कहानी
दस्तक
रतन वर्मा
संक्षिप्त परिचय
नाम ः रतन वर्मा
जन्म तिथि ः 06.01.1951
जन्म स्थान ः दरभंगा
प्रकाशन (पत्रिकाओं में) : हंस, धर्मयुग, इंडिया टुडे, सारिका, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, पाखी, इन्द्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में लगभग 200 कहानियाँ एवं इनके अतिरिक्त समीक्षायें, साक्षात्कार, कविताएँ, गीत, गजलें, संस्मरण प्रकाशित।
पुस्तकें : ‘पेइंग गेस्ट', ‘दस्तक' एवं ‘नेटुआ' (कहानी संग्रह), ‘यात्रा में' (काव्य संग्रह), ‘रुक्मिणी' एवं ‘सपना' (उपन्यास), ‘श्रवण कुमार गोस्वामी एवं उनके उपन्यास' (आलोचना पुस्तक)
पुरस्कार :
— ‘गुलबिया' कहानी को वर्त्तमान साहित्य द्वारा
आयोजित कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार का प्रथम
पुरस्कार (1989)
— नाट्यभूमि सम्मान (1991)
— ‘सबसे कमजोर जात' कहानी आनन्द डाइजेस्ट
आंचलिक कथा प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ (1991)
— ‘नेटुआ' नाटक : साहित्य कला परिषद्, दिल्ली द्वारा दशक के सर्वश्रेष्ठ छहः नाटकों में शामिल (1992)
— ‘अवसर' सम्मान (1994)
— समग्र साहित्य पर ‘राधाकृष्ण पुरस्कार' (2003)
— ‘निखित भारत बंग साहित्य सम्मेलन, नई दिल्ली' द्वारा
विशिष्ट कथाकार पुरस्कार (2004)
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
सम्पर्क : क्वार्टर सं0 के—10, सी0टी0एस0 कॉलोनी, पुलिस लाईन के निकट, हजारीबाग—825301 (झारखण्ड)
मोबाईल न0 9430347051, 9430192436
म्उंपसरू तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/लींववण्बवउए तंजंदअमतउींं्रंतपइंह/हउंपसण्बवउ
भूमिका
यह कहानी आदिवासी बहुल बस्ती की है, जो घने जंगलों के बीच बसी है। उस इलाके में जो आदिवासी रहते हैं, उनका शिक्षा या शहरों से कोई वास्ता नहीं है। उनकी पूरी दुनिया वह बालंडिया बस्ती ही है। वहाँ के स्त्री—पुरूष को महुए की शराब की ऐसी लत है कि इसके लिए वे कुछ भी समझौता कर सकते हैं। जंगल का ठेकेदार ‘बाबू' उनके इस हालात का खूब फायदा उठाते हैं। एक तो अत्यंत ही कम मजदूरी देकर उनके श्रम का शोषण करते हैं, दूसरी ओर वहाँ की युवतियों का दैहिक शोषण भी। हालांकि युवतियों के दैहिक शोषण की जगह, यह कहा जाना कि थोड़ी सुख—सुविधाओं के लिए युवतियाँ खुद ही बाबू के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए आपस में होड़ लागाये रहती हैं।
हालात इतने दयनीय हैं कि बस्ती की वह छोटी सी दुनिया आज भी आदिम युग में जी रहे मनुष्यों का एहसास कराती हैं।
दस्तक
बरामदे पर दीवार से टेक लगाये बैठी जूठन देर से पानी के छूटने का इंतजार कर रही थी।
अमावस की उस करिआयी और बदरी—भरी रात में पूरी ‘बालन्डिया' बस्ती, वह कोठी, कोठी का बरामदा और सामने का विषाल जंगल, सारा का सारा लिप—पुत गया था। उस घोर अंधेरे में जूठन भी जैसे अस्तित्वविहीन होकर रह गयी थी। उसकी सॉंसों की धीमी आवाज भी वर्षा की उबाऊ झमझमाहट में घुल—मिल कर रह गयी थी, नहीं तो उसकी उपस्थिति का एहसास उसकी सॉंसें ही करा देतीं शायद।
उस उबाऊ बारिष को कोसती हुई वह खुद में ही बड़बड़ा उठी थी, ‘‘करमजला यह पानी गिरना बंद हो, तब तो मैं जाऊॅं अपने धौड़ा (पत्ते—फूस की बनी झोंपड़ी)। मगर यह चाबी। चाबी किसे देकर जाऊॅंगी ? यह दुर्गा भी हरामी, पता नहीं कहॉं ‘मुॅंह—मरा' रहा है? ... होगा कहॉं। अपनी मइया की डीह पर बैठा पी रहा होगा कहीं महुआ। उसको क्या? ... उसका ‘भरतार' तो शैला बनी हुई है — उसकी छिनाल बेटी। बाबू को तो ऐसे कस—काबू में किये हुई है, कि उसका बप्पा दुर्गा, दरबान न हुआ, बाबू का भी बप्पा हो गया। बाबू की कोई बात भले ही कट जाय, मगर दुर्गा की बात? क्या मजाल, कि खुद बाबू भी काट दें?'' मन ही मन उसने कई गालियॉं दुर्गा और शैला को दी थी।
अचानक बिजली की रूपहली रोषनी में नहा गयी थी जूठन। पर उसके श्याम चेहरे पर का कसैलापन, दूसरे ही पल वातावरण पर व्याप गया था।
जूठन को कोठी में काम करते यही कोई चार—पॉंच वर्ष हुआ होगा। पहले, जब बाबू के पिताजी जीवित थे, उसकी मइया, सुकरी कोठी में काम किया करती थी। काम क्या करती थी, नौकर—चाकरों पर ‘हुकुम' चलाया करती थी। उस जमाने में, शैला से कम ‘चलती' नहीं थी उसकी, कोठी में। बड़े बाबू की खास चहेती थी वह। बड़े बाबू को तो आगे—पीछे घुमाया करती थी। दारू की लत भी उसे उन्हीं से लगी थी। तब, वह अंग्रेजी दारू पिया करती थी। बड़े बाबू के साथ, उनके बिस्तर पर बैठकर। फिर सारी रात उन्हीं के साथ पड़ी रहा करती थी।
अक्सर तो वह जूठन को भी ले जाया करती थी अपने साथ। कमरे में जमीन पर गुदड़ी बिछाकर सुला दिया करती थी उसे और खुद सारी रात बड़े बाबू के साथ नंगी—उघार पड़ी रहती थी। अनेकों बार बीच रात में रोती हुई उठकर जूठन ने अपनी मइया को एकदम उघार, बड़े बाबू के साथ लिपट कर सोये देखा था। बड़े बाबू भी तब नंगे या अधनंगे ही हुआ करते थे।
जूठन को जगी हुई देखकर भी उसकी मइया को कोई लाज—षरम नहीं लगती थी। उसी हालत में उसे गोद में लेकर, दुलार—पुचकार कर सुलाने की कोषिष करने लगती थी। कभी यदि वह जिद बांध लेती, तो लप्पड़—थप्पड़ भी कर दिया करती थी।
सात—आठ वर्ष की उम्र तक वह मइया को नंगी हालत में देखती आयी थी। उसके बाद तो उसने उसे कोठी में लाना ही छोड़ दिया था। मगर जूठन को आज तक अपनी मइया की उघार देह का एक—एक नक्षा याद था।
उन दिनों तो सुकरी को पीने का काम बड़े बाबू के साथ ही ‘सुतर' जाता था, वह भी अंग्रेजी दारू से। मगर उनके बाद तो वह जैसे सचमुच की ‘रॉंड़' हो गयी थी। दारू तो दूर, अब तो दोनों समय मॉंड़—भात पर भी आफत थी। फिर भी लत तो आखिर लत ही थी। वह भी वर्षों पुरानी। उसके तो जैसे नस में भी खून की जगह दारू बहने लगी थी। ‘पैटी'—भर (आधी बोतल) महुआ भी उसे रोज चाहिये ही थी। अंग्रेजी वाला जमाना तो बड़े बाबू के साथ ही खत्म हो चुका था।
