Isliye in Hindi Short Stories by Ashok Gupta books and stories PDF | Isliye

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Isliye

इसलिए....

उनको इत्मिनान था की नेतराम अब आने ही वाला होगा. उनकी खासियत ही यह थी कि वह हर कठिन से कठिन हालत में भी इत्मिनान से रहनें का कोई न कोई तरीका, कोई न कोई वज़ह खोज लेते थे ओर बे फ़िक्र हो जाते थे, लौट आते थे अपने हल्के-फुल्के मूड में, एकदम ईजी हो जाते थे. यह ईजी हो जाना उनकी एक ज़रूरी खुराक थी जिसे वह अपनी निजी चहारदीवारी के भीतर ही ले सकते थे, वर्ना बाकी समय तो एक बेवज़ह सा वह कसाव अपने चेहरे पर चिपकाए रखना होता था जो उनके हिसाब से उनके व्यक्तित्व की ज़रूरत थी. उनका व्यक्तित्व सिर्फ उनका नहीं था न, इसलिए...

उस समय वह तीन थे इस सरकारी डाक बंगले में, और ईजी थे. लेकिन उस समय वह अकेले अकेले, अलग अलग थे, एक फर्क फर्क चेहरे वाले आदमी, जब वह सर्दियों की ढलती सांझ के बाद एक निर्जन, जंगली इलाके से गुज़रती डीलक्स बस में यात्रा कर रहे थे. उन तीनों की आपस में जान पहचान पहले से नहीं थी. वैसे भी, अगर होती भी तो भी वह ऐसे ही अलग अलग यात्रा करते क्योंकि वह जिस वर्ग के प्रतिनिधि थे, मध्य वित्त वर्ग के विपरीत, उनका चलन ही केवल कठिनाई और खतरे के समय एक हो जाना था और बाकी समय तटस्थ, अकेले तथा एकरस रहना.

उनके एक होने की प्रक्रिया तब शुरू हुई जब बस कुछ एक हिचकोले खा कर लड़खड़ाती रुक गई थी और एक संक्षिप्त सी जांच पड़ताल के बाद ड्राइवर कंडक्टर दोनों ने एक संक्षिप्त सी घोषणा कर दी थी कि बस अब आगे नहीं जाएगी. पहले वह एक-एक से दो हुए, और दो से तीन होते होते उन्होंने यह इत्मिनान जुटा लिया कि कैसी भी हालत हो, रात ढंग से बिताने की कोई न कोई व्यवस्था हो ही जाएगी और यह एक शगल भी रहेगा, एक नया अनुभव... उनका इत्मिनान गलत नहीं निकला और एक नेतराम खुद-ब-खुद आ कर उनसे टकर गया. इस नेतराम का असली नाम नेतराम नहीं था लेकिन इस वक्त वह नेतराम इसलिए बन गया क्योंकि उन तीनों में से, जो नेतराम की खोज थे, मिस्टर मेहरा एक डिस्ट्रिक जज थे और उनके निजी अर्दली का नाम नेतराम होने के कारण उनकी ज़ुबान पर यह नाम बहुत कस के चढ़ा हुआ था. यह नेतराम एक लोकल आदमी था, इस इलाके से परिचित, और वहां की उन हस्तियों के बीच खेला खाया जिनका व्यक्तित्व सिर्फ उनका ही नहीं होता. सो, वह ऐसे लोगों को अच्छी तरह , चेहरे और नब्ज़ दोनों से पहचानता था. इन तीनों के रंग -ढंग से वह एक झलक में ही भांप गया कि इन्हें न सिर्फ सरकारी डाक बंगले में आसानी से फिट किया जा सकता है बल्कि इनके साथ अपना भी ऐश से रात काटने का जुगाड़ बैठाया जा सकता है, और अगर ऊपर से कुछ नफ़ा नफरी भी बन जाए तो अचरज नहीं.. . सरकारी डाक बंगले तक उसकी पहुँच थी ही, क्योंकि उसका एक मुलाकाती पुराने चौकीदार की बरखास्तगी के बाद वहां लग गया था. इस तरह यह नेतराम उन तीनों के साथ चौथा हो गया और इन्हें डाक बंगले ले आया, जिसके बड़े हॉल में, अलग अलग आराम कुर्सियों पर यह तीनो आतिशदान के पास गर्म होते होते बा इत्मिनान हो रहे थे, एकदम ईजी, क्योंकि नेतराम खाने पीने का बंदोबस्त अपने जिम्मे ले कर कूच कर चुका था. एक दूसरे से परिचित हो चुके थे वह, और इस आधार पर वह सीमा तय कर चुके थे कि उन्हें किस से कितना खुलना है. वह अलग अलग सिरों से, अलग अलग खुलने वाले लोग थे, सो वह यह भी तय कर चुके थे कि कौन सा छोर पहला दौर सम्हालेगा. सिलसिला शुरू हुआ और ह्विस्की की बोतल खुल कर गिलासों में बंटने लगी.

डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर मेहरा, उद्योगपति श्री बैरागीलाल और अनुभवी पत्रकार भाई कार्तिकेय मिश्र, तीनों इस डाक बंगले वाले इलाके से सैकड़ों अलग अलग मील दूरस्थ और अन्यथा अपरिचित. लोकल नेतराम, जिले के इनकम तकस दफ्तर का बाबू, जिसका असली नाम नेतराम नहीं है. डाक बंगले का चौकीदार, जो पुराने चौकीदार की बरखास्तगी के बाद वहां लगा. डाक बंगला... अंधेरी रात और दारू का दौर ...

सबको इत्मिनान था कि नेतराम अब आने ही वाला होगा.

देखिये, आपको यह गफ़लत मन से निकाल देनी चाहिए कि मैं कहानी सिर्फ इसलिए नहीं सुना सकता क्योंकि मैं हैसियत से इस डाक बंगले का चौकीदार भर हूँ.वैसे भी कहानी बुनने और कहानी सुनने का जितना सदाबहार मौसम किसी सरकारी डाक बंगले के चौकीदार को मिल सकता है उतना और किसी को नहीं.यह डाक बंगले साल में सिर्फ पांच सात महीने आबाद रहते हैं और बाकी दिन यहाँ सिर्फ सन्नाटा गूँजता है. यहाँ लोग भी ऐसे आते हैं जिनके भीतर उनकी और उनसे जुड़े लोगों की कहानियाँ कूट कूट कर भरी होती हैं और उन्हें निकालने का मौका उन्हें मिलता ही तब है जब वह अपनी कुर्सियों से उठ कर यहाँ आतिशदान से रू-ब-रू होते हैं, और अपना नकली अफसराना रंग ह्विस्की से धो डालते हैं.मुझे इन कहानियों को सुननें की तनख्वाह मिलती है.

