Jahanara in Hindi Short Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | Jahanara

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जहाँनारा

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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जहाँनारा

यमुना के किनारे वाले शाही महलमें एक भयानक सन्नाटा छायाहुआ है, केवल बार-बार तोपों की गड़गड़ाहट और अस्त्रों की झनकारसुनाई दे रही है। वृद्ध शाहजहाँ मसनद के सहारे लेटा हुआ है और एकदासी कुछ दवा का पात्र लिए हुए खड़ी है। शाहजहाँ अन्यमनस्क होकरकुछ सोच रहा है, तोपों की आवाज से कभी-कभी चौंक पड़ता है।

अकस्मात्‌ उसके मुख से निकल पड़ा - नहीं-नहीं, क्या वह ऐसा करेगा,क्या हमको तख्त-ताऊस से निराश हो जाना चाहिए?

- हाँ, अवश्य निराश हो जाना चाहिए।

शाहजहाँ ने सिर उठाकर कहा - कौन? जहाँनारा? क्या यह तुमसच कहती हो?

जहाँनारा - (समीप आकर) हाँ, जहाँपनाह! यह ठीक है; क्योंकिआपका अकर्मण्य पुत्र ‘द्वारा’ भाग गया, और नमक-हराम ‘दिलेर खाँ’क्रूर औरंगजेब से मिल गया और किला उसके अधिकार में हो गया।

शाहजहाँ - लेकिन जहाँनारा! क्या औरंगजेब क्रूर है। क्या वहअपने बूढ़े बाप की कुछ इज्जत न करेगा। क्या वह मेरे जीते ही तख्त-ताऊस पर बैठेगा?

जहाँनारा - (जिसकी आँखों में अभिमान का अश्रुजल भरा था)जहाँपनाह! आपके इसी पुत्रवातस्ल्य ने आपकी यह अवस्था की। औरंगजेबएक नारकीय पिशाच है; उसका किया हुआ क्या नहीं हो सकता, एक भलेकार्य को छोड़कर।

शाहजहाँ - नहीं, जहाँनारा! ऐसा मत कहो।

जहाँनारा - हाँ, जहाँपनाह! मैं ऐसा ही कहती हूँ।

शाहजहाँ - ऐसा? तो क्या जहाँनारा! इस बदन में मुगल-रक्त नहींहै? क्या तू मेरी कुछ मदद कर सकती है?

जहाँनारा - जहाँपनाह की जो आज्ञा हो।

शाहजहाँ - तो मेरी तलवार मेरे हाथ में दे। जब तक वह मेरे

हाथ में रहेगी, कोई भी तख्त-ताऊस मुझसे न छुड़ा सकेगा।

जहाँनारा आवेश के साथ - ‘हाँ, जहाँपनाह! ऐसा ही होगा’ -

कहती हुई वृद्ध शाहजहाँ की तलवार उसके हाथ में देकर खड़ी हो गई।

शाहजहाँ और लड़खड़ाकर गिरने लगा, शाहजादी जहाँनारा ने बादशाह कोपकड़ लिया और तख्त-ताऊस के कमरे की ओर चली।

तख्त-ताऊस पर वृद्ध शाहजहाँ बैठा है और नकाब डाले जहाँनारा

पास ही बैठी है और कुछ सरदार, जो उस समय वहाँ थे, खड़े हैं; नकीबभी खड़ी है। शाहजहाँ के इशारा करते ही उसने अपने चिरभ्यस्त शब्दकहने के लिए मुँह खोला। अभी पहला ही शब्द उसके मुँह से निकलाथा कि उसका सिर छिटककर दूर जा गिरा! सब चकित होकर देखने लगे।जिरहबाँतर से लदा हुआ औरंगजेब अपनी तलवार को रूमाल सेपोंछता हुआ सामने खड़ा हो गया और सलाम करके बोला- हुजूर कीतबीयत नासाज सुनकर मुझसे न रहा गया; इसलिए हाजिर हुआ।

शाहजहाँ - (काँपकर) लेकिन बेटा! इतनी खूँरेजी की क्या जरूरतथी? अभी-अभी वह देखो, बूड्ढे नकीब की लाश लोट रही है। उफ!मुझसे यह नहीं देखा जाता! (काँपकर) क्या बेटा, मुझे भी... (इतनाकहते-कहते बेहोश होकर तख्त से झुक गया)।

औरंगजेब - (कड़ककर अपने साथियों से) हटाओ उस नापाकलाश को!