एक दिन बाबू ने ही दुत्कार दिया था उसे। डॉंट—फटकार तो किया ही था, काम से भी निकाल दिया था।
जूठन का बप्पा, नेस्तर तो जूठन के पैदा होने के तीन—चार वर्ष बाद ही ‘सोरग' सिधार गया था। जोरू की कमायी पर दिन—रात महुआ और भट्ठी वाली दारू में ही डूबा रहा करता था। काम तो वह जंगल में लकड़ी काटने का करता था, मगर दो—ढाई रूपये रोज की मजूरी से उसका क्या होने—जाने वाला था? उतने की तो वह रोज सुबह ही, काम पर जाने से पहले महुआ पी जाया करता था। बाकी का उसका खाना—पीना तो जोरू की कमायी पर ही होता था।
एक दिन शाम को वह काम से लौटा तो जोरों से उसके पेट में दर्द उठा था। फिर दिन पर दिन उसका दर्द बढ़ता ही गया था। काम—धाम छोड़कर उसने खाट पकड़ ली थी। और एक रात दर्द से तड़पता हुआ वह टें बोल गया था। धौड़े में सिर्फ चरका था उस रात। सुकरी और जूठन तो बड़े बाबू के यहॉं थीं।
सुकरी को अपने मरद के मरने का कोई शोक नहीं हुआ था। उस दिन भी उसने छक कर दारू पी थी। बस्ती वालों को दिखाने के लिये घंटा—आध घंटा खूब रोयी—चिकड़ी थी, मगर फिर से सामान्य हो गयी थी। किरिया—करम तक वह धौड़े में ही रही थी। दिन भर तो धौड़े में पड़ी रहती, पर रात होते ही कोठी में जा धमकती। उसका दारू पीना भी किसी रोज बंद नहीं हुआ था।
आठ—नौ वर्ष का चरका अब बिल्कुल अकेला हो गया था। रात में तो और भी अकेला। सुकरी तो जूठन को लेकर कोठी चली जाती थी। पहले उसका बप्पा रात में उसके साथ रहता था तो उसे मइया या जूठन की कमी नहीं अखरती थी। पर अब वह धौड़ा, उसे भूत का डेरा लगने लगा था। अब वह भी रोज शाम को महुआ पीने लगा था, जिससे उसे रात को अच्छी नींद आने लगी थी। इसके लिये उसे पैसे अपनी मइया से मिल जाते थे। पिंड छुड़ाने के लिये सुकरी ने जान—बूझ कर उसे महुए की लत डाल दी थी।
‘चरका' नाम भी उसका वैसे ही नहीं पड़ा था। पैदा हुआ तो एकदम गोरा था। इसलिये बस्ती वालों ने मिलकर उसका नाम ‘चरका' रख दिया था। लोगों का कहना था कि चरका कोई अपने बप्पा का जना थोड़े ही था। वह तो बड़ा बाबू की पैदाइष था। हॉं, जूठन भले ही अपने बप्पा पर गयी थी। रंग—रूप, चेहरे की छहक, उसने अपने बप्पा से ली थी।
‘बालन्डिया' के जंगल में बड़े बाबू की ठीकेदारी थी। बड़े बाबू का असली नाम उस पूरे इलाके में कोई नहीं जानता था। यहॉं तक कि सुकरी भी नहीं। सभी उन्हें ‘‘बड़े—बाबू'' कह कर ही पुकारते थे।
शुरू के दिनों में उस जंगल में कोई आबादी नहीं थी। आस—पास गॉंवों से लोग आकर वहॉं लकड़ी काटने का काम किया करते थे। दिन भर काम करने के बाद अपने—अपने गॉंवों को लौट जाते थे। पर, जैसे—जैसे लोगों को आने—जाने में असुविधा होने लगी, वहीं धौड़ा बना कर रहने लगे थे। गॉंव आने—जाने में उन्हें हमेषा जंगली जानवरों का भय लगा रहता था। देखते ही देखते वहॉं एक बस्ती कायम हो गयी थी।
बस्ती के बसने के साथ ही बड़े बाबू ने अपने रहने के लिये एक चार कमरे की कोठी भी वहॉं बनवा ली थी।
आरम्भ में तो वे कभी—कभार ही कोठी में रहा करते थे। रोज शहर से ही उनका आना—जाना होता था, मोटर—गाड़ी से। शहर की दूरी ही कितनी थी वहॉं से, यही कोई बीस—बाइस कोस।
लेकिन जब से वे सुकरी के चक्कर में पड़े थे, कोठी में रहने लगे थे।
उनके बाद जंगल का काम काज बाबू ने सम्भाल लिया था। बाप का ‘अरजा' अथाह धन था ही उनके पास। ऊपर से जंगल की ठेकेदारी का जमा—जमाया व्यवसाय। बेटे भी वे इकलौते ही थे बड़े बाबू के। बाप का खून रगों में दौड़ ही रहा था। सो यहॉं आते ही वे शैला के रूप—जाल में ऐसे फॅंसे कि घर—परिवार की सुध ही नहीं रही थी उन्हें। बस, कोठी और शैला में कैद होकर रह गये थे। कभी—कभार पर्व—त्यौहार में या मौके—कुमौके दो—एक रोज के लिये अपने परिवार के साथ रहने, शहर चले जाते, तो चले जाते, नही ंतो हमेषा यहीं बने रहते थे।
यहॉं उन्हें कमी भी किस बात की थी। नौकर—चाकर, दर—दरबान तो थे ही। खाने—पीने की भी दिक्कत नहीं थी। मुर्गा, सिकार(मांस), मछली, अंगे्रजी दारू, तो खुद जाकर या दुर्गा को भेज कर शहर से मंगवा ही लेते थे। रही बात बिस्तर गर्म करने की, तो इसके लिये शैला, इमरती या फुलवा थी ही। मगर बाबू, पूरी तरह शैला के काबू में थे। इमरती और फुलवा तो हमेषा शैला का तलबा सहलाया करती थीं कि कोई उपाय लगा कर भेज दे वह उन्हें एकाध रात के लिये बाबू के पास। इससे उन्हें कुछ पैसे मिल जाया करते थे बाबू से। शैला भी यदा—कदा बीमारी का या कोई भी बहाना करके भेज दिया करती थी फेर—बदल करके उनमें से किसी को। बस इतनी सी कृपा—दृष्टि के कारण दोनों उसकी खुषामद में लगी रहती थीं।
शैला थी भी कोई ऐरू—गैरू नहीं। पन्द्रह पार करके उसने अभी सोलहवें मे ंपैर ही रखा था। सॉंवला, मगर पानीदार चेहरा, गठीली—तराषी हुई देह, बड़ी—बड़ी लील जाने वाली ऑंखें, कितना भी बाल को समेटकर बांध ले, पर सामने के दो घुंघराले लट जबरन छिटक कर गालों को चूमने ही लगते थे। बालों में नये फैषन के रंगीन फूलों वाले क्लिप और लाल—हरे, पीले रीबन, कानों में रोल्ड—गोल्ड के झुमके, गले में नकली मोतियों का हार, जब वह बड़े—बड़े फूलों के छापे वाली रंगीन साड़ी पहन, चेहरे पर ‘‘एसनो—पौडर'', माथे पर लाल जराऊॅं टिकुली और ऑंखों में लम्बे किनारों वाला काजल लगाकर, कमर लचकाती हुई हाट में पहुॅंचती, तो क्या दुकानदार, क्या खरीदार, क्या किषोर और क्या जवान, सबों के चेहरे पर गुलाबी मुस्कान थिरक उठती थी। एक नजर उसे देख भर लेने की ललक, दूर—दराज की बस्ती के भी कई छौकरों को बेवजह हाट में घसीट लाया करती थी। वह तो कहिये कि उसकी डोर बाबू के हाथ में थी। नही ंतो कब का वह कटी हुई ‘पतंग' की तरह लूटने वालों के हाथों ‘फाड़ा—चीड़ी' हो गयी होती।
