खट्टे मीठे व्यंग
(1)
व्यंग संकलन
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
अनूठा एन जी ओ
अठारह का अडंगा
न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
सरकारी बादल
5. धंधा डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का
अनूठा एन जी ओ
नाम के पीछे आई ए एस के गरिमामय दुमछल्ले को जोड़ने वाले मेरे छोटे भाई की कार मेरे घर के सामने उन्होंने कई बार खड़ी देखी तो अपने कौतूहल को वे रोक नहीं पाए. भाई को अपने रुतबे से जलने वालों की ऐसी हाय लगी थी कि कार की छत से नीली बत्ती को बेमन से हटाना पड़ गया था. पर उस टीस को कार के पीछे लाल अक्षरों में लिखे ‘भारत सरकार‘ ने किसी हद तक कम कर दिया था. उसी को देखकर इन सज्जन ने मुझसे “सांवरे से सखी, रावरे को हैं?’ वाले अंदाज़ में उस सरकारी कार के मालिक से मेरे सम्बन्ध के बारे में पूछ डाला. उन्हें मैंने नोइडा की इस धनाढ्य कॉलोनी में देखा तो था पर उनसे मेरा परिचय नहीं था. होता भी कैसे? कॉलोनी में वरिष्ठ आई ए एस अफसरों, धुरंधर पत्रकारों, राजनीति के पहुंचे हुए खिलाड़ियों के बड़े प्लोटों के अलावा दो कमरों के कुछ फ़्लैट विश्विद्यालय के प्रोफेसरों के लिए भी एलॉट हुए थे. पुरखों के आशीर्वाद और छोटे भाई के प्रताप से इन भाग्यशालियों की सूची में मेरा नाम तो आ गया था लेकिन तीसरी दुनिया में रहने वाले हम अध्यापकों का पहली दुनिया वालों से सरोकार कम ही रहता था. पर मेरे घर के सामने खड़ी कार पर लाल अक्षरों में ‘भारत सरकार’ लिखा देखकर और कड़क सफ़ेद वर्दी में आसीन सारथी को देखकर फर्राटे से जाती हुई उनकी विदेशी कार को वैसे ही ब्रेक लगा जैसे रूपसी मत्स्यगंधा कन्याओं को देखकर महाभारत काल के ऋषियों के कदम और राजगुरुओं के रथ रुक जाते थे. पर उनकी गाडी रुकी नहीं, केवल धीमी हुई. मेरे नामपट्ट को उनकी निगाहों ने तौला, टटोला,फिर उनकी कार आगे बढ़ गयी.
पर अगले ही दिन उनकी चमचमाती मर्सीडीज़ एस यू वी कार मेरे घर के सामने रुकी. ड्राईवर ने आकर उनका कार्ड दिया और कहा उसके साहेब मुझसे मिलना चाहते थे. सत्र के आरम्भ में कोलेज एडमिशन के दिनों में होने वाली आवभगत का अनुभव इस मौसम में विचित्र सा लगा. बहरहाल मैंने उसे अपना फोन नंबर दे दिया. शाम को ही वे मेरे यहाँ टपक पड़े. तबतक वे मेरे बारे में बहुत कुछ पता कर चुके थे. आये तो बात मेरे लेखों से शुरू की जो उन्होंने कई पत्र पत्रिकाओं में पढ़े थे. मुझे ताज्जुब हुआ. मैंने कहा आप जैसे किसी अन्य व्यक्ति को मैं नहीं जानता जो मर्सिडीज़ में चलता हो और हिन्दी पत्र पत्रिकाओं के नाम से परिचित हो. वे भावुक हो गए. बोले ‘मैं तो समाज सेवा का व्रत लिए हुए हूँ. काश आप जैसे शिक्षकों, लेखकों की तरह कुछ कर पाता. पर सरस्वती की मुझ पर इतनी कृपा कहाँ? वह नहीं हो सका तो अपने एन जी ओज के माध्यम से सेवाकार्य में लगा हुआ हूँ. मेरी कार पर ध्यान न दें. इन मर्सिडीज़, बी एम् डब्ल्यू और ओडी कारों को तो मजबूरी में रखना पड़ता है. इन कारों की बदौलत विदेशों से आर्थिक सहायता आती है. आर्थिक सहायता से ये कारें आती हैं. दोनों एक दूसरे के सहायक भी हैं और पूरक भी.
मैंने पूछा ‘आप का एन जी ओ किन दीन दुखियों की सेवा में लगा हुआ है? आजकल तो बलात्कार की घृणित समस्या, बाल श्रमिकों के शोषण आदि को लेकर अनेकों गैर सरकारी संस्थाएं संघर्षरत हैं.’ वे बोले ‘आपने ठीक कहा. असल में ऐसी समस्याओं से लड़ने के लिए ज़रुरत से ज़्यादा ही संस्थाएं हैं. इंसान की व्यथा तो सबको सताती है. हमें भी. पर उनका दुःख कौन देखता है जिनके पास बयान करने के लिए ज़बान नहीं है.’ मैंने कहा ‘अच्छा तो आप वाणी-अक्षम विकलांगों के लिए काम कर रहे हैं?’ वे बोले “आप गलत समझ गए. इंसान की सेवा के लिए तो इतनी संस्थाएं हैं कि उनको आर्थिक सहायता और अनुदान दे देकर पाश्चात्य देशों के धनकुबेर थक गए हैं. पर पशु पक्षियों के क्षेत्र में अभी बहुत काम होना बाकी है. उनके नाम से जितना अनुदान मिल सकता है उसका दस प्रतिशत भी अभी उगाहा नहीं गया है.
‘मेनका गांधी ने मदारियों के चंगुल से बंदरों और भालुओं को छुडाया. बीन के आगे नाचने को मजबूर सांपों को संपेरों की गुलामी से मुक्त कराया. पारंपरिक कमाई के स्रोत सूख जाने के बाद मदारी और संपेरे जैसी जनजातियों के लोगों के पुनरस्थापन के लिए कई सारे एन जी ओज बन गए और इतने बने कि प्रति मदारी एक एन जी ओ का औसत आ रहा है.
‘इन लोगों के चंगुल से छूटे हुए बंदरों, भालुओं, सांपों आदि को जंगलों में छोड़ दिया गया. लेकिन इंसान के साथ परिवार के सदस्यों की तरह पलने वाले ये जानवर जंगलों में पेड़ों के फल,फूल,कन्द-मूल और शिकार से अपना पेट भरने के लायक नहीं रह गए थे. वापस लाकर उन्हें अपनी जाति के अन्य जानवरों के साथ चिड़ियाघर में रखने का उपक्रम भी सफल नहीं रहा क्यूंकि उन्हें भी साहित्यकारों की तरह अपनी जाति के अन्य पशुओं का संग साथ नहीं सुहाता था. तब हमने एक नया एन जी ओ स्थापित किया. इसका उद्देश्य है मदारियों, संपेरों आदि से छुड़ाये गए जानवरों को डिप्रेशन जैसे मानसिक रोगों से ग्रस्त होने से बचाना और इलाज कराना. इस संस्था के पशुओं के मानसिक चिकित्सकों के लिए अब एक नयी चुनौती सामने आयी है जिसने हमें एक और नए किस्म का एन जी ओ बनाने का अवसर दिया है.
‘पिछले दिनों मौसम ने अजीब कलाबाजियां दिखाई हैं. पर्यावरण मंत्रीपद से भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिए गए नेता की तरह बावला हो रहा है. गर्मियों में भीषण गर्मी, सर्दियों में बेहिसाब ठंढ और बरसात के मौसम में कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि. फागुन के महीने में सावन भादों जैसे गरजते बरसते बादल खड़ी फसलों को तबाह कर रहे हैं. हर दूसरे दिन होने वाली बरसात लगता है हमारे ऋतुचक्र को बदल डालेगी. एकाध दिन होता तो चल जाता. पर रोज़ रोज़ होने वाली बेमौसम बरसात ने पशु पक्षियों को भी कंफ्यूज कर के रख दिया है. जिन मेढकों को गहरी नींद में मगन होना चाहिए था वे यहाँ वहाँ फुदकते हुए जोर जोर से टर्रा रहे हैं. पपीहा फरवरी के महीने में पी कहाँ पी कहाँ की रट लगाए हुए है. कोयल समय से तीन चार महीने पहले ही जल्दबाजी में गर्भवती होकर अपने अंडे देने के लिए कौवों के घोंसले तलाश रही है. कौवे हैं कि बेमौसम भारी बरसात के कारण राजभवनों से बेदखल राज्यपालों की तरह बिना घोंसलों के घूम रहे हैं. ऋतुचक्र के इस अचानक परिवर्तन से मेंढकों, कोयलों, कौवों आदि को शारीरिक कष्ट के अतिरिक्त घोर मानसिक संताप भी पहुंचा है.
