संक्रमण
शुक्ल जी से मेरा संबंध एक दशक पुराना था। संबंधों का आधार कुछ हद तक वैचारिक था। लेकिन मुख्य रुप से मैं उनकी मानवीय संवेदना से प्रभावित था। पुराने ख्यालों के होने के बावजूद उनकी कतिपय अच्छाईयॉ मुझे पसंद थीं। इसलिए पूरी एक पीढ़ी का अंतर होते हुए भी हम दोनों घनिष्ठ मित्र की तरह थे। वे भी मेरे अंदर संभावनाऍ देखते थे। वे अक्सर कहते कि लेखन के माध्यम से समाज को जगाया जा सके या नहीं लेकिन मानवीय संवेदना प्रकट करने के एक महत्वपूर्ण साधन के रुप में साहित्य सदैव बरकरार रहेगा। मेरा अपने उम्र के लोगों का भी सर्किल था लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोग मुझे अच्छे लगते थे।
मेरी तरह उनकी आदतें व स्वभाव भी सीधा-सादा था। भोर में उठ जाना, टहलने जाना, पूजा-पाठ, फिर हल्का कलेवा, काम में रत रहना। लेकिन उनका परिचय जगत मुझसे ज्यादा व्यापक था। वे दुनियादारी में आगे थे। शहर में रहते तीन दशक से ऊपर हो गया था। लेकिन गॉव-देहात से निकट सम्पर्क अभी भी था। अपने घर के अहाते में उन्होंने गाय पाल रखी थी। स्वस्थ, अच्छा खासा दूध देने वाली काली गाय थी। मुझे पशुओं का कोई ज्यादा ज्ञान नहीं था लेकिन उसकी मजबूत व कम ऊॅचाई वाली कद-काठी देखकर लगता था कि काफी अच्छी नस्ल की है। गाय की सेवा में निरत देखकर कोई नया आदमी उन्हें निपट ग्रामीण समझ सकता था। दूध दूहने और चारा-पानी के लिए उन्होंने एक को रख छोड़ा था। मुन्नू नाम था उसका। उसे देखकर लगता कि न जाने कहॉ से कोई नमूना पकड़ कर लाए थे। मलिन वस्त्र धारण किए कृशकाय, संभवत: रोगग्रस्त भी था। मलिन वस्त्र के साथ-साथ उसे एक वस्त्र कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। कमीज के अन्दर बनियाइन का अभाव था। अधोवस्त्र के रुप में पैजामा टाइप कुछ पहने रहता था। चलिए दो कपड़े मान लीजिए। पैर में चप्पल भी फटी और बेहद घिसी हुई थी। मुझे तो वह महीनों से बीमार लगा।
''बाबूजी किसी कायदे के ग्वाले को रखा होता।'' मैंने यह सब देखकर अधिकारपूर्वक कहा। वे हॅसे। ''जितना कायदे का ग्वाला होगा उतना ही नखरा दिखाएगा। बिना बताए नागा करेगा। यह बेचारा मजबूरी का मारा है। कम से कम रोजाना आकर काम तो कर जाएगा।''
मैं उनकी दूरदर्शिता का लोहा मान गया।
फिर आहिस्ता-आहिस्ता मुन्नू नामक प्राणी की जिन्दगी की पोल खोलते हुए बोले,''मुसीबत का मारा है।'' बेचारा शब्द का प्रयोग वे उसके लिए पहले ही कर चुके थे। इसलिए एक सहानुभूति वाला माहौल तैयार हो चुका था। ''भाई-भाभी के साथ रहता है। कुछ खास करता नहीं है। वे लोग इससे घर का सब काम करवाते हैं। दोपहर ढ़ाई बजे से पहले खाने को कुछ नहीं देते हैं। देख नहीं रहे हो कितना सूखा हुआ है।....तभी तो मैं हमेशा इसे पेट भर खिलाता हॅू। हाथ में पैसा दॅूगा तो भाई और भाभी हड़प लेगें। खाना देह में तो लगेगा। सीधा आदमी है। बस दिमाग कुछ खिसका हुआ है।'' यह बात तो मुझे भी सच लगी। उसकी चाल-ढ़ाल जहॉ शारीरिक दुर्बलता ओर संभवत: रुग्नता व कुपोषण का हाल बयां करती थी वहीं बेमतलब हॅसना-मुस्कराना, खोये रहना और ऑंख दबाकर एकटक देखना मानसिक स्थिति के असंतुलन की कहानी कहती थी।
