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सेकंड ओपिनयनः आज की जरूरत क्यों?

मेडिकल साइंस के क्षेत्र में तेजी से हो रहे अनुंसंधान तथा इलाज के नये—नये तरीके निकल जाने के कारण सेकंड ओपिनयन की महत्ता काफी बढ़ गई है. उदाहरणस्वरूप हार्ट डिजीज की एन्जीओग्राम टेस्ट रिपोर्ट का विश्लेषण की बात की जाए तो कई विशेषज्ञ एन्जीओप्लास्टी की सलाह देंगे तो कई ओपन हार्ट—सर्जरी की.एन्जीओप्लास्टी कराने और स्टेंट लगाने को लेकर भी कार्डियक सर्जनों के बीच मत भिन्नता की बात सुनने को मिलती है. रोबोटिक,इंडोस्कोपिक, ओपन सर्जरीके साथ भी इसी तरह की समस्या देखने को मिलती है.कई बार इस बात को लेकर भी बहस छिड़ जाती है कि मरीज को सर्जरी की जरूरत है भी या नहीं.ऐसी स्थिति में मरीजों तथा अभिभावकों को समझ में ही नहीं आता कि क्या किया जाए. ब्रेन,स्पाइन आदि की एमआरआई रिपोर्ट केा लेकर सेकंड ओपिनियन की महत्ता और भी ज्यादा बढ़ जाती है.इसीलिए आज के समय में सेकंड ओपिनयन आज की जरूरत है.

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गुप्ता जी हार्ट के मरीज हैं. हार्ट स्पेशलिस्ट की सलाह पर एन्जीओग्राम टेस्ट करवाया. रिपोर्ट के अनुसार स्पेशयलिस्ट ने उन्हें एन्जीओप्लास्टी कराने की सलाह दी. डॉक्टर की बातों पर उन्हें भरोसा नहीें हुआ.कहीं पढ़ रखा था कि 85 से 90 फीसदी केसों मेंएन्जीओप्लास्टी की जरूरत ही नहीं पड़ती. आर्थिक दोहन के लिए बेवजह इसकी सलाह दी जाती है. उन्होंने किसी बड़े अस्पताल के कार्डियोलॉजिस्ट से सेकंड ओपिनियन लेना उचित समझा. मुंबई के एक विख्यात कार्डियोलॉजिस्ट को अपनी रिपोर्ट स्कैन कर मेल कर दी. शाम होते—होते ओपिनयन आ गया. रिपोर्ट में लिखा था किएन्जीओप्लास्टी की कोई आवश्यकता नहीं है. ‘बस कुछ दवाइयों का सेवन करना पड़ेगा'.रिपोर्ट में मात्र दो दवाइयाें बतायी गयीं जिन्हें नियमित रूप से खाना था। गुप्ता जी ने मुंबई के डॉक्टर की सलाह मान एन्जीओप्लास्टी कराने का विचार त्याग दिया. करीब छह माह से वे इन्ही दोनों दवा नियमित रूप से खा रहे हैं और बिल्कुल ठीक हैं. किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं. वे इस बात से खुश हैं कि घर बैठे मुंबई के बड़े डॉक्टर की सलाह मिल गई.एन्जीओप्लास्टी की जरूरत भी नहीं पड़ी और समस्या भी दूर हो गई.

मनाली की शादी के दो साल के बाद भी जब गोद नहीं भरी तो पास के एक सरकारी अस्पताल के इन्फर्टिलिटी सेंटर में चिकित्सीय सलाह के लिए गई. तमाम तरह की जांच और साल भर तक इलाज के बाद भी जब मां नहीं बन पायी तो दिल्ली जैसे शहर के बड़े अस्पताल में इलाज कराने की बात सोच रही थी. किंतु ऐसी हैसियत नहीं थी कि बड़े शहर में जाकर इलाज कराने का खर्चा वहन करे. जैसे—जैसे समय बीतता जा रहा था,वैसे—वैसे मां बनने का सपना टूटता नजर आ रहा था। दिल्ली जैसे बड़े शहर के बड़े अस्पताल में कैसे इलाज कराये, वह समझ नहीं पा रही थी.इसी बीच किसी से पता चला कि पास के एक अस्पताल में टेली मेडिसिन सेंटर है जहां से दिल्ली,कोलकाता,बैंगलोर जैसे बड़े अस्पतालों के स्पेशलिस्ट और सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की सलाह ली जाने के सुविधा उपलब्ध है. वह बिना समय गंवाए,सारी जांच रिपोर्ट लेकर टेली मेडिसिन सेंटर गई. वहां सारी रिपोर्ट स्कैन करके दिल्ली के एम्स के टेली मेडिसिन सेंटर मेल कर दी गई. मात्र दो घंटा के अंदर विशेषज्ञ का सेकंड ओपिनियन ई—मेल के जरिये आ गया जिसमें यूटरस का एक छोटा ऑपरेशन कराने की सलाह दी गई. यह ऑपरेशन उसने उसी सरकारी अस्पताल में कराई जहां पहले इलाज करा चुकी थी. नतीजा यह हुआ कि तीन महीने के अंदर वह गर्भवती भी हुई और समय पूरा होने के बाद उसके घर में एक बच्ची की किलकारियां भी गूंजने लगीं.

