Asptal bimar hai in Hindi Short Stories by Ratan Chand Ratnesh books and stories PDF | अस्पताल बीमार है

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अस्पताल बीमार है

अस्पताल बीमार है

बड़े अस्पताल के मुख्यद्वार के पास आकर लक्ष्मी अपने हाथ में थामे कपड़ों को अपने गोद में रखकर वहीं एक कोने में बैठ गई। ये धुले हुए कपड़े उसके जवान बेटे बलवीर के थे, जिन्हें वह धूप दिखाकर वार्ड की ओर लौट रही थी। जब दिन में बलवीर की आंख लगी तो वह इन कपड़ों को धोने के लिए अस्पताल के बाहर एक सार्वजनिक नल पर ले आई थी। यों तो अस्पताल के वार्डों में भी कपड़े धोने का प्रबन्ध था, पर उसे अस्पताल के बीमार माहौल से कुछ देर के लिए बाहर आने पर खुला आकाश मिलता और पेड़-पौधों से गुजरती ताजी हवा। पर आज उसे ऐसा कोई सुकून नहीं मिला, इसलिए वह थकी-थकी-सी उदास होकर वहां बैठ गई थी।

भरी जवानी में उसका पति एक अज्ञात बीमारी से मरा था और आज बेटे की बीमारी ने उसे तन और मन से तोड़ कर रख दिया था। पिछले सात महीनों से बलवीर जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है और महज़ एक जीने की ललक ने उसे अभी तक दृढ़ता से जीवित रखा है। वह मां को इस ढलती उम्र में अकेला और बेसहारा छोड़ देने के लिए तैयार नहीं है। लक्ष्मी ने भी हिम्मत नहीं हारी । कहां-कहां नहीं भटकी वह उस बेटे को लेकर, जिसके हृदय का कोई वाल्व बेकार हो चुका है। हर अस्पताल से उसे यही जवाब मिला--

‘इसके दिल का एक वाल्व ठीक से काम नहीं कर रहा। जितनी जल्दी हो सके आप्रेषन करवा लो। वरना.....’

पर लक्ष्मी यक-ब-यक इतने पैसे कहां से जुटा पाती भला, जिससे कि उसके बेटे के रोगग्रस्त हृदय का इलाज हो सके, लेकिन वह उसे तिल-तिल कर मरता भी कैसे देख सकती थी ? वही तो अब उसके जीने का एकमात्र सहारा था। वह भी साथ छोड़ गया तो वह किसके लिए जीएगी। इसलिए पति की मृत्यु के बाद जो थोड़ी-बहुुत ज़मीन उसके हिस्से में आई थी, उसे बेच कर उसने कुछ पैसों का प्रबन्ध कर लिया। फिर भी कमी रही तो जिस किसी के सामने हाथ पसारने पड़े पसारे। सौभाग्य से इस कार्य में एक सामाजिक संस्था ने उसकी बड़ी मदद की और वह इस काबिल हो गई कि बड़े अस्पताल में जाकर जवान बेटे के दिल का आप्रेशन करा सके। बेटा सलामत रहा तो पैसे भी हो जाएंगे और जमीन भी। इसी आशा के साथ वह पंद्रह दिन पहले इस अस्पताल में आई थी।

यहाँ आकर उसने एक मुश्त पैसे भी जमा करा दिए थे और अधीरता से उस दिन की प्रतीक्षा करने लगी जब वह भले-चंगे बेटे के साथ अपने घर लौट जाएगी। इस बड़े अस्पताल से कोसों दूर है उसका घर, ​जिसमें वह ताला जड़ आई है। करीबी रिश्तेदार कोई ऐसा था नहीं जो इस दुर्दिन में उसकी मदद करता। जो थे वे पति के मरने के बाद ही पराये हो गये थे। उन्हीं अपनों ने तो ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा भी दबोच लिया था।

