बगिया* का पेड़ और भिखारिन बुढ़िया (एक बज्जिका जनश्रुति पर आधारित)
एक भिखारिन बुढ़िया थी जिसे एक ‘कोरपोछुआ’ बेटी मरनी थी. कोरपोछुआ यानी सबसे पीछे जन्मी संतान. चार भाई-बहनों में मरनी ही केवल जिन्दा बची थी. मरनी थी तो बला की खूबसूरत मगर एक अत्यंत गरीब घर में पैदा हुई थी. कोढ़ में खाज़ यह कि एक भिखारिन की कोख से. उसका मरनी नाम जानबूझ के रखा था उसकी भिखारिन माँ ने. एक तो वह जन्म के समय ही मरते-मरते बची थी, इसलिए भी यह नाम, दूसरे कि अन्य सब संतानों को उनकी छुटपन में ही खो चुकी माँ ने एक शगुन यानी गाँव-देहात की सुनी-सुनाई बात और परम्परा के तहत वह नाम रखा था कि बुरे नाम वाले बच्चे पर डायन-जोगन आदि की बुरी नजर नहीं लगती. कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि भिखारिन माँ तो खुद ही हँका-हकिन की (भयानक) डायन है जिसने अपने बच्चों को भी खा लिया! भिखारिन के अलावा उसकी टूटी-फूटी मरैया (झोपड़ी) में यही बस एक अन्य सदस्य रहती थी जिसकी शादी कर देने का मन बना रही थी यह सोच कर कि वह अब सयानी हो गयी है.
एक दिन की बात है, भिखारिन मांच-चांग कर जब शाम को वापस घर लौट रही थी तो पास के गाँव के एक वीरान चौर में उसने भैंस चराते एक चपल-सुन्दर किशोर को देखा. भोला नाम था उसका. यथा नाम तथा गुण. निहायत ही विनम्र और आकर्षक डील-डौल. एक ही नजर में वह भिखारिन की नजर में जंच गया. भिखारिन ने सोचा कि क्यों न इस बालक को बहला-फुसला कर घर ले जाऊं और इससे अपनी बेटी का ब्याह रचा दूँ. भिखारिन ने उस लड़के से पहले तो उसका पता-ठिकाना और माँ-बाप के बारे पूछ लिया फिर यह निर्णय लिया था. भिखारिन ने एक बड़ा सा झोला अपने पास रखा था जिसमें भीख में मिली वस्तुएं और अनाज थे. किशोर को उस बोरे के अन्दर रखी वस्तुओं के बारे में उत्कंठा थी. कुछ देर की बातचीत में ही भोला उस भिखारिन से पटिया (घुल-मिल) गया था. बुढ़िया ने अपनी योजना की ओर एक कदम और बढ़ाते हुए बालक से कहा - “इसमें ढेर सारे फल हैं. अमरूद, आम, लीची, केले. क्या तुम खाओगे?” भोला ने हाँ में अपनी मुंडी हिलाई. जाल का पासा आगे फेंकते हुए बुढ़िया ने कहा-“ ये सारे फल तेरे हो जायेंगे अगर तू एक शर्त पूरा कर सको.” “वह क्या भला?”- भोला ने पूछा. “ऐसे ही दूसरे बोरे में समा कर दिखाओ और बंद ही मेरे घर तक चलने को तैयार होओ.”- बुढ़िया बोली. “इसमें कौन सी बड़ी बात है? मैं तो यह काम यूँ (चुटकी बजाने का इशारा) ही कर दूंगा. लेकिन मुझे तो घर भी लौटना है न!”- भोला ने कहा. बुढ़िया ने कहा, “ठीक है फ़िर. वह जो सामने उस पेड़ के पास बड़ा गेरुए रंग का बड़ा मकान दिख रहा है उसी के पास मेरी झोपड़ी है. बस, तुम वहां मेरी पीठ पर लदे बोरे के साथ पहुंचे और शर्त जीत गए. फिर मैं तुम्हें ये सारे फल और साथ ही कुछ पैसे भी देकर फ़ौरन विदा कर दूंगी. तो यह लो, दूसरा ऐसा ही बोरा”. भोला फ़ौरन बोरे में घुस गया. इधर, सचेत बुढ़िया ने चट से बोरे का मुंह बांध दिया और उसे पीठ पर लाद आगे चल दी. बोरा पुराना था और कहीं कहीं से फटा हुआ, जिससे उसकी साँस तो चल रही थी पर बड़ी मुश्किल से. इस उम्र में भी हट्ठी-कट्ठी बुढ़िया तेज कदमों से आगे बढ़ने लगी. साँझ भी ढलने को थी. बुढ़िया सौ-दो सौ कदम ही आगे बढ़ी होगी कि भोला को कुछ बुरे का अंदेशा हुआ. अब बोरे में बंद भोला की घुटन और डर से बुरा हाल था. उसकी पेशाब निकल आई थी. पेशाब की गर्मी ने जब भिखारिन की पीठ पर अपना अहसास कराया तो वह फौरन रुक गयी और बोरा को नीचे रखा. भोला की धीमी आवाज़ बाहर आई - “भिखारिन चाची, भिखारिन चाची, मुझे थोड़ी सू-सू करवा दो, फिर आगे बढ़ना.” और बुढ़िया ने ज्यों ही बोरा का मुख खोला भोला लत्तो-पत्तो हो गया, यानी, सर पर पैर रखकर भाग खड़ा हुआ. पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं.
तीन-चार महीने बीते. बुढ़िया फिर एक शाम अपने घर को वापस लौट रही थी कि उसी कदम के पेड़ के पास भोला चरवाही करता मिला. वह बगिया के पेड़ पर चढ़ा हुआ था. बुढ़िया के पास आते ही उसने शिकायत की - “ऐ बुढ़िया, तुम तो बहुत बुरी हो. उस दिन तेरा इरादा अच्छा नहीं था. तुम बोरे में धोखे और बहाने से बंद कर कहीं ले जाकर मेरा कुछ बुरा करना चाह रही थी. जाओ, तुमसे मुझे बात भी नहीं करनी.” भोला तो आखिर भोला था. बुढ़िया ने अपनी इकलौती बेटी की कसम खाई और भोला की नजर में अपने को निहायत ही शरीफ और पाक-साफ़ साबित कर ही लिया. बुढ़िया ने देखा कि तीर निशाने पर लग चुका है और शिकार झोली में गिरा ही चाहता है - “बेटा, आज बड़ा अपशकुन वाला दिन ठहरा मेरे लिए. भीख में दो-चार दाना अन्न ही मिले हैं झोली में. फल-फूल तो कुछ भी नहीं मिला आज. दो-चार दाना बगिया का तोड़ कर मेरे हाथ में दे दो बेटा.” पर भोला के मन की शंका अभी खत्म न हुई थी. वह बोला- “नहीं बुढ़िया, तू बड़ी सयानी है. फिर मुझे पकड़कर अपनी झोली में बंद करना चाहती है. नहीं तो हाथ में ही क्यों बगिया का फल लेना चाहती है, झोली में क्यों नहीं लोकना चाहती है तू? लो, झोली फैलाओ, मैं ये फल तोड़ के गिरा देता हूँ, चोट भी नहीं खाएंगे और गन्दे भी न होंगे.” बुढ़िया ने कहा - “लेकिन बेटा, तब तो ये फल इसमें गिरकर झोलाइन हो जाएँगे न!” “तो फिर मैं घास पर ही इन्हें गिरा देता हूँ, ठीक न?” “नहीं बेटे, फिर ये गिरकर घसाइन हो जायेंगे.” आगे, बुढ़िया ने जैसे भोला की शंका का बड़ी मासूमियत से निवारण करते हुए कहा- “बेटा, तू मुझपर नाहक ही शक करता है और मेरे पास आने से डरता है. अब इस उमर में भला मैं कोई छल-प्रपंच कर अपना परलोक बिगाडूँगी? इन फलों को मैं देवता पर चढ़ाऊँगी, सो, सीधे हाथ में लेकर इन्हें एहतियात से रखूंगी.” अब तक भोला उस शातिर बुढ़िया के झांसे में आ चुका था. उसने कहा - “तो बोल, चाची, कैसे दूँ फल तुझे?” “बड़ा आसान है बचवा! बस, बेटा, तू लबक (झुक) के मेरे हाथ के पास फल बढ़ा दे, मैं छबक (उचक) के उन्हें हाथ में पकड़ता जाऊंगा और अपनी झोली में रखता जाऊंगा.” और, जैसे ही पहला ही फल तोड़ भोला ने पेड़ की डाली से नीचे की ओर झुकते हुए एक हाथ से डाली पकडे दूसरा बगिया वाला हाथ बुढ़िया की ओर बढाया, बुढ़िया ने जवान सा ऊपर छलांग मारते हुए झपट्टा मार भोला का बढ़ा हाथ बड़ी फुर्ती से पकड़ लिया और नीचे की ओर मजबूती से खींच लिया. अगले ही पल भोला भिखारिन की झोली में बंध चुका था. इस बार फिर से भोला को रास्ते में पेशाब हो गई और भरपूर हुई, पर भोला के पेशाब से अपने चेहरे के सराबोर हो जाने के बावजूद बुढ़िया ने अपने घर पहुँच ही बोरे को जमीन पर रखा.
