Tulsi ke Bahane in Hindi Short Stories by Vipin Choudhary books and stories PDF | Tulsi ke Bahane

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Tulsi ke Bahane

तुलसी के बहाने

विपिन चौधरी

दरवाजा मैंने ही खोला था, शायद दोपहर के कोई एक या डेढ़ बजा होगा।

हमारे पेइंग गेस्ट हॉस्टल के इस फ्लैट नंबर 101 में अमूमन इस वक़्त घंटी नहीं बजा करती, क्योंकि हमारा फ्लैट दोपहर के वक़्त बंद रहा करता है। आज शाम प्रैस क्लब के एक कार्यक्रम की तैयारी के कारण मैं घर पर थी।

कौन होगा इस वक़्त, मस्तिक्ष की एक कोशिका या यह प्रश्न लाज़िम था।

लैपटाप पर सेव का बटन दबा कर मैं दरवाजे की ओर लपकी, सामने नवविवाहिता सा गहरा पूता हुआ चटक मेकअप और चेहरे पर समुंदरी bechainbechaoबेचैन हलचलों के साथ एक दुबली- पतली नाटे कद की युवती हाथ बांध कर खड़ी हुयी थी।

इस पाँच मंज़िला पेइंग-गेस्ट हॉस्टल के कुछ फ्लाइट्स में लड़किया के अलावा कुछ परिवार भी रहते हैं जिनसे हम लड़कियों से मेल-जोल ना के बराबर होता है।

दूर-दराज़ कस्बे से आई हुयी लड़कियां इस महानगर में रह कर अपनी पढ़ाई कर रही हैं कुछ लड़कियां मेरी तरह नौकरी-पेशा भी हैं। अक्सर हम लोगों के पास ही समय की भारी कमी होती है, जब कभी थोड़ा बहुत समय हाथ मे आता है तब कुछ लड़कियां अपने-अपने बॉय-फ्रेंडस के साथ घूमने निकल जाती हैं और बाकी अपने घरों की ओर रुख कर लेती हैं।

इसलिए उस नवयुवती को देखने के साथ ही मैं समझ गई थी कि जरूर यह युवती हमारे पड़ोस वाले फ्लैट में रहती होगी।

इससे पहले ही मैं उसके आगमन का कारण पूछूं, बेहद नरम मुस्कुराहट के साथ वह युवती बोली

हमने इसी हफ्ते आपके बगल वाले फ्लैट में शिफ्ट किया है, कुछ दिनों के लिए हम बाहर जा रहे हैं, क्या आप हमारा तुलसी का पौधा अपने यहाँ रख सकेंगे ।

मेरे मौन को ‘हाँ’ समझ कर वह युवती साथ वाले फ्लैट में अंतर्ध्यान हो गई और कुछ की पलों के भीतर उसने अपने हाथों मे पकड़ा हुआ एक खूबसूरत सा गमला मेरे हाथों में थमा दिया। मैंने उस गमले को इस सावधानी से पकड़ा, जैसे मैं गमले को नहीं एक नाजुक से खरगोश को थाम रही हूँ।

जी, हमे खुशी होगी, मैं जैसे एक अच्छे पडोसी के रूप मे थी उस वक़्त।

गमले को लाकर मैंने अपने फ्लैट की छोटी सी बालकनी में रख दिया और कुछ देर तक उस तुलसी के गमले को निहारती रही।

हम लड़कियों के बंधे- बंधाये जीवन में तुलसी का पौधा जैसे एक नया मेहमान था।

उस नए मेहमान को निहारते वक़्त मुझे बरबस ही अपने घर की तुलसी का पौधा याद आया। मेरा मन अपने घर की चार दिवारी को लांघ कर तुलसी के पौधे के नजदीक जा पहुंचा जो तमाम कोशिशों के बाद भी सूख जाता था और मेरी माँ उस पौधे की दशा को देख कर चिंतित थी। तुलसी का पौधा शुभ माना जाता है और हर हिन्दू घरों में उसकी अनिवार्यता लगभग निश्चित सी होती है । तो माँ उन दिनों खूब परेशान थी और उनकी परेशानी तुलसी के पौधे को लेकर थी, जब भी वे तुलसी का पौधा रोपती वह बेजान हो जाता तब चारों दिशाओं से तुलसी के पौधे को लेकर खूब सलाहें मिला करती। किसी ने बताया की तुलसी के पौधे का जोड़ा लगाया जाये तब उसकी जड़ धरती में जाम जायेंगी आदि आदि।

