बहादुर बेटी
(9)
बुर्के वाली अम्मीज़ान.
आनन्द विश्वास
सुबह होते ही आरती ने अपने पास में अदृश्य रूप में स्थित ऐनी ऐंजल को एक्टीवेट करके, अपनी समस्या को उसके साथ शेयर किया और फिर उसके निराकरण करने का सुझाव माँगा। साथ ही आरती ने बाहर निकलकर वहाँ के आस-पास के स्थानों का निरिक्षण करने के विषय में भी जानना चाहा।
एक्टीवेटेड ऐंजल ऐनी ने आरती को अपना सुझाव देते हुए कहा-“आरती, तुम अपने पास में रखे हुए चमत्कारी चाँदी के सिक्के को एक्टीवेट करके उसके हरे बटन को दबाकर नीटा-रेज़ वाली पिस्टल की व्यवस्था कर लो। इस पिस्टल में बेहोश करने की गोली के साथ-साथ बेहोश करने के परफ्यूम-स्प्रे की भी व्यवस्था होती है। इस परफ्यूम-स्प्रे में मनुष्य को आठ-दस घण्टे तक बेहोश कर देने की क्षमता होती है। इसके उपयोग से तुम आसानी से आठ-दस घण्टे के लिए बाहर घूमकर आ सकती हो।”
“ठीक है ऐनी, पर इस बीच यहाँ पर होने वाली हर पल की जानकारी तुम मुझे देते रहना।” आरती ने ऐनी ऐंजल से कहा।
“ठीक है, जैसा तुम उचित समझो, आरती।” ऐनी ऐंजल ने आरती से कहा।
और कुछ ही समय में आरती ने नीटा-रेज़ वाली पिस्टल की व्यवस्था करके ऐनी ऐंजल से कहा-“ठीक है ऐनी, मैं शीघ्र ही वापस आऊँगी, तुम यहाँ की गतिविधियों का ध्यान रखना और साथ ही मेरे सम्पर्क में बने रहना। इस बीच बाहर से यदि कोई व्यक्ति अन्दर आए तो उसकी सूचना तुम मुझे तुरन्त ही दे देना।”
“इस विषय में भी आरती तुम्हें बिलकुल भी चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। बाहर से जैसे ही कोई व्यक्ति इस वातावरण में प्रवेश करेगा, वह तुरन्त ही बेहोश हो जाएगा।” ऐनी ऐंजल ने आरती को परफ्यूम-स्प्रे की विशेषता बताते हुए कहा।
“तब ठीक है ऐनी, फिर तो मुझे कोई चिन्ता नहीं है।” ऐसा कहकर आरती ने बाहर जाने का मन बनाया।
इसके बाद आरती ने *नीटा-रेज़* वाली पिस्टल से कैदखाने में सभी जगह परफ्यूम का स्प्रे कर दिया और देखते ही देखते अण्डर-ग्राउण्ड कैदखाने में जितने भी चौकीदार और अन्य बन्दूक-धारी गार्डस् थे, वे सब के सब बेहोश हो गये। अब आरती को बाहर जाने में कोई भी रुकावट या परेशानी नही थी। अतः वह कैद खाने से बाहर निकलकर मेन रोड से होती हुई बाज़ार में आ गई।
बाज़ार का नज़ारा बड़ा ही विचित्र-सा लगा, आरती को। यहाँ पर न तो कोई भीड़-भाड़ ही थी और ना ही कोई विशेष चहल-पहल ही। गरीबी ही गरीबी पसरी पड़ी थी, इधर-उधर और सभी तरफ। मिट्टी के बने हुए कच्चे मकान अधिक थे और पक्के ईंट-पत्थरों या सीमेंट के बने मकान तो बस इक्का-दुक्का ही नज़र आ रहे थे। गन्दगी का साम्राज्य था हर तरफ।
सड़क पर और दुकानों पर पुरुष ही पुरुष नज़र आ रहे थे और स्त्रियाँ तो दूर-दूर तक कहीं भी दिखाई नहीं दे रहीं थीं। आरती के मन में रह-रह कर यही प्रश्न उठ रहा था कि क्या यहाँ पर केवल पुरुष ही रहते हैं। यदि स्त्रियाँ भी रहती हैं तो फिर वे दिखाई क्यों नहीं दे रहीं हैं।
