Madan-Mrunalini in Hindi Short Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | Madan-Mrunalini

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Madan-Mrunalini

मदन-मृणालिनी

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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मदन-मृणालिनी

विजयादशमी का त्योहार समीप है, बालक लोग नित्य रामलीला होनेसे आनन्द में मग्न हैं।

हाथ में धनुष और तीर लिए एक छोटा-सा बालक रामचन्द्र बननेकी तैयारी में लगा हुआ है। चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल औरसुन्दर है।

खेलते-खेलते बालक को भोजन की याद आई। फिर कहाँ रामबनना और कहाँ रामलीला। चट धनुष फेंककर दौड़ता हुआ माता के पासजा पहुँचा ौर उस ममता-मोहमयी माता के गले से लिपटकर - माँ! खानेको दे, माँ! खाने को दे - कहता हुआ जननी के चि्रूद्गा को आनन्दितकरने लगा।

जननी बालक का मचलना देखकर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देरतक बैठी रहकर और भी मचलना देखना चाहती थी। उसके यहाँ एक पड़ोसनबैठी थी, एतएव वह एकाएक उठकर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी।

सहज ही असन्तुष्ट हो जानेवाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभावकिसी से छिपा न होगा। यदि वह तत्काल उठकर चली जाती, तो पड़ोसिनक्रुद्ध होती। अतः वह उठकर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी।

बालक का मचलाना और भी बढ़ चला। धीरे-धीरे वह क्रोधित हो गया,दौड़कर अपनी कमाना उठा लाया; तीर चढ़ाकर पड़ोसिन को लक्ष्य किया औरकहा - तू यहाँ से जा, नहीं तो मैं मारता हूँ।

दोनों स्त्रियाँ केवल हँसकर उसको मना करती रहीं। अकस्मात्‌ वहतीर बालक के हाथ से छूट पड़ा और पड़ोसिन की गर्दन में धँस गया!अब क्या था, वह अर्जुन और अश्वत्थामा का पाशुपतास्त्र हो गया। बालककी माँ बहुत घबरा गई, उसने अपने हाथ से तीर निकाला, उसके रक्तको धोया, बहुत ढाँढस दिया, किन्तु घायल स्त्री का चिल्लाना-कराहनासहज में थममने वाला नहीं था।

बालक की माँ विधवा थी, कोई उसका रक्षक न था। जब उसकापति जीता था, तब तक उसका संसार अच्छी तरह चलता था, अब जोकुछ पूँजी बच रही थी, उसी में वह अपना समय बिताती थी। ज्योंत्यों करके उसने चिर-संरक्षित धन में से पचीस रुपये उस घायल स्त्रीको दिए।

वह स्त्री किसी से यह बात कहने का वादा करके अपने घरगई,परन्तु बालक का पता नहीं, वह डर के मारे घर से निकल किसी ओरभाग गया।

माता ने समझा कि पुत्र कहीं डर से छिपा होगा, शाम तक आजाएगा। धीरे-धीरे संध्या-पर-संध्या, सह्रश्वताह-पर-सह्रश्वताह, मास-पर-मासबीतने लगे; परन्तु बालक का कहीं पता नहीं। शोक से माता का हृदयजर्जर हो गया, वह चारपाई पर लग गई। चारपाई ने भी उसका ऐसाअनुराग देखकर उसे अपना लिया और फिर वह उस पर से न उठ सकी।

बालक को अब कौन पूछने वाला है।

कलक्रूद्गाा-महानगरी के विशाव भवनों तथा राजमार्गों को श्चर्य सेदेखता हुआ एक बालक एक सुसज्जित भवन के सामने खड़ा है। महीनोंकष्ट झोलता, राह चलता, थकता हुआ बालक यहाँ पहुँचा है।बालक थोड़ी देर तक यही सोचताथा कि अब मैं क्या करूँ, किससेअपने कष्ट की कथा कहूँ। इतने में वहाँ धोती-कमीज पहने हुए एक सभ्यबंगाली महाशय का आगमन हुआ।

उस बालक की चौड़ी हड्‌डी, सुडौल बदन और सुन्दर चेहरादेखकर बंगाली महाशय रूप गए और उसे एक विदेशी समझकर पूछनेलगे -

- तुम्हारा मकान कहाँ है?

- ब...में।

- तुम यहाँकैसे आए?

- भागकर।

- नौकरी करोगे?

- हाँ।

- अच्छा, हमारे साथ चलो।

बालक ने सोचा कि सिवा काम के और क्या करना है, तो फिरइनके साथ ही उचित है। कहा - अच्छा, चलिए।

बंगाली महाशय उस बालक को घुमाते-फिराते एक मकान के द्वारपर रपहुँचे। दरबान ने उठकर सलाम किया। वह बालक सहित एक कमरेमें पहुँचे, जहाँ एक नवयुवक बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, सामने बहुतसे कागज इधर-उधर बिखरे पड़े थे।

युवक ने बालक को देखकर पूछा - बाबूजी, यह बालक कौन है?- यह नौकरी करेगा, तुमको एक आदमी की जरूरत थी ही, सोइसको हम लिवा लाए हैं, अपने साथ रखो - बाबूजी यह कहकर घरके दूसरे भाग में चले गए थे।

युवक के कहने पर बालक भी अचकचाता हुआ बैठ गया। उनमेंइस तरह बातें होने लगीं -

युवक - क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है?

बालक - (कुछ सोचकर) मदन।

युवक - नाम तो बड़ा अच्छा है। अच्छा, कहो, तुम क्या खाओगे?

रसोई बनाना जानते हो?

बालक - रसोई बनाना तो नहीं जानते। हाँ, कच्ची-पक्की जैसीहो, बनाकर खा लेते हैं, किन्तु...

- अच्छा संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है - इतना कहकरयुवक ने पुकारा - कोई है?

एक नौकर दोड़कर आया - हुजूर, क्या हुक्म है?

