रसिया बालम
जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ
जयशंकर प्रसाद
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रसिया बालम
संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपनाअधिकार पूर्णतः नहीं प्राह्रश्वत किया है। अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्बको प्रतीची में दिखा रहे हैं। केवल एक मनुष्य अर्बुद-गिरि-सुदृढञ दुर्गके नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध-स्वर्ण पिण्ड की ओरदेखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिड़की की ओरभी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है।
घण्टों उसे वैसे ही बैठे बीत गए। कोई कार्य नहीं, केवल उसे इसखिड़की की ओर देखना। अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीचीपहाड़ी भूमि परपड़ी और साथ ही किसी वस्तु का शब्द भी हुआ, परन्तुउस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था। वह तो उस खिड़की में के सुन्दरमुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा, जिसने केवलएक बार उसे झलक दिखाकर मन्त्रमुग्ध कर दिया था।
इधर उस कागज में लिपटी हुई वस्तु को एक अपरिचित व्यक्ति,जो छिपा खड़ा था, उठाकर चलता हुआ। धीरे-धीरे रजनी की गम्भीरताउस शैल-प्रदेश में और भी गम्भीर हो गई और झाड़ियों में तो अँधकारमूर्तिमान हो बैठा हुआ ज्ञात होता था, परन्तु उस युवक को इसकी कुछभी चिन्ता नहीं। और जब तक उसी खिड़की में प्रकाश था, तब तकवह उसी ओर निर्निमेष देख रहा था और कभी-कभी अस्फुट स्वर सेवह गुनगुनाहट उसके मुख से वनस्पतियों को सुनाई पड़ती थी।
जब वह प्रकाश बिल्कुल न रहा, तब वह युवक उठा और समीपके झरने के तट से होते हुए उसी अँधकार में विलीन हो गया।
दिवाकर की पहली किरण ने जब चमेली ीक कलियों को चटकाया,तब उन डालियों को उतना ही ज्ञात हुआ, जितना कि एक युवक के शरीरस्पर्श से उन्हं हिलना पड़ा, जो कि काँटेओर झाड़ियों का कुछ भी ध्यानन करके सीधा अपने मार्ग का अनुसरण कर रहा था। वह युवक फिरउसी खिड़की के सामने पहुँचा और जाकर अपने पूर्वपरिचित शिलाखण्डपर बैठ गया और पुनः वही क्रिया आरम्भ हुई। धीरे-धीरे एक सैनिकपुरुष नेन आकर उस युवक के कन्धे पर अपना हाथ रखा।
युवक चौचंक उठा और क्रोधित होकर बोला - तुम कौन हो?आगन्तुक हँस पड़ा और बोला - यही तो मेरा भी प्रश्न है कितुम कौन हो? और क्यों इस अन्तःपुर की खिड़की के सामने बैठे होऔर तुम्हारा क्या अभिप्राय है?
युवक - मैं यहाँ घूमता हूँ और यहीं मेरा मकान है। मैं जो यहाँबैठा हूँ, मित्र! वह बात यह है कि मेरा एक मित्र इसी प्रकोष्ठ में रहताहै; मैं कभी-कभी उशका दर्शन पा जाता हूँ और अपने चि्रूद्गा को प्रसन्नकरता हूँ।
सैनिक - पर मित्र! तुम नहीं जाानते कि यह राजकीय अन्तःपुरहै, तुम्हें ऐसे देखकर तुम्हारी क्या दशा हो सकती है? और महाराज तुम्हेंक्या समझेंगे?
युवक- जो कुछ हो; मेरा कुछ असत् अभिप्राय नहीं है, मैं तोकेवल सुन्दर रुप का दर्शन ही निरन्तर चाहता हूँ और यदि महाराज भीपूछें तो यही कहूँगा।
सैनिक - तुम जिसे देखते हो, वह स्वयं राजकुमारी है और तुम्हेंकभी नहीं चाहती। अतएव तुम्हारा यह प्रयास व्यर्थ है।
युवक - क्या वह राजकुमारी है? तो चिन्ता क्या! मुझे तो केवलदेखना है; मैं बैठे-बैठे देखा करूँगा, पर तुम्हें यह कैसे मालूम कि वहमुझे नहीं चाहती?
सैनिक - प्रमाण चाहते हो तो (एक पत्र देकर) यह देखो!
