उम्मीद
अभी अभी
यहां से गुजरा एक जानवर
चालीस साल पहले
मेरे पूछे जाने पर कि
कब तक बदल डालोगे दुनिया
कहा था— यही कोई आधी सदी लगेगी
अब —जब
मैंने जानना चाहा
चालीस साल बाद
उनके आदमी से जानवर में तब्दील होने का कारण
मुरझाते मेरी आशा के बिरवे पर
सींचते विश्वास जल
मुस्कुराकर उसने कहा —
बिरादर ही बिरादर की भाषा समझता है
हो न हो
इस दशक के अंत तक बदल जाए
सिर्फ उम्मीद पर तो कायम है
ये दुनिया।
——
अगर पूछा जाए
अगर पूछा जाए
क्या बनना चाहते हो ?
मेरा जवाब होगा —
चोर
कर देना चाहता हॅूं
कंगाल भारतवासियों को
चुराकर उनके मन के भय और दहशत।
अगर पूछा जाए
क्या करना चाहते हो ?
मेरा जवाब होगा —
विद्रोह
खींचकर ला देना चाहता हॅूं
जनता के सामने
मुखौटों में छिपे
मक्कार चेहरों को।
——
जागो
जागो तो सही तुम
भले मत दौड़ना डंडा लेकर
तुम्हारे खड़ा होने की आहट पा
हाँक सुनते ही
भाग खड़े होंगे
सारे हिंसक पशु
छोड़कर फसलों को रौंदना
फिर तुममें
नहीं होगी लड़ाई
रोटी को लेकर।
——
श्रध्दा
नहीं देता मैं पानी
इस पीपल के पेड़ को
यह सोचकर कि
वास है देवता का
बस एक लालसा
पुरखों की मेरे प्रति
मेरी पीढ़ी के प्रति
कि देता युगों —युगों रहे
प्राण ,दवा ,शान्ति
यह पाषाण —प्रतिमा तो एक बहाना मात्र है
जिंदा रखने के लिए
इस विषाल वृक्ष को।
1— मॉ का जीवन
रात सारी मां की
आंखों में कटती है
जाने कब कंस
काली कोठरी मे आ धमके।
सुबह बच्चे को स्कूल भेजते वक्त
मुंह पे आ जाता है कलेजा
देखकर भयानक कलजुगी वाचाल चेहरा
गूंगे अखबारों का।
मन को मथते
माथे को कुरेदते
घुमड़ती रहती है पूरे दिन
चिंताओं की भीड़
कि मेरा नयनाभिराम
किसी से लड़ तो नहीं
रहा होगा ?
और मेरी कोमलांगी सीता ?
हाय राम !
पता नहीं कब कहां
क्या घट जाए
बढ़ रहे हैं दिन — ब — दिन
रक्तबीज से यहां
दशानन — दुशासन।
जैसे — तैसे आती है
ढलान पर शाम
सुनकर घण्टी की आवाज
जब दरवाजा खोलती है मॉ
देखते ही
अपनी अॉंखों के तारे को
सीने से लगा
पा लेती है गोद में
भरपूर सतयुग।
न जाने दिन भर में
इस तरह
कितने जुग जी लेती है माँ।
...
2— माँ का मन
बिन पेंदी का लोटा
मां का मन।
वरना फड़फड़ाकर गिर पड़ेगी
अधीर मां
बच्चा आंखों में होना।
बच्चा मुस्कुराया नहीं कि
खिल उठी मां
बच्चा बुदबुदाया नहीं कि
बोल उठी माँ
लड़खड़ाया नहीं कि
दौड़ पड़ी चिल्लाते
दुलक आये पलकों पर
कंचन के कंचों को
झटपट आंचल में समेट
समझाने बैठ गयी
माँ — बेटा !
ऐसा नहीं करते
वैसा नहीं करते, बेटा !
सचमुच पागल सी
होती है मॉ।
सर्द मौसम के चार रूप
1
रात जैसे उजास के बिछोह में
लरजते पेंड़ों के कंधे पर सिर रख
रो रही मसक मसक
ओढे अंधेरा
सन्नाटा चुप खड़ा
बच्चा अबोध—सा
2
सुबह जैसे रूई के ढेर पर
सहमती ठिठकती चलती गिरती
फिर से उठती सहमती ठिठकती चलती नन्ही सी गुड़िया
हाथ दे दे बुलाता बाप सा सूरज
टूटकर बिखर पड़ती मोतियों की माला
मनकों को बीनते भाई—से घास
3
दुपहरी जैसे नई ब्याही दुल्हन
सजधज के सोने से धानी जेवर से
देखती नम दर्पण में बार—बार मुखड़ा
फाड़—फाड़ सरसों के फूल—सी आँखें
पीछे से बाँधकर धूप की बाँहों में
गुदगुदा रहा चूम—चूम सूरज सजन—सा
4
शाम जैसे तेजी से
उम्र के पड़ावों को पार करती दादी
शनैः—शनैः बढ़ता आँखों का अँधेरा
गालों के पोपलई
जाँगर की जर्जरता
लाठी की जरूरत
और कमर का झुकाव
तब भी बार—बार फिसलते नटखट सूरज को
पीठ पर लादे सुनाती कहानी
इस पेड़ से उस पेड़ के नीचे
घूम—घूम
सूरज तो सो जाता
देते हुँकारू चॉद और तारे
सुर मिलाते कोलिहा और कुकुर॥
सावधान !