युवक ने कहा - इनको भोजन कराने को ले जाओ।

भोजन के उपरान्त बालक युवक के पास आया। युवक ने एक घरदिखाकर कहा कि उस सामने की कोठरी में सोओ और उसे अपने रहनेका स्थान समझो।

युवक की आज्ञा के अनुसार बालक उस कोठरी में गया, देखा तोएक साधारणसी चौकी पड़ी है; एक घड़े में जल, लोटा और गिलास भीरखा हुआ है। वह चुपचाप चौकी पर लेट गया।

लेटने पर उसे बहुत-सी बातें याद आने लगीं, एक-एक करके उसेभावना के जाल में फँसाने लगीं। बाल्यावस्था के साथी, उनके साथखेलकूद, राम-रावण की लड़ा़ई, फिर उस विजयादशमी के दिन की घटना,पड़ोसिन के अंग में तीर का धँस जाना, माता की व्याकुलता और मार्गकष्ट को सोचते-सोचते उस भयातुर बालक की विचित्र दशा हो गई।

मनुष्य की मिमियाई निकालने वाली द्वीप-निवासिनी जातियों कीभयानक कहानियाँ, जिन्हें इसने बचपन में माता की गोद में पड़े-पड़े सुनाथा, उसे और भी डराने लगीं। अकस्मात्‌, उसके मस्तिष्क को उद्वेग सेभर देने वाली यह बात भी समा गई कि ये लोग तो मुझे नौकर बनानेके लिए अपने यहाँ लाए थे, फिर इतने आराम से क्यों रखा है? होन-हो वही टापू वाली बात है। बस, फिर कहाँ की नींद और कहाँ कासुख, करवटें बदलने लगा। मन में यही सोचता था कि यहाँ से किसीतरह भाग चलो।

परन्तु निद्रा भी कैसी ह्रश्वयारीर वस्तु है। घोर दुःख के समय भीमनुष्य को यही सुख देती है। सब बातों से व्याकुल होने पर भी वहकुछ देर के लिए सो गया। मदन उसी घर में लगा। अब उसे उतनीघबराहट नहीं मालूम होती। अब वह निर्भय-सा हो गया है, किन्तु अभीतक यह बात कभी-कभी उसे उधेड़ बुन में लगा देती है कि ये लोगमुझसे इतना अच्छा बर्ताव क्यों करते हैं और क्यों इतना सुख देते हैं, परइन बातों को वह उस समय भूल जाता है, जब ‘मृणालिनी’ उसकी रसोईबनवाने लगती है - देखो, रोटी जलती है, उसे उलट दो, दाल भी चलादो - इत्यादि बातें जब मृणामलिनी के कोमल कंठ से वीणा की झंकारके समान सुनाई देती हैं, तब वह अपना दुःख - माता की सोच - सबभूल जाता है।

मदन है तो अबोध, किन्तु संयुक्त प्रान्तवासी होने के कारणस्पृश्यास्पृश्य का उसे बहुत ध्यान रहता है। वह दूसरे का बनाया भोजननहीं करता है। अतएव मृणालिनी आकर उसे बताती है और भोजन केसमय हवा भी करती है।

मृणालिनी गृहस्वामी की कन्या है। वह देवबाला-सी जान पड़ती है।

बड़ी-बड़ी आँखें, उज्ज्वल कपोल, मनोहर अंगभंगी, गुल्फविलम्बित केश-कलाप उसे और भी सुन्दरी बनने में सहायता दे रहे हैं। अवस्था तेरहवर्ष की है; किन्तु वह बहुत गम्भीर है।

नित्य साथ होने से दोनों में अपूर्व भाव का उदय हुआ है। बालकका मुख जब आग की आँच से लाल तथा आँखें धुएँ के कारण आँसुओंसे भर जाती हैं, तब बालिका आँखों में आँसू भरकर, रोषपूर्वक पंखीफेंककर कहती है - लो जी, इससे काम लो, क्यों व्यर्थ परिश्रम करतेहो? इतने दिन तुम्हें रसोई बनाते हुए, मगर बनाना न आया!

तब मदन आँच लगने के सारे दुःख भूल जाता है, तब उसकी तृष्णा औरबढ़ जाती है; भोजन रहने पर भी भूख सताती है और सताया जाकर भी वहहँसने लगता है। मन-ही-मन सोचता, मृणालिनी! तुम बंग-महिला क्यों हुई।

मदन के मन में यह बात उत्पन्न क्यों हुई? दोनों सुन्दर थे, दोनोंही किशोर थे, दोनों संसार से अनभिज्ञ थे, दोनों के हृदय में रक्त था- उच्छ्‌वास था - आवेग था - विकास था, दोनों के हृदय-सिन्धु में किसीअपूर्व चन्द्र का मधुर-उज्ज्वल प्रकाश पड़ता था, दोनों के हृदय-कानन मेंनन्दन-पारिजात खिला था।

जिस परिवार में बालक मदन पलता था, उसके मालिक हैं अमरनाथबनर्जी, आपके नवयुवक पुत्र का नाम है किशोरनाथ बनर्जी, कन्या का नाममृणालिनी और गृहिणी का नाम हीरामणि है। बम्बई और कलक्रूद्गाा, दोनोंस्थानों में, आपकीदुकानें थीं, जिनमें बाहरी चीजों का क्रय-विक्रय होताथा; विशेष काम मोती के बनिज का था। आपका ऒफिस सीलोन में था;वहाँ से मोती की खरीद होती थी। आपकी कुछ जमीन भी वहाँ थी।

उससे आपकी बड़ी आय थी। आप प्रायः अपनी बम्बई की दुकान मेंऔर परिवार कलक्रूद्गो में रहता था। धन अपार था, किसी चीज की कमीन थी। तो भी आप एक प्रकार से चिन्तिति थे!

संसार में कौन चिन्ताग्रस्त नहीं है? पशु-पक्षी, कीट-पतंग, चेतनऔर अचेतन, सभी को किसी-न-किसी प्रकार की चिन्ता है। जो योगीहैं, जिन्होंने सबकुछ त्याग दिया है, संसार जिनके वास्ते असार है, उन्होंनेभी स्वीकार किया है। यदि वे आत्मचिन्तन न करें, तो उन्हें योगी कौनकहेगा?

किन्तु वनर्जी महाशय की चिन्ता का कारण क्या है? सो पति-पत्नीकी इस बातचीत से ही विदित हो जाएगा -अमरनाथ - किशोर कँवारा ही रहना चाहता है। अभी तक उसकीशादी कहीं पक्की नहीं हुई।

हीरामणि - सीलोन में आपके व्यापार करने तथा रहने से समाजआप को दूसरी ही दृष्टि से देख रहा है।

अमरनाथ - ऐसे समाज की मुझे कुछ परवाह नहीं है। मैं तो केवललड़की और लड़के का ब्याह अपनी जाति में करना चाहता था। क्याटापुओं में जाकर लोग पहले बनिज नहीं करते थे? मैंने कोई अन्य धर्मतोग्रहण नहीं किया, फिर यह व्यर्थ का आडम्बर क्यों है? और यदि, कोईखान-पापन का दोष दे, तो क्या यहाँ पर तिलक कर पूजा करनेवाले लोगोंसे होटल बचा हुआ है?

