मौसम
सुबह उठकर ठिठकना
दोपहर तक पसीना
अचानक बारिश का आना
गर्मी का जाना
और फिर सर्दी का आना
दो दिन बाद वही किस्सा पुराना
फिर वही चिलचिलाती धूप कभी ठंडी हवा का चलना
कभी स्वेटर कंधे पर रखना
और फिर उतरा स्वेटर फिर से पहनना
अचानक घर में मच्छर हो जाना
अखबार वाले का देर से आना
सूरज का जल्दी छिप जाना
बच्चों का फिर वही रो रोकर उठना ।
पंखे का चलाना
और चलाकर बंद करना
रात को नल का पानी ठंडा
और दिन में गर्म होना ।
हर सुबह फिर वही अंदाजा, क्या किया जाये
पहने स्वेटर या ऐसे ही निकल जायें
और शाम तक पछताना ही पछताना
क्योंकि पता नहीं मौसम कब बदल जाये ।
अगर आपके साथ भी कुछ हो रहा है ऐसा
तो बिलकुल नहीं घबराईयेगा
यह अक्टूबर या नवम्बर का है महीना
मौसम बदल रहा है, खयाल रखियेगा ।
वसीयत
वो बचपन छूट ना जाये
जवानी रूठ ना जाये
ख़जाना है तेरी आँखें
कोई अश्क़ ना गिर पाये l
तुम दीपक जलाये रखना
हर दिवाली की तरह
ग़र कुछ नहीं, यादें तो होंगी
उदास चेहरे पर मुस्कराहट की वजह l
सूने घर के आँगन मैं
धड़कता दिल अभी भी है
वो पौधा सूख ना जाये
उसे पानी पिला देना
यही बस काम है बाकी
याद कर हमको ये दस्तूर निभा देना l
किसी महफ़िल में जब ज़ाम टकराएँ
ख़ाली -ख़ाली तन्हा सा कोई तुमको दिख जाये
पूछ लेना नाम उसका
ग़र कोई हमसा दिख जाये l
मेरा घर रौशनी में नहा जाये
शहनाइयों की गूँज आकाश तक जाये
जनाजे और बरात में कोई फ़र्क ना हो
जब हम जायें तो ऐसे जायें l
घर
तुमसे है रौशन ये चार-दिवारी
तुमसे ही मिलकर बना ये मकान
हमारा घर, हमारा जहान ।
ना छोड़ जाना तुम कभी
बीच रास्ते
रहना है तुम्हें सदा मेरे साथ
इस घर के वास्ते
इस घर के वास्ते ।
इस घर को जरूरत है
मेरी-तुम्हारी
वो मासूम पौधे हैं ज़न्नत हमारी ।
पकड़ो हाथों में हाथ
चलो मेरे साथ
इस घर की हो खिड़की
तुम्हीं रौशनदान ।
तुम्हें ही मिलता है
वो खुला आसमान
लेते रहना
कुछ धूप के टुकड़े
कुछ हवा के झूले
मैं भी लाऊंगा
कुछ बरखा बहारें
कुछ आँधी की धूलें
अगर मिल सका कोई
बारिश का मौसम
कोई गाता बवंडर या
फिर कोई मुस्कुराता तूफान ।
बस बनने दो पेड़ नया
उसको पूरा छा जाने दो
छू लेने दो उसको अम्बर
घटा से उसको मिलने दो ।
उसी पेड़ की छाँव तले
बैठ जायेंगे क्षण-दो क्षण
चले आयेंगे वापस घर में
याद रहेंगे बस वो पल ।
चलते रहना सदा साथ में
पकड़े हाथों में हाथ
बस तुम ही हो
इस घर की खिड़की
इस घर का रौशनदान
जब तक हो तुम मेरे साथ
मिलता रहेगा बारम्बार
इस घर को जीवन दान
जीवन दान……..
वरना
यह बस चार-दिवारी
कुछ और नहीं बस
मकान ही मकान…………...….
आत्महत्या
तुमसे है रोशन ये चार दिवार
जुड़ा है तुमसे ही ये परिवार, वो परिवार
देखा ! हो कहाँ-कहाँ तुम
कभी इस घर में
कभी उस घर में ।
देखा ! क्या-क्या हो तुम
कभी माँ
कभी पत्नी
कभी सखा
कभी स्वामिनी ।
देखा ! कहाँ-कहाँ हो तुम
कभी इस जुबाँ पर
कभी उस जुबाँ पर
कभी हमारी बातों में
कभी उनकी बातों में ।
ज़िंदगी की ढ़लान पर लुढ़कते
चढ़ान पर चढ़ते
कभी गिरते कभी फिसलते
रहते हो सदा मुस्कुराते
बहुत बतियाते
बहुत बतियाते ।
तभी तो
तुम्हारी ओर यूँ ही नहीं खिंचे आते
जब मिलता है उनको वो मान
इसीलिए होता है सब जगह
सिर्फ़ तुम्हारे गुणों क बखान ।
पर उफ़…! तुमसे ये क्या हो गया
ऐसा जघन्य अपराध हो गया
एक साथ इतनी हत्या
एक माँ
पत्नी
बेटी
बहन
सब एक साथ
उफ़…! तुमसे ये क्या हो गया
एक मुस्कुराते, खिलखिलाते चेहरे से
शब्द नहीं ख़ंजर निकल गया
तुमने नहीं की है ये आत्म-हत्या
ये तुमसे महा-पाप हो गया ।
भागो ना तुम यहाँ से
दबी पड़ी हैं लाशें
तुम्हारे नीचे
जो है किसी की माँ
बहन
बेटी
पत्नी
बहू
ओर भी ना जाने कितनी
जिनसे तुम कभी मिली ।
और जानती हो..
उनकी अदालत के कटघरे में
तुम अकेले खड़ी हो
और…. और…..
सभी ने कर दिया तुम्हें माफ़…..क्यों ?
क्योंकि तुम मुस्कुराती हो
यकीन मानो… बहुत मुस्कुराती हो ।
पर तुम सज़ा-याफ़्ता क़ैदी हो
तुमको आना पड़ेगा बार-बार
इन यादों के समंदर में
जब भी में खड़ा होऊँ उस पार
तुमको डूब-डूब जाना होगा
इन आँसुओं के सैलाब में ।
यकीन मानो, ना इतना घबराओ
तुम्हें नहीं पता
कितना है सबको तुमसे प्यार
माना तुम्हारे निर्णय, तुम्हारा अधिकार ।
अफसोस कुछ कहा होता, कुछ सुना होता
तो शायद कुछ ओर होता
खैर, जाने भी दो, आते रहना
तुम हो, सदा रहोगी
एक सेतु की तरह
जो टूट गया, लेकिन
याद रहेगा वो दूसरा किनारा
जिनसे सिर्फ़ तुम ही मिलाती थी
अब सम्भव नहीं है उधर जाना
लेकिन इतना बता दूँ
उधर से लाई थी तुम कुछ मिट्टी
उसमें लगाई थी जो छोटी-छोटी टहनियाँ
उनमें गुलाब के फूल खिलने लगे हैं
उस मिट्टी की सौंधी खुशबू आने लगी है
ज़रा आओ तो
ये पत्तों की है सरसराहट या
पौधे बतियाते हैं
बहुत कह दिया, बैठो तो
अब सिर्फ़ सुनते हैं……………….
नाम- देवेन्द्र गुप्ता
पुस्तक- बहती नदी, डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित