राष्ट्रनायकों का बचपन
महात्मा गांधी
बचपन में गांधीजी को लोग 'मोनिया' कहकर पुकारते थे| दरअसल प्यार से मोहन को ही मोनिया बना दिया गया था। मोनिया दुबला-पतला था, लेकिन और बच्चों की तरह चंचल था। उसे पेड़ों पर चढ़कर फल तोड़ना बहुत अच्छा लगता था| उसके पिता उसे पेड़ पर चढ़ने से मना करते, लेकिन उसका मन न मानता|
एक दिन मौका देखकर वह अमरूद के पेड़ पर चढ़ गया| संयोग से उसी समय उसके बड़े भाई भी आ गए| उन्होंने उसकी टांग पकड़कर नीचे खींच लिया और दो-चार थप्पड़ भी लगा दिए।
मोनिया रोता हुआ मां के पास पहुंचा, बोला, "मां, भाई ने मुझे मारा है|"
मां ने सहज भाव से कहा, "उसने तुझे मारा है तो तू भी उसे मार|"
यह सुनते ही मोनिया का रोना रुक गया| वह गंभीर होकर बोला, "ऐसा तुम कहती हो मां! मैं मारूं! बड़े भाई पर हाथ उठाऊं|"
मां ने हंसकर कहा - "अरे, इसमें क्या बात है! बच्चों में तो आपस में लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट होती ही रहती है|"
मोनिया ने क्षण भर मां की ओर देखा, फिर बोला, "तुम कैसी मां हो! बड़े को मारने की सीख देती हो! भाई मुझसे बड़े हैं| वे मुझे भले ही मार लें, पर मैं उन्हें नहीं मार सकता|"
मां यह सुनकर चकित रह गईं| उन्होंने मारने की बात तो यों ही कह दी थी। वह कुछ और कहतीं इससे पहले मोनिया आगे बोला, "मां जो मारता है, उसे तुम क्यों नहीं रोकती? उससे तुम्हें कहना चाहिए कि वह न मारे। मार खाने वाले से मत कहो कि वह भी मारे| यह सुनकर मां की छाती गर्व से फूल उठी|
एक बार मोनिया को एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना था। रात बहुत अंधेरी थी। उसे डर लग रहा था। अकेले में वैसे भी उसे भूतों से बहुत डर लगता था। उसे लगता था कि भूत किसी कोने में घात लगा कर बैठा है और उसे अकेले देखते ही अचानक से आकर उस पर कूद पड़ेगा। जैसे ही उसने कमरे से बाहर पैर निकाला, उसका दिल तेजी से धडकने लगा। दरवाजे के बाहर घर की बूढ़ी दाई रंभा खड़ी थी। उसने हंसते हुए पूछा, "क्या बात है बेटे?" मोनिया ने कहा, "मुझे डर लग रहा है।’
" डर? मगर किस बात का?" रंभा ने कहा। मोनिया ने डरते हुए कहा, "देखो कितना अंधेरा है। मुझे भूतों से डर लग रहा है।" रंभा ने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा, "राम का नाम लो और फिर कभी कोई भूत पास आने की हिम्मत नहीं करेगा। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। राम तुम्हारी रक्षा करेंगे।" रंभा की बात से मोनिया को साहस मिला। फिर उस दिन से उसने जो राम का नाम लेना शुरू किया, जिंदगी में कभी नहीं छोड़ा। मरते समय भी बापू के मुंह से "हे राम!" ही निकला था। उन्हें "रघुपति राघव राजाराम" भजन बहुत प्यारा था।
जवाहर लाल नेहरू
जब जवाहरलाल नेहरू छोटे थे, तभी उनके पिता मोतीलाल नेहरू अंग्रेजों से देश को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल हो गए थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में एक तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आज़ाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया।
जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आजादी चाह रही है। तोता भी आजादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आज़ाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुंह देखते रह गये।
जवाहर लाल नेहरू ने अपने बचपन का किस्सा बयान करते हुए अपनी पुस्तक ‘मेरी कहानी’ में लिखा है कि वे अपने पिता मोतीलाल नेहरू जी का बहुत सम्मान करते थे। हालांकि उनके पिता कड़कमिजाज थे, सो वे उनसे डरते भी बहुत थे क्योंकि उन्होंने नौकर-चाकरों आदि पर उन्हें बिगडते कई बार देखा था। तब नेहरूजी की उम्र 5-6 वर्ष की रही होगी। एक रोज उन्होंने अपने पिताजी की मेज पर दो फाउंटेन पेन पड़े देखे। उनका जी ललचाया उन्होंने सोचा, पिताजी एक साथ दो पेनों का क्या करेंगे? एक उन्होंने अपनी जेब मे डाल लिया। बाद में बड़ी ज़ोरों से तलाश हुई कि पेन कहां चला गया? तब तो जवाहर घबराए। मगर उन्होंने किसी को कुछ बताया नहीं। पेन मिल गया और वे गुनहगार करार दिए गए। पिताजी बहुत नाराज़ हुए और उनकी खूब मरम्मत की। वे दर्द व अपमान से अपना सा मुंह लिए मां की गोद में छुप गए। कई दिन तक उनकी बदन पर क्रीम और मरहम लगाए गए। उन दिनों के बारे में नेहरू जी ने लिखा है, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि इस सज़ा के कारण मैंने कभी पिताजी को कोसा हो। मैं समझता हूं मेरे दिल ने यही कहा होगा कि सज़ा तो तुझे वाजिब ही मिली है, मगर थी ज़रूरत से ज्यादा।
लालबहादुर शास्त्री
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1901 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से कस्बे मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे, जिनकी मृत्यु उसी समय हो ,गई जब शास्त्री जी केवल डेढ़ वर्ष के थे। इसलिए उनकी मां लालबहादुर सहित अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर रहने लगीं, जो कि एक छोटे से शहर में रहते थे।
चूंकि इस छोटे शहर में शास्त्री जी को अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती थी, इसलिए उनकी मां ने उन्हें वाराणसी में उनके चाचा के पास रहने के लिए भेज दिया ताकि वे बेहतर शिक्षा प्राप्त कर सकें। चाचा के यहां सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। अक्सर वे कई मील की दूरी नंगे पांव ही तय कर स्कूल जाते थे। यहां तक कि भीषण गर्मी में जब सड़कें बहुत गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।
शास्त्री जी जब थोड़े बडे हुए तो उन्हें लगने लगा कि भारत को विदेशी दासता से मुक्ति मिलनी ही चाहिए। वह आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे और जब महात्मा गांधी ने भारत में रहने वाले उन राजाओं की निंदा की, जो कि भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे थे, तो शास्त्री जी गांधीजी से काफी प्रभावित हुए और मात्र 11 साल की उम्र में ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया। जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया, तो मात्र 16 साल की उम्र में गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। पढाई छोडने के अपने निर्णय पर वे इतने अडिग थे कि उनके पूरे परिवार, सगे-संबंधियों व मित्रों के लाख समझाने के बावजूद उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। इस घटना से उनके सभी करीबी लोगों को यह पता चल गया कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अंदर से चट्टान की तरह कठोर हैं।
