Kathputli ka Khel in Hindi Short Stories by Ashok Gupta books and stories PDF | Kathputli ka Khel

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Kathputli ka Khel

कठपुतली का खेल

मार्च का दूसरा हफ्ता...खुशनुमा सुबह...वक्त, करीब साढ़े दस. सड़क पर ऑफिस और दूकान पहुँचने वालों की आपाधापी करीब करीब खत्म हो चुकी है. सड़क के एक ओर बनी छोटी दुकानें खुल चुकी हैं, कुछ बड़ी दुकानें खुलने के इंतज़ार में हैं. बंद दुकानों के पहले ही पहुँच चुके ग्राहक पास ही एक चाय की गुमटी पर सर्दी का उपसंहार निभा रहे हैं. कुछ चायबाज़ ऐसे भी हैं जो बारामासी धर्म से बंधे हुए है. इन सबकी चुस्कियों में बतरस भी घना है.

प्रहलाद लंगड का ‘सब कुछ स्टोर’ खुल चुका है. इसके मुंडू ने काउंटर भीतर से खींच कर उसमें सामान सेट कर सजा दिया है. दूकान की झाड़ा-पोंछी हो चुकी है. अगरबत्ती धूप जैसे बवंडर में प्रहलाद लंगड विश्वास नहीं करता, अलबत्ता अपनी बैसाखी को सुबह शाम फौजी सैल्यूट करना उसका बहुत पुराना नियम है. उसे ऐसा करते देख कर हंसने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता, किसे शौक है कि वह अपनी फजीहत कराये.

प्रहलाद अपने काउंटर पर बैठ चुका है. उसका मुंडू, जिसे प्रहलाद कम्पट कहता है, अभी अभी दूकान के भीतर, नया आया माल सजा कर फारिग हुआ है. प्रहलाद का यह ‘सब कुछ स्टोर’ एक अस्पताल के पड़ोस में है और साथ ही एक स्कूल के भी एकदम पास है. इसलिए उसके स्टोर में ‘सब कुछ’ का दायरा बहुत बड़ा है. वहां प्रहलाद का स्टोर अकेली ऎसी दूकान है जिस पर ‘आज नगद कल उधार’ की पट्टी नहीं लगी है. वह कहता है,

‘चचा, झूठ नुमायश क्यों लगाऊं. उधार तो मुझे करना पडता है. अपने गाहक की उधारी सह लेता हूँ और अपने सप्लायर से बेहिचक उधारी मांग लेता हूँ. हां, पैसा किसी का भी कभी नहीं मरता. न मेरा न मेरे सप्लायर का.

प्रहलाद साथ के सभी दुकानदारों को चचा कहता है, सिवाय उस चाय की गुमटी वाले के. उसे तो प्रहलाद ने नाम दिया है, ‘साकी’, और इसी से चाय वाले का ठीहा साकी का अड्डा मशहूर हो गया है. प्रहलाद अपने काउंटर पर बैठा है और देख रहा है कि साकी के अड्डे पर सैम आज फिर बिना दूध की चाय का गिलास थामे बैठा है और फोटो कॉपी वाले कि दुकान खुलने की इंतज़ार में है. फिर वहम है प्रहलाद को. ‘ये आदमी मुझे ऐसे ताकता क्यों रहता है ? कभी तो कोई खास बात हुई नहीं उससे, तो फिर...?

प्रहलाद के मोबाइल ने बज कर उसे चौंकाया. उसने बात सुनी और एक्शन में आ गया. फोटोकॉपी वाला गुलाटी अपनी दुकान रात को देर तक खोलता है लेकिन सुबह देर से आता है. ‘सब कुछ’ स्टोर्स’ का चलन सुबह जल्दी खुलने का, और रात को देर से बंद होने का है. कल शाम गुलाटी कुछ कागजों का एक पैकेट प्रहलाद लंगड को दे गया कि उसे स्कूल में कल सुबह ही पहुंचाना है. यह फोन स्कूल से ही था.

प्रहलाद ने बैसाखी उठाई. अपना वह थैला गले में आड़े लटकाया जिस में वह पैकेट रखा था, और फुर्ती से चल दिया. कंपट तुरंत काउंटर पर आ गया.

प्रहलाद लंगड को लौटने में करीब आधा घंटा लगा. स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज चेरियन राउंड पर थीं. वह लौटीं, पैकेट चेक किया, बिल चपरासी के हाथों बड़े बाबू के पास भेजा. जब पेमेंट ले कर चपरासी वापस लौटता , तभी प्रहलाद की भी वापसी होनी थी.

वापसी का नज़ारा कुछ और ही था.

सड़क पर ट्रैफिक बढ़ गया था, वह तो ठीक, लेकिन कुछ जमघट जैसी भीड़ ऐसी थी जैसी हमेशा नहीं होती. सड़क पर एक झोला पड़ा था. उसमें से घरेलू सामान बिखर कर बाहर आ गया था. कुछ कपडे, कुछ कागज़, कागज के लिफ़ाफ़े और एक पानी की बोतल. एक पैर की चप्पल, और सड़क के दूसरी तरफ एक अधेड सी औरत माथे पर हाथ धरे बैठी थी. उसका घुटना चोटियल दिख रहा था. पैर का अंगूठा लहू-लुहान था. पैर के नीचे उसकी पुरानी जर्जर धोती चिर गयी थी. पास में एक वैसी ही चप्पल भी पड़ी थी जैसी सड़क पर नज़र आ रही थी.

प्रहलाद लंगड को मामला एक नज़र में ही समझ में आ गया. किसी गाडी ने उस औरत को टक्कर मारी... उसका पैर उसकी धोती में फंसा और वह गिर पड़ी...चप्पल ने पैर का साथ छोड़ दिया. हाथ से छूटा झोला बिखर गया. अंगूठे के बाद घुटने की खबर सड़क ने ली. किसी दयावान राहगीर नें उस औरत को पकड़ कर सड़क के उस पार पहुंचाया और उसका काम खत्म हुआ. ट्रैफिक उसी तरह चलता रहा. बाज़ार, दुकान, साकी का अड्डा, सब बिना भटके गुलज़ार बना रहा.

फिर क्या था... प्रहलाद लंगड अपनी बैसाखी खटखटाता सड़क बे बीचों बीच आ गया और चिल्लाने लगा. धाराप्रवाह... उसने दूकान वालों को ललकारा. सड़क चलते लोगों को ललकारा. उसके लिये यह संभव नहीं था कि वह अपनी बैसाखी छोड़ कर सड़क पर बिखरा उस औरत का सामान समेट सके. प्रहलाद के पैर तो लुंज थे ही, एक हाथ की उंगलियां भी फालिज की गिरफ्त में बेजान थीं. लेकिन प्रहलाद लंगड इन सब का काम अपनी जुबान से लेता था, और बखूबी लेता था.

प्रहलाद के बोलने चीखने से लोग जुट आये. साकी के अड्डे से सैम भी उठ कर आ गया. प्रहलाद की ललकार ने किसी और भले मानुस को जगाया और वह आदमी सड़क पर बिखरा समान बटोरने लगा.

“ रखो, सब कुछ इस झोले में ढंग से रखो. “

एक कागज़ के लिफ़ाफ़े को प्रहलाद ने पहचाना. वह लिफाफा स्टेपल किया हुआ था इसलिए उस में से कुछ सामान बाहर नहीं आया था. उस लिफ़ाफ़े पर पेन से पांच सात लाइनों में हिसाब लिखा था और उसके साथ एक कार्ड भी स्टेपल किया हुआ था. ज़ाहिर था कि उस लिफ़ाफ़े में दवाएं थीं, जिसे वह औरत या तो अस्पताल ले जा रही थी या वहां से ले कर आ रही थी.

प्रहलाद लंगड की तूफानी अपील के आवेग में उस औरत का सामान उसके झोले में समेट दिया गया था. उसकी सड़क पर पड़ी चप्पल भी साथ ले ली गयी थी, और लोग उस औरत के पास पहुँच गये थे जो अब सड़क के किनारे ठीक वैसे ही पड़ी थी जैसे उसकी चप्पल औंधी गिरी हुई थी. वह औरत बेआवाज़ बिसूर रही थी, और उसका बिसूरना तब भी बंद नहीं हुआ था जब उसका झोला और चप्पल उसे वापस मिल गये थे.

जानकारी मिली कि वह औरत अस्पताल ही जा रही थी, जहां उसका मरद भर्ती था. वहीँ से वह बाहर केमिस्ट के पास दवाइयाँ लेने बाहर आयी थी.

यह जान कर प्रहलाद ने इशारा किया कि उस औरत को सड़क के इस पार ही ले आया जाय क्योंकि अस्पताल के लिये सड़क पर सवारी का रुख उधर ही होना था. औरत लाई गयी. वह अब कुछ संयत थी. उसे कोई गंभीर चोट नहीं लगी थी, लेकिन मन से वह आहत थी

तभी प्रहलाड़ लंगड को उधर से आती अस्पताल की एम्बुलेंस नज़र आई. प्रहलाद ने फिर सड़क के बीचोंबीच जा कर एम्बुलेंस को रोका. ड्राइवर से पता नहीं क्या बात की, फिर औरत को इसके झोला चप्पल सहित उस एम्बुलेंस में बैठा दिया, जो अस्पताल से बस कुछ ही दूरी पर रुकी हुई थी और अस्पताल ही जा रही थी. एम्बुलेंस के चलते चलते प्रहलाद ने एक बार फिर ड्राइवर और साथ के स्टाफ से जोर दे कर कहा कि इस औरत की भी मरहम पट्टी करा देना ज़रूर, अब जाओ.

