Gharana in Hindi Short Stories by Ratan Verma books and stories PDF | Gharana

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Gharana

घराना

रतन वर्मा

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घराना

यद्यपि लोक—लाज, शर्म—हया, औरतों का गहना होता ही है। पर कहावत यह भी है कि आफत—विपत्ति के समय घर में संजो कर रखे गए गहने ही तो काम में आते हैं। और फिर वैसे घरानों के लिए तो औरतें और भी लॉकर में सजा कर रखने वाली वस्तु बन जाती हैं, जो सिर्फ सामाजिक मान—प्रतिष्ठा को अपने रजाई—बिस्तर से लेकर खाना—पीना, उठना—बैठना, सब कुछ समझते हैं। ...और वैसे ही एक घराने में बहू बनकर आई थी ज्योत्सना।

घराना क्या था वह, जैसे घराने की एक—एक पीढ़ी एक—एक सितारा बनकर टंका हुआ हो आकाश में, और जिसकी टिमटिमाहट चकाचौंध बनकर समाज की आंखों को आज तक चौंधियाती आ रही हो।

वैसे समाज की आंखें चौंधिया रही थीं या नहीं, यह तो समाज के लोग ही जानें, मगर भ्रम तो यही पाल रखा था समरेश सिंह के पिता ने। यह जानते—समझते हुए भी कि सितारों की शक्ल में जितनी पीढ़ियों को टंकना था, वह तो टंक ही चुकी थीं। पर आज पीढ़ी—दर—पीढ़ी घराने की रईसी और ऐय्याशी ने राहु—केतु—शनि बनकर ऐसे ग्रसना शुरू कर दिया था घराने को कि अब तो जैसे—जैसे सर छुपाने के लिए खंडहर बन चुकी महज नाम की एक हवेली, पांच—सात बीघे जमीन और सर पर कुछ कर्ज के अलावा कुछ भी शेष नहीं बचा था। और उसी राहु, केतु, शनि के होने वाले उत्तराधिकारी थे बाबू समरेश सिंह, जिनके साथ ज्योत्सना ब्याह कर आई थी हवेली में।

वैसे ज्योत्सना भी किसी ऐसे— गैरे घराने से ताल्लुक नहीं रखती थी। जिस गांव की थी वह, उस गांव तक ही नहीं, बल्कि दूर—दराज के इलाकों तक तूती बोला करती थी उसके घराने की। हालांकि, जमींदारी उन्मूलन तो नहीं हुआ था, पर इसकी सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी, इसलिए आने वाले समय की नब्ज को ज्योत्सना के दादा ने समय आने के पूर्व ही भली—भाँति टटोल लिया था और नब्ज की क्रमशः धीमी होती जा रही गति के अनुकूल वे उपचार में भी जुट गए थे। जिसका पारितोषिक उन्हें यह मिला था कि उनका इकलौता लड़का, यानी ज्योत्सना के पापा पढ़—लिखकर बैंक में उच्चाधिकारी हो गए थे और उनकी इकलौती बेटी, यानी ज्योत्सना की फुफु अपने जमाने में डिप्टी कलक्टर!

स्वाभाविक था कि ज्योत्सना ने भी शहर में अपने पापा के साथ रहते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली थी। एम०ए० तक की शिक्षा— वह भी विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाकर।

वैसे ऐसी बात नहीं कि समरेश सिंह के पिता ने अपनी खिसकती जा रही लंगोट को बचाने के चक्कर में अपने सुपुत्र को अशिक्षित ही रहने दिया था। पर एम०एस०सी० तक की शिक्षा दिलवा देने के बावजूद अपने घराने की मान—मर्यादा को ध्यान में रखकर अपने सुपुत्र को नौकरी की ओर पांव बढ़ाने से रोक दिया था उन्होंने। भला सितारों में टंकने वाले घराने का कुलदीपक भी नौकरी करेगा? —शायद अपनी इसी सोच के तहत।

खैर, तो सितारों में टंके घराने के कुलदीपक बाबू समरेश सिंह भी ‘दूर का ढोल सुहावना' की तर्ज पर सितारे ही नजर आए थे ज्योत्सना के दादा को। जबकि ज्योत्सना के पापा ने आगाह जरूर किया था अपने बाबू जी को, ‘सो तो आप जो भी करेंगे, ज्योत्सना के भले के लिए ही करेंगे, मगर अब वह जमींदारी वाली बात रही कहां? लड़का कुछ करता—धरता तो है नहीं...'

‘पर एम०एस०सी० तो है। पढ़ाई उसने वैसे ही तो नहीं की है। तलाश रहा होगा कोई अच्छी—सी नौकरी। ... वैसे सोच लो। खानदान और लड़का, दोनों ही मुझे बेहद पसंद है...”