अस्पताल में अपने बेटे के सिरहाने बैठे वह प्रतिदिन सुबह-शाम ईश्वर से प्रार्थना करती रहती कि सही-सलामत जल्दी से जल्दी उसे अपने बेटे के साथ घर भेज दे। अस्पताल की नीरसता और निष्ठुरता, भाग-दौड़, मरीजों के दुखड़े और परेशानियों से उका जी उकताने लगा था। डाक्टरों ने अभी तक आप्रेशन की तारीख निश्चित नहीं की थी। वह रोज राऊण्ड पर आने वाली डाक्टरों की टीम की अधीरता से प्रतीक्षा करती, जिनकी देख-रेख में बलवीर था। प्रतिदिन आशा भरी निगाहों से वह एक-एक कर डाक्टरों के चेहरे पढ़ती जो दिल के बारे में विस्तार से बातें करते। लक्ष्मी को उनकी बातों से कोई मतलब नहीं था, वह तो बस यह सुनना चाहती थी कि अमुक दिन उसके बेटे का आप्रेशन होगा और वह बिल्कुल भला-चंगा हो जाएगा, लेकिन डाक्टर उसे निराश करके दूसरे मरीजों की ओर बढ़ जाते। जो डाक्टर बिना नागा रोज शाम को उसके बेटे को देखने आता, उसे भी कई बार रोक कर लक्ष्मी ने पूछा---

‘डाक्टर साब, कब होगा म्हारे बेटे का अपरेशन ?’

डाक्टर यही कहता, ‘बस थोड़े ही दिनों में आपके बेटे का आप्रेशन हो जाएगा। कुछ टैस्ट बाकी रह गए हैं।’

बलवीर के वार्ड के साथ ही महिलाओं का अलग वार्ड है। लद्वमी जब उदास हो जाती तो वहां चली जाती । वहां जानकी भी है, जिसके दिल की भी बाई-पास सर्जरी होनी है। उसका पति रवि पिछले एक महीने से छुट्टी पर है और यहां इन दिनों पत्नी के साथ है। वह हिमाचल प्रदेश के दूरदराज के एक इलाके से अपनी पत्नी का इलाज कराने आया है। इन दिनों वहां बहुत बर्फ पड़ती है। जानकी अक्सर लक्ष्मी को कठिन बर्फीली जीवनचर्या के बारे में बताती रहती है कि कैसे सर्दियों में पड़ती बर्फ उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है। लक्ष्मी उसकी बातें आश्चर्य से सुनती। जानकी की दो साल की एक बेटी है। उसे वे लोग दादा-दादी के पास ही छोड़ आए हैं। भरा-पूरा परिवार है उनका, इसलिए वहां की चिन्ता नहीं है, पर जानकी जब-तब लक्ष्मी को बताती रहती है कि उसे अपनी बेटी अंजु की याद आती रहती है। तब उससे लक्ष्मी कहती, ‘अब का करें बेटी। कोई खुशी से तो हम यहां नाहीं बैट्ठे हैं। सब ऊपर वाली की मर्जी है।’

लक्ष्मी की सारी कहानी जानकी जान चुकी है। वह भी चाहती है कि बलवीर का आप्रेशन जल्द से जल्द हो जाए। लक्ष्मी जब डाक्टर से पूछ कर आती तब वह भी उत्सुक हो उठती, ‘क्या, कुछ कहा डाक्टर ने कब तक होगा आप्रेशन ?’

