24.11.2015
(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 50, शब्द-संख्या 16,299)
कहानी-संग्रह (ई-बुक)
वह उदास लड़का
प्रकाश मनु
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545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. +91-9810602327
मेलआईडी -
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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय
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जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।
शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।
लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।
इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।
हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।
पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।
पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)
मो. +91-9810602327
ई-मेल –
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भूमिका
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ई-बुक्स की दुनिया में मेरी नई पुस्तक ‘वह उदास लड़का’। पुस्तक में मेरी चार बहुचर्चित कहानियाँ शामिल हैं—‘वह उदास लड़का’, ‘लुंबा’, ‘साड्डी रेलगड्डी आई’ और ‘कानून का रखवाला’।
ये सभी कहानियाँ किसी न किसी अर्थ में सामाजिक संदर्भों से जुड़ी कहानियाँ हैं जो मन में तीखे सवालों पर सवाल खड़े करती हैं। इस लिहाज से संग्रह में शामिल कहानियाँ पाठकों को भी नए सवालों की रोशनी में, खुद को और अपने समाज को देखने के लिए प्रेरित करती हैं। साथ ही ये कहानियाँ हमें कहीं अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाती हैं, जिससे समाज में किसी का भी दुख हमें अपना दुख जान पड़ता है। किसी के भी साथ हुआ अन्याय या अत्याचार देखकर हमारी आत्मा क्रंदन करती है और हमारे भीतर कहीं अधिक उदार होने की पुकार पैदा हो जाती है।
इन कहानियों में ‘वह उदास लड़का’ सबसे अलग कहानी है। एक छोटे-से बच्चे बब्बू के दुख और लाचारी की कहानी। पर इसी दुख और असहायता के बीच ही उसे जीवन की डगर मिलती है और अपनी मेहनत और हिम्मत से वह रास्ता बना लेता है। बब्बू के पिता नहीं हैं, माँ कराहती हुई बीमार। इसी हाल में वह कहानी के वाचक आनंदमोहन सर को मिला। उस समय स्कूल के बच्चों की पिकनिक थी। रोज गार्डन में पिकनिक के लिए पहुँचे सब बच्चे खुश थे, उछल-कूद रहे थे, हँस रहे थे, पर वहीं एक बच्चा कोने में उदास बैठा था। यही था बब्बू। उसे थोड़ी सहायता मिलती है। उसके सामने आशा की लौ टिमटिमाती है, कुछ करने का सपना जागता है जिससे वह खुद और माँ दोनों लाचार न रहें। वह पूरी-छोले बनाकर बेचने लगता है। यहाँ भी बहुत झंझट-झमेले। बहुत परेशानियाँ उसने सहीं, पर फिर मदद करने वाले भी मिलते गए।...मेहनतकश गरीब लोगों का पेट भर जाए, इसलिए वह सस्ते पूरी-छोले बेचता है। पर सस्ते होने पर भी बढ़िया और स्वादिष्ट। धीरे-धीरे तरक्की करके वह जहाँ पहुँचता है, उसे देखकर हर किसी के होंठों पर बब्बू की तारीफ है।
‘लुंबा’ एक अलग परिवेश की कहानी है। असल में लुंबा एक बच्चा है, जो बरसों से जंगल में रहते-रहते वन्य जीवों जैसा ही आचरण करने लगता है। एक दिन सेठ बावनदास ने उसे देखा तो मन में बड़ा कौतुक हुआ। नौकरों की मदद से वे उसे पकड़कर घर ले आए, पिंजरे में डाल दिया। उस पर टिकट लगा दिया गया। अच्छी-खासी कमाई होने लगी। सेठ बावनदास उसे एक सर्कस कंपनी को बेचना चाहते हैं। पर उससे पहले ही उनके बेटे ने, जिससे लुंबा की पीड़ा देखी नहीं जा रही थी, कुछ ऐसा कर दिया कि सेठ बावनदास हक्के-बक्के रह गए। गुस्से के मारे वे अपने बेटे की बेंत से पिटाई करते हैं...पर फिर पत्नी योगदाया की बातों से एकाएक उनकी आँखें खुलती हैं। समझ में आ जाता है कि वे कितना बड़ा अनर्थ कर रहे हैं। कहानी का अंत मर्मस्पर्शी है और पाठकों के मन में वन्य जीवों के प्रति करुणा उत्पन्न करता है।
‘साड्डी रेलगड्डी आई’ कहानी में यथार्थ है, हास्य और तीखा व्यंग्य भी। एक तरह से अपने मुल्क में रेलगाड़ियों की हालत पर एक व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष की तरह है यह कहानी, जिसमें बीच-बीच में हास्य-विनोद की मीठी चुटकियाँ भी हैं। ‘साड्डी रेलगड्डी आई’ की रेलगड्डी भी असल में इस विराट हिंदुस्तान की तरह ही है, जिसमें एक साथ कई तरह की शक्लें, कई सदियाँ और कई तरह के लोग मौजूद हैं। कोई अपने सुख और आमोद के नशे में डूबा हुआ, कोई बेहद दुखी औऱ असहाय। कहीं करुणा उत्पन्न करके यात्रियों की जेब से पैसा निकलवा लेने का नाटक, तो कहीं इस सबसे बेपरवाह, अपनी-अपनी अकेली दुनियाओं में खोए लोग।... यों रेल के एक ही कंपार्टमैंट में साथ-साथ यात्रा कर रहे लोगों के बीच एक साथ कई दुनियाएँ मौजूद हैं। कहानी में उनका दीदार पाठकों को रोमांचक लगेगा।
इसी तरह ‘कानून का रखवाला’ में यथार्थ की एक बिलकुल अलग शक्ल है। यह हमारे देश की पुलिस और व्यवस्था का असली चेहरा उघाड़ देने वाली कहानी है। जिस गरीब आदमी के साथ अन्याय हुआ है, वह अपने दुख और मर्मांतक पीड़ा के साथ पुलिस थाने पहुँचता है, पर वहाँ रपट लिखने में किसी की रुचि नहीं है। अन्यायी को पकड़ने और सजा देने का तो सवाल ही नहीं। थानेदार के लिए तो मामला बस इतना ही है कि जो रपट लिखवाने आया लहूलुहान शख्स है, उससे या उसके घर-परिवार के लोगों से कुछ रकम झटक ली जाए। ऐसे में न्याय के लिए आदमी कहाँ जाए? किससे फरियाद करे? कौन है जो गरीब आदमी का दुख-दर्द सुनने को तैयार है? ‘कानून का रखवाला’ कहानी ऐसे सवालों पर सवाल खड़े करती है और पाठक को अपने समाज और व्यवस्था की असली शक्ल से रूबरू करा देती है।
सच तो यह है कि इस पुस्तक में शामिल कहानियाँ सीधे-सीधे जिंदगी की रोजमर्रा की हलचल से निकली कहानियाँ हैं। लिहाजा एक बार पढ़ने के बाद आसानी से भूलती नहीं हैं और हमेशा-हमेशा के लिए हमारे और आपके जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन जाती हैं। यों भी मेरा अनुभव है कि लीक से हटकर लिखी जाने वाली कहानियों में आज के पाठक की बहुत रुचि है, बशर्ते इन कहानियों के पीछे अनुभव सच्चे, मार्मिक और भीतर तक झिंझोड़ने वाले हों।
ई-बुक के रूप में पहली बार सामने आई इन कहानियों पर सुधी पाठकों की प्रतिक्रियाओं की मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।
24 नवंबर, 2015
प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. +91-9810602327
कहानी-क्रम
वह उदास लड़का
लुंबा
साड्डी रेलगड्डी आई
कानून का रखवाला
1
वह उदास लड़का
प्रकाश मनु
*
हमारे स्कूल में कोई प्रोग्राम हो, खासकर टूर का तो बच्चों को मुझे आनंदमोहन सर की सबसे पहले याद आती है। वे दूर से चीखते हुए आते हैं, “सर-सर, आप चलेंगे न हमारे साथ...चलेंगे? प्रॉमिस!”
और फिर उसी तरह दौड़ते-भागते और हाँफते हुए वे प्रिंसिपल मैडम मनचंदानी के पास जाकर कहेंगे, “मैडमजी, मैडमजी, आनंद सर भी जा रहे हैं न हमारे साथ?”
प्रिंसिपल मनचंदानी कुछ न कहकर मुसकराते हुए सिर हिला देती हैं। फिर मुझे बुलाकर थोड़ी खीजी हुई मुसकराहट के साथ कहती हैं, “पता नहीं आपने कौन सा जादू डाल दिया इन बच्चों पर। लीजिए, मि. आनंद, अब आप ही सँभालिए। इस बार का पिकनिक टूर भी आपके नाम!”
और मुझे ‘बंदा हाजिर है’ की मुद्रा में सिर झुकाते देर नहीं लगती।
अब आपसे झूठ क्यों बोलूँ, यह मुझे भी अच्छा लगता है, बहुत-बहुत अच्छा! बच्चे जब स्कूल की चारदीवारी से बाहर खुले जीवन के बीच आते हैं, प्रकृति की गोद में, तब यकीन मानिए, वे फूलों की तरह खुलते, खिलते हैं। और तब लगता है कि वे बच्चे हैं, सचमुच बच्चे! ऐसे ही क्षणों में उनके भीतर पढ़ाई के बोझ से दबा-कराहता बचपन मानो एकबारगी छनछनाने लगता है।
ऐसे इतने किस्से हैं मेरे पास, इतने किस्से कि आप सुनते-सुनते थक जाएँगे पर मेरे किस्से खत्म नहीं होंगे। और उनमें कुछ ऐसा है कि उन्हें कहते-सुनते हुए मैं अपने बचपन के जादुई संसार में चला जाता हूँ। बहुत-सी सख्त दीवारें किले की तड़कती हैं और...और...
खैर, आज मैं आपको सुनाऊँगा...और अगर पहले आपने नहीं सुना तो बब्बूजी के बारे में आप जरूर सुनना पसंद करेंगे। यों कहानी में ऐसा कुछ खास नहीं जिसमें ग्लैमर हो। पर बब्बूजी के चेहरे में ऐसा कुछ तो जरूर है कि उसे मैं भूल नहीं पाता और लाखों लाख चेहरों में वह अलग पहचान में आ जाता है।
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कहानी कहते हुए फिर एक मुश्किल! असल में कहानी मैं आज के बब्बूजी की कहना चाहता हूँ, पर आज से पाँच-छह साल पहले के बब्बू का चेहरा बार-बार मेरी आँखों के सामने आ-जा रहा है। तब पहले-पहल उसे देखा था। इतना सीधा, इतना सरल और भोला कि उसे देखते ही लगता था, यह बच्चा भीतर-बाहर से सच्चा है। और झूठ तो यह बोल ही नहीं सकता। लिहाजा जो कुछ यह कह रहा है, उस पर यकीन करो!
हालाँकि ऐसा कहा भी क्या था उसने? वह तो चुप, एकदम चुप ही था और बहुत कुरेदने पर ही कोई एकाध वाक्य उसके मुँह से निकला था। बस, एकाध वाक्य ही। टुकड़ा-टुकड़ा...!
हुआ यह है कि हमारे स्कूल आदर्श गाँधी बाल निकेतन के बच्चों की पिकनिक का प्रोग्राम था। सबको दिल्ली जाने की उत्सुकता थी और बस में उन्होंने जो कोहराम मचाया और गाने गाए, उससे मालूम पड़ता था कि आज का दिन बच्चों के लिए एक ऐसा मजेदार, यादगार दिन होने वाला है जिसे वे हमेशा-हमेशा के लिए सँजोकर रखें। और सचमुच वैसा हुआ भी। हलकी-हलकी सर्दियों की शुरुआत थी और गुनगुनी धूप ने पिकनिक के मजे को और बढ़ा दिया था।
पुराना किला घूमने के बाद सबने साथ वाली झील में नौकाविहार का भरपूर आनंद लिया था। इस बीच खूब गाने गाए गए, खूब गपशप, खूब मजाक। यहाँ तक कि कुछ बच्चों ने मौज में आकर नाचकर भी दिखाया। पिकनिक ने जैसे सभी में ताजगी और मस्ती भर दी थी।
फिर रोज गार्डन देखने का प्रोग्राम बना और किस्म-किस्म के रंग-बिरंगे गुलाबों को देखकर बच्चे ऐसे मगन थे जैसे उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा खजाना पा लिया हो। आज पहली बार मुझे पता चला, बच्चों के नेहरू चाचा के गुलाब-प्रेम का रहस्य! बच्चे ही तो गुलाब हैं और गुलाब बच्चे जैसे सुर्ख और प्यारे-प्यारे।
रोज गार्डन देखते-देखते दोपहर हो गई थी। सब बच्चे अपना-अपना लंच लाए थे। लंच के बाद हम बाहर आकर खड़े हुए तो सब बच्चों की पहली फरमाइश थी आइसक्रीम! किसी को कप पसंद था, तो किसी को चॉकलेट बार। किसी की पसंद औरेंज बार!... अलबत्ता बच्चे आइसक्रीम खा रहे थे, तभी एक बच्चे की ओर मेरा ध्यान गया। इन बच्चों से अलग एक उदास और मैला-सा बच्चा। वह एक कोने में खड़ा आइसक्रीम खाते बच्चों को दूर से देख रहा था और उदास था, बेहद उदास।
कोने में खड़े उस साँवले बच्चे की उदासी जाने कैसी थी कि उसने मुझे झकझोर डाला।
अभी मैं उसके पास जाकर उससे बात करने की सोच ही रहा था कि उससे पहले ही एक छोटी-सी बच्ची पारुल उसकी तरफ बढ़ी। पारुल के हाथ में आइसक्रीम का कप था जिसे उसने अभी खाना शुरू नहीं किया था। उस मैले, उदास बच्चे को देखकर जाने कैसी करुणा पारुल के मन में उपजी होगी कि उसने खुद खाने के बजाय, वह कप उस बच्चे को देना पसंद किया। बड़े प्यार से बच्चे की ओर वह कप बढ़ाते हुए बोली, “खाओगे न...लो, खाओ!”
सुनकर बच्चे के चेहरे पर ऐसे भाव दिखाई पड़े जिनकी मैंने कल्पना नहीं की थी। बच्चा बिलकुल शांत अपनी जगह पर खड़ा था। अडोल। उसने जरा भी आगे बढ़कर आइसक्रीम का कप पकड़ने की उत्सुकता प्रकट नहीं की।
इस बीच पारुल ने आइसक्रीम वाले से एक औरेंज बार खरीद ली थी। उसे बच्चे को दिखाकर बोली, “तुम्हें शायद कप पसंद नहीं। तो लो, यह औरेंज बार खा लो।”
मैं गौर से, बल्कि खासी उत्सुकता से उस उदास, सहमे हुए बच्चे और पारुल की ओर देख रहा था।
पारुल की सहृदयता ने मुझे रिझा लिया था। मुझे हमेशा वह औरों से अलग और समझदार बच्ची लगती थी। पर आज तो उसने साबित भी कर दिया कि वह सचमुच सबसे अलग है।
और वह मैला, उदास बच्चा! उसके चेहरे पर अब भी झिझक थी। अब भी वह हाथ बढ़ाकर उस औरेंज बार को थामना नहीं चाह रहा था। और बच्चों के लिए यह हैरानी की बात थी। सभी अजीब ढंग से उसे देख रहे थे। अरे, यह कैसा बच्चा है जिसे मुफ्त में आइसक्रीम मिल रही है और वह उसे खाना नहीं चाहता।
लेकिन पारुल का हठ इतना अधिक था और उसके स्वर में इतनी मिठास और इतना अपनापन था कि बच्चा अबके मना नहीं कर पाया। उसने आगे हाथ बढ़ाया और औरेंज बार ले ली।...आइसक्रीम खाते हुए उसके चेहरे पर जो भाव थे, उन्हें प्रकट करना मेरे बस की बात नहीं। लगता था, उसकी एक आँख हँस रही है, एक रो रही है। जाहिर है, उसे बहुत दिनों के बाद आइसक्रीम खाने को मिली थी और इस खुशी की चमक उसकी आँखों में थी। पर बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। उसकी आँखों में कुछ और भी था। कुछ और जो मन में अजब तरह की करुणा भी पैदा कर रहा था।
बच्चा एक ओर कोने में जाकर बैठ गया और इत्मिनान से आइसक्रीम खाने लगा, जैसे उसके हर हिस्से का पूरा-पूरा आनंद ले रहा हो। खाने के बाद उसने आइसक्रीम के रैपर और डंडी को उठाकर खरगोश की शक्ल के बने एक बड़े से कूड़ेदान में डाल दिया।
इसके बाद फिर अपनी जगह जाकर बैठ गया और आसपास के लोगों को गौर से देखने लगा।...ऐसे जैसे उनमें कुछ ढूँढ़ रहा हो।
तभी जाने क्या हुआ, मेरे कदम खुद-ब-खुद उसकी ओर उठे। पास जाकर मैंने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखा और उसकी आँखों में झाँककर देखा। वह थोड़ा सकपका गया और शरमाकर नीचे देखने लगा।
“बड़े अच्छे बच्चे हो। क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने पूछा।
“बब्बू...!” उसने धीरे से कहा।
“कहाँ रहते हो बब्बू?” अबके मैंने पूछा।
“यहाँ से थोड़ी दूर। वह झोंपड़ी दिखाई पड़ रही है न साहब, उसमें। वही घर है हमारा। मेरी माँ है और मैं...”