आरती बाजार में थोड़ा ही आगे बढ़ पाई थी कि तभी किसी ने पीछे से पुकारा-“ऐ लड़की, तू यहाँ बाजार में इस तरह से क्यों घूम रही है। क्या तुझे अपनी जान की जरा भी चिन्ता नहीं है।” और यह आवाज थी एक बुजुर्ग महिला की, जो कि मटमैले रंग का बुर्का पहने हुए थी। और बड़ी तीब्र गति से आरती की ओर बढ़ी चली आ रही थी। शायद उसने आरती को अपने घर के अन्दर से ही देख लिया होगा और फिर वह उसकी जान को बचाने के मकसद से, उसे सावधान करने के लिए चली आई थी।
“क्यों, क्या हुआ, क्या यहाँ पर लड़कियों के घूमने-फिरने पर पाबन्दी है।” आरती ने उस बुर्के वाली बुजुर्ग महिला से पूछा।
“हाँ, क्या तुझे मालूम नहीं है कि इस घाटी में लड़कियों का इस तरह से घर से बाहर निकलना या घूमना-फिरना बिलकुल भी खतरे से खाली नहीं है और यदि कोई विशेष मजबूरी हो और घर से बाहर निकलना ही पड़े तो बुर्का पहनना जरूरी है।” उस बुजुर्ग महिला ने आरती को खतरे से सावधान करते हुए कहा।
“क्यों, ऐसा क्यों है अम्मीज़ान। लड़कियाँ अपने घर से बाहर क्यों नहीं निकल सकतीं।” आरती ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
“तूने मुझे अम्मीज़ान कहा है बेटी। तो पहले तो तू जल्दी से घर के अन्दर चल। बाद में मैं तुझे सब कुछ बता दूँगी। अगर इस हालत में खलीफा ने या खलीफा के किसी आदमी ने हमें यहाँ पर देख लिया तो बहुत बड़ी मुसीबत आन पड़ेगी। हम सबकी जान जोखिम में पड़ जाएगी।” बुर्के वाली बुजुर्ग महिला ने डरते हुए आरती से कहा।
“अम्मीज़ान, इसमें डरने की क्या बात है। हम भी तो आखिर इन्सान हैं, हम सब भी तो खुदा के बन्दे हैं और घूमने-फिरने की आजादी तो हम सबको भी है। तो फिर डरना कैसा और किससे।” आरती ने अपना तर्क दिया।
“तुझे मालूम नहीं है बेटी, खलीफा को या उसके किसी आदमी को पता चल गया तो वह तुझे भी गोली से उड़ा देगा। मैं अपनी बड़ी बेटी को गँवा चुकी हूँ, बेटी। इसी खलीफा ने उसके शरीर को गोलियों से छलनी-छलनी कर दिया था, बीच बाज़ार में। बस, तेरे ही बराबर की थी, मेरी बेटी।” ऐसा कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े और गला रुँद गया।
“क्यों, ऐसा क्या कुछ हुआ अम्मीज़ान, जो खलीफा ने आपकी बेटी को जान से मार डाला।” आरती ने आतुरता के साथ पूछा।
“बेटी, मेरी बेटी आलिया बहुत होशियार थी। उसका दिमाग बहुत तेज चलता था, उसे पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था और वह पढ़-लिखकर बहुत बड़ा अफसर बनना चाहती थी। एक दिन वह मदरसे में यह देखने के लिए चली गई कि कैसी होती है पढ़ाई और कैसे पढ़ते हैं बच्चे। बस मौलवी साहब को आलिया की यह बात बड़ी नागँवार गुजरी। उन्होंने उसको पकड़कर वहीं पर बैठा लिया और तुरन्त ही खलीफा को खबर कर दी। खलीफा मेरी बेटी को बीच बाजार में खींच कर ले आया और फिर भरे बाजार में सब के सामने उसके शरीर को गोलियों से छलनी-छलनी कर दिया। और ऐसी दहशत पैदा कर दी कि कभी कोई दूसरी लड़की भूलकर भी पढ़ने-लिखने के बारे में सोच भी न सके और ना ही कभी कोई लड़की मदरसे की ओर मुँह भी कर सके।” और ऐसा कहते-कहते तो अम्मीज़ान फूट-फूटकर रोने लगी।