जूठन का बचपन, शैला, इमरती, फुलवा और रूकमी के साथ ही खेल—खेल में बीता था। ‘भतकुलिया' हो या ‘चोरवा—लुकिया', घरौंदा का खेल हो या ‘आतुर—पातुर' सभी आपस में मिल—जुल कर ही खेलती थीं। उन दिनों जूठन सबों की सरदार पड़ती थी। ‘किसकी मइया बाघ बिआनी' कि जूठन बोल दे ‘चोरवा—लुकिया' और उनमें से कोई बोल दे ‘भतकुलिया'। एक बार शैला ने उसकी बात नहीं मानी थी। फिर क्या था — छाती पर चढ़ कर जूठन ने उसे इतना मारा था कि कई दिनों तक वह खेलने नहीं आ सकी थी।
जूठन इतनी ‘जब्बर' वैसे ही नहीं थी। बड़े बाबू का जो हाथ था उसकी मइया के सिर पर।
पर समय हमेषा एक समान नहीं रहता। उमर के साथ—साथ शैला में निखार कुछ ज्यादा ही आता गया था। जैसे ही उसने चौदहवें—पन्द्रहवेंं में कदम रखा था, बाबू की ऑंखों में खुब गयी थी वह। बाबू ने उसे ऊपर ही ऊपर ‘लोक' लिया था। उसके बाद वह भतकुलिया या चोरवा—लुकिया वाली शैला थोड़े ही रह गयी थी। वह तो बाबू के मन की आलमारी में सजी रहने वाली गुड़िया हो गयी थी। जब बाबू का मन होता, उससे खेल लेते। आलमारी में तो वह चौबीसों घंटे सजी ही रहती थी।
शैला को इस बात का एहसास था कि वह रबड़ की गुड़िया थोड़े ही थी? वह तो जीती—जागती, हॅंसती—खिलखिलाती, हाड़—मांस की गुड़िया थी। जंगल में काम करने वाले मजदूर हों या कोठी की नौकर—नौकरानियॉं, सबों पर वह मलकियाना जताने लगी थी। ये लोग तो फिर भी प्यादे—फर्जी थे, जब उसकी हुकूमत ‘बादषाह' पर भी चलती थी, तो औरों की भला क्या बिसात।
काम से हटाये जाने के बाद सुकरी के खाये—खेले दिमाग में एक खुराफात ने जन्म लिया था। यदि वह जूठन को कोठी में लगवा दे और जूठन किसी तरह बाबू को कस—काबू में कर ले, तो उसके पुराने वाले दिन फिर से लौट सकते थे।
बस, जूठन को लिये—दिये वह पहुॅंच गयी थी बाबू के पास। खूब आरजू—बिनती की थी उसने बाबू की। अपने बुढ़ापे की दुहाई दी थी। आखिर बाबू पिघल ही गये थे। जूठन को कोठी में खाना पकाने और सफाई करने का काम मिल गया था। उस काम के एवज में उसे सूखे पचास रूपये महावार और साल में दो बार, दषहरे और होली के अवसर पर कपड़ा मिलना तय हुआ था।
मइया के काम से निकाले जाने के बाद से चरका भी जंगल में लकड़ी काटने के काम पर लग गया था। उसे पॉंच रूपये रोज मिलते थे।
हर सप्ताह उस इलाके में सोमवार को हाट लगा करती थी। उस रोज जंगल का काम—काज ठप रहता था। उस दिन की मजूरी भी मजदूरों को नहीं मिलती थी। सप्ताह भर की मजूरी उन्हें इसी दिन मिलती थी, जिसे वे ‘हफ्ता' कहते थे।
इन चार—पॉंच वर्षों में ही जूठन का मन ऊब चुका था कोठी के काम से। कोठी के काम से तो कम, शैला के व्यवहार से ज्यादा। पता नहीं क्यों, वह हर वक्त, जब देखो तब जूठन के पीछे पड़ी रहती थी।
वैसे भी महीना भर जरने—मरने के बाद मिलता ही कितना था उसे——सूखे पचास रूपये ही न। अब अपने पचास रूपये महावार और चरका के तीस रूपये ‘हफ्ता' में वह घर की खरची चलाये, कपड़ा—लत्ता जोड़े या मइया की खातिर रोज एक पैटी महुआ का ‘सरजाम' करे? चरका यदि रोज रूपया—सवा रूपया का महुआ पी भी जाता था, तो हरजा नहीं। देह तोड़ कर धूप में सुखाता था रोज। महुआ नहीं पीयेगा तो जिन्दा कैसे रहेगा? मजदूरों की दवाई तो महुआ ही होती है न। ... पर उसकी मइया? वह कौन—सा पहाड़ ढाहती रहती थी दिन भर कि सांझ होते—होते उसे एक पैटी चाहिये ही। ... जूठन बेचारी कुछ बोले तो सुने गाली—फजीहत या मन ज्यादा ‘पिताया' उसकी मइया का तो अपनी कुटाई—पिसाई भी सहे।
वष चलता उसका तो कब का कोठी का काम—धाम छोड़, बस्ती ही छोड़कर भाग गयी होती। पर भाग कर जाती भी कहॉं? जंगल और बस्ती के अलावा दीन—दुनिया की कुछ खबर भी तो नहीं थी उसे। शहर का नाम भर सुना था उसने—‘रॉंची'। वह भी इसलिये कि बाबू हमेषा मोटर गाड़ी से रॉंची आते—जाते रहते थे।
पर उस दिन तो उसका मिजाज एकदम से खराब हो गया था। सोच लिया था उसने कि कोठी का काम छोड़कर जंगल में ही काम करना शुरू कर देगी। जंगल में और भी रेजायें काम करती हैं कि नहीं (रेजा मजदूरिनों को कहा जाता है)। अब यह भी कोई बात हुई कि उस छिनाल शैला की देह दबाये जूठन? — ‘‘साथ—साथ खेली, बड़ी हुई और अब बाबू ने उसे थोड़ा चूम—चाट क्या लिया, मेरे से पैर दबाने के लिये कहते मुॅंह भी नहीं जला मुॅंहजली का। सारी रात बाबू से देह दबवा कर देह का दुखना कम नहीं हुआ रंडी का, तो अब मैं ही मिली थी देह दबवाने के लिये। छिनाल को इतना ही दर्द हो रहा था, तो पूरी बालन्डिया बस्ती में एक से एक चकइठ जवान मिल जाते। दबवा लेती जाकर उनसे। दो—चार मरद दबा देते तो उमर भर का ही दर्द छूट जाता।'' मुॅंह ही मुॅंह में बुदबुदायी थी वह।
उस रोज वैसे भी हाट का दिन था। हाट के दिन वह जल्दी—जल्दी कोठी का काम निपटा कर धौड़ा लौटने के फिराक में लगी रहती थी। इस डर से कि चरका का हप्ता वाला पैसा यदि मइया के हाथ लग गया तो महुआ की जगह वह भट्ठी वाली दारू पी जायेगी सारे पैसों की। फिर पूरा हप्ता उपवास में ही काटना पड़ेगा उन्हें।
जल—भुन कर उसने साफ कह दिया था शैला से, ‘‘कोठी में इत्ता काम पड़ा है। वह कौन ‘सपरायेगा', जो मैं तेरी देह दबाऊॅं?''
बस, इतनी सी बात पर वह ‘चिकड़ती' हुई उठी थी बिस्तर से। बाबू तो उठकर मुॅंह—हाथ धो, ऑंगन में कुॅंए पर नहाने बैठ गये थे। लगी थी वह उसे भद्दी—भद्दी गालियॉं बकने, ‘‘चोट्टी, रंडी। देह दबाने खातिर, मैंने कहा था तेरे से, बाबू ने तो नहीं। फिर बाबू को काहे उलट—पुलट बातें कहने लगी? .... अरे बाबू ही हैं कि तेरा खरचा—पानी चल जाता है, नहीं तो मुॅंह मराती फिरती पूरी बस्ती में तीनो जने, तिस पर भी दोनों सॉंझ मॉंड़—भात नहीं मिलता। बेलज्जिन, बाबू के लिये गंदी बात निकालते लाज भी नहीं आयी किसी ‘गत्तर' में?''
जूठन को तो जैसे सनाका मार गया था। बाबू को तो उसने कुछ नहीं कहा था कि उतना चिकड़ने लगी थी शैला।
अपनी सफाई में वह कुछ बोलना ही चाह रही थी कि चख—चुख सुनकर बाबू भी कुॅंए पर से उठकर कमरे में आ गये थे। आते ही उन्होंने शैला से पूछा था, ‘‘क्या हुआ शैला, क्या बोल रही थी यह?''