और फिर बब्बू ने मेरे कुरेदने पर, थोड़ा रुक-रुककर अपनी पूरी कहानी कह सुनाई।
3
बब्बू ने बताया कि उसकी कहानी हमेशा से ऐसी नहीं थी, बल्कि उसमें सुख के कुछ चाँदिया तार भी जुड़े हुए थे। उसके पिता थे, जो उसे बहुत प्यार करते थे और उसका घर एक हँसता-खेलता घर था। पिता एक कारखाने में मजदूर थे, पर सीधे-सच्चे थे। उनमें कोई ऐब नहीं था। जो कुछ घर में लाते, सब खुशी से खा लेते और घर सुख की लय-तान पर चल रहा था। लेकिन फिर पिता बीमार रहने लगे और समस्याओं पर समस्याएँ आने लगीं। शायद उस कारखाने में कोई तेज रसायन बनता था जिससे उनके फेफडे़ गलने लगे। इलाज के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए छह-आठ महीने में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। पूरे घर पर जैसे बज्र गिर पड़ा हो। इसी दुख में माँ बीमार पड़ीं और वे आज तक ठीक नहीं हुईं।
अब छोटा-सा आठ-दस साल का बब्बू क्या करे? क्या न करे!
कोई काम करना तो उसे आता नहीं था। माँ बीमार थीं, पर दवाई के पैसे कहाँ से आएँ? घर में तो खाने के लिए दाने तक न थे। एक दिन बहुत सोचकर भीख माँगने के लिए घर से निकला, पर हिम्मत नहीं पड़ी। लोगों से काम माँगने जाता तो लोग दुर-दुर कर देते। उधर माँ की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी।
“और सच तो यह है बाबूजी, कि आज भी जब मैं यहाँ बैठा हूँ, तो कानों में वही माँ की हाय-हाय की आवाज सुनाई दे रही है। उसका पूरा बदन बुखार में तप रहा है। ऐसे में मेरा आइसक्रीम खाना और माँ की बीमारी...!” कहते-कहते बब्बू की आँखें गीली हो गईं।
शायद वह आगे कुछ और कहता, तो उसका रोना छूट पड़ता।
मैंने सौ रुपये का नोट निकालकर उसके हाथ में देते हुए कहा, “इसे रख लो। इन पैसों से माँ के लिए दवा ले आना। और ढूँढ़ो, शायद तुम्हें कोई काम मिले। ईमानदार और मेहनती लोगों हर जगह जरूरत है। तुम्हें एक न एक दिन रास्ता जरूर मिलेगा। और देखना, माँ भी तुम्हारी जरूर ठीक हो जाएँगी।”
इस पर बब्बू ने जिन निगाहों से मुझे देखा, उनमें अचरज के साथ-साथ गहरी कृतज्ञता थी।
“थैंक्यू साहब...थैंक्यू ...बहुत-बहुत धन्यवाद।’
उसके शब्द काँप रहे थे। आवाज भर्राई हुई थी।
4
उसके पाँच साल बाद बब्बू से अचानक फिर मुलाकात हो जाएगी, यह कब सोचा था? पर जीवन में कुछ ऐसे संयोग होते हैं जिनकी कल्पना तक चकित करती है।
हुआ यह कि बच्चों के साथ घूमने के लिए मैं रोज गार्डन गया था। नवंबर का महीना। सर्दियों की शुरुआत हो चुकी थी। ऐसे में किस्म-किस्म के गुलाबों की नुमाइश देखना खासा मजेदार लग रहा था और सबसे मजे की बात तो यह थी कि लाल गुलाबों के अलावा वहाँ सफेद, पीले और काले गुलाब बहुतायत में थे। देख-देखकर हम खुश थे, मानो किसी और दुनिया में जा पहुँचे हों, जहाँ रंगों और गंधों का एक निराला आकर्षण था। देखते-देखते सुबह से दोपहर हो गई।
कोई ढाई-तीन बजे हम रोज गार्डन से निकले तो खासी भूख लग चुकी थी। घर से खाने-पीने को कुछ खास लेकर नहीं चले थे। लिहाजा किसी साफ-सुथरे होटल की तलाश में थे। चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा। दूर एक नीला बोर्ड चमकता दिखाई दिया। बब्बू पूरी वाला। दुकान पर लोगों की भीड़ भी खासी थी। नन्ही बोली, “चलो पापा, वहीं चलें!” और हम सबके पैर उसी ओर बढ़ चले।
तब तक अंदाजा नहीं था कि वहाँ एक नहीं, दो-दो आश्चर्य हमारे इंतजार कर रहे हैं। एक तो इतनी अच्छी और इतनी सस्ती पूरी-भाजी वहाँ मिलेगी, इसका हमें बिलकुल अंदाजा नहीं था। दूसरा यह तो शायद हम कल्पना कर ही नहीं सकते थे कि वहाँ हम अपनी कहानी के कथानायक से एक बिलकुल भिन्न रूप में हमारी मुलाकात होगी।
सबसे पहले हैरानी की बात तो यही थी कि बब्बू पूरी वाले के यहाँ लोगों की भीड़ इतनी अधिक थी कि लगता था कि शायद यहाँ भंडारा लगा है और मुफ्त पूरी-भाजी मिल रही है। गरीब-अमीर सभी तरह के ग्राहक थे, पर गरीब और साधारण लोग ज्यादा नजर आते थे। फिर बब्बू के यहाँ जो नजारा था, आस-पड़ोस की दुकानों पर इसका एकदम उलट नजारा दिखाई देता था। यहाँ जितनी भीड़, वहाँ उतना ही खालीपन। जैसे ग्राहक उन दुकानों की ओर झाँकना ही नहीं चाहते थे। सबके सब बब्बू पूरी वाले के यहाँ टूट रहे थे। कुछ और आगे आए तो दरवाजे के इधर-उधर लिखी हुईं लाइनों पर हमारी नजर गई। एक जगह लिखा था—
बब्बूजी की पूरी-भाजी,
जी भर के खाओ जी।
वाह! देखकर चेहरे पर मुसकान-सी आ गई। पास ही एक और बोर्ड पर लिखा था—
दो रुपए में पूरी-भाजी,
खाओ जी ताजी-ताजी।
नन्ही खुश हो रही थी। उछलकर बोली, “पापा वाह, यह तो पोएम हो गई।”
अभी हम हॉल जैसे उस बड़े कमरे में बैठे ही थे और सोच रहे थे कि किसे आवाज देकर बुलाएँ, कैसे आर्डर दें? तभी सोलह-सत्रह साल का एक लड़का हाथों में पूरी-भाजी की प्लेटें लेकर आया। झटपट उसने पूरी-भाजी की प्लेटें सजा दीं, फिर दौड़कर साफ पानी ले आया।
स्टील के साथ चमकते हुए बरतन। मेज एकदम साफ-सुथरी। खाना दूर से खाने के लिए आमंत्रित करता हुआ और दुकान का पूरा वातावरण साफ-सुथरा, सादगीभरा। एकदम सुरुचिपूर्ण। देखकर बड़ा सुकुन मिला। लेकिन पूरियाँ खाकर तो और भी आनंद आया। यह कहना मुश्किल है कि खस्ता पूरियाँ ज्यादा स्वादिष्ट थीं या आलू की भाजी, जो सचमुच अनोखे ढंग से बनी थी। हमें स्वीकार करना पड़ा बहुत दिनों बाद इतनी स्वादिष्ट पूरी-सब्जी हमें खाने को मिली।
जब हम चलने लगे तो काउंटर पर बैठा एक किशोर बच्चा दौड़कर आया। बोला, “साहब, आपको सब ठीक लगा न! कोई शिकायत तो नहीं?”
“न...न...नहीं। बड़ा साफ-सुथरा भोजनालय है तुम्हारा और पूरी-भाजी बड़ी स्वादिष्ट। सचमुच यहाँ आकर हमें बहुत अच्छा लगा।” कहकर मैंने पूछ लिया, “हाँ कितने पैसे हुए भई।”
मुसकराते हुए उसने कहा, “आपके पैसे आ चुके हैं साहब।”
“आ चुके हैं! कब, कैसे...?” हैरानी से मैंने कहा, “मैंने तो नहीं दिए।”
गोल चेहरे और आत्मविश्वास भरी आखों वाला वह किशोर मुसकराया। बोला, “साहब आपको याद नहीं, पर मुझे याद है।” कुछ रुककर उसने कहा, “हालाँकि उस बात को पाँच साल हो गए। पर पाँच साल तो क्या मैं उसे पचास साल तक याद रखूँगा। और सच बताऊँ साहब, मैं आज जो हूँ, उसी कारण...!”
अब मैं और भी चक्कर में था। बच्चे और सुनीता भी अचरज से भरकर सामने खड़े उस विनम्र मगर खुद्दार किस्म के लड़के को देखे जा रहे थे।
“आप भूल गए! आज से पाँच साल पहले 22 अक्तूबर 2000 को आप पुराना किला देखने आए थे। तब आपके साथ स्कूल के बच्चे थे जिन्हें आपने मस्ती से खूब झूम-झूमकर ‘फारस से आया गुलाब’ कविता सुनाई थी। और फिर गुलाब की विचित्र और लंबी कहानी भी कि कैसे इसने कई रंग-रूप बदले और गुलाब की नई किस्में सामने आईं।
“हाँ, हाँ, ठीक याद दिलाया तुमने...ठीक!” मुझे सचमुच याद आ रहा था।
“पर...तुम कहना क्या चाहते हो?”
“मेरी पूरी बात तो सुनिए साहब। मैं आपको बता रहा था कि उस समय आपके साथ स्कूल के बच्चे थे और पिकनिक का प्रोग्राम था। पिकनिक का खासा रंग और धमाल था। बच्चे नाच रहे थे, उछल रहे थे, गा रहे थे और फिर आइसक्रीम खाने का प्रोग्राम।... मैं उस दिन बहुत दुखी था। माँ बीमार थीं जो दुनिया में मेरा एकमात्र सहारा थीं। उनके लिए दवा कहाँ से लाऊँ? मैं दौड़ा-दौड़ा घर से निकला और यहाँ आकर के बैठ गया। सोच रहा था शायद कोई दयालु शख्स मिले और मेरी मुश्किल समझ ले। तब एक बच्ची आइसक्रीम लेकर मेरी ओर आई। मेरा खाने का मन नहीं था, पर उसके बहुत कहने पर मैंने औरेंज बार ली और उसे खाते हुए मेरी आँख मैं आँसू आ गए कि घर पर माँ बीमार है और मैं...।
“और तब आपने आकर कंधे पर हाथ रखा था और मुझसे मेरे दुख के बारे में पूछा था। आपने चलते-चलते सौ रुपए का नोट दिया था और कहा था, “माँ का इलाज कराओ। और मेहनत करो, रास्ते अपने आप निकलेंगे।” और सचमुच रास्ता निकला। वह सौ का नोट मेरे लिए सौ हजार से बढ़कर है साहब, और वह बच्चा मैं ही हूँ। मैं—आपका बब्बू...!”
कहते समय उसकी आँखों में जो चमक थी, उसे कैसे बताऊँ!
5
हालाँकि जब वह कहानी शुरू कर ही रहा था, तभी मैं समझ गया था। और याद आ गया था वह मैला उदास बच्चा, जो एक कोने में खड़ा था और अपना दुख किसी से बाँट नहीं पा रहा था। पर खुद बब्बू के मुँह से उसकी कथा सुनने पर मुझे अच्छा लग रहा था।
वह अब भी कहता जा रहा था, “तब से...कितना बेचैन था कि एक बार फिर से आपसे मिल लूँ। आपका ठीक से धन्यवाद कर लूँ कि देखिए साहब, आपने जो राह सुझाई थी, उसी से मुझे रास्ता मिला और आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसी के कारण हूँ!”
मैं हैरानी से उस बच्चे की ओर देख रहा था जिसके चेहरे पर गहरी तृप्ति और ईमानदारी की चमक थी। माथा रोशनी से दिप-दिप करता हुआ।
“पर बब्बू, तुमने यह पूरियों की दुकान...?”
“हाँ, वही तो बता रहा हूँ बाबूजी। आपके दिए पैसों से उसी वक्त दौड़कर दवा लाया। दो-तीन दिन में ही माँ ठीक हो गईं।...पर माँ ठीक हुईं तो फिर सवाल उठा, क्या करूँ? कौन सा ऐसा काम करूँ जिससे ईमानदारी से मेहनत करते हुए दो सूखी रोटियाँ हम खा सकें। हाथ खाली थे, तो कोई और काम तो शुरू क्या करता, पर एक दिन न जाने कैसे मेरे मुँह से निकला—माँ, पहले तू कभी-कभी पूरी और आलू की भाजी बनाया करती थी न। मुझे इतनी अच्छी लगती थीं कि खाने के बाद भी उँगलियाँचाटता रहता था।
‘हाँ, पर तुझे कैसे इस वक्त याद आ गया। अब पूरी तो क्या, सूखी रोटी भी नसीब हो तो...!’ कहते-कहते माँ की आँखों में आँसू आ गए।
‘माँ रो मत, फिर हमारे सुख के दिन आएँगे, जरूर आएँगे।’ जाने कौन मेरे भीतर बोल रहा था। माँ खाली-खाली आँखों से मेरी ओर देखने लगीं। जैसे समझ न पा रही हों, मैं क्या कह रहा हूँ।
‘माँ, अगर तू पूरी भाजी बनाकर दे, तो मैं रोज गार्डन के पास जाकर बेच आया करूँगा। वहाँ दूर-दूर से न जाने कितने टूरिस्ट आते हैं। वे जरूर तेरे हाथ की बनी पूरी-भाजी पसंद करेंगे। तो रोजाना कुछ न कुछ तो बचेगा। खाकर लोग खुश भी होंगे, दुआएँ भी देंगे और चार पैसे बचेंगे तो घर का खर्च भी चलेगा।’
माँ कुछ देर खाली-खाली आँखों मुझे देखती रह गई। गहरे असमंजस में। फिर उनके चेहरे पर छाई निराशा जैसे हौले से तड़की हो। थोड़ी देर बाद जैसे आश्वस्ति के भाव से माँ ने पूछा, ‘पर पैसे...! तू कैसे करेगा इंतजाम बब्बू?’
‘माँ, मेरा एक दोस्त है। उसके पास जाऊँगा तो मना नहीं करेगा। मुझे यकीन है।’
माँ बोली, ‘ठीक है, तुझे जो समझ में आता हो कर। पूरी-भाजी मैं बना दिया करूँगी।’
उसी रोज अपने दोस्त अंजलि से दो सौ रुपए माँगकर लाया। उससे सामान खरीदा। माँ ने सुबह उठकर के पूरी-भाजी बनाईं और एक पतीले में डालकर के सब्जी और दूसरे बरतन में पूरियाँ डाल दीं। मैं रोज गार्डन के सामने आकर बैठा तो संकोच से जमीन में गड़ा जा रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि लोगों से क्या कहूँ, क्या नहीं? कैसे शुरुआत करूँ। लोग भी आते और मुझे पर एक उपेक्षा भरी नजर डालकर चले जाते। सोचते, बड़ा अजीब लड़का है। सामने दो बरतन रखकर जाने क्यों बैठा है? और मेरी हालत यह थी कि मुँह से आवाज तक न निकलती थी। फिर किसी को भला क्या पता चलता कि मैं यहाँ पूरी-भाजी बेचने को आया हूँ।
होते-होते शाम हो गई और मेरा दिल बैठने लगा। मुझे लगा कि आज का दिन तो बेकार गया और जो पैसे खर्च हुए, वो तो गए ही। अब क्या करूँगा? कल का क्या होगा?”
तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंधी। मैंने सोचा, ‘यह सारा सामान घर ले जाने से क्या फायदा? कल तो काम आएगा नहीं। तो इसे यही आसपास क्यों न लोगों को बाँट दूँ?’ मैंने उसी समय लोगों को बुला-बुलाकर मुफ्त पूरी-भाजी देनी शुरू की। लोग हैरानी से देखते और पूछते, ‘भई, यह किस खुशी में?’ तो मैं कहता, ‘कल से मैं यहाँ पूरी भाजी बेचूँगा न। इसीलिए आज मुहूर्त कर रहा हूँ।’ सुनकर लोग वहीं खड़े-खड़े पूरी-भाजी खाने लगते। देखते-देखते वहाँ काफी भीड़ हो गई। लोग पूरियाँ खाते और तारीफ करते। कहते, ‘पूरियाँ तो बहुत स्वादिष्ट है, भई। आगे जब भी यहाँ आएँगे, तेरी पूरियाँ जरूर खाकर जाएँगे।’
आप जैसे एक पढ़े-लिखे सज्जन भी थे। एक कंधे पर झोला लटक रहा था। लगता है, जरूर कोई लेखक या पत्रकार होंगे। उन्होंने मेरा नाम पूछा, घर के बारे में पूछा और फिर मेरी पूरी कहानी भी। साथ ही यह भी पूछ लिया कि ‘सारे पैसे तो तेरे आज ही खर्च हो गए और बदले में कुछ मिला नहीं, तो कल तू यहाँ पूरी-भाजी लेकर आएगा कैसे? तेरा काम चलेगा कैसे? यह तो सिर मुँडाते ही ओले पड़ने वाली बात हो गई। सारे पैसे लग गए और बिक्री एक पैसे की नहीं।’
सुनकर मेरी आँखें नम हो गई। सोच मैं भी यही रहा था और दिल धक-धक कर रहा था कल के बारे में सोच-सोचकर, पर मैं इस चिंता को परे धकिया रहा था। जाने उन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली।
चलने लगे तो उन्होंने जेब से सौ-सौ के दो नोट निकाले और मुझे देते हुए कहा, ‘ले बब्बू, मना मत करना। तू बहुत अच्छा और सयाना लड़का है। कल को कुछ न कुछ जरूर बनेगा।’ और मेरी पीठ थपथपाकर हौसला बढ़ाते हुए चले गए।
घर लौटा तो मन में उम्मीद की एक किरण पैदा हो गई थी, ‘नहीं, मैं काम करूँगा, जरूर करूँगा। मैं अपने जीवन की राह खुद ही खोज निकालूँगा।’
लौटकर माँ को मैंने दिन भर की पूरी कहानी सुनाई, तो उन्हें भी अचरज हुआ। बोलीं, ‘भोले और भले लोग सब जगह हैं बब्बू। भोले और भले लोग ही ईश्वर के सच्चे पुत्र हैं। तू अच्छा है तो तुझे अच्छे लोग मिल ही जाते हैं।... अब मुझे यकीन है कि तेरा रास्ता निकलेगा। कुछ न कुछ जरूर निकलेगा।’
अगले दिन माँ ने फिर पूरी-सब्जी बनाकर दी, तो मैंने एक दफ्ती पर रंगीन चॉक से लिख लिया, ‘आइए साहेबान, एक बार खाकर तो देखिए, बब्बूजी की स्वादिष्ट पूरियाँ!’ और पूरी-भाजी के साथ यह दफ्ती लेकर भी चल पड़ा। रोज गार्डन के आगे आकर बैठा और ईंट के सहारे यह दफ्ती आगे लगा दी।
लोग आते, हैरानी से मेरे लिखे हुए को पढ़ते और मुसकराकर आगे चले जाते। पर धीरे-धीरे एक-दो, एक-दो ग्राहक आने लगे और दोपहर खाने का समय होने पर तो इतने लोग आ गए कि कोई घंटे-आध घंटे के भीतर सारा सामान बिक गया। लौटकर मैंने माँ को बताया तो माँ की खुशी का ठिकाना न था। अब उन्हें उम्मीद हो गई थी कि बब्बू ने जो रास्ता खोजा है, वह गलत नहीं है। कहीं न कहीं इसी से हम इज्जत और स्वाभिमान की जिंदगी जी सकते हैं।
उस दिन के बाद से फिर कोई परेशानी नहीं हुई। लोग खुद-ब-खुद मेरी ओर खिंचे चले आते। कोई-कोई पूछता भी, ‘अरे बब्बू इतनी स्वादिष्ट पूरी-सब्जी कौन बनाता है? क्या खुद तुम।’ मैं कहता, ‘नहीं-नहीं, मेरी माँ बनाती है। वे बहुत अच्छी पूरी-भाजी बनाती हैं।’
सुनकर लोगों को अच्छा लगता। खासकर स्त्रियाँ कहती, “जाकर अपनी माँ से कहना, वे बहुत अच्छा खाना बनाती हैं और उनके हाथ में बड़ा रस है। फिर तेरा स्वभाव भी इतना अच्छा है बब्बू। देखना, तू एक दिन जरूर कामयाब होगा।’
...तो बाबूजी इस तरह हमारा काम चल निकला। अब तो मैं काफी अधिक पूरियाँ और भाजी बनवाकर लाता हूँ, मगर फिर भी शाम तक सब कुछ बिक जाता है। कभी-कभी कुछ पूरियाँ बचती हैं, तो हम माँ-बेटे मिलकर खा लेते हैं। या फिर आस-पड़ोस के घरों में बाँट देते हैं।”
6
बब्बू की पूरी-भाजी बिकने का एक कारण और था जो खुद उसने बताया। शुरू में ही उसने अपना रेट बना लिया था। दो रुपए में छह पूरियाँ। और पूरी-भाजी हर बार इतनी ही स्वादिष्ट और अच्छी होती कि लोग पूरे यकीन के साथ उसके पास आते। खुद खाते और कई बार घर के लिए भी बनवाकर ले जाते।...
“तो क्या माँ ही बनाती हैं अब तक पूरी-भाजी।” मैंने पूछ लिया, “इतना अधिक वे कैसे बना लेती हैं इतनी उम्र में।” पूछने पर बब्बू ने बताया कि साथ में मदद के लिए एक-दो लड़कियाँ और भी हैं, पर पूरियाँ माँ ही सेकती हैं, आज भी। और लोग कहते हैं, बब्बू की पूरियों जो स्वाद तब था, वह आज तक बना हुआ है।
“तो खैर बाबूजी, लोगों ने इतना पसंद किया, आपके बब्बू की पूरी-भाजी को कि खूब दूर-दूर तक नाम हो गया। एक तरह से मैं लोगों से घिरा रहने लगा। तो आसपास के दुकानदार ने जलकर दो-एक सिपाहियों को भड़काया और सिपाही दो-तीन बार आए और धमकी दे गए, कि चल, हटा अपना टाँडा-टीरा यहाँ से!... पर मैं वहाँ से कहाँ जाता? किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर उन्हें टरकाया और वहीं बैठा रहा। फिर एक दिन दो-तीन सिपाही इकट्ठे आए, मुझे डंडे से पीटने लगे और पूरी-भाजी कूड़े पर फेंक दो। पतीले उलटे कर दिए। मैं इतना रोया, इतना फूट-फूटकर राया कि आपको बता नहीं सकता बाबूजी। डंडों की चोट थी, पूरे शरीर में नीले-नीले दाग उभर आए थे। पर उस चोट का दर्द इतना नहीं था, जितना इस बात का कि इन दुष्टों ने मेरी माँ के हाथ की बनी पूरियाँ कूड़े पर फेंक दीं। कम से कम खा ही लेते तो मुझे इतना दुख न होता। मुफ्त में ही खा लेते तो भी तसल्ली होती।...पर कूड़े पर? इतनी अच्छी पूरी-भाजी सारी की सारी कूड़े पर! मैं रोया, फूट-फूटकर रोया और राते-रोते ही घर आकर माँ की गोदी में लेट गया। माँ देर तक मेरे सिर पर हाथ फेरती और चुप कराती रहीं।
“वह पूरी रात बाबूजी, मेरे लिए कयामत की रात थी। सोचता था—‘क्या करूँ, क्या नहीं! यहाँ से ठीया उठाकर क्या कहीं और जाऊँ? पर यहाँ इतने लोग जान गए हैं। कहीं और जाकर क्या फिर से काम शुरू कर पाऊँगा? और इस तरह सिपाहियों ने यहाँ आकर सामान फेंका, वहाँ भी तो कोई न कोई...!’
“मैं सोच रहा था... सोच रहा था कि बब्बू, तुझे पलायन नहीं करना, भागना नहीं, रास्ता निकालना है। पर कैसे? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सब ओर जैसे अंधकार ही अंधकार। तभी अचानक बिजली की कौंध की तरह एक चेहरा चमका। रविकुमार सक्सेना। मैंने आपको बताया था न, वे पत्रकार जो मेरी हालत देखकर मेरी जेब में दो सौ रुपए डालकर चले गए थे। उन्होंने जाते-जाते मेरी पीठ पर हाथ रखकर कहा और अपना कार्ड भी दिया था कि ‘बब्बू, कभी जरूरत पड़े तो इसमें एक फोन नंबर लिखा है। तू मुझे एक बार फोन जरूर कर लेना।’
“अगले दिन सुबह उठते ही मैंने माँ से पूरी-भाजी बनवाई और घर से ले चलने से पहले टेलीफोन बूथ गया। वहाँ सक्सेना जी को फोन लगाया और बताया कि पुलिस वाले मुझे धमका रहे हैं। बुरी तरह मुझे मारा और सामान कूड़े पर फेंक दिया। मैंने पूरी कहानी सुनाई, तो सक्सेना जी ने कहा कि बब्बू, तू जाकर वहीं बैठ, जहाँ बैठता है और अब कोई सिपाही आए तो उससे कहना कि ‘प्रभात टाइम्स’ के रविकुमार सक्सेना आपसे बात कर लेंगे।... फिर वे कुछ कहें तो मैं देखूँगा।”
“और बाबूजी, उसी शाम को पता चला कि वे पुलिस वाले संस्पेंड हो गए। सक्सेना जी ने पुलिस के अफसरों को फोन किया कि इन पुलिस वालों ने कुछ बड़े दुकानदारों के कहने में आकर एक बेकसूर बच्चे के साथ दुर्व्यवहार किया है। सुनते ही उसी दिन उसकी छुट्टी हो गई। फिर तो वे सारे दुकानदार भी डर गए, जो मेरे खिलाफ एकजुट हुए थे। सोचने लगे कि कहीं उनका नाम भी न जा जाए। दो-एक तो खुद मेरे पास भी चलकर भी आए और कहा कि ‘बब्बू, तू बेफिकर होकर अपना काम कर। हम तेरे साथ हैं।’
“तो खैर बाबूजी, मेरा काम चल निकला। कोई साल दो साल बाद यह दुकान खरीद ली। फिर तो काम रामजी की कृपा से इतनी अच्छी तरह चला कि मैं आपको क्या बताऊँ?...पर यह जो कुछ भी है बाबूजी, आपके कारण है क्योंकि यह राह तो आपने ही सुझाई थी। मेरा दर्द पहली बार आपने ही समझता था और मेरे कंधे पर हाथ रखा था। अपने कंधे पर वह हाथ मुझे आज भी महसूस होता है।”
कहते-कहते बब्बू की आँखें भीग गई। मैंने उसके कंधे पर धीरे से हाथ रखकर थपथपाया। फिर कहा, “आज के जमाने में तुम इतनी सस्ती पूरियाँ कैसे बेच पाते हो? अब तो महँगाई भी बढ़ गई है।”
इस पर बब्बू का जवाब था, “बाबूजी, महँगी खाने-बेचने वाले तो बहुत है, पर मुझे तो लगातार अपना खयाल आता था। अपने दुर्दिन याद आते थे। जो मेरे जैसे लोग है, दिन भर मेहनत करते हैं। सस्ते में उनका पेट भर जाए और साफ-सुथरा और अच्छा खाने को मिले। यह कौन सोच रहा है? रिक्शा वाले, ताँगे वाले मजदूर, सब मेरे यहाँ आते हैं और तृप्त होकर जाते हैं। इनके चेहरों पर तृप्ति देखकर मुझे बहुत खुशी मिलती है।”
सुनकर मन जुड़ा गया। अपने आप उसके सिर पर मेरा हाथ आ गया, उसे आशीर्वाद देने के लिए।
बब्बू ने आगे बढ़कर मेरे पैर छू लिए। बोला, “आशीर्वाद दीजिए सर, कि आपका बब्बू ऐसा ही बना रहे।”
मैंने देखा कि उसकी आँखें गीली हैं।
कुछ रुककर वह बोला, “सर, उस दिन हमारे पास खाने को भी पैसे नहीं थे। आज ईश्वर का दिया बहुत कुछ है। कोई संपत्ति हमने नहीं जोड़ी, पर गुजारे लायक ठीक-ठाक पैसे हमारे पास हैं। इसलिए अगर कोई गरीब या लाचार आदमी आकर कहता है कि मेरे पास पैसे नहीं, तो उसे भी भरपेट खाना यहाँ मिलता है। यह गरीबों का होटल, गरीबों का अपना होटल। यहाँ से कोई भूखा वापस नहीं गया आज तक—और न जाएगा।”
सुनकर लगा कि यह छुटका-सा बच्चा सचमुच फरिश्ता है। छोटा है, पर यह सचमुच मेरा गुरु है!
7
उसे ढेरों आशीर्वाद देकर चलने लगा तो उसने हाथ जोड़कर कहा, “सर फिर आइएगा। आइएगा न जरूर! मेरी माँ भी आपसे मिलना चाहती हैं। बहुत बार उन्होंने याद किया है। कहती हैं—बब्बू, अगर कभी वे साहब आए, तो एक बार मुझे उनसे मिलवाना जरूर।”
“हाँ बब्बू, हाँ! मैं आऊँगा जरूर।”
बाहर आया तो दीवार पर साफ-सुथरी लिखाई में एक सीधी-सादी कविता पर नजर गई। लिखा था—
बब्बूजी की पूरी भाजी,
फिर-फिर खाने आओ जी...!
“हाँ बब्बू, मैं फिर आऊँगा...फिर आऊँगा—जरूर-जरूर!”
पर कहते हुए पता नहीं क्यों, शब्द काँप रहे थे और गला रुँध-सा गया था।
**
2
लुंबा
प्रकाश मनु
*
स्मृतियों का रेला थमने में ही नहीं आता। भवानीपुर के घने और बीहड़ जंगल। उनकी अजब तरह की रोमांचकारी सुंदरता और उनमें अचानक किसी अचरज की तरह मिला लुंबा। जंगल का आदमी! ओह, आज भी याद करते हैं बावनदास तो सचमुच थरथरा उठते हैं।...
मगर उससे भी बड़ा कौतुक तो आगे होता है। लुंबा उनके देखते ही देखते शीलू में बदलता है और शीलू, उनका बेटा...किसी अबूझ जादू से लुंबा में बदल जाता है। वे असहाय से यह सारा नाटक देखते हैं और पसीने-पसीने हो जाते हैं। तभी अचानक उनके भीतर के आदिम जंगल को चीरती एक कड़क आवाज सुनाई देती है—खोलो, कारा खोलो! खोलो, कारा...! एक अनहद नाद जैसी गूँजती आवाज, और इसी के साथ उनकी नींद खुल जाती है। वे दौड़े-दौड़े शीलू के कमरे में जाते हैं—शीलू ठीक से बिस्तर पर सो रहा है न! ओह, ठीक...सब ठीक है!
और वे माथे पर हाथ रखे बरबस फिर उस अतीत में खो जाते हैं जिसमें एक दिन अचानक लुंबा ने प्रवेश किया था किसी कौतुक की तरह। पर फिर इस कौतुक पर लालच की काई और झाड़ियाँ उगने लगी थीं। और फिर...वे अपने घर और हर चीज से बेगाने हो गए थे। पूरी तरह हो ही जाते, मगर...!
मगर...? फिर चौंकते हैं बावनदास। जैसे उन्होंने अपनी आँखों से फिर लुंबा को देख लिया हो और बरसों पीछे चले गए हों...
