Hamare sapno ka bharat kaisa ho in Hindi Magazine by Dr Musafir Baitha books and stories PDF | हमारे सपनों का भारत कैसा हो

Featured Books
Categories
Share

हमारे सपनों का भारत कैसा हो

पुरस्कृत निबंध

21 वीं सदी के सपने

अर्थात

हमारे सपनों का भारत कैसा हो?

सपने प्रगति की प्रेरणा प्रदान करते हैं. साथ ही वे अपने ही नहीं अपितु औरों के विकास एवं आकांक्षाओं का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं. जो व्यक्ति स्वप्न नहीं देखता है वह कैसे कह सकता है भला कि वह निर्माण की दिशा में कुछ करना चाहता है? सपने हकीकत से अलग नहीं होते, सपने जीवन से लगकर ही आते हैं. हमारी आशाएं, आकांक्षाएं यहाँ तक कि भय-विभ्रम तक हमारे स्वप्नों में तब्दील हो जाया करते हैं. सपने हमारे गतिशील होने, अभीष्ट की चाह की ओर अग्रसर होने का आईना भी हैं. पर हमें पता है कि 21 वीं सदी के हमारे सपने अनायास ही, यूं ही साकार नहीं हो जाएँगे, क्योंकि महज तिथियों के बदल जाने से स्थितियां नहीं बदल जातीं!

चूँकि हाल में अतीत हुई 20 वीं सदी हमारे लिए काफी गम और महज थोड़ी खुशी की सदी रही है, अतएव 21 वीं सदी में प्रवेश हम कई आशंकाओं, प्रश्नाकुलताओं से साबका करते हुए कर रहे हैं. ये आशंकाएं, ये प्रश्न हमारे जीवन के विविध पहलुओं – विचार, राजनीति, अर्थशास्त्र, पर्यावरण, सूचना प्रौद्योगिकी, ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, हमारी मिट्टी आदि तमाम जीवन को प्रभावित करने वाले क्षेत्रों-आयामों से जुड़े हैं. इन बिंदुओं से लगकर ही हमारे सारे स्वप्न आते हैं.

राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गाँधी ने भारत में राम-राज्य की परिकल्पना की थी. इस राम-राज्य को दरअसल वे अपने सपनों के भारत के समतुल्य देख रहे थे. वे चाहते थे कि एक ऐसी प्रजातान्त्रिक शासन पद्धति हो जिसमें लोक कल्याण की भावना प्रबल हो. उन्होंने इसमें अपने हिसाब से सामाजिक विषमता, अस्पृश्यता रहित आपसी सौहार्द वाले समरस समाज का सपना देखा था. हालांकि गांधी का राम राज्य एक आदर्श समाज नहीं हो सकता. इसमें हमें बहुत कुछ जोड़ना होगा तब एक आदर्श भारत की परिकल्पना साकार हो सकती है. और इसे साकार करने में हमें महान मानवतावादी अम्बेडकर, कबीर, रैदास, फुले दम्पती, पेरियार, बुद्ध जैसों के भी कतिपय विचार एवं दर्शन जोड़ने होंगे और उन्हें जमीन पर उतारने होंगे. यों कहें कि यह सम्मिलन ही हमारी परिकल्पनाओं का भारत, एक आदर्श भारत बना सकता है. यह हमारे लिए काफी शर्म और दुःख का विषय है कि देश को आजाद हुए कोई सत्तर साल बीतने के बावजूद इस वैज्ञानिक युग में हम इन महापुरुषों के दिखाए गए रास्ते पर चलना सीख नहीं पाए हैं, इनके कर्मों एवं सपनों को मिलाकर हम अपने सपनों का समाज बनाने की दिशा में हम बहुत आगे बढ़ नहीं पाए हैं.

