अन्तर्ज्वार
(काव्य संग्रह)
लेेखिका
डॉ0 कविता रायज़ादा
भूमिका
कविता तलाशती है संभावनाओं के क्षितिज, कविता रचती है इन्द्रधनुषों का मायाजाल, कविता निखारती है सौन्दर्य के असीम आयाम, कविता कुरेदती है बरसों पुराने घाव, कविता जगाती है सोये हुये दर्द और जब कविता पहले पहल उठाती है कलम गढ़ने को अनगढ़ भाव तब जन्म लेता है ‘अन्तर्ज्वार‘ । कविता जब वत्सल वत्स दम्पत्ति की ममता की छॉव में काव्य साहित्य के ऑगन में जन्मी पली बढ़ी होगी तो उसके रोम—रोम में ब्र्रज माधुरी घुली होगी ताजमहल की धवला समायी होगी, शेख सलीम चिश्ती का तसव्बुर समाया होगा, अकबरे आज़म की सुलहकुल समायी होगी और नूरजहॉ मुमताज़ की मोहब्बत का जज़्बा भी रोशन हुआ होगा । एक तवारीखी़ शहर की पुरअसर आवाज़ बनकर कविता जब उभर रही थी तो मेरी मुलाकात पहले फोन पर फिर स्टेज पर हुई । बड़ी मुख़्तसर मुलाकात थी लेकिन मैंने पहचान लिया कि मंच पर कविता की पकड़ है और वह साहित्य—संस्कृति लोक—यात्रा में दूर की मुसाफिर है। मैं उसे उज़्ाबेकिस्तान, अरब अमीरात, अफ्रीका और सीलोन ले गया, ताशकन्द, समरकन्द, दुबई, अबू धाबी, केपटाउन, जोहानेसबर्ग, कोलम्बो, कैन्डी, दिल्ली, पूना, हुबली, जबलपुर में निज़ामत की जिम्मेदारी दी। तब से आज तक बैंकाक, पटाया तक वह बखूबी इसे अंजाम दे रही हैं। मुझे अपनी प्यारी छोटी बहन पर नाज़ है । रब उसकी पुरकशिश आवाज़ और अंदाज़ को सलामत रखे ।
आज थाईलैण्ड की तिलिस्मी सरज़मी पर उसकी पहली कृति ‘अन्तर्ज्वार‘ के रस्मे इज़रा पर मैं कहना चाहता हॅू कि कविता की सोच बड़ी सरल और सादगी भरी है वह कहती है —
मैं कल्पना करती हॅू/ ऐसे जीवन की/ जो सहज हो सरल हो/निश्छल हो और सुखमय हो। ‘ (साधना)
लेकिन
‘लगता है मानव हृदय से/प्रेम का लोप संवेदनाओं का अन्त/हो चुका है/तभी
तो, घर बंट रहा है/समाज टूट रहा है। (प्रेमास्त्र)
स्वयं की अनगढ़ कविताओं में कविता रायज़ादा विभिन्न रूपों में झॉकती है, कभी
अल्हड़ बाला जूबी बनकर, कभी दुखियारी सखी की ओर से, कभी प्रीत प्यासी
बनकर, कभी विद्रोहिणी बनकर, वह आज के समाज की विदू्रपता पर रूलाती है
‘कार्य निकल जाने के बाद/हाथ जोड़े खड़ा व्यक्ति भी/अपरिचित सा बन जाता है/आज आधुनिक संसार के संबंधों की/यही एक परिभाषा है, किसी के आने पर/हमारा व्यवहार भी व्यावसायिक हो जाता है। (संबंध)
वह आहत होकर कहती हैं —
‘खो चुका है आज आदमी /अब स्वयं की पहचान को/भूलता ही जा रहा है/खुद में छिपे इं्रसान को।‘ (आदमी)
‘वक्त के साथ—साथ /सौन्दर्य के पैमाने बदल गये हैं/ मनुष्य की
प्रतिभा बोलने का सलीका/बॉडी लैग्वेज,ड्र्ेस कोड/प्रभावशाली बना रहे हैं/
ज़िदादिली,नेकनीयता,उदारता/अपनत्व,साहस,संवेदनशीलता/को भुला रहे हैं।
(वास्तविक सौन्दर्य)
‘हर हाथ का नाखून अब तो/ खून से सना नज़र आता है‘ (अविश्वास)
कविता रायज़ादा में भी एक छिपी हुई, सहमी हुई, भारतीय नारी है, जिसकी मौन
छवि रूलाती है । नीर भरी दुःख की बदली की याद दिलाती है , साहित्य के
तमाशायी क्या जाने डूबने वाले का दर्द, कविता ने लिखा है —
‘अम्मा जी की पोती ने जब लिखा यह बार—बार/मेरा जीवन है अफसोस, मेरा
जीवन है अफसोस‘ (अफसोस)
‘मैं और मेरी तन्हाई अक्सर यही बातें करती हैं कि तुम होते तो ऐसा होता तुम होते तो वैसा होता‘ (मैं और मेरी तन्हाई)
‘पूछती हॅू अपनी जिन्दगी से/अकेले खाना कमाना/बेमकसद जिन्दगी गुज़ारना क्या यही होती है जिन्दगी‘ ( वही)
फिर कवयित्री को उसी एकाकीपन को ढूंढ़ने की आदत सी हो जाती है —
‘एकांत थोड़ा तो चाहिये/ऑसू बहाने के लिये/हमदर्द कोई तो चाहिये/दुखड़ा सुनाने के लिये‘ (ऑसू)
नारी जीवन यात्रा में कई गुमनाम साये विलुप्त हो जाते हैं लेकिन कभी न कभी कैशोर्य— यौवन या अतृप्त ढ़लते यौवन में दूर कहीं वादियों से कोई पुकारता ही है। कवयित्री उन मदमाते क्षणों का वर्णन करते हुये कहती है —
‘वह कौन था /जो दिल के दरवाजे पर/ दस्तक दे गया /सोते हुये सभी अरमानों को/फिर से जगा गया‘ (वह कौन था)
रूमानियत के पल बडे ़छोटे होते हैं,जल्द ही उसे हकीक़त में लाकर पटक देते हैं ।