जब यहाँ कोई नहीं होता तब भी मुझे यहाँ इस डाक बंगले के फाटक पर चिराग जला कर बंदूक लिए तैनात रहना पड़ता है. तब रात हो या दिन,यहाँ सिर्फ ज़बरदस्त बियाबान सन्नाटा होता है, जिसमे जब और कोई नहीं आता तो कहानियाँ आती हैं जिन्हें मैं बुलाता हूँ.

आपकी तरह मैं भी मानता हूँ कि कहानियों के केंद्र में आदमी होता है, बियाबान सन्नाटा नहीं, और मेरी कहानियों के केंद्र में भी एक आदमी है. दरअसल आदमी कभी एक नहीं होता. घर में, बाहर, ड्यूटी पर और यार दोस्तों के साथ हंसी ठहाकों के बीच, वह हर हाल में एक फर्क आदमी होता है, उस हाल में शामिल, और बाकी सारे आदमी, उस समय उसके भीतर बस गूंगे गवाह भर होते हैं. साथ ही हर कहानीबाज़ का एक अपना आदमी होता है, जिसे वह अपनी नज़र के मुताबिक चुनता है, और बार बार उसी की कहानी उसके भीतर अलग अलग आदमी को लेकर बुनता रहता है. इस तरह उसकी कई कई कहानियां दरअसल एक ही आदमी की कहानी होती है.

मेरे साथ भी ऐसा ही है और मेरी कहानी के केंद्र में है इस डाक बंगले का पहले वाला चौकीदार ! वैसे, काफी समय तक ईसुरदीन, यानि आज का यह नेतराम मेरी कहानी में रहा करता था. तब से, जब इसकी मां की मौत के बाद इसके बाप ने दूसरा ब्याह कर के इसे घर से 'गेट आउट ' कर दिया था. तब यह सिर्फ पंद्रह साल का था और दर्ज़ा सात पास था. इसने गाँव में इसके उसके खेत खलिहान में रात गुजारते गुजारते मेरी कहानियों में प्रवेश लिया था और मुफलिसी मक्कारी में जीते जीते, तेईस बरस की उम्र में दसवां पास कर पाने तक वह उस आदमी से फर्क हो चुका था जो मेरी निगाह के आदमी से मेल खाता.इस बीच मैंने इस आदमी को लेकर बहुत सी कहानियां बुनीं और कपडे की तरह अपने जिस्म पर पहन लीं.

तब, जब मैंने अपनी कहानी के केंद्र में ईसुरदीन , यानि आज के नेतराम को रख कर जीना शुरू किया था तब मेरी उम्र सिर्फ चौबीस साल थी. मैंने ताज़ा ताज़ा बी. ए. पास किया था. पछतावा मेरे मन से पूरी तरह साफ़ नहीं हुआ था कि अपने मामा के कहने पर मैंने आगे पढने का इरादा छोड़ कर नौकरी की खोज करना स्वीकार कर लिया था. नौकरी की खोज पूरी होने के बाद भी मेरी खोजवृत्ति रुकी नहीं और मैं अपनी कहानियों के केंद्र में रखने के लिए आदमी की खोज में लग गया.ताकि ईसुरदीन, यही आज के नेतराम की जगह भरी जा सके. मेरी खोज एक दिन पूरी हुई और उस खाली जगह में इस डाक बंगले का पुराना चौकीदार आ बैठा.

इस डाक बंगले का पुराना चौकीदार...

भूतपूर्व चौकीदार, क्योंकि वह नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था. भूतपूर्व आदमी, क्योंकि उसे बदचलनी और फौजदारी के जुर्म में सजा हुई थी और सजा काट कर वापस घर आने के बजाय वह शख्स गहरी नदी के हवाले हो गया था.

जी मैं मानता हूँ की मेरी कहानी के केंद्र में एक अहमक और बुज़दिल आदमी है लेकिन बदचलन और अपराधी हरगिज़ नहीं. सारा गाँव जनता है कि वह शख्स बिल्कुल निर्दोष था, और तो और, अपना यह ईसुरदीन, यानि आज का नेतराम, भी इस मामले से अच्छी तरह वाकिफ़ है, और सच कहूँ तो सारा किस्सा, मय पोल-पट्टी के. मुझे इसी ने बताया था... और यह भी कि यह तो बहुत आम बात है कि इन्साफ के जबड़े को जुर्म के बदले आदमी का गोश्त चाहिए और क़ानून की जुबान मुजरिम और बेकसूर के गोश्त के स्वाद में फर्क नहीं जानती.

बात ऎसी थी कि गाँव के प्रधान की लड़की का गाँव के डाक्टर से कुछ चक्कर चल रहा था और डाक्टर का जुनून, कि उसने उस लड़की को ले भागने का हौसला कर लिया.एक रात डाक्टर के साथ, घर से कुछ पूंजी समेत कर वह लड़की भागी और उस चौकीदार की कमबख्ती कि वह निगोड़े आकर ठहरे भी तो इसी डाक बंगले में. डाक्टर को सरकारी ओहदे का बुखार था लेकिन वह भूल गया कि सरमायदार चाहे वह गाँव का हो या शहर का, चौकन्ना रहता है चौतरफा. सो, घंटे भर में लठैतों ने घेर लिया डाक बंगला. आशिक माशूक पकड़ लिए गए, और चौकीदार ने ठाकुरद्वारे में जा कर मत्था टेका कि, हे प्रभू, रच्छा की तूने, नहीं तो थोडा पाप ज़रूर मेरे सिर भी आता...

थोड़े दिन तो मामले का बुलबुला भी नहीं फूटा. डाक्टर ठहरा सरकारी अफसर, उसकी कहीं और बदली हो गयी, और बाद में मुकदमा उठ खड़ा हुआ कि डाक बंगले के चौकीदार ने गाँव के प्रधान की बिटिया को भगा ले जाने का कुचक्र रचा, उसे घर से पैसा रुपया चुराने को उकसाया और इस अंदाज़ से रात भर के रात भर के लिए उसे अपने डाक बंगले ले आया कि वह वहां उसके साथ मुंह काला करेगा और उसके बाद रातों-रात भाग जाएगा. बयान सामने आया कि इस नियत के साथ चौकीदार डाक बंगले में प्रधान के आदमियों द्वारा, जिसमें डाक्टर साहब भी बतौर गवाह शामिल थे, लड़की के साथ पकड़ा गया और फिर निकल भागने की कोशिश में उसने उनके साथ फौजदारी भी की.

आप देखिये, यह बयान न सिर्फ अदालत में जारी किया गया बल्कि कसबे के अखबार ने भी इसे भर सुर्खी छापा, जिसके मालिक और संपादक नगेन्द्र जी न सिर्फ डाक्टर के हमराज़ दोस्त थे बल्कि उन्होंने वक्त बे-वक्त अपने प्रेस के गोदाम की सुविधा भी डाक्टर साहब को उपलब्ध कराई थी. ज़ाहिर है कि उस सुविधा के तहत प्रधान की लड़की, लड़की न रह कर पूरी औरत बन चुकी थी, जब कि डाक्टर की सरपरस्ती में लड़की की डाक्टरी जांच की रिपोर्ट बहुत माकूल पाई गई थी कि शंकर भगवान् की कृपा से चौकीदार अपने दांव में कामयाब न हो पाया और लड़की बाल बाल बच गई.

ईसुरदीन, यानि आज के नेतराम को मेरी कहानी के दायरे से बाहर धकियाये जाने की आखीरी लात तब पड़ी थी जब उसने गवाही दी थी कि उसने खुद उस चौकीदार को प्रधान की बिटिया के साथ खेतों खेतों छिपते जाते देखा था. यह तबकी बात है जब यह ईसुरदीन अपने साहब की मां को तीरथ कराने वैष्णव देवी गया हुआ था.

इस वाकये को अब तीन बरस हुए, जिसे मैं चौकीदार की बरखास्तागी से शुरू मानता हूँ. मुझे इस नौकरी पर लगे लगभग दो बरस हुए हैं आज मेरे डाक बंगले में कुछ बाहरी इलाके के लोग आकर ठहरे हैं. इस जिले से ही नहीं, प्रदेश से भी बाहर के हैं शायद... मैं इनकी अर्दली में दरवाज़े पर बैठा हूँ ताकि जान सकूँ कि दूर-दराज़ की मिट्टी में कैसी कहानियां उगती हैं. यह सब ईसुरदीन का इंतजार नेतराम के नाम से कर रहे हैं.

मैं भी इंतजार कर रहा हूँ कहानियों के अंकुर फूटने का..अभी तो ज़मीन दारू से सींची जा रही है, फिर भी जल्दी शुरू होगा यह सिलसिला, ऐसा लगता है.

***

डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर मेहरा न सिर्फ एक अनुभवी न्यायधीश थे बल्कि एक कुशल किस्सागो भी थे. जब यह बहुत खुश होते थे तो बातों का भण्डार उनके भीतर से फूट फूट कर निकलता था. आज वह बहुत खुश थे क्योंकि उन्होंने एक लायक आदमी खोज निकाला था जिसकी बदौलत मुसीबत वाकई उनके इत्मिनान के मुताबिक न सिर्फ टल गई थी बल्कि एक खुशनुमा शगल बन कर पेश हुई थी ( उन्हें खिला-पिला कर और खुद भी भर पेट मुर्गा सूत कर ईसुरदीन बाकायदा कम्बल नशीन हो चुका था, इस ख़ुशी के साथ, की आज उसने एक अच्छी चिड़िया फांसी )

रात अपने पूरे सरूर में थी. बैरागीलाल जी और मिश्र जी पूरी तरह मेहरा साहब की गिरफ्त में आ चुके थे और मेहरा जी उन पर इतना हावी थे कि कोई गुंजायश ही नहीं थी जो कोई भी तब तक पलक झपका पाता जब तक मेहरा साहब खुद न एलान कर देते कि अब किस्सा खत्म हुआ.

मेहरा साहब का विश्वास ऐसे किस्सों में था जो वाकया हों और उनको सुन कर सामनेवाला न सिर्फ भौचक रह जाय बल्कि लोहा भी मान जाय मेहरा साहब का.. इसलिए अपने किस्सों में मेहरा साहब खुद ज़रूर होते थे. खुद पर न झेला गया हो वह वाकया सच केवल अदालत में होता है, उसके बाहर झूठ और झूठ से मेहरा साहब को सख्त परहेज़ है.

वह ताज़ा-तरीन किस्सा जो आज जारी था, वह सच्चा था क्योंकि उसे मेहरा साहब ने खुद झेला था. वह सुनाने के काबिल था क्योंकि वह मेहरा साहब की बहादुरी और सूझ-बूझ की सनद था, नहीं तो आज मेहरा साहब इस डाक बंगले में सौ सौ के नोट उदा कर टुन्न न हो रहे होते बल्कि जेल में होते या सड़क पर.

जज साहब पूरी पारंगत मुद्रा में किस्सा बयान कर रहे थे . मिश्रा जी और बैरागीलाल पूरी एकाग्रता से उसमें ड़ू बे हुए थे. ईसुरदीन बाकायदा कंबल में पर फैलाए नाक बजा रहा था. और डाक बंगले का चौकीदार, यानि मैं, एक निहायत फालतू सी चीज़ सा, दरवाज़े से टिका, टांगें मोड़ कर घुटनों में सिर दिए टुकुर टुकुर ताक रहा था. पता नहीं सुन रहा था किस्सा, या सिर्फ आँखें खोले झपकियाँ ले रहा था.

उस दिन जब मैं कचहरी पहुंचा, मुझे वहां का माहौल बहुत उमस भरा लग रहा था, जैसे मेरे भीतर-बाहर एक गहरी, बेंतेहा खुश्की भर गई हो. मैं मन ही मन उस गलत ज़ज्बे को जीतने की कोशिश में था क्योंकि उसकी वज़ह मुझे मालुम थी.

दरअसल बात यूनिवर्सिटी के छात्र नेता दिवाकर पाण्डेय के क़त्ल के उस मुकदमें से संबंधित थी जो मेरी इजलास में चल रहा था. वैसे, इस मुकदमें से हट कर इस क़त्ल का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है. हुआ यह कि दिवाकर पाण्डेय यूनीवर्सिटी के साइंस विभाग का छात्र था और रसायन विज्ञान में रिसर्च कर रहा था. जिस रात उसका क़त्ल हुआ वह मंगलदास के होटल विश्राम में ठहरा हुआ था, क्योंकि वह होटल रोडवेज़ के बस अड्डे के लगभग भीतर बना हुआ था और दिवाकर को बहुत सवेरे पहली बस पकड़ कर कहीं बाहर जाना था. सुबह देर होने के बावजूद होटल के बैरा चुन्नीलाल में जब दिवाकर का कमरा अभी तक बंद देखा तो उसे दिवाकर का प्रोग्राम याद आया. चार पांच बार खटखटाने के बावजूद जब उसे और कुछ नहीं सूझा तो उसने सस्ते होटल के बिना परदे वाले झिरीदार दरवाज़े पर आँख लगा दी और फिर बदहवास चीखता हुआ बाहर भागा जहाँ भाई मंगलदास अपने काउंटर और कैश बाक्स को अगरबत्ती दिखा रहे थे.

उस दिन तक इस केस की बस मामूली सी अहमियत थी मेरे भीतर, लेकिन बैरागीलाल जी मामला सिर्फ इतना भर ही नहीं था बल्कि बहुत सी गुम जड़ें थीं इसकी, जो मैंने बाद में जानीं.उस दिन सुबह नौ बजे, जब मैं कचहरी के लिए अब बस निकलने ही वाला था की मेरे पास एक फोन आया जिसे करने वाला खुद को मुख्य मंत्री बता रहा था. उस आदमी ने जो मुख्य मंत्री हो भी सकता था और नहीं भी, मुझे लताड़ते हुए सख्त हिदायत दी कि दिवाकर पाण्डे के क़त्ल से यूनीवर्सिटी में, शहर में, और उसके गाँव में जबरदस्त असंतोष फ़ैल गया है, इसलिए मुझे फोन पर चेतावनी भरे लहजे में समझाया गया कि मैं इस केस में विशेष रूचि लूँ, केस से जुड़े सारे मुद्दों को गौर से समझूँ, और मामला सुलझा कर जल्दी से जल्दी गुनाहगार को सजा दिलवाऊं ताकि लोगों के मन में कानून और हिफाज़त के प्रति विश्वास लौट सके.

इस फोन से मों थोडा अपसेट हुआ ज़रूर मिश्र जी, लेकिन मैंने इस सीरिअसली लिया तब, जब मैंने उस दिन के अखबार में पढ़ा कि मुख्य मंत्री ने विश्वविद्यालय कें एक ऐसे डेलीगेशन को तुरंत निष्पक्ष कार्यवाही का आश्वासन दिया है जिसमें यूनीवर्सिटी के लोगों के साथ साथ दिवाकर के भाई तथा उसके गाँव के प्रधान भी शामिल थे. इस खबर से मैं इतना तो समझ गया कि फोन करने वाला ज़रूर मुख्य मंत्री रहा होगा, न सचमुच का, तो शैडो सी एम् तो ज़रूर ही. उस दिन मैंने कुछ टेक्नीकल तिड़ी लगा कर केस को अगली तारीख दे दी थी और घर लौट आया था.

इसके बाद मैंने कुछ दिन केस की ज़बरदस्त छानबीन की थी और जो सूरत सामने आई थी वह खासी दिलचस्प थी.

दिवाकर पांडे जिस गाँव का रहने वाला था उसमें ज्यादातर घर ब्राम्हणों के थे लेकिन गैर ब्राम्हण लोगों का आंकड़ा भी ढीला नहीं था. इस गणित में वोटों के हिसाब से जीतने वाला मोहरा हमेशा ब्राम्हणों का होता था और गैर ब्राम्हण मजबूत विरोधी खेमा गाड़ कर रखते थे और कुछ न कुछ टंटा-बखेड़ा खींचे ही रहते थे.

यूनीवर्सिटी में दिवाकर पांडे बी एससी में घुसा था और रिसर्च तक आते आते चार सालों में यूनीवर्सिटी पर छा गया था. वैसे बहुत होनहार, काबिल और विनम्र लड़का था वह लेकिन यूनीवर्सिटी के मामले में कोई घोटाला, चाहे वह छात्रों से संबंधित हो, प्राध्यापकों से संबंधित या किसी अन्य कर्मचारी का, उसे कतई बरदाश्त नहीं था और ऐसी हालत में खुद को ज़रूरत बे-ज़रूरत विरोध में उलझा लेता था.साथ ही, उसका पहला ध्यान अपनी रिसर्च की तरफ था. उसे इस बात से सख्त परहेज़ था कि बाहर का कोई आदमी चतुर सयाना बन कर, उनकी मुश्किल बांटने हल करने के बहाने यूनिवर्सिटी में आ खड़ा हो, और यही बात बेहद खटकती थी बाहर वालों को. उसके रहते यूनीवर्सिटी के लड़कियों-लड़कों का बाहर के जलूसों जलसों में सजना बंद हो गया था और यूनिवर्सिटी के भीतर, बाहर वालों का भाषण-वाषण भी.

यह तो आप समझ ही सकते हैं बैरागीलाल जी, कि यूनिवर्सिटी से सूत्र टूट जाना उस इलाके के चुनाव क्षेत्र पर क्या असर डालता होगा .. हमेशा से उस इलाके से सत्तारूढ़ दल का उम्मीदवार जीतता आया था और जीत का सेहरा हमेशा यूनिवर्सिटी के सिर होता था, जबकि इस बार साफ़ साफ़ नज़र आने लगा था कि अगर दिवाकर पोस्टर ही लग जाने दे तो बड़ी बात है. इस से रूलिंग पार्टी को झटका तो था ही, यूनीवर्सिटी के भीतर भी कम हलचल नहीं थी. दिवाकर की इस जिदबाज़ी से उन लोगों का रास्ता बिलकुल बंद हो गया था जो नाम और पैसा कमाने का पूरा हुनर रखते थे और यूनिवर्सिटी को इसका माकूल प्लेटफार्म बना कर बरसों से इस उस डिग्री डिप्लोमा के बहाने वहां अटके हुए थे. ऐसों की गिनती भी मिश्रा जी कम नहीं थी और ऐसे लोग दिवाकर के ग्रुप की अपेक्षा ज्यादा सूझबूझ वाले भी थे और संगठित भी.

अब देखिये हालत क्या बनते हैं.. बाहरवाले तो चुप बैठने वाले थे नहीं क्यों कि अगर ऎसी छोटी मोटी अडचनों से रुक कर तो पौलिटिक्स चल चुकी. तो साहब, पहला काम तो यह हुआ कि रसायन विभाग के हेड, जिनकी देखरेख में दिवाकर रिसर्च कर रहा था विदेश भेज दिए गए.इस से दिवाकर न सिर्फ अपने काम में अकेला रह गया बल्कि उस के जिम्मे कुछ दूसरे काम भी आ गए जो उसके हेड, विभाग के हित में, उसे सौंप गए. इस से दिवाकर कुछ तो व्यस्त हो गया कुछ ज्यादा परतंत्र. उधर भीतर वालों के लिए भी उनका दांव आसन हो गया. आसन कुछ इस वज़ह से भी हो गया कि दिवाकर यूनियन की तरफ से तो काम कर नहीं रहा था, सो दिवाकर का दबाव कम होने की वज़ह से यूनियन को उभरने का मौका मिल गया.