‘अब अपने देश में तो इंसानों की समस्याओं से जूझते एन जी ओज के पास विदेशी, विशेषकर धनाढ्य अमरीकन धनकुबेरों से आर्थिक सहायता और अनुदान लेने के लिए कोई नयी स्कीम बची नहीं है. और ये विदेशी हैं कि बासीपन को झेल नहीं सकते. उन्हें तो जीवन में हर रोज़ कुछ नया चाहिए. हमने जब इन मानसिक रोगों से ग्रस्त चील-कौवे, मेंढक-गिरगिट आदि के मनोविकारों के अध्ययन और उपचार के लिए नयी संस्था बनाई तो इन अरबपतियों के धनी होने के अपराधबोध ग्रस्त दिलों को अद्भुत सकून मिला. हमारी संस्था को चंदे देने के लिए वे कतार लगा कर खड़े हो गए.
‘पर एन जी ओ बनाना कोई हंसी ठठ्ठा नहीं है. उसके लिए बहुत दौड़ धूप करनी होती है. अकबर इलाहाबादी कह गए हैं न ‘दर्दे सर के वास्ते कहते हैं संदल है मुफीद, उसका घिसना और लगाना दर्दे सर ये भी तो है.’ एक एन जी ओ बनाना हो तो दर्जनों सरकारी विभागों से ताल मेल बैठाना पड़ता है. सरकार से बाहर वालों को भला कौन सरकार छुट्टे सांड की तरह यहाँ वहाँ मुंह मारने के लिए बेलगाम छोड़ सकती है. अब आजकल सरकार को सनक चढ़ गयी है कि कहीं हवाला के माध्यम से विदेश पहुंचकर, अपने श्याम रंग के ऊपर शुभ्रश्वेत रंग की चादर ओढ़कर देश की ही आर्थिक संपदा फिर से ‘घर वापसी’ तो नहीं कर रही है. हम इन पावन कामों में लगे हुए सरकारी अफसरों की और कुछ तो मदद कर नहीं सकते. इस्तेमाल के लिए उन्हें तो सरकार कार मुहय्या करा देती है. पर उन बेचारे अफसरों की पत्नियों, बच्चों के लिए किटी पार्टी, सिनेमा ,शोपिंग वगैरह के लिए देश में वाहनों की सख्त कमी है. इस कमी को हमारा एन जी ओ बढ़िया विदेशी कारें मुहय्या करके दूर करने का भरसक प्रयास करता है.
‘विदेशों से आर्थिक सहायता भेजने वाली संस्थाओं के प्रतिनिधि कभी कभी ये देखने आ जाते हैं कि उनकी सहायता का क्या उपयोग हो रहा है. तब हमारी बढ़िया लक्ज़री गाड़ियां उन्हें जयपुर, आगरा आदि घुमाने ले जाती हैं. फिर सूरजकुंड मेले, केन्द्रीय कुटीर उद्योग एम्पोरियम और दिल्ली हाट आदि जगहों में ले जाकर वहाँ से फुलकारी, पटवा जैसे हस्तशिल्प से सजे वस्त्र और मधुबनी पेंटिंग्स जैसी पारंपरिक लोक कलाओं के स्मृतिचिन्ह खरीदवा देने से उन्हें लगता है कि उनकी भेजी हुई सहायता व्यर्थ नहीं जा रही है. वापस जाकर वे सहायता की राशि और बढ़ा देते हैं. बढ़ी हुई आर्थिक सहायता पुरानी कारें बदल कर नयी कारें खरीदने के काम आती है.’
आर्थिक अनुदानों और लक्ज़री कार में सैर सपाटे के इस चक्र में ‘अंडा पहले हुआ कि मुर्गी’ जैसे मेरे गूढ़ अस्तित्ववादी प्रश्न पर उन्होंने जवाबी सवाल उठाया ‘आम खाना आवश्यक है या पेड़ गिनना?’फिर उन्होंने बताया कि अपनी संस्थाओं के लिए उन्हें राजधानी की चिकनी चुपड़ी सड़कों से लेकर देहात की गड्ढेदार सड़कों, जंगलों बियाबानों तक में जो दौड़ धूप करनी पड़ती है उसे केवल ओडी, बी एम् डब्ल्यू और मर्सीडीज़ की एस यू वी गाड़ियाँ ही झेल सकती हैं. साल दो साल में नयी गाडी के बीस पच्चीस प्रतिशत मूल्य पर उन्हें बेचकर उनकी संस्थाएं उन पुरानी गाड़ियों से मुक्ति पा लेती हैं. देश सेवा में लगे हुए सरकारी अफसरों के नाते रिश्तेदारों को भी विदेशी लक्ज़री गाड़ियां खरीदने का मौक़ा मिल जाता है.’