चलो छोड़ो। काम ठीक-ठाक कर लेता था। मैंने पाया कि शुक्ल जी को गाय और उसके बछड़े के चारा-पानी से लगभग पूर्णत: छुटकारा मिल गया था। वह गाय और गौशाला की सफाई प्रतिदिन करता। दूध सुबह-शाम निकालता एवं चराने के लिए सामने की खाली जमीन में गाय को ले जाता।
''गाय का खली-चोकर, चारा निकाल कर मुझे महीने की कुल पॉच हजार के करीब आमदनी है।'' एक दिन शुक्ल जी मुझसे दालान में बैठे कह रहे थे। ''फिर तो बढि़या है।'' मैंने खुशी जाहिर की। हालॉकि इस बात में मुझे कभी शक नहीं रहा कि वे यह सब व्यवसायिक उद्देश्य से नहीं अपितु महज मन लगाने के लिए और शुद्ध दूध की प्राप्ति हेतु कर रहे थे। ''इसमें घर के लोगों का दूध शामिल नहीं है।'' वे आखिरी बात सुखद पटाक्षेप के रुप में बोले।
मैं मान गया। आजकल शहर में शुद्ध दूध उसी को नसीब हो सकता है जो गाय-भैंस पाल सके। बाकी लोग थैलों का दूध अथवा नीर मिश्रित दूध लेने को अभिशप्त हैं। सुबह-शाम पड़ोस के स्त्री-पुरुष बर्तन लेकर आते। ग्वाला आ गया बाबूजी? वे पूछते। ''बर्तन रख दीजिए।'' वे कहते। ''आएगा तो नाप कर डलवा दॅूगा।'' उनके यहॉ का दूध बिल्कुल शुद्ध था और बाकी जगहों से सस्ता भी। बाजार भाव के बराबर आने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी।
मुन्नू देर से आता लेकिन आने पर भूत की तरह काम में लग जाता। शुक्ल जी की धर्मपत्नी जिन्हें मैं माताजी कहा करता था, ड्योढ़ी तक ही आती थीं। गेट से बाहर निकलने की नौबत कम आती थी। वे कभी-कभी उसकी लेट-लतीफी पर नाखुश होतीं। ''तूझे शहर की हवा लग गयी है।'' उनकी अप्रसन्नता पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए वह झाडू उठाकर सफाई का काम शुरु कर देता। एकाध बार ही-ही कर बेवकूफों की तरह हॅस देता। इस पर वे बड़बड़ाती हुई लौट जातीं। अब मुन्नू का काम बढ़ गया था। कुछ दिनों से महरी नागा कर रही थी। माताजी कह रहीं थीं कि गॉव से किसी लड़के को ले आओ। घर बड़ा है। मुझसे अकेले नहीं सॅभलेगा। वे भी इस आवश्यकता को महसूस कर रहे थे। इस अंतरिम काल में घर के बर्तन धोने और झाडू-पोछे का काम भी मुन्नू के मत्थे आ पड़ा। पहली बार वह घर के अन्दर दाखिल हुआ। ऑगन के एक कोने में बैठकर रोटी-सब्जी खाता और काम में जुट जाता।
सब कुछ ठीक था। शुक्ल जी की बेटी की ससुराल लोकल थी। समझिए कुछ कदमों की दूरी पर। वह भी अपने नौकर को दूध लेने बर्तन सहित भेज देती। सिद्धांत के पक्के शुक्ल जी उससे दूध का पैसा लेते। वह मुन्नू के गंदे स्वरुप और कई-कई दिनों तक बिना नहाए रहने पर आपत्ति करती। ''बाबूजी ऐसे आदमी से गाय दुहवाने का काम ठीक नहीं है।'' उनकी प्रतिक्रिया ठीक नहीं होती। ''तो बताओ क्यो करें? इस उम्र में मुझसे इतना काम नहीं होगा। इससे सीधा कोई और नहीं मिलेगा।''
दरअसल कुछ समय पूर्व उनके यहॉ एक नौकर था। उसे भगाने में उनकी बेटी-दामाद की सक्रिय भूमिका थी। इसलिए वे अन्दर से खफा थे। माताजी की तबियत ठीक नहीं रहती थी। घर में कोई नहीं था। थोड़े समय पहले गॉव के किसी रिश्तेदार की लड़की को शुक्ल जी ने हाथ बॅटाने के लिए घर में बुला ली थी। इस बात से भी लड़की-दामाद असहमत थे। ''बाहर से किसी को बुलाने की क्या जरुरत है?'' जमाई बाबू एक दिन बिन मॉगे परामर्श देते हुए बोले। ''हम