इन दोनों उदाहरणों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यदि गुप्ता जी और मनाली ने सेकंड ओपिनयन नहीं लिया होता तो गुप्ता जी को एन्जीओप्लास्टी कराना पड़ता और मनाली की गोद सूनी ही रह जाती. आजकल हजारों लाखों मरीज इस तरह की परिस्थिति के दौर से गुजरते हैं. एक दशक पहले तक स्थिति यह नहीं थी. सेकंड ओपिनयन का प्रचलन था ही नहीं. यदि था भी तो उतना लोकप्रिय नहीं था. इलाजरत डॉक्टर जो कह देते थे, वही बात अंतिम मानी जाती थी. मरीजों के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था. लेकिन चिकित्सा क्षेत्र का जैसे—जैसे विकास और विस्तार होता गया, सेकंड ओपिनयन की अहमियत लोगों को समझ में आने लगी. आज स्थिति तो यहां तक पहुंच गई है कि भारत के बड़े—बड़े कारपोरेट अस्पतालों में इसको लेकर अलग से विभाग ही खुल रहे हैं.

टेली मेडिसिन और इंटरनेट के आ जाने से इसका विस्तार तेजी से हो रहा है. शिक्षा के विस्तार और विकास के कारण मरीजों का रूझान भी इस ओर तेजी से बढ़ा है. आजकल डॉक्टर के साथ—साथ मरीज भी इसकी अहमियत समझने लगे हैं. यही कारण है कि मरीजों के बीच सेकेंड ओपिनयन का टं्रेड बढ रहा है. एक से संतुष्ट न होने की स्थिति में थर्ड ,फोर्थ ओपिनयन तक लेने में भी तनिक नहीं हिचकते. इसके लिए इलाजरत चिकित्सक भी प्रोत्साहित करते हैं. दुनिया के कई विकसित तथा विकासशील देशों में काफी पहले से ही यह परंपरा है. विदेशों में इसके लिए अलग से सेंटर खुले हैं. भारत में इसका प्रचलन अपेक्षाकृत नया है.कितु इधर के दशक में इसका विस्तार और विकास तेजी से बढ़ ही नहीं रहा है बल्कि आमलोगों के लोकप्रिय भी हो रहा है. अब विदेशों की तरह जगह—जगह सेंटर खुल रहे हैं. कारपोरेट अस्पतालों में अलग से सेंटर खोले जा रहे हैं. कई अस्पताल में अलग से विशेषज्ञ भी नियुक्त किये जा रहे हैं.

आज का मरीज काफी होशियार,शिक्षित और हेल्थ के प्रति कंशस है. उसके आगे सुविधाओं का अंबार है. इंटरनेट पर ढ़ेरों जानकारियां हैं. थोड़ी—सी भी शंका होने पर नेट खंगाल डालता है. इसीलिए अब आज के मरीजों और नौजवानों को बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा. थेाड़ा—सा भी शक होने पर मोबाइल,नेट और ई—मेल के जरिये सच्चाई जानने के लिए तैयार रहता है. इसलिए मरीज न तो सेकंड ओपिनयन लेने से घबड़ाता है और न ही थर्ड या फोर्थ ओपिनयन लेने से.

सेकंड ओपिनियन के फायदे

आंकड़े बताते हैं कि सेकंड ओपिनयन से अंततः मरीज को ही फायदा होता है. सबसे बड़ी बात यह है कि रोग की डायग्नोसिस के संबंध में मरीज को ताजी,सही तथा अतिरिक्त जानकारी मिलती है.कई बार रोग के इलाज तथा सर्जरी की संभावनाओं का पता चलता है. कई बार रोग के इलाज के एक से अधिक तरीके का भी पता चलता है. कौन—सा इलाज सबसे सटीक और सुविधाजनक है, इसका विश्लेषण करने तथा उचित निर्णय लेने का भी मौका मिलता है. वैसे मरीजों को सबसे ज्यादा फायदा होता है जो गंभीर रोग से पीड़ित होते हैं.पुराने रोगोें के वैसे मरीजों को जिन्हें लंबे समय तक इलाज की जरूरत पड़ती है तथा जो चलने—फिरने मेें असमर्थ होते हैं,उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है. बुजुर्ग,लाचार,गर्भवती महिलाएं तथा आर्थिक रूप से असमर्थ मरीजों को भी फायदा होता है. फिजूलखर्च और बेवजह के शारीरिक और मानसिक परेशानी से राहत मिलती है.