‘अन्तर्ज्वार‘ में कवयित्री ने कुछ ठोस धरातल पर गभ्भीर प्रश्न भी उकेरे हैं, वह ए0आई0पी0सी0
जैसी वैश्विक संस्था की चिन्तनधारा की चितेरी भी है, तभी तो कह उठती है —
क्योंकि यही सौन्दर्य है/बरकरार रखने के लिये/लड़कियॉ पैसा /पानी की तरह/बहा रही हैं/लेपों को लगा—लगाकर /खूबसूरत होने का प्रयास कर ही हैं/जो मिथ्या है उसे सही मान रही हैं‘ (स्त्री सौन्दर्य)
किसी और ने भी कहा है—‘वर्चू लाइज़ व्हेन ब्यूटी डाइस,‘जिस्म तो बहुत संवर चुके रूह का सिंगार कीजिये,इसीलिये मैंने ए0आई0पी0सी0 में रूप सौन्दर्य की जगह आत्मा के सौन्दर्य को प्रतिष्ठापित किया है।
कवयित्री देश की अनेक ज्वलंत समस्याओं की ओर इशारा करती है, अनेक कष्टकर
परिस्थितियों से परिचित कराती है। एक दर्दनाक मोड़ पर वह कराह उठती है —
‘गरीब के लिये आज़ादी /गरीबी से आज़ादी है/सोचते—सोचते कब रात बीत गई/स्वतंत्रता दिवस की प्रातःबेला में/बस यही बात समझ में आई (आज़ादी )
आज के खोखले अहंकारी मानव को भी कवयित्री ललकारती है —
‘रूख हवा का मोड़ कर/खुद को बड़ा तू मत समझ/तौलना खुद को कभी/ललकार कर तूफान को‘ (आदमी )
अब तो सारा विश्व अंधकार कूप की ओर बढ़ रहा है,कयामत करीब आती जा रही है।
फिर भी कवयित्री नैराश्यता में भी कविता की श्रेष्ठता सिद्ध करती है,मगर एक दिन वही कविता कहती है कि —
‘मैं वही हॅू/जिसके कारण आज संसार में/तुम्हारा नाम है/इसलिये मैं ही श्रेष्ठ हॅू/
(कवि)
अन्त में कवयित्री आशावाद का बिगुल बजा उठती है—
‘महक उठे हर गुलशन /वह बसंत कभी तो आयेगा/खुशियॉ हो हर ऑगन में/वह बसंत कभी तो आयेगा‘ (बसंत)
डॉ0 कविता रायज़ादा की यह कवितायें इतना तो कहती है कि इसमें संभावनाओं का अनन्त क्षितिज़ विद्यमान है। मुझे विश्वास है कि कविता की कवितायें और प्रगाढ़ व सशक्त बनती जायेगी।
भारत की सीमा से दूर वृहत्तर भारत के स्याम् की स्वर्णभूमि के मनोरम वातावरण में मैं ‘अन्तर्ज्वार‘ के लोमहर्षक अवसर पर कामना करता हॅू कि कविता यशस्विनी हों और साहित्य संस्कृति के अक्षय भण्डार को भरें।
एकादश अन्तर्राष्ट्र्ीयए0आई0पी0सी0, डॉ लारी आज़ाद
बैंकांक,पटाया ,थाईलैण्ड संस्थापक,ए0आई0पी0सी0
अन्तर्ज्वार की यात्रा
जीवन की इस यात्रा के दौरान सांसारिक परिदृश्य में मिले कटु अनुभवों एवं असीम भयावह घटनाओं की उथल—पुथल ने हृदय में संवेदना जागृत कर दी, इन्हीं अनुभवों ने शब्दों का रूप ले लिया और कविता के रूप में परिणित होते गये। मन की पीड़ा कविता के रूप में कागज़ पर अवतरित हुई। जीवन से जुड़ी सभी अच्छाइयॉ बुराइयॉ एवं तरह—तरह की पीड़ा को महसूस किया है । वही पीड़ा काव्य संग्रह ‘अन्तर्ज्वार‘ के रूप में आपके हाथों में है। इसमें कुल 37 कवितायें हैं। छंद के बंधन में न बंधकर भावावेश की तरंग एवं अतंस की अभिव्यक्ति की इच्छा ने ही कविताओं को आकार दिया है।
मेरी काव्य यात्रा लगभग 30 साल पहले प्रारंभ हुई, जब मैं मात्र 15 साल की थी। घर में कवि सम्मेलन हुआ करते थे। प्रसिद्ध कवि श्री सोम ठाकुर जी, श्री सुखराम जी आदि हमारे घर पर आया करते थे। हम भी कवि सम्मेलनों में पिताजी के साथ जाया करते थे। मुझे कविता नाम ही नहीं, रक्त में कविता मिली है।
मैंने इनको गढ़ने का प्रयास नहीं किया क्योंकि मुझे डर था कि इनकी मूल संवेदना, आक्रोश, पीड़ा इस प्रयास में लुप्त न हो जाये। अगर आप शब्दों के घॅूघट को उठाकर देखेंगें तो इसमें भावों का मधुमास दिखाई देगा। इसमें सोच, आकांक्षा, जिज्ञासा स्पष्ट दिखाई देगी।
‘अन्तर्ज्वार‘ लिखने का उद्देश्य कविता के माध्यम से गुफ्तगू करके मन हल्का करना ही नहीं, अपितु इससे भी महत्वपूर्ण उद्देश्य ये है कि समाज को सच्चाई से अवगत कराना।
यदि यह कवितायें अन्तस्तल में संवेदनाये जगा सकी, जिसके लिये यह रची गई हैं तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समझॅूगी। इनमें से कुछ कवितायें पन्द्रह , बीस साल पूर्व लिखी गई, कुछ पूर्व में प्रकाशित भी हो चुकी हैं।
मैं उन संयोगों की कृतज्ञ हॅू ,जिन्होंने ये रचनायें लिखने का अवसर दिया। मैं उन प्रकाशकों की भी आभारी हॅू, जिन्होंने इसका प्रकाशन किया।
