश्चात्य के रंग को अपने आप से छुटाना होगा। अपनी कुन्ठीत मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी। आज हमारी संस्कृति के हनन के कारण अनेक प्रकार की विसंगतियां फैल रही हैं जिनका रोकथाम करना अतिआवश्यक हो चुका है। युवाआंे को अपने संस्कृति का महत्व समझना होगा और उसकी रक्षा के लिए साहस के कदम बढ़ाने होंगे। तभी भारतीय संस्कृति सुदृढ और प्रभावी बन सकती है।

अब भी समय है वक्त रहते खुद का पुनः निर्माण करों। समझों अपनी संस्कृति को, पहचानों अपनी सभ्यता को वरना जिस तरह से पाश्चात्य संस्कृति ने नारी, शिक्षा, संस्कार, सभ्यता और संस्कृति का हनन किया हैं एक दिन समय की रेत आपको भी धूमिल कर देगी।

क्यूंकि

वक्त बदल रहा हैं, रोज नई राहे बन रही हैं

जिंदगी का सफर बहुत छोटा होता जा रहा

इंसान अब धीरे - धीरे हैवान बनता जा रहा

भगवान की जगह, फिल्म स्टार लेते जा रहा

जहा पहले गाय को माँ का दर्जा दिया जाता था

अब हर घर में गाय की जगह कुत्ते लेते जा रहा

पहले मर्द औरत की इज्जत किया करते थे

अब सरे आम चैराहे पर इज्जत लुटता जा रहा

पहले पैसो से ज्यादा इंसान का महत्व था

अब इन्सान, इन्सान का दुश्मन बनता जा रहा

भाई - भाई का दुश्मन बन बैठा इस जहां में

धीरे - धीरे मानव से इंसान दानव बनता जा रहा

बहन-बेटियों का घर से निकलना दुस्वार हुआ

मर्दों पे हवस का वहशीपन सवार होता जा रहा

भारतीय सभ्यता की जगह पाश्चात्य ने ले ली

कपडे तंग हो गए, हिंदी की जगह इंग्लिश ले रहा

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हम कैसे समाज में जी रहे हैं, यह इन्सानों की बस्ती है

या फिर ‘ऋषि’ ये हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार

ये बात सत्य है आज के युग की दशा देखकर कि हर कोई बदलते वक्त में अपने संस्कार, अपनी सभ्यता भुलकर हैवान बन रहा है। जिस देश में नारी को पुजा जाता था आज उसी देश में वो शोषित हो रही है। जहां माता-पिता कि एक आवाज पर हम खामोश हो जाया करते थे आज उस वक्त के विपरित आज कि युवा पीढ़ी उन्हें उंगलियों पे नचा रही हैं। रिश्ते-नातें तो सच में सिर्फ कागजी बनकर रह गये है। हमारें देश कि वेशभुषा हमारी संस्कृति की पहचान हुआ करती थी आज उसी वेशभुषा को पाश्चात्य संस्कृति ने डस लिया है। ये सवाल सोचनीय बन चुका है कि आज हम किस समाज में जी रहे है सच में ये इन्सानों की बस्ती है या फिर आधुनिक युग से सुसजित कम्प्युटराइज लोगो की बस्ती है।

आज ये युग सचमुच में ऐसा ही हो चुका है। पूर्णतः हाड़-मांस वाला इंसान, मशीनी इंसान बन गया है क्योंकि किसी को किसी कि परवाह नहीं। सही मायने में समझा जाये ंतो आज किसी के पास किसी को समझने के लिए और किसी को समझाने के लिए वक्त नही है। समय की रेत प्रबलता से उड़ रही है। जिस देश में कभी दुध की नदियां बहा करती थी, जहां किसी गरीब को देखकर मन पसीज जाता था आज उसी देश में कोई भुखा सोये या फिर नंगा किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज पाश्चात्य संस्कृति की वजह से मानव जाति की इंसानियत को खटमल लग चुका है।

आओ मिलकर इस घटिया, विकृत मानसिकता वाली संस्कृति को हमारें देश से भगाये और भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को अपनाये। जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी अंधकारमय और प्रदुषित वातावरण नहीं अपितु सुन्दर, स्वच्छ और सुसंस्कारित वातावरण पा सके। आओ मिलकर समय की रेत को समझे और समय के अनुसार अपना पुनःनिर्माण करें।

।। जय हिन्द ।। वंदेमातरम् ।।

ऋषि अग्रवाल

(समय की रेत)