2
हाँ, कोई बारह बरस पहले की बात है। भवानीपुर के जंगलों से गुजर रहे थे सेठ बावनदास। शानदार बग्घी, जिसमें उनके अलावा पाँच-छह नौकर-चाकर थे। अंगरक्षक भी। घोड़ों की टाप और बग्घी की टिक-टिक आवाज जंगल के सन्नाटे को चीरती जा रही थी।
कभी उनका ध्यान नौकरों की बातचीत पर चला जाता और कभी प्रकृति की अपरंपार सुंदरता उन्हें अपनी ओर खींच लेती। जिस पर दिल वाकई निसार होता था। कभी-कभी कोई हिरन दौड़ता नजर आ जाता। चीता, बारहसिंघा भी। बावनदास को जंगली जानवरों से कोई डर तो था नहीं। साथ में बल्लमधारी अंगरक्षक जो थे। मजे से प्रकृति का नजारा ले रहे थे। अचानक उन्हें अजीब-सी आवाज सुनाई दी, ‘कु-कू कुक्कू...कुक्...कुक्...कू...!!’
विचित्र लगा बावनदास को। ऐसी आवाज तो किसी जंगली जानवर की ही हो सकती है। कुछ और आगे गए, तो असलियत पता चली। सामने पेड़ों के झुरमुट में एक विचित्र जीव कलाबाजियाँ खा रहा था। देखने में मनुष्य जैसा, पर पूरे शरीर पर काले, घने बाल। बावनदास समझ नहीं पाए यह गोरखधंधा। उन्होंने नौकरों से पूछा।
बिरजू उनका बड़ा पुराना नौकर था। खासा समझदार भी। बोला, “मेरा तो खयाल है साहब, यह वनमानुष है!”
बीरू उठती हुई उम्र का नया नौजवान था। थोड़ा अक्खड़ और जोशीला। बोला, “नहीं-नहीं साहब, भालू है!...”
बावनदास ने गौर से देखा। समझ गए, यह जानवर न वनमानुष है और न भालू ही है। यह तो कोई आदमी है जो वर्षों से जंगल में, जंगली जानवरों के बीच रहते-रहते ऐसा हो गया है। उन्होंने इस तरह के किस्से सुने तो थे, लेकिन देखा आज ही था। बावनदास ने कौतुक भाव से बग्घी उसी ओर मुड़वा दी।
पेड़ों के झुरमुट के पास बग्घी रुकी, तो बिरजू और बीरू दोनों बल्लम लेकर कूदे। जंगली युवक भी तनकर खड़ा हो गया था। जैसे ही ये पास आए, उसने छलाँग लगाई। पैरों की ठोकर से उन्हें जमीन पर गिराकर भाग गया। बावनदास की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। चिल्लाकर बोले, “पकड़ लो। भागने न पाए।”
अब बिरजू, बीरू, रामबहादुर, भोला सभी दौड़े। सबके पास बल्लम और लाठियाँ। कुछ दूर जाकर उन्होंने उस जंगली युवक को घेर लिया। वह बुरी तरह हाँफ रहा था। इतने लोगों से टक्कर लेने में कठिनाई आ रही थी। था भी निहत्था। अचानक लाठी की चोट खाकर वह जमीन पर गिरा। फिर तड़ातड़ और लाठियाँ पड़ीं। सारा शरीर लहूलुहान। बावनदास के नौकरों ने उसे पकड़ा। रस्सी से बाँधकर बग्घी में डाल दिया।
बावनदास की आँखों में चमक आ गई। सोचने लगे, “शहर में किसी ने न देखा होगा ऐसा विचित्र जीव। लोग दंग रह जाएँगे।”
3
घर आए, तो बावनदास ने अपने बेटे शीलू को बुलाया। वनमानुष जैसे दीख रहे, जंगली युवक को देख, शीलू खुशी के मारे तालियाँ बजाने लगा। लेकिन फिर कुछ और आगे आने पर उसने जंगली युवक के शरीर पर जगह-जगह खून के धब्बे देखे। शीलू उदास हो गया। बोला, “इसे बाँधा क्यों पिताजी?”
बावनदास हो-हो करके हँसे, “अरे, यह तो खिलौना है मेरे बेटे के लिए। जंगल में देखा, तो सोचा, शीलू खुश होगा इसे देखकर। सो ले चलूँ। मगर बगैर बाँधे यह आता कैसे? बड़ा ताकतवर है...!”
शीलू ने फिर कुछ और नहीं कहा।
बावनदास ने जंगली युवक के लिए लाल झँगोला सिलवाया। एक बड़ा-सा पिंजरा बनवाया। पिंजरे में बंद जंगली युवक को देखने के लिए आसपास के बच्चों की भीड़ लग गई। बावनदास ने उस जंगली युवक का राम रखा—लुंबा।
जल्दी ही पूरे शहर में चर्चा फैल गई कि इस बार बावनदास अपने साथ एक अनोखा जीव लाए हैं जो आदमी है मगर दिखता जानवर जैसा है। दिनोंदिन लुंबा को देखने वालों की भीड़ बढ़ती गई। आखिर बावनदास के मन में खयाल आया, “यह तो कमाई का बढ़िया धंधा है!”
अगले दिन लुंबा को देखने वालों के लिए उन्होंने पाँच रुपए का टिकट लगा दिया। रोज सैकड़ों लोग देखने आते। दिन भर में खूब कमाई हो जाती।
बावनदास को ऐसी उम्मीद न थी। खुश होकर उन्होंने लुंबा की खुराक बढ़ा दी। लेकिन लुंबा दिनोंदिन दुबला होता जा रहा था। उसके चेहरे पर उदासी साफ नजर आती। हाँ, अगर उसके चेहरे पर कभी चमक आती, तो केवल शीलू को देखकर। शीलू को भी लुंबा को देखे बगैर चैन न मिलता। कोई भी खाने-पीने की चीज हाती, तो वह दौड़कर लुंबा के लिए ले जाता। लुंबा को केले और अमरूद सबसे ज्यादा पसंद थे। शीलू चुपके से केले, अमरूद और मिठाइयाँ लुंबा को लाकर देता। फिर देर तक लुंबा को खाते देखता। लुंबा को खुश देख, उसे भी खुशी होती।
कुछ दिनों में लुंबा और शीलू की इतनी गहरी दोस्ती हो गई कि दोनों बगैर कुछ कहे, एक-दूसरे के मन की बात समझ जाते। वैसे भी लुंबा को तो जंगली बोली के सिवा कोई और भाषा आती ही नहीं थी। शीलू ने कुछ शब्द सिखा दिए थे। लुंबा अटपटे ढंग से उन्हें दोहराता, तो उसकी हँसी छूट जाती।
बावनदास ने जब देखा, शीलू दिन भर लुंबा के पास ही रहता है, तो उनको बेहद गुस्सा आया। उन्होंने शीलू को मना किया। न मानने पर डाँटा-फटकारा। फिर भी शीलू को लुंबा के पास जाए बगैर चैन न पड़ता। लुंबा के आगे भी एक नई ही दुनिया खुल रही थी। उसने पहली बार जाना था, इतना प्यार, ऐसी दोस्ती!
बहुत मना करने पर भी शीलू ने लुंबा के पास जाना कम नहीं किया, तो एक दिन बावनदास गुस्से से आगबबूला हो उठे। उन्होंने शीलू को कमरे में बंद करके ताला लगा दिया। चाबी पत्नी योगमाया को दे दी। कहा, “आज इसके खाने-पीने की छुट्टी। दिन भर कमरे में बंद रहेगा, तो होश ठिकाने आ जाएँगे। शाम से पहले मत खोलना।”
उसी दिन शीलू को बुखार आ गया। शाम को योगमाया ने दरवाजा खोला, तो उसका बदन तप रहा था। तुरंत डाक्टर आया। दवाई दे गया। कई दिनों तक शीलू चारपाई पर पड़ा रहा। इस बीच लुंबा ने न कुछ खाया, न पिया।
कुछ दिनों बाद ठीक हुआ शीलू, तो सबसे पहले लुंबा को देखने गया। लुंबा के चेहरे पर दुख की गहरी छाया थी। देखकर शीलू की आँखें भीग गईं। लेकिन वह चाहकर भी लुंबा को अपनी मजबूरी समझा नहीं सकता था। लुंबा भी बगैर भाषा जाने आखिर कैसे समझ पाता उसकी बात?
तभी शीलू के मन में एक विचार आया, ‘क्यों न लुंबा को आदमियों की तरह बोलना सिखाया जाए?’ स्कूल से पढ़कर आता, तो सीधा लुंबा के पास भागता। बावनदास को गुस्सा आता, लेकिन लाचार थे। समझते थे, शीलू को मार-पीटकर ठीक नहीं किया जा सकता। इधर शीलू की जिद भी बढ़ती ही जा रही थी, “पिताजी, लुंबा भी तो हमारी तरह मनुष्य है न! यह क्या नुमाइश के लिए है? पिंजरा खोलकर इसे बाहर निकालिए न, जिससे यह भी हमारी तरह घूम-फिर सके।”
“वाह! यह तो कमाई का जरिया है। कैसे छोड़ दूँ?” बावनदास ने मुँह बिचकाया।
लेकिन वह समझ गए, अब कुछ करना होगा। उन्होंने अपने एक मित्र से बात की। यह तय हुआ, लुंबा को बेच दिया जाए।
4
उन्हीं दिनों एक विदेशी सर्कस आया भवानीपुर में। उसमें तमाम जंगली जानवर थे। वे तरह-तरह के करतब दिखाते। भवानीपुर के सर्कस की खासी धूम थी। अच्छी-खासी आमदनी हुई।
सर्कस का मालिक था, माइकेल। खूब गोरा और लंबा अंग्रेज। चेहरे पर चालाकी और गर्वीलापन। आँखें छोटी-छोटी, नीली। उसे किसी ने लुंबा के बारे में बताया, तो वह खुशी से उछल पड़ा। दौड़ा-दौड़ा गया बावनदास के पास। आँखों में चमकती खुशी और काइयाँपन के साथ कहा, “आप लुंबा को बेच दीजिए। मुँह माँगी कीमत देने को तैयार हूँ। उसे मैं तमाम करतब सिखाऊँगा। और...!” वाकई माइकेल की प्रसन्नता छिप नहीं रही थी।
उसी समय वह लुंबा के पिंजड़े के पास गया। कोड़ा फटकारते हुए दो-एक इशारे किए। वह गौर से लुंबा के चेहरे का हाव-भाव देख रहा था। फिर अचानक उछल पड़ा, “हमारे बहुत काम का है यह।...मुझे हर हाल में लुंबा चाहिए सेठ जी! आप...आप तो यह बताइए, चेक पर कितनी रकम लिखूँ? आप जो बताएँगे, वही...!”
बावनदास तो यह चाहते ही थे। उन्होंने पचास हजार रुपए कीमत लगाई। माइकेल फौरन मान गया। तय हुआ, दो दिन बाद आकर माइकेल लुंबा को ले जाएगा।
दरवाजे के बाहर खड़ा शीलू भी यह सुन रहा था। उसे माइकेल के आने पर ही शंका हुई थी। और अब तो उसका शक सच में बदल गया था। उसका हृदय जैसे फटा जा रहा था। भूख-प्यास सब खत्म हो गई। एक ही धुन थी, “जैसे भी हो, लुंबा को बचाना होगा। वरना...”
वह लुंबा के पिंजरे के पास गया, तो लगा, लुंबा की आँखें प्रार्थना कर रही हैं, “मुझे बचा लो...मुझे बचा लो! सर्कस वाले मुझ पर अत्याचार करेंगे, मुझे आजादी चाहिए! फिर से जंगल में लौटना चाहता हूँ मैं...”
उसी दिन शाम के समय पिता बाहर गए, तो शीलू ने कमरे की एक-एक चीज खँगाल डाली। आखिर उसे चाबी दिखाई दी। अलमारी के ऊपर वाले खाने में पड़ी थी। उसने चुपके से चाबी उठा ली। रात को पिता आए, खाना खाकर सो गए। लेकिन शीलू को नींद कहाँ? आधी रात को उठा। दबे पाँव लुंबा के बाड़े की ओर बढ़ा। लुंबा शीलू के पैरों की आहट पहचान गया, लेकिन समझ नहीं पा रहा था, “शीलू यहाँ—इतनी रात गए, क्यों?”
तब तक शीलू ने पास आकर झट से, पिंजड़े का दरवाजा खोल दिया। हाथ के इशारे से कहा, “भाग जाओ, जल्दी...!”
लुंबा की आँखों में अचरज था। अचरज और खुशी एक साथ। अवर्णनीय खुशी।...जाने से पहले लुंबा देर तक एकटक शीलू को देखता रहा। फिर तेज कदमों से चलता हुआ गायब हो गया।
लौटकर शीलू ने चाबी फिर से पिता के कमरे में रख दी। चुपचाप अपनी चारपाई पर आकर सो गया।
सुबह बावनदास उठे तो पता चला, लुंबा गायब हो गया। लेकिन कहाँ, कैसे? कुछ भी पता न चला। पिंजरे में पहले की तरह ताला लगा हुआ था। चाबी भी अलमारी में रखी थी। तो फिर? समझ न पाए, क्या गड़बड़झाला है। उन्होंने पत्नी योगमाया से पूछा। नौकरों से भी जवाब-तलबी हुई, लेकिन कुछ पता नहीं चला।
अचानक बावनदास को खयाल आया, ‘शीलू कह रहा था, लुंबा को छोड़ने के लिए। कहीं उसने ही तो...!’
वह धमधमाते हुए शीलू के कमरे में गए। चिल्लाकर पूछा, “सच-सच बताओ, लुंबा कैसे भाग गया?”
एक क्षण के लिए शीलू के चेहरे पर डर की छाया दिखाई दी। लेकिन फिर गायब हो गई। शांत स्वर में बोला, “पिताजी, मैंने भागा दिया उसे। उसका कष्ट नहीं देखा जा रहा था। मैं नहीं चाहता था, आप उसे विदेशी सर्कस कंपनी को बेचें। इसलिए...!”
“तुम...! तुम्हारी यह मजाल?” गुस्से के मारे बावनदास थर-थर काँपने लगे। पता नहीं, कब उनका हाथ छड़ी पर गया और फिर—“सड़ाक!...सड़ाक!!”
शीलू की पीठ पर नीले-नीले निशान उभर आए। लेकिन आश्चर्य! वह चुप था। एकदम चुप। मुँह से सी तक नहीं।
5
बावनदास का क्रोध और बढ़ा। फिर से छड़ी उठाने वाले थे कि पीछे से योगमाया ने आकर रोक दिया, “अब बस भी कीजिए। पैसे के लोभ ने आपको अंधा कर दिया है। आप शीलू के मनबहलाव के लिए ही तो लाए थे लुंबा को। फिर उसने लुंबा को छोड़ दिया, तो इतना गुस्सा क्यों?”
बावनदास के चेहरे पर एक रंग आ रहा था, एक जा रहा था। उन्हें लगा, ‘हाँ, सच ही तो। लुंबा को नुमाइश के चीज बनाने के लिए थोड़े ही लाया था मैं जंगल से। यह तो मुझे बाद में सूझा और फिर...’
योगमाया ने फिर कहा, “आपने जिस जंगली बालक की आजादी छीन, नुमाइश की चीज बना दिया, उसे शीलू ने आदमी बनाने की कोशिश की, ढेर-सा प्यार देकर। आपसे यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ। आपकी बेशुमार धन-दौलत किस काम की, अगर वह आदमी को आदमी नहीं बना पाती? और फिर आप खुद भी तो कितने बदल गए! अपने ही बेटे को बेरहमी से पीटते हुए तकलीफ नहीं हुई...?”
बावनदास की आँखों के आगे से जैसे परदा हट गया। मन ग्लानि से भर गया।
उन्होंने शीलू की ओर देखा, चेहरे पर दर्द की रेखाएँ, लेकिन शांत। जैसे कुछ हुआ ही न हो। रुँधे गले से बोले, “बेटे, मैं अपनी मनुष्यता भूल गया था। जंगली बालक को आदमी तो बना नहीं सका, उलटे मैं खुद जानवर बन गया!” कहते-कहते उन्होंने शीलू को छाती से लगा लिया।
*
उस दिन के बाद बावनदास जब-जब जंगल से गुजरते हैं, उन्हें लगता है, झाड़ियों की ओट से कोई छाया-आकृति उन्हें देख रही है। और फिर किलकारी जैसी आवाज सुनाई देती है, जैसे लुंबा उन्हें धन्यवाद दे रहा हो। लेकिन बावनदास अब रुकते नहीं हैं। तेज कदमों से आगे बढ़ जाते हैं।
हालाँकि वह पीछा कहाँ छोड़ता है! जिद्दी, महा जिद्दी है लुंबा। फिर-फिर वह सपने में आता है और फिर...?