अब बाहर वालों का दूसरा पैंतरा देखिये. एक तरफ यूनीवर्सिटी वाले चुनावक्षेत्र से एक ब्राम्हण प्रत्याशी को खड़ा करने की योजना बनाई गई, दूसरी ओर उस प्रत्याशी के गाँव का एक एक दबंग छात्र यूनिवर्सिटी में दाखिल करा दिया गया, जिसने पहले ही दिन से यूनियन में घुसपैठ का अपना मोर्चा सम्हाल लिया. अन्दर के लोगों ने इसका स्वागत किया, इस नियत से कि इस गोट से दिवाकर को शह दी जा सकेगी. और इस तरह वह नया छात्र एक पुल बन गया जिसने यूनिवर्सिटी के बाहर को भीतर से जोड़ दिया. दिवाकर अपनी रिसर्च में धंसता चला गया, और इधर अन्दर ही अन्दर गुपचुप काम होता गया. बीच बीच में दिवाकर को खबर मिलती तो वह झल्लाता, भाग दौड़ कर लोगों को बटोरता समेटता तो उसकी यूनियन के साथ तकरार खड़ी हो जाती. दिवाकर इधर सोचता कि तकरार का सिद्धांत पक्ष समझा जाय, उधर विभाग का जंगल उसे काम की ओर खींच लेता.

दिवाकर के हेड वापस आते हैं और दिवाकर उन्हें उनका बोझ वापस सौंप कर संतुष्ट बाहर आता है. बाहर की हवा बदली हुई है. यूनियन जम कर खड़ी हो चुकी है. उस पर से दिवाकर का जादू उतर गया है क्योंकि यूनियन का महासचिव है इन्द्रेश बाजपेयी, जिसने रास्ते के झाड़ को उखाड़ना सीखा है, उस से उलझ कर रुक जाना नहीं.

फील्ड में दुबारा आने पर दिवाकर को स्थिति समझने में थोड़ा समय लगता है. इस बीच दिवाकर की बदकिस्मती की इन्द्रेश से उसकी मुठभेड़ ऎसी हो जाती है कि इन्द्रेश की डायरी में उसका नाम प्रतुद्वांडी के स्थान से हट कर शत्रु का हो जाता है, और यह प्रतिफल होता है उस क्षेत्र के सत्ता पक्ष के भावी प्रत्याशी पंडित गजानन दीक्षित के ज़रा से मंत्रोच्चार का..

दिवाकर के हेड को विदेश भेजते समय से ही यूनिवर्सिटी के उपकुलपति पर दीक्षित जी का डंडा घूम चुका है., सो दिवाकर पर विभाग के भी काम काज का बोझ बढ़ता गया, इधर उस के शोध के भी अध्याय दर अध्याय पिटते चले गए. चौड़ा होता गया इन्द्रेश. दीक्षित जी का यूनीवर्सिटी में आना जाना शुरू हो गया, सो दिवाकर का मानसिक तनाव भी बढ़ता ही गया.चिडचिड़ा होता गया दिवाकर, दिन रात इन्द्रेश से उसकी झंझट बाज़ी बढती चली गयी, और एक दिन यह काण्ड हो गया.

उस दिन यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में एक कवि गोष्ठी की व्यवस्था थी और उसके मुख्य अतिथि थे पंडित गजानन दीक्षित. उधर, यूनिवर्सिटी के ही कला भवन में दिवाकार ने एक विकलांग छात्र की पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी लगवाई थी. कवि गोष्ठी समाप्त हुई और घूमते टहलते पंडित जी अपने युवा साथियों के साथ, जिनमें मुख्य मंत्री का भांजा विक्रम भी था, अनायास प्रदर्शनी के पंडाल में आ पहुंचे. दिवाकर इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था, सो एक तनाव सा घिर आया उस पर अचानक एक हंगामा उठ खड़ा हुआ. हुआ यह की एक चित्र में, जिसमें एक घने बीहड़ जंगल में सूर्योदय की अमूर्त सी रंग संव्यूहन प्रस्तुति थी, दीक्षित जी के युवा साथियों को एक अनावृत नर्तकी नज़र आ रही थी, इस प्रस्ताव के साथ कि उसके ' नाज़ुक मुकाम ' गैर ज़रूरी जंगल हटाने के लिए एन फ्रेंच दिया जाना चाहिए. एक तरफ तस्वीर की इस व्याख्या नें दर्शकों के मन में एक नई गुदगुदी पैदा की थी, और दूसरी तरफ ठहाकों के बीच विकलांग कलाकार रुआंसा सा खड़ा था, बेहद अपमानित..शोर सुन कर दिवाकर हुजूम के पास आता है. दीक्षित जी उसका शालीनता से स्वागत करते हैं, और मुख्य मंत्री का भांजा यानी विक्रम आगे बढ़ कर एक सवाल दाग देता है, " क्यों दिवाकर जी, ये कोकशास्तर दिखाइएगा देश के युवकों को..?"

अचानक उबल पड़ता है दिवाकर. चीखने लगता है, दीक्षित जी दूर से दृश्य का द्वन्द सुख लेते रहते हैं. पता नहीं क्या लहर आती है कि दिवाकर दीक्षित जी समेत सब को धकिया कर पंडाल से बाहर कर देता है. विक्रम भी एक सीमा के बाद अपना धीरज खो देता है, कुछ ऐसे, कि जैसे चाणक्य नें अपनी शिखा खोल दी हो.

यह बात दीक्षित जी को भी हज़म नहीं होती, लेकिन यह गरम गरम नहीं खाते, यह उनका सिद्धांत है. अगले दिन सुबह ही इन्द्रेश के कमरे में एक बैठक होती है, जिसमें दीक्षित जी के अतिरिक्त सारी चठिया, मय विक्रम शामिल होती है. सारी दोपहर दिवाकर अपनी प्रयोगशाला में व्यस्त रहता है क्योंकि अगले दिन, बहुत सुबह ही उसे बस पकड़ कर बाहर जाना है और सुविधा के नाते रात उसे मंगल दस के होटल विश्राम में बितानी है.