‘‘पूछिये इसी से। यह जानती है कि बाबू के बारे में मैं कुछ भी उलट—पुलट नहीं सुन सकती, फिर भी इसने ...'' बोलते—बोलते वह सुबकने लगी थी।
‘‘आखिर कहा क्या है इसने? कुछ पता भी तो चले।''
सुबकते हुए ही वह बोलने लगी थी, ‘‘कल से ही मन ठीक नहीं लग रहा था। देह में थोड़ा दर्द था। मैने इससे कहा कि जूठन, जरी देह दबा दे ना। बस इतना कहना था मेरा कि बेंग (व्यंग) कसने लगी थी यह। देह नहीं दबाना था, तो कह देती। इसमे बेंग कसने की क्या बात थी? ... कहने लगी कि बाबू ने तो रात भर दबाया ही है। अब क्या बाबू की देह में भी दम नहीं रहा कि तेरा दर्द छूटे? ...मेरे बारे में तो पूरी बस्ती जानती है कि आप मेरे को जरा मानते हैं। मेरे को, चाहे कोई कुछ अकलंग लगाये, मेरे को फरक नहीं पड़ता, पर बाबू पर कोई अकलंक लगाये, यह मुझसे ‘बरदास' नहीं होता।'' फिर से सुबकने लगी थी वह।
जूठन के मन में तो आया था कि कह ही दे, ‘‘नहीं बाबू, यह चोटि्टन झूठ बक रही है। मैंने तो सिरफ ....'' पर पता नहीं क्यों, बाबू के सामने उसका मुॅंह ही नहीं खुलता। जुबान बिल्कुल तालू से सट जाती है।
‘‘देख जूठन, यह सब मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। जब तू मेरे सामने ही इस तरह की बातें करती है, तो बस्ती में पता नहीं क्या—क्या बकती होगी मेरे बारे में। .... काम करना है कोठी में तो ठीक से कर। समझी? और जुबान पर काबू रखा कर अपने। ... जा, शैला की देह दबा दे। और हॉं। आंइदा अगर ऐसी बातें करनी हो तो अपने घर का रास्ता देख। मुझे कोई दरकार नहीं तेरे जैसी नौकरानी की। फिर तेरी मइया आकर रोये या माथा फोड़े मेरे आगे, मैं कुछ नहीं सुनूंगा।''
बेवजह अपमान की घूंट पीकर भी शैला की देह दबानी ही पड़ी थी उसे। उसे जलाने के लिये शैला भी कभी इधर, तो उधर, कभी पैर में तो कभी पीठ में घंटे भर तक तेल मलवा कर देह दबवाती रही थी उससे।
जूठन बेचारी आखिर करे भी तो क्या? उसकी मइया ही मिली थी वैसी — अपनी नहीं, सौतेली हो जैसे। जब देखो तब एक ही बात, ‘‘अरे करमजली। बाबू को कसकाबू में कर ले। फिर देख, कैसे दुख—दलिद्दर मिलिट भर में बिला जाता है। ... पर तू ... इह्।''
कैसी मइया मिली थी उसकी? उमर भर खुद रंडी बनी रही। देह बेच—बेच कर दारू पीती रही। अब उमर गिर गयी तो अपनी ही जाया बेटी को रंडी बनाना चाहती थी। उसकी कमायी पर रंगरहस करना चाहती थी।
पर इसमें उसकी मइया का भी क्या कसूर था? शैला का बप्पा भी तो अपनी बेटी के छिनालपन पर ऑंखे बन्द किये रहता है। क्या उसे पता नहीं था कि उसकी बेटी रात—रात भर बाबू के कमरे में पड़ी क्या करती रहती है? शैला को रंडी बनाने में क्या उसके बप्पा का कसूर नहीं था? ....जब शैला का बप्पा मरद होकर नामरद बन रहा था, तो जूठन की मइया तो फिर भी औरत थी — समाज की कमजोर जात। ऊपर से रॉंड़ भी।
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यह किस्सा तो बालन्िउया बस्ती के लिये आम हो जैसे। अब रूकमी को ही ले लीजिये। उस दिन जूठन से कह रही थी, ‘‘जूठन, मेरी सहिया (सहेली), किसी तरह मेरा भी मेल बिठा दे ना बाबू के साथ। बड़ा गुन गाऊंगी रे। दो ‘बेकत' की मजूरी में कुछ पूरा नहीं पड़ता, छौ बेकत के ‘पलिवार' में। बप्पा को भी रोज पैटी भर महुआ चाहिये ही होता है। .... बाबू से मेल बिठा देगी तो छहो बेकत तेरे कस में होंगे रे। जो तू कहेगी, सो करेंगे।''
‘‘इह्।'' मन टीस उठा था जूठन का।
पर इसमें जूठन बेचारी भी क्या कर सकती थी भला? बाबू तो पूरी तरह शैला के कस में था। रूकमी को शायद, उसे नयी साड़ी पहने देखकर गलतफहमी हो गयी थी, जो उसे दषहरे के अवसर पर बाबू की ओर से मिली थी। उसने बहुत सहानुभूति के साथ रूकमी से कहा था, ‘‘देख रूकमी, तू शैला को ‘धर'। वही तेरा काम बाबू के साथ ‘सुतार' सकती है। मेरा तो बाबू के साथ कोई मेल है नहीं। शैला एक दफा बाबू से कह दे तो बाबू ‘कुइयॉं' में भी डूब सकते हैं। मेरी बात मान, तू शैला को धर।''
‘‘षैला? ना बप्पा, ना। उस चुड़ैल को धरूॅं? यह मेरे से अब नहीं हो सकता। छिनाल बात करती है? ... लगता है टांगी(कुल्हाडी) चला रही हो। एक दफा कही थी उससे। ... इह्। ऐसी गंदी बात बोली थी वह कि मेरा जी कट कर रह गया था, दुबारा उससे कुछ कहने को। ... बोली थी, बाबू का बड़ा महंगा है रे। सबके हाथ में थोड़े ही है खरीद पाना? वह तो शैला ही है, जो बेगर मोल खरीद लेती है। ... चोटि्टन। ... इतनी गंदी बात निकालते लाज नहीं आयी बेलज्जिन को।''
वैसे मान भी गयी होती जूठन अपनी मइया की बात। पर बाबू उसकी ओर कभी घूम कर देखे भी, तब तो? छोटी—छोटी बात पर तो काटने को दौड़ते थे। मुॅंह भर कभी बात तो करते ही नहीं। उसे तो वे शैला के पैर की माठी भी नहीं समझते। जब—तब शैला भी उसका जी दुखाती रहती थी, मगर बाबू से उसे ही डॉंट सुननी पड़ती थी।
उस दिन तो उसने तय ही कर लिया था कि कोठी का काम वह छोड़ कर रहेगी, चाहे जो हो जाय। उसकी मइया को महुआ मिले चाहे नहीं — ‘‘इतनी ही तलब उसे महुए की है तो जाय, खुद करे रंडी—पेषा। अभी भी कोई हाथ—पैर टूट नहीं गया है उसका। चार धौड़े में निहोरा करेगी, तो किसी न किसी धौड़े में पैटी—आध पैटी महुआ मिल ही जायेगी उसे।''
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रात और भी करिआती जा रही थी। पानी की झमझमाहट भी पहले से तेज हो चुकी थी। बैठे—बैठे जूठन का मन उकताने लगा था। रह—रह कर उसके मन में आ रहा था, ‘‘निकल ही चलॅूं धौड़ा। किसी तरह गाछ—बिरिछ के तले लुकती—छुपती पहुॅंच ही जाऊॅंगी।''
पर उसके पैरों को तो चाबी ने बांध रखा था। जाय भी तो कैसे, ‘‘यह दुर्गा भी हराम का जना, पता नहीं कहॉं मर गया? आ जाता तो चाबी देकर चली जाती। इस पानी का कोई भरोसा है? क्या पता, रात भर ही गिरता रहे। संझा का पानी भी कहीं बीच रात में छूटता है? ... और ये बाबू भी रॉंची गये, तो लगता है आयेंगे ही नहीं लौट कर। ... कह कर भी गये होते कि नहीं आयेंगे तो चाबी लेकर ही चली गयी रहती। उधर दुर्गा मुॅंह मरा रहा है और रॉंची में बाबू। ... बस मैं ही रह गयी हॅूं, करम कूटने खातिर। ... इह्, ऐसे काम से तो मर जाना भला। न हरहर, न खटखट'' अपने आप बड़बड़ायी थी वह।
अचानक स्याह आकाष में दरार फाड़कर निकलते हुए उजाले ने पल भर के लिये उसे अपने ऑंचल में समेट लिया था। उस पल—भर की रोषनी में ही उसकी नजर अपनी मैली, कई जगहों पर पैबन्द लगी साड़ी पर पड़ी थी। उसकी ऑंखों के आगे शैला का बड़े—बड़े फूलों के छापे वाली रंगीन साड़ी नाच गयी थी। चेहरे पर और ऑंखों मे ईर्ष्या का भाव तिर आया था। मन में उठा था, ‘‘इह् ... बड़ी छमकती फिरती है शैला कुल्हे मटकाती। मैं भी अगर उसकी तरह साड़ी पहन लॅूूं, सिंगार पिटार कर लूं तो उससे कम थोड़े ही लगूंगी? ... बल्कि उससे भी इक्कीस ही। देह भी मेरी शैला से कोई कम कसी हुई थोड़े ही है? उमर भी उसके जितनी ही है। ... मेरे पास ‘एसनो—पौडर', रीबन—टिकुली खरीद सकने का दम नहीं, तो इसमें मेरा क्या कसूर? ... और मइया? इह्। यह तो हर—हमेषा महुआ पीकर मेरे को लतियाती ही रहती है। अगर है अपनी असली मइया की जनी, तो क्यों नहीं खरीद देती है मेरे को सिंगार—पटार का सामान? मैं भी दिखला देती कि बस्ती की औरतों ने ‘सिरफ' शैला, इमरती या फुलवा को नहीं जना है। जूठन भी किसी से गयी बीती नहीं है। ... मगर मइया भी किसी रंडी की ही जनी लगती है। वह तो समझती है कि बाबू मेरी इस मैली—चिथड़ी साड़ी में लिपट कर ‘फुसल' जायेगा।'' मुॅंह में भर आये थूक को उसने पिच से वहीं बरामदे पर उगल दिया था।