लोग किस लिए हैं? मौके पर हमें बुला लीजिएगा।'' उनके यहॉ गाड़ी थी। शायद दो-चार जगह अच्छी जान-पहचान थी। आवाज में दर्प झलक रहा था। शुक्ल जी किसी विद्रोह को भुलाकर माफ कर सकते थे लेकिन बेवजह के दर्प और अशिष्टता को नहीं। जब उनका इकलौता लड़का अपनी पसंद से शादी रचाकर अलग रहने लगा तो उन्होंने सब कुछ भूलाकर उसे तथा उसकी पत्नी को घर में यथोचित मान दिया। परन्तु अनाधिकृत रुप से जमाई का घर में हस्तक्षेप उन्हें सहन नहीं था। ''अजी साहब रात-विरात कोई बात हो जाएगी तो कहॉ आपको तकलीफ देता फिरुगॉ।''
लेकिन मुन्नू की एक बात मुझे भी अखरती थी। उसका गंदा रहना। इस बात का जिक्र मैंने भी किया। दूध दुहते समय उसका हाथ धुला होना चाहिए। शुक्ल जी के साथ एक बात थी। बात जॅच जाए तो तुरंत मान लेते थे। अब से मुन्नू रोज दालान के बाहर नहाने लगा। उसे साबुन दे दिया गया। उनके कपड़े उसके लिए काफी बड़े होते थे इसलिए बाजार जाकर वे स्वयं दो जोड़ी रेडिमेड शर्ट-पैण्ट खरीद लाए। अब तो मुन्नू का व्यक्तित्व परिवर्तित हो गया। पास-पड़ोस के लोगों के लिए शुक्ल जी का घर जरा आकर्षण का केन्द्र था। सामने एक दरोगा साहब सपरिवार रहते थे। बगल में कोई व्यापारी परिवार था। बाकी जनों में ज्यादातर नौकरी पेशा थे। जानवर से उनके लगाव व नौकर को सजाने की बात लोगों में चर्चा का विषय थी।
बछड़ा अब बड़ा हो गया था। दूसरे बछड़ों की तरह सीधा नहीं था। किसी को भी देखता तो झपटता। बस शुक्ल जी और मुन्नू को पहचानता। मैं भी जरा बच के रहता। छत पर काफी जगह थी। एक गुसलखाना बना हुआ था। बाकी जगह खाली थी। यॅू ही एक तरफ लोहा-लक्कड़ पड़ा था। मुन्नू काफी समय तक ऊपर स्नान करता ओर धूप से बचकर एक कोने में पड़ा रहता। अब वह काम के बाद भी काफी समय तक वापस नहीं जाता। शाम को आराम से निकलता। कोई बोलने वाला नहीं था। शुक्ल जी लोगों से मेलजोल के सिलसिले में इधर-उधर बैठक करते। शाम को घर लौटते। वह उनके आने के बाद ही जाता। अब एक कामवाली आ गयी थी। इसके बाद मुन्नू के लिए ज्यादा कुछ करने को बचा नहीं था। बस गाय-बछड़े का काम। फिर भी लम्बे समय तक पड़ा रहता।
शुक्ल जी बेटी आयी तो यह सब देखकर बोली,''बाबूजी इसके लक्षण अच्छे नहीं दिखते हैं। छोटे लोग हैं। घर के अन्दर इतना बिठाना ठीक नहीं है।''
वे हॅसे। ''अरे मुनिया कुछ नहीं होगा। भगवान है। तुम सब अपना घरबार देखो।''
यह बात उसे लगी। वह खामोश रहीं। फिर कुछ देर बाद बोली,''मुझे क्या है। लेकिन रोगी इंसान से घर के लोगों को बचाने की बात करे तो इसमें कोई स्वार्थ नहीं देखना चाहिए।'' शुक्ल जी को इस बात में सच्चाई दिखी। मुन्नू यहॉ का अच्छा खाना खाकर भी दरअसल अन्दरुनी तौर पर स्वस्थ नहीं था। दूसरे व्यक्ति की कही बात पर इंसान तत्काल प्रतिक्रिया भले न व्यक्त करे परन्तु सच्चाई हृदय में घर कर जाती है।
मैं नौकरी लगने के बाद बनारस चला गया। बीच-बीच में एकाध बार आता तो घर के सिवा शायद ही कहीं और जाना हो पाता। फोन पर कभी-कभी शुक्ल जी का हालचाल पूछा था। नयी नौकरी थी। जमने में कुछ वक्त लगता है। दशहरे में घर आया तो उनके यहॉ भी गया। बातचीत के दौरान किसी दूसरे आदमी को गाय का खरहरा करते देखा तो पूछा, ''मुन्नू कहॉ है?''