आज हमारे देश में चहुँदिश आतंक, अत्याचार, अनाचार, शोषण, अवसाद, विषाद और निराशा का आलम पसरा है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के चलते आम लोगों के लिए नौकरी व रोजगार की भयानक कमी हो रही है. फलत: जनस्फोट के भयावह शिकार इस देश में बेकार, बेरोजगार, अर्द्ध बेरोजगार एवं योग्यता अनुकूल रोजगार न पा सके लोगों की फ़ौज बेतहाशा बढ़ रही है. जातिवाद, सम्प्रदायवाद जनित आतंकवाद व उग्रवाद का ख़ूनी पंजा दिनोंदिन पसरता जा रहा है और अपनी गिरफ्त में समूचे समाज को ले रहा है. भूखी, नंगी, अशिक्षित, अकिंचन जैसी नानाविध वंचित जनों की अनवरत बढ़ती भीड़ सभ्यता और मानवता के मुंह पर तमाचा है. दलितों, वंचितों, स्त्रियों को अभी भी उनके प्रायशः मानवोचित लोकतंत्रिक अधिकार नहीं मिल पाए हैं. एड्स, कैंसर, हेपेटाइटिस-बी जैसी जानलेवा व्याधियों पर विजय प्राप्त करने का प्रश्न अब भी बरक़रार है. जबकि इधर, आधुनिक अनियमित जीवन शैली एवं खानपान की गड़बड़ी से उपजी शुगर, ब्लड प्रेशर जैसी उपचारों से नियंत्रित की जा सकने वाली मगर असावधानी बरतने पर जानलेवा साबित हो सकने वाली बीमारियाँ अपने पाँव भयानक रूप से फैला चुकी हैं. उधर, जाति, मजहब एवं अति स्वार्थी गुटबंदियों की संकीर्ण दीवारें मिटने-पटने की जगह दिनानुदिन चौड़ी हुई जा रही हैं. सीमित संसाधनों वाली धरती के दोहन में हम सर्वाधिक विवेकशील प्राणी होकर भी नादानी दिखलाने में बाज नहीं आ रहे. ऐसे विपरीत समय में सपनों का महत्व काफी बढ़ जाता है.

वस्तुतः हम आतंक, असहिष्णुता, अति स्वार्थ और तनाव से भरे असाधारण संकट वाले समय में जी रहे हैं. आधुनिक समय में हम मनुष्यों का यह व्यतिक्रम बर्ताव हत्प्रभ करने वाला है, बेहद शोचनीय है. साम्प्रतिक समय के आत्मघाती सम्मोहन और संकीर्ण दायरे से निकलकर हमें 21 वीं सदी के बचे समय को अपने सपनों पर खरा उतारना होगा. ऐसा इसलिए भी कि नवागत सदी के पहला दशक में बहुत-कुछ इतना तेज बदला है कि उस गति को दिशा देने की त्वरित जरूरत आन पड़ी है. ऐसा नहीं होगा तो यह हमें अवांछित दिशाओं में ले जाएगा. वर्तमान स्थितियां ऐसे ही संकेन्द्रण की ओर बढ़ रही हैं और खतरा निरंतर गहरा रहा है कि कहीं दुनिया की अधिकांश आम आबादी लगातार उत्पीड़न और उत्पीड़ित मृत्यु का शिकार न हो जाए. अभिशप्त अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य न हो जाए और सिर्फ कुछ 'धवल' भद्रजन अपने सफ़ेद बालों को कृत्रिम कालापन दिए, नकली दिल और नकली दिमाग लिए इस धरती पर चहलकदमी न करने लगें। राम राज्य में ये अभिशाप स्वयमेव समाप्त हो जाएंगे।

तो आइये, देखें कि नई सदी के हमारे सपने क्या हों? प्रथमतः तो हमें इस 21 वीं सदी में उस जमीनी लोकतंत्र की राह बढ़ना है जहाँ 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भारतीय तहजीब सच्चे अर्थों में दुनिया भर को आगोश में ले सके। जहाँ यह सारा संसार ही भारत सदृश विविधता में एकता का आह्लादकारी समाहार बन जाए। जहाँ संसार की सारी जाति-प्रजाति, वर्ण-नस्ल, मजहब-पन्थ एक दूसरे से जुड़कर, एक सूत्र में बंधकर किसी समरस सार्वभौमिक जीवन-धारा में समा जाएं, अट जाएं।