शाम को विक्रम और इन्द्रेश दिवाकर के हॉस्टेल के इर्द गिर्द तथा रात को मंगलदास के होटल के पास नज़र आते हैं. मंगलदास, जो रात को ग्यारह बजे के पहले कभी होटल से बाहर नहीं हिलते, उस दिन आठ बजे ही उठ खड़े होते हैं. दिवाकर के आने पर उसे कमरा दिखा कर मुंशी भी दस बजे के पहले ही फूट लेता है. सवा दस बजे तक होटल बियाबान हो जाता है. एकदम बेआवाज़... करीब एक बजे रात को एक दुपहिया स्कूटर आ कर रुकता है और होटल के सामने बस स्टैंड के पास चाय वाले की सुपुर्दगी में छोड़ दिया जाता है, और दो आकृतियाँ तेज़ी से होटल में घुस जाती हैं, फिर करीब आधे घंटे के बाद बदहवास, आनन् फानन में स्कूटर उठा कर अँधेरे में गुम हो जाती हैं.

अपनी पूरी तहकीकात के बाद मैं यह पाता हूँ कि दिवाकर का क़त्ल इन्द्रेश और विक्रम नें मिल कर किया है और संतुष्ट हो जाता हूँ कि मैं चीफ मिनिस्टर को मुंह दिखने के काबिल हो गया हूँ. अगले ही दिन मैं ख़ुफ़िया तौर पर दिवाकर के वकील को एक ख़ास दोस्त द्वारा यह सारा मामला समझवाता हूँ. और खोल देता हूँ वह मन्त्र गांठें जिनकी वजह से पिछले दो महीने से दिवाकर के क़त्ल का मुकदमा मेरी अदालत में इंच भर भी खिसक नहीं पाया था.

दो पेशियों के बाद मामला कुछ रफ़्तार पर आने को होता है कि अचानक एक इतवार को सी एम् का फोन कोठी पर मेरी बुलाहट के साथ. मुझे इस फोन से कोई घबराहट नहीं होती बैरागी लाल जी, और मज़ा देखिये कि जब मैं उनके पास से वापस लौट रहा था तो ऐसे, जैसे मुझे सरे बाज़ार नंगा घुमाया गया हो..मिश्र जी, सी एम् ने मुझे इतनी झाड़ लगाई कि बस कुछ पूछिये मत.

" क़त्ल विक्रम ने किया है यह बात तुम्हें दो महीने की चूतड़ घिसाई के बाद मालुम हुई तो क्या तुम पहले अँधेरे में बिल्ली पकड़ न्याय करने जा रहे थे..? और अब दो महीने में इन्दर भगवान् का अमृत पी कर आये हो जो मेरे सामने मेरे भांजे को नपवाने की बहादुरी बखान रहे हो... चूतियानंदन, तुम पर क्या कानून और व्यवस्था की रक्षा की जिम्मेदारी इसीलिए सौंपी गई है कि तुम साले को, सरकार की तस्वीर पर ही कालिख पोत दो ? हैं..?

मुख्य मंत्री का भांजा खूनी है तो मुख मंत्री क्या है, भेड़िया..? अरे मूरख परसाद, अगर मुख्य मंत्री भेड़िया है तो वह तुम्हें भी मय खानदान एक झपट्टे में साफ़ कर सकता है..क्यों, है कि नहीं ?

मेहरा जी, मुख्य मंत्री सरकार होता है, सरकार. उसके चहरे पर प्रधानमंत्री की रोशनी चमकती है..और आप उसी का मुंह काला करना चाहते हो..?

क़त्ल विक्रम नें किया है, शहर का बच्चा बच्चा यह बात उसी दिन सुबह से जानता है. आपकी जागरूकता का तो यह हाल है और बनेंगे साले, न्यायपीठ..साले, मिटटी के लोंदे..

मुख्य मंत्री जी मुझे लताड़ते रहे और मैं सुनता रहा, कि हैसियत का पानी तो उतर ही गया पूरे का पूरा, अब नौकरी बच जाय तो शुक्र है भगवान् का..

एक मिनट चुप रह कर फि र बोले मुख्य मंत्री जी,

" अब अइसे गदहा की तरह सर झुका कर बैठने से कुछ नहीं होगा मेहरा जी, बस जाइए और अपना दायित्व समझिये. न्याय व्यवस्था से सरकार की छवि निखरनी चाहिए. इसीलिए सरकार यहाँ काबिल लोग ला कर बैठाती है ताकि कानून व्यवस्था में जनता का विश्वास बना रहे.. सरकार में विश्वास बना रहे. उठिए और ठीकठाक कातिल पकड़ कर उसे सजा दिलवाइये. यूनीवर्सिटी का पूरा बरस हंगामे में बीता जा रहा है, क्षात्रों के भविष्य की भी कुछ चिंता है आपको या नहीं..? चुनाव ऊपर से सिर पर हैं. जाइए और अपना काम सम्हालिए वर्ना...

और मुख्यमंत्री जी अधूरी बात को पान के साथ मुंह में रख कर उठ खड़े हुए.

मैं सी एम् की कोठी से मुहं लटकाए वापस लौटा था और सिर थाम कर बैठ गया था.मुझे अपने चारों और सारे रस्ते बंद नज़र आ रहे थे और साथ के लोगों में कोई ऐसा नज़र नहीं आ रहा था जिस से मिल बाँट कर कुछ सोचा समझा जाय. ऐसे में मेरे चपरासी नेतराम ने मुझे छेड़ा था.

" क्या बात है साहेब, आज बहुत परेशान... "

और अपनी बात पूरी करते न करते वह मेरी आरामकुर्सी के पास, जिस पर मैं ढहा पड़ा था, नीचे कालीन पर बैठ गया.उसने पल भर निहायत मुलायम नज़रों से मेरे पिटे हुए चेहरे को देखा और अपने पहले ही जुमले से मुझे हैरत में डाल दिया.

" इसमें बहुत घबराने की बात नहीं है साहेब, सी एम्म एक मुजरिम ही तो लेंगे, कोई जान तो लेंगे नहीं..आप तो बेकार की चिंता में जूझे जा रहे हैं मार तमाम..."

" मिश्रा जी, मैं हैरत में तो खैर आ ही गया था, बड़ी हैरानी की बात यह हुई की वह मेरा अचरज भी भांप गया और हंस कर बोला -

" साहेब, इस में हैरानी की क्या बात है, थोड़ी इन्फार्मेशन चैनल अपने पास भी रखनी पड़ती है..बारह बरस से साहब लोगों की अर्दली कर रहा हूँ, यही सब तो देखा है, अरे, कहीं लोग बदलने से दस्तूर चलन बदलता है ? और इसी से तजुर्बा बढ़ता है साहेब..आपके लिए तो हम तब ही से सोच रहे थे जब से आप और आपके दोस्त यूनिवर्सिटी के दनादन चक्कर लगा रहे थे..हमें तभी लग गया था की आपका सनीचर अब बिगड़ रहा है. "

नेतराम बोलता जा रहा था और मुझे लग रहा था की मुख्यमंत्री के बाद अब मुख्यमंत्री का बाप मेरी चढ़ाई कर रहा है.

