Bin Bulaya Mehman in Hindi Short Stories by Dr Sunita books and stories PDF | Bin Bulaya Mehman

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Bin Bulaya Mehman

बिन बुलाया मेहमान

डा. सुनीता

*

एक गाँव में एक बूढ़ा आदमी रहता था, दीनानाथ। उसके चार बेटे थे। चारों बेटों का विवाह हो चुका था। उनके भी छोटे-छोटे बच्चे थे। दो बेटे शहर में नौकरी करते थे और उनका परिवार भी वहीं उनके साथ ही रहता था। दो बेटे गाँव में ही थे। उन्होंने विवाह के बाद अपने-अपने नए और बड़े मकान बना लिए थे और वे उनमें रहते थे। इन दोनों बेटों ने अपने अकेले पिता को अपने साथ रहने का आग्रह किया।

पर पिता ने कहा, “मेरा तो इसी घर में मन लगता है। इसी घर में मैंने तुम्हारी माँ के साथ चालीस साल गुजारे हैं। अब वह चली गई तो क्या, उसकी यादें तो मेरे साथ हैं। मैं यह घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। हाँ तुम्हीं लोग जब फुरसत हो मिलने चले आना। अभी तो मैं अपना चाय-दूध भी खुद बना सकता हूँ। कोई भी जरूरत होगी तो मैं तुम्हें ही पुकारूँगा। इसलिए निश्ंिचत होकर अपने-अपने घर खुशी-खुशी रहो।”

बेटे पिता की बातों से संतुष्ट होकर अपने-अपने नए घरों में रहने लगे। बेटों के घर जब भी खाने में कोई अच्छी स्वादिष्ट चीज बनती, वे अपने पिता को जरूर दे जाते। पोते-पोतियाँ भी दादा से मिलने दिन में कई चक्कर लगा लेते थे।

वैसे तो वह बूढ़ा आदमी सबसे प्यार से बोलता था। खूब हँसी और मजाक भी करता था और खूब अच्छे कपड़े पहन, बन-ठनकर रहना उसे पसंद था। बस, उसमें एक ही बुरी आदत थी। वह यह कि गाँव में कहीं भी शादी की दावत होती, तो वहाँ बन रहे व्यंजनों की दुर्निवार खुशबूओं से वह बेचैन हो उठता, बिल्कुल बेबस। वह कितना ही अपने मन को समझाता कि मुझे न्योता नहीं मिला है तो मुझे नहीं जाना चाहिए। पर विविध प्रकार के व्यंजनों की उड़ती हुई सुगँधें उसे बेबस कर देतीं। मानो पुकार कर कह रही हों कि “जल्दी आओ और खाओ।”

बस, वह बूढ़ा उसी क्षण उठता। अच्छे साफ-सुथरे कपड़े पहनता और अच्छी तरह तैयार होकर बड़ी शान से दावत के लिए चल देता। ऐसे समय में उसके चेहरे पर बड़ी चौड़ी-सी मुसकान रहती और वह खूब हँस-हँसकर बातें करता।

दावत में लड़की वाले सोचते कि यह आदमी लड़के वालों की तरफ से होगा और लड़के वाले सोचते कि यह लड़की वालों का रिश्तेदार होगा, तभी इतने ठसके से बैठा है। इस तरह कोई भी उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता था। हाँ, पास-पड़ोस के लोग भी अगर उस शादी में शरीक होते तो वे जरूर पहचान लेते, पर कुछ कहते नहीं थे मुँह पर। पर हाँ, उसके पीछे बातें जरूर होतीं, “अरे दीनानाथ जी का उन लोगों से कभी कोई संबंध नहीं था, फिर वे उस दावत में क्या कर रहे थे?”