एम्बुलेंस गयी. भीड़ छंटने लगी. प्रहलाद लंगड अपनी बैसाखी खटखटाता हुआ अपने स्टोर की तरफ लौटने लगा. कंपट इस बीच अपने काउंटर पर ही बैठा सारा नज़ारा ले रहा .

प्रहलाद लंगड जब अपने स्टोर पर पहुंचा तो उसने देखा कि सैम भी उसके साथ साथ वहां आ कर रुक गया है, हालांकि फोटोकॉपी की दूकान अब तक खुल चुकी थी. प्रहलाद को देख कर कंपट ने काउंटर की गद्दी खाली कर दी और अपने स्टूल पर आ गया. प्रहलाद भी अपनी बैसाखी ठीहे पर रख कर काउंटर पर आ गया, और तब उसकी नज़र सामने खड़े सैम पर गयी.

सैम. प्रहलाद की उससे कभी कोई खास बात नहीं हुई है. बस महीने दो महीने में कभी सैम उसे इस इलाके में नज़र आता है.वह ज्यादा बोलता किसी से नहीं. प्रहलाद तो उसका नाम भी ठीक से नहीं जानता. सैम है उसका नाम, या श्याम. जो भी हो, वह शख्स उसके सामने खड़ा है.

“क्या बात है..?” प्रहलाद पूछता है.

“बढ़िया काम किया आप...बहुत अच्छा किया.”

प्रहलाद हँसता है. “क्या दूँ..? बताओ.”

“तुमसे बात करने का है. शाम को आता हूँ, सात बजे, जाना मत.”

सैम अब जाने को तैयार है. फोटोकॉपी की दूकान उसे बुला रही है.

“ अभी देखो, क्या बज गया है... लेट है. शाम को आना है, सात बजे, आपसे बात करना है.”

प्रहलाद भौचक है. ये सैम, या श्याम, जो भी है, मुझसे क्या बात करना चाहता है भला.. यह काली चाय पीने वाला चुप्पा इंसान...?

प्रहलाद लंगड कड़क मीठी चाय पीता है. कंपट चाय नहीं पीता.प्रहलाद को जब चाय याद आती है तब वह सामने रखे जार में से लैमेंचूस की एक गोली निकाल कर अपने मुंडू कंपट को पकड़ा देता है.

इसी गोली को कंपट कहा जाता है, जिसे प्रहलाद के इस मुंडू ने पहले ही दिन बहुत लालच के साथ देखा था और फिर इस गोली के साथ अपने लिये एक नया नाम पा लिया था, कंपट.

तेज नज़र प्रहलाद लंगड के पास चेहरे पढ़ने का हुनर है, वह ऐसा समझता है. तभी तो एक गोली की ललक उसने अपने नये आये मुंडू के चेहरे पर ठीक पहले ही दिन पढ़ी, और फिर एक दो गोली प्रतिदिन के बदले उससे उसका नाम छीन लिया.

+++

उस शाम सैम करीब सवा आठ बजे लौटा. इस बीच करीब सात बजे फोटो कॉपी वाला गुलाटी प्रहलाद को बता गया कि सैम को ज़रा देर हो जाएगी, जाना मत. उसका फोन आया था. प्रहलाद तब तक सैम के आने की बात भूल चुका था. अपने स्टोर को नौ बजे तक खुला रखना उसका रोज का ढंग था. मरीजों के पास रात को रुकने वाले उनके रिश्तेदार उसी समय आते हैं, और सुबह का समय स्कूल के बच्चों के लिये होता है, जिनकी ज़रूरत को ‘सब कुछ स्टोर्स’ हर समय पूरा करता है.

सैम ने आ कर पहली हाजिरी गुलाटी के काउंटर पर दी. कुछ कागज़ उठाए जिन्हें गुलाटी ने पैक कर के पहले से ही तैयार कर रखा था. फिर वह प्रहलाद के पास आया, साढ़े आठ बजे. उसके पीछे पीछे साकी का लड़का एक गिलास में काली चाय लाता दिखाई दिया. उसके दूसरे हाथ में एक कड़क मीठी चाय का गिलास था. प्रहलाद समझ गया. उसने जार खोल कर एक कंपट अपने मुंडू को थामाया और स्टूल खाली करने का इशारा किया.

अब स्टोर में सिर्फ दो लोग थे. एक सैम और दूसरा प्रहलाद.

सामने दो गिलास थे. एक में थी कड़क मीठी चाय और दूसरे में काली चाय.

यह बात शुरू करने की तैयारी थी. सैम को बहुत कुछ कहना था. प्रहलाद को भी घर जाने की जल्दी नहीं थी.

+++

“मैं सैम बोलता हूँ. सैमुअल वर्निन डोमिंगो. आप सैम बोलो कि श्याम बोलो, चलेगा. नाम में क्या है. आप तो ए वन आदमी हो सर. वंडरफुल...”

प्रहलाद समझ गया कि सैम मेरे सुबह के करतब पर अटका हुआ है. वह मुस्काता रहा और चुप रहा.

“ क्या फस्ट क्लास काम किया आप. मैं तो देखता था..वो औरत पहले सड़क पर गिरा. फिर एक रिक्शावाला उसे किनारे छोड़ा. उसका बैग फिर भी उठाया नहीं...”

प्रहलाद सैम का चेहरा ताकता रहा. सैम जारी रहा.

“... फिर आप आया. फ़टाफ़ट सब सेट कर दिया. आपका स्पीच तो जादू है सर. एकदम मैजिक...”

“ चाय तो पियो, ठंढी हो रही है.”

“ पीता हूँ सर.. स्लो चलना.. आप तो एकदम फास्ट हो सर. मैं देखा न सुबह..”

अब प्रहलाद उकताने लगा.

“ बोलो, बात क्या करनी है, बताओ.”

“ बात... ठीक है, बताता हूँ.” पल भर को रुका सैम.

“ मुझे आप चाहिए सर. मैं एक ट्रेडर हूँ. आल इण्डिया में काम है मेरा. जैसे आपका है, ‘सबकुछ स्टोर’, वैसे ही मेरा भी आल टाइप काम है.बिग बिजनेस..”

सैम का हाल देख कर हंसा प्रहलाद लंगड. ये फट्टे पर बैठ कर काली चाय पीने वाला आदमी.. बिग बिजनेस. “

“ मेरा क्या करोगे भाई ? “ प्रहलाद ने हँसते हुए अपना सवाल रखा.

“ बेचूंगा सर. आपको बेचूंगा. आपका बड़ा मार्केट है सर, मैं जानता. क्या पावर है आपका स्पीच.. वंडर..”

प्रहलाद अभी भी मजाक के लहजे में था. उसकी कड़क मीठी चाय अभी भी थोड़ी उसके गिलास में बची हुई थी.

“ उससे क्या मिलेगा मुझे..?”

“ सर, आपका क्रेच ( बैसाखी ) जाएगा और ह्वील चेयर आ जाएगा... फिर कार, फिर दुनिया भर एयर लाइन्स में घूमना, और जम गया तो अपना चार्टर्ड प्लेन... स्पीच से क्या नहीं आता सर ? आप तो....”

ठठा कर हंसा प्रहलाद लंगड. उसके स्वर में एक व्यंग भी उतर आया.

“ और तुम कहाँ..?”

“ मैं तो अभी भी आल इण्डिया में हूँ साहब, आज सुबह कोयम्बटूर से निकला, रात को, कोलकाता का फ्लाईट लेना है...” और सैम ने अपने हाथ में लिये बैग में से निकाल कर प्रहलाद को अपने एयर टिकट दिखा दिए.

अब प्रहलाद तक झटके की पहली तरंग पहुंची. वह यकायक चुप हो गया. एक मिनट, दो मिनट... फिर पूरे पन्द्रह सेकेण्ड और...

सैम प्रहलाद का चेहरा पढता रहा. प्रहलाद को पता भी नहीं था कि वह अपने चेहरे पर क्या क्या उड़ेल रहा है. वह भूल गया कि चेहरा पढ़ना उसे भी आता है, और वह सैम का चेहरा पढ़ सकता है.

सैम अब चुप बैठा था.उसे पूरा भरोसा था कि उसका चेहरा किसी मुंडू का चेहरा नहीं है जिसे एक मीठी गोली के मोल पढ़ा जा सके. सन्नाटे के उस दौर में बीतता हुआ समय गुम होता रहा कि अचानक एक टैक्सी आ कर वहां रुक गयी. तब तक गुलाटी भी अपनी दूकान बढ़ा कर जा चुका था. केवल साकी का अड्डा खुला था, जिस पर अब उसका छोटा भाई भी आ कर बैठ गया था.