सेकंड ओपिनियन के एक सेंटर में आये 20 हजार मरीजों की रिपोर्ट का विश्लेषण किया गया तो कई चौकानेवाले तथ्य उभरकर सामने आये. इनमेेंं साढ़े बारह हजार मरीजों को पहले सर्जरी की सलाह दी गई थी. आश्चर्य की बात यह है कि सेकंड ओपिनयन के अनुसार इनमें से 44 फीसदी मरीजों को सर्जरी की जरूरत ही नहीं थी. जिन हार्ट के मरीजों को कार्डियक सर्जरी या स्टेंट लगाने की सिफारिश की गई थी, उनमें 55 फीसदी मरीजों को इसकी कोई आश्यकता नहीं थी. उसी तरह 48 फीसदी लोगों को घुटने बदलने,48 फीसदी को यूटरस निकालने और 47 फीसदी मरीजों को कैंसर के इलाज के लिए सर्जरी की जरूरत नहीं थी. इन मरीजों को सेकंड ओपिनयन के लिए नहीं भेजा जाता या फिर वहां खुद नहीं गये होते तो इन्हें सर्जरी कराना पड़ता. इससे सेकंड ओपिनयन की महत्ता को समझा जा सकता है.

कब सेकंड ओपिनयन की जरूरत

एक अनुभवी तथा सिनियर कंसल्टेंट के शब्दों में—‘‘कई बार मरीज डॉक्टर का चक्कर लगा लगाकर फ्रस्ट्रेटेड हो जाता है. इलाज में देरी होते जाने तथा कोई फायदा नहीं होने के कारण वे सेकंड ओपिनयन के लिए दूसरे क्लिनिक का चक्कर लगाते देखे जाते हैं.'' वे आगे बताते हैं कि अनावश्यक देरी से चिकित्सक पर से मरीजों का विश्वास डगमगाने लगता है. उन्हें लगने लगता है कि डॉक्टर धीरे—धीरे सर्जरी की ओर ढ़केल रहा है.ऐसी स्थिति में भी मरीज सेकंड ओपिनयन के बारे में सोचने लगता है.

सर्जरी के मामले में मरीजों को सेकंड ओपिनयन ज्यादा लेते देखा जाता है. चिकित्सा—विज्ञान के क्षेत्र में नई—नई टेक्नोलॉजी के आने के बाद सेकंड ओपिनयन ही नहीं,थर्ड और फोर्थ ओपिनियन का भी प्रचलन काफी बढ़ गया है.वह इसलिए कि जांच और टेक्नोलॉजी में आई बाढ़ के कारण डॉक्टरों के बीच मत भिन्नता लाजिमी है.एन्जीओप्लास्टी,सीटी स्कैन,एमआरआई रिपोर्ट के विश्लेषण में कई बार परेशानी होती है. विशेषज्ञों की राय समान नहीं हो पाती. इसका असर डायग्नोसिस से लेकर सर्जरी तक पर पड़ता है.

उदाहरण के रूप में हार्ट डिजीज को लिया जा सकता है.एन्जीओप्लास्टी,रिपोर्ट के विश्लेषण की बात की जाए तो कोई विशेषज्ञ एन्जीओप्लास्टी की सलाह देंगे तो कई ओपन हार्ट—सर्जरी की. कई बार रोबोटिक,इंडोस्कोपिक, ओपन सर्जरी आदि को भी लेकर विशेषज्ञों के बीच बहस होती है. कई बार किसी रिपोर्ट को लेकर इस बात की बहस छिड़ जाती है कि मरीज को सर्जरी की जरूरत है भी या नहीं. हार्ट डिजीज में ऐंजियोप्लास्टी कराने और स्टेंट लगाने को लेकर दुनिया भर के विशेषज्ञों को कहना है कि 80 से 90 फीसदी केसों में इसकी कोई जरूरत नहीं होती. केवल मरीजों का आर्थिक शोषण करने के लिए ऐसा किया जाता है.

चूंकि आज एक ही बीमारी के लिए कई तरह की सर्जरी उपलब्ध हैं, इसलिए भी कई बार विशेषज्ञों के बीच मत भिन्नता हो जाती है कि सर्जरी के लिए कौन सा—तरीका अपनाया जाए. कभी मरीज की उम्र को लेकर बहस छिड़ जाती है तो कभी एमआरआइ रिपोर्ट को लेकर. ऐसी स्थिति में सेकंड और थर्ड ओपिनियन की महत्ता काफी बढ़ जाती है.

