Bahadur Beti-11 in Hindi Short Stories by Anand Vishvas books and stories PDF | Bahadur beti Chapter - 11

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Bahadur beti Chapter - 11

बहादुर बेटी

(11)

सब कुछ बदल गया.

आनन्द विश्वास

दड़ियल खलीफा अब्दुल जब्बारी के मौत की खबर को आरती अम्मीज़ान तक पहुँचाने के लिए बेहद बेताव थी। वह अम्मीज़ान के पास पहुँचकर जल्दी से जल्दी इस बात को बता देना चाहती थी कि उसकी बेटी आलिया का हत्यारा, दढ़ियल खलीफा अब्दुल जब्बारी, अब इस दुनियाँ में नहीं रहा।

और इसके लिए वह चल पड़ी थी पैदल ही, बीच बाजार में से होती हुई अम्मीज़ान के घर की ओर, तेज कदमों से। और वैसे भी उसके कदम आज धरती पर पड़ ही कहाँ रहे थे।

पर आज वह अकेली नहीं थी, आज उसके साथ थे आतंकवाद के बेताज बादशाह आका हिज़बुल रब्बानी भी। आज उसने कोई बुर्का भी नहीं पहना हुआ था और ना ही कोई पर्दा ही किया हुआ था। और जब सोच ही बदल चुकी थी तो सोच के बदलते ही सब कुछ ही बदल चुका था।

आतंकी आका हिज़बुल रब्बानी, जिसके नाम से ही इलाके के और घाटी के लोग थर-थर काँपने लगते थे, जिसके नाम का सिक्का पूरी घाटी में धड़ल्ले से चलता था और जो कभी पर्दा-प्रथा और बुर्का-प्रथा के कट्टर समर्थक माने जाते थे। मज़ाल क्या थी किसी लड़की की या किसी महिला की कि बाज़ार में वह बिना बुर्का पहने निकल जाय। आज उन्होंने ही इस कुप्रथा को नाबूद करने का बीड़ा जो उठा लिया था। और अब तो उन्होंने लड़कियाँ को भी शिक्षित करने का अपना मन जो बना लिया था।

अम्मीज़ान के घर पर पहुँचकर आरती ने दरवाजे की सांकल खटखटाई। घर के अन्दर से आवाज आई-“कौन है।”

“आरती, मैं हूँ आरती, अम्मीज़ान।” आरती ने प्रत्युत्तर दिया।

“चली आ बेटी आरती, दरवाजा तो खुला ही हुआ है।” अन्दर से अम्मीज़ान की आवाज आई।

“नहीं अम्मीज़ान, देखो तो सही, मेरे साथ में और कौन आया हुआ है।” आरती ने फिर कहा।

“अभी आई बेटी, और कौन आया है तेरे साथ, अरी बोल तो सही। गुम-सुम सी चुप क्यों है, बता तो सही और कौन है तेरे साथ।” ऐसा कहते-कहते दरवाजे तक पहुँच चुकीं थीं अम्मीज़ान।

जैसे ही अम्मीज़ान ने दरवाजा खोला, आरती को तो अपने सामने खड़ा देखकर बेहद खुशी हुई, पर उसके साथ आतंकी आका हिज़बुल रब्बानी को देखते ही अम्मीज़ान के पैरों के तले की ज़मीन ही खिसक गई। हक्का-वक्का ही रह गईं थीं अम्मीज़ान। कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था अम्मीज़ान को। वह करे भी तो आखिर क्या करे।

आरती की बाँह को कसकर पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए अम्मीज़ान उसे घर के अन्दर वाले कमरे में ले आई और फिर गम्भीर और भयभीत होकर उससे पूछा-“क्या बात हुई है, बेटी आरती। जल्दी से सच-सच बता, क्या इस जालिम जल्लाद ने तुझे भी पकड़कर बन्दी बना लिया है। और अब ये जल्लाद क्या चाहता है। आखिरकार इसकी मंशा क्या है। जल्दी से बोल।”

“नहीं अम्मीज़ान, ऐसा कुछ भी नहीं है, जैसा आप समझ रही हो, पहले मेरी बात तो सुनो।” आरती ने कुछ बोलना चाहा, पर इससे पहले ही अम्मीज़ान ने बीच में ही टोकते हुए कहा-“नहीं बेटी, आज मुझे तेरी कोई भी बात नहीं सुननी है। पहले तू मेरी बात का जबाव दे।” और अम्मीज़ान अपनी जिद पर अड़ गईं।

“अगर आपकी ऐसी ही जिद है अम्मीज़ान, तो सुनो। आपकी बेटी आलिया का हत्यारा दड़ियल खलीफा आज मारा जा चुका है मैने उसे अपनी आँखों के सामने ही तड़फ-तड़फ कर मरते देखा है। उसके शरीर के तो परखच्चे ही उड़ गये थे मेरे सामने। उसकी लाश को तो अब पहचाना भी नहीं जा सकता है, अम्मीज़ान। अब उस दड़ियल खलीफा अब्दुल जब्बारी को आज अपने किए की सजा मिल चुकी है। और इस घटना के प्रत्यक्ष गवाह हैं, आतंकवादी संगठन के बेताज बादशाह आका हिज़बुल रब्बानी। अम्मीज़ान अगर आपको मेरा विश्वास न हो तो आप खुद ही पूछ सकते हो आका हिज़बुल रब्बानी से।” और ऐसा कहते-कहते तो आरती की आँखों के आँसू छलक पड़े।