उनके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुसकान आती जिसका मतलब होता, ‘बूढ़ा चटोरा है, जीभ पर काबू नहीं है और क्या! बेटे दूर रहते हैं तो अपने चटोरपने को वह ऐसे ही पूरा करता है।’

*

उड़ते-उड़ते बात बेटों तक भी पहुँची। उन्हें भी बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई कि इतना प्रतिष्ठित उनका परिवार है और पिताजी इस उम्र में भी जीभ पर काबू नहीं रख सकते। बिन बुलाए शादी की दावत में पहुँच जाते हैं। चारों बेटे, बहुएँ और उनके बच्चे गाँव में पुराने घर में इकट्ठे हुए और पिताजी से सारी बातें खुलकर कहीं कि उनकी हरकतों की वजह से गाँव में उनकी कैसी बदनामी हो रही है, उन्हें कैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है।

बेटों ने तय किया कि वे सभी महीने में एक बार इसी घर में इकट्ठे होंगे और दावत में बनने वाले सारे पकवान घर में बनाए जाएँगे। वे वैसे ही परोसे जाएँगे जैसे दावत में परोसे जाते हैं, ताकि पिताजी संतुष्ट रह सकें और बिना निमंत्रण के किसी शादी की दावत में न जाएँ।

पिता ने सिर झुकाकर यह बात मान ली।

अगले ही इतवार सभी बेटों के परिवार बड़े घर में यानी पिताजी के घर आ गए। सुबह से ही विविध प्रकार के व्यंजनों की तैयारियाँ होने लगीं। खूब खुशबूएँ उड़ रही थीं। बूढ़ा भी बहुत खुश था कि आज तो घर में ही दावत का मजा आएगा।

भोजन तैयार हो गया। सभी भोजन कक्ष में बैठ गए। पत्तलें रख दी गईं हरेक के आगे। बहुएँ बड़े मन से परोस रही थीं और बार-बार और-और लेने का आग्रह कर रही थीं। बूढ़ा, उसके बेटे, पोते-पोतियाँ सभी मस्त होकर जीम रहे थे।

तभी बूढ़े ने अपने घर के सामने वाले घर की खिड़की से नजारा देखा तो वह कुछ बेचैन होने लगा। उस घर में शादी की दावत थी, पर बूढ़े से उनकी बोलचाल नहीं थी। इसलिए शादी में बूढ़े को निमंत्रित नहीं किया गया था।

पर इससे क्या फर्क पड़ना था? मन पर काबू करना और वह भी चटोरी जीभ पर बहुत मुश्किल है। बूढ़े ने देखा कि सामने वाले घर में लोग पंगत में बैठे हैं। डालने वाले बालटियों में रसेदार सब्जियाँ भरकर ला रहे हैं और बड़ी-बड़ी कड़छियों से परोस रहे हैं।

बस बूढ़ा तुरंत उठा और तेज कदमों से सामने वाले घर की पंगत में जा बैठा। उसके बेटे उसको रोकने या जबरदस्ती घसीटकर लाने की धृष्टता नहीं कर पाए। बूढ़ा जब तृप्त होकर उस घर से वापस आया तो बेटे तमतमाए बैठे थे। बड़े बेटे ने छूटते ही पूछा, “उस घर में क्या अमृत बँट रहा था, जो यहाँ का खाना छोड़कर आप वहाँ दौड़े चले गए थे?”

पिता ने कहा, “नहीं, अमृत तो नहीं था, पर तुम्हारी बहुएँ उस तरह से खाना नहीं परोस रही थीं जैसे कि वहाँ वे लोग बालटियों में भरकर सब्जियाँ और अन्य व्यंजन ला रहे थे और बड़ी-बड़ी कड़छियों से परोस रहे थे। बस, इसीलिए मैं वहाँ चला गया!”

चारों बेटों ने हताशा और गुस्से में सिर पीट लिया। कहा, “इस बूढ़े का कुछ नहीं हो सकता। जीभ का चटोरापन आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता।”

चारों बेटे अपने बूढ़े बाप को अकेला छोड़कर अपने-अपने घर चले गए और फिर कभी वे अपने उस चटोरे बाप से मिलने नहीं आए।

पर बूढ़े को इस बात का कोई दुख नहीं था। वह अब भी पहले की तरह सज-धज कर दावतों में जाता था और छककर खाता। हाँ, अब लोगों ने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया था।

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