अचानक सपना देखते-देखते वह ठिठके। फिर कोई छायाकृति है, जो बार-बार आँखों के आगे से गुजरती है। घबराकर उन्होंने आँखें खोल दी।
आँख खुली तो सामने शीलू! शीलू न जाने कहाँ से आकर वहाँ खड़ा हो गया था और उन्हें अचरज से देख रहा है। उन्होंने उठकर शीलू का कंधा थपथपाया और बाहर आँगन की ओर निकल गए।
शीलू कुछ समझा कुछ नहीं, पर उसके होठों की मुसकान कह रही है कि जीत उसकी हुई है। उसकी नहीं, लुंबा की!
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3
साड्डी रेलगड्डी आई
प्रकाश मनु
*
जी, रेल माने क्या? मैं आपसे ही पूछता हूँ और सीधे-सीधे पूछता हूँ कि, “बताइए साहब, रेल माने...?”
मैं जानता हूँ, सुनकर आप चौकेंगे और खीजकर कहेंगे कि अरे ओ भोला भाई श्रीमाली, रेल माने...रेल। इसमें भी पूछने की क्या बात है?
लेकिन भई है, बात तो है। मसलन अगर ट्रेन के मानी या उसका सबसे नजदीकी शब्द आप मुझसे पूछें, तो मैं कहूँगा—घर।
घर...? आप चौंकेंगे। मैं जानता हूँ, आप जरूर चौंकेंगे। लेकिन यकीन मानिए, आपको चौंकाने के लिए मैंने यह नहीं कहा। मैंने कहा, क्योंकि मुझे इस पर यकीन है।
और मैंने कहा—घर! क्योंकि मैं जानता हूँ कि घर क्या होता है। दिमाग से तो नहीं, लेकिन दिल के भीतरी ताप और बहुत ही स्फुरणशील ‘धक-धक’ से जानता हूँ कि घर क्या होता है। सीने में लहू के दौड़ने से जानता हूँ कि घर क्या होता है!
बसों में सैकड़ों क्या, हजारों बार यात्राएँ की होंगी। पर बस को देखकर मुझे आज तक कभी नहीं लगा—घर! बस स्टैंड को देखकर आज तक कभी नहीं लगा, घर! पर अब इसका क्या किया जाए कि ट्रेन में लाख धक्के खाने, बहुत बार विविध किस्म की शारीरिक टूट-फूट और पैर, कंधे वगैरह छिलवा लेने के बावजूद मुझे हमेशा यह घर लगा और इसका घरेलूपन आज तक कम नहीं हुआ।
यहाँ तक कि कोई साल भर पहले पीछे से आकर एक भड़भड़िए ने आगे निकलने की उतावली में जब अपनी कोहनी को चोट से मुझे संज्ञाशून्य कर दिया और मेरा चश्मा छिटककर नीचे आ गया, तब भी नहीं! बदकिस्मती यह कि चश्मे का शीशा ही नहीं, फ्रेम भी किसी के पैरों के नीचे आकर चूरमचूर हो गया और मुझसे वह उठाते तक नहीं बना। नया चश्मा बनने में पूरे दो दिन लगे। ये दो दिन मेरे लिए बकौल जगदीशचंद्र ‘नरक कुंड में वास’ के तुल्य थे।
हालत यह थी कि कैजुअल मेरे पास एकदम नहीं बची थी और छुट्टी के पैसे काटने के नाम से मुझे झुरझुरी छूटती थी। सो डरते-डरते, भयभीत, अंधी आँखों से रास्ता टटोलते दफ्तर जाता था। उजबक की तरह आँखें फाड़-फाड़कर काम करता था। फिर भी सहयोगियों के व्यंग्य-बाणों से विदग्ध होकर लौटता, तो सिर पके हुए फोड़े की तरह दुख रहा होता।
तो भी हे प्रिय पाठक! वह ट्रेन, जिसके भीड़-भाड़पूर्ण रंगमंच पर मेरे पैर और कंधे छिले और मेरा चश्मा जमीन पर गिरकर चूरमचूर हुआ, मेरे लिए खलनायिका नहीं बनी, कभी नहीं बनी।
हाँ, मजाक-मजाक में ट्रेन को किसी दुष्ट प्यारे-प्यारे मित्र की तरह दो-चार कड़वी बातें कहने का सुख तो अलग ही है। वह क्यों छोड़ा जाए? अब खासकर डेली पेसेंजर्स को तो आप उससे वंचित कर ही नहीं सकते। वरना उनकी व्यस्त, अति व्यस्त बल्कि व्यस्तता से दबी-कुचली जिंदगी से ऐसा दीर्घ निश्वास और उत्ताप निकलने लगेगा कि मुझे भय है, कहीं वह आसपास को—आसपास के जंगल, पहाड़ और दरियाओं को झुलसा न दे!
खैर, अब मुद्दे की बात पर आएँ। मेरा मन है कि आपको अपनी एक दिन की ट्रेन-यात्रा का नीरस या सरस जैसा भी हो, हाल सुनाऊँ। आपको बस चुपचाप सुनते जाना है और सुनने के बाद हाँ-ना में सिर्फ इतना बताना है कि क्या फरीदाबाद से दिल्ली तक रोज-रोज आने-जाने की इस संक्षिप्त यात्रा को भी सफरनामा कहा जा सकता है? अगर आप शब्द नहीं खर्चना चाहते, तो सिर्फ सिर दाएँ-बाएँ हिलाकर ही बताइए जरा।
यकीन मानिए, मेरे पास ऐसे सफरनामे बहुत हैं। क्योंकि रोज सुबह-शाम सफर करते मैंने पूरे बीस साल यानी सात हजार तीन सौ पाँच दिन ट्रेन में पूरे कर लिए हैं। इनमें मैंने लीप इयर्स के अधिक दिन भी शामिल कर लिए हैं।...तो यानी आप समझिए कि आने और जाने की पूरी चौदह हजार छह सौ दस यात्राएँ। मैं कहता हूँ, चलिए, आप ऊपर की छह सौ दस हटा भी दें, तो भी चौदह हजार। यानी चौदह हजार तो कहीं नहीं गईं!... इन चौदह हजार यात्राओं के अनुभव क्या मैं किसी एक लेख या किस्से-कहानी की शक्ल में पेश कर सकता हूँ? अजी राम भजिए साहब, राम भजिए! मुझे अभी पागल नहीं होना। ऐसा कोई शौक मुझे नहीं चर्राया। तो भी कुछ न कुछ इस बारे में बताकर आपका ज्ञान-वर्धन करूँ, यह मौका भला मैं कैसे छोड़ सकता हूँ?
तो मेहरबानी करके, पाठक-वृंद, आप पालथी मारकर बैठ जाइए और शांत चित्त से सुनिए मुझ भोला भाई श्रीमाली का एक दिन का सफरनामा।
2
ट्रेन में कोई-कोई दिन ज्यादा ही मनहूसियत भरा होता है।
आज सुबह नौ बजे वाली ई.एम.यू. में जब भीड़ के रेले द्वारा भीतर धकेला गया, तो जाकर कतार-दर-कतार लगे दूधियों के डिब्बों पर जा पड़ा। घुटने पर चोट आई, कंधे थोड़े छिल गए। जल्दी ही मैं सँभला और एक ओर होकर रॉड पकड़कर खड़ा हो गया। तब किसी उतावले ने बूट से पैर कुचल दिया। मेरी चीख निकल गई, ‘अरे...ओ मरदूद! ओए, ओए!’
गाड़ी चल पड़ी है और छिला हुआ पैर लेकर, हाथ में रॉड पकड़े, भीड़ में भीड़ का हिस्सा बनकर मैं भी शामिल हूँ। इतनी भीड़ कि हम सबकी नाकें एक-दूसरे को छू रही हैं। हम सबकी साँसें एक-दूसरे में घुसी जा रही हैं और मैं सोच रहा हूँ, ट्रेन में कोई-कोई दिन ज्यादा ही मनहूसियत भरा होता है।
सर्दियों में तो भी चल जाता है किसी न किसी तरह, लेकिन सितंबर की सड़ी हुई गरमी में, जब बारिश हुए कई दिन हो चुके हैं, वातावरण में उमस है और धूप आलापिनों की तरह आँखों और देह में चुभ रही है। मैं देखता हूँ—भीड़ में भिंचे-भिंचे मैं देखता हूँ, ट्रेन में ज्यादातर लोग या तो साइड वाली रॉड पकड़कर खड़े हैं या फिर रॉड से लटकते लोहे के छल्लों को। इस ई.एम.यू. ट्रेन में दरवाजे बड़े हैं, लिहाजा साँस आती रह सकती है। हालाँकि इतनी ही आसानी से जिसे गिरना होता है, जो सबसे बाहरी आदमी होता है, वह किसी पेड़, किसी खंभे से टकराकर नीचे गिर जाता है...और खत्म!
पल में खत्म...फिर मामला खूनमखून। और अब नाक पर हाथ रखकर पहचान हो रही है, यह कौन था? किसके साथ था? किस-किसने इसे देखा? यह तो तब, जब ट्रेन रुक गई हो। नहीं तो, बाज दफा तो आदमी कटकर पीछे पड़ा है, ट्रेन आगे भागती जा रही है।
फिर अगली किसी गाड़ी में बेचारे की ‘शव-यात्रा’! या फिर कहीं आता-जाता दया-ममता से भरा कोई भला मानुष उसे देखता है और फिर...
3
हम सब जो डेली पेसेंजर्स हैं, ऐसे कितने हादसों के चश्मदीद गवाह हैं। एक बार दोस्त चित्रकार हरि भाऊ से कहा था मैंने, “इनका चित्र बनाइए कभी, नहीं बन सकता क्या? सलीब पर टँगे ईसा। ये सब ईसा ही तो हैं—सबके सब।” और हरि भाऊ अपनी खिचड़ी दाढ़ी खुजाते हुए, शून्य में खो गए।
मैं कुछ-कुछ समझने लगा हूँ हरि भाऊ की इस मुद्रा का मतलब। चित्र बनेगा, मगर अभी नहीं। खैर, बात तो ईसा मसीहों की चल रही है। बहुत से ईसा हैं, जो बातें कर रहे हैं। उनकी बातों में देश है, राजनीति है, बच्चे हैं। परिवार है। महँगाई है। वे एकदम ईसा की तरह सूली पर टँगे-टँगे भी बात कर रहे हैं। इस पर इन्हें मैडल नहीं मिल सकता क्या?
“हम आते हैं तो बच्चे सो रहे होते हैं। हम जाएँगे तो सोए हुए मिलेंगे।” एक ईसा दूसरे से कह रहा है।
कुछ और बोलते हुए ईसा हैं। कुछ जवान, कुछ बूढ़े। कुछ की दाढ़ियाँ बढ़ी हुई, कुछ की आँखों में झाड़ियाँ।
“...हमने यार, गार्ड-ड्राइवर दोनों की धुनाई की। सालों ने रोकी क्यों नहीं ट्रेन परसों? याद है, जब शोकी गिरा था...!”
“बल्लभगढ़ का था न!”
“हाँ।...”
“हुआ क्या था?”
“यार, बुरा हुआ उसके साथ। जल्दी-जल्दी में चढ़ रहा था, बस!”
“अभी तो शादी हुई थी साल भर पहले...!”
“हाँ, यार। बड़ा ही गुड लड़का है।”
“बच जाएगा?”
“गया समझो, सीरियस हैड इंज्यूरी...!”
और मैं सोच रहा हूँ, हमारे यहाँ निरी बेवकूफी भरी किताबें निकलती हैं रोज। कोई इन पेसेंजर्स की साइकोलॉजी पर क्यों नहीं लिखता? कैसे-कैसे हालात इन्हें क्या बना देते हैं।
“इतना समझ न आया!” साटन का घिसा हुआ काला सलवार सूट पहने एक जवान औरत है, गा रही है। गा-गाकर करुणा उपजा रही है, “खाली हाथ यहाँ से जाएगा बंदे, इतना समझ न आया। ओ बंदे, इतना समझ न...!”
औरत हर सीट पर जा-जाकर ‘मैन टु मैन’ करुणा उपजाती है। छोटे-बड़े सिक्के जेबों से निकल रहे हैं। जिनके नहीं निकलते, उनकी ठोड़ी पर हाथ रखकर वह निकलवा लेती है।...कैसे?
“इतना समझ न आया...!”
4
खेल अब रोचक हो गया है। कुछ हैं जो रुचि ले रहे हैं। औरत कुछ बुरी नहीं, उनकी आँखों की चमक कह रही है। उस जवान औरत के चरित्र पर कुछ छींटे यहाँ-वहाँ गिरते हैं। फिर धीरे-धीरे लोग ऊबते हैं और नया विषय तलाशते हैं। कुछ और ईसा मसीह हैं, सलीब से लटके-लटके कुछ और बातों के टुकड़े गिर रहे हैं :
“...परसों दूधियों ने एक पुलिस वाले को मारा था। फिर पुलिस वालों ने घेरकर दूधियों को पीटा। इतना पीटा...इतना कि हालत दुरुस्त कर दी।”
“यार...ऊत हैं बड़े। इन्होंने आफत भी बहुत मचा रखी थी। साले ऐसे अपने डिब्बे अड़ा देते हैं कि यात्रियों का चढ़ना मुहाल। और सबके सब साले बे-टिकट!”
“तभी तो गाड़ियाँ नहीं चलतीं इस रूट पर। सरकार कहती है, इनकम नहीं होती, तो हम क्या करें? कैसे चलाएँ नई गाड़ियाँ...?”
“यार, सब बहाना है। वरना ऐसा ही है, तो सरकार पकड़ती क्यों नहीं है इन्हें? महीने में चार-छ: दफा चेकिंग हो, पकड़े जाएँ लोग, जुर्माना हो। फिर अपने आप होंगे सीधे कि नहीं।...”
आवाजें हैं कि आ-आकर टकरा रही हैं। आवाजें कभी बंद नहीं होतीं। आप ट्रेन का सफर कर रहे हैं तो खुद को बंद करके थोड़ी देर कोने में खड़े हो जाइए। आपको महसूस होगा, आप कोने में नहीं खड़े, आवाजों के समुद्र में आपको उछाल दिया गया है।...
तो क्या ये हालात ही हैं जो इन्हें क्रूर बना देते हैं? इतना क्रूर कि ये कुछ भी कर गुजरते हैं! थोड़ी देर के लिए मैं खुद को अलग करके एक गवाह और व्याख्याता की जगह पर पहुँच जाता हूँ। और अब मैं डेली पेसेंजर्स की साइकोलॉजी की बाबत सोच रहा हूँ। याद आता है, एक अंग्रेज महिला की मौत इसी रूट पर हुई थी। उसे पीट-पीटकर मार डाला गया।...क्यों? इसलिए कि वह रिजर्व्ड कंपार्टमेंट में बैठी थी। पूरी सीट पर अकेली और डेली पेसेंजर्स के आने पर बुरी तरह बुड़-बुड़ कर रही थी।
किसने पीटा उसे—किसने? किसने उसे पीट-पीटकर मार डाला? डेली पेसेंजर्स ने? जो खुद ईसा की तरह लटके हुए हैं सलीब पर! या फिर...कोई और ‘शत्रु का प्रवक्ता’ है हमारे बीच, जो यह सब करता-कराता है। हालात ऐसे बना दिए जाते हैं कि हम गुस्से की भट्ठी पर चढ़ जाते हैं। और फिर खुद-ब-खुद वह होता चला जाता है, जिसे अखबार में पढ़कर आपकी रूह काँपती है।
है न विचित्र चीज!...कितनी विचित्र! क्यों भोला भाई श्रीमाली? आपकी आँखें इतनी गीली-गीली-सी क्यों हैं?
“इतना समझ न आया...!”
वह काली साटन वाली औरत चली गई है, पर उसका गीत अब भी हवाओं में ठहरा हुआ है।
5
ओह, अभी तक शोकी का किस्सा ही चल रहा है, जो परसों गिर गया था ट्रेन से। उम्र कोई अठारह बरस।
“...असल में जिन्होंने पिछले जन्म में कुछ ज्यादा ही पाप किए हों, उन्हें ईश्वर अगले जन्म में डेली पेसेंजर बना देता है।” किसी ने कहा है, और इस पर बड़े जोर का ठहाका लगा है। लोहे के छल्ले पकड़े, सलीब पर लटके लोगों का कहकहा।
कितने ईसा, जिनके हाथ ऊपर टँगे हैं, एक साथ बातें कर रहे हैं। मजाक कर रहे हैं। और तो और ताश खेलने की जुगाड़ में भी हैं। खड़े-खड़े ताश...!