कौलिया भरकर गले से लगा लिया था अम्मीज़ान ने अपनी बेटी आरती को और फिर फूट-फूटकर बच्चों की तरह से रोने लगीं थीं अम्मीज़ान। कहने को तो बहुत कुछ कहना चाहतीं थीं आरती से अम्मीज़ान। पर दिल, दिमाग और जिव्हा साथ नहीं दे पा रहे थे। बस मन ही तो था जो रोने को बार-बार मचल रहा था। *बाल-हठी* जो ठहरा, पचपन साल का भोला *बाल-मन*। रोना और हँसना ही तो आता है भोले बाल-मन को। और यही तो है मानव-सभ्यता की मूल भाषा।

काँपते और लड़खड़ाते होठों का सहारा लेकर अम्मीज़ान, आरती से केवल इतना ही कह पाईं-“बेटी, मैंने बेटी आलिया को खोया नहीं है, मैंने तो बेटी आरती को पा लिया है।”

और ये सब कुछ देखकर पास में ही खड़े हुए आतंकवादी संगठन के बेताज बादशाह आका हिज़बुल रब्बानी की नसों का खून तो जैसे जम ही गया था। हजारों निर्दोष मासूम लोगों के खून की नदियाँ बहा देने वाले आतंकवाद के बेताज बादशाह हिज़बुल रब्बानी की आँखों से आँसुओं को बहते हुए देखा गया।

परिस्थिति को सामान्य होने में कुछ समय तो लगा और फिर आरती ने आका और अम्मीज़ान का एक-दूसरे से परिचय कराना उचित समझा।

यूँ तो हिज़बुल रब्बानी के नाम से अम्मीज़ान तो क्या, इस इलाके और इस घाटी का हर कोई व्यक्ति परिचित ही था पर हिज़बुल रब्बानी को क्या पता कि कौन हैं अम्मीज़ान। न जाने कितनी अम्मीज़ान होंगी इस दुनियाँ में।

पर जब हिज़बुल रब्बानी को बताया गया कि अम्मीज़ान की बेटी आलिया को आपके खलीफा अब्दुल जब्बारी ने बीच बाजार में चौराहे पर सरेआम गोलियों से भूनकर रख दिया था। छलनी-छलनी कर दिया था उस बेचारी बेकसूर मासूम के शरीर को। उसकी खता तो सिर्फ इतनी ही थी कि वह भी अपने हाथों में कलम और किताब देखना चाहती थी। पढ़-लिखकर एक बहुत बड़ा अफसर बनना चाहती थी। मदरसे में ही तो गई थी वह और मदरसे में जाने की इतनी बड़ी सजा। यह जानकर हिज़बुल रब्बानी का मन भर आया था और आँखों से आँसू छलक पड़े थे।

हाँलाकि इस विषय में हिज़बुल रब्बानी को कुछ भी पता नहीं था। फिर भी अफ़सोस जाहिर करते हुए उसने उस चौराहे पर आलिया की एक विशाल आदमकद प्रतिमा बनवाने का और उस चौराहे का नाम भी *आलिया-चौक* रखने का निर्णय लिया। जो कि घाटी के सभी लोगों को *कलम और किताब* के लिए आलिया की शहादत और कुर्बानी की याद दिलाता रहेगा।

और जिस मदरसे में आलिया लड़कों को पढ़ता हुआ देखने गई थी उस मदरसे का नाम भी बदलकर आलिया के नाम पर रखने का निर्णय लिया। साथ ही आका हिज़बुल रब्बानी ने आलिया के नाम पर ही *आलिया एज्युकेशन ट्रस्ट* की स्थापना करने का मन भी बना लिया। और वे चाहते थे कि ट्रस्ट का संचालन अम्मीज़ान ही करें। जिसके लिए अम्मीज़ान ने अपनी स्वीकृति भी दे दी।

आका हिज़बुल रब्बानी ने मदरसे में जाकर एक विशेष फ़तवा जाहिर करके सभी लोगों को सूचित किया कि अब किसी को भी बुर्का पहनने की जरूरत नहीं है। अब सभी मदरसों और स्कूलों में लड़के और लड़कियों की समान रूप से पढ़ाई की व्यवस्था होगी। सभी समाज-सेवी संस्थाऐं नऐ मदरसे, स्कूल और कॉलेज खोलने में सहयोग करें। लड़कियों को शिक्षा में स्कॉलरशिप के साथ-साथ फ्री-एज्यूकेशन की भी व्यवस्था की जाय।