अब खानदानी संस्कार तो कूट—कूटकर भरा ही था ज्योत्सना के पापा में, फिर अपने बाबू जी से मुंह भला कैसे लगा सकते थे वे, सो मौन साध जाना पड़ा था उन्हें।

उधर बाबू समरेश सिंह के घर में अलग ही एक ‘गुनधुन' शुरू हो गई थी— उस खानदान से बहू कैसे लाएंगे वे, जिस खानदान में लोग तो लोग, औरतें भी नौकरी करती हों।

लेकिन ‘गुनधुन' के बीच भी समरेश सिंह के बाबूजी को क्रमशः अपनी खिसकती जा रही लंगोट का खयाल आ गया था। फिर तो इस तर्क के साथ कि करती हैं नौकरी वहां की औरतें, तो करती रहें, हमारी बहू तो नौकरी में नहीं है न, उन्होंने इस रिश्ते को स्वीकार लिया था। वैसे इस स्वीकार के पीछे मूल कारण था कि अपनी खिसकती लंगोट को बचाने का उन्हें एकमात्र यही रास्ता नजर आया था— उस घराने की लंबी नाक इतनी दहेज तो दे ही देगी, जिससे सिर पर का कर्ज उतार सकें वे।

और सचमुच, समरेश सिंह के खानदान की चकाचौंध और बातचीत के लिए आए लड़की की ओर से कुटुंबों के राजसी सत्कार ने ज्योत्सना के पापा के मुंह से यह उचरवा ही दिया था, ‘वाह, क्या घराना है। जरूर इस घराने का ताल्लुक राजे—महाराजे से रहा होगा। ऐसी शानो—शौकत कहां देखने को मिलती है अब...'

अपने बाबूजी के सामने ज्योत्सना के पापा ने तारीफ का ऐसा पुल बांधा था कि ज्योत्सना के दादा का चेहरा, मानो तृप्ति के महासमुद्र में डूबने—उतराने—सा हो गया था। फिर तो लेन—देन के मामले में इतने उदार हो उठे थे वे कि सचमुच समरेश सिंह के खानदान की लंगोट खिसकते—खिसकते भी फिर से अपनी जगह पर आकर अवस्थित हो गई थी।

इस प्रकार ज्योत्सना, समरेश सिंह के घराने की इज्जत—आबरू, गहना—जेवर, मान—सम्मान, सब कुछ बनकर उस तथाकथित हवेली में अपने लाखों—करोड़ों अरमानों को संजोए आकर समा गई थी, बिना किसी हील—हुज्जत के।

समय अपनी गति से खिसकता गया था। और उस समय की रफ्तार ने परत—दर—परत लंगोटे के रहस्य को भी धीरे—धीरे बेपर्द करना शुरू कर दिया था ज्योत्सना की आंखों के आगे। जिस घराने ने ज्योत्सना के पापा और दादा जी के सामने अथाह जलराशि से लबालब किसी सोते की शीतलता का परिचय परोसा था, वह तो मरूभूमि की मृगतृष्णा के अलावा कुछ और था ही नहीं— कुछ ही दिनों में समझ गई थी ज्योत्सना।

लेकिन थी तो वह भी खानदानी लड़की ही न। सो अपने पति के आगे मुंह कैसे खोल सकती थी? और चूंकि पति के घर को प्रतिष्ठा बन चुकी थी वह, इसलिए अपने घर की पोल मायके वालों के सामने खोल भी तो नहीं सकती थी। पर हालात के निर्णय को सबों को तो मानना ही पड़ता है। हुआ यों था कि एक दिन अनायास ही बाबू समरेश सिंह के बाबूजी चल बसे थे। हालांकि अपनी साठ की उम्र में भी वे हृष्ठ—पुष्ट ही थे, पर काल को भी दिन—तारीख देखकर न्योता थोड़े ही दिया जाता है? सो एक रात अचानक ही सीने में दर्द क्या उठा उनके, सीधे ‘राम नाम सत्य' पर लाकर ही दम लिया उस दर्द ने।

अब ठहरे तो समरेश सिंह भी महाखानदानी लोग ही, फिर बाबूजी का श्राद्धकर्म पूरी शानो—शौकत के साथ तो करना ही था। लेकिन शान—शौकत के निर्वाह के लिए औकात तो थी नहीं उनकी। फिर क्या था, फिर से जमीन कुर्बान करने को उतारू हो गए।

पर इस बार ज्योत्सना को अपना मुंह खोलना ही पड़ा था, ‘अब बची ही कितनी जमीन है हमारे पास ? सिर्फ पांच बीघे न! उतने में से भी दो बीघा बेच ही देंगे, तो हमारे भविष्य का क्या होगा?'

‘तो क्या चाहती हैं आप? समाज में अपनी नाक कटवा लूं?'