हीरामणि - फिर क्या कीजिएगा? समाज तो इस समय केवल उन्हींबगलाभगतों को परम धार्मिक समझता है।

अमरनाथ - तो फिर अब मैं ऐसे समाज को दूर ही से हाथ जोड़ताहूँ।

हीरामणि - तो ये लड़के-लड़की कँवारे ही रहेंगे?

अमरनाथ - नहीं, अब हमारी यह इच्छा है कि तुम सबको लेकरउसी जगह चलें। यहाँ कई वर्ष रहते भी हुए, किन्तु कार्य सिद्ध होने कीकुछ भी आशा नहीं है, तो फिरअपना व्यापार क्यों नष्ट होने दें? इसलिे,अब तुम सबको वहीं चलना होगा। न होगा तो ब्राह्म हो जाएँगे, किन्तुयह उपेक्षा अब सही नहीं जाती।

मदन, मृणालिनी के संगम से बहुत ही प्रसन्न है। सरला मृणालिनीभी प्रफुल्लित है। किशोरनाथ भी उसे बहुत ह्रश्वयार करता है, प्रायः उसीको साथ लेकर हवा खाने के लिए जाता है। दोनों में बहुत ही सौहार्दहै। मदन भी बाहर किशोरनाथ के साथ और घर आने पर मृणालिनी कीप्रेममयी वाणी से आह्रश्वयायित रहता है।

मदन का समय सुख से बीतने लगा, किन्तु बनर्जी महाशय केसपरिवार बाहर जाने की बातों ने एक बार उसके हृदय को उद्वेगपूर्ण बनादिया। वह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा, क्या मझे भी चलनेके लिए आज्ञा देंगे? और यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्याकरूँगा? इनके साथ जाना ठीक होगा या नहीं?

इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ नेअकस्मात्‌ आकर उसे चौंका दिया। उसने खड़े होकर पूछा - कहिए, आपलोग किस सोच-विचार में पड़े हुए हैं? कहाँ जाने का विचार है?

- क्यों, क्या तुम न चलोगे?

- कहाँ?

- जहाँ हम लोग जाएँ।

- वही तो पूछा हूँ कि आप लोग कहाँ जाएँगे?

- सीलोन!

- तो मुझसे भी आप वहाँ चलने के लिए कहते हैं?

- इसमें तुम्हारी हानि ही क्या है?

- (यज्ञोपवीत दिखाकर) इसकी ओर भी तो ध्यान कीजिए।

- तो क्या समुद्र-यात्रा तुम नहीं कर सकते?

- सुना है कि वहाँ जाजने से धर्म नष्ट हो जाता है!

- क्यों? जिस तरह तुम यहाँ भोजन बनाते हो, उसी तरह वहाँभी बनाना।

- जहाज पर भी चढ़ना होगा!

- उसमें हर्ज ही क्या है? लोग गंगासागर और जगन्नाथजी जातेसमय जहाज पर नहीं चढ़ते?

मदन अब निरु्रूद्गार हुआ; किन्तु उ्रूद्गार सोचने लगा। उतने ही में उधरसे मृणालिनी आती हुई दिखाई पड़ी। मृणालिनी को देखते ही उसके विचाररूपी मोतियों को प्रेमहंस ने चुग लिया और उसे उसकी बुद्धि और भीभ्रमपूर्ण जान पड़ने लगी।

मृणालिनी ने पूछा - क्यों मदन, तुम बाबा के साथ न चलोगे?जिस तरह वीणा की झंकार से मस्त होकर मृग स्थिर हो जाताहै अथवा मनोहर वंशी की तान से झूमने लगता है, वैसे ही मृणालिनीके मधुर स्वर में मुग्ध मदन ने कह दिया - क्यों न चलूँगा।

सारा संसार घड़ी-घड़ी-भर पर, पल-पल-भर पर, नवीन-सा प्रतीतहोता है और इससे उस विश्वयन्त्र को बनाने वाले स्वतन्त्र की बड़ी भारीनिपुणता का पता लगता है; क्योंकि नवीनता की यदि रचना न होती, तोमानव-समाज को यह संसार और ही तरह का भाषित होता। फिर उसेकिसी वस्तु की चाह न होती, इतनी तरह के व्यावहारिक पदार्थों की कुछभी आवश्यकता न होती। समाज, राज्य और धर्म के विशेष परिवर्तन-रूपी पट में इसकी मनोहर मूर्ति और भी सलोनी दीख पड़ती है। मनुष्यबहुप्रेमी क्यं हो जाता है? मानवों की प्रवृि्रूद्गा क्यों दिन-रात बदला करतीहै! नगर-निवासियों को पहाड़ी घाटियाँ क्यों सौन्दर्यमयी प्रतीत होती हैं?

विदेश-पर्यटन में क्यों मनोरंजन होता है? मनुष्य क्यों उत्साहित होता है?

इत्यादि प्रश्नों के उ्रूद्गार में केवल यही कहा जा सकता है कि नवीनता कीप्रेरणा!

नवीनता वास्तव में ऐसी ही वस्तु है कि जिससे मदन को भारतसे सीलोन तक पहुँच जाना कुछ कष्टकर न हुआ।

विशाल सागर के वक्षस्थल पर दानव-राज की तरह वह जहाजअपनी चाल और उसकी शक्ति दिखा रहा है। उसे देखकर मदन कोद्रौपदी और पांडवों को लादे हुए घटोत्कच का ध्यान आता था।उ्रूद्गााल तरंगों की कल्लोल-माला अपना अनुपम दृश्य दिखा रही है।चारों ओर जल-ही-जल है, चन्द्रमा अपने पिता की गोद में क्रीड़ा करताहुआ आनन्द दे रहा है। अनन्त सागर में अनन्त आकाश-मण्डल के असंख्यनक्षत्र अपने प्रतिबिम्ब दिखा रहे हैं।

मदन तीन-चार बरस में युवक हो गया है। उसकी भावुकता बढ़गई थी। वह समुद्र का सुन्दर दृश्य देख रहा था। अकस्मात्‌ एक प्रकाशदिखाई देने लगा। वह उसी को देखने लगा।

उस मनोहर अरुण का प्रकाश नील जल को भी आरक्तिम बनानेकी चेष्टा करने लगा। चंचल तरंगों की लहरियाँ सूर्य की किरणमों सेक्रीड़ा करने लगीं। मदन उस अनन्त समुद्र को देखकर डरा नहीं, किन्तुअपने प्रेममय हृदय का एक जोड़ा देखकर और भी प्रसन्न हो वह निर्भीकहृदय से उन लोगों के साथ सीलोन पहुँचा।

