25.11.2015
(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 51, शब्द-संख्या 16,280)
बाल कहानी-संग्रह (ई-बुक)
नानी के तारे
डा. सुनीता
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545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. +91-9910862380
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डा. सुनीता - संक्षिप्त परिचय और रचनाएँ
जन्म : 29 जनवरी 1954 को हरियाणा के सालवन गाँव में।
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी.। शोध का विषय—‘हिंदी कविता की वर्तमान गतिविधि : 1960 से 75 तक’। कुछ वर्षों तक हरियाणा और पंजाब के कॉलेजों में अध्यापन। सर्व शिक्षा अभियान और सामाजिक कार्यों में गहरी रुचि।
लेखन और कृतियाँ : डा. सुनीता के लेखन का एक छोर समकालीन साहित्य के गंभीर आलोचनात्मक विवेचन से जुड़ा है, तो दूसरी ओर छोटे बच्चों और किशोरों के लिए सहज-सरस कहानियाँ लिखने में उन्हें सुख मिलता है। बचपन में गाँव में गुजारे गए समय पर लिखी गई कहानियाँ ‘नानी के गाँव में’ कई पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद, अब पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं।
बच्चों के लिए लिखी गई कहानियों की अन्य पुस्तकें हैं—‘फूलों वाला घर’, ‘दादी की मुसकान’, ‘रंग-बिरंगी कहानियाँ’, ‘नानी-नानी कहो कहानी’, ‘कहानियाँ नानी की’, ‘दादी माँ की मीठी-मीठी कहानियाँ’, ‘बच्चों की भावपूर्ण पारिवारिक कहानियाँ’ और ‘बुढ़िया की पोती’। खेल-खेल में बच्चों से बातें करते हुए लिखे गए सीधे-सरल भावनात्मक लेख ‘खेल-खेल में बातें’ शीर्षक से प्रकाशित। इसके अलावा देश-विदेश के महान युगनायकों पर लिखी जीवनीपरक पुस्तक ‘धुन के पक्के’’ खासी चर्चित हुई है।
प्रतिष्ठित बाल पत्रिका ‘बाल भारती’ में भारत के अलग-अलग राज्यों की सांस्कृतिक विरासत, लोक परंपराओं और पर्यटन पर केंद्रित ‘रंग-रंगीला देश हमारा’ स्तंभ लिखा, जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया। अब वह ‘आओ, सैर करें भारत की’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इन दिनों ‘बाल भारती’ पत्रिका में ‘कहानियाँ सात बहनों से’ स्तंभ नियमित प्रकाशित हो रहा है।
अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर आलोचनात्मक लेख और बच्चों के लिए लिखी गई कहानियाँ, लेख वगैरह छपे हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए देवेंद्र सत्यार्थी की चुनिंदा कहानियों का अनुवाद। यूनेस्को के सर्व शिक्षा अभियान के तहत भी कुछ पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया है। श्री श्री रविशंकर की नए संदर्भों में ज्योतिष विज्ञान पर लिखी गई एक महत्वपूर्ण पुस्तक का मूल अंग्रेजी से अनुवाद। शिवकुमार बटालवी की कई पंजाबी कविताओं का भी हिंदी में अनुवाद किया है। फिलवक्त बचपन और किशोरावस्था में निकट से देखे गए गाँव-कस्बे के अद्भुत पात्रों पर संस्मरणात्मक लेखन में लीन। साथ ही भारत के अलग-अलग अंचलों की चुनी हुई लोककथाओं का एक बृहद् संकलन तैयारी करने में जुटी हैं।
पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद, 121008 (हरियाणा),
मो. : +91-9910862380
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भूमिका
मुझे बच्चों के लिए लिखना बहुत अच्छा लगता है। बच्चों के लिए लिखा भी बहुत है। बहुत किताबें भी छपीं। पर ‘नानी के तारे’ ई-बुक्स की दुनिया में मेरी पहली किताब है। इस पुस्तक के जरिए मेरी बाल कहानियाँ एक नए पाठक वर्ग तक पहुँचेंगी, यह सोचकर बहुत रोमांचित हूँ।
