भारत के महान विदूषक
संध्या पाण्डेय
हंसी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। हंसी के सहारे ही मनुष्य ने जीवन के तमाम थपेड़ों को झेला, मुश्किलों को शिकस्त दी। धीरे-धीरे मानव सभ्यता ने हास्य को सुखमय जीवन के मूलमंत्र के रूप में स्वीकार कर लिया। शायद इसीलिए होली जैसे त्योहार की कल्पना की गई। यह हंसने का त्योहार है, यह वर्जनाओं से मुक्ति का पर्व है। यह सारी सीमाओं को तोड़कर एक हो जाने का एक अवसर है। होली देश के हर हिस्से में भले न मनाई जाए पर विभिन्न इलाकों में कोई न कोई ऐसा एक त्योहार जरूर मनाया जाता है। हंसी को संजोने के लिए समाज ने क्या-क्या नहीं किया है। हमें हर दौर में कुछ हंसोड़ नायक मिलते हैं जिनके किस्से जन-जन में प्रचलित रहे हैं। इनके किस्से न सिर्फ हंसाते हैं बल्कि रोजमर्रा के जीवन के लिए कई उपयोगी सूत्र दे देते हैं। दिलचस्प तो यह है कि ऐसे पात्रों का अस्तित्व भारत के हर हिस्से में रहा है। इनमें बीरबल उत्तर भारत के हैं तो तेनालीराम दक्षिण के। उसी तरह गोपाल भांड का संबंध बंगाल से है तो गोनू झा बिहार के माने जाते हैं। इसी तरह के कई हास्य चरित्र हैं जो मिथक की तरह जनता में लोकप्रिय रहे हैं हालांकि बीरबल और तेनालीराम को तो इतिहासकार वास्तविक चरित्र मानते हैं। गोपाल भांड या गोनू झा का संबंध उन राजाओं से जोड़ा जाता है जिनका इतिहास में उल्लेख है लेकिन इनकी प्रामाणिकता महत्वपूर्ण नहीं है। जनता के दिलों में ये इस कदर उपस्थित हैं कि यह प्रश्न ही बेमानी हो गया है कि ये वाकई थे या नहीं। इन चरित्रों को गढ़ने में दरअसल आम आदमी का ही हाथ है। हजारों लोगों ने अपनी कल्पना और हास्यबोध से इन चरित्रों में रंग भरा। यह गौर करने की बात है कि बीरबल और तेनालीराम जैसे लोग सिर्फ विदूषक नहीं थे, वे अपने संरक्षक राजा के मित्र थे और उनका मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें राजकाज में सलाह भी देते थे और हर संकट से उबारते थे।
आइए इन महान विदूषकों के बारे में जानें और उनके कुछ किस्से भी सुनें :
बीरबल
बीरबल का असली नाम महेशदास था। कहा जाता है कि उनका जन्म यमुना के तट पर बसे त्रिविक्रमपुर (अब तिकवाँपुर के नाम से प्रसिद्ध) एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। लेकिन अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने अकबर के दरबार के नवरत्नों में स्थान प्राप्त किया था। सम्राट अकबर के लिए बीरबल सच्चे साथी थे। अकबर के धर्म दीन-ए-इलाही के मुख्य 17 अनुयायियों में यदि कोई हिन्दू था, तो वे अकेले बीरबल थे। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बीरबल एक कुशल कवि भी थे। वे ‘ब्रह्म’ उपनाम से लिखते थे। उनकी कविताओं का संग्रह आज भी भरतपुर-संग्रहालय में सुरक्षित है।
एक दिन अकबर और बीरबल दरबार में बैठे थे। अकबर ने अचानक बीरबल से पूछ दिया, ‘बीरबल बताओ दुनिया में किसकी संख्या अधिक है, देख सकने वालों की या अंधों की?’ बीरबल बोले, ‘इस समय तुरंत इस सवाल का जबाब देना मेरे लिए संभव नहीं है लेकिन मेरा विश्वास है कि अंधों की संख्या अधिक होगी।’ आश्चर्यचकित होकर बादशाह ने कहा, ‘तुम्हें अपनी बात सिद्ध करके दिखानी होगी।’
अगले दिन बीरबल बीच बाजार में एक बिना बुनी हुई चारपाई लेकर बैठ गए और उसे बुनना शुरू कर दिया। उनके अगल-बगल दो आदमी कागज़-कलम लेकर बैठे हुए थे।
थोड़ी ही देर में वहां भीड़ इकट्ठी हो गई। वहां मौजूद हर व्यक्ति ने बीरबल से एक ही सवाल पूछा ‘बीरबल तुम क्या कर रहे हो?’
