ऊप्स मूमेंट : स्त्री को देह बनाते कैमरे
मनीषा मिश्रा के साथ संजीव चन्दन
पुरुषों की सत्ता सिर्फ भौतिक प्रक्रिया नहीं है, यह स्त्रियों का अनुकूलन करती है समाज में पुरुष वर्चस्व के प्रति. यह हर पल उसकी दैहिक स्थिति का उसे अहसास देकर , कई बार स्वतंत्रता का भ्रम देकर उसे देह केन्द्रित करते हुए उसके दोयम हैसियत को सुनिश्चित करती रहती है. कुछ दिन पहले ही एक अपेक्षाकृत प्रगतिशील माने जाने वाले अखबार में एक खबर देखने को मिली , ‘करीना कपूर का ऊप्स मूमेंट’ . खबर के साथ तस्वीर थी , जिसमें करीना की ब्लाउज के स्ट्रेप्स पर एक पिन लगी थी , जिसे ऊप्स मूमेंट बताया गया था. इस नए शब्द से परिचय के बाद जब हमने देखा तो पता चला कि ऊप्स मूमेंट की तस्वीरें प्रायः हर प्रमुख वेबसाईट पर है , टाइम्स और इण्डिया , इन्डियन एक्सप्रेस , नवभारत टाइम्स आदि के. इन तस्वीरों को देखते हुए सहज ही समझा जा सकता है की कैमरे की लेंस , जो पुरुष है , पुरुष के द्वारा संचालित है , स्त्री को कैसे देह तक सीमित करने के अभियान से संचालित होती है. यह स्त्री के अनुकूलन की प्रक्रिया भी है. कैमरे ने काम करती अभिनेत्रियों , पार्टी में उपस्थित अभिनेत्रियों , रियलिटी शो की अभिनेत्रियों ,खेलती खिलाडियों के देह दृश्य को चुराकर प्रस्तुत किया है , इस धारणा के साथ कि उसका दर्शक/ पाठक पुरुष है.
किसी स्त्री / सेलिब्रेटी के ब्लाउज में दीखता साधारण पिन आखिर ऊप्स मूमेंट क्यों है , क्या यह निम्नवर्गीय स्त्रियों का अपमान नहीं है , जो एक दो कपड़ों को सालों पहनती हैं , पिन या पैबंद इ साथ
मेल गेज
1975 में अपने एक आलेख में Laura Mulvey ने मेल गेज को स्त्रीवादी दृष्टि से व्याख्यायित किया था. उन्होंने स्पष्ट किया था कि सिनेमा के कैमरों के पीछे चुकी पुरुष आंखे होती हैं इसलिए सिनेमा ‘दृश्य रति’ के साधन होते हैं. खुद स्त्री भी , जो सिनेमा में काम कर रही होती है , अपने भीतर मेल गेज आत्मसात कर लेती है, उसे यह आभास होता है कि उसे कोइ पुरुष आँख देख रहा होता है , इसलिए उसे उसके अनुरूप दिखाना चाहिए ,धीरे –धीरे अपने को देखने का तरीका भी उनके खुद के भीतर के मेल गेज से तय होता है. दृश्य रति के लिए सीन चुराते कैमरे का दर्शन यही है. स्त्रियों ऊप्स मूमेंट की इन तस्वीरों को देखते हुए समझा जा सकता है कि न सिर्फ कैमरा बल्कि समाज का पुरुष –दर्शन उन्हें उनकी देह तक केन्द्रित करने के अभियान में लगा है.इस प्रक्रम में कई बार वे स्वयं भी अपने भीतर के मेल गेज से संचालित होती हैं , यानी एक –दो मामले जान बूझ कर कैमरों को खुराक देने के भी सामने आये हैं.
सिर्फ कैमरा या दर्शक ही नहीं मेल गेज से संचालित होते हुए दृश्य रति का आनंद लेता है साथी कलाकार भी , हां आमीर खान जैसा सुपर स्टार भी , जो संवेदनशील माना जाता है , नायिका , कैटरीना यद्यपि इस चोरी से बेपरवाह हैं लेकिन मीडिया की ये तस्वीरे आगे से उन्हें सहज नहीं रहने देंगी .