बोरा को खोलने से पहले सारी बात और योजना बुढ़िया ने अपनी बेटी को एकांत में समझा दी. यह जानकर मरनी की ख़ुशी का ठिकाना न रहा कि इस सुन्दर छरहरी काया के किशोर से उसकी शादी होगी. वह अपने होने वाले दूल्हे को देखने को मचल उठी. बुढ़िया ने एक कमरे में ले जाकर सावधानी से बोरे का मुंह खोला और भोला को बाहर निकाल कर ढेंकी से बांध दिया. बोरे से बाहर निकल भोला की अटकी सी सांसे अब धौंकनी की तरह चलने लगी थीं. पर भोला ने झट अपनी घबराहट पर काबू कर अपनी साँस को सहज किया एवं चेहरा को सामान्य बनाने की भरसक कोशिश की. बुढ़िया की कुटिलता उसके सामने थी. वह गुस्सा और भय से काँप रहा था लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहा था. भोला के प्रति अपनी माँ का यह बर्ताव मरनी को भी बेशक बुरा तो लगा था कि कैसे उसे जानवर से भी बुरे तरीके से और छल-छद्म के सहारे यहाँ लाया गया था, पर यह सोच सोच कर वह रोमांचित भी हुई जा रही थी कि माँ ने ही तो आखिर उसे यह प्यारी सौगात लाकर दी है! जीवन को संवारने वाली अनूठी सौगात, तरीका चाहे बुरा-बेढब और अमानुषिक भले ही हो! उसने तत्क्षण ही सोच लिया कि माँ की ओर से तुरंत मैं भोला से क्षमा मांग लूंगी, उसे मना लूंगी.
रात में थकी-मांदी बुढ़िया जब खर्राटे भरने लगी तो सुन्दर चंचल किशोरी मरनी भोला के पास जा पहुंची. वह मैले-कुचैले सलवार-कमीज में भी बड़ी प्यारी लग रही थी. भोला की ओर से एक किशोर का विपरीत सेक्स के प्रति स्वाभाविक दैहिक आकर्षण था यह. पर जिस भयावह तरीके से वह यहाँ लाया गया था यह सुखद अवसर भी उसे किसी अनागत-अनजाने भय के चलते बहुत अच्छा नहीं लग था. उधर, तरुणाई की ओर बढ़ती मरनी के लिए भी किसी हमउम्र और विपरीत सेक्स से खुलकर मिलने और बोलने-बतियाने का यह पहला सुअवसर था. उसकी तो मानो बिन मांगे ही मुराद पूरी हो गयी थी. भोला के प्रति उसका खिंचाव सहज ही दिखाई दे रहा था. कहते हैं, खून, खैर और ख़ुशी छुपाये नहीं छुपती. वह उसे मनभर देखना चाहती थी, बोलना-बतियाना चाहती थी. मगर भोला का चेहरा उड़ा हुआ था, भयाक्रांत था, उसके बंधन मरनी द्वारा खोल दिए जाने के बावज़ूद, उसकी ओर से कोई सकारात्मक संकेत मिलना तो दूर की बात थी. मरनी के किसी भी प्रश्न का उत्तर वह हाँ, हूँ से अधिक में दे नहीं रहा था. रात अब अधिक बीत चुकी थी, मगर मरनी के समझाने-बुझाने-अनुनय-विनय का जतन जारी था. प्रभाव यह हुआ कि भोला ने अनमने ही सही दो-चार कौर खाना मुंह में डाल लिया, खीर तो मरनी ने अपने हाथों से और आज बड़े अरमान से बनाई थी. अपने हाथों की बनाई खीर को भोला को खाते देख मरनी को भारी तृप्ति मिली. उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. अब वह भोला से बोलने-बतियाने को बेक़रार हो चली थी.
इधर, मरनी के आत्मीय व्यवहार में भोला ने एक आश्वासन तो जरूर पाया था पर यह सर्वथा निष्कपट ही था, यह मानने को उसका दिल अबतक तैयार न था. दूध का जला मट्ठा भी फूंक फूंक कर पीता है. उसकी भिखारिन मां से मिला धोखा और छल अभी ताज़ा था, बिसर नहीं पा रहा था भोला. वह अभी भी भयभीत था और भागने की जुगत में था. उसे एक युक्ति सूझी. उसने अपनेआप को सहज करने की कोशिश की और आगे से मरनी के निश्छल से स्नेह एवं व्यवहार के प्रति स्वीकार भाव दिखाने का मन बनाया.