सैम लपक कर टैक्सी की ओर बढ़ चला और चलते चलते उसने जोर से कहा,

“ सुबह मिलना सर...”

उस समय रात के करीब सवा नौ बज रहे थे. प्रहलाद उठा और अपनी बैसाखी को सैल्यूट कर के उसके सहारे बाहर चल पड़ा. मुंडू समझ गया. उसने दूकान बढानी शुरू कर दी.काउंटर अंदर किया. शटर गिराया. यह एक अजूबा दिन था जब प्रहलाद लंगड का रिक्शा आएगा और उसे प्रहलाद का शटर गिरा हुआ मिलेगा.

इस बीच प्रहलाद बाहर खड़ा था और बेचैनी की लहर उसके भीतर ठाठें मार रही थी.

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वह रात प्रहलाद के लिये मीलों लंबी रात हो गयी.उसके सामने बैठा सैम उसे खींच कर आगे ले जा रहा था. ह्वील चेयर, कार, और हवाई जहाज़. लेकिन कुछ और भी था जो उसे पीछे खींच रहा था.

पीछे. दस बरस... पंद्रह बरस, और बीस बरस. छब्बीस बरस का तो कुल था प्रहलाद लंगड.

प्रहलाद की मां ने अपाहिज होने का बीज थमा कर उसे जाना था. उसकी उम्र के तीसरे बरस में ही यह साफ़ हो गया था कि बैसाखी उसका नसीब है. पांचवें बरस तक आते आते उसकी उँगलियों की कमज़ोर गिरफ्त ने भी अपना राज खोला था. फालिज तो गिरता है, लेकिन प्रहलाद तो उसे पेट से ही साथ ले कर आया था.

प्रहलाद के पिता उस दौरान छत्तीसगढ़ के पूर्वी सिंह भूमि के इलाके की खदान में बतौर मुकद्दम काम कर रहे थे. वहीँ रहते प्रहलाद का जन्म हुआ और पलक झपकते खबर जंगल की आग की तरह सब तरफ फ़ैल गयी कि मुकद्दम की येरा (घरवाली) डाइन बन गयी है और उसने श्रापग्रस्त संतान को जनम दिया है. ऐसी घटना उस इलाके के लिये नयी नहीं थी. यूरेनियम की खदान में काम करने वाली स्त्रियां प्रायः विकलांग बच्चे जन रहीं थीं और उसके बाद समुदाय के लोग उस औरत को मौत का दण्ड न सिर्फ सुनाते थे बल्कि खुद उसे मौत की राह दिखा देते थे.

इस तरह प्रहलाद जन्मा. उसकी मां, वासनी, डाइन होने का दण्ड झेल कर नरकवासी हो गयी. किसी तरह उसके पिता अपनी नवजात संतान को लेकार रातों-रात भागे और सैकड़ों मील दूर आ कर थमे.

बिन मां का दुधमुहँ बच्चा प्रहलाद. उसने क्या क्या भोगा इन सत्रह दिनों में.. तब तक पूरे इक्कीस दिन का भी नहीं हुआ था वह.

फिर एक दिन उसे एक नयी मां मिली... सौतेली मां. वह तो जैसे प्रहलाद को पालने जिलाने ही आयी थी. लेकिन दुर्भाग्य भी काली बिल्ली की तरह उसकी बखरी के भीतर कहीं दुबका हुआ बैठा था. प्रहलाद की उम्र के दूसरे बरस में पिता चल बसे. वह छत्तीसगढ़ से ही तपेदिक की पुडिया फांक कर आये थे. रोग को राक्षस होने में तीन बरस लगे. आगे, सौतेली मां के हाथों पलता बढ़ता रहा प्रहलाद. घुटनों घसिटता ही था कि उसे सौतेला बाप मिला, और उसकी मां की बखरी घर हो गयी. दोनों सौतेलों ने उसे भरपूर प्यार दिया, लेकिन घर में पता नहीं कब भयंकर कलह और कटाजूझ का माहौल बने लगा. सौतेले मां और बाप, दोनों प्रहलाद को अपने से ज्यादा प्यार करते थे, और उनमें आपस में भी प्यार कम नहीं था, लेकिन कुछ तो था जो कलह की नागफनी घर में बोए रहता था.

चार बरस का था प्रहलाद जब उसकी सौतेली मां ने अपने दूसरे पति को छोड़ा और प्रहलाद को लेकर इस नये शहर में आ गयी. उसे एक स्कूल में नौकरी मिली. पांच बरस के बच्चे से ले कर पचास बरस की बड़ी मैम तक, सब उसे आया कहने लगे, तो प्रहलाद की जुबान को भी उसके लिये यही संबोधन मिला, ‘आया’..’आया’ ने प्रहलाद का साथ उसकी उन्नीस बरस की उमर तक दिया और फिर वह ‘गया’ हो गई. वह जाना, उसका अंतिम यात्रा पर जाना था.

सच पूछा जाय तो वह ‘आया’ ही प्रहलाद की सब कुछ थी. इसलिए उसकी मौत के बाद, स्कूल से उसका जो भी फंड वगैरह मिला, वह सब प्रहलाद लंगड को सौंप दिया गया. उससे प्रहलाद ने अपना ‘सब कुछ स्टोर’ खोल लिया. अब यही प्रहलाद की कुल दुनिया है, और कुल संग के नाम पर उसकी बैसाखी और उसका मुंडू कंपट....

आज हठात यह सैम न जाने कहाँ से आ गया. कहता है कि बैसाखी छूटेगी.

रात अभी बहुत बाक़ी थी. अब प्रहलाद लंगड के सामने न आगे जाने का रास्ता था न पीछे जाने का. बेचैनी झेलने के सिवाय कोई चारा नहीं था. उलझन से सराबोर यह चार पांच घंटे प्रहलाद ने कैसे बिताये, यह सिर्फ वह ही जानता है.

+++

अपने तयशुदा समय पर जब प्रहलाद लंगड अपने ‘सब कुछ स्टोर’ पर पहुंचा, तो हमेशा की तरह साकी का अड्डा आबाद हो चुका था.स्टोर्स का शटर उठा कर मुंडू ने काउंटर बाहर खींचा और करीने से सेट किया. प्रहलाद ने अपनी बैसाखी को यथास्थान टिकाया और उसे सैल्यूट कर के अपनी गद्दी पर जम गया.

स्टोर पर पहला ग्राहक आने के भी पहले वहां एक ऑटोरिक्शा आ कर रुका और उसमें से एक नाटे से, काले आदमी ने कोई सामान उतारा और उसे ले कर प्रहलाद के स्टोर पहुँच गया.

“प्रहलाद बाबू, यह आपके लिये है, सैम ने भेजा है.”

वह आदमी ह्वील चेयर ले कर आया था. उस आदमी ने आनन-फानन में व्हीलचेयर को तैयार किया और फिर प्रहलाद लंगड को आवाज़ दी.

“आ जाओ बाबू, देख लो.” वह आदमी आगे बढ़ा और उसने प्रहलाद को बांह से थाम कर व्हीलचेयर पर बैठा दिया. वह आदमी जोश में था और प्रहलाद जैसे गुमसुम. वह आदमी प्रहलाद को व्हीलचेयर के बारे में समझाने में लगा था.

“ यहाँ से इसे मोड कर बंद कर सकते हैं..यहाँ से पहिया ठेल कर गाडी को आगे बढ़ाया जाता है. दायें बाएं घुमाने के लिये यह हैंडिल है. यह रहा ब्रेक,,इससे गाडी को जहां चाहा वहां रोक लिया...”

प्रहलाद लंगड सब चुपचाप सुन रहा था. मानो हैरत से किसी अजूबा चीज़ को देख रहा हो. हैरत तो प्रहलाद को सचमुच थी, लेकिन व्हीलचेयर की नहीं, बल्कि सैम के व्यवहार की थी. कैसे तुरत फुरत उसने अपनी बात सच कर के दिखाई. अगर प्रहलाद पढ़ सका होता सैम का चेहरा तो यह हैरत शायद नहीं होती.लेकिन पढ़ कैसे पाता..? सैम कोई मुंडू थोड़ी है..!

जब तक प्रहलाद अपनी हैरत समेटता, उस आदमी ने अपनी जेब से अपना मोबाइल निकाला और सैम का नंबर मिला दिया.

“ लो बाबू, सैम साहब से बात करो. लाइन पर हैं.”

प्रहलाद ने मोबाइल थामा और कान पर लगा लिया. बोल उसके नहीं फूटे.

“ क्या प्रहलाद साहब, कैसा लगा मेरा गिफ्ट..? बताइये, और अब छोड़ दीजिए बैसाखी.”

प्रहलाद लंगड कंपकंपा गया. अगर कभी और, किसी दूसरे ने यह बात कही होती तो वह अब तक बाकायदा भुगत जाता.

“ठीक है”

“ अब सुनो साहब. चार दिन बाद मेरा उधर आना है. उसके बाद अगले ही दिन आपको मेरे साथ चलने का है, टूर पर. “

“कहाँ ?”

