Hasne Laga Raja in Hindi Short Stories by Dr Sunita books and stories PDF | Hasne Laga Raja

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Hasne Laga Raja

हँसने लगा राजा

डा. सुनीता

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बहुत समय पहले की बात है, असम के मेघपुर राज्य में राजा सोमेंद्र राज्य करते थे। वे बड़े उदार और खुशदिल थे और छोटे-बड़े सभी से हँसी-खुशी मिलते थे। किसी ने उसके चेहरे पर कभी क्रोध का कोई चिह्न नहीं देखा था।

दरबार में दूर गाँवों से जो लोग अपनी समस्याएँ लेकर आते, उनसे वे खूब खुलकर मिलते। उनकी समस्याएँ दूर करने के साथ-साथ उन्हें पूरी तरह संतुष्ट करके भेजते। इसीलिए उनके बारे में प्रसिद्ध था, कि महाराज सोमेंद्र के राज्य में जो लोग रोते हुए आते हैं, वे भी हँसते हुए वापस जाते हैं।

राजा सोमेंद्र विद्वानों का बड़ा सम्मान करते थे। उनमें राजपद का जरा भी घमंड नहीं था। साथ ही उनमें बच्चों जैसी सरलता भी थी। इसीलिए राज्य में पढ़े-लिखे लोग हों या अनपढ़, सभी उनसे बहुत खुश थे और दूर-दूर तक उनका सम्मान था। प्रजा उन्हें जी-जान से चाहती थी।

राजा सोमेंद्र के गुरु थे आचार्य रामभद्र। राजा सोमेंद्र अकसर उनके पास जाते थे और उनसे राज-काज के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। आचार्य रामभद्र इशारे में भी कोई बात कह देते, तो राजा पर उसका गहरा असर पड़ता था। उनकी बातों को वे गाँठ बाँध लेते और उन पर घंटों चिंतन-मनन करते थे।

एक बार की बात, राजा सोमेंद्र ने बहुत बड़ी विजय प्राप्त की थी। हुआ यह कि पड़ोसी राज्य भालपुर के राजा बलवंत ने उन्हें सीधा-सरल जानकर एक विशाल सेना के साथ अचानक आक्रमण कर दिया। उसने सोचा था कि राजा सोमेंद्र भला युद्ध-कौशल क्या जानते होंगे? पर राजा सोमेंद्र के आह्वान पर मेघपुर की सेना इतनी बहादुरी से लड़ी कि अपने से कई गुना अधिक शक्तिशाली भालपुर राज्य को हरा दिया।

भालपुर के राजा बलवंत को एक लाख स्वर्णमुद्राएँ देकर संधि करनी पड़ी। इससे मेघपुर राज्य की शक्ति बहुत बढ़ गई और सब ओर राजा सोमेंद्र का यश फैल गया।

इस खुशी के मौके पर राजा सोमेंद्र कोई विशेष आयोजन करना चाहते थे। वे अपने गुरु रामभद्रजी के पास सलाह लेने के लिए पहुँचे।

गुरु रामभद्र ने बातों-बातों में कहा, “विद्वान किसी भी राज्य का गहना होते हैं। उन्हीं के कारण राजा का यश दूर-दूर तक फैलता है। तुम विजय दिवस पर एक बड़ा भोज दो। पर उसमें ब्राह्मणों का सम्मान जरूर करना, जिनके आशीर्वाद से तुम्हें यह विजय प्राप्त हुई है।”

राजा सोमेंद्र ने सिर झुकाकर कहा, “ऐसा ही होगा, गुरुदेव।”

जब राजा चलने लगे, तो गुरुदेव सोमेंद्र ने एक बात और समझाई। वे बोले, “राजा, यह बात कभी मत भूलना कि भले ही तुम शक्तिबल में बड़े हो, पर सच्ची तपस्या और विद्वत्ता के आगे तो राजपद का भी कोई मोल नहीं! इसलिए ब्राह्मणों के आगे विनम्र बने रहना और उनका पर्याप्त सम्मान करना।”

राजा सोमेंद्र ने गुरुदेव की यह बात भी गाँठ बाँध ली।

उसी दिन राजा सोमेंद्र ने मंत्री सुमंत को बुलाया। विजय दिवस के उपलक्ष में प्रजा के लिए एक विशाल भोज का आयोजन करने के लिए कहा। साथ ही ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक दावत का निमंत्रण देने के लिए कहा। उन्हें भेंट करने के लिए विशेष रूप से स्वर्ण-पत्र बनवाने का भी आदेश दिया।

मंत्री ने कहा, “हाँ महाराज, यह विचार तो बड़ा सुंदर है। मैं अभी से इसका प्रबंध करने में जुट जाता हूँ।”

अगले ही दिन ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक निमंत्रण भेज दिए गए।

*

मंत्री सुमंत रात-दिन भोज और अन्य कार्यक्रमों का सारा प्रबंध करने में जुटा हुआ था। राजमहल के सामने बहुत बड़ा शामियाना लगाया गया। सैकड़ों हलवाई भोज की तैयारी में जुटे थे। सम्मानित जनों को भेंट में देने के लिए बेशकीमती स्वर्ण-पत्र भी बनवा लिए गए।