बीरबल के अगल-बगल बैठे दोनों आदमी ऐसा सवाल करने वालों के नाम पूछ-पूछ कर लिखते जा रहे थे। जब बादशाह के कानों तक यह बात पहुंची तो वे भी वहां जा पहुंचे और वही सवाल किया ‘यह तुम क्या कर रहे हो?’
कोई जबाब दिए बिना बीरबल ने अपने बगल मे बैठे एक आदमी से बादशाह अकबर का भी नाम लिख लेने को कहा। बादशाह ने आदमी के हाथ में थमा कागज़ का पुलिंदा ले लिया। उस पर लिखा था ‘अंधे लोगों की सूची।’ बादशाह ने बीरबल से पूछा,‘ इसमें मेरा नाम क्यों लिखा है? बीरबल ने कहा, ‘जहाँपनाह, आपने देखा भी कि मैं चारपाई बुन रहा हूँ, फ़िर भी आपने सवाल पूछा कि मैं क्या कर रहा हूं?’
बादशाह ने देखा उन लोगों की सूची मे एक भी नाम नहीं था जो देख सकते थे, लेकिन अंधे लोगों की सूची का पुलिंदा बेहद भारी था ! बीरबल ने कहा ‘हुजुर, अब तो आप मेरी बात से सहमत होंगे कि दुनिया मे अंधों की तादाद ज्यादा है।’
बीरबल की इस चतुराई पर बादशाह मंद-मंद मुस्करा दिए।
तेनालीराम
आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के गली पाडु नामक कस्बे में एक सामान्य गृहस्थ के घर में तेनालीराम का जन्म हुआ था। उनके धर्मपरायण माता-पिता ने उनका नाम रामलिंगम रखा। तेनालीराम यानी रामलिंगम अभी बहुत छोटा था, तभी उसके पिता का निधन हो गया। रामलिंगम की माता पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। वे अपनी ससुराल ‘गलीपाडु’से अपने भाई के पास लौट आईं। उनका भाई ‘तेनाली’ नामक कस्बे में रहता था। इसी कस्बे और उनके नाम रामलिंगम को मिलाकर उनका नाम तेनालीराम पड़ा। माना जाता है कि अपनी कुशाग्र बुद्धि और विनोदप्रियता के कारण वे राजा कृष्णदेव राय के दरबारी बने। उन्होंने राजा के दिल में एक खास जगह बना ली। माना जाता है कि तेनालीराम 1509 से 1529 के बीच राजा कृष्णदेव राय के दरबार में थे। वे तेलुगू में काव्य रचना भी करते थे। तेनालीराम की गिनती राजा के अष्टदिग्गजों में होती थी। दरअसल राजा के दरबार में आठ कवि थे, उनमें एक तेनालीराम भी थे। इन अष्टदिग्गजों का जनता में बहुत सम्मान था।
राजा कृष्णदेव राय की यह आदत थी कि वे कई बार उलटे-पुल्टे सवाल करके सबसे उनके जवाब मांगते थे| एक दिन राजा ने तेनालीराम से पूछा, ‘क्या तुम बता सकते हो कि हमारी राजधानी में कुल कितने कौवे रहते हैं? यह प्रश्न सुनकर कुछ दरबारी हंस पड़े। पर तेनालीराम तपाक से बोले, “हां बता सकता हूँ महाराज।’ दरबारी चकराए। महाराज बोले, ‘बिलकुल सही गिनती बताना|’
‘जी हां महाराज, बिलकुल सही बताऊंगा।’ तेनालीराम ने जवाब दिया|
दरबारी मन ही मन खुश हो रहे थे कि आज तेनालीराम ज़रूर फंसेगा| भला परिंदों की गिनती संभव हैं?