मैंने पूछा ‘आपको पशु पक्षियों के मानसिक स्वास्थ्य की इतनी चिंता है. आपने नौकरियों के अभाव में पागल हो रहे शिक्षित नौजवानों के लिए क्या किया?’
वे बोले ‘सही कहते हैं आप. पर हमारा विचार है कि मछलीखोर को बजाय मछली देने के उसे पकड़ने के लिए बंसी देनी चाहिए. इस पावन उद्देश्य से हमारी एक संस्था केवल इस खोज को समर्पित है कि किन किन क्षेत्रों में इंसान से लेकर पशु पक्षियों तक की सेवा करने के लिए और नए एन जी ओज खोले जा सकते हैं. इस खोजी संस्था की आमदनी का मुख्य स्रोत है उसकी प्रोजेक्ट रिपोर्टें जो बताती हैं कि नया एन जी ओ कैसे बनाएं, उसके लिए आर्थिक अनुदान ‘कहाँ से’ और ‘कैसे’ प्राप्त करें. कुछ हज़ार रुपयों के मूल्य वाली इन प्रोजेक्ट रिपोर्टों में ‘कहाँ से‘ का ब्यौरा दिया रहता है. पर ‘कैसे‘ वाले भाग के लिए हमारा एन जी ओ एक कार्यशाला आयोजित करता है. हर बात लिखकर थोड़ी बतायी जा सकती है. हज़ारों साल से हमारे देश में लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त श्रुति और स्मृति को ज्ञान का महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है. हमारी ये संस्था भी व्यावहारिक ज्ञान को इन्ही तरीकों से बांटती है.’
बातों बातों में काफी समय निकल गया था पर उन्होंने अभी तक ये रहस्य नहीं खोला था कि वे मेरे पास आये क्यूँ थे. थक कर मुझे ही पूछना पडा. उन्होंने खुलेपन से उत्तर दिया ‘आपसे विदेशी कारों की चर्चा बहुत हुई. पर मेरी असली कमजोरी है ऐसी कार जिस पर ‘भारत सरकार’ या ‘---प्रदेश सरकार’ लिखा हो. इस कॉलोनी में हर ऐसी कार वाले से मेरा परिचय है. आपके घर के सामने ऐसी कार खड़ी देखकर स्वयं को धिक्कारना पड़ा कि मैं आपको नहीं जानता हूँ. अतः मिलने आ गया. गर्मियों में आपके भाई साहेब के या आपके परिवार को किसी हिलस्टेशन जाने के लिए ऑडी या बी एम् डब्ल्यू एस यू वी की ज़रुरत पड़े तो याद करिएगा.’
अठारह का अड़ंगा
मुझ जैसे आम आदमी से उनका केवल बात कर लेना मेरा सौभाग्य हो या ना हो, मेरा सुरक्षा चक्र अवश्य है . उनके बेटे को पढ़ाने की नाकाम कोशिश करने के लिए उनके घर जाता हूँ तो कभी कभार “ कहो मास्टर कैसे हो ?” पूछ लेते हैं . इतने भर से ही दूसरों को लगता है कि मैं उनका कृपापात्र हूँ . उन सबकी गलत फहमी बनी रहे इसी में मेरा भला है क्यूंकि वे बाहुबली हैं.
बार बार चुनावों में सफलता पाकर अपने क्षेत्र की सारी जनता को वे अपनी प्रजा समझते हैं. उनके क्षेत्र में रहना है तो अपने होने को न होने जैसा रखकर ही जीने में समझदारी है वरना कुछ अनहोनी हो जाने का पूरा खतरा बना रहता है. अन्य लोगों की तरह मैं भी उनके काफिले के सड़क पर गुज़रने के समय किनारे रूक जाता हूँ. उनकी एस यू वी के आगे-पीछे कम से कम दो और गाड़ियां दौड़ती हैं. बीचवाली गाडी की छत पर लाल बत्ती चमकती रहती है. आगे पीछे की गाड़ियों में बैठे सुरक्षा गार्डों की बंदूकें यूँ तनी रहती हैं जैसे अभी आग उगलने लगेंगी. पार्टी का झंडा लहराती बीचवाली गाडी में वे स्वयम कम ही दीखते हैं , उनका अधिकाँश समय तो राजधानी में बीतता है. उनकी गाड़ियां सड़क की भीड़ को साइरन की ज़ोरदार पी-पों ,पी-पों से इधर उधर हांक करके जब सर्राटे से निकलती हैं तो सब जानते हैं कि लाल बत्ती वाली गाडी में वे नहीं बल्कि उनका प्यारा बेटा है जिसकी अभी मसें फूटी भर हैं .इस इलाके में वे या उनकी आँखों का तारा जो चाहे वही क़ानून है.