दयालबाग की पावन धरा, उसका सुसंस्कारी वातावरण ,संत सतगुरू का सानिध्य मेरे लिये विशेष प्रेरक रहा है।
मेरे इस संकलन में विशेष रूप से प्रेरणा के स्रोत मेरे जन्मदाता मेरे पिता डॉ0 बाबूलाल वत्स एवं माता श्रीमती चन्द्रकान्ता वत्स रहे हैं जिनके आशीर्वाद के बिना यह कार्य असंभव था।
मेरा यह प्रथम प्रयास कितना सफल रहा है, यह तो सुधिजन पाठकों की मेधा ही निश्चित करेगी। मुझे इस कार्य में कुछ विशिष्ट लोगों का सहयोग मिला।
मैं उन सभी महानुभावों को धन्यवाद देती हॅू। विशेष रूप से आगरा महानगर लेखिका समिति की शुक्रगुज़ार हॅू जिसकी सदस्यता ग्रहण करने के उपरान्त ही मेरे अंतस की सुषुप्त चिंगारी प्रज्ज्वलित हो उठी। साथ ही मैं आगरा महानगर समिति की उन सभी कवयित्रियों की भी आभारी हॅू। जिन्होंने मेरा समय—समय पर उत्साहवर्धन किया। फलस्वरूप यह काव्य संग्रह आपके समक्ष है।
मैं परम स्नेही रानी सरोज गौरिहार, परम शुभेच्छु एवं स्नेहमयी शान्ति नागर , डॉ0 शशि तिवारी, डॉ0 सुषमा सिंह, श्रीमती रमा वर्मा ,डॉ0 शैल बाला, डॉ0 शशि गोयल, डॉ0 कुसुम चतुर्वेदी, श्रीमती मिथलेश जैन, श्रीमती शशि तनेजा, डॉ0 कमलेश नागर, श्रीमती कमला सैनी आदि की भी आभारी हॅू।
ए0आई0पी0सी0 के जन्मदाता प्रो0 लारी आज़ाद को मैं अपना प्रेरणा स्रोत मानती हॅु जिनके माध्यम से मैंने ताशकंद, समरकन्द (2010), दुबई, आबूधाबी (2011) साउथ अफ्रीका (2012) और श्री लंका (2012) में कवयित्री सम्मेलन में कविता और मंच संचालन के माध्यम से अपने देश का परचम लहराया।
मैं अपने अनुज भ्राता श्री अमित जौहरी की हृदय से आभारी हॅू। जिन्होंने ‘अन्तर्ज्वार‘ के प्रकाशन में सहयोग किया। आपने इस काव्य संग्रह को इतने सुन्दर ढंग से प्रकाशित कर मेरे विचारों को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
मैं चित्रकार, कथाकार डॉ0 रेखा कक्कड़ जी की बहुत आभारी हॅू ,जिन्होंने मेरी काव्य कृति के मुख पृष्ठ को अपनी तूलिका से सजाया और भावों की अभिव्यक्ति देकर मुखर बनाया।
मैं डॉ नीलम भटनागर, डॉ0 पुष्पा श्रीवास्तव, डॉ0निशीथ गौड़ ,श्री विशन सहाय श्रीवास्तव, श्री संजीव श्रीवास्तव, श्रीमती के0 वसन्ता, एवं श्री भगवान सहाय श्रीवास्तव की भी आभारी हॅू जिन्होंने समय—समय पर अपने सुझावों से मुझे अवगत कराया।
मैं आभारी हॅू पिता समान स्व0 श्री सी0एम0 शैरी साहब एवं माता समान श्रीमती लता शैरी जी की जिनका आशीर्वाद मुझे पग—पग पर मिलता रहा है । आपने हमेशा मुझे आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया है।
इस काव्य सफर के राही व रचनाधर्मिता के सभी सहभागी, कवि, बन्धुओं व बान्धवों की हृदय से आभारी हॅू जिनका सहयोग मुझे सदैव मिलता रहा है।
मैं अपने पतिदेव श्री आर0 पी0 रायज़ादा, दोनों बच्चे जुबली एवं जुबिन की हृदय से आभारी हॅू जो सदा मेरे कार्यों में सहयोगी रहते हैं।
मैं विशेष रूप से आभारी हॅू अपने पिता तुल्य ससुर श्री प्रेम प्रसाद रायज़ादा जी एवं माता तुल्य सास श्रीमती आशा रायज़ादा जी की जिनका आशीष मुझे हमेशा मिलता रहा है।
मैं अपने इस काव्य संग्रह ‘अन्तर्ज्वार‘ के लिये केवल इतना ही कह सकती हॅू कि आप इसे महसूस करके देखिये, यदि उपयोगी लगे तो इस पर अमल करके देखिये।
लेखनी को विराम देने से पूर्व मैं अपने पिता डॉ0 बाबूलाल वत्स जी के प्रति विशेष आभार व्यक्त करती हॅु जिन्होंने मेरी कविता ‘आशीर्वाद‘ सुनने के बाद कविता लिखने और उसे आप तक पहॅुचाने के लिए उत्साहित किया।
उन्होंने हमेशा यही कहा —
‘धमनियों में रक्त है तुम्हारे ,वत्स परिवार का
रोशन करना नाम हमेशा, रायज़ादा ख़ानदान का। ‘
डॉ0 कविता रायज़ादा
37 सी श्यामजी विहार,सरलाबाग
एक्सटेंशन रोड,दयालबाग,आगरा—282005
दूरभाष संख्या 09319769552,05622570098
ई मेल — तंप्रंकंणंअपजं5/हउंपसण्बवउ
अनुक्रमणिका
क्रम संख्या विषय
1 आशीर्वाद
2 साधना
3 आदमी
4 ऑसू
5 नववर्ष
6 अविश्वास
7 फाइल
8 हम जायें अब कैसे
9 वास्तविक सौन्दर्य
10 ईंट
11 बसंत
12 रूह की हद
13 मुक्तक
14 क्षणिकायें
आशीर्वाद
शान्ति जहॉ मॉ के ऑचल की, और पिता की बाहें हैं।
‘कविता‘ मॉ का दुलार है,‘राजू‘ पिता की बाहें है।