हम चाहेंगे इस सदी में कि जो जीवन हम जी चुके हैं उससे कहीं बेहतर जीवन के अवसर अपनी आने वाली पीढ़ियों को दे सकें, जबकि साम्प्रतिक दुनिया का जो बुरा हाल है उसे देखते हुए अपने दिलोदिमाग में स्वप्नों को संजोये रखना भी कठिन प्रतीत होता है। फिर भी यदि हम चाहते हैं कि मानव जाति परमाण्विक संहार से विनष्ट न हो, या अभी के प्रगतिरोधी वातावरण में मानवता पीछे न धकेल दी जाए, जिसका मुकाबला कभी हम्मुराबी, कन्फ्यूशियस, कोपर्निकस, बुद्ध, ईसा जैसे अग्रसोची इंसानों को करना पड़ा था। तो हमें इन सपनों को बरक़रार रखना ही पड़ेगा।

आज इस नई सदी में पन्द्रह वर्ष चलकर भी दुनिया की अधिसंख्य जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने को विवश हो रही है। आज भी विश्व की कुल 600 करोड़ आबादी में से 20 करोड़ लोग शरणार्थी जीवन जीने को अभिशप्त हैं। अपराध, खासकर, हिंसक एवं अमानवीय की संख्या चिन्त्य एवं भयावह गति से बढ़ती जा रही है। युगांडा, जाम्बिया, जिम्बाब्वे, बांग्लादेश, म्यांमार सहित अनेक अफ़्रीकी-एशियाई, लातिनी अमेरिकी देशों में पूर्व की तुलना में मानव की जीवन अवधि प्रत्याशा के विपरीत कम हो गयी है। इस स्थिति को सपनों में दखल देने से बाहर करना ही होगा।

धनी देशों में आय का संकेन्द्रण है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट बताती है कि सन 1998 में विश्व के मात्र 200 धनी व्यक्तियों की सम्पत्ति विश्व के 41% लोगों की समेकित आय से भी अधिक थी। अभी मध्य जनवरी 2016 में ऐसा ही एक आंकड़ा धनाढ्यों के और अधिक धनी होने का पता देता है। इसके अनुसार विश्व की 50 % सम्पत्ति महज 62 धनिक व्यक्तियों के पास है। इस बराबरी के लोकतांत्रिक हक के समय में भी धन-सम्पत्ति की यह बंदरबांट आधुनिक सभ्यता के मुंह पर करारा तमाचा सदृश है। ऐसी अस्वस्थ स्थिति के रहते हमारे सपने सच कैसे साबित होंगे? विज्ञान एवं लोकतंत्र की इस सदी में अपने अपने सपने तो लगभग सबके होंगे और स्पष्टतः अधिकारपूर्ण भी, जो कि इस भेद को पाटे बिना नहीं हो सकता। आर्थिक उदारीकरण की गैरबराबरीपरक वैश्विक प्रक्रिया ने उसके लाभार्थियों व भण्डारदारों को अपने मुनाफे नशीले दवायों-द्रव्यों, हथियार के धंधों तथा अन्य नाजायज किस्म के कारोबारों में निवेश का मौका दिया है। हमारे सपनों में यह भेदपरक व्यवस्था नहीं अटेगी।

हमें विश्व स्तर पर रूस के साम्यवादी प्रयोग, पश्चिमी यूरोप के फेबियन समाजवादी प्रयोग और एशियाई संदर्भ में माओ के किसान केन्द्रित कम्युनिटेरियन साम्यवाद के आर्थिक प्रयोग एवं भारत के स्तर पर नेहरू के मिश्रित अर्थव्यवस्था व न्याय सम्मत विकास के समाजवादी कार्यक्रम के निर्मम वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर सबक सीखने होंगे और उन्हें 21 वीं सदी में एक नए समाजवादी भविष्य की खोज के लिए नए आर्थिक दर्शन एवं आर्थिक प्रयोग का प्रेरणास्रोत बनना होगा। जमीनी कुव्वत एवं कर्म से रहित समाजवाद एवं साम्यवाद के नाम पर महज पार्टियाँ खड़ी कर लेने से काम नहीं बनने वाला।