‘पर इसका खयाल है आपको कि कल क्या होगा? कल को भीख मांगने की नौबत आएगी, तब नाक नहीं कटेगी?' कुछ अधिक ही मुखर हो उठी थी ज्योत्सना उस दिन, जिसका नतीजा यह हुआ था कि घर की आवाज घर के बाहर जाने की स्थिति तक पहुंचने को आ गई थी। फिर तो ज्योत्सना को ही दम साध लेना पड़ा था हारकर।

लेकिन भविष्य की आशंकाओं से पहले ही सचेत हो जाने की उसकी सोच ने मन—ही—मन उसे किसी निर्णय तक पहुंचने को उकसाना शुरू कर दिया था और अंत में निर्णय ले ही लिया था उसने—

उन दिनों वह अपने पापा के यहां गई हुई थी। मौका देखकर पापा से कहा था उसने, ‘पापा, मैं नौकरी करना चाहती हूं।'

चौंक पड़े थे उसके पापा उसके प्रस्ताव से। बोले थे, ‘क्यों, सब ठीक—ठाक तो है?'

‘क्यों, ठीक क्यों नहीं होगा? दरअसल दिन—भर घर में बैठे—बैठे बोर हो जाती हूं।'

‘पर जमाई बाबू....?'

‘उनकी छोड़िए, उन्हें मैं मना लूंगी।'

और इस प्रकार अपने पापा को राजी कर ही लिया था उसने। फिर तो जमकर तैयारी शुरू कर दी थी उसने। और उस दिन खुशी का ठिकाना नहीं था उसका, जब लेक्चरर के पद के ‘वाइबा' के लिए पापा के हाथ से पत्र मिला था उसे। उसके पापा खुद पत्र लेकर पहुंचे थे उसके घर।

अपनी प्रतिभा पर तो भरोसा था ही उसे कि सफल वह होगी ही। लेकिन जब इस बाबत समरेश सिंह ने सुना, पहले तो ज्योत्सना पर ही हत्थे से उखड़ गए थे, फिर उसके पापा को भी नहीं बख्शा था उन्होंने। वह खरी—खोटी सुनाई थी अपने ससुर को कि वे तो फिर घंटे—दो घंटे के लिए भी नहीं टिक पाए थे वहां और सीधे शहर वापस लौट गए थे। गुस्सा उन्हें अपने दामाद पर कम और ज्योत्सना पर ही अधिक आया था कि जब दामाद को मंजूर नहीं था, फिर नौकरी के लिए जिद क्यों की उसने।

दरअसल घर के अंदरूनी हालात का पता तो था नहीं उन्हें।

अपने पापा के जाने के बाद अपने पति परमेश्वर को खूब समझाने की कोशिश की थी उसने, ‘आप समझते क्यों नहीं? आपकी निशानी मेरे पेटे में पल रही है। और घर के जो हालात हैं, वे मुझसे छुपे हुए तो नहीं हैं। कम—से—कम हमारे होने वाले बच्चे के भविष्य का तो ख्याल कीजिए....'

मगर समरेश सिंह टस से मस नहीं हुए थे। उनके होठों पर एक ही रट, ‘हमारे घराने में न तो कभी किसी ने नौकरी की है, और न करेगा। तुम्हें करनी ही है, तो यह समझ लो कि हमारा तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। नाता तोड़कर जाना चाहो, तो जा सकती हो...।'

आज जीवन में पहली बार समरेश सिंह ने ज्योत्सना को ‘आप' की जगह ‘तुम' से संबोधित किया था।

उस सारी रात दोनों पति—पत्नी एक—दूसरे से मुंह फेरे रहे थे बिस्तर पर। समरेश सिंह तो थोड़ी देर में सो गए थे, पर ज्योत्सना की आंखों में नींद का कतरा नहीं— सारी रात भूत, वर्तमान और भविष्य उसकी आंखों के आगे चलचित्र के समान दृश्यवत्‌ नाचता रहा था। —भूत, यानी इस घराने का गुजरा हुआ कल; वर्तमान, यानी घराने की जली हुई रस्सी की ऐंठन और भविष्य, बस जली और ऐंठी हुई रस्सी की राख के रूप में भुरभुराकर ढह जाने का एक निश्चित आभास। ...और सुबह तक अपनी होने वाली संतान के भविष्य की विकरालता को महसूस कर दिल कड़ा करके एक ठोस निर्णय ले ही लिया था उसने।

और तब अपनी खानदानी हेठी में आपादमस्तक सने हुए बाबू समरेश सिंह ने भी ज्योत्सना को मना नहीं किया था जाने से।

वैसे उसके जाने के बाद गांव में यही प्रचारित कर दिया था उन्होंने कि ज्योत्सना मां बनने वाली थी और चूंकि परंपरा के अनुसार पहला बच्चा मायके में होना चाहिए, इसलिए ही वह चली गई है। बच्चा होने के बाद वह चली आएगी।