उस रोज शैला की सेवा—टहल और कोठी में काम करते—करते सॉंझ उतर आयी थी। जल्दी—जल्दी काम से छुटकारा पा, वह भागी थी धौड़े की ओर कि कहीं चरका ने हफ्ता वाला पैसा मइया को नहीं दिया होगा तो खुद उससे पैसे लेकर हाट चली जायेगी। इसके लिये यदि मइया से उसे गाली—फजीहत भी सुननी पड़ी या मार—मूर भी खानी पड़ी तो कोई बात नहीं। हफ्ता भर उन्हें पेट में लत्ता बांध कर तो नहीं सोना पड़ेगा। पर मन ही मन सोची थी वह, ‘‘चरका भी नमरी नामरदा ही है। जब वह जानता है कि मईया के हाथ में अगर पैसे पड़ गये तो भुक्खे मार देगी दोनों जने को हप्ता भर और खुद भी मरेगी, फिर वह पैसे देता ही क्यों है उसे। ... मइया के आगे वह ‘बिलाई' काहे बना रहता है? .... पर मैं ही कौन—सी भली हॅूं? ... मैं भी तो बिलाई बनी रहती हॅूं उसके आगे। हम दोनों को इतना मार—डरा कर रखा था कि हममें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कुछ चू—चपड़ करने की। जूठन ही कभी मुॅंह लगा लेती थी, वह भी मौका—जरूरत देखकर।
उसके पैरों की गति धौड़े की ओर और तेज हो गयी थी।
मगर कोई फायदा नहीं हुआ था उसे। जब तक वह धौड़ा पहुॅंचे, तब तक सब कुछ ‘बिला' चुका था। दूर से ही उसे धौड़े के अंदर से आती नषे से बोझल मइया और चकरा के गीत की आवाज सुनायी पड़ गयी थी। जब वह धौड़े के दरवाजे पर पहुॅंची थी तो उसके नथूनों में भूने हुए सिकार और भट्ठी वाली दारू की मिली—जुली गंध समायी थी। पल भर में ही समझ गयी थी वह कि हफ्ता वाला पैसा स्वाहा हो चुका था। अंदर चूल्हे के पास बैठी उसकी मइया और चरका दारू पीते हुए ताली पीट—पीट कर गाये जा रहे थे —
‘‘छोटे कुना रदन ददाः हाये
रं अं अं अं गन नाम बोय बीसा बदन —2
सुपलीमनी खे ऍं ऍं ऍं दोय ददाः
केसोने बेचोन बदन ददाः होय ...''
जूठन की तो पूरी देह में जैसे आग फुंक गयी थी। फिर भी वह शांति—पूर्वक धौड़े में घुसी थी। पूरे धौड़े में ढ़िबरी की पीली—बीमार रोषनी फैली थी। उस रोषनी में उसे अपनी मइया का चेहरा किसी चुड़ैल—सा लगा था।
उसे देखकर दोनों ने गाना बंद कर दिया था, ‘‘आ गयी जूठन। आ, तू भी ले—ले एक गिलास। महुआ नहीं, भट्ठी वाली है। देख, तेरी खातिर सिकार भी लायी हॅूं हाट से। जरा चख तो।'' एक गिलास दारू ढालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए उसकी मइया बोली थी।
मन हुआ था उसका कि दारू से भरा गिलास और सिकार वाली अलमुनियम की थाली उठाकर फेंक दे मइया के मुॅंह पर। मगर गुस्से को जबरन पीती हुई बैठ कर गिलास थाम लिया था उसने। एक सॉंस में गिलास खाली कर जमीन पर रखते हुए उसने मइया से पूछा था, ‘‘चाउर (चावल) लायी, मइया?''
‘‘हॉं, लायी।''
‘‘हफ्ता भर का?''
‘‘नहीं रे। हफ्ता भर का कहॉं से लाती ? कल भर का लायी हॅंूं।''
‘‘मइया, अब हफ्ता भर कैसे चलेगा? भूखे ही रहना पड़ेगा ना?''
‘‘हफ्ता भर कैसे चलेगा, यह अब तू जान। बरस—छौ महीने में कभी सिकार दारू भी ना चखॅूं क्या ? ..... क्यों चरका?''
चरका ने सहमति में अपना सिर हिला दिया था।
‘‘मैं तेरी उमर की थी तो अंग्रेजी पीती थी रे, अंगे्रजी दारू। तेरे बप्पा को भी पिलाती थी कभी—कभी। सिकार तो रोज ही खाती थी। तेरा बप्पा, मरने को तो मरा, मगर खूब खा—पीकर। अपने बखत में तो मैंने किसी को केाई दुख—तकलीफ नहीं होने दी। तू भी अच्छा खाती—पहरती थी, चरका और तेरा बप्पा भी। ... पर तू करमजली, ऐसी पैदा हुई कि भुक्खे ‘टटा' दिया तूने मेरे को इस बुढ़ारी में।''
‘‘तो क्या करूॅं मइया, बाबू तो कभी मुॅंह भर कर मेरे से बात भी नहीं करते। हमेषा शैला की बात पर मेरे को डॉंटते ही रहते हैं। वह चुड़ैल भी हरदम मेरा जी जराती रहती है, मइया। वह तो जैसे कोई टोना—मंतर जानती है। बाबू उसके कस—काबू से छूटें तब न? शैला तो, कुछ झूठ—मूठ भी कह दे बाबू को तो ‘परतीत' कर लेते हैं। आज तो मेरे बारे में भी उस चोटि्टन ने झूठ लगा दिया था। बाबू ने भी परतीत कर के मेरे को ही डॉंट दिया था। बोले थे कि कोठी में काम करना है तो ठीक से कर, नहीं तो देख धौड़े का रास्ता। ... अब तू ही कह मइया, मैं क्या करूॅं? ... बाबू मेरे को जरा भी सटने देते तो क्या मैं ...''
‘‘चुप चोटि्टन। तू ही नहीं चाहती बाबू को कस में करना। शैला कोई ‘सोरग' की परी है क्या, जो बाबू उसे छाती से लगाये रहते हैं। चाहे मैं भी कोई सोरग की परी थोड़े ही थी कि बड़े बाबू मेरे पीछे पगलाये रहते थे। उमर भी तो तुझसे ज्यादा ही थी मेरी। मेरा तो ब्याह भी हो चुका था तेरे बप्पा से। ... सुन जूठन, कोई भी सोरग की परी नहीं होती। बाबू लोग को कस—काबू में करना पड़ता है। तू बाबू से हॅंस—हॅंस कर बतिआया कर। उनके आगे थोड़ी बेपरद बातें किया कर। फिर देख, बाबू कैसे तेरे आगे—पीछे घूमने लगते हैं।'' नषे में धुत्त सुकरी को यह भी नहीं सूझा था कि चरका उसके अपने पेट का जना था और जूठन उसकी बहन। उमर भी चरका की समझने—बूझने लायक हो गयी थी। उसके सामने जूठन से इतनी बेपर्द बात करते उसे जरा भी लाज नहीं आयी थी।
पर चरका मइया की बेपर्द बात शुरू होने के साथ ही वहॉं से गायब हो चुका था। उसे अपनी मइया की यह आदत पसंद नहीं शायद। इसीलिए जब भी वह जूठन से वैसी बातें किया करती थी, वह वहॉं से उठकर चला जाया करता था।
‘‘मइया, बात तो तू ठीक ही कहती है, पर बाबू मेरे से कभी कुछ बतिआयें तभी तो? बाबू पर तो शैला की चुड़ैल सवार रहा करती है हर—हमेषा। आज तो बाबू ने मेरे से शैला की देह भी दबवा दी। जिस चोटि्टन को खेल में मैं छाती पर चढ़कर पीटा करती थी, आज उसी की देह दबानी पड़ी। ... मन तो कर रहा था मइया कि उसी बखत से काम छोड़ कर चली आती, पर तेरे डर से...''
‘‘क्या कहा, काम छोड़ कर चली आती? ... देख जूठन, काम छोड़ कर आने की बात तो तू कभी सोचना भी ना। बस जी जॉंत कर पड़ी रह वहॉं। तू जानती नहीं ना, बाबू लोग के मन को, इसी से। अरे, औरत और मरद में चाहे कितना मेल क्यों न हो, मगर कभी न कभी कोई बात लेकर थोड़ी खटपट हो ही जाती है। तू तो बस उनका मन टोहती रह। और जैसे ही सुन उनके बीच कुछ कहा—सुनी, बाबू का उसके बारे में कान पकाना शुरू कर दे कि शैला तो जिस रात कोठी में नहीं आती, फलाने के साथ पड़ी रहती है सारी रात, कि वह रात में तो आपके पास आती है, पर दिन में ढिमाके का धौड़ा सधाये रहती है। यदि बाबू के दिमाग पर तेरी बात का असर हो गया तो समझ ले तेरा काम ‘चानी'। ... इसी को कहते हैं तिरिया—चरित्तर समझी?''