अगले दिन राजमहल में अनेक प्रकार के व्यंजन और मिठाइयाँ बनकर तैयार थीं। दूर-दूर तक इन व्यंजनों की सुगंध फैल रही थी।

राजा सोमेंद्र का मानना था कि व्यंजन खूब स्वादिष्ट बने हैं और बड़ी मात्रा में बनवाए गए हैं, इसलिए कमी पड़ने का तो सवाल ही नहीं है।

पर राजा सोमेंद्र का मंत्री सुमंत कुछ ज्यादा ही बुद्धिमान था। उसने राजा को समझाया कि जब विद्वानों को भोजन खिलाना हो, तो अत्यंत विनम्र होना चाहिए। इसलिए जब सारे ब्राह्मण भोजन के लिए उपस्थित हों तो आप दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहें, “ब्राह्मण देवताओ, मेरे साधन सीमित हैं, और आपके स्वागत के लिए जितना किया जाना चाहिए, उतना मैं नहीं कर पाया। जो भी रूखा-सूखा मुझसे बन पड़ा है, उसे आप ग्रहण कीजिए।”

जिस समय ब्राह्मण लोग भोज के लिए उपस्थित हुए, तो राजा सोमेंद्र ने बड़ी विनय के साथ हाथ जोड़कर यही शब्द दोहरा दिए। फिर बोले, “आप लोग बड़े हैं, विद्वान हैं। मैं मानता हूँ, राजपद से विद्वानों का दरजा कहीं ऊँचा है। इसलिए मुझसे स्वागत-सत्कार में कोई चूक हुई हो, तो आप लोग बड़े होने के नाते उसे क्षमा कर दें।”

भोज में आए ब्राह्मण लोग राजा की सरलता और विनम्रता से बड़े प्रभावित हुए। बोले, “महाराज, आपने ऐसा कहकर हम सभी का दिल जीत लिया है। भोजन और आतिथ्य जैसा भी हो, आपके इन वचनों को सुनकर तो वही हमें परम आनंद देंगे।”

सभी ब्राह्मणों ने खूब छककर भोजन किया।

सारे व्यंजन खूब स्वादिष्ट बने थे। बहुत से नए व्यंजन भी थे, जिनके नाम भी लोगों ने नहीं सुने थे। परोसने वाले भर-भरकर सामान ला रहे थे और सभी को आग्रह कर-करके खिला रहे थे। सारी चीजें इतनी अधिक थीं कि किसी भी चीज की कमी नहीं पड़ी।

भोजन के अंत में राजा ने सभी ब्राह्मणों को दक्षिणा दी। बड़े आदर से उन्हें बेशकीमती स्वर्ण-पत्र भी भेंट किए गए।

इस पर सभी ब्राह्मण गद्गद थे। प्रमुख ब्राह्मण बोला, “महाराज, आप तो रूखे-सूखे भोजन की बात कर रहे थे, हमें तो भोजन में स्वर्गिक आनंद आया। और ऐसी दक्षिणा तो चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं दे सकते। हम तो पूरी तरह तृप्त हो गए।”

इस पर उत्साह और आनंद के मारे राजा सोमेंद्र की मूँछें फड़कने लगीं। उनके होंठों पर मंद-मंद मुसकान चली आई। बड़े भोले भाव से बोले, “हे ब्राह्मण देवताओ, मेरा सोचना तो यही था, पर मंत्री ने मुझे ऐसा निवेदन करने को कहा था।”

सुनते ही सभी की हँसी छूट गई। मंत्री भी हँसे बगैर न रह सका। कुछ देर बाद राजा सोमेंद्र को अपनी भूल पता चली, तो वे भी हँसने लगे।

ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि “मेघपुर का भाग्य कभी मंद न होगा।” और एक सुर में राजा के दीर्घायु होने की कामना की।

उसी शाम को राजा सोमेंद्र अपने गुरुदेव का आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचे। राजा सोमेंद्र की सरलता की बात उनके गुरु रामभद्र को भी पता चल चुकी थी। वे आनंदमग्न होकर बोले, “हे राजा, मुझे खुशी है कि तुम्हारे भीतर एक बच्चे का-सा हृदय है। वही राजा प्रजा पर राज्य करने योग्य है, जिसके पास बच्चे जैसा सरल हृदय हो। वही प्रजा के सुख-दुख को महसूस कर सकता है और बच्चे की तरह सही-गलत न्याय और अन्याय का फैसला कर सकता है। मेरी कामना है, कि तुम इसी तरह सरल, निर्मल और प्रसन्नवदन बने रहो।”

इस बात का राजा सोमेंद्र पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे पहले से ज्यादा सरल और विनम्र हो गए। इसीलिए प्रजा भी उऩ्हें जी-जान से चाहती थी। कहते हैं, मेघपुर के लोग आज भी राजा सोमेंद्र की इस सरलता को बड़े प्यार से याद करते हैं।

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