मानवता
दुबकी बैठी है कमरे में
लाचारी की कुण्डी लगा
द्वार
खटखटा रही गरीबी
काँपते हाथों
हो गयी सूनी गलियाँ
राहतों की
गश्त लगाती है
ऊँची सेंडल पहनें
मौत मँहगाई की
आम सभा आयोजित करतीध्रोज
कहीं न कहीं
धरने पर बैठती
बीमारियॉ
चीथते चौराहे पर
चील कौअे सत्य शव
पता नहीं
पाप या पुण्य से
मॉग रहा मौत या जिंदगी
मगर गिड़गिड़ा रहा है धर्म कुछ
स्वार्थी श्रध्दालुओं की भीड़ बेकाबू
सीखते सीखते तैरना
तरने तारने लगे
बारहों मास कुंभ मेले में
झूठ भ्रष्टाचार फरेब संगम पर
इठला रहा है भय
अपनी अशेष जवानी पर
हो चुका पसीना श्रम पर मेहरबान
जब से टॉगा है दरवाजे पर
सुविधाओं ने बोर्ड
कुत्ते से सावधान !
भीड़
ये भीड़ है बाबू, नासमझ भीड़
भीड़ जानती हैं
सिर्फ पत्थर को पूजना
पत्थर से मारना
पत्थर हो जाना
और, पत्थर पर नाम खुदवाना
चीखोगे, चिल्लाओगे नहीं सुनने वाले
समझाना चाहोगे नहीं बूझने वाले
चुपचाप चलोगे नहीं गुनने वाले
हाँ, पागल कहकर पत्थर जरूर मारेंगे
तुम चाहते हो
आदमी, आदमी बना रहे
मेरी मानो ! बैठ जाओ कहीं भी
पत्थर होकर।
दोहे
राजनीति एक राक्षसी, पद अक्षरों के चार।
राजा रहते जकड़ के, नीति करे तिरस्कार॥
रंग रंगीली दुनिया, फैशन रंग दिखाय।
चेहरे सेहरे छिपे, बाकी अंग दिखाय॥
अबला मांसल जीव बस, नर पिशाच है भील।
भीतर चूहे चीथते, बाहर कौंआ चील॥
नौकरी सरकारी में, पांव रखन की देर।
बैठ सो लोटो लूटो, करो फेर पर फेर॥
पेड़ पूजा योग्य है, मानव रे मत भूल।
दें जल—वायु और दवा, छांव पान—फल—फूल॥
कैसा युग आया गयी, मानवता है सूख।
भाई — भाई भीड़ते, पैसों की है भूख॥
संस्कारों की वाहिनी, जोड़े घर परिवार।
शक्ति का अवतार नारी, जनम लिए संसार॥
धन भी जाये मान भी, तन — मन का हो नाश।
टूटे घर परिवार जग, नशा नरक की फाँस॥
प्रगतिशील इस युग में, नित—नित नव—नव योग।
होते धनी और धनी, निर्धन निर्धन लोग॥
संस्कारों के देश में, यही बड़ा है खेद।
शक्ति पूजा होती जहॉ, लड़का — लड़की भेद॥
बिन मोल सब कुछ ले ले, जो खुद है अनमोल।
हसि सुहागा सोने पे, तोल — तोल कर बोल॥
आना जाना है लगा, सुख—दुख में मत डोल।
जैसे मोती सीप बस, बना खुशी का खोल॥
जगह—जगह मदिरा मिले, पक्ष—विपक्ष मति मौन।
बहक बूढ़ा रहे युवा, जिम्मेदान है कौन॥?॥
छल कपट धोखा फरेब, कलयुग की सौगात।
बेईमान सुखी सदा, सिधवा खाये लात॥
मूक मंदिर भटक—भटक, क्या पाये हैं आप ?
जीव जग सब देवों के, महादेव माँ —बाप॥