‘‘फिर कहती हॅूं मइया, बात तो तेरी सोलहो आने सही है। पर बाबू और शैला में कभी ‘मनफरकी' होगी तभी न! तब तक तो ऐसे ही दुख—दरिदर समाया रहेगा घर में। ... मेरे को तो नहीं लगता कि दोनों में कभी खटपट होगी। .... तू सोच, तेरे को ही कभी खटपट हुई थी बड़े बाबू से? तू मेरी बात मान ले मइया। जंगल में रेजा(मजूरिने) सब काम करती हैं कि नहीं? उन्हें भी तो पॉंच रूपये रोज की ही मजूरी मिलती है। तू बाबू से कह—सुन कर मेरा भी काम जंगल में ही लगा दे। चरका और मैं, दोनों काम करेंगे तो तेेरे को कभी कोई तकलीफ नहीं होगी। सच्ची मइया, शैला का मलकियाना अब मेरे से ‘बरदास' नहीं होता। वष चले मेरा, तो मुॅंह नोच लूं उस रंडी ......''
आगे की बात मुॅंह में ही रह गयी थी उसके। उसकी मइया ने उठकर ऐसी लात जमायी थी उसकी कमर में कि बैठे ही बैठे चीख मारकर छितरा गयी थी वह जमीन पर। उसके बाद भी उसके पैर थमें नहीं थे। लगातार, कमर, कूल्हे, पीठ और छाती पर जमते ही चले गये थे। लात के साथ—साथ मुॅंह भी चलता रहा था उसका, ‘‘हराम की जनी। रो—गाकर बाबू के पास तेरा काम लगवाया कि तू भी सुख से रहेगी और मेरे को भी दुख—तकलीफ नहीं होगी। यही दिन देखने की खातिर ना। ... काम छोड़ेगी कोठी का? खुद तो भुक्खे मरेगी और मेरे को भी मारेगी। भाग रंडी, भाग यहॉं से। फिर मुॅंह ना दिखाना मेरे को। इह्, काम नहीं करेगी बाबू के यहॉं। .... रॉंड़, चाहती ही नहीं बाबू को कस में करना। .... मैं तेरी बैरी हॅूं ना। अरे, आज हॅूं, कल माटी हो जाऊॅंगी। फिर देखने तो नहीं आऊॅंगी ‘उप्पर' से कि तू सुख में है या दुख में? यही न, जब तक जीती हॅूं, दो कौर भात और पैटी भर महुआ का आस है तेरे से। अगर तेरे वष का वह भी नहीं, तो मर हरामजादी। मेरे को क्या?'' धम्म से जमीन पर बैठ कर हांफती हुई वह फिर से गिलास में दारू ढालने लगी थी।
उस रोज की मार का असर जूठन की कमर पर आज भी मौजूद था। जब भी उसे उस दिन की याद आती थी, उसकी कमर टीसने लगती थी और जब भी उसकी कमर टीसती थी, उसके मुॅंह से अपनी मइया के लिये गंदी—गंदी गालियॉं निकलने लगती थीं, ‘‘रंडी, भतर—खौकी। इसी से तो रॉंड़ हो गयी भरी जुआनी में। बप्पा को सुख लिखा था ‘भाग' में, जो सोगर सिधार गया। अब मेरे को अपना भरतार बनाना चाहती है। भगमान चाहेगा तो मेरे को भी उठा लेगा एक दिन। फिर पीती रहेगी पैटी भर—भर महुआ और भट्टी वाली दारू। ... चरका भी कब तक सहता रहेगा यह सब? ब्याह करके अपनी घरवाली के साथ दूसरा धौड़ा कर लेगा। मेरा ‘सराप' पड़ा तो ‘गुॅंह—गीज' कर मरेगी बुढ़िया। मेरे को ....''
अचानक गाड़ी की तेज रोषनी में ऑंखें चुंधिया गयी थीं उसकी। सोच में वह इस तरह गुम थी कि गाड़ी की आवाज की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया था। उठकर वह खड़ी हो गयी थी।
बाबू शहर से लौट आये थे।
गाड़ी को कोठी से सटे, गैरेज में लगाकर छाता ओढ़े वे बरामदे पर जूठन के पास आ खड़े हुए थे। उससे चाबी लेते हुए उन्होंने पूछा था, ‘‘लैम्प—वैम्प तो कमरे में जला दी है न?''
‘‘जी!''
‘‘और तू गयी नहीं अब तक?''
‘‘जी, पानी गिरना बन्द होता तब ना। संझा पहर से तो पानी ही गिर रहा है। .... और दुर्गा भी तो पता नहीं कहॉं चला गया है। चाबी किसे देती?''
बिना कुछ बोले चाबी लेकर वे दरवाजा खोलने लगे थे।
‘‘बाबू ... मैं अब जाऊॅं धौड़ा?'' सकुचाते हुए उसने पूछा था।
‘‘इतने पानी में? पागल हो गयी है क्या?''
चाह कर भी वह नहीं कह पायी थी, ‘‘बाबू। पानी तो रात भर गिरता रहेगा। तो क्या मैं रात—भर यहीं बैठी रहॅूंगी?'' बाबू के आगे वह क्यों इतना असहाय हो जाती है, उसे स्वयं पता नहीं। शैला तो, जब देखो तब, उनसे टन—टन बतिआती रहती है। हंसी—ठट्ठा भी कर लेती है।
बाबू तो कमरे में चले गय थे। वह फिर से दीवार से टेक लगा कर बैठ गयी थी।
थोड़ी देर में कमरे से बाबू की आवाज आयी थी, ‘‘जूठन। यहॉं आना तो।''
धड़फड़ायी हुई उठ कर वह कमरे में दाखिल हो गयी थी।
‘‘कोई आयी तो नहीं थी? ... शैला ... या काई भी।''
चिढ़ गयी थी वह एकदम से। शैला के तो नाम से ही उसे नफरत थी। मन हुआ था उसका कि कह दे, ‘‘मैने कोई ठेका ले रखा है उन छिनालिनों का कि ध्यान रखा करूॅं, कौन आयी और कौन नहीं? मरे हरामजादियॉं। मेरे को क्या?'' पर मुॅंह से बस इतना ही निकाल पायी थी, ‘‘नही ंतो .... कहॉं।''
‘‘अच्छा, तू बैठ बाहर। अभी जाना मत। वैसे भी पानी छूटेगा, तब ही तो तू जायेगी। पानी छूूट जाय तो बोल कर चली जाना। कुछ काम—वाम पड़ सकता है तुझसे।''
‘‘जी।''
‘‘कहीं शैला—वैला कोई नहीं आयी तो खाना कौन गरम करेगा? इसी से रोक रहा हॅूं तुझे।''
‘‘जी।''
‘‘ठीक है, तू जाकर बैठ बाहर। काम हुआ तो बुला लूंगा तुझे।''
‘‘जी।'' जाकर वह फिर से बरामदे में बैठ गयी थी। ‘‘इह्, आज ठेंगा आयेगी कोई। शैला, इमरती, फुलवा कोई भी नहीं। किसकी मइया ने किसको गुड़ खिलाकर पाला है कि इस चुड़ैल—सी झमझमाती रात में आयेगी? इस बखत तो चाहे जो हो जाता, मैं भी थोड़ी ही आती? बाबू ने बुलव्वा भेजा होता, तौ पर भी नहीं। वह तो फॅंस गयी मैं। दिन भर कोठी में जरती—मरती रही ओर जब जाने का ‘बखत' हुआ, बज्जड़ पड़े इस पानी को कि झमझमाना शुरू हो गया। चली तो इस पानी में भी जाती, मगर बाबू ने जो रोक लिया है। अब क्या पता, कितनी देर तक और परेंगे वे मेरे को? ... बाबू की तो बाबू ही जानें, कब मन हो उन्हें खाने का और कब कहें खाना गरम करने को?'' मन खीझ से भर उठा था उसका। सबसे अधिक गुस्सा तो उसे दुर्गा पर आ रहा था कि वही बखत पर आ गया होता तो...''