अमरनानथ के विशाल भवन में रहने से मदन भी बड़ा ही प्रसन्नहै। मृणालिनी और मदन उसी प्रकार से मिलते-जुलते हैं, जैसे कलक्रूद्गोमें मिलते-जुलते थे। लवणमहासमुद्र की महिमा दोनों ही को मनोहर जानपड़ती है। प्रशान्त महासागर के तट की संध्या दोनों के नेत्रों को ध्यानमें लगा देती है। डूबते हुए सूर्यदेव देव-तुल्य हृदयों को संसार की गतिदिखलाते हैं, अपने राग की आभा उन प्रभातमय हृदयों पर डालते हैं, दोनोंही सागर-तट पर खड़े सिंधु की तरंग-भंगियों को देखते हैं; फिर भी दोनोंही दोनों की मनोहर अंग-भंगियों में भूले हुए हैं।

महासमुद्र के तट पर बहुत समय तक खड़े होकर मृणालिनी औरमदन उस अनन्त का सौंदर्य देखते थे। अकस्मात बैंड का सुरीला राग सुनाईदिया, जो कि सिंधुगर्जन को भी भेदकर निकलता था।

मदन, मृणालिनी-दोनों एकाग्रचित हो उसे ओजस्विनी कविवाणी कोजातीय संगीत में सुनने लगे, किन्तु वहाँ कुछ दिखाई न दिया। चकितहोकर वे सुन रहे थे। प्रबल वायु भी उ्रूद्गााल तरंगो को हिलाकर उनकोडराता हुआ उसी की प्रतिध्वनि करता था। मन्त्र-मुग्ध के समान सिंधु भीअपनी तरंगों के घात-प्रतिघात पर चिढ़कर उन्हीं शब्दों को दुहराता है।

समुद्र को स्वीकार करते देखकर अनन्त आकाश भी उसी की प्रतिध्वनिकरता है।

धीरे-धीरे विशाल सागर के हृदय को फाड़ता हुआ एक जंगी जहाजदिखाई पड़ा। मदन और मृणालिनी, दोनों ही, स्थिर दृष्टि से उसकी ओरदेखते रहे। जहाज अपनी जगह पर ठहरा और इधर पोर्ट-संरक्षक ने उसपर सैनिकों के उतरने के लिए यथोचित प्रबन्ध किया।

समुद्र की गम्भीरता, संध्या की निस्तब्धता और बैंड के सुरीले रागने दोनों के हृदयों को सम्मोहित कर लिया और वे इन्हीं बातों की चर्चाकरने लग गए।

मदन ने कहा - मृणालिनी, यह बाजा कैसा सुरीला है?

मृणालिनी का ध्यान टूटा। सहसा उसके मुख से निकला - तुम्हारेकल-कंठ से अधिक नहीं है।

इसी तरह दिन बीतने लगे। मदन को कुछ काम नहीं करना पड़ताथा। जब कभी उसका जी चाहता, तब वह महासागर के तट पर जाकरप्रकृति की सुषमा को निरखता और उसी में आनन्दित होता था। वह प्रायःगोता लगाकर मोती निकालने वालों की ओर देखा करता और मन-ही-म उनकी प्रशंसा किया करता था।

मदन का मालिक भी उसको कभी कोई काम करने के लिए आज्ञानहीं देता था। वह उसे बैठा देखकर मृणालिनी के साथ घूमने के लिएजाने की आज्ञा देता था। उसका स्वभाव ही ऐसा सरल था कि सभीसहवासी उससे प्रसन्न रहते थे, वह भी उनसे खूब हिल-मिलकर रहताथा।

संसार भी बड़ा प्रपंचमय यन्त्र है। वह अपनी मनोहरता पर आपही मुग्ध रहता है।

एक एकान्त कमरे में बैठे हुए मृणालिन और मदन ताश खेल रहेहैं, दोनों जी-जान से अपने-अपने जीतने की कोशिश कर रहे हैं।

इतने ही में सहसा अमरनाथ बाबू उस कोठरी में आए। उनके मुख-मण्डल पर क्रोध झलकता था। वह ाते ही बोले - क्यों रे दुष्ट! तू बालिकाको फुसला रहा है।

मदन तो सुनकर सन्नाटे में आ गया। उसने नम्रता के साथ होकरपूछा - क्यों पिता, मैंने क्या किया है?

अमरनथ - अभी पछता ही है! तू इस लड़की को बहकाकर अपनेसाथ लेकर दूसरी जगह भागना चाहता है?

मदन - बाबूजी, यह आप क्या कह रहे हैं? मुझ पर आप इतनाअविश्वास कर रहे हैं? किसी दुष्ट ने आपके झूठी बात कही है।अमरनाथ - अच्छा, तुम यहाँ से चलो और अब से तुम दूसरी

कोठरी में रहा करो। मृणालिनी को ओर तुतमको अगर हम एक जगहदेख पाएँगे तो समझ रखो - समुद्र के गर्ब में ही तुमको स्थान मिलेगा।मदन अमरनाथ बाबू के पीछे चला। मृणालिनी मुरझा गई, मदनके ऊपर अपवाद लगाना उसके सुकुमार हृदय से सहा नहीं गया। वह नव-कुसुमित पददलित आश्रयविहीन माधवी-लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ीऔर लोट-लोटकर रोने लगी।

मृणालिनी ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और वहीं लोटतीहुई आँसुओं से हृदय की जलन को बुझाने लगी।

कई घण्टे के बाद जब उसकी माँ ने जाकर किवाड़ खुलवाए, उससमय उसकी रेशमी साड़ी का आँचल भीगा हुआ, उसका मुख सूखा हुआऔर आँखें लाल-लाल हो गई थीं। वास्तव में वह मदन के लिए रोई थीइसी से उसकी यह दशा हो गई। सचमुच संसार बड़ा प्रपंचमय है।

दूसरे घर में रहने से मदन बहुत घबड़ाने लगा। वह अपना मनबहलाने के लिए कभी-कभी समुद्र-तट पर बैठकर गद्‌गद्‌ हो सूर्य-भगवानका पश्चिम दिशा से मिलना देखा करता था; और जब तक वह अस्तन हो जाते थे, तब तक बराबर टकटकी लगए देखता था। वह अपनेचि्रूद्गा में अनेक कल्पना की लहरें उठाकर समुद्र और अपने हृदय की तुलनाभी किया करता था।