उन दिनो मैं इकनॉमिक बॉटनी होनर्स की पढ़ाई कर रही थी और विभिन्न पौधो की उपयोगिता के बारे में अपने ज्ञान के ईजाफ़े में लगी हुयी थी। मैंने भी उन दिनो घर के तुलसी वाले पौधे और कक्षा में पढ़ाई वाले तुलसी के चैप्टर के बीच एक सेतु बनाने के कोशिश की पर लाख कोशिशों के बावजूद तुलसी का पौधा हमारे घर मे नहीं लग पाया था बाद मे दादी ने कहा था जरूर इस घर की मिट्टी में ही कोई दोष है या फिर घर की जगह पर पहले कुछ बुरा अपशगून हुआ होगा और माँ ने भी थक हार कर तुलसी के पौधे को लेकर अपनी जिद छोड़ दी थी।

और अब इतने सालो के बाद तुलसी का एक पौधा मेरी निगहबानी में था।

शाम को जब मैं प्रैस क्लब से घर लौटी और इस तुलसी के पौधे की हिफाज़त के बारे मे तीनों लदकियों को दिशा-निर्देश दे डाले। जबकि मैं मन ही मन सोच रही थी कि शायद ही मेरी रूम- मेट्स कभी भूले से भी इस पर नज़र डालें लेकिन कुछ ही दिनो के में मेरी उस सोच को तीनों लड़कियों ने पलट दिया था। मुझे यकीन नहीं था की वे सब तुलसी के इस छोटे से पौधे पर अपना स्नेह उड़ेलेंगी।

जैसे ही मैं तुलसी के पौधे को देखने के लिए बालकनी का दरवाजा खोलती तो तुलसी के पौधा पानी का सेवन कर तन कर खड़ा दिखता और धूप से बचने के लिए उनमे से ही किसी ने उसे बाल्कनी की दीवार की ओट में कर दिया था।

वाह, मैं लड़कियों के प्रति आश्वस्ति से भर उठती।

पहले- पहल मैं अपनी फ्लैट की लड़कियों के अजीबो- गरीब कायाकलापों पर हैरान होती पर धीरे-धीरे हैरान होने के दिन लद गए थे।

इस फ्लैट में हम चार जन रहते हैं मैं, मानसी, गुंजन और ईपशिता। हम चारों ही गाँव- कस्बों से सीधे निकल कर सीधे दिल्ली महानगर में पहुंची थी। फैशन टेक्नालजी की पढ़ाई कर रही ये तीनों लड़कियां यहाँ की चटक रंगत में पूरी तरह से डूब गई थी। अपने घेरलू संस्कारों को इन सबने जैसे अपनी त्वचा से उतार दिया था और इनको क्या कहूँ खुद मैं भी दिल्ली के शोख रंग से अपने को बचा नहीं सकी। यहाँ की तेज़ रफ्तार का असर ये था कि पहले-पहल यहाँ आने पर घर पर करने दैनिक चर्या को बिसरा दिया था मैंने। हॉस्टल आने पर माँ के फोन पर उसी दिनचर्या को कायम रखने की हामी भर तो डी थी मैंने और कुछ समय तक मैं अपने घर की तरह यहाँ भी दीया-बाती करने भी लगी थी पर बाद में तो वर्त-उपवास और दीया- बाती से बहुत दूर हो गई।