‘‘जूठन।'' कमरे से फिर बाबू की आवाज आयी थी।
‘‘आयी बाबू।'' फिर से वह कमरे में दाखिल हो गयी थी। इस बार की पुकार से मन कुछ हल्का हुआ था उसका। ‘‘अब शायद जान छूटेगी यहॉं से। जल्दी—जल्दी खाना गरम करके परोस दूंगी बाबू को, फिर चली जाऊॅंगी धौड़ा।'' मगर कमरे में पहुॅंच कर उसका सारा उत्साह ही ठंडा हो गया था।
बाबू पलंग के सिरहाने तकिया से उठंग कर बैठे थे। पलंग से सटे टेबुल पर लैम्प के पास अंग्रेजी दारू की बोतल और कागज में लिपटी कोई चीज रखी थी। बोतल की विषालकाय परछाई ने बाबू के चेहरे और आधे बदन को ढक लिया था।
‘‘तू अंदर ही आकर बैठ जूठन। बाहर से कितनी दफा बुलाता रहॅूंगा? ... और हाथ बढ़ाकर दरवाजे की सिटकनी लगा दे। कोई आयेगी तो खुलवा लेगी।''
कहॉं तो वह खाना गरम करके धौड़ा लौटने की सोच कर आयी थी और कहॉं जेलखाने में बंद हो गयी। मन ही मन ऐंठ कर वह दरवाजा बंद करने मुड़ गयी थी।
‘‘अब जरा, एक गिलास, प्लेट और जग में पानी ला दे।''
‘‘जी।'' सबकुछ लाकर उसने टेबुल पर रख दिया था।
अपने हाथ से कागज वाली चीज को बाबू ने प्लेट में रखा था। फिर गिलास में अंग्रेजी दारू ढाल, उसमें पानी मिलाकर घूंट—घूंट पीने लगे थे। फिर सिकार का एक टुकड़ा मुॅंह में डालकर, कलाई—घड़ी देखते हुए बुदबुदाये थे, ‘‘दस बज गये ..... अब तक कोई नहीं आयी साली। अब इतनी रात गये थोड़े ही आयेगी? पानी भी साला छूटने का नाम नहीं ले रहा।'' गिलास की बची हुई दारू हलक से उतारकर उन्होंने दूसरी पैग तैयार करनी शुरू कर दी थी।
जूठन ने अब तक अपनी खीझ पर काबू पा ली थी। सोच लिया था उसने कि बाबू इतनी जल्दी उसे छोड़ने वाले नहीं — जब तक उन्हें भरोसा नहीं हो जाता कि शैला या कोई भी अब नहीं आयेगी— ‘‘पेर लें, जितना पेरना हो। ... आज भर ही न। आज के बाद फिर हाथ आयेगी जूठन — ‘बलइया'। पानी गिरे कि पत्थर, अब मैं यहॉं रूकूंगी कभी—ठेंगा।'' खड़ी—खड़ी वह टेबुल पर रखी बोतल और सिकार को एक टक निहारने लगी थी।
खड़े—खड़े उसके मन में विचार उठा था, ‘‘रोक लिया है बाबू ने तो क्या हुआ। उन्हीं का न दिया हुआ खाती हॅूं। एक रोज देर से धौड़ा जाऊॅंगी। कौन है, मेरे से पूछने वाला कि काहे देरी हुई। मइया तो महुआ पी कर धौड़े के कोने में पड़ी ‘फोंफ' काट रही होगी। उसे क्या, कि उसकी बेटी धौड़ा लौटी या बाघ—भालू उसे खा पका गया? उसे तो बस महुआ चाहिये।''
महुआ की याद आते ही उसकी देह में ठंड की हल्दी सिहरन दौड़ गयी थी, ‘‘बाबू इस बरसात में दो घूट अंग्रेजी दारू का चखा देते तो जी ‘तर' जाता। जरा देखती, कैसा होता है अंग्रेजी दारू का ‘सुआद'। देह भी गरमा जाती थोड़ी। ... शैला तो रोज पीती होगी बाबू के साथ।'' उसकी ऑंखें अपलक टेबुल पर रखी बोतल पर टिकी हुई थीं। बेखयाली में उसका ऑंचल ढलक कर जमीन सहलाने लगा था और उसके फटे हुए ब्लाउज से भीतर का सॉंवला उभार अंषतः बाहर झॉंकने लगा था।
बाबू की नषे से बोझल, गुलाबी ऑंखें दरवाजे के पास खड़ी जूठन पर पड़ी थी। पूरी देह पर से फिसलती हुई उनकी ऑंखें उसके ब्लाउज पर जाकर टिक गयी थी।
अचानक बादल की जोरदार गरजन से पूरा कमरा थर्रा गया था। खड़ी—खड़ी जूठन एकदम से हड़बड़ा गयी थी। उसकी ऑंखें पल भर के लिये बाबू की ऑंखों से टकरा गयी थीं। उसे अपनी स्थिति का एहसास हुआ था। झट उसने जमीन सहलाते अपने ऑंचल को खींचकर अपने सीने को ढक लिया था।
कुछ देर के लिए कमरे में मरघटी सन्नाटा छा गया था। बाबू की ऑंखें, जूठन के सीने के ढक जाने के बाद भी वहीं टिकी रह गयी थीं, मगर जूठन की ऑंखें जमीन टटोलने में मषगूल थीं।
अचानक बाबू के चेहरे पर एक अर्थ भरी मुस्कराहट उभर आयी थी। फिर उस सन्नाटे भरे माहौल में उनकी आवाज उभरी थी, ‘‘षराब तो तू पीती होगी जूठन?'' उनकी आवाज में लड़खड़ाहट थी।
जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गयी हो, वह चौंक गयी थी — उसके मन की बात बाबू कैसे जान गये थे ?
वह ‘हॉं' कहे या ‘नहीं', कुछ निर्णय कर पाती, इसके पूर्व फिर से बाबू ही बोल पड़े थे, ‘‘पीती तो होगी ही। ... बस्ती की कौन लड़की है, जो शराब नहीं पीती? यह अलग बात है कि अंग्रेजी नहीं, महुआ पीती है। ... पर पीती तो जरूर है। ... आ, आज अंगे्रजी पी ले। तू भी क्या याद करेगी कि बाबू के यहॉं काम कर के अंग्रेजी नहीं पी।''
जूठन का सीना लोहार की भॉंती की तरह धड़कने लगा था। ‘‘कहीं बाबू का दिमाग—उमाग तो खराब नहीं हो गया है? शैला सुनेगी तो मुॅंह नोच लेगी बाबू का।'' मगर तुरंत ही उसके दिमाग में आया था, ‘‘इह्। बड़ी आयी मुॅंह नोचने वाली। ... बाबू की मरजी, जिसे चाहें, खिलायें—पिलायें। वह भी कोई बप्पा का अरजा खाती है क्या? ... बाबू की ही जूठन पर मौज करती है न। ... फिर उसे क्या? बाबू जूठन को मानें कि रूकमी को।'' उसके सॉंवले चेहरे पर शर्म की एक हल्की गुलाबी पर्त उभर आयी थी।
‘‘अजीब झक्की लड़की है तू। सुना नहीं तूने। मैं बुला रहा हॅूं तो नखरे क्या दिखा रही है? सोच ले, मैं कभी—कभी और किसी—किसी को ही अपने पास फटकने देता हॅूं। और जिसे भाव देता हूॅूं, उमर भर के लिये सुखी हो जाती है। ... चल, आ इधर।''
अचानक उसकी कमर फिर से टीस उठी थी। मइया की लात की याद फिर से उसके दिमाग में कौंध गयी थी। मगर इस टीस में उसने एक मिठास का अनुीभव किया था। टीस के साथ—साथ एक पुलक भरी सिहरन उसकी देह में समाती चली गयी थी।
बाबू कभी उसे इतना भाव देंगे, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। अनेक खुषफहमियों ने उसके दिमाग में भूचाल पैदा करनी शुरू कर दी थी, ‘‘अब मइया मेरे को कभी नहीं मारेगी। खूब दुलार करेगी। हमेषा मेरी ‘मनौअल' में लगी रहेगी। ... मैं भी अब शैला की तरह बड़े—बड़े फूलों के छापे वाली रंगीन साड़ी पहन कर बस्ती—भर मटकती फिरूंगी। इमरती और फुलवा अब मेरा भी तलवा सहलाया करेंगी। पर उन्हें तो मैं सटने भी नहीं दूंगी। साफ कह दूंगी उनसे कि जायें छिनाल शैला के पास ही। मेरे को नहीं उनसे तलवा सहलवाना। ... हॉं। रूकमी बेचारी बहुत दुखी है। उसे कभी—कभी बाबू के पास जरूर भेज दिया करूंगी। उसकी ‘मदत' तो मैं जरूर ...''