नेहरू ने कहा था कि मानव जाति का जितना नुक्सान धार्मिक मतान्धता (रिलीजियस डोग्मा) ने नहीं किया है उससे कहीं अधिक नुकसान आधुनिक संदर्भ में आर्थिक मतान्धता से होने की सम्भावना है। विडंबना है कि उनकी यह सम्यक दृष्टि भारत में ही कार्यान्वित नहीं हो पायी है। समाजवादी कार्यक्रम में बदलती परिस्थितियों और जरूरतों के अनुकूल जरूरी बदलाव नहीं किये गये परन्तु यह हुआ कि समाजवाद ही पूरी तरह से अपदस्थ हो गया और उदारवादी पूंजीवाद राष्ट्र पर हावी हो गया। आज जरूरत पड़ी है कि हम नेहरू के समाजवाद विषयक मूल दृष्टि पर पुनः विचार करें। अस्तु, आबादी, उपलब्ध संसाधन और मानवीय क्षमताओं के सीमित विस्तार को ध्यान में रखते हुए हम व्यवहार्य व अधिकाधिक स्रोतों को विश्वास में लेकर एक दीर्घकालीन आर्थिक योजना बनाएं ताकि इस स्वप्न-समय में 'सर्वे भवतु सुखिना सर्वे भवतु निरामयाः' के थोथे भारतीय आदर्श को अमलीजामा पहना सकें।

अपने सपनों को फलीभूत करने के लिए हमें पर्यावरण संरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा। हमें अपनी कूपमंडूक मानसिकता त्यागकर 'वसुधैव कुटुम्बकम' के मुंहजबानी परम्परा आयातित आदर्श व विचार को अपनाना होगा ताकि जमीनी न्याय तथा जमीनी स्वराज पाया जा सके। तभी स्वस्थ मूल्य, संस्थाएं व नीतियाँ विकसित हो सकेंगी। जिस उत्पादन और उपभोग की दूषित एवं उच्छृंखल संस्कृति ने हमें स्वच्छ जल और हवा भी पाना मुहाल कर दिया है उससे छुटकारा पाकर प्राकृतिक पानी और हवा को हम फ़िर से पाना चाहेंगे. इन्हें व्यक्तिगत संपत्ति बनने से रोकना होगा और इनका अनियंत्रित उपभोग किया जाना भी हमें छोड़ना होगा. तरुण मित्र संघ, अन्ना हजारे और अनुपम मिश्र जैसे ‘जल प्रहरियों’ के नेक प्रयासों के स्वीकार और समर्थन में रहते हुए हम ‘जल-स्वराज’ पाने के भी आकांक्षी हैं.

गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उस भारत का स्वप्न देखा था जहाँ ज्ञान मुक्त हो एवं सबको सहज ही प्राप्य हो. इस गरज से, पेटेंट एकाधिकारों से ज्ञान को स्वतंत्र रखना भी हमारी एक चाहना होगी. सो, इस सदी में कोई पेटेंट, कोई एकाधिकार नहीं चलेगा, बल्कि अब हम ‘बीज स्वराज’ भी पाना चाहेंगे, जिससे हल्दी, नीम, मेहंदी, आंवला जैसी परम्परा प्रयुक्त चीज़ों की कोई हकमारी नहीं हो सके.

भारत, जो कि जैविक विविधता और सांस्कृतिक विविधता का आंगन है, हमारे सपनों के हिसाब से तकनीकी, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक – हर क्षेत्र में एकतानी संस्कृति से उबर पाने में सक्षम हो सकेगा. हम उसमें अपनी सभी विविधताओं – आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय के लिए जगह निकाल पाएँगे. हमारे शिल्पियों व कलाकारों को दुनिया के बेहतरीन धागों से अपनी हुनर को प्रज्ज्वलित करने से रोकने के लिए कोई ‘नाइकी’, ‘रिबॉक’, ‘मोंटे कार्लो’ जैसी विदेशी पूँजी वाली कम्पनियाँ अस्तित्व में नहीं रहेंगी, यह भी हमारा सपना होगा.

21 वीं सदी को अपने सपनों का भारत बनाने के लिए “अन्न स्वराज’ भी लाना होगा. इस ‘आहार लोकतंत्र’ में अभी की तरह कोई भूख से नहीं बिलबिलाएगा, भूखा नहीं मरेगा, जबकि गोदाम अन्न से अटे पड़े हों! इसमें सरकार जनता से अधिकार छीन कर अन्न का निर्यात और न ही बेशक, कोई ऐसा आयत हो सकेगा जो हमारे कृषकों का जीना हराम कर दे, आत्महत्या को बाध्य कर दे. मुनाफाखोरी एवं जमाखोरी करने वाले सेठ-साहूकार तथा सरकारी जन वितरण प्रणाली को चलाने वाले सरकारी कारिंदे भी इस न्याय तंत्र में बेईमानी करने की हिम्मत करने में सौ बार सोचेंगे.