मैं अकेले उनसे नहीं उनकी पूरी रावणसेना से आतंकित हूँ .जितना उनसे घबराता हूँ , उतना ही उनके बेटे से भी, जिसे घर पर आकर ट्यूशन देने का उनका हुक्म मैंने सर झुका कर स्वीकार किया था. उन्होंने हंस कर कहा था ‘ तुम बस थोडा देख लेना मास्टर. उसे कौन मास्टरी करनी है. जितना आराम से पढलिख ले काफी है. शेर के बच्चे को दहाड़ना आना चाहिए बाकी सब चलता है .और हाँ, परीक्षा तो वो पास करेगा ही चाहे पढ़े चाहे न पढ़े.’ फिर मैं पढ़ाने की कोशिश करता रहा और वह होनहार बिरवा अपने पात और चीकने करता रहा . सोलह साल का होते होते अपने कई सहपाठियों को हॉकी स्टिक से पीट कर घायल कर चुका था. एकाध पर तमंचा चला चुका था .शराब से शुरू करके , नशीली गोलियों की दरम्याना मंजिलों से जब वह गुज़र रहा था तो इसका संकेत दबी जुबांन से मैंने उसके बाहुबली पिता को देने की कोशिश की थी. पर एक ठहाके के साथ उत्तर मिला था “ अरे . मास्टर . वो अभी बच्चा है , समय आने पर सब अपने आप समझ जाएगा .शेर का बच्चा बकरी तो नहीं बन सकता है!” तो मैं घबरा कर खुद चुप लगा गया था .
दसवीं की परीक्षा में उसकी प्रथम श्रेणी का प्रबंध वे स्वयं कर लेंगे ये वे मुझे बता चुके थे .इसीलिये उस दिन जब उन्होंने मुझे बुलवा भेजा कि कोइ ज़रूरी काम है तो आश्चर्य हुआ.सामने आने पर उन्हें पहली बार थोडा चिंतित देखा. मुझसे वे बोले “ मास्टर , अपने लल्ला अगले महीने अठारह साल के हो जायेंगे “ मैंने उन्हें बधाई दी. सोचा शायद अठारहवीं वर्षगाँठ पर कोई भव्य आयोजन करना चाहते हैं .पर उन्होंने कहा “अरे नहीं मास्टर, बात कुछ और है .अभी तक तो बच्चा था , मैं निश्चिन्त रहता था कि कभी क़ानून की गिरफ्त में आ भी गया तो अवयस्क होने के नाते इसका कुछ बिगड़ेगा नहीं .पर अब जवानी में जो गलतियां हो सकती हैं उसके खिलाफ क़ानून कुछ जियादा ही सख्त हो गए हैं . अठारह बरस से कम होने की जो सुरक्षा बनी हुई थी जल्द ही जाती रहेगी. तो मास्टर, तुम्हारे जिम्मे ये काम ये है कि ज़रा स्कूल के रिकार्ड निकलवा कर इनकी जन्मतिथि बदलवा दो .बेचारे बच्चे को दो तीन साल और थोड़ी मौज मस्ती के लिए मिल जायेंगे . वरना तो अब वक्त बहुत खराब आ गया है . देखो न कैसे कैसे साधू पुरुषों को भी मीडियावाले चक्कर में फंसा देते हैं.” मैं अवाक था. अठारह से कम होने का कानूनी कवच पहनकर ये किशोर राक्षस अब भस्मासुर की तरह जाने किस क़ानून की धज्जियाँ उडाएगा और सब बेबस देखते रहेंगे. अठारह का अड़ंगा इतना सक्षम होगा ये कभी सोचा न था .
न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
पता नहीं मेरे मित्र गुप्ताजी कहाँ से इतनी दूर की कौड़ी लाते हैं . आज चर्चा होने लगी भारतीय थल सेना में पर्वतीय युद्ध के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित चौथी आक्रामक ‘कोर’ की स्थापना वाली योजना की . अगले सात सालों में चौसठ हज़ार करोड़ रुपयों के खर्चे से बनी इस ‘कोर’ को चीन के साथ लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर नियुक्त होना था. पर चीन के साथ सम्बन्ध और न बिगड़ जाएँ इस आशंका से बाद में सफाई दी गयी कि यह अन्यत्र नियुक्त होगी और इसका मुख्यालय बंगाल में पानागढ़ में होगा.