एक दही सा जम गया था मेरे मुंह में. फिर भी नेतराम के आखिरी वाक्य ने एक राहत की सांस दी थी मुझे-

" साहेब, ज्यादा हलकान मत होइए, सांप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. हमें जरा पहले मालुम होता की आप रपट जाइएगा तो हम खुद ही आगे बढ़ कर कंधा लगा देते. मुख्यमंत्री और कानून, इन दोनों जिनावारों को नाथना हम बहुत सीखे हैं साहेब.. आप भूल जाइए थोड़ी देर और मौज कीजिए."

बैरागीलाल जी, आप विश्वास नहीं कीजिएगा , यह नेतराम तो जबरदस्त आदमी निकला.एक तो सी एम् ने मुझे बहुत सही समय पर लगाम खींच कर जगाया था, जो तब तक बस स्टैंड के टी स्टाल वाले और पहरेदार की गवाहियाँ नहीं शुरू थीं, दूसरे मुझे इस बात का फायदा मिल गया की होटल का मालिक होने के नाते मुकदमा मंगलदास के खिलाफ चल रहा था और मंगलदास उस रात सौ से भी ऊपर लोगों की गवाही में मुकामे-क़त्ल से बीसियों मील दूर एक अखंड कीर्तन में मौजूद पाया गया था.नेतराम ने तिकड़म शुरू की उस से मेरा हौसला कुछ पक्का हुआ, और इधर पाया की मुक़दमे का रुख मोड़ने में मुश्किल कुछ है ही नहीं. इस तरह यह रोशनी में लाना और साबित कर पाना आसन हो गया कि पैसे के लालच में इंसान का ज़मीर कितना गिर सकता है, यह कहा नहीं जा सकता.. जैसे, महज़ इस शक पर कि दिवाकर के ब्रीफकेस में कोई तगड़ी रकम होगी, होटल के बैरा चुन्नीलाल ने मौके का फायदा उठाया और दिवाकर का ब्रीफकेस ले भागने के चक्कर में उस से मुठभेड़ कर बैठा. नतीजा यह हुआ कि दिवाकर चुन्नीलाल के हाथों मारा गया. चुन्नीलाल ने अपना मफलर दिवाकर के गले के चारों ओर जकड दिया और तब तक कसता गया जब तक दिवाकर वहीँ गिर कर ढेर नहीं हो गया. होटल के कमरे में दिवाकार की लाश गले में जकडे मफलर समेत पाई गई थी.होटल के कमरे में लाश देखने का नाटक भी सबसे पहले चुन्नीलाल ने किया

देखिये मिश्र जी, आपकी पत्रकार नज़र ने ठीक ही पकड़ा कि इस मामले में बहुत से सवाल उठते, उठ सकते हैं, लेकिन साहब, जब सिविल सर्जन, इंटेलिजेंस यहाँ तक कि पुलिस भी हमारे साथ थी और मामले की सारी असलियत सबको मालुम थी, तब किसी अड़ंगे की गुंजायश कहाँ बचती है..?और अगर होती भी तो, गजानन दीक्षित मौजूद थे, जिनकी तूती उस समय दूर तक बज रही थी.

मामले चला और अपनी रफ़्तार भर चल कर मंजिल तक पहुँच गया. इस तरह चुन्नीलाल को आगे खड़ा कर के सी एम् को रिझाया गया... और फिर तो पूछिये मत साहब, मंगलदास की ओर से गजानन दीक्षित की रकम पर एक तगड़ी पार्टी दी गयी सबको, जिसमे सी एम् साहब मय दूसरे ख़ास लोगों के, खुद उपस्थित थे.इस से सरकार का अपने आला अफसरों पर भरोसा तो बढ़ा ही, जनता का भी विश्वास कानून और न्याय व्यवस्था पर जम गया.

मेहरा साहब किस्सा ख़त्म कर के गदगद थे. बैरागीलाल जी तथा मिश्रा जी ठहरी पुतलियों को अब हिलाने वाली मुद्रा समेटने की तैयारी में थे, उन्हें एक बात का एक बार फिर विश्वास हो आया था कि उनका इय्मिनान कभी नहीं टूटता, जिनका व्यक्तित्व सिर्फ अपना नहीं होता..खुशकिस्मती से वह तीनों इसी किस्म के लोग थे.

***

जी हां, मैं ही उस सरकारी डाक बंगले का चौकीदार हूँ जिसमें उस रात डिस्ट्रिक्ट जा सहित तीन लोगों की हत्या हुई थी और यह भी, कि मैं ही उस रात वहां ड्यूटी पर तैनात था.

उस रात मेरे डाक बंगले पर डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर मेहरा, मिल मालिक बैरागी लाल और अखबारवाले कार्तिकेय मिश्र ठहरे हुए थे और दारु उतारने के बाद देर रात तक बतियाते रहे थे.उनके साथ मेरा एक पहचानी ईसुरदीन भी था जो नेतराम के नाम से इनका खिदमतगार बन कर आया था और वहीँ हॉल में सोया हुआ था. मैं साहब लोगों की अर्दली में उनके दरवाज़े पर कान लगाए इस लालच में उनका किस्सा सुन रहा था की जान पाऊं झरने झरने के पानी में क्या फरक होता है..? किस्सा जज साहब सुना रहे थे और ज्यों ज्यों किस्सा गहराता जा रहा था, मेरे जिस्म पर शीशे की तरह लिपटी कहानियां शीशा होती जा रही थीं और मेरी कहानियों के केंद्र का आदमी पारदर्शी सतह से साफ़ साफ़ झाँकने लगा था. मैंने देखा कि मेरी कहानियों के केंद्र में स्थापित इस डाक बंगले का पुराना चौकीदार भी जज साहब का किस्सा सुन कर उतना ही तनाव में मुट्ठियाँ भींचता नज़र आ रहा था, जितना मैं...