“पहले बडौदा, फिर अहमदाबाद. आगे बाद में सोचने का..आप रेडी रहना, बस”

“ठीक है”. प्रहलाद की आवाज़ कठिनाई से निकल पाई. वह बहुत पशोपेश में था. कुछ अचंभित, कुछ दुविधाग्रस्त.

“ हां, शाम तक ये आदमी आपको नये नंबर का एक नया मोबाइल दे कर जाता है. अब अपन टच में रहेगा रोज. अपना पुराना मोबाइल आप अपने मुंडू को देने का. आपका कस्टमर भी तो है न सर. अब मैं छोड़ता हूँ. नमस्ते.“

पहले व्हीलचेयर और फिर मोबाइल....

इस बीच मुंडू निकल कर दूकान से बाहर आ गया और व्हीलचेयर देखने लगा.

“ ये तो वो ही टाइप है साहब, जिसका पर्चा आपकी फ़ाइल में रखा हैं. पर्चा आपने मंगाया था न गये बरस. चलो, इस बरस आज यह चेयर भी आ गया.”

प्रहलाद लंगड ने सिर उठा कर मुंडू को देखा. उसके चेहरे पर एक आनंद और संतोष का भाव फैल रहा था. प्रहलाद लंगड ने अपने मुंडू का चेहरा पढ़ा. उसे राहत मिली कि मुंडू को इस बात का अंदाज़ नहीं है कि यह व्हीलचेयर उस तक कैसे आयी है. इस बात से प्रहलाद ने मुंडू के चेहरे से एक चुटकी आनंद उठा कर अपने चेहरे पर भी रख लिया.

“चलो, काउंटर पर बैठने दो, टाइम खोटी नहीं करने का..गाहक के आने का वक्त है.”

+++

अपने दिए हुए प्रोग्राम के हिसाब से सैम आया. वह पहले सीधा साकी के अड्डे पर गया. फिर फोटोकॉपी वाले की दूकान पर. फिर उसका आना प्रहलाद लंगड के पास हुआ. प्रहलाद को तब तक नया मोबाइल मिल चुका था. उसका सिम चालू हो चुका था. उसमें सैम का नंबर वह आदमी पहले ही लोड कर के लाया था. उस पर पहली कॉल उस आदमी ने प्रहलाद के सामने ही सैम को मिलायी थी, और वह मोबाइल प्रहलाद को पकड़ा दिया था.

मोबाइल के इस्तेमाल का बहुत अभ्यास था प्रहलाद को, लेकिन फोन थामते समय उसकी उंगलियां थरथराईं थीं. अच्छी कंपनी का, कैमरे वाला मोबाइल था वह.

सैम ने प्रहलाद को बताया कि परसों राजधानी एक्सप्रेस से पहले दोनो लोग बड़ौदा जाएंगे. तीन चार दिन बाद लौटना होगा... इस बीच आपका ये ब्वाय काउंटर देखेगा सर.ट्रेन सुबह की है साहब. टशन के साथ तैयार मिलना. न ये व्हीलचेयर लेना न अपना बैसाखी. आपका सब इंतज़ाम वहां रेडी मिलेगा.

रेलगाड़ी में बहुत बार बैठ चुका था प्रहलाद. लेकिन हमेशा दूसरे दर्जे के बिना रिज़र्वेशन वाले डिब्बे में ठुंस कर.. वह भी अक्सर बिना टिकट. इसलिए राजधानी उसके लिये एक अनूठा अनुभव था. सीट पर बैठते ही भीतर से कुलबुलाता हुआ प्रहलाद का सवाल बहार आया था,

“ बहुत पैसा बहा दिया मेरे ऊपर सैम..”

“सर, मैं आपको अपने काम से ले कर जाता हूँ. कमाना है आपसे... तो कुछ खर्च भी तो करना है.”

“ वो ठीक है, लेकिन चेयर और फोन का पैसा मैं दूंगा, फ़ोकट में नहीं लूंगा.”

“ ठीक है. सात हज़ार का चेयर है और चार का मोबाइल. दोनों चीज़ का बिल मैं आपको देता हूँ. मैं भूलता कुछ नहीं, ले लूंगा. पहले काम तो बने.”

‘काम’

यह शब्द प्रहलाद लंगड के सीने को ठोक गया.

क्या काम है..? कुछ भी जाने बिना वह चल निकला है सैम के साथ. क्या वह ठीक है ?

पर अब तो चल ही निकला है, तो क्या ठीक और क्या बे-ठीक.

ट्रेन से उतर कर स्टेशन से बाहर आने पर प्रहलाद ने देखा कि सैम के दो साथी गाडी ले कर आये हैं, और व्हीलचेयर उनके साथ है. कार में प्रहलाद आगे ड्राइवर के बगल में बैठा और पिछली सीट पर तीनों लोग बैठे, बात करते हुए चल पड़े.

तीनों के चेहरे गंभीर थे. वह तीनों कम बोल रहे थे. छोटे छोटे वाक्य, जिनमें बात कम, तनाव के संकेत ज्यादा मिल रहे थे.

“ ... खबर तो यही है कि प्रिंसिपल के पास रजिस्ट्रार से आज शाम तक ऑर्डर पहुँच जाएंगे. तीनों लड़कों के नाम हैं उस ऑर्डर में...”

सैम ने चुप रह कर बस सिर हिला दिया.

‘इनका वजीफा भी रोक सकता है प्रिंसिपल..यूनिवर्सिटी से तो सबका पांच महीने के बकाए सहित पूरा वजीफा आ चुका है कॉलेज में लेकिन प्रिंसिपल...”

“हूँ...” सैम के चेहरे पर इस वाक्य की लहर ठहर गयी है.

“लड़कों का क्या हाल है ? चंद्रेश का बुखार कम हुआ या नहीं ?”

“पता नहीं, लेकिन प्रताप का रोना नहीं थम रहा है. “

टुकड़ों टुकड़ों में बात प्रहलाद तक पहुँच रही थी. एक धुंधली सी तस्वीर बन रही थी लेकिन कुछ साफ़ नहीं था. सरपट बोलने वाला प्रहलाद लंगड चुप तो नज़र आ रहा था, लेकिन चुप था नहीं. बहुत कुछ उसके भीतर उमड़ने लगा था.

कार से उतर कर जब सब लोग कमरे में पहुंचे, तब जा कर प्रहलाद लंगड के सामने कुछ बात खुली.

कस्बाई माहौल में पले बढ़े तीन लड़कों को शहर का एक डिग्री कॉलेज निकाल बाहर करने पर तुला हुआ है. पांच महीने से उनका वजीफा रोक रखा है. कारण, बस यही, कि जिस कस्बे के वह लड़के हैं, उसके प्रधान से प्रिंसिपल की कुछ रंजिश बताई जा रही है, और वह जाती मामले का दबाव उन लड़कों के जरिये प्रधान पर बनाना चाहता है.

“यह कैसे हो सकता है..?” प्रहलाद यकायक उठ खड़ा हुआ. तैश में उसका चेहरा लाल हो उठा.

“हो रहा है सर, इदर ऐसा ही चालू है.” अब सैम बोला.

“ये लोग अपन के पास आया, लेकिन क्या करेगा अपन, बोलो..?”

“उस कस्बे के लोगों में दम नहीं है क्या..? उन्हें साथ लेकर जोर बनाओ”

“कौन समझाएगा उन्हें..?”

“ मैं..मैं करूँगा उनसे बात.”प्रहलाद उठ खड़ा हुआ. “करो इंतज़ाम, हम लोग वहां चलते हैं.”

“ठीक है.” सैम का एक साथी बोला. “ मैं शाम को कुछ लोगों को जुटाता हूँ. अपन सब लोग चलें वहां. कस्बे वालों से बात करें कि वह एकजुट हों. तीन लड़कों की जिंदगी का सवाल है. “

“एक बात है सैम.” प्रहलाद लंगड ने हिचकते हुए कहा. “ मेरी बैसाखी भी जुगाड़ कर दो. वैसी ही, सादी, लकड़ी की बैसाखी “

“अरे, व्हीलचेयर है न, हमलोग...”

“नहीं सैम, बैसाखी थामना मेरे लिये मां का हाथ थामने जैसा है. मुझे हाथ थामने के लिये जिंदा, हाड़-मांस की ऐसी मां नहीं मिली, जिसने मुझे पैदा किया हो. उपकार उस मां का तो है, जिसने मुझे जिलाए रखा और अपने सीने से चिपका कर यहाँ तक लाई, लेकिन उमर भर थामने को मुझे मां जैसा हाथ बैसाखी ने ही दिया. वो ला दो, फिर चलो. तीन लड़कों की जिंदगी का सवाल है.