मदन का अब इस संसार में कोई नहीं ंहै। माता भारत में जीतीहै या मर गई - यह भी बेचारे को नहीं मालूम! संसार की मनोहरता,आशा की भूमि, दन के जीवनस्रोत का जल, मदन के हृदय-कानन काअपूर्व पारिजात, मदन के हृदय-सरोवर की मनोहर मृणालिनी भी अब उससेअलग कर दी गई है। जननी, जन्मभूमि, प्रिय, कोई भी तो मदन के पासनहीं है! इसी से उसका हृदय आलोड़ित होने लगा और वह अनाथ बालकईर्ष्या से भरकर अपने अपमान की ओर ध्यान देने लगा . उसको भलीभाँतिविश्वास हो गया कि इस परिवार के साथ रहना ठीक नहीं है। जब इन्होंनेमेरा तिरस्कार किया, तो अब इन्हीं के आश्रित होकर क्यो रहूँ?यह सोचकर उसने अपने चि्रूद्गा में कुछ निश्चय किया और कपड़ेपहनकर समुद्र की ओर घूमने के लिए चल पड़ा। राह में वह अपनीउधेड़-बुन में चला जाता था कि किसी ने पीठ पर हाथ रखा। मदन नेपीछे देखकर कहा - ओह, आप हैं, किशोर बाबू?

किशोरनाथ ने हँसकर कहा - कहाँ बगदादी - ऊँट की तरह भागेजाते हो?

- कहीं तो नहीं, यहीं समुद्र की ओर जा रहा हूँ।

- समुद्र की ओर क्यों?

- शरण माँगने के लिए।

यह बात मदन ने डबडबाई हुई आँखों से किशोर की ओर देखकरकही।

किशोर ने रूमाल से मदनद के आँसू पोंछते-पोंछते कहा - मदन,हम जानते हैं कि उस दिन बाबूजी ने जो तिरस्कार किया था, उससे तुमकोबहुत दुःख है, मगर सोचो तो, उसमें दोष किसका है? यदि तुम उस रोजमृणालिनी को बहकाने का उद्योग न करते, तो बाबूजी तुम पर क्यों अप्रसन्नहोते।

अब तो मदन से नहीं रहा गया। उसने क्रोध से कहा - कौन दुष्टउस देवबाला पर झूठा अपवाद लगाता है? और मैंने उसे बहकाया है,इस बात का कौन साक्षी है? किशोर बाबू! आप लोग मालिक हैं, जोचाहें, सो कहिए। ापने पालन किया है, इसलिए, यदि आप आज्ञा दें तोमदन समुद्र में भी कूद पड़ने के लिए तैयार है, मगर अपवाद औरअपमान से बचाए रहिए।

कहते-कहते मदन का मुख क्रोध से लाल हो आया, आँखों में आँसूभर आए, उसके ाकार से उस समय दृढ़ प्रतिज्ञा झलकती थी।

किशोर ने कहा - इस बारे में विशेष हम कुछ नहीं जानते, केवलमाँ के मुख से सुना था कि जमादार ने बाबूजी से तुम्हारी निंदा की हैऔर इसी से वह तुम पर बिगड़े हैं।

मदन ने कहा - आप लोग अपनी बाबूगीरी में भूले रहते हैं औरये बेईमान आपका सब माल खाते हैं। मैंने उस जमादार को मोती निकालनेवालों के हाथ मोती बेचते देखा; मैंने पूछा - क्यों, तुमने मोती कहाँ पाया?

तब उसने गिड़गिड़ाकर, पैर पकड़कर, मुझसे कहा - बाबूजी से नकहिएगा। मैंने उसे डाँटकर फिर ऐसा काम न करने के लिए कहकर छोड़दिया, आप लोगों से नहीं कहा। इसी कारण वह ऐसी चाल चलता हैऔर आप लोगों ने भी बिना सोचे-समझे उसकी बात पर विश्वास करलिया है।

यों कहते-कहते मदन उठ खड़ा हो गया। किशोर ने उसका हाथपकड़कर बैठाया और आप भी बैठकर कहने लगा - मदन, घबड़ाओ मत,थोड़ी देर बैठकर हमारी बात सुनो। हम उसको दण्ड देंगे और तुम्हाराअपवाद भी मिटावेंगे, मगर एक बात जो कहते हैं, उसे ध्यान देकरसुनो।

मृणालिनी अब बालिका नहीं है और तुम भी बालक नहीं हो। तुम्हारे-उसके जैसे भाव हैं, सो भी हमसे छिपे नहीं हैं। फिर ऐसी जगह परतो यही चाहते हैं कि तुम्हारा और मृणालिनी का ब्याह हो जाए।

मदन ब्याह का नाम सुनकर चौंक पड़ा और मन में सोचने लगाकि यह कैसी बात? कहाँ हम युक्तप्रान्त-निवासी अन्य जातीय और कहाँये बंगाली-ब्राह्मण, फिर ब्याह किस तरह हो सकता है! हो-न-हो, ये मुझेभुलावा देते हैं। क्या मैं इनके साथ अपना धर्म नष्ट करूँगा? क्या इसीकारण ये लोग मुझे इतना सुख देते हैं और खूब खुलकर मृणालिनी केसाथ घूमने-फिरने और रहने देते थे? मृणालिनी को मैं जी से चाहता हूँऔर जहाँ तक देखता हूँ, मृणालिनी भी मुझसे कपट-प्रेम नहीं करती, किन्तुयह ब्याह नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें धर्म और अधर्म दोनों का डरहै। धर्म का निर्णय करने की मुझमें शक्ति नहीं है। मैंने ऐसा ब्याह होतेन देखा है और न सुना है, फिर कैसे यह ब्याह करूँ?