युवक उसे लेकर पढ़ता है। उसमें लिखा था -
“युवक!तुम क्यों अपना समय व्यर्थ व्यतीत करते हो? मैं तुमसे कदापिनहीं मिल सकती। क्यों महीनों से यहाँ बैठे-बैठे अपना शरीर नष्ट कररहे हो, मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर दया आती है। अतः तुमको सचेतकरती हूँ, फिर कभी यहाँ मत बैठना।
वहीजिसे तुम देखा करते हो!’’
युवक कुछ देर के लिए स्तम्भित हो गया। सैनिक सामने खड़ा था।कस्मात् युवक उठकर खड़ा हो गया और सैनक का हाथ पकड़कर बोला- मित्र ‘ तुम हमारा कुछ उपकार कर सकते हो? यहि करो, तो कुछविशेष परिश्रम न होगा।
सौनिक - कहो, क्या है? यदि हो सकेगा, तो अवश्य करूँगा।
तत्काल उस युवक ने अपनी उँगली एक पत्थर से कुचल दी औरअपने फटे वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर तिनका लेकर उसी रक्त मेंचुकड़े पर कुछ लिखा, और उस सैनिक के हाथ में देकर कहा - यदिहम न रहें, तो इसको उस निष्ठुर के हाथ में दे देना। बस और कुछ नहीं।
इतना कहकर युवक ने पहाड़ी पर से कूदना चाहा; पर सैनिक नेउसे पकड़ लिया, और कहा - रसिया! ठहरो!
युवक अवाक् हो गया; क्योंकि अब पाँच प्रहरी सैनिक के सामनेसिर झुकाए खड़े थे और पूर्व सैनिक स्वयं अर्बुदगिरि के महाराज थे।
महाराज आगे हुए और सैनिकों के बीच में रसिया। सब सिंहद्वारकीओर चले। किले के भीतर पहुँचकर रसिया को साथ में लिए हुए महाराजएक प्रकोष्ठ में पहुँचे। महाराज ने प्रहरी को ज्ञा दी कि महारानी और
राजकुमारी को बुला लाओ। वह प्रणाम कर चला गया।
महाराज - क्यों बलवन्त सिंह! तुमने अपनी यह क्या दशा बनारखी है?
रसिया - (चौंककर) महाराज को मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?
महाराज - बलवन्त! मैं बचपन से तुम्हें जानता हूँ और तुम्हारे पूर्वपुरुषों को भी जानता हूँ।
रसिया चुप हो गया। इतने में महारानी भी राजकुमारी को साथलिए हुए आ गई।
महारानी ने प्रणाम कर पूछा - क्या आज्ञा है?
महाराज - बैठो, कुछ विशेष बात है। सुनो और ध्यान से उ्रूद्गारदो। यह युवक को तुम्हारे सामने बैठा है, एक उ्रूद्गाम क्षत्रिय कुल का हैऔर मैं इसे जानता हूँ। यह हमारी राजकुमारी के प्रणय का भिखारी है।
मेरी इच्छा है कि इससे उसका ब्याह गो जाए।
राजकुमारी, जिसने कि आते ही युवक को देख लिया था और जोसंकुचित होकर इस समय महारानी के पीछे खड़ी थी, यह सुनकर औरभी संकुचित हुई, पर महारानी का मुख क्रोध से लाल हो गया। वह कड़ेस्वर में बोली - क्या आपको खोजते-खोजते मेरी कुसुसम-कुमारी कन्याके लिए यही वर मिला है? वाह! अच्छचा जोड़ मिलाया। कंगाल औरउसके लिए निधि; बन्दर और उसके गले में हार; भला यह भी कहींसम्भव है ग् आप शीघ्र ही अपने भ्रान्तिरोग की औषधि कर डालिए। यहभी कैसा परिहास है! (कन्या से) चलो बेटी यहाँ से चलो।
महाराज - नहीं, ठहरो और सुनो। यह स्थिर हो चुका है किराजकुमारी का ब्याह बलवन्त से होगा, तुम इसे परिहास मत जानो।
अब जो महारानी ने महाराज के मुख की ओर देखा, तो वहदृढ़प्रतिज्ञ दिखाई पड़े। निदान विचलिक होकर महारानी ने कहा - अच्छा,मैं भी प्रस्तुत हो जाऊँगी, पर इस शर्त पर कि जब यह पुरुष अपनेबाहुबल से उस झरने के समीप से नीचे तक एक पहाड़ी रास्ता काटकरबना ले, उसके लिए समय अभी से केवल प्रातःकाल तक का देती हूँ- जब तक कि कुक्कुट का स्वर सुनाई न पड़े। तब अवश्य मैं भीराजकुमारी का ब्याह इसी से कर दूँगी।
महाराज ने युवक की ओर देखा, जो कि निस्तब्ध बैठा हुआ सुनरहा था। वह उसी क्षण उठा और बोला - मैं प्रस्तुत हूँ, पर कुछ औजारऔर मसाले के लिए थोड़े विष की आवस्यकता है।
उसकी आज्ञानुसार सब वस्तुएँ उसे मिल गइर्ं और वह शीघ्रता सेउसी झरने की ओर दोड़ा और एक विशाल शिलाखण्ड पर जाकर बैठगया और उसे तोड़ने का उद्योग करने लगा; क्योंकि इसी के नीचे एकगुह्रश्वत पहाड़ी पथ था।