आका हिज़बुल रब्बानी के व्यवहार और उसके द्वारा किए गए अनेक परिवर्तनों से केवल आरती और अम्मीज़ान ही सन्तुष्ट नहीं थे बल्कि घाटी के पूरे समाज में ही खुशी और नवचेना की लहर दौड़ गई थी।

घाटी के लोग अब किताब और पेन की शक्ति को समझ चुके थे और जब कोई शक्तिशाली वस्तु किसी शक्तिशाली व्यक्ति के हाथों में आ जाती है तब तो वह और भी अधिक प्रभावशाली हो जाती है। तलवार से भी अधिक शक्तिशाली पेन आज शक्ति-पुंज नारी के सशक्त हाथों में आ चुका था। वे जान चुके थे कि एक बालक, एक शिक्षक, एक पेन और एक किताब सारी दुनियाँ की शक्ल को बदल देने के लिए पर्याप्त होते हैं।

घाटी की महिलाओं और खास तौर से तो लड़कियों को बिना बुर्का पहने हुए बाजारों में पहली बार खिल-खिलाकर हँसते और गुनगुनाते हुए देखा गया। बे-मौसम मुर्झाऐ हुए फूल से कोमल बच्चों के चेहरे पर फिर से वासन्ती-चमक देखी गई। सभी को अपने स्वर्णिम भविष्य के निर्माण का पूर्ण अधिकार और सहयोग जो मिल चुका था।

घाटी का समाज आज अपनी दुगनी शक्ति के साथ प्रगति और विकास की इस दौड़ में दौड़ पड़ा था क्योंकि आज प्रेरणा-स्रोत नारी और नारी-शक्ति भी उसके साथ में थी।

जो युवा-हाथ कभी एके 47 को थामकर लोगों की जान लिया करते थे आज उन्हीं हाथों में ऐंड्रॉयड वन आ चुके थे। अब उन सशक्त युवा-हाथों की अँगुलियाँ रायफल और पिस्तौल के ट्रिगर के साथ में नहीं, कॉम्प्यूटर और लेपटॉप के की-बोर्ड के साथ में खेलने लगीं थी। अब उन्हें माउस की शक्ति और इन्टरनैट की चकाचौंध दुनियाँ का आभास हो चुका था।

परिवर्तन और विकास के सही स्वरूप को दुनियाँ के सामने रखने में मीडिया ने भी महत्व-पूर्ण भूमिका निभाई। कुछ ही दिनों में दुनियाँ भर के लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन गई थी घाटी।

किसी जमाने में जिस धरती पर खून की लाल नदियाँ वहा करती थीं और जो इलाका दुनियाँ भर में *रैड-ब्लड जोन* के नाम से जाना जाता था आज वही इलाका और वही धरती विकास और इन्वैस्टमेन्ट के लिए देशी और विदेशी इन्वैस्टर्स और कारोवारियों के लिए *रैड-कारपेट* बिछा चुका था।

उद्योग और व्यापार की अनेकों सम्भावनाऐं उत्पन्न हो चुकीं थी। इतना ही नहीं नऐ-नऐ स्कूल, मदरसे और कॉलेजों के खुलने से देशी और विदेशी शिक्षकों और प्रोफेसर्स की भी माँग बढ़ गई थी। साथ ही नऐ भवनों के निर्माण के लिए कन्सट्रक्शन कम्पनियों के लिए अपार सम्भावनाऐं भी उत्पन्न हो चुकीं थी।

घाटी में अनेक स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ खोली जा चुकीं थीं जिनमें अति-आधुनिक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था भी की गई थी। केवल सोच ही तो बदल गई थी और मात्र सोच के बदलते ही सब कुछ बदल गया था।

हिज़बुल रब्बानी को दिए हुए अपने बचन को एक बार फिर से याद दिलाते हुए आरती ने आका हिज़बुल रब्बानी को विश्वास दिलाते हुए कहा-“आका, अब मैं चलती हूँ और बहुत ही जल्दी मैं आपसे फिर मिलूँगी। और तब मैं अकेली नहीं होऊँगी, मेरे साथ में होगा, आपका बेटा शौकत अली रब्बानी भी।”

आका हिज़बुल रब्बानी ने भी आरती को आश्वासन देते हुए कहा-“आरती, अब अगली बार जब तुम यहाँ पर आओगे तब तुम इस घाटी को पहचान नहीं सकोगे। यहाँ के लोग, यहाँ के बच्चे, यहाँ की सड़कें, यहाँ की बिल्डिंग्स, सब कुछ बदल चुकेगा। और ये घाटी विकास और परिवर्तन की नई कहानी लिख चुकेगी।”

आका हिज़बुल रब्बानी इससे अधिक कुछ भी न बोल सके, लेकिन उसकी आँखों से निकलते आँसुओं के सागर ने सब कुछ वयाँ कर दिया था।

अम्मीज़ान, आका हिज़बुल रब्बानी और घाटी के सभी लोगों से विदा लेकर आरती चल पड़ी थी, अपने घर की ओर, अपनी ऐंजल ऐनी के साथ।

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