गुप्ताजी ने सदा की तरह इस खबर के पीछे की असलियत भी ढूंढ निकाली .बताया कि इस नयी कोर के सैनिकों को हाथ पीठ पर पीछे बाँधकर युद्ध में जाने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा .बोले “लद्दाख में चीनियों का सामना करने के लिए गठन होता तो मुख्यालय पश्चिम बंगाल में क्यूँ रखते ? असल में पश्चिम बंगाल की पुलिस ,पीछे पीठ पर हाथ बांधकर क़ानून और व्यवस्था संभालती है चाहे मार्क्सवादी सरकार रहे चाहे तृणमूली .अतः बंगाल पुलिस के अधिकारी ही इस कोर का प्रशिक्षण करेंगे .फिर इसे कश्मीर में इस नए ढंग की अहिंसात्मक लड़ाई के लिये भेजा जाएगा. मैंने कहा “पर वहाँ के आतंकवादी ऐसी सेना देखकर किम्कर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे .कहीं वे इस सेना से भिड़े ही नहीं तो सारी ट्रेनिंग व्यर्थ जायेगी”. वे बोले “ तभी तो इनकी कश्मीर में नियुक्ति से पहले सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट) हटाया जा चुकेगा ,ताकि आतंकवादियों को ऐसे बलि के बकरों को देखने की आदत पड चुकी हो.” मैंने कहा “इससे कश्मीर से निर्वासित लाखों कश्मीरी पंडितों को बहुत दुःख होगा” वे बोले “ तुमने कभी एक बलि के बकरे को अन्य बलि के बकरों के लिये मिमियाते सुना है ?” मैंने कहा “ पर ऐसा करने से तो कश्मीर भारत से टूटकर अलग हो जाएगा.” वे बोले “कश्मीर समस्या को सुलझाने का इससे अच्छा तरीका क्या होगा? न रहेगा बांस ,न बजेगी बांसुरी !”
“पर कश्मीर समस्या सुलझाने के बाद इन सैनिकों का क्या करेंगे? क्या इस कोर का विघटन कर दिया जाएगा ?” मैंने चिंतित होकर पूछा .गुप्ता जी मुस्करा कर बोले “ कैसी बातें करते हो .ऐसा हुआ तो सरकार के पीछे सी ऐ जी नहीं पड जाएगा .माना कि विनोद राय गए .अगला सी ऐ जी, जो रक्षा मंत्रालय का सचिव रह चुका है, चौसठ हज़ार करोड़ रूपये के खर्च से बनी इस कोर को विघटित ( डिसबैंड )थोड़े ही होने देगा .”
मैंने पूछा “फिर कहाँ भेजेंगे इन हाथबंधुआ हथियारविहीन सैनिकों को .” गुप्ता जी मुस्कराते हुए बोले “ अरसे से नक्सलवादी और उनके हितचिन्तक मानवाधिकारी ऐसे ही सैनिकों को नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में भेजने की मांग कर रहे हैं .सिर्फ उनसे ही नहीं ,चीन ,पाकिस्तान आदि जिन जिन विदेशी ताकतों से उन्हें ऐ के ५६ से लेकर भयंकर बारूदी सुरंगें ,हेलीकाप्टर मार गिराने में सक्षम रॉकेट और रॉकेटलौन्चर आदि मिलते हैं उन सब देशों से भी भारत के संबंधों में अभूतपूर्व सुधार हो जाएगा “
मैंने कहा “ भारत के इतने बड़े भूभाग में माओवादियों की तूती पहले से ही बोल रही है .आपका कयास सच निकला तो भारत का इतना बड़ा हिस्सा टूट कर अलग हो जाएगा”
गुप्ता जी गदगद होकर बोले “ अब जाकर समझे कि यहाँ भी वही फार्मूला फिट बैठेगा- न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी .यह भूभाग भी भारत से अलग कर दो फिर बाकियों के लिए तो अमन चैन ही बचेगा न ?.”
मैंने पूछा “ गुरुदेव ! सारी समस्याएं इसी तरह सुलझाने के बाद इतनी बड़ी ‘हाथबंधुआ’ सेना को बैठाकर खिलाने का आर्थिक बोझ सरकार कैसे उठायेगी? यदि उन्हें वापस घर भेजा गया तो पेंशन का बोझ भी कम नहीं होगा.”