भोला के लड़की के से लंबे काले-कजरारे बाल उसकी आकर्षक देश-दशा और सुन्दर चेहरे-मोहरे पर सोने में सुंगंध की तरह शोभते थे. मरनी तो जैसे उसके इन सुन्दर बालों को देख सम्मोहित हो गयी थी. उसके अपने बाल काफी छोटे थे. भोला के बाल इतने सुन्दर कैसे बने, यह जानने की उत्कंठा उसके अन्दर हिलोरें मार रही थीं. भोला के मूड को भांप डरते-हिचकते उसने कहा - “भोला एक बात पूछूं?” इशारे में भोला से पूछने की अनुमति मिली तो आगे पूछ बैठी – “तुम्हारे बाल इतने बड़े घने और काले कैसे हैं भोला? मुझे तो तुम्हारे जैसे ही बाल चाहिए.” “बहुत आसान है. मेरी मां ने मुझे कभी बताया था कि उन्होंने ओखल में मेरा सर डाल हौले से उसे मूसल से कूट दिया था, और मेरे बाल ऐसे सुन्दर लम्बे बन गये.” - भोला ने सहज चित्त होकर कहा. पर अन्दर ही अन्दर वह खुश था कि अब दोहरा मौका है. भिखारिन की इस बेटी को ओखली में कुचल कर मार कर उसकी मां के बुरे बर्ताव का बदला ले लूँगा और भाग भी निकलूंगा. “तो भोला, देर किस बात की, मेरे बाल भी अपने जैसे बना दो न. यह देखो यहीं कोने में ओखल और मूसल पड़ी है.”- अपने बाल लंबे देखने को बेकरार मरनी ने झट ओखल के पास जाकर कहा और भोला के वहां पहुँचते ही उसने अपना सर ओखल में डाल मूसल चलाने को कहा. भोला ने एकबारगी मूसल उठाया भी पर मरनी के सर पर मारने उठे उसके हाथ कांपने लगे. उसने अपने हाथ वापस खींच लिए. मूसल एक ओर रख वह ओखल के पास खड़े-खड़े वह एकबारगी हुचकी मार-मार कर सुबकने लगा था. इधर मरनी अपना सर ओखल में गाड़े हुई थी और मूसल की चोट का बेसब्र इंतजार कर रही थी. भोला को रोते देख अचंभित थी. उठ खड़ी हुई, वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर माजरा क्या है? भोला ने सुबकते-सुबकते अपने मन की सारी उलझन बता दी. भोला के चित के अन्दर घर कर आये स्वाभाविक अविश्वास और आक्रोश के बर्फ का उत्ताप अब एक झटके में पिघल चुका था. मरनी के लिए भी अब संकोच और हिचक का कोई आवरण न रख अपने मन को खोल देने का अवसर था! वह महज दो हाथ की दूरी पर खड़े भोला पर जा गिरी और उसे अपनी बांहों में कसकर भींच कर लिपट गयी थी. वह फफक फफक कर रो पड़ी थी. भोला की बाहें भी स्वतः मरनी को आलिंगन बद्ध करने को आगे बढ़ चली थीं. दोनों नव युवा देह की गर्म-गर्म सांसों की चलती धौंकनी तेजी से चलने की होड़ में थी...
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*मिथिलांचल के सीतामढ़ी क्षेत्र में ‘बगिया’ पोठिया मछली के आकार में बनाया जाने वाला खाद्य आइटम है जो चावल के आटे को गूंथकर खौलते पानी में सिंझाकर बनाई जाती है. किसी-किसी इलाके में इसे पीठा भी कहते हैं. बगिया के अन्दर कुर्थी, चना, मूंग आदि की उबली हुई दाल आदि को पीसकर नमक, अदरक, गोलमिर्च आदि के साथ मिलकर भर कर भी बनाया जाता है, अथवा सादा भी. यहाँ कथा में बगिया को पेड़ पर उगता हुआ दिखाया गया है. वैसे, हो सकता है, बगिया-नुमा कोई फल भी किसी ज़माने में हुआ हो. अभी जलेबी नाम का फल पेड़ पर उगता है जो खाने में कसैला होता है, ठीक हलवाई द्वारा बनाई जाने वाली जलेबी के आकार का यह होता है. ऐसे ही, एक तिकोना पानी फल सिंघाड़ा होता है जो देखने में समोसा की आकृति का होता है, समोसा को बिहार में सिंघाड़ा भी कहा जाता है.