“आस-पास के लोगों ने और बाजार वाले लोगों ने इस सबका कोई विरोध नहीं किया, अम्मीज़ान। और क्या कोई कुछ भी नहीं बोला उस खलीफा के विरोध में।” आश्चर्य-चकित होकर आरती ने अम्मीज़ान से पूछा।
“सब डरते हैं, बेटी उससे। सबको अपनी जान प्यारी है। कोई भी बचाने नहीं आया और ना ही किसी ने कोई विरोध ही किया। दिनभर मेरी बेटी की लाश सड़क पर ही पड़ी रही, मदद के लिए कोई भी नहीं आया सामने।” दुपट्टे के पल्लू से आँसू पौंछते-पौंछते अम्मीज़ान सुबक-सुबक कर रोने लगीं।
अम्मीज़ान को सांत्वना देते हुए आरती ने पूछा-“क्या यहाँ पर लड़कियों को मदरसे या स्कूल में पढ़ने-लिखने के लिए जाने नहीं दिया जाता है, अम्मीज़ान।”
दुपट्टे के आँचल में अपने आँसुओं को समेंटते हुए अम्मीज़ान ने आरती को बताया-“हाँ बेटी, इस देश में लड़कियों को कलम और किताब से दूर ही रखा जाता है। मदरसे और स्कूलों में तो केवल लड़कों को ही पढ़ाया जाता हैं। लड़कियों को तो वहाँ पर पढ़ने की तो बात बहुत दूर की है वहाँ पर प्रवेश की भी इज़ाजत नहीं है।”
“ये कैसा कानून है, अम्मीज़ान। पढ़ाई पर तो सबका बराबर का अधिकार है। लड़के और लड़कियाँ जब दोनों ही पढ़ेंगे तभी तो देश और समाज की तरक्की हो सकेगी और हम सब लोग आगे बढ़ सकेंगे। अगर समाज में केवल लड़के ही पढ़ेंगे तब तो देश और समाज की आधी तरक्की ही हो सकेगी। अगर हमें सम्पूर्ण समाज की तरक्की करनी है तो लड़के और लड़कियों दोनों को ही पढ़ाना होगा।” आरती ने अपना तर्क प्रस्तुत किया।
“ये बात तो सब लोग जानते भी हैं और सब लोग समझते भी हैं, बेटी। पर खलीफा के तुगलकी फरमान और फतवा के आगे सब लोगों को डर लगता है। सभी को अपनी जान प्यारी है और इसीलिए कोई भी इसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाता है।” अम्मीज़ान ने लोगों की मजबूरी का हवाला देते हुए कहा।
“पर अम्मीज़ान, यहाँ के सभी लोगों की खुद की क्या राय है। वे लोग अपने घर की लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना चाहते भी हैं या नहीं।” आरती ने अम्मीज़ान से आम राय जानना चाहा।
“ज्यादातर लोग तो अपने लड़के और लड़कियों, दोनों को ही पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं और अच्छा अफसर बनाना चाहते हैं। शान्ती की जिन्दगी सबको पसन्द है सब अपनी मेहनत से तरक्की करना चाहते हैं। पर आतंकवादी आकाओं और खलीफा के फतवा और फरमान के कारण वे अपने घर की लड़कियों को स्कूल और मदरसे में पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।” अम्मीज़ान ने बताया।