चंद्रशेखर आजाद
चंद्रशेखर आजाद एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे। उनका जन्म मध्य प्रदेश के झबुआ तहसील के भावरा नामक गाँव में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। सीताराम तिवारी उन्नाव जिले के बदरका नामक गाँव के निवासी थे। पर उन्हें अपने परिवार का पेट पालने के लिए भावरा ग्राम जाना पड़ा। वहां वे एक बगीचे की देखभाल करते थे। उन्हें तनख्वाह के रूप में आठ रुपये महीना मिलता था। इतने कम वेतन में ही उन्हें किसी प्रकार जीवन गुजारना पड़ता था। वे चाहते थे कि चंद्रशेखर किसी छोटी-मोटी नौकरी में लगकर परिवार की सहायता करें। पर चंद्रशेखर इसके लिए तैयार नहीं हुए और सब कुछ छोड़ कर बंबई जा पहुंचे। पेट पालने के लिए वहां उन्होंने कुछ दिन मजदूरी भी की। पर चंद्रशेखर तो किसी बड़े काम के लिए पैदा हुए थे। वे बंबई से वाराणसी आए और संस्कृत पाठशाला में भर्ती हो गए। यहां भोजन और निःशुल्क संस्कृत शिक्षा उपलब्ध थी। पर उनका मन संस्कृत पढ़ने में कम लगता था। उन्हें क्रान्तिकारियों के रोमांचक किस्से पढ़ने में असीम आनंद प्राप्त होता था। जब आजाद तेरह-चौदह साल के थे तभी गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू हुआ। चंद्रशेखर भी इस आन्दोलन में कूद पड़े। संस्कृत पढ़ने वाले दस बारह लड़कों के साथ जुलूस निकाला और विदेशी वस्त्रों तथा शराब की दुकानों पर धरना देने लगे। इस पर चंद्रशेखर गिरफ्तार कर लिए गए। पारसी मजिस्ट्रेट के सामने उनकी पेशी हुई।
मजिस्ट्रेट ने कड़े स्वर में सवाल किया -'तुम्हारा नाम क्या है ?'
चंन्द्रशेखर ने निडरता से जवाब दिया - 'आजाद।'
मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा - 'तुम्हारे बाप का नाम क्या है ?'चंद्रशेखर ने उत्तर दिया - 'स्वाधीन
ता।'
मजिस्ट्रेट का अगला प्रश्न था -'तुम्हारा घर कहाँ है ?'बालक ने उसी तरह तपाक से उत्तर दिया -'जेलखाना।'
चंद्रशेखर के इस प्रकार के उत्तरों से मजिस्ट्रेट चिढ गया और उसने उन्हें पन्द्रह बेंत लगाकर छोड़ देने का आदेश दिया। जेल के अंदर चंद्रशेखर ने बिना उफ़ कि
ए हर बेंत पर महात्मा गाँधी की जय का नारा लगाया। उनका शरीर खून से लथपथ हो गया था। तन की चमड़ी कई जगह से उधड़ चुकी थी। अब वे चंद्रशेखर से चंद्रशेखर आजाद बन चुके थे। जेल से छूटने पर वाराणसी में एक सार्वजनिक सभा में उनका सम्मान किया गया था। स्वस्थ होने पर वे काशी विद्यापीठ में भर्ती हो गए।
सुभाष चंद्र बोस
सुभाष चंद्र बोस जिस स्कूल में पढ़ते थे, उसमें अंग्रेज छात्रों की संख्या अच्छी-खासी थी। अंग्रेज छात्र भारतीयों को हेय दृष्टि से देखते थे। एक बार की बात है। कुछ भारतीय और कुछ अंग्रेज छात्र खेल रहे थे। लड़कों के बीच किसी बात को लेकर कहासुनी हो गयी और अंग्रेज लड़कों ने भारतीय लडकों का काफी अपमान किया | तभी सुभाष वहां पहुंचे और उन्होंने अंग्रेज लडको से पूछा ‘क्या बात है?