इन्हीं बातों को सोचते-सोचते बहुत देर हो गई। जब मदन को यहसुनाई पड़ा कि ‘अच्छा, सोचकर हमसे कहना’ तब वह चौंक पड़ा औरदेखा तो किशोरनाथ जा रहा है।

मदनने किशोरनाथ के जाने पर कुछ विशेष ध्यान नहीं ंदिया औरफिर अपने विचारों के सागर में मग्न हो गया।

फिर मृणालिनी का ध्यान आया, हृदय धड़कने लगा। मदन कीचिन्ता शक्ति का वेग रुक गया और उसके मन में यही समााया कि ऐसेधर्म को मैं दूर से ही हाथ जोड़ता हूँ। मृणालिनी- प्रेम प्रतिमा मृणालिनीको मैं नहीं छोड़ सकता।

मदन इसी मन्तव्य को स्थिर कर, समुद्र की ओर मुख कर, उसकीगम्भीरता निहारने लगा।

वहा पर कुछ धनी लोग पैसा फेंककर उसे समुद्र में से ले आनेका तमाशा देख रहे थे। मदन ने सोचा कि प्रेमियों का जीवन ‘प्रेम’ हैऔर सज्जनों का अमोघ धन ‘धर्म’ है। ये लोग अपने प्रेम-जीवन कीपरवाह न कर धर्म-धन को बटोरते हैं और फिर इनके पास जीवन औरधन, दोनों चीजें दिखाई पड़ती हैं। तो क्या मनुष्य इनका अनुकरण नहींकर सकता? अवश्य कर सकता है। प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नहीं है किधर्म को हटाकर उस स्थान पर आप बैठे। प्रेम महान्‌ है, प्रेम उदार है।

प्रेमियों को भी वह उदार और महान्‌ बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है‘आत्मत्याग’। तो क्या मृणालिनी से ब्याह कर लेना ही प्रेम में गिनाजाएगा? नहीं-नहीं, वह घोर स्वार्थ है। मृणालिनी को मैं जन्म-भर प्रेमसे अपने हृदय-मन्दिर में बिठाकर पूजूँगा, उसकी सरल प्रतिमा को पंकमें न लपेटूँगा, परन्तु ये लोग जैसा बर्ताव करते हैं, उससे सम्भव है किमेरे विचार पलट जाएँ। इसलिए अब इन लोगों से दूर रहना उचित है।

मदन इन्हीं बातों को सोचता हुआ लौट आया और जो अपनामासिक वेतन जमा किया था वह तथा कुछ कपड़े आदि आवश्यक सामानलेकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने एक पत्र भी लिखकर वहींछोड़ दिया।

जब बहुत देर तक लोगों ने मदन को नहीं देखा, तब चिन्तित हुए।खोज करने से उनको मदन का पत्र मिला, जिसे किशोरनाथ ने बढ़करउसका मर्म पिता को समझा दिया।

पत्र का भाव समझते ही उनकी सब आशाएँ निर्मूल हो गइर्ं। उन्होंनेकहा - किशोर, देखो, हमने सोचा था कि मृणालिनी किसी कुलीन हिन्दूको समर्पित हो, परन्तु वह नहीं हुआ। इतना व्यय और परिश्रम, जो मदनके लिए किया गया, सब व्यर्थ हुआ। अब वह कभी मृणालिनी से ब्याहनहीं करेगा, जैसा कि उसके पत्र से विदित होता है।

- आपके उस व्यवहार ने उसे और भी भड़का दिया। अब वहकभी ब्याह न करेगा।

- मृणालिनी का क्या होगा?

- जो उसके भाग्य में है!

- क्या जाते समय मदन ने मृणालिनी से भी भेंट नहीं की?

- पूछने से मालूम होगा।

इतना कहकर किशोर मृणालिनी के पास गया। मदन उससे भी नहींमिला था। किशोर ने आकर पिता से सब हाल कह दिया।

अमरनाथ बहुत ही शोकग्रस्त हुए। बस, उसी दिन से उनकी चिन्ताबढ़ने लगी। क्रमशः वह नित्य ही मद्य-सेवन करने लगे। वह तो प्रायःअपनी चिन्ता दूर करने के लिए मद्य-पान करते थे, किन्तु उसका फलउलटा हुआ। उनकी दशा और भी बुरी हो चली, यहाँ तक कि वह सबसमय पान करने लगे, काम-काज देखना-भालना छोड़ दिया।

नवयुवक ‘किशोर’ बहुत चिन्तित हुआ, किन्तु वह धैर्य के साथ-साथ सांसारिक कष्ट सहने लगा।

मदन के चले जाने से मृणालिनी को बड़ा कष्ट हुआ। उसे यह बातऔर भी खटकती थी कि मदन जाते समय उससे क्यों नहीं मिला? वहयह नहीं समझती थी कि मदन यदि जाते समय उससे मिलता, तो जानहीं सकताथा।

मृणालिनी बहुत विरक्त हो गई। संसार उसे सूना दिखाई देने लगा,किन्तु वह क्या करे? उसे अपने मानसिक व्यथा सहनी ही पड़ी।

मदन ने अपने एक मित्र के यहाँ जाकर डेरा डाला। वह भी मोतीका व्यापाकर करता था। बहुत सोचने-विचारने के उपरान्त उसने भी मोतीका ही व्यवसाय करना निश्चित किया।

मदन नित्य, संध्या के समय, मोती के बाजार में जा, मछुए लोग,जो अपने महेनताने में मिली हुई मोतियों की सीपियाँ बेचते थे, उनकोखरीदने लगा; क्योंकि इसमं थोड़ी पूँजी से अच्छी तरह काम चलसकताथा। ईश्वर की कृपा से उसका नित्य विशेष लाभ होने लगा।

संसार में मनुष्य की अवस्था सदा बदलती रहती है। वही मदन,जो तिरस्कार पा दासत्व छोड़ने पर लक्ष्य भ्रष्ट हो गया था, अब एकप्रसिद्ध व्यापारी बन गया।

मदन इस समय सम्पन्न हो गया। उसके यहाँ अच्छे-अच्छे लोगमिलने-जुलने आने लगे। उसने नदी के किनारे एक बहुत सुन्दर बंगलाबनवा लिया है; उसके चारों ओर सुन्दर बगीचा भी है। व्यापारी लोगउत्सव के अवसरों पर उसको निमन्त्रण देते हैं; वह भी अपने यहाँ कभीकभी उन लोगों को निमन्त्रित करता है। संसार की दृष्टि में वह बहुत सुखीथा, यहाँ तक कि बहुत लोग उससे डाह करने लगे। सचमुच संसार बड़ाआडम्बर-प्रियि है।

मदन सब प्रकार से शारीरिक सुख भोगा करता था; पर उसकेचि्रूद्गा-पट पर किसी रमणी की मलीन छाया निरन्तर अंकित रहती थी;जो उसे कभी-कभी बहुत कष्ट पहुँचाती थी। प्रायः वह उसे विस्मृति केजल में धो डालना चाहता था। यद्यपि वह चित्र किसी साधारण कारीगरका अंकित किया हुआ नहीं था कि एकदम ही लुह्रश्वत हो जाए, तथापिवह बराबर उसे मिटाने की चेष्टा करता था।