जहाँनारा से अब न रहा गया और दौड़कर सुगन्धित जल लेकरवृद्ध पिता के मुख पर छिड़कने लगी।

औरंगजेब - (उधर देखकर) हैं! यह कौन है, जो मेरे बूढ़े बापको पकड़े हुए है? (शाहजहाँ के मुसाहिबों से) तुम सब बड़े नामाकूलहो; देखते नहीं, हमारे ह्रश्वयारे बाप की क्या हालत है और उन्हें अब भीपलँग पर नहीं लिटाया। (औरंगजेब के साथ-साथ सब तख्त की ओरबढ़े)जहाँनारा उन्हें यों बढ़ते देखकर फुरती से कटार निकालकर औरहाथ में शाही मुहर किया हुआ कागज निकालकर खड़ी हो गई और बोली- देखो, इस परवाने के मुताबिक मैं तुम लोगों को हुक्म देती हूँ किअपनी-अपनी जगह पर खड़े रहो, तब तक मैं दूसरा हुक्म न दूँ।

सब उसी कागज की ओर देखने लगे। उसमें लिखा था - इसशख्त का सब लोग हुक्म मानो और मेरी तरह इज्जत करो।

सब उसकी अभ्यर्थना के लिए झुक गए, स्वयं औरंगजेब भी झुकगया और कई क्षण तक सब निस्तब्ध थे।

अकस्मात्‌ औरंगजेब तनकर खड़ा हो गया और कड़ककर बोला -गिरफ्तार कर लो इस जादूगरनी को। यह सब झूठा फिसाद है, हम सिवाशहंशाह के और किसी को नहीं मानेंगे।

सब लोग उस औरत की ओर बढ़े। जब उसने यह देखा, तब फौरनअपना नकाब उलट दिया। सब लोगों ने सिर झुका दिया और पीछे हटगए, औरंगजेब ने एक बार फिर सिर नीचे कर लिया और कुछबड़बड़ाकर जोर से बोला-कौन, जहाँनारा, तुम यहाँ कैसे?

जहाँनारा - औरंगजेब! तुम यहाँ कैसे?

औरंगजेब - (पलटकर अपने लड़के की तरफ देखकर) बेटा!मालूम होता है कि बादशाह-बेगम का कुछ दिमाग बिगड़ गया है, नहींतो इस बेशर्मी के साथ इस जगह पर न आतीं। तुम्हें इनकी हिफाजतकरनी चाहिए।

जहाँनारा - और औरंगजेब के दिमाग को क्या हुआ है, जो वहअपने बाप के साथ बेअदबी से पेश आया...

अभी इतना उसके मुँह से निकला ही था कि शहजादे ने फुरतीसे उसके हाथ से कटार निकाल ली और कहा - मैं अदब के साथ कहताहूँ कि आप महल में चलें, नहीं तो...

जहाँनारा से यह देखकर न रहा गया। रमणी-सुलभ वीर्य औरअस्त्र-क्रन्दन और अश्रु का प्रयोग उसने किया और गिड़गिड़ाकर औरंगजेबसे बोली-क्यों औरंगजेब! तुमको कुछ भी दया नहीं है?

औरंगजेब ने कहा - दया क्यों नहीं है बादशाह-बेगम! द्वारा जैसेतुम्हारा भाई था, वैसे ही मैं भी तो भाई ही हूँ, फिर तरफदारी क्यों?

जहाँनारा - वह तो बाप का तख्त नहीं लेना चाहता था, उसके हुक्मसे सल्तनत का काम चलाता था।

औरंगजेब - तो क्या मैं यह काम नहीं कर सकता? अच्छा, बहसकी जरूरत नहीं है। बेगम को चाहिए कि वह महल में जाएँ।

जहाँनारा कातर दृष्टि से वृद्ध मूर्च्छित पिता को देखती हुई शाहजादेकी बताई राह से जाने लगी।

यमुना के किनारे एक महल में शाहजहाँ पलँग पर पड़ा है औरजहाँनारा उसके सिरहाने बैठी हुई है।

जहाँनारा से औरंगजेब ने पूछा कि वह कहाँ रहना चाहती है, तबउसने केवल अपने वृद्ध और हतभागे पिता के साथ रहना स्वीकार कियाऔर अब वह साधारण दासी के वेश में अपना जीवन अपने अभागे पिताकी सेवा में व्यतीत करती है।

वह भड़कदार शाही पेशवाज अब उसके बदन पर नहीं दिखाईपड़ते, केवल सादे वस्त्र ही उसके प्रशान्त मुख की शोभा बढ़ाते हैं। चारोंओर उस शाही महल में एक शान्ति दिखलाई पड़ती है। जहाँनारा ने, जोकुछ उसके पास थे, सब सामान गरीबों को बाँट दिया और अपने निजके बहुमूल्य अलंकार भी उसने पहनने छोड़ दिए। अब वह एक तपस्विनीऋषिकन्या-सी हो गई। बात-बात पर दासियों पर वह झिड़की उसमें नहींरही। केवल आवश्यक वस्तुओं से अधिक उसके रहने के स्थान में औरकुछ नहीं है।