‘तुम्हे दो दिन का समय देता हूं। तीसरे दिन तुम्हें बताना है कि राजधानी में कितने कौवे है|- महाराज ने आदेश की भाषा में कहा |
तीसरे दिन दरबार लगा| तेनालीराम अपने स्थान से उठकर बोले, ‘महाराज, हमारी राजधानी में कुल एक लाख पचास हज़ार नौ सौ निन्यानवे कौवे हैं | महाराज कोई शक हो तो गिनती करा लें।’
राजा ने कहा, ‘गिनती होने पर संख्या अगर ज्यादा या कम निकली तो?’
‘ऐसा नहीं होगा।’ पूरे विश्वास से तेनालीराम ने कहा, ‘अगर गिनती गलत निकली तो इसका भी विशेष कारण होगा।’ राजा ने
कहा, ‘क्या कारण हो सकता है?
तेनालीराम ने जवाब दिया, ‘यदि, राजधानी में कौवों की संख्या बढ़ती है तो इसका मतलब है कि हमारी राजधानी के कौवों के कुछ रिश्तेदार और इष्ट मित्र उनसे मिलने आए हुए है | संख्या घट गई है, तो इसका मतलब है कि हमारे कुछ कौवे राजधानी से बाहर अपने रिश्तेदारों से मिलने गए हैं| वरना कौवों की संख्या एक लाख पचास हज़ार नौ सौ निन्यानवे ही होगी|’
तेनालीराम से जलने वाले दरबारी अंदर ही अंदर कुढ़ कर रह गए कि हमेशा की तरह यह चालबाज़ फिर से अपनी चालाकी से बच निकला |
गोनू झा
माना जाता है कि गोनू झा का जन्म तेरहवीं शताब्दी में दरभंगा के भरवारा गांव में हुआ था। वे एक सीधे-सादे किसान थे, लेकिन हाज़िरजवाबी और चतुराई में बड़े-बड़े विद्वान को धूल चटा देते थे। वे चुटकियों में समस्याओं को सुलझा देते थे। उन्हें मिथिला में वही सम्मान प्राप्त था जो दक्षिण में तेनालीराम और उत्तर भारत में बीरबल को प्राप्त था। उन्हें मिथिला के राजा हरि सिंह का संरक्षण प्राप्त हुआ था। हरि सिंह के दरबार में उन्हें खास महत्व मिला हुआ था। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि गोनू झा के जीवनकाल की घटनाओं के साथ ही विभिन्न काल खंडों में गोनू झा के किस्सों में नए किस्से भी जुड़ते गए हैं।
एक दिन मिथिला के राजा हरि सिंह ने दरबारियों को एक भैंस और एक बिल्ली पकड़ा दी | कहा कि इन दोनों को आप अपने घर ले जाइए और बिल्ली को खूब खिलाएं-पिलाएं। वह जितना दूध पी सके, पीने दें | एक साल बाद जिसकी बिल्ली सबसे मोटी होगी उसे इनाम दिया जाएगा |
सभी दरबारी भैंस और बिल्ली लेकर अपने घर आ गए। गोनू झा भैंस को खूब खिलाते लेकिन भैंस जितना दूध देती, सारा बिल्ली ही पी लेती | गोनू झा इससे परेशान हो गए। उन्होंने सोचा कि भैंस को इतनी मेहनत से खिलाता हूं लॆकिन सारा दूध बिल्ली पी लॆती है | यदि बिल्ली को दूध नहीं दिया तो बिल्ली पतली हो जाएगी | तब राजा मुझे दंड देंगे, क्यों न कुछ ऐसा उपाय करुं जिससे सांप भी मर जाय और लाठी भी न टुटे |
उन्होंने अगले ही दिन एक बर्तन में दूध को खूब उबाला और बिल्ली को बुलाया। बिल्ली ने जब कटोरे को मुंह लगाया तो बिल्ली का मुंह जल गया। गोनू झा ने बिल्ली की गर्दन को कुछ देर तक गर्म दूध में डुबोये रखा। बिल्ली चीखती रही। थोड़ी देर बाद उसे छोड़ा गया तो भाग गई | ऐसा गोनू झा ने तीन-चार दिनों तक लगातार किया। उसके बाद बिल्ली दूध के कटोरे को देखकर ही भाग जाती |
इस तरह एक साल बीत गया। राजा ने अपनॆ दरबारियों को बुलाया। सबकी बिल्ली मंगवाई गई। सभी बिल्लियां मोटी ताजी थी | लॆकिन गोनू झा की बिल्ली दुबली-पतली थी| राजा ने गोनू झा से इसका कारण पूछा। गोनू झा बोले, ‘महाराज, इसमें मेरा कोई दोष नहीं। मेरा भाग्य ही खोटा है | मॆरी बिल्ली तो दूध पीती ही नहीं |‘ राजा ने कहा, आप मुझे बेवकूफ बना रहे हैं। भला बिल्ली दूध न पिए, ऐसा कैसे हो सकता है ?