गुप्ता जी बोले “तुम भी पूरे चपरकनाती हो .अरे फौजियों के पेंशन के मामले निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सब जगह हारते और अपील करते हुए सरकार बीसों साल तो चुटकियों में निकाल देती है .फिर पूरी पेंशन तो जीवित फौजी को मिलती है .विधवा को तो आधी ही देनी पड़ेगी .”
मैं चकित था .पूछा “इतने सारे सैनिक मर जायेंगे? केवल विधवाएं ही बचेंगी? वो कैसे ?”
गुप्ता जी बोले .” अरे कश्मीर और नक्सल समस्या सुलझाने के बाद उन्हें स्कूलों में मध्यान्ह भोजन चखने की ड्यूटी पर लगा दिया जाएगा. एक बार फिर, न रहेगा बांस ,न बजेगी बांसुरी !”
सरकारी बादल
सावन के अंधे को हर तरफ हरा दीखता है. मुझे इस वर्ष सावन के बादलों में सरकारी मायाजाल दीख रहा है. बादलों के झुण्ड के झुण्ड आते हैं जैसे सरकारी दफ्तरों के बाबू हों. पहला घंटा जैसे वे आपस में गप्पें मारकर बिताते हैं वैसे ही ये बादल भी उमड़ते घुमड़ते हैं फिर इंद्रदेवता के हाजिरी रजिस्टर में अपना नाम लिखाकर आसमान की कुर्सी पर अपने काले भूरे कोट टांगकर, पता नहीं कहाँ गायब हो जाते हैं. कुछ घंटों के बाद फिर आकाशीय दफ्तर में दलालों की तरह आनेवाले पवन के झोंकों के साथ लौटकर, नीचे धरती पर कृपाकांक्षी आम आदमियों पर उड़ती हुई नज़र डालकर कहते हैं ‘ आज बड़े साहेब ने बुला लिया था अतः तुम्हारा काम नहीं हो सका, कल आना कोशिश करेंगे कि तुम्हारा काम हो जाए.’
जल के लिए तड़पते खेतों को छोड़ लाचार किसान शहर आता है. दिन भर रिक्शा ठेला खींचने के श्रम से क्लांत होकर वह रात में फुटपाथ पर शरण लेता है. लेकिन आकाशीय सत्ता के नशे में चूर बादलों को यह विद्रोह सा लगता है. उन्हें वे पुराने दिन याद आते हैं जब कृपाकांक्षी किसान हवन पूजन कर के उन्हें मनाते थे. किन्ही आदिवासी अंचलों में इंद्र नाम के बड़े साहेब को रिझाने के लिए नारियों द्वारा खेत में निर्वस्त्र हल चलाने का उपक्रम होता तो कहीं निरीह गांववालों से तान्त्रिक और ओझा मेढक मेढकी का ब्याह रचा कर भोज करवाते. अब ऐसे भेंट चढ़ावे लुप्त होने से बादलों को लगता है जैसे उनके हक़ की ऊपर की आमदनी देने से इनकार किया जा रहा हो. विस्थापित किसानों द्वारा गाँव की कुटिया त्यागकर फूटपाथ पर शरण लेने से सरकारी अफसरों सरीखे इन बादलों को गुस्सा आता है. फिर व्यवस्था को चुनौती देनेवाले प्रदर्शनकारियों पर पुलिस के लाठी चार्ज और होजपाइपों द्वारा जलवृष्टि करने के अंदाज़ में ये बादल रात में गरज तरज कर उनपर टूट पड़ते हैं और फूटपाथ पर रात बिताना भी असंभव कर देते हैं. सूरज के उगने तक ये बादल गायब हो जाते हैं जैसे लाठीचार्ज का मीडिया के कैमरों में कैद होने का ख़तरा हो.
निचली सतह के बादल तृतीय-चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों की याद दिलाते है तो ऊंचाइयों वाले बादल टाईमपास वाली मुद्रा में पसरे रहते हैं जैसे उच्च पदासीन अधिकारी बिना कोई निर्णय लिए शान्ति से अपना कार्यकाल पूरा करके रिटायर होने को प्रतीक्षारत हों. उलाहना देने पर पिछले साल केदारनाथ की आकाशफोड़वृष्टि की याद दिलाते हुए कहते हैं ‘ याद है केदारनाथ के जिलाधीश बादल जी की? अपने कार्यकाल में जो जोश उन्होंने दिखाया उसकी अभी भी सी बी आई इन्क्वायरी चल रही है. हमें तो चैन से रिटायर हो लेने दो. बरसने वरसने का निर्णय हमारे बाद जो आयेगा लेगा.’ फिर हर स्तर के सरकारी बाबुओं की अकर्मण्यता की याद दिलाते ये बादल भी बिना कुछ किये सर के ऊपर से गुज़र जाते हैं.