+++

वहां उस कस्बे में छोटा सा मंच बना था. मंच पर तीन कुर्सियां थीं. एक माइक था. सामने लोग थे, लेकिन भीड़ नहीं थी. मंच के पीछे अखबारी कागजों को जोड़ कर एक बड़ा सा बैकड्रॉप बनाया गया था, जिस पर लिखा था,

‘ आपके चंद्रेश, सुखबीर और प्रताप सूली पर हैं. उनकी जिंदगी बचाओ. ‘

मंच पर पहले कस्बे का एक नौजवान पहुंचा. उसने आवाज़ दे कर प्रधान जी को मंच पर बुलाया. प्रधान जी के पहुँचने पर उसने बस इतना कहा,” .. यह तीनों लड़के हमारे कस्बे के होनहार नौजवान हैं, जो कॉलेज के प्रिंसिपल की कुदृष्टि का शिकार बन रहे हैं. वह इन्हें कॉलेज से निकालने पर तुला है जिससे उसकी मनमानी चल सके. इन्हें बचाना है. क्या हम कॉलेज के प्रिंसिपल की इस चालबाजी को कामयाब होते देखते रहेंगे ?...”

इसके पहले कि सामंने से या मंच से कोई कुछ कहता, एक आवाज़ गूंजी.

“ नहीं... कतई नहीं.”

यह आवाज़ प्रहलाद लंगड की थी, जो अपनी बैसाखी टेकता मंच पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था. उस नौजवान की मदद से प्रहलाद मंच पर पहुंचा और बैसाखी थामे थामे ही उसने बोलना शुरू कर दिया.

कभी वह दहाड़ता. कभी सिसकता. कभी सबके सामने सवाल रखता, और खुद ही उसका जवाब देता. जोश, भावुकता, दबंगियत, किंचित भदेस भाषा भी साथ साथ... सब कुछ अनगढ़, लेकिन जबरदस्त धाराप्रवाह.

लगभग बीस मिनट तक प्रहलाद लंगड़ बोलता रहा. इस दौरान घरों से, दुकानों से और गली चौराहों से लोग निकल कर मंच के सामने मैदान में जुट आये. एक हुजूम का माहौल बन गया, और तभी प्रधान ने माइक सम्हाला,

“ कल सुबह हम सब उस कालेज की तरफ कूच करेंगे. कॉलेज का घेराव होगा. देखना है कौन जीतता है.. तानाशाह या हम जैसे मामूली लोगों की एकजुट आवाज़. क्या आप सब तैयार हो..?”

सभी इकट्ठा हो आये लोगों ने भरपूर जोश के साथ इस सवाल के जवाब में अपने साथ होने का संकेत दिया और भीड़ सभा विसर्जित होने लगी.सैम के साथ प्रह्लाद लंगड़ भी गाडी में बैठ कर वापस लौट चला.

वापसी में प्रहलाद अभिभूत था.किंचित बेचैन भी था. क्या सचमुच यह सारे लोग कल कॉलेज पहुँच कर धरना दे पाएंगे..? चुप था सैम. रात को सैम के वह दोनों साथी फिर आये. सैम ने ज्यादा बात नहीं की. उन दोनों में से एक ने सैम को एक पेन ड्राइव दी, जिसे सैम ने रख लिया. कल का दिन सैम को अहमदाबाद निकलना था.

अहमदाबाद में सैम ने एक आदमी, चिंतन देसाई को फोन किया.तय हुआ कि चिंतन देसाई शाम को सेठ के साथ सैम का इंतजार करेगा. बस, दस मिनट का टाइम मिला है. इस बार सैम ने प्रहलाद से सिर्फ इतना कहा,

“ यहाँ चुप रहने का है सर.. सेठ हलकट आदमी है, टंटा काटने लगता है.”

भेंट हुई. प्रहलाद लंगड़ ने हैरत से देखा कि पहले पांच मिनट में सैम, चिंतन देसाई को ले कर अलग कमरे में बात करता रहा, और फिर हॉल में आ कर उसने कंप्यूटर में पेन ड्राइव लगाई और सिस्टम चालू कर दिया.

प्रहलाद लंगड़ की आँखें फटी की फटी रह गईं. यह उसी कस्बे की वीडियो रिकार्डिंग थी जिसमें बीते दिन प्रहलाद लंगड़ बैसाखी के सहारे टिका बोलता जा रहा था.

वीडियो पूरा हो जाने के बाद सैम ने सेठ की ओर देखा. सेठ ने घड़ी देखी और चिंतन ने जवाब दिया.

“ तुमने तीन मिनट जास्ती लिया सैम, सेठ ने केवल तीन मिनट का टाइम दिया था. ठीक है, इंतज़ार करो, मैं बताऊंगा.

इस बीच सेठ चले गये.

“ आप निकलो ” चिंतन ने कहा और वह भी तेज़ी से उठ चला.

प्रहलाद लंगड़ बौखल की तरह वहां बैठा हुआ था. उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ.. सैम ने पेन ड्राइव से वीडियो कम्प्यूटर में सेव किया और सिस्टम बंद कर के बाहर निकला.

बाहर चिंतन देसाई खड़ा सिगरेट फूंक रहा था.

“चलो, मेरे साथ मेरे ऑफिस चलो, तुम लोगों की ट्रेन तो रात की है, तब तक वहीँ जमेंगे.”

उस समय से, गाड़ी के प्लेटफॉर्म छोड़ने के बीच पांच घंटे का समय था और इन पांच घंटों में प्रहलाद लंगड़ कितना बेहाल रहा, यह सिर्फ वह जानता है, लेकिन, वह यह फिर भी नहीं समझ पाया कि वह बेहाल क्यों है. अहमदाबाद की यह मीटिंग उसे कुछ भी समझ में नहीं आयी थी. बस उसकी आँख के आगे अपनी वह वीडियो रिकॉडिंग घूमती रही. उसकी अपनी ही आवाज़, अपनी ही छवि, जिसके आगे उन तीन लड़कों की जिंदगी का सवाल कुछ पीछे छूट गया.

***

सैम के साथ प्रहलाद लंगड़ अपने शहर वापस लौट आया और उसने अपने स्टोर की गद्दी सम्हाल ली. इस बीच कंपट उसे बीते तीन दिनों का व्योरा देता रहा. हिसाब बताता रहा. आसपास के लोगों के सवाल जवाब बताता रहा. चुपचाप सुनता रहा प्रहलाद लंगड़,लेकिन वहां पूरी तरह से उपस्थित भी नहीं रहा. अपना वीडियो देखता रहा मन ही मन, और हैरान होता रहा. उसका मन किया कि कोई उससे भी उसके बीते तीन दिनों का हाल पूछे... न कोई और तो कंपट ही कोई ऐसी जिज्ञासा करे.. पर कहाँ ? कंपट के पास तो उसके अपने ही तीन दिनों का अनुभव उछाल मार रहा था,. वापस आने के तीसरे दिन, जब प्रहलाद लंगड़ अपनी दूकान करीब करीब बंद करने वाला था, सैम उसकी दूकान पर पहुंचा. उसने कंपट से कहा कि वह साकी के अड्डे से दो चाय ले आये. एक कड़क मीठी और दूसरी काली. इसके साथ ही सैम ने खुद हाथ बढ़ा कर काउंटर पर रखा शीशे का जार खोला और उसमें से दो मीठी गोलियाँ निकाल कर कंपट को पकड़ा दीं. एक उबाल खा कर ज़ब्त कर गया प्रहलाद लंगड़. जिस तरह बैसाखियाँ उसकी इज्ज़त का प्रतीक थीं और वह किसी को भी उस पर टिप्पणी करने की इजाज़त नहीं देता था, उसी तरह, किसी को यह जुर्रत नहीं बख्शता था प्रहलाद लंगड़, कि कोई खुद हाथ बढ़ा कर काउंटर से सौदा उठा ले. लेकिन सैम ने तो ऐसा ही किया था और ताव खाने के बावज़ूद झेल गया था प्रहलाद. क्या पता देर सबेर वह सैम को खबरदार करे... क्या पता...?

चाय आने के पहले सैम ने अपने बैग से निकाल कर तीन हज़ार का चेक प्रहलाद को थमा दिया.

“ हिसाब समझो सर. आपका दस हज़ार का बिल बना था... इसमें से सात हज़ार मैंने ह्वील चेयर का काट लिया. मोबाइल मेरी तरफ से है प्रहलाद साहब. धंधे में काम आने वाली चीज़ है. मैं बात करता हूँ न आपसे... करता भी रहूँगा. ये तीन हज़ार जेब में रखो.”

“यह दस हज़ार आया कहाँ से... किस बात का है ?” उलझन में पड़ गया प्रहलाद लंगड़. बेमतलब का पैसा पकड़ना उसकी फितरत में नहीं कभी नहीं था.

“ सुनो डियर, उन तीन लड़कों का कॉलेज में एडमीशन बहाल हो गया. आपका अगले दिन का धरना काम कर गया. क्या बॉस, पूरा क़स्बा वहां कॉलेज को घेर कर खड़ा था. आपका स्पीच सर..जादू...तीनों का छः महीनों का रुका हुआ वजीफा दिया प्रिन्सिपल ने.प्रधान ने अपनी जेब से भी दिया. कस्बे का इज्जत बचाया सर आपने, आपके बैसाखी में ताकत है सर.. आपका स्पीच लाजबाब है प्रहलाद साहब.”

सैम की इस बात ने प्रहलाद लंगड़ के दिमाग में फिर वही वीडियो जिंदा कर दिया. अपनी तस्वीर, अपनी आवाज़ को खुद देख सुन पाना प्रहलाद भूल नहीं पा रहा था. पल भर ठिठक कर प्रहलाद ने सैम से अपना वह सवाल किया जो उसे काफ़ी समय से परेशान किये हुए था.