जब हम अपने आस-पास यह देख रहे होते हैं कि स्त्रियाँ यौन हिंसा का शिकार हो रही हैं , उनपर शाब्दिक , मानसिक और शारीरिक प्रहार हो रहे हैं तो इसमें भूमिका के तौर पर न सिर्फ सामंती पुरुष की मानसिकता दिखती है , बल्कि आधुनिक उपकरणों से लैस आधुनिक पुरुष की मानसिकता भी दिखती है. बड़े –बड़े कुबोल सुनने को मिल रहे हैं , कोइ नेतृत्वकर्ता विरोधी राजनीतिक स्त्रियों पर बालात्कार की बात कर रहा है तो कोइ एक प्रदेश की लड़कियों को दूसरे प्रदेश के लड़कों को सौपने की बात कर रहा है, उस प्रदेश के लड़कों को जहां , लडकियां जन्म के साथ ही मार दी जाती हैं. कोइ बड़ा नेता भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए कंडोमो के बहाने स्त्रियों की यौनिकता पर हमला कर रहा है. दरअसल जब कभी आधुनिक यौन –व्यवहारों पर कोई टिप्पणी की जाती है ,तो स्त्रियों की यौनिकता को खतरनाक और नकारात्मक सिद्ध करने की प्रवृत्ति अन्तर्निहित होती है . जबकि पुरुषों की आक्रामक यौनिकता समाज के लिए ज्यादा खतरनाक है .
वातावरण बनाती मीडिया
आम तौर पर तो ऐसे बयानों के प्रति मीडिया का रुख स्त्रियों के पक्ष में होता है , लेकिन यही मीडिया बाजार के दर्शन से संचालित होते हुए अपने पाठकों , दर्शकों को पुरुष मानते हुए निरंतर ऐसे प्रसंगों का आयोजन करती रहती है, जिसमें स्त्री एक देह में तब्दिल होकर पुरुष यौनिकता को संतुष्ट करती रहती है. ऐसा ही एक आयोजन है , ऊप्स मूमेंट की तस्वीरें जारी करना. ऐसा करते हुए मीडिया भाषा के स्तर पर भी स्त्रीविरोध का वातावरण बनाती है. देह दृश्यों को चुराते हुए कैप्शन लिखना ‘ SHOWING ASSETS’ ऐसे ही अभियान का हिस्सा है , यह वही भाषा है , जो किसी पुरुष नेता को किसी महिला नेता के लिए ‘ टंच माल’ कहने का प्रशिक्षण देती है.
उल्लेखनीय तो यह भी है कि यही ऊप्स मूमेंट पुरुषों के मामले में अपना अर्थ बदल लेते हैं . पुरुष के मामले में ऊप्स मूमेंट है उनका ‘ स्लिप ऑफ टंग’ , उनका गिर पड़ना या किसी साथी महिला को घूरते हुए कैमरे में कैद होना. इस आलेख की व्याख्याओं के लिए अखबारों के वेब साईट पर पाए जाने वाले प्रायः कम अश्लील तस्वीरों को शामिल किया गया है . तस्वीरों के साथ कैप्शन हमारे हैं , इस व्याख्या के अनुरूप.
सवाल है कि यह सांस्कृतिक आक्रमण क्या सिर्फ सम्बंधित महिला पर ही होता है ! नहीं मेल गेज को संतुष्ट करता हुआ यह प्रक्रम सभी दर्शक महिलाओं का अनुकूलन करती है और उन्हें अपनी देह के प्रति हीनता भाव से भर देती है या अतिरिक्त सजग कर देती है. करीना कपूर की ब्लाउज में साधारण पिन का लगा होना , और उसका कैमरे में कैद हो जाना न सिर्फ सामान्य महिलाओं के सौन्दर्य बोध पर प्रहार करता है , बल्कि उनकी हैसियत के प्रति उन्हें आगाह भी कर देता है. इसके साथ ही ऐसे दृश्य महिलाओं को उनके सोशल स्टेट्स से अलग करते हुए उन्हें एक स्त्री होने और एक देह होने के अहसास से भर देते हैं. यह उस मीडिया और उसके कैमरे द्वारा किया जाता है , जो नेताओं के कुबोलों पर तो खूब सक्रिय होती है , लेकिन अपने यहाँ ऐसे ही स्त्रीविरोधी माहौल को पोषित करते हुए स्त्रीकर्मी को आत्मह्त्या करने तक को बाध्य करती है ( तनु शर्मा प्रकरण). मेरे खुद के अनुभव में यह शामिल है कि महाराष्ट्र में एक बड़े अखबार के सम्पादक के पास जब मैं बैठा था , वहा महिला खिलाड़ियों की कुछ तस्वीरें आईं , वे सारी तस्वीरें खेल कम और देह दर्शन की तस्वीरें ज्यादा थीं. यह सब इस कारण से है कि यह समाज , यह बाजार पुरुष दृष्टि और उसके दर्शन से संचालित है, जहां किसी शक्तिशाली दिखती स्त्री की आत्महत्या का प्रयास कोइ चौकाने वाली बात नहीं होती.