अकस्मात्‌ एक दिन, जब सूर्य की किरणें सुवर्ण-सी-सुवर्ण आभाधारण किए हुए थीं, नदी का जल मौज से बह रहा था, उस समय मदनकिनारे खड़ा हुआ स्थिर भाव से नदी की शोभा निहार रहा था। उसकोवहाँ कई सुसज्जित जलयान दीख पड़े। उसका चि्रूद्गा, न जाने क्यों उत्कंठितहुआ। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि वहाँ वार्षिक जल-विहार काउत्सव होता है, उसी में लोग जा रहे हैं।

मदन के चि्रूद्गा में भी उत्सव देखने की आकांक्षा हुई। वह भी अपनीनाव पर चढ़कर उसी ओर चला। कल्लोलिनी की कल्लोलों में हिलती हुईवह छोटी-सी सुसज्जित तरी चल दी।

मदन उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ नावों का जमाव था। सैंकड़ों बजरेऔर नौकाएँ अपने नीले-पीले, हरे-लाल निशान उड़ाती हुई इधर-उधर घूमरही हैं। उन पर बैठे हुए मित्र लोग आपस में आमोद-प्रमोद कर रहेहैं। कामिनियाँ अपने मणिमय अलंकारों की प्रभा से उस उत्सव कोआलोकमय किए हुए हैं।

मदन भी अपनी नाव पर बैठा हुआ एकटक इस उत्सव को देखरहा है। उसकी आँखें जैसे किसी को खोज रही हैं। धीरे-धीरे संध्या होगई। क्रमशः एक, दो, तीन तारे दिखाई दिए। साथ ही पूर्व की तरफ,ऊपर को उठते हुए गुब्बारे की तरह चन्द्रबिम्ब दिखाई पड़ा। लोगों केनेत्रों में आनन्द का उल्लास छा गया। इधर दीपक जल गए। मधुर संगीर,शून्य की निस्तब्धता में और भी गूँजने लगा। रात के साथ ही आमोदप्रमोद की मात्रा बढ़ी।

परन्तु मदन के हृदय में सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव के बाहरवह अपनी नौका को धीरे-धीरे चला रहा है। अकस्मात्‌ कोलाहल सुनाईपड़ा, वह चौंककर उधर देखने लगा। उसी समय कोई चार-पाँच हाथदूर काली-सी चीज दिखाई दी। अस्त हो रहे चन्द्रमा का प्रकाश पड़नेसे कुछ वस्त्र भी दिखाई देने लगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे ही जलमें कूद पड़ा और उसी वस्तु के साथ बह चला।

उषा की आभा पूर्व में दिखाई पड़ रही है। चन्द्रमा की मलिनज्योति तारागण को भी मलिन कर रही है।

तरंगों से शीतल दक्षिण-पवन धीरे-धीरे संसार को निद्रा से जगारहा है। पक्षी भी कभी-कभी बोल उठते हैं।

निर्जन नदी-तट में एक नाव बँधी है और बाहर एक सुकुमारीसुन्दरी का शरीर अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है। एक युवक सामने बैठाहुआ उसे होश में लाने का उद्योग कर रहा है। दक्षिण-पवन भी उसे इसशुभ काम में सहायता दे रहा है।

सर्य की पहली किरण का स्पर्श पाते ही सुन्दरी के नेत्र-कमलधीरे-धीरे विकसित होने लगे। युवक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया औरझुककर उस कामिनी से पूछा - मृणालिनी, अब कैसी हो?

मृणालिनी ने नेत्र खोलकर देखा। उसके मुख-मण्डल पर हर्ष केचिह्न दिखाई पड़े। उसने कहा - ह्रश्वयारे मदन, अब अच्छी हूँ!

प्रणय का भी वेग कैसा प्रबल है! यह किसी महासागर की प्रचण्डआँधी से कम प्रबलता नहीं रखता। इसके झोंके से मनुष्य की जीवननौका असीम तरंगों से घिरकर प्रायः फूल को नहीं पाती। अलौकिकआलोकमय अन्धकार में प्रणयी अपनी प्रणय-तरी पर आरोहण कर उसीआनन्द के महासागर में घूमना पसन्द करता है, कूल की ओर जाने कीइच्छा भी नहीं करता।

इस समय मदन और मृणालिनी दोनों की आँखों में आँसुओं कीधारा धीरे-धीरे बह रही है। चंचलता का नाम भी नहीं है। कुछ बलआने पर दोनों उस नाव में जा बैठे।

मदन ने मल्लाहों को पास के गाँव में दूध और कुछ खाने कीवस्तु लाने के लिए भेजा। फिर दोनों ने बिछुड़ने के उपरान्त की सब कथापरम्परा कह सुनाई।

मृणालिनी कहने लगी - भैया किशोरनाथ से मैं तुम्हारा सब हाल सुनाकरती थी, पर वह कहा करते थे कि तुमसे मिलने में उनको संकोच होताहै। इसका कारण उन्होंने कुछ नहीं बतलाया। मैं भी हृदय पर पत्थर रखकरतुम्हारे प्रणय को आज तक स्मरण कर रही हूँ।मदन ने बात टालकर पूछा - मृणालिनी, तुम जल में कैसे गिरीं?

मृणालिनी ने कहा - मुझे बहुत उदास देख भैया ने कहा, चलोतुम्हें एक तमाशा दिखलावें, सो मैं भी आज यहाँ मेला देखने आई। कुछकोलाहल सुनकर मैं नाव पर खड़ी हो देखने लगी। दो नाववालों में झगड़ाहो रहा था। उन्हीं के झगड़े में हाथापाई में नाव हिल गई और मैं गिरपड़ी। फिर क्या हुआ, मैं कुछ नहीं जानती।

इतने में दूर से एक नाव आती हुई दिखाई पड़ी, उस पर किशोरनाथथा। उसने मृणालिनी को देखकर बहुत हर्ष प्रकट किया, और सब लोगमिलकर बहुत आनन्दित हुए।

बहुत कुछ बातचीत होने के उपरान्त मृणालिनी और किशोर दोनोंने मदन के घर चलना स्वीकार किया। नावें नदी तट पर स्थित मदन केघर की ओर बढ़ीं। उस समय मदन को एक दूसरी ही चिन्ता थी।

भोजन के उपरान्त किशोरनाथ ने कहा - मदन, हम अब भी तुमकोछोटा भाई ही समझते हैं; पर तुम शायद हमसे कुछ रुष्ट हो गए हो।मदन ने कहा - भैया, कुछ नहीं। इस दास से जो कुछ ढिठाईहुई हो, उसे क्षमा करना, मैं तो आपका वही मदन हूँ।

इसी तरह बहुत-सी बातें होती रहीं, फिर दूसरे दिन किशोरनाथमृणालिनी को साथ लेकर अपने घर गया।

अमरनाथ बाबू की अवस्था बड़ी शोचनीनय है। वह एक प्रकारके मद्य के नशे में चूर रहते हैं, कामकाज देखना सब छोड़ दिया है।

अकेला किशोरनाथ कामकाज सँभालने के लिए तत्पर हुआ, पर उसकेव्यापार की दशा अत्यन्त शोचनीय होती गई, और उसके पिता का स्वास्थ्यभी बिगड़ता चला। क्रमशः उसको चारों ओर अन्धकार दिखाई देने लगा।

संसार की कैसी विलक्षण गति है! जो बाबू अमरनाथ एक समयसारे सीलोन में प्रसिद्ध व्यापारी गिने जाते थे और व्यापारी लोग जिनसेसलाह लेने के लिए तरसते थे, वही अमरनाथ इस समय कैसी अवस्थामें हैं! कोई उनसे मिलने भी नहीं आता!