गॊनु झा बोले, ‘आप जांच कर लें हुज़ूर!’ फ़ौरन एक कटोरा दूध लाया गया | उसे देखते ही बिल्ली भाग गई। | कई बार लोगों ने कोशिश की पर बिल्ली कटोरे कॆ पास तक नहीं आई | फिर एक थाली चावल लाया गया तो बिल्ली नॆ झट सॆ खा लिया|
राजा ने कहा, ‘इसमें जरुर गोनू झा की कोई चतुराई ही है, कि उन्होंने बिल्ली को दूध पीने से रोक दिया। इसलिए पहला इनाम उन्हीं को देता हूं |
गोपाल भांड
गोपाल भांड के किस्से पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में मशहूर हैं। माना जाता है कि वह 1710 से लेकर 1783 तक बंगाल के नदिया के राजा कृष्णचंद्र के दरबार में रहे। वे राजा के नवरत्नों में गिने जाते थे। गोपाल भांड अपनी सूझ-बूझ और चतुराई से राजा सहित आम जनता की समस्याओं को सुलझाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
एक बार राजा कृष्णचंद्र की सभा में बाहर से आए एक पंडित पधारे। वह उस समय के भारत में प्रचलित अधिकाशं भाषाएं, यहां तक कि संस्कृत, अरबी, फारसी आदि प्राचीन भाषाओं में धाराप्रवाह बोलते हुए अपना परिचय देने लगे। पंडित जी द्वारा कई भाषाओं में बोलने पर राजा कृष्णचंद्र ने अपने दरबारियों की ओर संशय भरी दृष्टि से देखा। लेकिन दरबारी यह अनुमान न लगा सके कि दरबार में पधारे पंडित जी की मातृभाषा क्या है?
राजा कृष्णचंद्र ने गोपाल भांड से पूछा, 'क्या तुम कई भाषाओं के ज्ञाता अतिथि पंडित की मातृभाषा बता सकते हो?' गोपाल भांड ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा,' राजन, मैं तो भाषाओं का जानकार हूं नहीं, किंतु यदि मुझे अपने हिसाब से पता करने की आजादी दी जाए तो मैं यह काम कर सकता हूं।' राजा कृष्णचंद्र ने स्वीकृति दे दी।
दरबार की सभा समाप्त होने के बाद सभी दरबारी सीढ़ियेां से उतर रहे थे। गोपाल भांड ने तभी अतिथि पंडित को जोर का धक्का दिया। वे अपनी मातृभाषा में गाली देते हुए नीचे आ पहुंचे। सभी जान गए कि उनकी मातृभाषा क्या है।
गोपाल भांड ने विनम्रता से कहा, 'देखिए, तोते को आप राम-राम और राधे-श्याम सिखाया करते हैं। वह भी हमेशा राम-नाम या राधे-श्याम सुनाया करता है। किंतु जब बिल्ली आकर उसे दबोचना चाहती है, तो उसके मुख से टें-टें के सिवाय और कुछ नहीं निकलता। आराम के समय सब भाषाएं चल जाती हैं, किंतु आफत में मातृभाषा ही काम देती है। अतिथि पंडित बड़े लज्जित हुए।
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