“अम्मीज़ान, ये खलीफा देखने में कैसा लगता है और क्या मैं इस खलीफा से मिल सकती हूँ। मैं उससे पूछूँ तो सही कि आखिर वह ऐसा क्यों करता है।” आरती ने अपनी इच्छा प्रकट की।
“न बेटी न, ऐसी गलती तू कभी भूलकर भी मत करना। वह तो बहुत बड़ा जल्लाद है। तुझे देखते ही गोली मार देगा वह।” भय के मारे काँप ही गईं थी अम्मीज़ान।
“पर अम्मीज़ान, अगर वह मेरे सामने आ भी गया तो मैं तो उसे पहचान ही न सकूँगी।” आरती ने अपनी विवशता बताई।
“ठहर, मेरे पास में उसका एक छोटा-सा फोटो पड़ा हुआ है। मैं उस फोटो को तुझे दिखाती हूँ। उसकी शक्ल को देखते ही तुझे तुरन्त ख्याल आ जाएगा बेटी, कि वह जल्लाद कितना जहरीला इन्सान है।” कहते हुए अम्मीज़ान ने कौने में रखे हुए अपने बाबा आदम के जमाने के पुराने सन्दूक का ताला खोला और फिर उसमें से फोटो को निकाल कर आरती को दिखाया।
बढ़ी हुई लम्बी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी मूँछें, बिखरे हुए बाल और डरावना चेहरा, देखने से तो जल्लाद ही दिखाई दे रहा था वह खलीफा। दया और रहम जैसे शब्द तो उससे कोसों दूर ही होंगे।
“क्या मैं इस फोटो को अपने पास रख सकती हूँ, अम्मीज़ान।” आरती ने अम्मीज़ान से पूछा।
“हाँ बेटी, अब तो ये फोटो तू ही अपने पास में रख ले। शायद तेरे ही कुछ काम आ जाए, ये फोटो। और वैसे भी ये फोटो तो मेरे लिए अब किस काम का है। पर, ये ही तो है मेरी बेटी आलिया का हत्यारा और मेरा जानी दुश्मन। इसके खून को पीकर ही मुझे चैन पड़ेगा, बेटी।” जल्लाद खलीफा के फोटो को आरती के हाथों में थमाते हुए अम्मीज़ान की आँखों से आँसू ढुलक पड़े। उनके मन की पीढ़ा और आक्रोश चहरे पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे थे।
काफी देर हो चुकी थी आरती को और उसे अपने कैदखाने की हर परिस्थिति का ख्याल आ रहा था। अतः उसने अम्मीज़ान से विदा लेते हुए कहा-“अम्मीज़ान, अभी तो मैं चलती हूँ लेकिन बहुत ही जल्दी मैं आपसे मिलने जरूर आऊँगी।”
“हाँ बेटी, जब कभी तुझे थोड़ा-बहुत टाइम मिले तो मिलने के लिए जरूर ही चली आना। तुझसे मिलकर बेटी मेरे दिल को बड़ा ही सकून मिलता है।” कहते-कहते अम्मीज़ान की आँखें भर आईं।
“अम्मीज़ान, आप मेरी जरा भी फ़िकर मत करो। आपकी बेटी आलिया की शहादत यूँ ही बेकार नहीं जाएगी। मेरा मन कहता है अम्मीज़ान, एक न एक दिन खलीफा को उसके किए की सज़ा तो जरूर ही मिलेगी। उस ऊपर वाले अल्लाहताला के दर पर देर है पर अँधेर नहीं।” आरती ने अम्मीज़ान को भरोसा दिलाया।
“बेटी, शायद तेरी ही इबादत कबूल कर ले अल्लाहताला, वैसे मेरी आँखें तो कब से तरस रहीं हैं उसके इन्साफ के इन्तज़ार में। पर अल्लाहताला तो जाने कहाँ गहरी नींद में सोया हुआ है, मेरी तो कुछ भी सुनता ही नहीं।” दुःखी मन से अम्मीज़ान ने कहा।
“नहीं अम्मीज़ान, आप उस ऊपर वाले पर भरोसा रखो। आपको इन्साफ जरूर मिलेगा। अच्छा, अम्मीज़ान अब मुझे जाना होगा, काफी देर हो चुकी है।” आरती ने अम्मीज़ान से कहा।