धंधा डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का
पुलिसे की क्राइम ब्रांच के शीर्षस्थ अन्वेषकों में उनकी गिनती होती थी. इतनी ख्याति के बावजूद उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपनी खुद की कंपनी खोल ली. शुरू में उन्हों विवाह प्रस्तावों की सचाई को लेकर परेशान अभिभावकों की मदद की. किसी को जांच करके बताया कि खुद को समृद्ध एन आर आई बताने वाला युवक केलिफोर्निया में संतरे के बागानों में फल तोड़ने का कम करता है तो किसी को चौंका दिया यह बताकर कि बेटी के लिए इतना अच्छा लगने वाला लड़का पक्का घाघ मर्द है. अलग अलग शहरों में कई बार शादियाँ कर चुका है, भिन्न भिन्न लड़कियों को बेवकूफ बनाकर.
उनकी कंपनी ने फिर और ऊँची छलांगें लगाईं. कंपनी में काम करने वाले चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्वेषकों ने कोर्पोरेट जगत की प्रतिद्वंदी कंपनियों और राजनेताओं के बीच हुए गुपचुप सौदों का पर्दाफ़ाश कर के अपनी क्लाएंट कंपनियों का बहुत भला किया. फिर तो धूम मच गयी उनकी कंपनी की. केस पर केस मिलते चले गए. पर बढ़ते हुआ काम के लिए कुशल कर्मचारियों की अनुपलब्धता उनके लिए परेशानी का सबब बन गयी थी. उन्हें एक नहीं अनेक नए कर्मचारी चाहिए थे जो उनके लिए अन्वेषक का काम करें. उन्हें सबसे ज़्यादा पसंद आते थे ऐसे सैनिटरी इन्पेक्टर जो सडांध को दूर से ही सूंघ कर न केवल उन तक पहुँच जाने में ही सक्षम हों बल्कि कच्छे पहन कर नालियों के अन्दर पैठ जाने में भी माहिर हों. मेहनताना उनके यहाँ सडांध मापने वाले यंत्र से जांच कर दिया जाता था. जितनी दुर्गन्ध, उतना पैसा! इस अद्भुत विभाग का नाम उन्होंने रखा था- ‘डीटीडी अर्थात डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट.’ इस विभाग को राजनीतिक दलों ने खूब सराहा.
मैंने पूछा जो राजनीतिक दल आदर्शों के सहारे चलना चाहें, साफ़ सुथरी राजनीति करना चाहें उनके लिए आपका यह डी टी डी किस काम का? वे मेरी नादानी पर ठठाकर हँसे. बोले ‘ अरे किस राजनीतिक दल को विरोधी दल की आलमारी में कंकाल की तलाश नहीं है? देखते जाओ. सब ऐसी ही सूचनाएं मुंहमांगे दाम देकर खरीदेंगे. वैसे भी जब एक दल घोर बहुतायत में हो तो उसके खिलाफ सूचनाएं खरीदने वाले एक नहीं सारे के सारे अन्य दल होंगे. अपने धंधे में मंदी का सवाल नहीं.’
तभी एक दिन एक परिचित ने कहीं कोई नौकरी दिलवाने को कहा. मैंने डी टी डी विभाग का काम समझाकर पूछा ‘यह काम करोगे?’ वह बोला ‘ साहेब, इससे अच्छा काम तो मेरे लिए हो ही नहीं सकता. पहले मैं कब्र खोदने का काम किया करता था. इधर गड़े मुर्दे उखाड़ने के काम अक्सर मिल जाते हैं. हर गन्दगी ऐसी खोद कर बाहर लाता हूँ कि मालिक खुश हो जायेंगे.’ मैं उसे लेकर अपने मित्र के पास गया. पर वे तो बिफर पड़े. ‘यार, इस डर्टी ट्रिक्स दिपत्मेंट के चक्कर में बुरा फंसा. जबसे नतीजे निकले चुनावों के, पार्टियों ने आना ही छोड़ दिया. कारण पूछता हूँ तो सब कहते हैं आजकल पब्लिक इतनी होशियार हो गयी है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने और गलीज़ दिखाने पर कहती है ‘इसे छोडो, यह सब देख देख कर तो हम थक गए. ये बताओ कि तुम्हारी पार्टी काम क्या करेगी. और वही एक चीज़ है जिसके बारेमे हमने कभी सोचा ही नहीं.’