अचानक मुझे किसी चित्र-प्रदर्शनी में देखा चित्र याद आता है, ‘ईसा मसीह और कौए’। ईसा मसीह की आँखों में बड़ी पीड़ा, बड़ी गहरी पीड़ा, वही उदासी! मैंने त्रिवेणी में मालविका के साथ उसे देखा था और मालविका का कमेंट, “सुनो भोला, यह चित्र ईसा मसीह की इमेज में कुछ नया जोड़ता है। तुम्हें लगता नहीं, ईसा मसीह इस चित्र में उतरकर कहींअधिक काव्यात्मक हो गए हैं?”
क्या कोई इन डेली पेसेंजर्स को भी कुछ और काव्यात्मक नहीं बना सकता? लेकिन कैसे, जबकि हालात...!
ओह, सामने खड़े-खड़े एक अधेड़ आदमी सो गया है। कहीं यह गिर न जाए! मेरे भीतर खुदर-बुदर। खुदर-बुदर।
साथ वाले डिब्बे में शायद कीर्तन हो रहा है। आवाजें तैरती हुई चली आ रही हैं, “राधे-राधे कृष्ण मिला दे...राधे-राधे...राधे-राधे!”
किसी का ध्यान उस अधेड़ आदमी की ओर नहीं है, जो नींद के झटके में गिर भी सकता है। मैं बड़बड़ाता हूँ, “यार, उसे जगा दो, वरना...!” पर लोग हैं कि ‘राधामय’ हो रहे हैं, “राधे-राधे...राधे-राधे...राधे-राधे...!”
कुछ भी हो, स्वर अच्छा है कीर्तनिए का। मैं खुद की खीज भुलाने की कोशिश में ध्यान दूसरी ओर अटकाने की कोशिश करता हूँ। मगर मैली कमीज वाला वह अधेड़ ध्यान से हटता ही नहीं। ओह! वह खर्राटे ले रहा है। गाड़ी के हिलने के साथ-साथ उसका शरीर बुरी तरह हिलता है। यानी बिलकुल होश नहीं, हाथ छूटा तो गया समझो...!
अच्छा, कौन-कौन होगा इसके परिवार में? कहाँ जाता होगा यह काम करने? मैं अंदाजा लगाने की कोशिश करता हूँ। इस कोशिश में उसके हुलिए पर ध्यान जाता है। कोई हफ्ते भर की बढ़ी हुई दाढ़ी। चेक की मैली कमीज, जिसके ऊपर के दो बटन टूटे हैं! जेब में एक पुरानी डायरी, बटुआ और कुछ मैले कागज, एक मामूली-सा बॉलपैन।
इतने में गिरा...! वह वाकई गिरा। ओह, मैंने कहा था न!
पर...किसी भले नौजवान ने सहारा दे दिया। खूब! उसने लपककर पकड़ा और फिर खड़ा कर दिया। यों एक विकेट गिरने से बच गया।
भीड़ ज्यादा है, टाँगें जवाब दे रही हैं। मैं इधर देखता हूँ, उधर देखता हूँ और फिर डिब्बे की दीवार से सटा-सटा नीचे सरकने लगता हूँ।
अब मैं उकड़ू बैठा हूँ। टाँगें दोहरी होकर टाँगों से मिली हैं और घुटने का दर्द निकल रहा है। मीठा-मीठा सा। जैसे कोई बड़ी आरामदारी से बोच रहा हो। (नोच नहीं, बोच!)
आसपास कुछ मैले-कुचैले लोग बैठे हुए हैं तो क्या! कुछ देर बाद उकड़ू बैठना मुश्किल हो जाता है, तो मैं किसी तरह नंगे फर्श पर आसन टिकाता हूँ और धीरे-धीरे पालथी...
6
ओह! बड़ा सुख है, सुकून। (भीतर कोई खी-खी हँसता जोकर है। बोला है, पूरे जोकराना लहजे में—साला मैं भी यूँ ही खामखा इतनी देर से बाँसनुमा टाँगों पर टँगा था!)
ट्रेन में मुझे सबसे अधिक पसंद है खिड़की पर बैठे-बैठे दूर-पास की चीजें देखना, देखते-देखते खुद में खो जाना। मगर सीट मिल ही कहाँ पाती है! खिड़की तो दूर, बहुत दूर की बात समझो।
स्टेशन...तुगलकाबाद आ गया। लोग उतरे हैं, कुछ चढ़े भी हैं। मगर गाड़ी अब हलकी है।
यानी साँस लेने की जगह, ब्रीदिंग स्पेस!
मेरे अगल-बगल ओखला के कारखानों में काम करने वाले कुछ नौजवान हैं, जिन पर मस्ती का रंग सवार है। सबके चेहरों पर एक नई दुनिया में प्रवेश की एक जवान उत्सुकता है। सबकी नाकों पर गर्व, सबके हाथों में लटके हुए टिफिन। वे दरवाजों पर खड़े हैं और टकटकी लगाए स्टेशन पर उतरी औरतों का पीछा कर रहे हैं, खासकर कमसिनों का।
औरतों आगे-पीछे देखे बगैर तेज-तेज कदमों से अपने कार्यस्थलों की ओर जा रही हैं। कुछ आपस में सिर से सिर मिलाए, बड़े लयात्मक अंदाज में बातें करती जाती हैं। पर उनकी बातों और उनकी चाल दोनों में एक तरह की क्षिप्रता है। उधर दरवाजों पर खड़े जो नौजवान हैं, उनकी आँखें और आवाजें ट्रेन से बाहर आकर उनका पीछा करती हैं :
“ये साली औरतें रोज-रोज आ जाती हैं अपनी ऐसी-तैसी कराने के लिए...?”
“मेरी तो समझ में नहीं आता। ये काम क्या करती होंगी?...माँ का सिर!”
“अजी, इन्हें लहँगा-चोटी और बातों से फुर्सत मिले, तब न!”
“ये काम करने आती हैं, किसने बता दिया आपको चड्ढा साहब? काम के चक्कर में कुछ और ही काम चलता है। तभी तो इतना बन-ठनकर...! देखा, वो सामने वाली पूरी बंदूक है, बंदूक! हा-हा-हा!”
“अजी साहब, कुछ न पूछिए, मिलते पाँच सौ होंगे, खुद पर खर्चती डेढ़ हजार हैं। रोज नई साड़ी, क्रीम...लिपस्टिक। घर वालों को अलग परेशान करती होंगी, बाहर वालों को अलग, ही-ही-ही...!”
“एक हमारे दफ्तर की मिसेज अरोड़ा है।”
“एक हमारे दफ्तर की मिस चमचम...”
“एक हमारे दफ्तर की शर्मानी, कपूरनी...!”
—तुम्हें इनका बाहर निकलना क्यों नहीं सुहाता? अपनी औरतों को ताले में बंद करके आते हो और दूसरी औरतों का ‘आखेट’ करते हो। शर्म नहीं आती—मैं चीखकर कहना चाहता हूँ, पर शब्द गले में फँस गए हैं। मुझे ऐसा लगता है, जैसे गुस्से के मारे मेरी छाती भिंच गई हो! और अब मैं शायद कभी नहीं बोल पाऊँगा, कभी नहीं।
वे संख्या में बहुत अधिक हैं और बेरोकटोक मजा लेने के मूड में हैं। अगर उलझ गए तो अभी कॉलर पकड़कर नीचे। धड़-ड़-ड़...धड़ाम...!
भीतर किसी ने टोका। बल्कि झिंझोड़ दिया।
सच्ची! बड़ा बुरा अनुभव है मुझे। याद करते ही गालों पर चींटियाँ रेंगने लगती हैं। कोई ज्यादा रोज भी नहीं गुजरे। एक मुच्छड़ ने वाकई मुझे उठा लिया था और दरवाजे से बाहर फेंकने को तैयार हो गया था। मुझसे कसम ले लो, मैंने उसे बस यह समझाने की कोशिश की थी कि वह एक हताश, बूढे मुसाफिर का अपमान न करे। बस, और कुछ नहीं।
आप...आप समझ गए न! बस, यही मेरा कसूर था। यही मेरी मृत्यु का वारंट! बमुश्किल मैं बचा, मेरे गिड़गिड़ाने और आसपास के मुसाफिरों के ‘अरे-अरे, ओह-ओह, हाय-हाय’ करने पर। तब से ट्रेन में चलता हूँ तो मुँह पर पट्टी बाँधकर। कभी-कभार कोई अपने जैसा ‘खरमू’ बंदा मिलता है, दीवानगी का मारा हुआ तो थोड़ा-सा होंठों से पट्टी खिसकाता हूँ और...धीरे-धीरे गपशप चालू आहे! मगर तब भी चौकन्ना होकर इधर-उधर देखना नहीं भूलता।
करना पड़ता है भइए, बहुत कुछ करना पड़ता है!
7
ट्रेन चली है, तेज झटके के साथ। कुछ-कुछ नागिन की तरह बलखाती हुई। कैनवस एकाएक बदलता है। उस पर लापरवाही से छिड़के जा रहे रंग और आवाजें भी।
लोग जो बुरी तरह औरतों पर टूट पड़े थे, वे अपने-अपने दफ्तरों की ‘जालिम लड़कियों’ की चर्चा करने के बाद अपने दुखड़े रो रहे हैं और अपने-अपने बॉसों को गालियाँ दे रहे हैं। हाय-हाय उनके गंजे बॉस! लोग अब एक-दूसरे को आँसू पोंछने के लिए जेबों से निकाल-निकालकर साफ रूमाल दे रहे हैं। एक करुणा-विगलित दृश्य!
आसपास दोनों तरफ कतारों में खड़े पेड़ अब नजदीक हैं। दूर होते हुए भी बहुत नजदीक। और अपने हरे संकेतार्थों से धीरे-धीरे मुसकराते हुए बता रहे हैं कि यार, हँसो...थोड़ा-सा अब हँसो। छोड़ो यह सारी रोने-धोने वाली लू-लू, ला-ला...! कब तक इसी में फँसे रहोगे मेरे जमाने के अभिमन्यु!
अलबत्ता पेड़ हैं, और आसमान के आइने में इतने साफ चमकते हुए कि तौबा-तौबा!
आसमान जैसे गहरा नीला-हरा और बीच-बीच में चाँदिया जल। आसमान जैसे सागर। आसमान जैसे नद्दी...! आसमान जैसे खूब बड़ा-बड़ा-सा भीमा ताल।
और धरती हरी-हरी...हरी-हरी। सुंदर-सी हरी चुनरिया ओढ़े बीर बहूटी!
यह हरी सुंदरता हमेशा मुझ पर एक नशा-सा तारी कर देती है! खासकर जब मैं ट्रेन में होता हूँ, ट्रेन की खिड़की पर।...ओह, दुनिया कितनी अद्भुत लगती है तब और जिंदगी कितनी खूबसूरत!
मुझे याद आया, ऐसी ही एक यात्रा में मैंने अपने जैसे एक दीवाने से पेड़ों को लेकर लंबी गुफ्तगू की थी और वह होते-होते इतनी ‘लंबायमान’ हो गई कि कब यात्रा खत्म हो हुई, कब मेरा स्टेशन आया, मुझे कुछ पता ही नहीं चला।
मेरा खयाल है, उस दिन भार्गव मेरे साथ था। बल्लभगढ़ का नीलू भार्गव। हाँ, भार्गव ही था।...ट्रेन कोई पिछले बीस मिनट से रुकी हुई थी और हम सभी यात्री धूप, पसीने और ऊब से तरबतर थे। ऊपर से बेतहाशा भीड़। लिहाजा बात ट्रेनों की कपड़ा-फाडू भीड़भाड़ से शुरू हुई और इस बारे में दिमाग के परखच्चे उड़ा देने वाले मनहूस सलाह-मशविरे हुए थे। रेल मंत्राणी ममता बनर्जी अगर वहाँ होती, तो सचमुच बाग-बाग हो जातीं।
इतने भारी सलाह-मशविरे चल रहे थे कि थोड़ी देर के लिए मेरी दिमागी नसों में चटाख-चटाख-सा हुआ। और फिर बादलों में जैसे बिजली कौंधती है, ऐसे ही मेरे दिमाग में यह जादुई खयाल आया था—पेड़!
पेड़ यानी मुक्तिदूत।
पेड़ यानी...पेड़ यानी—जिंदगी!
पेड़ यानी...ऊपर आसमान की ओर छलाँग। पेड़ यानी उड़ान...! बिना पंखों के उड़ान। एक फलदार, फूलदार, हरी उड़ान!
“यार, एक आइडिया आया है दिमाग में!” मैंने परीकथाओं के बौनों की तरह कोई फुट भर उछलते हुए कहा था।
और दाढ़ी वाले भार्गव ने जब मोटे होंठ फैलाकर कहा, “बता यार!” तो मैं किसी कस्बे की तन्वंगी युवती की तरह शरमा गया था, “नहीं यार, तू हँसेगा।”
“न-न, बिलकुल नहीं। तू बता न!” भार्गव ने बड़ी गंभीरता से मुझे पोदीने पर चढ़ाया था।
“यार, मेरे घर के सामने एक पेड़ है गुलमोहर का।” मैंने डरते-डरते कहा, “मेरा दिल करता है, कि ट्रेन-व्रेन का चक्कर छोड़कर मैं उसी पेड़ से न दफ्तर आ जाया करूँ!” बताते-बताते मेरी आँखों स्वप्निल-स्वप्निल हो उठीं थीं।
“पेड़ से...? दफ्तर!” नीलू भार्गव चौंका था। उसने जरूर मुझे पागल समझा होगा, मगर कहा नहीं।
“हाँ, और क्या? पेड़ में क्या दिक्कत है भला! घर से निकलकर मैं ठीक नौ बजे पेड़ पर चढ़ूँगा और चाबी दे दूँगा। पेड़ उड़ना शुरू कर देगा, ऐन किसी विशालकाय बैलून या हेलीकॉप्टर की तरह। उड़ते-उड़ते दफ्तर पहुँचा, तो गेट के पास ही उसे कहूँगा, ‘अब शाम तक यहीं जमे रहो मेरे अच्छे गुलमोहर!’ और चाबी जेब में डाल लूँगा। लौटते समय फिर उसी पेड़ से वापस। बस, मजे ही मजे। खूब हवा खाओ, क्यों है न!”
यह सुनने ही भार्गव जो यों तो पूरा टेसूचंद है, चहका था। फिस-फिस-फिस करके चहका था। उसकी कल्पना के गवाक्ष एकाएक खुल गए थे। एक के बाद एक खिड़कियाँ खुलती चली गई थीं। मेरे कान के पास झुककर बोला था, “यार, गुलमोहर थोड़ा नाजुक पेड़ है, कवियों वाला। मगर ऐसा भी क्या! तुम जाओगे तो तुम्हारे साथ हम भी तो आ सकते हैं। हमें थोड़ा आगे नई दिल्ली पर उतार देना।”
और देर तक पेड़ों की इस ‘नई हरित संभावना’ पर गौर करते हुए, हम दोनों ‘पेड़ उगाओ अभियान’ को आगे बढ़ाने की जरूरतों पर घनघोर विचार-विमर्श करते रहे थे। और हर किसी के अपने-अपने पेड़ पर बैठकर यात्राएँ करने की कल्पनाएँ कहाँ-कहाँ न पहुँचीं!
धीरे-धीरे हमारा यकीन पुख्ता होता गया था।...एकदम पुख्ता होता गया।
बस, ट्रेन की भीड़-भाड़ कम करने का यही एक इलाज है पक्का। फिर ट्रेन वाले घर से यह ‘घर’ भी कहीं ज्यादा खूबसूरत और हरा-भरा है। हम दोनों इस बात पर सहमत थे, बल्कि हमें लग रहा था कि लो जी, हमने तो मैदान मार लिया।
“पर यार...!” थोड़ी देर में नीलू भार्गव ने अपनी आलपिन जैसी नुकीली दाढ़ी हिलाकर मेरे गुब्बारे में छेद कर दिया था। बोला था, “जैसे हवाई जहाज क्लैश करते हैं, ऐसे ही पेड़ भी आसमान में क्लैश करने लगे, तो बड़ी आफत होगी मित्र। ऐसी पेड़-दुर्घटनाओं से आसपास और जमीन दोनों एक साथ लहूलुहान होंगे। और हरा रक्त बह उठेगा। तुम समझ रहे हो न!”