“पर बेटी तू अकेली कैसे जा पाएगी अपने घर तक। चल मैं ही तुझे पहुँचा देती हूँ। लेकिन बेटी, बाहर निकलने से पहले तू ये बुर्का तो पहन ले और तभी तू घर से बाहर निकलना।” अपनी छोटी बेटी के नये बुर्के को अपने पुराने टूटे हुए सन्दूक में से निकालकर आरती को देते हुए अम्मीज़ान ने हठ पूर्वक कहा।
“नहीं अम्मीज़ान, आप मेरी चिन्ता तो बिलकुल भी मत करो। मेरा कोई भी कुछ भी तो नहीं बिगाड़ सकता है। मुझे इस बुर्के की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी और फिर आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ जो हैं मेरे साथ, अम्मीज़ान।” आरती ने अम्मीज़ान को आश्वासन देते हुए कहा।
पर अम्मीज़ान जानती थी खलीफा की शक्ति को और उसके दुराचारी आचरण को। छोटी-सी नन्हीं कोमल जान, एक अदना लड़की कैसे मुकावला कर पाएगी उस दुष्ट राक्षस का।
वह निश्चय कर चुकी थी कि बिना बुर्का पहने हुए तो वह किसी भी हालत में उसे घर से बाहर नहीं ही निकलने देगी। चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए। अम्मीज़ान की स्नेह-मयी ममता और हठ के आगे आरती का हर ब्रह्मास्त्र बौना पड़ गया।
आरती ने अनुभव किया कि अम्मीज़ान खलीफा के भय से बहुत अधिक भयभीत हैं और वे किसी भी हालत में वगैर बुर्का पहने घर से बाहर नहीं निकलनें देंगी। अतः आरती ने अम्मीज़ान का मन रखने के लिए, उनके आदेश का पालन करते हुए बुर्के को पहन कर ही घर से बाहर निकलना उचित समझा।
घर से निकलकर कुछ दूर तक तो आरती ने बुर्का पहने रखा और फिर उतारकर अपने पास में ही रख लिया। और फिर बिना बुर्का पहने ही चल पड़ी अपने रास्ते पर।
आखिरकार आरती भी तो देखना चाहती थी कि कौन है ऐसा दुष्ट खलीफा जिसने यहाँ पर अपने आतंक से भोलीभाली जनता को इतना आतंकित कर रखा है और अत्याचार फैला रखा है।
अब उसने अपना मन बना लिया था कि यदि उसे आज वह खलीफा मिल जाय तो वह उसे मजा चखाकर ही रहेगी। तड़पा-तड़पा कर मारेगी उसे और फिर बेदम करके भयभीत अम्मीज़ान के कदमों में ले जाकर डाल देगी उसे। और फिर अम्मीज़ान से कह देगी कि ये लो अम्मीज़ान, ये है आपकी बेटी का जालिम हत्यारा, आपके कदमों में। और पी लो इसका सारा खून, जितना चाहो उतना। बहुत पिया है इसने बहुतों का खून। मारो इस आतातायी अत्याचारी जल्लाद को, और जी भरकर मारो। तरसा-तरसा कर मारो, इन्सानियत के इस कलंक को।
पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और इससे पहले ही वह पहुँच चुकी थी अपने अण्डर-ग्राउण्ड कैद खाने तक। सब कुछ सामान्य था। सभी चौकीदार और बन्दूक-धारी गार्डस् अभी भी बेहोश ही पड़े हुए थे। ऐंजल ऐनी ने आरती को बताया कि इस बीच में यहाँ पर कोई भी नहीं आया था।
यह जानकर आरती ने चैन की सांस ली।
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