शुक्ल जी ने धीरे-धीरे बताया कि वह चला गया। बीमार रहता था। ''कहॉ गया?'' मैंने उत्सुकतावश पूछा। वे क्षण भर चुप रहने के पश्चात् बोले,''मैंने ही जाने को कहा.....ऐसे आदमी का क्या फायदा जिससे दूसरे को छूत लगने की संभावना हो।''
मैं मौन हो गया। नौकर-चाकर निकाले एवं बदले जाते हैं। लेकिन जिस आधार पर उसे दफा किया गया वह बात मुझे न जाने क्यों खल गयी। वह मूर्ख तो इस स्थिति में भी नहीं था कि विरोध या सवाल कर सके। शुक्ल जी जैसा ज्ञानी-ध्यानी, संवेदनशील मनुष्य! मेरा बोलना उचित नहीं था। हफ्ते भर की छुट्टी पर आया था। तभी उनकी बेटी का नौकर हाथ में दूध का बर्तन लेकर आता दिखा। ''बाबूजी नमस्ते।'' मुझे वह पहचानता था। नमस्ते का उत्तर देने पर वह बताने लगा कि मुन्नू के कारण मालकिन ने यहॉ का दूध लेना बन्द कर दिया था। उसके जाने के बाद दुबारा शुरु किया है।
नौकर चौकी के पास जमीन पर बैठ गया। ''अब वह कहॉ पर है?'' मैंने पूछा। उसके भाई-भाभी उसे काफी तंग करते होगें। यह विचार मेरे मन में था। ''बाबूजी जाएगा कहॉ। यहीं है। कोई बिल्डि़ंग बन रही है। वहॉ मजूरी करता है। काम की कमी थोड़े न है।''
मुन्नू अकुशल श्रमिक था। फिर भी थोड़ा बहुत तो कमा ही सकता है। ईंट-गारा अपने क्षीण काया से न जाने कैसे ढ़ोता होगा। लौटने की जल्दी में बात आयी गयी सी हो गयी। लेकिन लगता था कि मुन्नू जैसे लोग जल्दी नहीं मरेगें। गरीबी, बीमारी के बावजूद पचासेक साल तो जी ही जाते हैं। दंगे-फसाद या बाढ़ की चपेट में आ एग तो दूसरी बात है। महामारी के शिकार भी हो सकते हैं। वैसे संक्रमण हमारे दिमाग में भी था। यह केवल बीमारियों की ही विशेषता नहीं है।
(मनीष कुमार सिंह)
लेखक परिचय
मनीष कुमार सिंह।
जन्म 16 अगस्त,1968 को पटना के निकट खगौल (बिहार) में हुआ। प्राइमरी के बाद की शिक्षा इलाहाबाद में।
भारत सरकार,भारत सरकार, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में ‘नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्य,साक्षात्कार,पाखी,दैनिक भास्कर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्दयोग, इत्यादि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013) और ‘आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित।
पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश। पिन-201019
मोबाइल: 09868140022
ईमेल: manishkumarsingh513@gmail.com