किशोरनाथ एकदिन अपने ऑफिस में बैठा कार्य देख रहा था।अकस्मात्‌ मृणालिनी भी वहीं आ गई और एक कुर्सी खींचकर बैठ गई।उसने किशोर से कहा - क्यों भैया, पिताजी की कैसी अवस्था है?

कामकाज की भी दशा अच्छी नहीं है, तुम भी चिन्ता में व्याकुल रहतेहो, यह क्या है?

किशोरनाथ - बहन, कुछ न पूछो, पिताजी की अवस्था तो तुमदेख ही रही हो। कामकाज की अवस्था भी अत्यन्त शोचनीय हो रही है।पचास लाख रुपये के लगभग बाजार का देनाहै और ऑफिस का रुपयासब बाजार में फँस गया है, जो कि काम देखे-भाले बिना पिताजी कीअस्वस्थता के कारण दब-सा गया है। इसी सोच में बैठा हुआ हूँ किईश्वर क्या करेंगे!

मृणालिनी भयातुर हो गई। उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहनेलगी। किशोर उससे समझाने लगा; फिर बोला - केवल एक ईमनदारकर्मचारी अगर कामकाज की देखभाल करता, तो यह अवस्था न होती।

आज यदि मदन होता, तो हम लोगों की यह दशा न होती।मदन का नाम सुनते ही मृणालिनी कुछ विवर्ण हो गई और उसकीआँखों में आँसू भर आए। इतने में दरबान ने आकर कहा - सरकार,एक रजिस्ट्रीट चिठ्ठी मृणालिनी देवी के नाम से आई है, डाकिया बाहरखड़ा है।

किशोर ने कहा - बुला लाओ।

किशोर ने कहा रजिस्ट्री लेकर खोली। उसमें एक पत्र और एकस्टाम्प का कागज था। देखकर किशोर ने मृणालिनी के आगे फेंक दिया।

मृणालिनी ने वह पत्र किशोर के हाथ में देकर पढ़ने के लिए कहा। किशोरपढ़ने लगा -

“मृणालिनी!

आज मैं तुमको पत्र लिख रहा हूँ। आशा है कि तुम इसे ध्यानदेकर पढ़ोगी। मैं एक अनजाने स्थान का रहनेवाला कंगाल के भेष मेंमें तुमसे मिला और तुम्हारे परिवार में पालित हुआ। तुम्हारे पिता ने मुझेआश्रय दिया, और मैं सुख से तुम्हारा मुख देखकर दिन बिताने लगा, परदैव को वह ठीक न जँचा! अच्छा, जैसी उसकी इच्छा! पर मैं तुमहारेपरिवार को सदा स्नेह की दृष्टि से देखता हूँ। बाबू अमरनाथ के कहने-सुनने का मुझे कुछ ध्यान भी नहीं है, मैं उसे आशीर्वाद समझता हूँ। मेरेचि्रूद्गा में उसका तनिक भी ध्यान नहीं है, पर केवल पश्चा्रूद्गााप यह हैकि मैं उनसे बिना कहे-सुने चला आया। अच्छा, इसके लिए उनसे क्षमामाँग लेना और भाई किशोरनाथ से भी मेरा यथोचित अभिवादन कह देना।

अब कुछ आवश्यक बातें मैं लिखता हूँ, उन्हें ध्यान से पढ़ो। जहाँतक सम्भव है, उनके करने में तुम आगा-पीछा न करोगी - यह मुझेविश्वास है। तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है, मैं उसेलिखकर तुम्हारा दुःख नहीं बढ़ाना चाहता। सुनो, यह एक ‘विल’ है,जिसमें मैंने अपनी सब सीलोन की सम्मपि्रूद्गा तुम्हारे नाम लिख दी है।

वह तुहारी ही है, उसे लेने में तुमको संकोच न करना चाहिए। वह सबतुम्हारे ही रुपये का लाभ है। जो धन मैं वेतन में पाताथा, वही मूलकारण है। अस्तु, यह मूलधन, लाभ और ब्याज सहित, तुमको लौटा दियाजाता है। इसे अवश्य स्वीकार करना और स्वीकार करो या न करो, अबसिवा तुम्हारे इसका स्वामी कौन है? क्योंकि मैं भारतवर्ष से जिस रूपमें ाया था, उसी रूप में लौटा जा रहा हूँ। मैंने इस पत्र को लिखकरतब भेजा है, जब घर से निकलकर रवाना हो चुका हूँ। अब तुमसे भेंटकभी नहीं हो सकती। तुम यदि आओ भी तो उस समय मैं जहाज परहोऊँगा। तुमसे केवल यही प्रार्थना है कि ‘तुम मुझे भूल जाना’।

मदन’’

यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की और किशोरनाथ की अवस्था दूसरीही हो गई। मृणालिनी ने कातर स्वर में कहा-भैया, क्या समुद्र-तट तकचल सकते हो?

किशोरनाथ ने खड़े होकर कहा - अवश्य!

बस, तुरन्त ही एक गाड़ी पर सवार होकर दोनों समुद्र-तट की ओरचले। ज्योंही वे पहुँचे, त्योंही जहाज तट छोड़ चुका था। उस समयव्याकुल होकर मृणालिनी की आँखें किसी को खोज रही थीं, किन्तु अधिकखोज नहीं करनी पड़ी।

किशोर और मृणालिनी दोनों ने देखा कि गेरूए रंग का कपड़ा पहनेहुए एक व्यक्ति दोनों को हाथ जोड़े हुए जहाज पर खड़ा है और जहाजशीघ्रता के साथ समुद्र के बीच में चला जा रहा है!

मृणालिनी ने देखा कि बीच में अगाध समुद्र है!