दादा दादी को प्रिय जूबी,प्राणों से भी प्यारी है।
चंचल निश्चल प्यारी ‘जू़बी‘, घर भर की राजदुलारी है।
इस धरती पर फॅूक—फॅूककर, अपने कोमल पग रखना।
मुस्कानों संग हाथ जोड़कर, सबको तुम वश में करना।
ऊॅचे रखकर दिव्य भाव तुम, सेवा जगती की करना।
मात पिता औ गुरू चरणों म,ें अभिवादन वंदन करना।
लक्ष्य रहे ऊॅचा जीवन का, उन्नत मस्तक सदा रहा ।
पर न कभी यह बात भूलना, हरदम बनी विनम्र रहो।
सदा सफलता पाओगी तुम, यदि विनम्रता का बल है।
सफल वही होता है जग में, जिसका लक्ष्य अचंचल है।
बने तुम्हारा जीवन मधुमय, जग को सौरभ दान करो।
सूरज सी चढ़ती ही जाओ,जग का तिमिर प्रमाद हरो।
साधना
मैं कल्पना करती हॅू, ऐसे जीवन की जो
सहज हो, सरल हो, निश्छल हो और सुखमय हो।
मैं कामना करती हूॅ, ऐसे जगत की
जो वास्तविकता से परे हो
अतीत से अनभिज्ञ हो
लेकिन वही उसका
प्रारब्ध हो।
मैं वर्तमान की उपेक्षा करके
स्वप्नलोक में विचरण करने लगती हूॅ।
किसी के सुन्दर भवन को देखकर
उसकी छवि को अन्तर में बैठा लेती हॅू
और जब कोई वस्तु पसन्द आ जाती है
तो उसे, उस भवन में लाकर सजा देती हॅू।
आहिस्ता—आहिस्ता भवन में
भीड़ इकट्रठी हो जाती है
और मैं स्वयं को विस्मृत कर बैठती हॅू।
फिर सोचने लगती हॅू
कि शायद उस विस्मृति को
खेाजने का नाम ही साधना है।
गरम सोते
है गिरती बर्फ पहाड़ों पर, झरने देते है शीतल जल।
फिर क्यों फूटते कभी—कभी, है गरम सोते यॅू पर्वत पर !
शायद पर्वत के भीतर भी, होगी गन्धक की परत कहीं।
लगता मुझको है यही उष्णता, देती है जलधार वही।
फिर लगता पर्वत में शायद, है शीतलता अक्षुण्य अनन्त।
इसीलिए गन्धक जैसी, परतों को देता है फेंक तुरन्त।
शायद वह भी है यही जानता, दुर्गुण होना है बुरी बात।
पर उन्हें छिपाना और बुरा, लगता उसको यह बार—बार।
काश ! मानव यह जान पाता, शालीनता में भी आनन्द है।
फेंक देता दुर्व्यसनों को, जो छिपे हुए है अन्तर में।
———
ख़ता
उससे ऐसी है ख़ता हुई
बया करूॅ या दॅू सज़ा उसको
ख़्ाता है ऐसी नामुराद
सताती है पल—पल मुझको
फिर भी ख़ता पे ख़ता
वह किये जा रहे हैं
सताते और सताते हमको
जा रहे हैं
हमने पूछा, जब उनसे यह सवाल
तो कहते हैं वो
हमें तो आता है मजा
सिर्फ और सिर्फ सताने में
यह सुनकर हम अवाक रह गये
क्योंकि कैसे बताये ये हम उनको
क्योकि हद से ज्यादा
चाहते हैं हम उनको
बस यही ख़ता है हमारी
बस यही ख़ता है हमारी
————
स्ांबंध
स्ांबंध हमें जोड़ता है
सुन्दरता का अहसास देता है
इसी की छॉव में पनाह पाकर
हमारा तन मन भीग जाता है
वह संबंध ही है
जो नवीन उल्लास
उमंग व स्फूर्ति देता है
परंतु आज संबंध के मायने बदल गये हैं
कार्य निकल जाने के बाद
हाथ जोड़े खड़ा व्यक्ति भी
अपरिचित सा बन जाता है
आज आधुनिक संसार के संबंधों की
यही एक परिभाषा है ।
किसी के आने पर
हमारा व्यवहार भी,
व्यावसायिक हो जाता है
ओठों पर मुस्कान तो होती है
परंतु दिलों के तार नहीं जुड़ पाते हैं
रोज पास बैठते हैं
हॅसते हैं ,बोलते हैं
लेकिन अंदर से उतने ही
अजनबी बने रहते हैं
आज के संदर्भ में
यही संबंध है, यही संबंध हैं।
———————
स्त्री सौन्दर्य
लड़कियों का सौन्दर्य ही
उनकी संपदा है
यह वाक्य,
स्त्री प्रगति के विरूद्ध़
एक राजनीतिक अस्त्र है,
क्योंकि यही सौन्दर्य
बरकरार रखने के लिए
लड़कियॉ पैसा
पानी की तरह
बहा रही हैं
लेपों को लगा लगाकर
खूबसूरत होने का प्रयास कर रही हैं।
जो मिथ्या है, उसे सही मान रही हैं।
दरअसल,
सौन्दर्य जाल ने उसे
इस क़दर उलझा दिया है
सम्पूर्ण जीवन
उसने बरबाद कर दिया है।
अधिकार, अनाधिकार के
विषय में सोचना
बंद कर दिया है
उसने।
लगता है, यही है
वह भयावह राजनीति
जो स्वयं पर उसका आत्मविश्वास
कम कर रही है।
नारी का साहस
आत्मनिर्भरता ,
बढ़ते कदमों को
दिन प्रतिदिन
पीछे कर रही है।
इसलिए हे!नारियो
अब शक्ति को पहचानो ,
उसे सही दिशा में लगाओ,
कृत्रिमता रूपी आवरण न अपनाओ
आत्मविश्वास जगाओ।
और प्रगति पथ पर
बढती ही जाओ, बढती ही जाओ।
—————
आज़ादी
स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर
रिक्शेवाले से पूछा जब मैंने
जानते हो, क्या होती है आज़ादी ?