इस सदी में हम व्यावसायिक अमानवीय मानस वाले आधुनिक चिकित्सा जगत के पाप का भरा घड़ा भी फूट जाता देखना चाहेंगे, जहाँ मरीज को आदमी न मानकर ‘आइटम’ अथवा ‘ग्राहक’ मात्र मानकर डॉक्टर अपनी जीवन दाता अथवा दूसरा भगवान वाली भूमिका से च्युत हो निर्लज्ज एवं निष्ठुर बेईमान एवं लाभखोर बनिया में तब्दील हो चुका है.

हम चाहेंगे कि वैकल्पिक पारंपरिक चिकित्सा पद्धति - होमियोपैथी, आयुर्वेद जैसे प्राकृतिक नैदानिक उपायों की तरफ हम लौट सकें। तकनीकी वैज्ञानिक उपलब्धियों का केवल सर्जनात्मक उपयोग हो, सभ्यता-मानवता नाशक उपक्रमों – लड़ाई - झगड़ों में मानव अहितकारी प्रयोजनों में इनका उपयोग कदापि न हो।

स्त्रियों, दलित, बालक एवं अन्य अधिकार वंचितों को इस नई सदी में मानवोचित एवं लोकतान्त्रिक हक़ हुकूक मिले। हम अक्सर कथित वैदिक काल में विद्यमान नारी स्वतंत्रता की बात कर नारी की सम्पूर्ण विवेकसम्मत स्वतंत्रता के बारे में ख्याली योजनाएं बनाते रहे हैं। इन्हें हम अमलीजामा पहनाएं, सपनों से यथार्थ की दुनिया में लाएं, तो बेहतर। सभी बच्चों को पोषणयुक्त वातावरण, शारीरिक व मानसिक सुस्वास्थ्य मिले, उनके खुशियों से भरे घर हों, लिखने-पढ़ने, खेलने-कूदने के सुअवसर हों और किसी को बचपन खा जाने वाली चाकरी - बाल श्रम न करना पड़े। दलितों को मिली जन्म आधारित वर्जनाओं, उपेक्षाओं से मुक्ति मिले और वे सामान्यजनों की तरह समाज में हर रचनात्मक भूमिका निभा सकें, आत्मसम्मान के साथ जी सकें।
हमने मानव-सभ्यता के हजारों सालों में एक से एक धर्मों, पंथों को परखा तथा उनके दंश झेले। जाति-वर्ण-नस्ल के मानव सृजित भेद ने भी मानवता को बाँटे रखा। अब इस सदी में हम एकमात्र निर्विशेष धर्म - मानव धर्म की प्रतिष्ठा कर सकें, तो अच्छा।

हम इस नई बेला में उस विश्व समाज में जीना चाहेंगे जहाँ केवल प्रेम हो, प्रेम ही प्रेम हो। घृणा-द्वेष लेशमात्र भी न फटके। जहाँ इस दुनिया को रहने लायक बनाने के लिए हर आदमी का भरसक योगदान हो। सौहार्द और निर्भयता की संस्कृति सदैव राज करे दुनिया-जहान पर।

भारत के एकमात्र नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि एवं साहित्यिक टैगोर के शब्दों में (भाग्यवादी प्रभाव को विलोपित करने के ख्याल से आंशिक संशोधन करते हुए) अपने नई सदी के सपनों, जो हर किसी के स्वप्न हो सकते हैं, का समाहार करते हुए कहूँगा कि –

जहाँ मन हो निर्भय

और हो भाल गर्वोन्नत

ज्ञान भी हो खुला सबके लिए

जहाँ दुनिया बंटी न हो टुकड़ों में

घर की ओछी दीवारों से

उस स्वप्निल स्वाधीनता की ओर

ऐ मेरे मीत, देश के जन-मन को मोड़।

**********







Top of Form

Bottom of Form