“ वो मेरा वीडियो क्यों उतारा... उसे सेठ को क्यों दिखाया, बताओ.”

सैम मुस्कुराया.

“ अब एक चाय और पिलाओ तो बताऊँ.”

“ओह जरूर...” और प्रहलाद ने कंपट को दौड़ा दिया.

सैम प्रहलाद लंगड़ के कुछ और पास खिसक आया.

“ याद है, मैंने आपसे कहा था कि मैं आपको बेचूंगा... कहा था न..?”

“हां, कहा था..”

“ तो फिर, जो चीज बेचनी होती है उसका वीडियो उतारना ही पड़ता है. चाहे वह साबुन तेल हो या इंसान का हुनर. अब देखो, शाहरुख खां का भी तो वीडियो उतारा जाता है न..”

“ लेकिन सेठ..?’

कहते कहते प्रहलाद लंगड़ अपने सवाल में अटक गया.

“ सेठ बहुत मुश्किल में है प्रहलाद साहब.. उसकी अहमदाबाद में एक कपड़े की मिल है. वह दूसरी मिल किसी दूसरे शहर में लगाने के लिये दौड़ धूप कर रहा है. इस वास्ते उसने अपनी पुरानी मिल का काम अपने बेटे को सौंपा है. चिंतन देसाई सेठ का मैनेजर है. वह साथ साथ सेठ के बेटे के संग पुरानी मिल के काम पर भी नज़र रखता है. मगर बैड लक. सेठ का बेटा न तो उस मिल का काम सम्हाल पा रहा है और न ठीक से चिंतन के साथ निभा पा रहा है. ऐसे में यूनियन ने लफड़ा कर दिया. हज़ार तरह की डिमांड. हज़ार तरह के पंगे.अब उस मिल में हड़ताल की नौबत है. ऐसे में तो सेठ का नई मिल लगाने का चांस भी फेल होने लगेगा. सेठ दिल का मरीज है प्रहलाद साहब. उन्हें डर है कि इस मौके का फायदा उठा कर कहीं चिंतन देसाई ही कोई दांव न चल दे.”

“ अरे, चिंतन भाई को तो सेठ का काम सम्हालना चाहिये..” प्रहलाद लंगड़ ने अपनी बात रखी.

“ चाहिये तो सर, लेकिन दुनिया उतनी गुड कहाँ है जितने आप हो. सेठ के बुलाने पर तो मैं सीधा अहमदाबाद ही जा रहा था, लेकिन उन तीन लड़कों का प्रॉब्लम ले कर इन लोगों ने मुझे बड़ौदा बुला लिया. थैंक गॉड..वह का काम तो आपने फर्स्ट क्लास निपटा दिया. तभी मैं आपका वीडियो सेठ को दिया. अब मेरा काम खत्म. अब सेठ बुलाएगा तो चल पड़ेंगे, नहीं तो हम क्या कर सकता है. लेकिन सेठ बोलता तो था कि खर्चा मत सोचो, किसी तरह पुरानी मिल का लफड़ा निपटाओ, नहीं तो डूब जाएंगे.”

प्रहलाद लंगड़ अब सेठ का दुःख अपने भीतर महसूस करने लगा. तभी सैम ने बात की दिशा बदली.

“ सर जी, सर्दी आ रही है, कुछ गरम कपड़े ले डालो. कल मैं फ्री हूँ, दोपहर बाद आ जाता हूँ.”

“ठीक है.” प्रहलाद ने हामी भरी और चुप हो गया. सेठ के प्रसंग से उसका मन भारी हो गया था. सैम भी उठ कर चलने की तैयारी करने लगा.

***

समय बीतता रहा. सर्दियाँ आ गयीं. सैम के साथ प्रहलाद लंगड़ ने कुछ गरम कपड़े लिये थे तो अपने मुंडू कंपट के लिये भी कुछ लिया. प्रहलाद को सैम ने उजाला दिखाया था कि उसे बीच बीच में कंपट के भरोसे छोड़ कर उसके साथ बाहर निकलना पड़ेगा. इसलिए उसे भरोसेमंद बनाओ. प्रहलाद लंगड़ को बात समझ में आई और उसने कंपट को उसके मूल नाम, यानी कन्हैया लाल से बुलाना शुरू कर दिया.

तीन महीने बीतते न बीतते सेठ ने सैम को याद किया, और सैम ने प्रहलाद को. इस बीच प्रहलाद ने सैम के साथ जा कर दो लोकल मामले निपटाए. एक में, बरसों से मकान दबोचे बैठे किरायेदार से मकान मालिक का पिंड छुडाया और दूसरे में एक बाप को राजी करा लिया कि वह अपना मकान बेच कर दोनों बेटों को उनका हिस्सा दे दे. यह उस उजाले के भरोसे हुए कि वह दोनों बेटे बाप का ख्याल रखेंगे. प्रहलाद के मन में इस बात पर संशय था, लेकिन सैम ने साफ़ किया,

“ वैसे भी तो दोनों बेटे मिल कर बाप को तंग ही कर रहे थे... अगर किसी दिन वह दोनों मिल कर बुढऊ को टपका देंगे तब भी तो मुश्किल होगी...”

दोनों लोकल मामलों का प्रहलाद के पास अच्छा पैसा आया. दूकान की रंगत बदल गयी. वहां एक टीवी लग गया और अखबार आने लगा. दूकान तो अपनी ही थी, उसी को बढ़ा कर प्रहलाद ने पीछे एक कमरा डाल लिया और किराये की कोठरी छोड़ दी. घर में भी सज्जा बढ़ी.अब प्रहलाद लंगड़ दूकान में बैठ कर अखबार पढ़ने का चस्का पालने लगा. ख़बरें उसे पहले भी रुचती थीं लें उनकी पहुँच उस तक कम थी अब अखबार और टीवी ने उनका दायरा बढ़ा दिया.

सेठ की पुकार पर प्रहलाद लंगड़ एक बार फिर सैम के साथ अहमदाबाद के लिये चल पड़ा. इस बार चिंतन ने दोनों के लिये हवाई टिकट भेजा था, और अहमदाबाद हवाई अड्डे पर चिंतन एक टैक्सी और प्रहलाद की बैसाखियाँ ले कर हाज़िर था.

टैक्सी सैम और प्रहलाद लंगड़ को लेकर चल पड़ी. टैक्सी में कुछ देर की चुप्पी के बाद चिंतन देसाई ने बात शुरू की.

“ पहले सेठ के फॉर्म हाउज़ पर चलते हैं. पुरानी मिल के माहौल में कुछ गडबड है.”

“क्यों, क्या यूनियन वाले ज्यादा दबंग हो रहे हैं..?” प्रहलाद ने अटकल लगाई.

चिंतन ने कोई जवाब नहीं दिया.

प्रहलाद ने अपना सवाल फिर दोहराया. चिंतन फिर चुप रहा.

सैम समझ गया कि यूनियन की जो मनगढंत कहानी उसने प्रहलाद को सुनाई है, उसका पता चिंतन को नहीं है, और असली कहानी, या जो कहानी प्रहलाद को बताई जानी है, उसे चिंतन अभी खोलना नहीं चाहता. टैक्सी का ड्राइवर भले ही दीवार हो, लेकिन दीवार के भी कान होते हैं.

फॉर्म हाउज़ पहुँचने तक टैक्सी में चुप ठहरा रहा.

वहां पहुँच कर चिंतन ने सबसे पहले सैम और प्रहलाद को चाय नाश्ता कराया. उसके बाद टुकड़ों टुकड़ों में बात सामने आयी.

परसों सेठ ने पुरानी मिल के चीफ अकाउन्टेंट पर फायर कर दिया.”

“ क्या, टपका दिया उसे..?” सैम ने आँखें फाड़ कर पूछा.

“ न..नहीं. बच गया. गोली कंधे में लगी. लेकिन चीख़ पुकार ने माहौल गरम कर दिया.” चिंतन कुछ खुला.

“ सेठ का बेटा कहाँ था उस समय...?”

चिंतन हंसा. कुछ पल चुप रहा, फिर बोला.

“ कौन सा बेटा...? इण्डिया में कहाँ हैं दोनों भाई.

सैम सकपकाया. “ ओह, हां... मामला क्या था..?”

“मिल में सेठ ने कैजुअल मजदूरों को पिछले सत्रह महीनों से पगार नहीं दी है. उनसे कहता है कि घाटा चल रहा है, बस कुछ दिन और सबर करो. वह सारे बहत्तर लोग पक्के कामगरों से उधार ले कर गुजारा कर रहे हैं. यूनियन फंड से भी उन्हें इसी भरोसे पैसा दिया जा रहा है. लेकिन सेठ चीफ अकाउन्टेंट से साथ-गांठ कर के मिल के खातों में सारे मजदूरों को पगार का मिलना दिखा रहा है. इसकी खबर न तो यूनियन को है न किसी स्टाफ को.अब चीफ अकाउन्टेंट सेठ को ब्लैक मेल कर रहा है.