जैसे ही जज साहब का किस्सा ख़त्म हुआ, मेरे भीतर के कांच घर में कैद इस डाक बंगले के पुराने चौकीदार नें लपक कर मेरा कॉलर पकड़ लिया..और चीखने लगा कि या तो मैं उसे अपनी कहानियों के केंद्र से आज़ाद कर दूँ और उसके लिए पराया हो जाऊं, या मैं खुद ही मार डालूं उस शख्स को जो अपने किस्सों में दोहरा दोहरा कर उसकी मौत का सुख जी रहा है. मैं एक भरपूर सेकेण्ड भर अपनी कहानी के केंद्र से जुड़ा और उसकी सच्चाई ने मुझ पर अपने इन्साफ का वास्ता देते हुए अपने सत्व का भार लाद दिया.

फिर देर नहीं की मैंने और बेंतेहा तेज़ी से टिका दी बंदूक की नली डिस्ट्रिक्ट जा मस्टर मेहरा के सीने पर. मैं दहाड़ा, " इस बंगले के पुराने चौकीदार परमेस्वरी सहाय के कातिल, तेरा हिसाब साफ़.." और मैंने बंदूक से एक गोली कम कर दी.

इस अचानक हमले से मिश्र जी और बैरागी लाल दोनों भाग कर एक कमरे में दुबक गए.ईसुरदीन भी हड़बड़ा कर उठ बैठा था. परमेस्वरी सहाय, यानी इस डाक बंगले के पुराने चौकीदार, जिसके खिलाफ एक छोटी सी झूठी गवाही उसने भी दी थी, के नाम से न सिर्फ उसकी भी नींद उड़ गयी थी बल्कि वह भीतर से कंपकंपा भी गया था. मैं मेहरा को मार कर आराम से अपनी अपनी बंदूक लेकर आया और अपनी जगह बैठ गया. मिनट भर में मैंने देखा कि ईसुरदीन भी आकर खड़ा हो गया मेरे पास, एक सवाल के साथ..

" क्या बंदूक में और गोलियां नहीं रहीं..? "

मैं जवाब में अपनी बंदूक उसे थमा दी जिसे लेकर वह उधर झपटा जिधर मिश्र और बैरागी लाल छिपे हुए थे और मैंने दो और गोलियां छूटने की आवाज़ सुनी... और ईसुरदीन ने मेरी बंदूक मुझे वापस कर दी.

" ज़रूरी था यह भी क्योंकि इनकी सोहबत के बगैर कोई जज अकेला किसी चुन्नीलाल को नहीं मार सकता. "

मुझे ख़ुशी हुई कि ईसुरदीन ने एक जानदार बात कही है और उस से ज्यादा ख़ुशी इस बात की थी कि मैंने अपने जिस्म पर पहनी, कहानियों के पारदर्शी कांचघर में एक हलचल महसूस की और पाया कि ईसुरदीन मेरी कहानियों के केंद्र में वापस लौट कर परमेस्वरी सहाय से एकाकार हो गया है.

मैंने पल भर स्थिर होने के बाद ईसुरदीन से पूछा, कि अब क्या किया जाना चाहिए..? इस का जवाब मेरी कहानियों की ऊंचाई से, पारदर्शी सच्चाई भरा आया था.

बंदूक समेत कर भागना चाहिए..इसलिए नहीं कि हम बुजदिलों की तरह छिप कर खुद को बचाते फिरें, बल्कि इसलिए कि अपनी और अपनी बंदूक की हिफाज़त कर सकें, कम कर सकें एक एक कर के बंदूक की गोली, और अपने पास गोलियों का भण्डार जुटाते जा सकें... ताकि वह लोग वाकया दर वाकया खून उगलते जांय जो अपने किस्सों में दोहरा दोहरा कर दिवाकर पांडे, परमेस्वरी सहाय या चुन्नीलाल की मौत का सुख जी रहे हैं और फिर भी सफेदपोश बने बैठे हैं, कि उनका व्यक्तित्व सिर्फ उनका नहीं है.

मैं उस दिन से डाक बंगले से फरार हूँ. भरी बंदूक मेरे पास है, और मैं स्वीकार करता हूँ कि डिस्ट्रिक्ट जज मिस्टर मेहरा, उद्योगपति श्री बैरागीलाल और पत्रकार भाई कार्तिकेय मिश्र की हत्या मैंने की है. जी हाँ, तीनों की. क्यों कि जब ईसुरदीन यानी उस दिन का नेतराम मिश्र और बैरागी लाल को मार रहा था तब वह मेरी कहानियों के केंद्र में था.

उसके बाद कुछ और खून मैंने किये हैं, और अभी सिलसिला ख़त्म करने का मेरा कोई इरादा नहीं है.

भाई ऐसा है कि अगर सरकार, राजनीति, न्याय व्यवस्था, कानून, पुलिस व्यवस्था, यहाँ तक कि प्रेस बाज़ार, खेत और स्कूल तक, एक रस्सी से बंधे घोड़े भार हैं जिनकी लगाम एक अंधे ताकतवर दैत्य के हाथ में है, तो न्याय-अन्याय, सच-झूठ का फैसला करने जाया ही कहाँ जा सकता है..? तब एक ही चारा बचता है कि हाथ में हाथ थामें कातिल लोगों का घेरा, जो विश्वविद्यालय के कुलपति, सिविल सर्जन, से लेकर छोटे मोटे नेतराम जैसों से मिल कर बना है और दिवाकर पांडे, परमेस्वरी सहाय या चुन्नीलाल को कसता जा रहा है, उसे एक तेज़ धमाके से छितरा दिया जाय कुछ ऐसे, कि यह सारे के सारे भी आतंकित हो कर, डर कर, दहशत में खुद उतना ही बेबस पाएं जितना कि चुन्नीलाल या हम सब आप कभी भी कर सकते हैं, करते हैं.

जी खून करने में डर कैसा..? आदमी की जान तो वैसे भी पानी का बुलबुला समझिये, चाहे वह मेरी हो या सी एम्. की लेकिन आदमियत तो पानी का बुलबुला नहीं होती.. उसका वजूद आदमी के बाद भी होता है. न्याय पानी बा बुलबुला नहीं होता, लोकतंत्र पानी का बुलबुला नहीं होता, नैतिकता और राष्ट्रीयता पानी का बुलबुला नहीं होती, शिक्षा पानी का बुलबुला नहीं होती.. इसलिए जब न्याय, लोकतंत्र, शिक्षा, नैतिकता, राष्ट्रीयता, और आदमियत की रक्षा किसी और तरह संभव न हो, तब आदमी का खून बहाना ज़रूरी हो जाता है.

तो फिर क्या कहते हैं आप..? कहानी का एक केंद्र आप भी अपने भीतर बनाएँगे न .. क्योंकि.....

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