निशा का अँधकार कानन प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाए हुएहै। प्रायः आधी रात बीत चुकी है, पर केवल उन अग्नि-स्फुर्लिंगों सेकभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू का प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया केशस्त्र-प्रवार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं। दनादन चोट चली जा रहीहै - विराम नहीहं है क्षण भर भी - न तो उस शैल को और न उसशस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाए ही जारहा है। एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता। देखता है, तोकेवल अपना हाथ और पत्थर; उँघली एक तो पहले ही कुचली जा चुकीथी, दूसरे अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा थ, पर विश्राम कहाँ?
उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाए हीजाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकीएक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढ़कतेहैं, जो सोए हुए जंगहगली पशुओं को घबड़ा देते हैं। यह क्या है? केवलउसकी तन्मयता, केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है।
फिर ही दनादन-बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है! इधर उसखिड़की में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ाउस खिड़की से झाँककर देख रहा है, पर युवक को कुछ ध्यान नहीं,वह अपना कार्य करता जा रहा है।
अभी रात्रि के जाने के लिए पहर-भरहै। शीतल वायु उस काननको शीतल कर रही है। अकस्मात् ‘तरुण-कक्कुट-कंठनाद’ सुनाई पड़ा, फिरकुछ नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है औरन तो पत्थरों से अग्निस्फुर्लिंग निकलते हैं।
अकस्मात् उस खिड़की में से एक सुन्दर मुख निकला। उसनेआलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिए है और कुछकह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देरमें वह उसी शिलाखण्ड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एकहल्ता चीत्कार निकल गया। खिड़की बन्द हो गई। फिर केवल अँधकाररह गया।
प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुदगिरि के कानन में वैसी क्रीड़ानहीं कर रहा है, जैसी पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछप्रभात के मिस से मंद और मलिन हो रही है। एक शव के समीप एकपुरुष खड़ा है और उसकी आँखों में अश्रुधारा बह रही है और वह कहरहा है - बलवन्त! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया? यहअर्बुदगिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता और तुमइसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते। फिर, ऐसे क्यों पड़ेहो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा यह तुमने क्या किया?
इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला, जो स्वयं राजकुमारी थी, दौड़ीहुई आई और शव को देखकर ठिठक गई, नतजानु होकर उस पुरुष का,जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकीथी - चरण धरकर बोली - महात्मन्! क्या व्यक्ति ने; जो यहाँ पड़ाहै, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ कहा है?
महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ानिकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था। उस सुन्दरीने उसे देखा और देखकर कहा - कृपया आप ही पढ़ दीजिए।
महाराज ने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था - “मैं नहीं जानता था कितुम इतनी निठुर हो। अस्तु; अब मैं नहीं रहूँगा; पर याद रखना; मैं तुमसेअवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थानसे देखूँगा, जहाँ कभी पलक गिरती ही नहीं।
- तुम्हारा दर्शनाभिलाषी
रसिया’’
इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गई, और फिर चरण धरकरबोली- पिताजी, क्षमा करना और शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्रको लेकर अवशेष पी गई और गिर पड़ी। केवल उसके मुख से इतनानिकला - “पिताजी, क्षमा करना।” महाराज देख रहे थे!