पसीने से लथ पथ,
जीर्ण—शीर्ण वह गरीब बोला
हमें क्या लेना देना
इस आजादी से
हमें तो चिन्ता है
बस रोजी —रोटी की।
इंसानी भार ढोना ही
हमारी मजबूरी है,
फटेहाली बरकरार है
ऊर्जा समाप्त है
हम क्या जानें आजादी !
कैसी आजादी, कौन सी आजादी
हमें तो चाहिए बस
रोटी और कपड़ा।
अरे ! वह भी नहीं दे पाई
तुम्हारी यह आज़ादी ।
आज मैं यह समझ गई थी
गरीब के लिए, ‘आज़ादी‘
गरीबी से आजादी है
सोचते —सोचते कब रात बीत गई
स्वतंत्रता दिवस की प्रातः बेला में
बस यही बात समझ में आई
हर गरीब को चाहिए
एक छत,
जिसमें रोशनी हो,
बिजली हो, पानी हो
और हो भरपेट खाना
और हो अशिक्षा से आज़ादी।
तभी मिलेगी असली आजादी।
यह भाव कहीं न कहीं
भटक गया है
गरीब और गरीब होता
जा रहा है
पेट की इस भूख से
आज़ादी के अर्थ को
भूलता ही जा रहा है
भूलता ही जा रहा है।
——————
सूरज
आकाश में बादल छा गये
और सूरज को छुपा ले गये
अहंकार वश बादल को लगने लगा
कि उसने सूरज को,
कैद कर लिया है
धूप के सारे रास्ते
बंद कर दिये हैं
उससे ज्यादा शक्तिशाली
कोई भी नहीं
लेकिन वह भूल गया कि
जब सूरज उदय होता है
तभी दिन निकलता है
अगर प्रकाश दिन का न हो
तो वह दिखाई भी न देता
भले ही इस वक्त सूरज
बादल के पीछे हैे
लेकिन उसका प्रकाश
उससे आगे है।
इंसान भी इसी
भ्रम जाल में जीता है
बेटा ,डॉक्टर, इंजीनियर
बनने के बाद
अपने आपको अहंकारी
बादल समझता है
वह भूल जाता है
सूरज रूपी माता —पिता को
जो वृद्धावस्था में
उसके सहारे हैं
आज उन्हीं का प्रकाश,
उन्हीं का आशीर्वाद
उसको रास्ता दिखा रहा है
और वह दिन दूनी
रात चौगुनी प्रगति कर
चमकता ही जा रहा है।
चमकता ही जा रहा है।
——————
मनुष्य
क्या हम मनुष्य हैं ?
यह प्रश्न बार—बार
मेरे मन में उठता है,
मुझे झकझोरता है,
परेशां करता है।
मैं जानती हॅु यह
आज संवेदनाएं मर चुकी हैें।
संवेदनाओं में जितनी गहराई होती है
मनुष्यता में उतनी ही ऊॅचाई होती है।
संग्रह में जितनी ऊॅचाई होती है
मनुष्यता में उतनी ही निचाई होती है।
संवेदना और संग्रह
जिन्दगी की दो दिशाएं हैं
संवेदना सम्पूर्ण हो
तो संग्रह शून्य हो जाता है।
आज मनुष्य जीवन पर्यन्त
संग्रह की लालसा में ही
भटकता रहता है
और एक दिन
स्ांवेदना शून्य ही हो जाता है,
मनुष्यता को ही गंवा देता है।
और सवाल ज्यों का त्यों ही
रह जाता है
क्या हम मनुष्य हैं ?
—————
स्लेट
पढ़ते थे हम बचपन में जब
एक छोटी सी स्लेट पर
पूरी पढ़ाई कर लेते थे हम
सिर्फ उसी एक स्लेट पर
पर आज कॉपियों का अंबार है
जो बिक जाता है हरदम
रद्दी के एक ढेर में।
रद्दी का वही ढेर
कोने में पड़ी स्लेट को देखकर
हॅसता है, ठहाका लगाता है
और चिढ़ाते हुए मुस्कुराता है
आती है मुझको दया
तेरी इस ्रदुर्दशा पर।
रहम आता है मुझको
तेरी इस बदनसीबी पर।
कितनी कंगाल है तू
जो भी लिखता है तुझ पर
तुरन्त पोंछ देता है
रह जाती है तू खाली की खाली।
स्लेट हल्के से मुस्कुराती है
और कहती है
मानती हॅू तुझ पर जो भी
लिखा जाता है
तुझ में ही समा जाता है
लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है
जब तुम्हारे अक्षर जीर्ण—शीर्ण हो जाते है
लेकिन मैं अथाह सागर हॅू
नित नये अर्थ, नित नये शब्द
अपने अन्दर समाहित
करती रहती हॅू
अपने ज्ञान को बढ़ाती ही रहती हॅू।
बेशक वह शब्द मिटा दिए जाते हैं
लेकिन वह सभी मेरे सीने में समा जाते हैं
देख! कितनी सम्पन्न हॅू मैं
कितनी भाग्यशाली हॅु मैं
फिर भी कोरी की कोरी ही
कहलाती हॅू मैं।
———————
वासंती हवा
वासंती हवा का झोंका आया
और भर गया शीतल सुंगंध से
तन मन को मेरे।
पूछा मैंने जब उससे
बनाओगी अपने जैसा मुझे कब ?