वृद्ध शाहजहाँ ने लेटे-लेटे आँख खोलकर कहा - बेटी, अब दवाकी कोई जरूरत नहीं है, यादे-खुदा ही दवा है। अब तुम इसके लिएमत कोशिश करना।

जहाँनारा ने रोकर कहा - पिता, जब तक शरीर है, तब तक उसकीरक्षा करनी ही चाहिए।

शाहजहाँ कुछ न बोलकर चुपाप पड़े रहे। थोड़ी देर तक जहाँनाराबैठी रही; फिर उठी और दवा की शीशियाँ यमुना के जल में फेंक दी।

थोड़ी देर तक वहीं बैठी-बैठी वह यमुना का मंद प्रवाह देखतीरही। सोचती थी कि यमुना का प्रवाह वैसा ही है, मुगल साम्राज्य भीतो वैसा ही है; वह शाहजहाँ भी जो जीवित है, लेकिन तख्त-ताउस परतो वह नहीं बैठते।

इसी सोच-विचार में वह तब तक बैठी रही थी, जब तक चन्द्रमाकी किरणें उसके मुख पर नहीं पड़ी।

शाहजादी जहाँनारा तपस्विनी हो गई है। उसके हृदय में वहस्वाभाविक तेज अब नहीं है, किन्तु एक स्वर्गीय तेज से वह कान्तिमयीथी। उसकी उदारता पहले से भी बढ़ गई। दीन और दुःखी के साथउसकी ऐसी सहानुभूति थी कि लोग उसे ‘मूर्तिमतीकरुणा’ मानते थेउसकी इस चाल से पाषाण-हृदय औरंगजेब भी विचलित हुआ। उसकीस्वतन्त्रता जो छीन ली गई थी, उसे फिर मिली, पर अब स्वतन्त्रता काउपभोग करने के लिए अवकाश ही कहाँ था? पिता की सेवा औरदुःखियों के प्रति सहानुभूति करने से उसे समय ही नहीं था। जिसकी सेवाके लिए सैकड़ों दासियाँ हाथत बाँधकर खड़ी रहती थीं, वह स्वयं दासीकी तरह अपने पिता की सेवा करती हुई अपना जीवन व्यतीत करने लगी।

वृद्ध शाहजहाँ के इंगित करने पर उसे उठाकर बैठाती और सहारा देकरकभी-कभी यमुना के तट तक उसे ले जाती और उसका मनोरंजन करतीहुई छाया-सी बनी रहती।

वृद्ध शाहजहाँ ने इहलोक की लीला पूरी की। अब जहाँनारा कासंसार में कोई काम नहीं है। केवल इधर-उधर उसी महल में घूमना भीअच्छा नहीं मालूम होता। उसकी पूर्व स्मृति और भी उसे सताने लगी।

धीरे-धीरे वह बहुत क्षीण हो गई। बीमार पड़ी, पर दवा कभी न पी।

धीरे-धीरे उसकी बीमारी बहुत बढ़ी और उसकी दशा बहुत खराब हो गई।जब औरंगजेब ने सुना, तब उससे भी सहन न हो सका। वह जहाँनाराको देखने के लिए गया।

एक पुराने पलँग पर, जीर्ण बिछौने पर, जहाँनारा पड़ी थी औरकेवल एक धीमी साँस चल रही थी। औरंगजेब ने देखा कि वह जहाँनारा,जिसके लिए भारतवर्ष की कोई वस्तु अलभ्य नहीं थी, जिसके बीमारपड़ने पर शाहजहाँ व्यग्र हो जाता था और सैंकड़ों हकीम उसे आरोग्यकरने के लिए प्रस्तुत रहते थे, वह इस तरह एक कोने में पड़ी है!

पाषाण भी पिघला, औरंगजेब की आँखें आँसुओं से भर आई औरवह घुटनों के बल बैठ गया। जहाँनारा के समीप मुँह ले जाकर बोला

- वहन, कुछ हमारे लिए हुक्म है?

जहाँनारा ने अपनी आँखें खोल दीं और एक पुरजा उसके हाथ मेंदिया, जिसे झुककर औरंगजेब ने लिया। फिर पूछा-बहन, क्या तुम हमेंमाफ करोगी?

जहाँनारा ने खुली हुई आँखों को आकश की ओर उठा दिया। उससमय उनमें से एक स्वर्गीय ज्योति निकल रही थी और वह वैसे ही देखतीकी देखती रह गई। औरंगजेब उठा और उसने आँसू पोंछते हुए पुरजेको पढ़ा। उसमें लिखा था -

बगैर सब्ज़ः न पोशद कसे मजार मरा।

कि क़ब्रबोशः ग़रीबाँ हमीं ग्याह बस्त।।

भावार्थः मुझ गरीब की कब्र को हरियाली की चादर (क़ब्रपोश)ही नसीब होनी है।