उधर, पापा के पास पहुंचकर अपनी ससुराल के सारे अंदरूनी हालात से परिचित कराते हुए पापा से बोली थी वह, ‘पापा, मुझे अपने बच्चे का खयाल रखना चाहिए या नहीं ? वैसे कुछ दिनों में जाकर मैं उन्हें भी समझा लूंगी। तब तक उनका गुस्सा भी उतर जाएगा।'

उसके पापा को अपनी बेटी की सूझ—बूझ पर गर्व ही हुआ था।

जैसा कि खुद पर भरोसा था ज्योत्सना को, ‘वाइबा' में सफलता हासिल कर लेक्चरर पद पर नियुक्त हो गई थी वह। फिर कुछ ही महीने बाद एक खूबसूरत से बच्चे की माँ भी बन गई थी।

उधर, बच्चा होने के बाद भी जब ज्योत्सना ससुराल वापस नहीं लौटी थी, समरेश सिंह को बातों—बातों में ही गांव वालों को समझाते रहना पड़ा था कि पापा की बीमारी के कारण नहीं आ पा रही है... या देखिए न, उसके पापा स्वस्थ हुए ही हैं कि उसकी माँ ने बिस्तर पकड़ लिया....

एकमात्र घर के सबसे विश्वस्त नौकर गोकुल को मालिक और मालकीन के बीच की अनबन का पता था, जो ज्योत्सना को उसके पापा के पास पहुंचाने गया था।

तीन वर्षों का लंबा अंतराल! इस बीच ज्योत्सना ने अपने जीवन को पूरी तरह मशीन बना लिया था। सिर्फ कॉलेज और बच्चा। हां, रातें कांटों का बिस्तर जरूर बन जातीं उसके लिए, जो उसके एहसास में समरेश सिंह को उतारकर उसे अंदर—बाहर से लहूलुहान कर जातीं।

वैसे एक बार गर्मी की छुट्टियों में वह गई जरूर थी अपनी ससुराल। मगर अपमानित होकर ही वापस लौटना पड़ा था उसे। लेकिन गर्मी की छुट्टियां बिताने के बाद ही। क्योंकि समरेश सिंह नहीं चाहते थे कि गांव वालों को उनके बीच की अनबन का पता चले।

पूरी गर्मी की छुट्टी दोनों में संवादहीनता के बीच ही बीती थी। लेकिन उस बार के बाद फिर दोबारा नहीं गई थी ज्योत्सना वहां लौटकर।

अचानक घबराया—घबराया सा एक दिन गोकुल पहुंचा था ज्योत्सना के पास। बोला था, ‘गजब हो गया मालकीन। हवेली को साहूकार जप्त करने वाला है। कचहरी में मोकदमा खड़ा करने वाला है।'

सनाका मार गया था ज्योत्सना को यह सुनकर— तो जिस बात का अंदेशा था, वह उभरकर सामने आ ही गया था। यानी लंगोट के उतरने का दिन। वह भी सिर्फ पाँच लाख के एवज में।

फिर तो भागी थी ज्योत्सना गोकुल के साथ बिना एक दिन भी गंवाए। हवेली में कदम रखते ही समरेश सिंह पर नजर पड़ी थी उसकी। चेहरे पर वही हेठी.... आवाज में वही सख्ती, ‘क्यों आई हो यहां?'

पर ज्योत्सना ने कोई उत्तर नहीं दिया था। चुपचाप अंदर जाकर फ्रेश—वे्रश हुई थी, फिर गोकुल को भेजकर साहूकार को बुलवाने के बाद उसका कर्ज अदा करके हवेली का कागज हस्तगत कर लिया था।

दूसरे दिन लौटने से पहले समरेश सिंह के पास पहुंची थी वह। समरेश सिंह के चेहरे की हेठी पूर्ववत्‌ ही। फिर तो पल भर के लिए भी नहीं ठहरी थी वह वहां। हवेली के कागज उनके सामने रखकर गोकुल के साथ बाहर निकल गई थी स्टेशन के लिए।

ट्रेन अभी खुलने को ही थी कि ज्योत्सना को अपनी ओर ही आ रहे समरेश सिंह नजर आए थे। पास आकर कुछ—कुछ सकुचाते हुए बोले थे वे, ‘मैंने भी ट्रेन की टिकट ले ली है। मैं भी चलूं आपके साथ?'

समरेश सिंह आज इस तरह हारे—थके से उसके सामने खड़े हैं, यह देखकर ज्योत्सना की आंखें छलछला आई थीं। उनके दोनों हाथों को खिड़की के रास्ते ही हाथों में लेकर चूमती हुई फफक पड़ी थी वह।