‘मैं हिन्दुस्तानी लडको से बात नहीं करता मैं उन्हें ठोकर मारकर गिरा देता हूँ | एक अंग्रेज लड़के ने कहा | सुभाष ने कहा ” तुमने गलत सोचा है। हिन्दुस्तानी लड़के भी अंग्रेज लडको को ऐसी ही ठोकर मारकर गिरा देते है। यह कहते हुए सुभाष ने अंग्रेज लड़के को ठोकर मारकर गिरा दिया।
एक बार शहर में हैजा फ़ैल गया। इस घातक बीमारी ने अनेक लोगो को अपने चपेट में ले लिया । लोग मरने लगे तो बालक सुभाष ने ये खबर पढ़ी और पहुंच गए अपने चुने हुए साथियों को लेकर गंदी बस्ती में रह रहे लोगो की सेवा करने। सबने मिलकर गंदी बस्ती और मकानों की सफाई की और लोगों को साफ खाना और पानी के लिए हिदायत दी। उन्होंने बीमार लोगो को दवाइयां दीं। इनका ये सेवा कार्य कुछ लोगों को तो अच्छा लगा लेकिन कुछ को बहुत नागवार गुजरा और उन्होंने अमीरी-गरीबी के भेदभाव का आरोप लगाकर इस सेवा कार्य का विरोध किया । इनका नेता था हैदर, जो एक छंटा हुआ गुंडा था। उसने सुभाष और उनके साथियों को आने के लिए मना कर दिया और विरोध किया लेकिन थोड़े दिन बाद हैदर का परिवार भी हैजे की चपेट में आ गया तो मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। अगर आये तो सुभाष और उनके साथी, जो हैदर के लिए अपने विरोध को भूलकर उनके परिवार में पहुंचे और उन्हें दवाइयां दीं।
हैदर अब शर्म से सिर झुकाए खड़ा था इस पर सुभाष ने हैदर से कहा ‘इस गलती का सुधार यही है कि तुम भी हमारे साथ आ जाओ। और लोगो के लिए सेवाकार्य करो और नेक इंसान बनो।’
भगत सिंह
पांच वर्ष की उम्र से ही भगत सिंह ऐसे खेल खेलते थे, जिन्हें देखकर ही कोई कह सकता था कि वे आगे चलकर महान देशभक्त और क्रांतिकारी बनेंगे। वह अपने साथियों को दो टोलियों में बांट देते थे और परस्पर एक-दूसरे पर आक्रमण करके युद्ध का अभ्यास किया करते। भगत सिंह के हर कार्य में उनके वीर और निर्भीक होने का आभास मिलता था।
एक बार
उनके चाचा सरदार किशन सिंह उन्हें लेकर अपने मित्र नन्द किशोर मेहता के पास उनके खेत पर गए। दोनों मित्र बातों में लग गए और भगत अपने खेल में रम गए। नन्द किशोर मेहता का ध्यान भगत सिंह के खेल की ओर आकृष्ट हुआ। भगत सिंह मिट्टी के ढेरों पर छोटे-छोटे तिनके लगाए जा रहे थे।
उन्हें ऐसा करते देख नन्द किशोर मेहता बड़े स्नेह भाव से भगतसिंह से बातें करने लगे—
‘‘तुम्हारा क्या नाम ह
ै ?’’ श्री मेहता ने पूछा।
भगत सिंह ने उत्तर दिया—‘‘भगतसिंह।’’
‘‘तुम क्या करते ह
ो ?’’
‘‘मैं बंदूकें बेचता हूं।’’ भगत
सिंह ने बड़े गर्व से उत्तर दिया।
‘‘बंदूकें...?’’
‘‘हां, बंदूकें।’’
‘‘वह क्यो
ं ?’’
‘‘अपने देश
को स्वतंत्र कराने के लिए।’’
‘‘तुम्हारा धर्म क्या ह
ै ?’’
‘‘देशभक्ति। देश की सेवा करना।’’
मेहता
जी ने भगत सिंह को स्नेहपूर्वक अपनी गोदी में उठा लिया। वे सरदार किशन सिंह से बोले, ‘‘भाई ! तुम बड़े भाग्यवान् हो, जो तुम्हारे घर में ऐसे होनहार व विलक्षण बालक ने जन्म लिया है। मेरा इसे हार्दिक आशीर्वाद है। यह बालक संसार में तुम्हारा नाम रोशन करेगा। देशभक्तों में इसका नाम अमर होगा।’’
मेहता जी की यह भविष्यवाणी सही साबित हुई।