कई बार स्पेशलिस्ट के बीच इस बात को लेकर बहस छिड़ जाती है कि अमुक बीमारी के लिए कौन—सी मेडिसिन उपयुक्त है. ऐसी स्थिति इसलिए आई कि एक ही रोग के लिए आजकल कई—कई अच्छी—अच्छी दवाइयां मार्केट में उपलब्ध हैं. हार्ट मरीजों को लेकर ज्यादा बहस होती है. मरीज इस बात को लेकर असमंजस में पड़ जाता है कि वह किसकी बात माने और किसकी नहीं. ऐसी स्थिति में मरीज सेकंड और थर्ड ओपिनयन के लिए डॉक्टर और अस्पताल का चक्कर लगता रहता है.

चिकित्सा के क्षेत्र में इतनी तेजी के साथ विकास हो रहा है कि किसी एक चिकित्सक के लिए किसी खास बीमारी के बारे मेें सब कुछ जानना संभव नहीं है. जांच के भी ऐसे—ऐसे साधन और उपकरण मार्केट में आ गये हैं कि किसी भी अस्पताल के लिए सभी उपकरणों को लगाना संभव नहीं है. उदाहरण के रूप में किसी अस्पताल में सीटी स्कैन की सुविधा है तो एमआरआई की नहीं. किसी में इकोकार्डियोग्राम की सुविधा है तो होल्टर या टीएमटी की नहीं. ऐसी स्थिति में किसी खास बीमारी के लिए सही—सही डायग्नोसिस मुश्किल का सबब बन जाता है . कई बार रिपोर्ट आ जाने के बावजूद रोग की डायग्नोसिस में मुश्किलें आती हैं. ऐसी स्थिति में दूसरे कंसल्टेंट का ओपिनयन जानना जरूरी हो जाता है.

कई दूसरे भी कारण

कई बार चिकित्सक किसी रोग के बारे में मरीज को और न ही अभिभावकाें को ही कुछ भी स्पष्ट रूप से बताते हैं. उधर मरीज दवा लेता रहता है पर कुछ फायदा नहीं होता है. कई मरीज चाहता है कि डॉक्टर मेरे साथ भावनात्मक रूप से जुड़े,मेरी समस्याओं को गंभीरता से लेे और सही—सही निदान बताये. पर कई डॉक्टर मरीज की इस इच्छा को पूरी नहीं कर पाते. ऐसा कई बार मजबूरी में तो कई बार समय की कमी के कारण होता है। कई बार डायग्नोसिस की अस्पष्टता के कारण भी होता है.

कई डॉक्टरों का मानना है कि डॉक्टर की बातचीत,व्यवहार,जांच के तरीके मरीजों को पसंद नहीं आते. इस कारण भी सेकेड ओपिनियन के बारे में मरीज सोचने लगता है. कई बार तो मात्र गलत व्यवहार की वजह से डॉक्टर मरीज का विश्वास खो बैठता है.

आजकल जांच के इतने अच्छे—अच्छे साधन उपलब्ध हो गये हैं कि कई बार चिकित्सक को भी डायग्नोसिस में परेशानी होने लगती है. हार्ट,लीवर,पैंन्क्रियाज,किडनी आदि के मरीजों को सेकंड ओपिनियन के लिए जाते हुए ज्यादा देखा जाता है. डायग्नोसिस में थोड़ा—सा भी कन्फ्‌युजन होने की स्थिति में डॉक्टर भी सेकंड ओपिनियन की सलाह देते हैं और खुद भी लेते हैं.

कोई मरीज किसी चिकित्सक से कई बार दिखाते हैं किंतु रोग का डायग्नोसिस नहीं हो पाता है. कई मरीज डॉक्टरों के बताये डाइग्नोसिस से संतुट नहीं होते. कई मरीज डॉटर के इलाज के तरीके से संतुष्ट नहीं होते हैं. कई बार मरीज को विशेषज्ञ डॉक्टर किसी खास रोग के इलाज के लिए सर्जरी की सलाह देते हैं. परंतु मरीज को इस बात की शंका होती रहती है कि क्या इस रोग का इलाज केवल सर्जरी ही है. कई मरीजों को यह शक होता है कि क्या केवल सर्जरी ही मेरे रोग ठीक हो सकता है? इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं हैं? कई बार मरीज को यह नहीं समझ में आता है कि उसका जो इलाज हो रहा है, वह आखिर किस तरह का है.

कई मरीज सेकंड ओपिनयन के लिए इसलिए जाता है क्योंकि जो वह इलाज करा रहा है, उससे कोई फायदा नहीं हो रहा है. कई बार चिकित्सक जो इलाज की सलाह देते हैं,वह काफी खतरनाक होता है.कई बार सुपर स्पेशलिस्ट से ओपिनयन लेने के दौरान कोई कम खर्चिला इलाज या सर्जरी का पता चलता है जिससे अंततः मरीज को ही फायदा होता है.