तभी आया झोंका गरम हवा का
झुलसा गया तन मन को वह मेरे
और निकल गया कहता हुआ मुझे वह
तुम नादान हो, नासमझ हो
मैं तो भाग रहा हॅू
युगों—युगों से
पाने को इसकी सुगंध व शीतलता
पर सफल न हो सका मैं
आज तक
और न हो सका मैं शीतल।
पर मैंने उसकी बात न मानी
और प्रतीक्षा करने लगी
उस शीतल समीर की
वह फिर आई
मैंने फिर याचना की ,
फिर कहा उससे
वह बोली, ‘याचना और अनुकरण से
कुछ भी नहीं मिलता है।
पहचानो, अपने को पहचानो
तुम्हारे अन्दर भी वही शीतलता व सुगंध है
प्रयत्न करो, बदलो, अपने को बदलो
वादा है यह मेरा तुम से
तुम भी शीतल व सुगंधित हो जाओगे
सबके मन को हरषाओगी
वासंती हवा बनकर छा जाओगी।‘
————————————
मधुमक्खी
जब टकराया मेरा हाथ भूल वश
मधुमक्खी के एक छत्ते से
जहॉ —जहॉ लगा डंक
वहॉ—वहॉ लगा सूजने
कराह उठी दर्द से मैं
और लगी सोचने
शायद वह सोचती होगी
यह घर मेरा है
यहॉ कोई क्यों आया।
शायद उसको
हमारा हस्तक्षेप पसन्द नहीं आया
इसीलिए बल दिखाकर
हमें मजा चखाया।
यदि ऐसी ही बात है
तो यह मधुमक्खियों की मूर्खता है
क्योंकि यह संसार तो ईश्वर का घर है।
उनका निवास तो पेड़ों पर है
फिर घर पर कब्जा करने की
लालसा तो व्यर्थ है
इसी ऊहा—पोह में
वह स्वयं घायल हुई
और मर भी गई
यदि वह क्रोध और गर्व न दिखाती
तो शायद इतनी हानि न उठाती
फिर सोचती हॅू
इन मधुमक्खियों को ही
क्यों कोसा जाय !
बुरा भला कहा जाय
मूर्ख कहा जाय
जबकि मानव भी आज
इसी राह पर चल रहा है,
हर व्यक्ति जितना हड़प सकता है।
हड़प रहा है
और बाकी पर कब्जा जमाने के लिए
लड़ रहा है
वह अधिकार लिप्सा व स्वार्थ में अंधा हो रहा है
जब मैं यह सोचती हॅू
तो बेचारी मधुमक्खियों को
बुरा भला कहने में
जीभ सकुचाने लगती है।
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कवि
एक कवि,
जब बहुत ज्यादा चर्चित हो जाता है
स्थान—स्थान पर ख्याति पाता है
तो गर्व से फूला नहीं समाता है।
बार—बार कविताओं को
पढ़ता है, पढ़ाता है
मगर एक दिन वही कविता
कहती है कि
मैं वही हॅू
जिसके कारण आज संसार में
तुम्हारा नाम है
इसलिए मैं ही श्रेष्ठ हॅू।
यह बात कवि को नहीं सुहाती है
वह झल्लाता है, चिल्लाता है
जो इसका जन्मदाता है
यह उसी पर अकड़ दिखाती है
मैं न चाहॅू
तो तेरी अभिव्यक्ति ,कौन करे
इसलिए समझ ले
मै ही श्रेष्ठ हॅू।
विवाद चलता रहा
कोई हार मानने को तैयार न हुआ
तभी वहॉ मौजूद शब्द बोले
मेरे बिना तो तुम दोनों ही
अस्तित्वहीन हो
तुम्हारी अभिव्यक्ति का माध्यम
मैं ही हॅू
और तुम ,
तुम तो आकार मुझसे ही पाती हो
इसलिए मैं ही दोनों में श्रेष्ठ हॅू
असलियत से रूबरू होते ही
कवि की ऑखें खुल जाती हैं
उसका गर्व रफूचक्कर हो जाता है
वह कवि का कवि ही रह जाता है।
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वह कौन था
वह कौन था
जो दिल के दरवाजे पर
दस्तक दे गया ?
सोये हुए सभी अरमानों को
फिर से जगा गया ?
शायद यह उसी का जादू है
जो मुझ पर छाता जा रहा है,
हरदम उसी के ख्यालों में
डुबाता जा रहा है,
शायद यह उसी की दुआ है
जो दिल के तारों को
झकझोर रही है
शायद वही मेरा अपना है
इसका अहसास दिला रहा है।
शायद यही वह प्यार है
जो अपनी ओर
खींचे ले जा रहा है
बेहतर जीवन जीने का
सही मकसद बता रहा है।
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बेशरम
मैंने सर्दी के मौसम में
फूलों के पौधे रोप दिये
बसंत आते ही वह
मनमोहक छटा बिखेर गये।
खिलखिलाते, मुस्कुराते
बेहतरीन गुलाब ही गुलाब,
जिनकी खूबसूरती पर
दाग़ लगा रहे थे कुछ
जंगली खरपतवार ।
आब देखा न ताव
जड़ से उसको उखाड़ दिया
जतन किये बहुत
रसायन डाले बहुत
मगर वह बेशरम
नाम को साकार कर रहे थे
तंत्र मंत्र तक फेल कर रहे थे
बगिया को बेकार कर रहे थे
जब पूछा उपाय, उसे मिटाने का
तो बोला वह माली
जो उसका रखवाला था
‘हैं यह खरपतवार
हैं यह जंगली फूल
जो होते हैं बिल्कुल
शादी शुदा जीवन की तरह
जिसमें होती हैं, कुछ बातें अच्छी
तो कुछ अनचाही
यदि नहीं कर सकते तुम इन्हें प्यार
तो नजरअदांज करना सीख लो
बदल दो जीवन का नजरिया
इस बेशरम को भी पसंद करना सीख लो
इस बेशरम को भी पसंद करना सीख लो।‘
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आदमी
खो चुका है आज आदमी, अब स्वयं की पहचान को।
भूलता ही जा रहा है, खुद में छिपे इं्रसान को।