“ ओह, आई सी...” सैम को बात कुछ समझ में आई.

“ अब इसे कैसे हैंडिल करना है..?”

“पता नहीं, अभी सेठ का वकील आने वाला है, वह बताएगा. जब तक मामला सलट नहीं जाता सेठ ने कुछ पैसा चीफ अकाउन्टेंट के मुंह पर मार कर उसे चुप करा दिया है.

इतने दिनों में पहली बार प्रहलाद लंगड़ ने सैम की ओर अविश्वास भरी इबारत से देखा. यानी कि यह एक छल का गेम चल रहा है.

एक सन्नाटा घिरने लगा. सैम, प्रहलाद, और चिंतन तीनों चुप थे. तीनों के चेहरों पर तनाव की रेखाएं थीं. लेकिन प्रहलाद के चेहरे पर तनाव एक असमंजस का था. उसे यह तो पता चल गया कि अब इस छल कपट के बेरहम खेल में उसकी हिस्सेदारी तय की जायगी और उसे इसकी कीमत मिलेगी. उसके दिमाग में सैम का कहा जुमला उभर कर उछल कूद मचाने लगा,

“ मैं बेचूंगा आपको...”

“ बैसाखी छूटेगी...ह्वील चेयर फिर हवाई जहाज़ के दौरे...”

“ आप को लाजवाब हो सर, हाथों-हाथ बिकोगे.”

तभी चिंतन देसाई का मोबाइल बजा. सेठ का फोन था. बात करीब दो मिनट चली, और चिंतन का चेहरा राहत से सराबोर होने लगा. वह बीच बीच में “ ठीक है “ “ ठीक है” कहता जा रहा था. बात खत्म होने तक चिंतन लगभग खुल गया. “ अब क्या सेठ, आप भी रिलैक्स होने का..सब सेट कर देगा पोद्दार... अच्छा रखता हूँ.”

चिंतन के चेहरे की राहत सैम ने पढ़ ली.

“ यहां फॉर्म हाउज़ में सर्दी ज्यादा असर करती है सैम साहब. आप लोग चल कर ईजी हो जाओ, अभी पोद्दार एडवोकेट को आने में टाइम लगेगा.” और चिंतन उठ गया.

फॉर्म हाउज़ में एक अपार्टमेंट अलग से बना था. दो कमरे, दोनों में डबल बेड, टेलीविज़न, सोफा और एक एक वॉर्डरोब. सैम इस फॉर्म हाउज़ से बहुत परिचित था. उसने घुस कर चेक किया. बाथरूम में गीजर पहले से ऑन था.

“ फ्रेश हो लो प्रहलाद साहब,..” और वह प्रहलाद लंगड़ को लेकर ऐसे कमरे की ओर चल पड़ा जिस में एक व्हील चेयर भी रखी थी और एक जोड़ा बैसाखी भी.

सैम और प्रहलाद लंगड़ नहा कर तरोताजा हुए और इसी बीच प्रहलाद के कमरे में ही एक आदमी गरम पानी में ब्रांडी और चिकन की प्लेट सजा गया.

दो दो घूँट ब्रांडी और चिकन के टुकड़े उतारने के बाद सैम ने ही चुप्पी तोड़ी,

“ क्या कहता है सेठ...कोई गोट पकड़ में आई है शायद, ग्लैड हो रहा था.”

“ हां.. उन बहत्तर कैजुअल लोगों में से एक इस बात का इल्ज़ाम अपने सिर लेने को तैयार हो गया है कि चीफ अकाउन्टेंट पारिख पर गोली उसने चलाई थी. किसी ओर से कोई पुलिस रिपोर्ट नहीं होगी. बाक़ी कहानी क्या बनानी है, वह अभी वकील पोद्दार आ कर बताएगा. उसी का इंतज़ार हो रहा है. “

अपनी इतनी बात कह कर चिंतन ने उस बात को जैसे डिब्बा बंद ही कर दिया, और वह प्रहलाद लंगड़ की ओर घूमा,

“ क्या कमाल का आदमी है साहब आप. क्या पावर है आपकी स्पीच में.. सैम ने ठीक ही आपका जादू पकड़ा और आपको साथ ले आया... सेठ तो जान छिड़क गया आप पर, आप...”

तभी चिंतन का मोबाइल फिर बजा, और वह आँख के इशारे से ‘सौरी’ कह कर बाहर चला गया.

प्रहलाद पर गर्माहट का असर होने लगा. उसने मुंह खोला,

“ ... किसी पर क्या जान छिड़केगा सेठ, उसने तो अपने ही अकाउन्टेंट पर गोली चला दी...”

आँखें फाड़ कर और जुबान निकाल कर दांत से दबाते हुए सैम ने प्रहलाद को चुप रहने का इशारा किया, और फिर पास आ कर उसके कान में फुसफुसाया,

“... बस चुपचाप सुनते जाओ, कुछ बोल कर अपनी कीमत मत गिराओ. सेठ को तो जो करना है, वह करेगा ही. “

प्रहलाद लंगड़ चुप हो गया.

मिनट भर बाद चिंतन देसाई वापस लौटा.

“ आ रहा है पोद्दार. ये यहीं छोड़ो, बाहर चल कर बैठते हैं. ज्यादा वक्त नहीं लेगा वकील, दस पंद्रह मिनट, बस..”

सब बाहर आ गये. पोद्दार आया. उसने सैम को देखा और पहचान ज़ाहिर की. फिर प्रहलाद लंगड़ को देखा और मुस्काया,

“ आपका वीडियो देखा मैंने, सॉलिड नौजवान हो आप..शाब्बाश.” फिर वह चिंतन की ओर घूमा,

“ ब्रीफ कर दिया है न आपने इन सबको..?”

“ यस सर. “

“ ओ के यंगमैन, पक्का साथ तुम्हें देना है. प्रौमिज़ करो.. तभी मैं कल सुबह केस का स्टोरी बना कर अपने असिस्टेंट को भेजूं. “

पोद्दार का यह सवाल प्रहलाद से था.

प्रहलाद लंगड़ ने सिर हिला कर सहमति दी.

“ नो, ऐसे नहीं..” जुबान हिला कर जोश से हां या ना कहो, पोद्दार कच्चे करेक्टर के साथ काम नहीं करता.

“ यस..” प्रहलाद लंगड़ ने जोश से कहा और अपना हाथ पोद्दार की ओर बढ़ा किया.

प्रहलाद की ओर से झूठ के पक्ष में जानते बूझते यह पहला हैंड शेक पोदार के साथ हुआ और पोद्दार खिल उठा,

“ अब बच गया तुम्हारा सेठ...श्योर..अब उसे जितना चाहे लूट लो. कल दो घंटे का टाइम हाथ में रखना. मेरा जूनियर आ कर सब सेट करा जायेगा. गुड़ नाइट ”

पोद्दार गया. तीनों जन वापस प्रहलाद के कमरे में वहीँ लौटे जहाँ वह मेज़ पर प्लेट और गिलास छोड़ कर गये थे. सैम निश्चिंत हो गया था और चिंतन भी, लेकिन प्रहलाद लंगड़ की मनःस्थिति डावांडोल थी. हालांकि उसे पता था कि अब वापस लौटना मुमकिन नहीं है.

चिंतन ने कमरे में आते ही चिकन की प्लेट को उठा कर हॉट केस में रख कर स्विच ऑन कर दिया और खुद ही बोल पड़ा,

“ब्रांडी का तो काम तमाम कर गया पोद्दार. मैं व्हिस्की लाता हूँ.” और वह वॉर्डरोब की ओर घूम गया.

“कॉकटेल हो जायेगी... चलेगा..?” सैम ने पूछा और कनखियों से प्रहलाद की ओर इशारा किया.

“ चलेगा चलेगा. जवान पट्ठा है, क्यों नहीं चलेगा..”

प्रहलाद को कुछ समझ में नहीं आया. वह अपनी उधेड़बुन भरी दुनिया में खोया हुआ था. शराब उसकी जिंदगी का हिस्सा नहीं थी लेकिन वह पूरी तरह उससे अछूता भी नहीं था. यदाकदा गुलाटी फोटोकॉपी वाला, साकी चाय वाला और ड्राईक्लीनिंग की दुकान वाला भास्कर अड्डा जमा कर प्रहलाद को भी याद करते तो वह जाता भी. लेकिन शराब न तो उस पर लत की तरह चढती, न ही वह उस संग साथ में आये मजे को शराब से जोड़ता... वह तो कहता कि यारों की गपशप में मज़ा आ गया.

आज का नज़ारा भी, सैम और चिंतन की ओर से यारों की गपशप का बना था, लेकिन प्रहलाद लंगड़ भी उसे ऐसा ही माने, यह जरा मुश्किल था उसके लिये.उसे इसमें छल की छाया सूझ गयी थी और आगे उस छल में उसकी हिस्सेदारी तय करने वाला दिन आने वाला था. कल पोद्दार का जूनियर आएगा और पता नहीं क्या कहानी लायेगा..? उसमें प्रहलाद का क्या बनेगा..?