“हाँ, यार...!” मेरा चेहरा लटक गया था।
“पर इसका भी तो कोई इलाज होगा न!” थोड़ी देर बाद मैंने दिमाग खुजाया।
पर अभी इस बारे में बात आगे चलती कि आगे-पीछे से ‘क्रांति’ शुरू हो गई थी। क्रांति यानी धक्का-पेल।
“क्या हुआ? क्या हुआ? क्या...!” मैंने अचकचाकर जानना चाहा था।
लेकिन तब तक नीलू भार्गव ने हाथ बढ़ाकर मेरा कंधा पकड़ा और जोर-जोर से हिलाकर मुझे वर्तमान में ला पटका था।
“चल मर, मेाया...! तेरा मिंटो ब्रिज आ गया। भाग! मुझे तो अभी आगे नई दिल्ली जाना है।” कहते-कहते उसने मुझे चलती गाड़ी से धक्का दे दिया था।
गनीमत यह थी कि गाड़ी अभी हलकी स्पीड में थी। मैं बचा और भागा। भीड़ में भीड़ का हिस्सा बना, तेज-तेज कदमों से भागा जा रहा था। इस बीच पेड़ से यात्रा की कल्पना कहाँ हवा हो गई, कुछ पता नहीं चला था।
कुछ आगे चलकर थोड़ी साँस आई, तो पेड़ से उड़ने की मनोहारी कल्पना पर खुद ही एकांत में हँसी का उद्रेक हो उठा था—खी-खी...खी-खी-खी...!
ओह! वह सब याद करके आज भी हंसी आ रही है—आज भी।
“यार, चल, हम दोनों मिलकर ट्रेन-पुराण के साथ-साथ पेड़-पुराण भी लिख दें।” मैंने कल्पना में नीलू भार्गव के दाढ़ीदार चेहरे की ओर इशारा करके कहकहा लगाया और सोचने लगा—कहाँ होगा भार्गव आजकल, किन जुगाड़ों में...?
बरसों हो गए उस किस्से को, पर आज भी धूप, पसीने और ऊब से तरबतर माहौल में उस मस्त-मस्त बतोड़पने की याद आती है, तो दिन में कुछ होता-सा है।
मस्त बतोड़पन! डेली पेसेंजर्स का टाइम पास। खासी ऊब में भी जिंदा रहने का अकेला हथियार।
नीलू भार्गव याद आया, तो साली ट्रेन की ‘उमस’ कुछ कम हो गई।
8
ओखला...! एक साथ बहुत से लोग एक साथ भड़भड़ाकर उतरे है।
एकदम युद्ध...महायुद्ध!
...म-हा-भा-र-त!
बाकायदा हाथों, पैरों, कंधों से एक-दूसरे को धकियाती भीड़ देखते ही देखते पूरे प्लेटफार्म पर छितरा जाती है। सब अलग-अलग दिशाओं की ओर मुँह किए चले जा रहे हैं—तेज, तेज...! इन्हें कहाँ जाना है?
अलबत्ता, ट्रेन अब हलकी-फुलकी है। जंगल में सीटियाँ बजाती हवा की तरह।
मैंने अच्छी तरह टाँगें फैला ली हैं, ऐन कंपार्टमेंट के दरवाजे पर और मस्ती में गुनगुनाना शुरू कर दिया है, “चलो दिलदार चलें, चाँद के पार चलें...!” (दिन में भी चाँद! साला कुछ गड़बड़ है भोला भाई श्रीमाली तेरे साथ?)
भीतर और बाहर की दुनिया की यह संधि-अवस्था है। ट्रेन के दरवाजे पर, जहाँ मैं बेशर्मी से टाँगें फैलाए बैठा हूँ, जंगल से आती अलमस्त हवा सीधे टकराती है! इसे कहते हैं—यात्रा!
मैं दरवाजे की मूठ कसकर पकड़े हूँ। बाहर के दृश्यों पर आँखें गड़ा देता हूँ—लो, यह आया निजामुद्दीन स्टेशन। और सामने ही हुमायूँ का मकबरा, जिसके पुरानेपन का जादू अब भी बरकरार है और रह-रहकर किसी शास्त्रीय आलाप की तरह हवा में बजता है। यहाँ से थोड़ी ही दूर हजरत निजामुद्दीन की मजार! कविता की और कवियों की तीर्थ स्थली! वहाँ की हवाएँ तक गाती हैं कव्वाली!...एक बार गया था बहुत पहले। पर दिल नहीं भरा। कभी फिर जाना है, जाना ही है! याद आता है, अमीर खुसरो का दर्द, “चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस...” अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर उन्होंने लिखा था—ट्रिब्यूट! शोक-श्रद्धांजलि! सिर खुद-ब-खुद झुक जाता है।
डिब्बे में खाली जगह अब बढ़ गई है और लोगों का अपने-अपने ढंग से फैलना, पसरना, लुढ़कना भी। इक्का-दुक्का तो फर्श पर ही लमलेट हैं।
मेरे सामने ही डिब्बे की दीवार से सटी हुई दो लड़कियाँ गुट्टे खेल रही हैं। होंगी कोई आठ-दस बरस की। बहनें, या शायद सहेलियाँ!...
मैले, चीकड़ कपड़े हैं। मैले, चीकट बाल। दोनों की धूल से सनी दो-दो चोटियाँ। फर्श पर इस तरह अधिकार से पसरी हैं, जैसे राजसिंहासन पर आसीन राजरानियाँ। और गुट्टे खेलने में ऐसी लीन कि कुछ होश नहीं। कौन सा स्टेशन आया, गया और कहाँ इन्हें जाना है? खेल में बहुत ‘पक्कड़’ लगती हैं—सच्ची-मुच्ची!
मुझे याद आया, बचपन में दीदी और उसकी सहेलियाँ गुट्टे खेलती थीं, तो मेरा काम होता था उनके जीते हुए गुट्टों को सहेजना और गिन-गिनकर हिसाब लगाना। और यों मुझे लगता था कि कहीं न कहीं मैं भी खेल में शामिल हूँ। पर क्या था?
मैं मूर्खों की तरह, किनारे खड़े पेड़ की तरह याचनाभरी आँखें लिए दूर-दूर से इन मैली-कुचैली राजरानियों के खेल को देख रहा हूँ। शामिल नहीं हूँ, मगर कैसे शामिल नहीं हूँ! हालाँकि इन लड़कियों की आँखों में मेरे लिए हास्यपूर्ण तिरस्कार है कि जा-जा, तू क्या खेलेगा? तू जा अपने दफ्तर...बॉस के आगे गुलामी बजा!
वे उलटी हथेली पर छह-छह गुट्टे लेकर उछालती हैं और फिर खेल की शर्त के मुताबिक नीचे से भी एक-दो गुट्टे उठा लेती हैं। गुट्टे से गुट्टे टकराते हैं, चट-चट-चटाक...! लेकिन जाने किस अदृश्य जादू से वे बँधे हैं कि गिरते नहीं।
दीदी और उसकी सहेलियों को देखता था, तो झुरझुरी आती थी। आज ट्रेन में इन्हें देख रहा हूँ, तो ठीक वैसे ही झुरझुरी आ रही है।
बचपन...बचपन के दिन! बचपन की खरमस्तियाँ। मेरे ट्रेन के सफरनामे में क्या यह सब भी शामिल है? पर इससे ट्रेन ‘घर’ है, यह तो साबित हुआ ही। लगभग वही वाक्य, जिससे हमने इस अजीबोगरीब किस्से की शुरुआत की थी।
हालाँकि अभी-अभी मेरी बगल में एक लंबे चोगेनुमा काले कुरते में ढका ग्यारह-बारह साल का लड़का आ खड़ा हुआ है। हाथों में लाठी लिए हुए। उसकी बाहर की ओर देखती उदास-उदास आँखें कुछ और कह रही हैं।
वह शायद घर से भागा हुआ है और किसी कमली वाले बाबा की भेंट चढ़ गया। या हो सकता है कि खुद उसके माँ-बाप ने ही...! शायद कोई मन्नत, मनौती।
वह काले कुरते वाला ‘छोटा-सा कबीर’ ट्रेन में है भी और नहीं भी। वह असल में एक तलाश में है। एक प्रतीक्षा में, जैसे कि हम सभी हैं। हाँ, बीच-बीच में वह भी उन गुट्टे खेलती लड़कियों को ललचाई आँखों से देखने लगता है। और फिर बाहर—बेचारा!
“तुम कहाँ से आए हो बेटे? कहाँ जाओगे?” मैं पूछे बगैर नहीं रह पाता। पर जवाब में वह कुछ नहीं कहता। सिर्फ मुँह फेर लेता है और बाहर देखने लगता है।...
आह कबीर...सचमुच कबीर! यहीं ट्रेन में होनी थी मुलाकात?
मुझे धक्का लगता है। मगर मैं रोने-धोने को तैयार नहीं। मैं अब भी हवा में हूँ, अपनी दोनों टाँगें फैलाए, ट्रेन के दरवाजे पर डटा। खुद से कह रहा हूँ—चलो, जब पूरा दरवाजा ही मिल गया हवा खाने को, तो क्या होगा खिड़की-विड़की से। यह तो ऐसे ही हुआ न, जैसे पूरा का पूरा आपका घर चला आ रहा है आपके साथ-साथ और आप उड़ते-उड़ते दुनिया-जहान की हवा खा रहे हैं मजे से।
9
और अब लो जी भोला भाई श्रीमाली! गाड़ी धीमी हुई...धीमी और धीमी। रुकी, एक झटके के साथ।
स्टेशन...मिंटो ब्रिज। अरे, तिलक ब्रिज कब निकल गया? कुछ पता ही नहीं चला।
उतरते-उतरते कुछ और हलके झटके लगेंगे। हलकी हँसियाँ। ठहाके...! हवा में उड़ते इक्का-दुक्का गालियों के स्वर भी। न जाने किसके लिए?
कुछ उतरे आहिस्ता से पाँव टिकाते, कुछ कूदे धम्म!...तेज-तेज कदम। यात्रा खत्म। चल रे भोला भाई, अब चल।
‘चल खुसरो, घर आपने....!’
घर नहीं, दफ्तर! (...एक ही गल्ल है जी!)
मगर शाम को फिर यही पटरियाँ। यही मारा-मारी। यही घर—यही, बिलकुल यही। मगर उलटे क्रम से।
...यात्रा कहीं खत्म होती है! यात्रा कहाँ खत्म होती है?
दूर हवाओं में एक स्वर नाच रहा है। कभी भँगड़ा तो कभी डाँडिया बन जाता है, कभी गरबा! लो, अब गिद्धा बनकर नाचता-नाचता मेरे पास सरक आया है, ‘रेल गड्डी आई, साड्डी रेल गड्डी आई...!’
मैं तेज-तेज कदमों से दफ्तर की ओर जा रहा हूँ। आश्चर्य मेरे कदमों की तेज धम-धमाक में भी यही संगीत फूट रहा है, “रेलगड्डी आई...साड्डी रेल गड्डी आई...साड्डी...साड्डी—साड्डी...रेल गड्डी...!”
**
4
कानून का रखवाला
प्रकाश मनु
*
घायल बजरंगी किसी तरह घिसटता हुआ चारपाई तक आया।
चारपाई पर पड़ते ही वह बुरी तरह कराह उठा। उसकी साँस धोंकनी की तरह चल रही थी। हड्डी-हड्डी से दर्द उठ रहा था। जैसे नागफनी के जहरीले काँटों पर उसे लिटा दिया गया हो, या हजारों मधुमक्खियों ने एक साथ काट खाया हो!
उसका सारा शरीर बुरी तरह चोटिल था, खून से लथपथ। सिर से बहकर खून अब नाक और होंठों तक आ गया था। साँस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी। मांस कहीं-कहीं एकदम उधड़ गया था और नंगी, चमकती हड्डियाँ...! खुद ही वह डर से सिहर-सा गया था।
होंठ दबाए वह चुपचाप दर्द पीने की कोशिश करने लगा।
असहनीय पीड़ा और घबराहट के मारे उसने आँखें बंद कर ली थीं। पर इस तरह आँखें बंद कर लेने से दर्द का जहरीला दंश थोड़े ही जा सकता था और न रिसता हुआ खून और चोट के निशान। सब मिलकर एक वीभत्स हँसी हँसते हुए, “हा...हा...हा...!” वे अब भी थे और उनकी मारक तड़प से उसकी आँखें रह-रहकर बंद होती जा रही थीं।
पर उन बंद आँखों में भी उन लोगों के क्रूर, हिंसक चेहरे घूम रहे थे। एक अजीब-सा खौफ पैदा करते हुए। सिर पर अँगोछा बाँधे, मुँह ढके, लंबे-तगड़े शरीर। केवल आँखें दिख रही थीं और उन आँखों में नशे की खुमारी। लाल डोरे और खून की प्यास...।
“मारो स्साले को!” और एक के बाद एक तड़ातड़ लाठियाँ पीछे से आकर उसकी गरदन पर पड़ी थीं।
और फिर उसे कुछ याद नहीं रहा था। एक घना अँधेरा उसे लील गया था।
अँधेरा!...अँधेरे की भी एक स्याह खोह, जहाँ कहीं कुछ नहीं था। न रोशनी। न जिंदगी।
अभी थोड़ी देर पहले उसे कुछ होश आया तो वह फिर से सारी घटना पर विचार करने लगा था। उसका दिमाग फिर से काम करने लगा था।
कौन हो सकते हैं वे लोग?...हाँ, निश्चित रूप में ठाकुर जगदेव सिंह के लोग रहे होंगे। उसने सुबह ही मना किया था उन्हें खेत में गन्ने काटने से। वे आठ-दस लोग थे। बड़ी-बड़ी चादरों में गट्ठर बाँधकर ले जाना चाहते थे। चोरी-छिपे तो यह अरसे से चल ही रहा था पर आज तो उसके सामने ही...
*
वह कब तक बर्दाश्त करे? आखिर उसका भी घर-परिवार है। बीवी-बच्चों का पेट तो पालना है। कहाँ से खिलाए उन्हें? दिन भर पसीना बहाने पर भी साल में मुश्किल से चार पैसे जुड़ते हैं। उस पर महँगाई! जैसे पेट में एक छुरी गड़ी हुई है, जो हर साल कुछ और भीतर धँस जाती है।
ऊपर से ये लोग...गाँव के खलीफा। इन्हें किसी के दुख-दर्द से तो हमदर्दी है नहीं। कोई मरे या जिए, इनकी बला से। मगर सभी किसान का माल बाप का समझते हैं। इन्हें क्या पता, खेत में कैसे जान गलानी पड़ती है। मिट्टी में मिट्टी होना पड़ता है, तब धरती के अंतस से पैदा होती है फसल। किसान जान होम करके उसे सींचता है, पसीने से, लहू से...उस पर भी गिद्धों की नजर।
“दो-चार चाहिए तो मुझसे कहो, मैं खुद दे दूँगा। पर इतने नहीं ले जाने दूँगा।” उसने विनयपूर्वक, लेकिन दृढ़ता से कहा था।
सुनते ही वे लोग आगबबूला हो गए थे। गंदी गालियाँ बकते हुए, अच्छी तरह ‘खबर लेने’ की धमकी देकर चले गए थे।
और वह सोचता रह गया था। यह कैसा वक्त, कैसी व्यवस्था है? एक तो चोरी, ऊपर से सीनाजोरी। ऐसे में गरीब आदमी कैसे जी पाएगा? क्या गरीब की कहीं सुनवाई नहीं होगी। कुछ भी हो, रोज-रोज की इस आफत से वह तंग आ गया है। अब वह और नहीं सहेगा, यह अधिक बर्दाश्त नहीं करेगा।
यों उसने पूरी विनय से काम लिया था। कोई कठोर शब्द जबान पर लाए बगैर अपनी मजबूरी बता दी थी। पर वे ठाकुर की शह पर थे, गरमा गए थे, “हड्डियाँ काटकर नहर में फिंकवा देंगे, ससुरे। दो पैसे के आदमी, इनकी ये मजाल...! हमें टोकें? हम राजा हैं ससुरे और तुम हमारी परजा, हम चाहे जो करें।”
और रात में ही उन्होंने यह करके दिखा भी दिया था।
वे तो शायद उसे मार ही डालते, पर आसपास के खेतों में कुछ कदमों की आहट पाकर शायद उन्होंने इरादा बदल दिया और भाग निकले थे।
2
अचानक उसे पास से गुजरती कोई परछाईं दिखाई दी। उसने पहचानने की कोशिश की। पड़ोस के बूढ़े रामदीन काका थे।
“काका...!” उसकी भयग्रस्त, कराहती आवाज में एक बहुत हलकी, धूमिल उम्मीद चमकी। अँधेरी रात में जुगनू की तरह।
रामदीन काका चौंके। उसके पास खिसक आए, “कौन...बजरंगी? क्या बात है, बेटा? ठीक तो हो न!”