क्रूर चेहरे की तुम्हारी, कह रही है यह खुशी।
छीन लाए हो किसी की, आज फिर मुस्कान को।
सिर्फ सुन्दरता से ही, हैं महकते ऑगन नहीं
कागज़ों के फूलों से, बेशक भरो ग़ुलदान को
सद्गुणों को ही खा गया, तुझमें बसा तेरा अहम।
नष्ट कर देगा तुझे, मत पाल इस शैतान को।
धूल ऑखों में जगत की, झोंक सकता है मगर,
क्या चुनौती दे सकेगा, मौत के एलान को।
याद कर भगवान को, जिसने तुझे जीवन दिया।
कर ॲधेरे दूर दिल के, खोल रोशनदान को।
रूख़ हवा का मोड़कर, खुद को बड़ा तू मत समझ।
तौलना खु़द को कभी, ललकार कर तूफान को।
ऑसू
एकांत थोडा चाहिए, ऑसू बहाने के लिए।
हमदर्द कोई चाहिए, दुखड़ा सुनाने के लिए।
इन ऑसुओं को पोंछने, कोई नहीं मुझको मिला।
लेकिन हज़ारों है ंखडे़, फिर से सताने के लिए।
किससे शिकायत मैं करूॅ, सब छोड़कर ही जा चुका।
मैं जागती थी रात भर, जिसको सुलाने के लिए।
बेघर समझ मैंने जिसे, रहने दिया था आसरा।
वह ताक में ह,ै आशियां मेरा जलाने के लिए।
अब दीजिए मुझको इजाज़त, कुछ दिनों तन्हा रहॅू।
कुछ दूरियॉ भी चाहिए,फिर पास आने के लिए।
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नववर्ष
नववर्ष का नया सवेरा
दस्तक दे दरवाजे पर आया
किन्तु बीती स्मृतियॉ न भुला पाया
जो सिर्फ दर्द ही दर्द देती हैं
भला कौन भूल पाएगा
आतंकवाद को, नरसंहार को
दिल दहलाने वाली चीत्कार को
मासूमों की करूण कराह को
नारियों के निरीह स्वर को
ट्र्ेनों के धमाकें को
रक्त के उन धब्बों को
जो सूख चुके हैं
मिटे नहीं हैं।
नया सवेरा लाना होगा
आतंकवाद मिटाना होगा
तभी नव वर्ष मनाना होगा
तभी नव वर्ष मनाना होगा।
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अविश्वास
किस पर करें अब हम विश्वास
हर शख़्स पर अविश्वास नज़र आता है।
जिसे देखो वही हमें अब
क़ातिल सा नज़र आता है।
जिधर देखों वहॉ अब
खून ही खून नज़र आता है।
हर हाथ का नाखून अब तो
खून से सना नज़र आता है।
इसीलिए बस अब, हर तरफ हमें
अविश्वास, अविश्वास, अविश्वास
ही नज़र आता है।
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फाइल
कभी होती थी
हमारे भी ऑफिस में
करूणा, दया, ममता,
अनुशासन, ईमान एवं
सहानुभुति की एक फाइल।
ना जाने कहॉ खो गई है
वह अनमोल फाइल ?
चोरी तो वह हो नहीे सकती।
यह मेरी जिम्मेदारी है
शायद वक्त की धूल में
दब गई बेचारी है
आ गया है वक्त अब
उस धूल को हटाना होगा
नैतिकता की इस फाइल को
पुनः ढूंढ कर लाना होगा।
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हम जायें अब कैसे
छोड़कर आपको हम जायें अब कैसे ?
बिताये वह पल हम भूल जाये कैसे ?
प्यार के वह सभी राज़ ऑखों में
हम छिपायें अब कैसे ?
दिया प्यार जो इतना तुमने हमको
उसे भुलायें हम अब कैसे ?
दिल की हर बात को अब
जु़़बां पर लायें हम कैसे ?
छोड़कर आपको हम
जायें अब कैसे ?
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वास्तविक सौन्दर्य
वक्त के साथ—साथ
सौन्दर्य के पैमाने बदल गये हैं
मनुष्य की प्रतिभा, बोलने का सलीका ,
बॉडी लैग्वेज ,ड्र्ेस कोड
प्रभावशाली बना रहे हैं।
जिंदादिली, नेकनीयती, उदारता,
अपनत्व, साहस, संवेदनशीलता
को भुला रहे हैं,
जो सही मायने में
सौन्दर्य के गुण हैं
शक्ल सूरत जरूर हमारे
आत्मविश्वास को बढ़ाती है
निःसन्देह व्यक्तित्व में
चार चॉद लगाती है,
लेकिन सिर्फ इसी के सहारे
लक्ष्य भेदना, वास्तविकता से परे है
इसीलिए वास्तविक सौन्दर्य
जीवित रखना ही सर्वोपरि है।
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ईंट
धरती की विशाल छाती से
जब मिट्टी खोदी जाती है
तब उसकी कोई जाति
नहीं कहलाती है
वही मिट्टी जब
ईंट बन जाती है
तब भी उसकी
कोई जाति नहीं
कहलाती है।
ईंट से ईंट जोड़कर
जब मन्दिर या मस्जिद
बन जाती है
उसमें पूजा व इबादत
शुरू हो जाती है।
तब वही ईंट यदि
टूटकर गिर जाती है
तो लड़ाई की जड़
बन जाती है।
क्योंकि तब वही ईंट
जाति विशेष व मज़हबी
बन जाती है।
बसंत
महक उठे हर गुलशन, वह बसंत कभी तो आयेगा।
खुशियॉ हो हर ऑगन में, वह बसंत कभी तो आयेगा।
भाई के खून का प्यासा, हर भाई यहॉ पर बैठा है।
खूनों का है जो प्यासा, वह शख्स यहॉ पर बैठा है।
हैं बहुत धरा पर अब रावण, बहनों को कौन बचायेगा।
वह शख्स कहॉ से आयेगा, वह बसंत कभी तो आयेगा।
न रहे कोई लाचार यहॉ पर,न रहे कोई दुखी यहॉ पर।