लक्ष्मी निराशा से सिर हिलाती तो जानकी का पति रवि उसे दिलासा देता, ‘अरे मां जी, आप उदास क्यों होती हैं ? दिल के आप्रेशन की बात है। डाक्टर अपनी समझ से ठीक समय पर कर देंगे।...हमें ही देखो, पिछले एक महीने से यहां पड़े हैं। आप्रेशन की तारीखें भी दो बार निश्चित होकर टल गई है।’

इन वार्डों में सभी दिल के मरीज हैं और अधिकांश का एकमात्र इलाज आप्रेशन है। यहां सभी दुखी हैं, पर सबको पराये दुःख के प्रति संवेदना है। दूसरों का दुःख-दर्द देख कर सब अपना कष्ट भूल जाते हैं। कुलजीत कौर तो पूरे वार्ड का दिल लगाकर रखती है। उसके पास हंसने-हंसाने के ढेरों मसाले हैं। वह नकचढ़ी नर्सों की नकल करके भी लोगों को हंसाती रहती है। कोई बात चल रही हो या कोई आपबीती-जगबीती सुना रहा होता है तो अक्सर वह बीच में बोल उठती, ‘साड्डे पिंड बी.....।’ और वह कोई न कोई वाक्या लेकर बैठ जाती, जिसमें हंसी की फुलझडि़यां जरूर होती, जिससे पूर वार्ड में मुस्कराहटों और हंसी की लहर दौड़ जाती। पंजाब के गुरदासपुर जिले के एक गांव की लड़की कुलजीत कौर अभी तक कुंवारी है। यही कोई तीसेक साल की होगी। उसकी हंसी के पीछे एक दर्द भी छुपा हुआ है, उसका जिक्र आज तक उसने यहां कभी किसी से नहीं किया उसे भी दिल का लाइलाज रोग है और उसके साथ आई उसकी बेबे न बताया कि इसके पहले भी कुलजीत को लेकर यहां एक बार दस दिन और दूसरी बार अट्ठारह दिनों तक रह गई है। अब तक कुंवारी रहने की वजह भी उसकी दिल की बीमारी ही है।

दूसरे दिन ही लक्ष्मी को पता चला कि उसके बेटे बलवीर का आप्रेशन इसी शुक्रवार को हो जाएगा। नर्स ने कुछ चीजों की सूची उसके हाथ में थमा दी थी, जिन्हें लाने में लक्ष्मी दो दिनों तक व्यस्त रही थी । कुछ दवाइयां जो अस्पताल-परिसर की दवा की दुकानों में नहीं थीं, उन्हें रवि बाहर की उस मेडिकल-शॉप से ले आया था, जहां से डाक्टर ने लाने के लिए कहा था।

रात को सोने से पहले उस दिन भी लक्ष्मी ने सदा की भांति इष्टदेव से प्रार्थना की। फिर अपने घर-द्वार को याद करने लगी, जहां वह थोड़े ही दिनों में अपने स्वस्थ बेटे के साथ जा पहुंचेगी। डाक्टरों से सलाह लेकर फिर वह बलवीर के ब्याह की बात चलाएगी। बहू घर पर आएगी। छोटे-छोटे नन्हें-मुन्ने उसके आंगन में खेला करेंगे जिनकी वह दादी हुआ करेगी। सुखद भविष्य की झपकियां लेते-लेते वह गहरी नींद में चली गई।

पर सुबह उठने पर उसे एक अशुभ सूचना मिली। अस्पताल के कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर बेमियादी हड़ताल पर जा रहे हैं। इस कारण सारे आप्रेशन टाल दिए गए हैं। नर्सें भी इस हड़ताल का समर्थन कर रही थीं। सुबह आठ बजे जब सिस्टर कुलजीत कौर को इंजेक्शन देने के लिए आई तो सब उसे घेर कर खड़े हो गए। रवि ने पूछा, ‘सिस्टर, यह हड़ताल कब तक रहेगी ?’