‘‘सोचने क्या लगी खड़ी—खड़ी? ... मुझे लड़कियों के ये नखरे बिल्कुल पसंद नहीं। आना है तो आ, वर्ना तेरी मरजी।'' बाबू का लहजा कुछ सख्त हो गया था।
लजौनी—सी लजाती—सकुचाती बाबू की ओर बढ़ गयी थी वह — सुहागरात में जैसे सुहाग—सेज की ओर बढ़ रही हो। सिफर नीचा किये हुए वह टेबुल के पास जाकर खड़ी हो गयी थी।
‘‘वहॉं क्यों खड़ी हो गयी? आ, इधर पलंग पर बैठ जा।'' हाथ पकड़ कर उन्होंने उसे पलंग पर खींच लिया था। फिर उसके कंधे को अपने बॉंए हाथ के घेरे में लेकर दॉंए हाथ में पकड़े गिलास को जबरन उसके मुॅंह से लगा दिया था।
किसी भी पुरूष—देह के स्पर्ष से आज वह पहली बार परिचित हुई थी। उसकी पूरी देह में बिजली—सी दौड़ गयी थी। उसकी ऑंखों के आगे वर्षों पुरानी वाली अपनी मइया की नंगी देह नाच गयी थी — बड़े बाबू के नंगे शरीर से लिपटी मइया की नंगी देेह। पर आज उसके चेहरे पर घिन का भाव नहीं उभरा था। घिन की जगह उसके चेहरे पर एक अर्पूव दर्प दपदपा उठा था।
आहिस्ते—आहिस्ते उसने पूरा गिलास खाली कर दिया था। ऐसा सुनहरा मौका वह हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी। जरा भी ‘ना—नुकुर' उसने नहीं की थी। अपने किसी भी व्यवहार से वह बाबू को नाखुष करना नहीं चाहती थी।
अंगे्रजी दारू की कड़वाहट में भी उसे मिठास का मजा आया था। महुआ या भट्ठी की दारू तो वह जब कभी भी पीती थी, उसकी बास देर तक उसकी सॉंसों में समायी रहा करती थी।
‘‘मैं भी अजीब ही हॅूं जूठन। दरअसल काम—काज से फुरसत ही नहीं मिलती कि तुझपर कभी ध्यान दे पाऊॅं। कहने को तो तू बाबू की कोठी में काम करती है पर साड़ी, कैसी फटी मैली पहन रखी है? ... तेरे पास दूसरी साड़ी है ही नहीं शायद। ... अच्छा, कल रॉंची जाने लगूंगा तो याद दिला देना। लेता आऊॅंगा केाई अच्छी—सी साड़ी। ... तू भी तो वैसी ही है। साड़ी नहीं थी तो बोलना चाहिये था। अक्सर तो जाता ही रहता हॅूं रॉंची। ... खैर। कोई बात नहीं। कल जरूर से याद दिला देना।'' बाबू पर नषा कुछ ज्यादा ही चढ़ गया था। उनके बोलने का ढंग कुछ ऐसा था, जैसे वे बोल नहीं बड़बड़ा रहे हों।
जूठन के दिमाग में तो उस समय साड़ी—वाड़ी कुछ थोड़े ही थी। उसके लिये तो वह रात, जैसे पूरे जीवन में किये गये पुण्यों का प्रतिफल थी। दुनिया की सबसे बड़ी तकदीर वाली वह स्वयं को समझ रही थी उस समय।
''जूठन।''
‘‘जी ई ऽ।'' उसकी आवाज में भी लड़खड़ाहट आ गयी थी।
‘‘लगता है, आज शैला—वैला कोई नहीं आयेगी। एक तो रात अधिक हो गयी है, ऊपर से यह बरसात। अब तो किसी के आने का सवाल ही नहीं उठता। ... ऐसा कर, तू ही ठहर जा आज की रात। तेरी मइया को मैं कल बोल दूंगा कि कोठी में कुछ काम था, इसलिये मैंने रोक लिया था तुझे। ... और मैं सोच रहा हॅूं कि इतने कम पैसों में तुम लोगों का गुजारा कैसे होता होगा, इसलिये चरका की मजदूरी भी कुछ बढ़ा दूं। ... अरे, कुछ खाती क्यों नहीं तू? और यह पूरी बोतल, क्या मैं अकेले ही पीऊॅंगा?'' उन्होंने सिकार का एक टुकड़ा अपने हाथ से उठाकर उसके मुॅंह में ठूस दिया था।
अंग्रेजी दारू का नषा धीरे—धीरे जूठन पर चढ़ने लगा था। उसकी ऑंखों का रंग गुलाबी हो गया था और उसमें लाल—लाल डोरे तैरने लगे थे। उसकी झिझक भी अब कम होने लगी थी। अबकी तिरछी ऑंखों से उसने बाबू की ओर देखा था। फिर अपने हाथ से गिलास में दारू ढाल, बिना पानी मिलाये ही गट—गट पी गयी थी। गिलास को टेबुल पर रखकर उसने फिर से बाबू की ओर देखा था। बाबू भी मुस्कराते हुए उसकी ओर ही देख रहे थे। एक निर्लज्ज मुस्कराहट उसके चेहरे पर भी खेल गयी थी।
बाहर से आती बारिष की झमझमाहट में अब काफी षिथिलता आ गयी थी। मगर लग रहा था, जैसे आकाष के सारे बादल कमरे में ही सिमटने लग गये हों और थोड़ी देर में कमरे के अन्दर ही वर्षा का माहौल तैयार हो जायेगा।
बाबू ने जूठन के हाथ केा पकड़कर कुछ इस प्रकार, झटके से अपनी ओर खींचा था कि नषे से बोझल उसकी ढीली—ढाली देह उनकी ओर झुकती ही चली गयी थी। उसका सिर अब उनकी गोद में था और बाकी की देह, सिमटी—सिकुड़ी—सी पलंग पर। उनके हाथ फिसल—फिसल कर उसके बाल, गाल और जिस्म को टटोलने लगे थे।
जूठन की ओर से कोई प्रतिवाद, कोई संकोच नहीं था। ऑंखें तो उसकी मुंदी हुई थीं, मगर चेहरे के भाव से लग रहा था कि वह अब महज समर्पण की परिभाषा बन कर रही गयी थी।
पलंग पर पड़े—पड़े ही बाबू ने टेबुल पर रखे लैम्प को मद्धम करने के लिये हाथ बढ़ाया ही था कि —
‘‘ठक ... ठक... ठक।'' अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई थी।
उनका हाथ जहॉं का तहॉं ठिठक गया था।
गहरे नषे में होने के बावजूद, जूठन भी उनकी गोद से उठती हुई संभल कर बैठ गयी थी।
कमरे के सन्नाटे को तोड़ती हुई बाबू की खीझ भरी आवाज उभरी थी, ‘‘कौ औ न?''
‘‘खोलिये न। मैं हॅूं। ... शैला।''
‘‘ओ... शैला?'' इस नाम के सुनने के साथ ही उनके सिर से, जैसे जूठन का भूत पल भर में उतर गया था। लैम्प को मद्धम करने के लिये अपने बढ़े हुए हाथ को उन्होंने खींच लिया था।
जूठन भी शैला की आवाज सुनने के साथ ही बाबू की ओर देखने लगी थी — उसे उनके अगले आदेष की प्रतीक्षा हो, मानो।
बाबू के चेहरे का भाव अब कुछ क्षण पहले जैसा नहीं रहा था। जूठन की ओर देखकर उन्होंने कहा था, ‘‘जा, जाकर दरवाजा खोल दे। जब शैला आ ही गयी है तो तुझे क्यों रोकॅूं। बारिष भी छूट ही गयी है शायद।'' फिर जेब से एक दस रूपये का नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘ले, ये रख ले और जल्दी से जाकर दरवाजा खोल दे।''
अपनी लाल—लाल ऑंखों से उन्हें घूरती हुई वह पलंग से उतर कर अपने अस्त—व्यस्त कपड़े ठीक करने लगी थी। उसके चेहरे पर चोट खायी नागन का फन उग आया था। वष में होता तो डस भी लेती बाबू को शायद। उसका अंतस फुंकार उठा था।
पर नहीं, वह बाबू को कभी नहीं डस सकती, क्योंकि वह नागन तो है, मगर सपेरे की नागन, जिसके दांत सपेरे तोड़ कर रखते हैं।
‘‘ठक ... ठक... ठक... ठक। खोलिये न दरवाजा।'' शैला की कोफ्त भरी आवाज फिर से आयी थी।
‘‘अब तीन घंटे से साड़ी क्या ठीक कर रही है? जल्दी से जाकर दरवाजा क्यों नहीं खोलती ?''
एक बार अपनी बेवस दृष्टि बाबू पर डाल कर वह दरवाजे की ओर मुड़ गयी थी।
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