जो भी बनेगा, सैम फिर उसका वीडियो उतारेगा और फिर उस वीडियो के सहारे प्रहलाद आगे फिर बेचा जायेगा... “ क्या मैं मंडी में धरा हुआ कद्दू हो गया हूँ..?”

प्रहलाद लंगड़ को यह बात हिला गयी. उसने अपना सिर झटका और खुद को खींच कर वर्तमान में ले आया.

इस बीच चिकन की भरी प्लेट हॉट केस से निकल कर फिर मेज़ पर आ गयी थी. व्हिस्की की बोतल के साथ चिंतन देसाई ने और भी चीजें सजा दी थीं, साथ में अर्दली को बुला कर डिनर का ऑर्डर दे दिया था.

ड्रिंक्स का दौर देर तक चलता रहा. सैम और चिंतन ने पहले से ही तय नीति के तहत खुद को सेठ प्रसंग से बिल्कुल काट लिया था. पहले चिंतन अपने घर गांव की बातें बताता रहा. पिछले हफ्ते वह अपने गांव में दस दिन बिता कर लौटा है, जहां साल भर बाद गया था. गुजरात के उस गांव में चिंतन की मां, पिताजी के साथ उसकी दादी भी रहती हैं. चिंतन अपने घर गांव, स्कूल और बचपन के किस्से सुनाते समय खिल खिल पड़ रहा था.

सैम भी बीच बीच में टुकड़े लगता जा रहा था,

“ अपन तो कोयंबटूर का बच्चा है. गांव में भी घर है. डैडी के एक भाई ने शहर में भी एक घर बनाया है. वहां मैं जाता हूँ. क्या करेगा ? बिजनेस महीने में एक बार उधर श्योर ले जाता है, तो अंकल की बाइक से घंटा भर को डैडी के पास भी चला जाता हूँ.... पर वहां रहना मुश्किल है, हर रोज भागना. कभी अहमदाबाद, कभी चंडीगढ़.

यह सायास है शायद कि दोनों में से कोई भी प्रहलाद लंगड़ को बातचीत में उतारने से बच रहे हैं. वह नहीं जानते कि कॉकटेल उस नये बंदे के भीतर क्या डांस कर रही है. वह नहीं जानते कि पोद्दार प्रसंग ने इसके भीतर क्या तहलका रच रखा है, या वह उसे कल तक के लिये स्थगित कर चुका है. वह जानना भी नहीं चाहते. अगर गलती से भी कहीं प्रहलाद लंगड़ अपनी बैसाखी उठा कर अपने भाषण के फॉर्म में आ गया, तो सारा प्लान मिट्टी हो जायेगा.

‘ठीक है, प्रहलाद को अपने में गुमसुम रहने दो. इतना काफ़ी है कि वह बीच बीच में घूँट भी भर रहा है और कुछ न कुछ चबा भी रहा है.’

कॉकटेल का उपसंहार होने तक प्रहलाद ठीक ठाक रहा.

तीनों ने डिनर लिया.प्रहलाद लंगड़ और सैम उसी फॉर्म हाउज़ में अपने अपने कमरों में चले गये. चिंतन के पास गाड़ी थी और अहमदाबाद में चिंतन के घर की दूरी इतनी विकट नहीं थी जो परेशानी का सबब बने.

अगले दिन की तैयारी में आज का काम पूरा हुआ.

सैम तो तुरंत सो गया लेकिन अजीब सी बेचैनी की गिरफ्त में आ गया प्रहलाद लंगड़. शराब की तरंग ने उसे मां के पास ला पटका. मां, परिवार और बचपन के बीज उसके आगे चिंतन बिखेर गया था. चिंतन के उस व्योरे में किलकारियां थीं, जब कि घर और मां के प्रसंग ने प्रहलाद लंगड़ को एक क्लेश के सागर में उतार दिया था.

मां कह कर किसे याद करता है प्रहलाद लंगड़ ? दमयंती को, जो उसकी सगी मां नहीं थी. सगी मां तो वासनी थी, उसके पिता लुडधू की येरा (घरवाली), जो उसे टेढा मेढा जन कर लांछित हुई. उस पर बोंगा का कोप बरसा और आदिवासी गांव वालों ने उसे पत्थरों की मार से मौत की गोद में सुला दिया. देवता का आदेश कोई न माने तो कहाँ जाय ? प्रहलाद लंगड़ की दूसरी मां दमयंती ने न जाने कितने, व्योरे रोते रोते और उसके टेढ़े पैरों पर तेल मलते हुए, उसे सीने से लगा कर सुलाते हुए सुनाए थे.

“ तेरा बाप लुडधू अपनी येरा वासनी की मौत के बाद जब तुझे ले कर हजारीबाग पहुंचा तब तू बिलार के नन्हें बच्चे की तरह बस कुंकुआ भर रहा था. तेरे बाप ने छल किया मुझसे. मुझे व्याहा तो तेरी सांस का वास्ता दे कर, लेकिन मुझे यह नहीं बताया कि उसने अपने सीने में तपेदिक पाल रखी है. तेरा बाप तपेदिक की पुड़िया पूर्वी सिंह भूमि से ही फांक कर आया था. उसे वहां के डॉक्टर ने पहले ही बता दिया था कि उसे तपेदिक ने पकड़ लिया है. जिस दिन लुडधू ने अपनी आखिरी सांस छोड़ी, तू पूरे दो बरस का भी नहीं था. मैं तो समझी थी कि धूल अंधड़ के मौसम में उसकी सांस की धौंकनी ने उसके प्राण हर लिये, लेकिन बाद में जांबीरा ने मुझे बताया कि लुडधू का काल उसका तपेदिक रोग ही बना. जांबीरा भी उसी खदान से बरस भर पहले भाग कर आया था और यहां एक साहूकार के पास लग गया था. तेरे बाप को उसने एक पेट्रोल पंप पर लगाया था. जहाँ दिन-रात पेट्रोल की हवा ने उसके पहले से ही तपेदिक से फुंके फेफड़ों को और छलनी कर दिया, और एक दिन मर गया तेरा छलिया बाप.

प्रहलाद लंगड़ याद करता रहा अपनी दमयंती मां का व्यथा वृतांत. कॉकटेल थी न उसके भीतर, और एक छल का बीज था जो अंकुर बनने वाला था, कल, जब पोद्दार का असिस्टेंट आ कर उसे कहानी रटायेगा.

प्रहलाद लंगड़ को और भी आगे याद आया अपनी दमयंती मां का बताया हुआ.

...फिर उस जांबीरा ने दमयंती को रख लिया था अपने पास, रखैल बना कर, और प्रहलाद लंगड़ को उम्र के तीसरे साल एक नया बाप मिला था, सौतेला बाप. उसकी सौतेली मां जिसकी रखैल थी.

एक बेचैन सी करवट बदली प्रहलाद लंगड़ ने.

सौतेला... सब कुछ सौतेला..कुछ भी सगा नहीं. लेकिन दमयंती के साथ जांबीरा ने चार बरस तक भरपूर प्यार दिया प्रहलाद लंगड़ को. दमयंती ने एक वादा माँगा अपने इस नये मरद से. कि प्रहलाद के अपने पांव खड़े होने तक वह अपनी कोख में जांबीरा का बीज नहीं धरेगी. वह शरीर ले ले चाहे जितना लेकिन संतान नहीं. शहर से हज़ार तरह की दवाइयां और तेल लाता रहा जांबीरा, और दमयंती प्रेम से उसे प्रहलाद को देती रही, उसकी मालिश करती रही, गाती, रोती, नन्हें बच्चे सरीखे प्रहलाद को बताती...’तेरे लिये अपनी कोख को सुखा रही हूँ डाइन के जने, बस तू मुझे अपने पैरों पर चल कर दिखा दे...’

कसमसाया था प्रहलाद लंगड़. फॉर्म हाउज़ का बिस्तर नरम गुदाज़ था. बाहर की सर्दी को कमरे में लगा ब्लोअर बाहर ही रोक रहा था. भीतर लहराती कॉकटेल उसे वर्तमान में ठहरने नहीं दे रही थी, और उसका चित्त भाग भाग कर एक ही बिंदु पर ठहर जा रहा था....

वह बिंदु था, ‘छल’

लेकिन प्रहलाद लंगड़ का भी तो अगला दिन तो छल के लिये ही तय था. सिर्फ अगला दिन ही नहीं, बल्कि शायद आगे के कई कई और दिन भी...कौन जाने, सैम के साथ पहले ही मामले के पीछे भी कोई छल कथा जुड़ी हो.

बैसाखी का छूटना. ह्वील चेयर का आना. हवाई यात्रा, और सेठ के खाते से, प्रधान के खाते से और कितने ही अनाम से खातों से उसके लिये बहता दौलत का झरना...

क्या प्रहलाद लंगड़ अब इस समीकरण पर कोई विराम लगा पायेगा ? या लगाना चाहेगा..?

प्रहलाद लंगड़ बहुत पक्के मन से इसे रोकने के पक्ष में तब भी नहीं हामी भर पाया, जब कि शराब उसका साथ देने को तैयार थी, वर्ना बीते समय की इतनी लंबी यात्रा उसे क्यों कराती शराब...!