‘कह नहीं सकते।’ उसने टके सा जवाब दिया, ‘जब मांगें पूरी हो जाएंगी, तब हड़ताल भी खत्म हो जाएगी।’

इस पर लक्ष्मी कहने लगी, ‘काहे को कर रहे हैं हड़ताल ? इतने सारे मरीज जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहे हैं, उनका क्या होगा ? हमारे बेटा का आप्रेशन शुक्रवार को होने वाला था। सामान भी सब लाकर रख छोड़े थे।’

सिस्टर कहने लगी, ‘आप्रेशन तो डाक्टरों ने करना है, पर वह तो अन्य कर्मचारियों की मदद के बिना तो हो नहीं सकता। बाकी कर्मचारी लोगों की कुछ मांगे हैं। उन्हें जान-बूझकर लटकाया जा रह है।’ कहकर सिस्टर चली गई।

सुबह जानकी के पति रवि ने ही इस हड़ताल के बारे में सबको बतलाया था। उसने सारी बातें पता कर ली थी। अस्पताल की संयुक्त कार्रवाई समिति ने इस हड़ताल का आह्वान किया था।

इसी तरह तीन दिन गुजर गए। बीमारी और मौत से लड़ते-जूझते, थकते, हारते मरीज और उनके साथ आए बदहाल लोग जल्द से जल्द हड़ताल समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगे पर हड़तालियों को उनकी परवाह कहां थी ? हड़ताल दिन-प्रतिदिन तेज गति पकड़ती गयी और अब भले कर्मचारियों ने जेल भरो आंदोलन की शुरुआत कर दी थी। लीडर अपनी लीडरी चमकाने में लगे थे। जहां जिंदगी दी जाती है, वहां लोगों को मौत के मुंह में धकेला जा रहा था। सीना ताने एक कर्मचारी यह कहते सुना गया--

‘यहां तो रोज हजारों मरीज आते हैं। हम क्या करें ? हमारी मांगे भी तो जायज हैं।’

वहां खड़े एक बुजुर्ग सरदार गुरमुख सिंह के मुंह से अचानक निकला, ‘वाहे गुरू, सब कुछ देख रेहा है। तुहाडी जायज मंगां बी। वो ही रब्ब फैसला करेगा कि गलती किदी है? कुछ तां उसते डरो मेरे भराओ।’

वह कर्मचारी मुंह बिचकाता हुआ चाय की दुकान की ओर बढ़ गया।

सरदार गुरमुख सिंह की बेटी मनजीत कौन पिछले दो दिनों से बेहोशी में अस्पताल के एक बेड पर पड़ी हुई है। वह यकृत और गुर्दे की खराबी के कारण पिछले डेढ़ महीनों से यहाँ उपचाराधीन है। आज हड़ताल का सातवां दिन है। परसों विशेष खुराक ‘हिपैटिक फूड’ न मिल पाने कारण वह बेहोशी में चली गई थी क्योंकि रसोईघर के कर्मचारी भी अपनी जायज मांग की खातिर सूरमाओं की तरह ‘जेलयात्रा’ के लिए रवाना हो गए थे।

सरदार गुरमुख सिंह के बगल में खड़े नसीब चन्द के बेटे की आज प्लास्टिक सर्जरी होनी थी जो बुरी तरह आग में जल गया था, पर आप्रेशन थियेटर बन्द हो जाने के कारण वे अब बेटे को वापस घर ले जाने के बारे में सोच रहे थे। लक्ष्मी को तो सूझ ही नहीं रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे। कर्मचारियों की हड़ताल व आन्दोलन के कारण स्थिति बद से बदतर हुई जा रही थी। कई मरीजों को उनके समर्थ सगे-सम्बंधी यहां से लेकर जा रहे थे ताकि कहीं और उनका माकूल इलाज करा सकें। उधर डाक्टर भी कह गए थे कि अस्पताल में जो रहना चाहे, अपनी जिम्मेदारी पर रहे।

लक्ष्मी कुछ देर अस्पताल के मुख्यद्वार पर बैठी रही। कई बीमार लोगों को उसने अस्पताल से हार कर जाते हुए देखा। सबकी आंखों में निर्दोष आंसुओं की झलक थी। लक्ष्मी भी अपनी आंखों में भर आए आंसुओं को हथेली से पोंछते हुए खड़ी हो गई। फिर धीरे-धीरे थके कदमों से वापस वार्ड की ओर बढ़ गई।

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