“पास आकर देख लो, काका!” बजरंगी की आवाज की बेबसी और कंपन छिप नहीं सका था।
रामदीन काका पास आए तो उसकी हालत देखकर त्रस्त हो उठे। “अरे बजरंगी, कैसे हुआ यह सब? बता न, किसने मारा तुझे?” उनका पीड़ा से सना वात्सल्य उमड़ पड़ा था।
बचपन से ही उसे प्यार करते हैं रामदीन काका। उन्हीं की गोद में उसका बचपन पला है। उनसे कहानियाँ सुनते और उन कहानियों से दुनिया-जहान की बातें सीखते उसने जीवन का पहला पाठ पढ़ा था। और फिर उन्हीं से डगमग-डगमग चलना सीखा।
काका उसे हिम्मत और आत्मविश्वास से जीने की प्रेरणा देते थे। “मेहनत और सचाई को जीवन का मूलमंत्र बना लो और हिम्मत से जियो। किसी के आगे झुको नहीं। बस, एक ऊपर वाला है, वही सबको देता है। उसके आगे तो कोई छोटा-बड़ा नहीं!” रामदीन काका के होंठों पर यही शब्द रहते थे और उसके जीवन पर इन बातों का गहरा असर पड़ा था।
पर आज इन बातों के अर्थ को बेमानी करता हुआ, एक काला-सा प्रश्नचिह्न उसकी आँखों के आगे झूल गया था। अभी तक झूल रहा था।
खुद रामदीन काका उसकी यह हालत देखकर कुछ टूट-से गए थे।
“यह सब कैसे हुआ, बजरंगी?” पास आकर उन्होंने उसके माथे पर हाथ रख दिया था।
“कोई चोरी करता रहे और अन्य चुपचाप देखते रहो तो ठीक। नहीं तो इसकी सजा!”
“ठाकुर के लोग थे...?” अब रामदीन काका की समझ में कुछ कुछ आ रहा था।
“हाँ।” बजरंगी के स्वर में एक असहाय आदमी की टूटन थी।
रामदीन काका सोच में पड़ गए।
“चलो, बाद में देखेंगे। पहले मेरे साथ चलो, मास्टर अयोध्या बाबू के यहाँ। कुछ टिंचर-विंचर, पट्टी वगैरह का सामान उनके पास रहता है। पट्टी बँधने से कुछ तो आराम आएगा। चल लोगे न बेटे, मेरा सहारा लेकर?”
“नहीं काका, मुझसे उठा नहीं जाएगा। तुम घर जाकर बनवारी भैया और गिरीश को बुला लाओ।”
बनवारी बजरंगी का बड़ा भाई था। यों खूब लंबा-तगड़ा, हृष्ट-पुष्ट शरीर था, लेकिन स्वभाव से सीधा। कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा तो क्या, तू-तू, मैं-मैं तक नहीं हुई थी। छोटे भाई गिरीश ने इसी साल बी.ए. पास किया था और अब नौकरी की तलाश में था।
बजरंगी को पीटे जाने की बात सुनकर बनवारी और गिरीश हाथों में लाठियाँ लिए, अड़ोस-पड़ोस के कुछ लोगों को साथ लेकर दौड़े-दौड़े खेत पर पहुँचे।
पीछे-पीछे बनवारी का परिवार। बजरंगी की पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे भी दौड़ते हुए आ पहुँचे। सबके चेहरे बदहवास। आँखों में भय की परछाइयाँ तैर रही थीं।
बजरंगी के बच्चे देवी और बबुआ सबसे ज्यादा त्रस्त थे। चारपाई पर लहूलुहान, गठरी से पड़े बाप को वे फटी-फटी आँखों से देख रहे थे। बजरंगी की पत्नी कमला जोर-जोर से रोती हुई ठाकुर को गालियाँ दे रही थी। जेठानी कालिंदी उसे समझाते-समझाते खुद रो पड़ी थी।
‘क्यों लोग नहीं जीने देते मेहनत करने वाले सीधे सादे आदमी को?’ सबके चेहरे पर एक करुण, लेकिन तीखा सवाल था। अनुत्तरित।
अब क्या होगा? क्या...? क्या...? अगला सवाल। वह भी अनुत्तरित।
हालाँकि पूरे माहौल में एक साथ भय और गुस्से का पसारा था।
“इम देख लेंगे! लुच्चों, बदमाशों से निबटना हमें भी आता है।” बनवारी ने अपनी लाठी सँभालते हुए कहा। उत्तेजना में उसका सारा शरीर काँप रहा था। लोगों ने पहली बार उसे इतने गुस्से में देखा था।
“पर भैया, हमें थाने में रिपोर्ट लिखानी चाहिए। आखिर कानून किसलिए है? पुलिस किसलिए है?” छोटे भाई ने, जो शहर में रह चुका था और बी.ए. पास था, सलाह दी।
“कुछ नहीं होगा, देख लेगा। ये ससुर कौन कम ठग हैं? ये रच्छक नहीं, भच्छक है, भच्छक! ये भी गुंडों का ही साथ देंगे।” बनवारी ने गुस्से से कहा।
“तो भी हमारा फर्ज बनता है, भाई। एक बार देखना तो चाहिए।” रामदीन काका ने सलाह दी।
अब तक काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। सभी ठाकुर के प्रति रोष प्रकट कर रहे थे।
“कब तक यह गुंडाशाही बर्दाशत करोगे, भाई?” एक ने कहा।
और फिर सात-आठ लोग थाने रिपोर्ट लिखाने चलने के लिए तैयार हो गए।
पर बजरंगी को इस हालत में कैसे ले जाए? उसके घावों पर फौन मरहम-पट्टी होनी जरूरी थी, वरना जान खतरे में पड़ सकती थी।
एक छोटा बच्चा रमुआ दौड़कर गया और मास्टर अयोध्या बाबू को बुला लाया। अयोध्या बाबू अध्यापक थे, पर चिकित्सा के बारे में भी उन्हें ठीक-ठाक जानकारी थी। थोड़ा-बहुत प्राथमिक चिकित्सा का सामान घर में रखते थे। बनवारी की हालत देखकर वे भी दुखी हो उठे, “हे भगवान, बनवारी जैसे सीधे-सादे आदमी पर हाथ उठाते इन्हें शर्म नहीं आई। ये आदमी हैं या...दरिंदे?”
मास्टर जी ने झट पेटी खोली। रूई, पट्टी और दूसरा सामान निकाला। फिर उन्होंने सावधानी से घाव साफ करके, टिंचर लगाकर पट्टी बाँध दी।
*
हालाँकि पट्टी बाँधते हुए भी उनके हाथ काँप रहे थे।
“जुल्मी कहीं के! उफ, किस बुरी तरह मारा है...राच्छस ससुरे!” उनके होंठ लगातार बुदबुदा रहे थे।
एक बेबस पुकार! निरीह जनता की निरीह आवाज। हवा में भाप की तरह शब्द...
शायद जनता इसी तरह बोलती है।
3
थोड़ी देर बाद आठ-दस लोग बैलगाड़ी पर बैठकर थाने चल पड़े। बजरंगी की खाट ऊपर डालकर उसे लिटा दिया गया था।
सर्दियों की कँपकँपाती रात। तीखी हवा सूइयों की तरह चुभ रही थी। रात के नौ बज चुके थे। पर वे रात में ही थाने पहुँच जाना चाहते थे, ताकि सुबह लड़के ही उन गुंडों को पकड़ लिया जाए।
घंटा, डेढ़ घंटा ऊबड़-खाबड़ रास्ते की धूल फाँकते और हवा की नुकीली सूइयाँ झेलते वे थाने आ गए।
पर वहाँ गहरे अँधेरे का साम्राज्य था।...एक अशुभ प्रेत-सन्नाटा सिर्फ एक हलका-सा बल्ब टिमटिमा रहा था, जिसकी पीली रोशनी आसपास के पेड़ों के झुरमुट में खो गई थी।
दो नवयुवक बजरंगी की चारपाई उठाए आगे-आगे चले। बाकी लोग पीछे हो लिए। भीतर जाकर देखा, थानेदार साहब ऊँघ रहे थे। एक सिपाही आराम से कुरसी में धँसा हुआ बीड़ी पी रहा था।
उन्हें देखकर सिपाही ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे उसके आराम में खलल पड़ गया हो।
“क्या काम है? क्यों चले आए आधी रात को? घर पर चैन नहीं पड़ता?” उसने अपनी गरदन अकड़ाकर पूछा।
खून में लथपथ बजरंगी की चारपाई की ओर इशारा करके रामदीन काका ने कहा, “देखो भाई, अब तो यह भी होने लगा। हम लोग कहाँ जाएँ? कोई ठौर है सीधे-सादे आदमी के लिए...?”
“देखो, यहाँ ज्यादा भाषणबाजी की जरूरत नहीं है। यह तो हमेशा से होता आया है, होता रहेगा। तुम अपनी बात कहो, ज्यादा चौधराहट मत झाड़ो।” सिपाही की जबान से अब भी ‘फूल’ झड़ रहे थे।
“बात यह है जी, ठाकुर के दस-बारह लठैत आए और बगैर बात पीट-पीटकर अधमरा कर दिया बेचारे को। वो तो जान ही लेने पर उतारू थे, मगर...!” इस बार मास्टर अयोध्या बाबू ने बात सँभाली।
ठाकुर का नाम सुनकर सिपाही का उत्साह और कम हो गया। उसकी मुख-मुद्रा कठोर हो गई।
अब जैसे वह ठाकुर के पाले में जाकर पूछ रहा था, “तुम्हें कैसे पता कि ठाकुर के लोग थे?”
“...इसलिए कि वे पड़ोस के गाँव के हैं। हर वक्त घूमते-फिरते रहते हैं। लोगों पर बगैर बात रोब झाड़ते हैं और ठाकुर की हवेली के बाहर बगीचिया में पसरे रहते हैं। और फिर दिन में वे धमकी देकर गए थे कि हड्डी-हड्डी काटकर फेंक देंगे!”
“ठीक है...ठीक है, पर गवाह कौन है, बताओ? किसने देखा इसे पिटते हुए?” सिपाही के चेहरे पर धूर्तता थी।
सब लोग पलटकर बनवारी की ओर देखने लगे।
“वो तो जी, वो तो...उस वक्त कोई था ही नहीं वहाँ। रात का वक्त था, सर्दी का मौसम। बजरंगी रखवाली कर रहा था खेत की कि...” बनवारी की समझ में नहीं आया कि वह क्या जवाब दे?
“तो गवाह कोई नहीं है न? फिर क्या कर रहे हो यहाँ, दफा हो जाओ।” सिपाही ने क्रूर हँसी के साथ कहा, “कानून गवाही पर चलता है। ऐसा थोड़ेई है कि मुँह उठाया और चले आए!”
हवा में सन्नाटा छा गया।
बस, हलकी बुद-बुद...बुद!
4
इतने में थानेदार जो या तो सो रहा था या सोने का अभिनय कर रहा था, जाग गया। कानूनी नाटक के पहले अंक के ‘पटाक्षेप’ के बाद शायद उसे अपनी भूमिका याद हो आई थी। एक लंबी ‘ऊँ...’ और संक्षिप्त-सी अँगड़ाई से उसने अपनी भूमिका की शुरुआत की।
“बात क्या है! भई, तुम लोग इतनी रात गए क्यों तंग करने आ गए?” उसका नींद से बोझिल स्वर उभरा।
“रिपोर्ट लिखानी है जी।” सिपाही मूँछें फड़फड़ाता हुआ बोला।
“हूँ!” थानेदार की आँखों में चमक आई और चली गई। जैसे बिजली चमकी हो और अचानक गुल हो गई हो।
“सर, ये ठाकुर जगदेवसिंह के खिलाफ...!”
“ऐं, अच्छा-अच्छा!” थानेदार ने सारी स्थिति के समीकरण पर सोचते हुए, अपने फायदे का अनुमान लगाते हुए कहा।
“बहुत बड़े आदमी के खिलाफ जा रहे हो। सोच लो, कहीं उलटे न फँस जाओ।”
“आप तो रिपोर्ट लिखिए, साहब। आदमी बड़ा है या छोटा, हमारी बला से। गुंडा आखिर गुंडा है। वो चाहे कोई भी हो। भला हद है, यह कैसा कानून है कि...आम आदमी की सुरक्षा तक नहीं!” गिरिश जो अब तक गुस्सा दबाए चुप था, झल्लाकर बोला।
थानेदार की मुख-मुद्रा अचानक कठोर हो गई।
उसने एक क्षण के लिए तो जलती हुई निगाहों से गिरीश की ओर देखा, जैसे कच्चा खा जाएगा। पर फिर थोड़ी देर में ही उसने रंग बदल लिया। ऊपर से पहले की तरह सहज, सामान्य लगने लगा।
“ठीक है, रिपोर्ट लिख ली जाएगी।” उसके चेहरे पर अब ‘जन-गण-मन अधिनायक’ वाली शांत मुद्रा थी।
“तो फिर लिखिए।” गिरीश अब भी तैश में था।
“पहले यह बताओ कि रिपोर्ट लिखूँ किससे?”
“किससे...क्या मतलब?” अब तो सभी अचकचाए। यह कैसा सवाल?
“मतलब यह कि रिपोर्ट चाँदी की कलम से लिखूँ या लकड़ी की कलम से...?”
“आप तो कानून की कलम से लिख दीजिए, साहब। हम पहले ही बहुत तंग हो चुके हैं। देखिए, हमें बहुत परेशान किया जा रहा है। ऐसे में कोई कैसे जी सकता है? आप हालत देख रहे हैं न बजरंगी की! देखिए, उनका हौसला बढ़ेगा तो कल को वे फिर...! देखिए, हम...आप...कानून, थानेदार साहब, कुछ तो खयाल...!” विनती करते हुए, बल्कि गिड़गिड़ाते हुए बनवारी के शब्द लाचार बेबसी में टूटकर बिखर गए।
“ठीक है, तो कानून की कलम लकड़ी की होती है। रिपोर्ट कल लिखी जाएगी, पर पहले डाक्टरी रिपोर्ट लाना कि इसे वाकई चोट लगी है और खून निकला है।” थानेदार का चेहरा बिलकुल निर्भाव था।
“पर वह तो आपके सामने है। आप देख तो रहे हैं कि इसके माथे पर, छाती पर, सारे शरीर पर घाव के निशान हैं, खून निकल रहा है, पट्टियाँ बँधी हैं। कितनी मुश्किल से तो यहाँ लेकर आए हैं। पूरे शरीर पर टूट-फूट...! अब इसके लिए कोई और सबूत चाहिए?”
रामदीन काका इस समय महाभारत के युधिष्ठर लग रहे हैं। सचाई के प्रवक्ता। एक करुण और बेचैन स्वर।
“हम कुछ नहीं जानते। तुम्हें पता ही है कि कानून अंधा होता है। हम बहते हुए खून पर नहीं, खून की रिपोर्ट पर यकीन करते हैं, समझे।”
कहकर थानेदार साहब ने झल्लाकर आरामकुर्सी पर ही बैठे पहलू बदला और बाएँ की बजाए अब दाएँ हाथ पर सिर रखकर ओंघने लगे।
“पर, साहब...!” फिर एक समवेत गिड़गिड़ाहट उभरी। हर काल की जनता की लाचार अभिव्यक्ति।
मक्खी...भिन-भिन-भिन...!
मच्छर...भिन्न।
“साहब-वाहब कुछ नहीं! ज्यादा चीं-चपड़ की तो तुम्हारे खिलाफ रिपोर्ट लिख लूँगा कि तुम सब हमें मारने आए थे। थाने का सम्मान और कानून की प्रतिष्ठा के नाम पर तुम सबके सब जेल में होगे। चक्की पीसोगे...चक्की!”
थोड़ी देर तक भीड़ में खुसर-पुसर होती रही। एक गूँगा आक्रोश और हिकारतभरा गुस्सा उभरा और देखते-देखते धुआँ होकर कातर चुप्पी में बिला गया।
सबके सामने अपनी-अपनी लाचारियाँ उभर आईं। लोग एक-एक कर खिसकने लगे।
लोग नहीं।...घास, निरीह घास, जो पैरों से रौंदे जाने के लिए उगती है।
हमारा प्रेत-तंत्र, तंत्र-मंत्र, थाना-तंत्र उसी पर खिलता है।
लिहाजा बनवारी और गिरीश भी बजरंगी की चारपाई उठाए, सिर झुकाए बाहर आ गए।
पीछे-पीछे रामदीन काका थे। विवर्ण चेहरा, दरका हुआ विश्वास और एक टूटा, जर्जर अस्तित्व लिए।
कानून का रक्षक अब तक आरामकुर्सी पर और अधिक टाँगें फैलाकर खर्राटे भरने लगा था।
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