मैं यहाँ हूँ पुन्नालाल
डा. सुनीता
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दुल्लापुर गाँव में एक बहुत प्रसिद्ध वैद्य थे, पुन्नामल। दूर-दूर तक उनका नाम था। गुणी इतने कि लोग उन्हें धन्वंतरि समझते थे। गाँव में जिसे भी कोई तकलीफ होती, वह सीधा वैद्य पुन्नामल के पास जाता। वैद्य जी ध्यान से मरीज की बात सुनते और फिर दवा देते।
वैद्य जी बोलते बहुत कम थे। पर रोग का जैसे ही पता चलता, उनकी आँखों में एक अजीब-सी चमक आ जाती। फिर झटपट वे जड़ी-बूटियाँ निकालकर पीसने लगते। छोटी-छोटी पुड़ियाँ बनाकर देते। उन्हें कैसे लेना है, क्या पथ्य-परहेज रखने हैं और क्या-क्या खाना-पीना है, इस बारे में खूब अच्छी तरह बताते। कुछ ही दिनों में मरीज ठीक हो जाता और खुशी-खुशी अपने काम में लग जाता।
वैद्य जी अपनी दवा की फीस भी इतनी कम लेते थे कि लोग खुशी-खुशी देते और स्वस्थ होने पर आभार जताते। आसपास के गाँवों के लोग वैद्य जी के गुणों और सेवा-भावना के कारण उन्हें सिर-आँखों पर बिठाते थे।
पर एक बार की बात, खुद वैद्य पुन्नामल मुसीबत में पड़ गए। उनकी कमर में अचानक फोड़ा हो गया जो बढ़ता ही जा रहा था। फोड़ा बहुत कष्टकारी था। उसका खिंचाव इतना था कि वैद्य जी के लिए उठना- बैठना, लेटना तक मुश्किल हो गया।
ऐसा नहीं कि वैद्य जी को पता न हो कि इसका निदान क्या है? पर दुर्भाग्य से इस फोड़े को ठीक करने के लिए जो जड़ी-बूटी चाहिए थी, वह काफी दिनों से खत्म हो चुकी थी। वैद्य जी सोचकर परेशान थे कि वह जड़ी-बूटी कहाँ से लाई जाए? इसलिए कि खुद तो चल पाना उनके लिए बड़ा मुश्कल था।
पर जब दर्द असहनीय हो गया तो वैद्य जी ने सोचा, ‘गाँव के पास वाले जंगल में वह जड़ी-बूटी ढूँढ़ी जाए।’
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वैद्य पुन्नामल के साथ गाँव के कुछ और लोग भी जड़ी-बूटी ढूँढ़ने निकल पड़े। वैद्य जी तथा उनके साथ आए गाँव वालों ने जंगल का कोना-कोना छान मारा। उन्हें और बहुत-सी जड़ी-बूटियाँ मिलीं, पर वह बूटी नहीं मिली जो वैद्य जी का फोड़ा ठीक कर देती।
वैद्य जी काफी परेशान थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि भला वह जड़ी-बूटी मिल क्यों नहीं रही। पिछली बार तो वे इसी जंगल से लाए थे। तो अब क्या हो गया?
कुछ ही दिन बाद वे कुछ और गाँव वालों के साथ फिर से जंगल में गए। इस बार भी उन्हें बहुत सी नई जड़ी-बूटियाँ मिलीं, पर वही एक जड़ी-बूटी नहीं मिली जिसकी खोज में वे भटक रहे थे।
शाम के समय जब निराश होकर वे गाँव वालों के साथ घर वापस लौट रहे थे, तो रास्ते में उन्हें बाईं तरफ से धीमी-धीमी आवाज सुनाई दी, “वैद्य जी, जिसे आप ढूँढ़ रहे हैं, वह मैं यहाँ हूँ।”
वैद्य जी ने इधर-उधर देखा, पर समझ नहीं पाए कि आवाज कहाँ से आ रही है? कौन है वह? वे सोचते हुए आगे बढ़ रहे थे। पर कुछ ही कदम बाद फिर वही धीमी-सी आवाज सुनाई दी, “वैद्य जी, मैं यहाँ हूँ...मैं यहाँ!”
वैद्य जी ठिठके, फिर मुड़े और एक जगह ठहर गए। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, उनके सामने वही जड़ी-बूटी थी जिसकी उन्हें तलाश थी।
वैद्य जी कुछ शिकायती भाव से बोले, “अरे, जब तू यहीं थी, तो पहले क्यों नहीं मिली?”
पर तभी उन्हें फिर से वही धीमी-सी आवाज सुनाई पड़ी, “आपकी भलाई के लिए ही पुन्नामल, आपकी भलाई के लिए।”
“इसमें मेरी क्या भलाई हुई, मैं तो इतना कष्ट भोग रहा हूँ। जल्दी से जल्दी इस फोड़े से छुटकारा चाहता हूँ।” वैद्य जी बोले।
“देखो वैद्य जी, अगर मैं आपको पहले मिल जाती तो आप क्या इतनी खोजबीन करते मुझे ढूँढ़ने के लिए?” फिर उसी जड़ी-बूटी की आवाज आई, “मैं इसीलिए छिपी रही, ताकि आप अधिक से अधिक जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी कर लें, जिनसे आप हजारों लोगों का इलाज कर सकते हैं। भूल गए, आप ही तो कहा करते हैं, मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। सोना आग में तपकर ही निखरता है। तो अब जरा-सी मुसीबत से घबरा क्यों गए?”
इस पर आसपास की और जड़ी-बटियाँ भी धीमे-धीमे हँसने लगीं। जैसे कह रही हों, “वैद्य जी, बात तो बिलकुल ठीक कही हमारी सहेली ने।”
वैद्य जी मंद-मंद मुसकरा रहे थे और कह रहे थे, “हाँ सचमुच, बात तो इसने सच्ची कही है, आग में तपकर ही सोना चमकता है। मैं ये शब्द कहता तो था, पर इनका सच्चा अर्थ मुझे आज ही पता चला है। मुझे खुशी है कि मेरे पास अब इतनी जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी हो गई हैं कि अगले कई सालों तक मैं हजारों लोगों का इलाज आसानी से कर सकूँगा।”
वैद्य पुन्नामल की जड़ी-बूटियों से क्या बात हुई, यह तो गाँव वालों को नहीं पता चला। पर हाँ, उन्हें यह देखकर अचरज हुआ कि अपने फोड़े के कष्ट को एकदम भूलकर वैद्य पुन्नामल तेजी से गाँव की ओर लौट रहे हैं। और उनके चेहरे पर ऐसी अनोखी मुसकान है, जैसी पहले बहुत कम दिखाई पड़ी थी।
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