महानगर लड़कियों को तेज़ी से अपनी और खींच रहा था, मेरे फ्लैट की लड़कियां दिन-प्रतिदिन मेरे सामने ही नए रूप में आ प्रस्तुत हो रही थी। एक बार जब मैंने गुंजन ranarainaरैना की स्टडी टेबल पर छोटा सा काले रंग का डिब्बा देखा तो एकबारगी मुझे लगा की ताश के पत्तों का डिब्बा होगा लेकिन जब उसे उठाया तो देखा वह सिगरेट का पैकट था। तो क्या

मेरे आँखों के सामने तीनों लदकियों के चेहरे घूम गये।

अगले दिन सुचेतना से मैंने उस सिगरेट के डिब्बे के बारे मे पूछा तो उसने थोड़ा झिझकते हुये स्वीकार किया, हाँ दीदी वोह मानसी की सिगरेट का डिब्बा हैं,

क्या तुम भी पीती हो।

पहले नहीं पीती थी अभी मानसी के साथ ही शुरू किया, सुचेतना मेरे सबसे निकट थी,

मैंने जीयो और जीने दो के सिद्धांत को अपनाया और कभी इन लडकियों के निजी जीवन में कोई खलल नहीं डाली।

तभी तीन सालों से हमारा यह पागलखाना हंसी-खुशी आबाद था।

पागलखाना, सुचेतना ने मेन दरवाज़े पर एक बार बड़े बड़े शब्दों में दिया था, मैंने उसे पढ़ कर कहा था मान लिया की तुम लोग पागल हो लेकिन मुझे तो अपनी मंडली में शामिल मत करो

नहीं दीदी आप तो हम पागलों की निरीक्षक हैं मानसी बोली थी।

अच्छा मैं हंसी

चलो ऐसा ही सही

पहले - पहल मैं जरूर अपने फ्लैट की ladkiyaलड़कियों की गतिविधियाओं पर अचरज करती पर बाद में धीरे-धीरे इन सब चीजों की आदत हो चली थी। मेरे व्यवहार से वे काफी खुल गई थी, शर्म और झिझक उन्होने छोड़ दी थी, हफ्ते दो हफ्ते में वे सिगरेट और शराब पीती और सुबह उठकर फूल माला ले कर मंदिर जाती, उनके जीवन में पब और पूजा दोनों का सहज समावेश था, मैं जरूर उनके इस समावेश से असहज हो जाती थी, उनके जीवन का यह अजीबो- गरीब घालमेल अक्सर मुझे चौंका देता था।

भारतीय संस्कार और पश्चिम की आधुनिकता के बीच जो खाई मेरे भीतर थी उसे इन लडकियों ने आसानी से पाट रखा था।

तुलसी का यह पौधा भी उन्हीं संस्कारों की एक नई कड़ी बन गई थी।

जितने भी दिन तुलसी फ्लैट में रही मेरे भीतर एक अलौकिक रसायन जैसा कुछ धमनियों में प्रवाहित होता रहा।

और फिर एक दिन जब तुलसी का वह पौधा अपने स्थान पर नहीं दिखा तो मैंने मानसी को उसके बारे में पूछा तो उसका जवाब आया दीदी उस पौधे को तो पड़ोसन सुबह ही ले गई थी।

अच्छा, मेरे भीतर से जैसे गमी की आवाज़ आई थी।

सबसे बड़ा परिवर्तन मैं अपने भीतर महसूस कर रही थी तुलसी का प्रवेश ने जैसे मेरे भीतर एक परिवर्तन का संयोग बना था । मैंने कई दिनो बाद अपनी रसोई के कोने के उपेक्षित रखे हुए दीपक को पोंछा और बड़े मनोयोग से बाती बनाई और दीये में घी उड़ेला, फिर अनजाने ही में मेरे हाथ पूजा की मुद्रा में आपस में जुड़ गए और अनायास की वह sमंत्र मेरे होठों पर उतर आया जिसे मैंने अपने बचपन में खूब जपा था. वह मंत्र था ॐ नमों भगवते वासुदेवाय नमः