जाति—पांति का भेद मिटे जब, वह त्यौहार कभी तो आयेगा।
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रूह की हद
दिल का दर्द बयां हम
करें अब किससे
क्योंकि रूह की हद तक
प्यार करते हैं हम उनसे
दर्द और भी दर्दनाक हो जाता है
जब वह कहते हैं हमसे
प्यार पा लो तुम किसी से
फिर भी प्यार करते हैं हम उनसे
हम तो डूबे हैं प्यार में
इस क़दर उनके
तरसता है पपीहा
स्वॉति बॅूद को जैसे
परेशां हो जाते हैं हम
जब देखते तक नहीं है
वह हमको
मगर फिर भी
रूह की हद तक प्यार करते हैं हम उनको।
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मुक्तक
दिल दिया है उनको, क्योंकि उनसे प्यार है
मिलने के लिए हर धड़कन, अब तो बेताब है।
कैसे कहें कि उसी ने हमें, इस कद़र मारा है
हमें तो बस उसके चेहरे का, भोलापन प्यारा है।
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क्षणिकायें
जब छलके नयनों से, मेरे अश्रु
कुछ शब्द आए अधरों, पर कुछ अटके।
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मेरे मर्म को उदास चेहरा, ओढे़ रहने दो
अहसान करो यह मुझ पर ,मुझे यूॅही जीने दो।
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ये दिल घायल है, बेरूखी से उनकी
अब तो रोक दो बौछार, इन पत्थरों की।
चारों तरफ है आफत, दिल घबरा रहा है
कैसे बताये तुमको, क्या—क्या हो रहा है।
ढ़ूंढ़ती है मेरी यह नज़र, सिर्फ उसी एक नज़र को
लेकिन वो नज़र ढूढ़ती है, किसी और की नज़र को।
सिवाये तेरे किसी और से, मिले नहीं कभी हैं हम
फिर भी शक है तुझको, शायद बदल गये हैं हम।
जीवन परिचय
नाम डॉ0 कविता रायज़ादा
पिता का नाम डॉ0 बाबूलाल वत्स
माता का नाम श्रीमती चन्द्रकान्ता वत्स
पति का नामश्री आर0 पी0 रायज़ादा
जन्म तिथि 5 अप्रैल 1968
शैक्षिक योग्यता एम0कॉम0,एम0ए0, हिन्दी,पी—एच0डी0
व्यवसाय डी0ई0आई0,डीम्ड विश्वविद्यालय,दयालबाग
282005 में लगभग 23 वर्षो से
पता 37 सी,श्यामजी विहार,सरलाबाग
एक्सटेंशन रोड
दयालबाग,आगरा — 282005
ई मेल तंप्रंकंणंअपजं5/हउंपसण्बवउ
दूरभाष नं0 09319769552, 09897062222
रेडियो आगरा आकाशवाणी में सन् 1988 से
2005 तक उद्घोषक एवं लगभग 500
विषयों पर महिला संसार एवं युववाणी
कार्यक्रम में वार्ता।
नाटक बी ग्रेड कलाकार में चयन,ं
सम्मान 50 राष्ट्र्ीय एवं 7 अन्तरराष्ट्र्ीय सम्मान
दूरदर्शन आगरा के इन टी0वी0 चैनल पर सन्
2000 से 2003 तक समाचार उद्घोषिका।
‘सावधान इण्डिया‘लाइफ ओके चैनल पर
12—11—12 को प्रसारित होने वाले एपीसोड में
डीआईजी वाइफ का रोल अदा किया।
सामाचार संपादक चित्रांश जागृति ,आगरा में समाचार
स्ांपादिका
म्ांच संचालन राष्ट्र्ीय एवं अन्तर्राष्ट्र्ीय स्तर पर
लगभग 100 बार मंच संचालन।
ताशकंद, समरकन्द दुबई, आबू धाबी,
जोहेनिस्बर्ग, केप टाउन,कोलंबो, श्री
लंका, ताज महोत्सव,
सदस्य : उपाध्यक्ष,राष्ट्र्ीय कायस्थ महापरिषद् जयपुर।
: राष्ट्र्ीय अध्यक्ष, अखिल भारतीय कायस्थ
महासभा, महिला शाखा, आगरा।
: उपाध्यक्ष, चित्रगुप्त परिषद्, आगरा।
: सदस्य, सिस्टम सोसायटी ऑफ इण्डिया,
तिरूवनन्तपुरम।
: सदस्य, महानगर लेखिका समिति, आगरा।
: सदस्य,उ0प्र0 लेखिका मंच, आगरा।
संपादक : यशस्विनी 2006
: स्पंदन 2009
नाटक लेखन 10 नाटको का निर्देशन एवं मंचन।
समीक्षा 5 किताबों की समीक्षा।
समाज सेवा सर्दियों में गरीबों को ऊनी कपड़े बॉटना
रक्तदान शिविर लगाना।
ऑखों के ऑपरेशन का शिविर लगाना
विशिष्ट उपलब्धि 21 वीं सदी की 111 महिलाओं में नाम दर्ज।
रचनायें ‘पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य की सांस्कृतिक
सामाजिक चेतना‘, ‘अन्तर्ज्वार‘(काव्य संग्रह)
‘चाहत‘ (कहानी संग्रह)
‘सैर धरती आकाश पाताल की‘(यात्रा वृतांत)
शोध पत्र प्रकाशित 11 शोध पत्र प्रकाशित। राष्ट्र्ीय एवं
अन्तरराष्ट्र्ीय स्तर पर
संदर्भ ग्रंथ : साहित्यकार निर्देशिका, देहरादून, क्रम संख्या
474 पृष्ठ संख्या 94 ।
: गौरव डायरी,वर्धा,क्रम संख्या 1,पृष्ठ संख्या 1
: साहित्यकार निर्देशिका,जालंधर,क्रम संख्या 19,
पृष्ठ संख्या 08।
: ए0आई0पी0सी0 स्टैप्स, ताशकंद, समरकन्द
क्र्रम संख्या 06, पृष्ठ संख्या 04 ।
: ए0आई0पी0सी0 स्टैप्स ,दुबई और आबू धाबी,
क्रम संख्या 14,पृष्ठ संख्या 15 ।
: ए0आई0पी0सी0 स्टैप्स, साउथ अफ्रीका ।
: ए0आई0पी0सी0 स्टैप्स, श्रीलंका ।