‘नानी के तारे’ पुस्तक में बच्चों के लिए लिखी गई दस बहुत प्यारी-प्यारी और रोचक कहानियाँ एक साथ आ रही हैं, जिन्हें बाल पाठकों ने बहुत पसंद किया है। पुस्तक में शामिल कहानियाँ हैं—‘नानी के तारे’, ‘सींक वाली ताई’, ‘नीला का नया स्कूल’, ‘करमू चाचा का ताँगा’, ‘आप कहाँ हैं मैडम’, ‘मुश्किल में फँसे शिवदास’, ‘साकरा गाँव की रामलीला’, ‘विजयन का बगीचा’, ‘बूढ़े दादाजी की समझदारी’ और ‘सुंदर है सुबना’।
इनमें से बहुत-सी कहानियों में तो मैं खुद उपस्थित हूँ। कुछ में मेरा बचपन ही कहानी की शक्ल में ढल गया है। कुछ बहुत नजदीक से देखे गए पात्र हैं, जिनका सुख-दुख इन कहानियों में छलछला रहा है।
उम्मीद है, बच्चों को ये कहानियाँ पढ़कर बहुत कुछ नया मिलेगा। और वे आगे चलकर कहीं अधिक अच्छे, हमदर्द और बढ़िया इनसान बनेंगे। बच्चे इन कहानियों को पढ़कर अपनी नन्ही-मुन्नी चिट्ठी लिखेंगे तो मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा।
डा. सुनीता
545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. +91-9910862380
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अनुक्रम
नानी के तारे
सींक वाली ताई
नीला का नया स्कूल
करमू चाचा का ताँगा
आप कहाँ हैं मैडम
मुश्किल में फँसे शिवदास
साकरा गाँव की रामलीला
विजयन का बगीचा
बूढ़े दादाजी की समझदारी
सुंदर है सुबना
1
नानी के तारे
डा. सुनीता
*
वैभव और विभोर की गरमी की छुट्टियाँ हो गई थीं। पूरे दो महीने की। मई का महीना तो स्कूल में जो छुट्टियों का काम मिला था, उसे पूरा करते हुए कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला। काम खत्म करते-करते अब वे काफी ऊब चुके थे। रोज मम्मी-पापा से कहते, “कहीं घुमाकर लाओ, कहीं घूमने चलो!”
पिछले हर इतवार को वे कहीं न कहीं घूमने गए थे। कभी अप्पू घर, कभी नेहरू तारामंडल, कभी राजघाट और गाँधी स्मृति भवन। और पिछले ही इतवार को वे ‘फन एंड फूड’ में गए थे और पूरे दिन बहुत मजे किए थे। पानी के खेलों ने तो उनका मन मोह लिया था। पर अभी तो चार इतवार और बाकी थे।
वे दोनों चाहते थे, कोई नई जगह हो जहाँ कुछ दिन रहा जाए। ऐसे नहीं कि सुबह गए और शाम को फिर अपने घर वापस।
“मम्मी, इस बार कहीं बाहर चलो न, जहाँ कुछ दिन रहकर आएँ। कोई नई जगह!” विभोर ने बड़ा आग्रह करके कहा।
“हाँ-हाँ मम्मी, चलो न। बनाओ न प्रोग्राम!” वैभव ने भी अपनी टेक लगा दी।
“अच्छा! तो ऐसा करते हैं, इस बार हम नानी के गाँव चलते हैं। मैं अकेली तो साल-छह महीने में एकाध चक्कर लगा लेती हूँ, पर तुम लोगों को गए हुए तो चार-पाँच साल हो गए। माँ कितना याद करती रहती हैं तुम दोनों को। मैं ही यह सोचकर टालती रहती हूँ कि कहीं गाँव में जाकर तुम बीमार न हो जाओ। तुम दोनों जब चार और छह साल के थे, तभी गए थे गाँव। तब विभोर बहुत बीमार हो गया था। बस, तभी से डर के मारे मैं तुम दोनों को लेकर नहीं जाती। अब तो तुम कुछ समझदार हो गए हो, अपना ध्यान खुद भी रख सकते हो।”
“हाँ-हाँ मम्मी, नानी के गाँव चलते हैं। मुझे तो याद ही नहीं कि गाँव कैसा होता है। मम्मी, जरूर चलो, यही ठीक रहेगा।” वैभव ने उत्साह से कहा।
वैभव का उत्साह देखकर विभोर के चेहरे पर भी मुसकान आ गई। उसे भी हलका-हलका सा ही याद था कि नानी का गाँव कैसा है।
आखिर वैभव और विभोर गाँव जाने की तैयारियों में बड़े उत्साह से जुट गए। कपड़ों के साथ-साथ विभोर ने अपना बैट बॉल और वैभव ने अपना कैसियो भी बैग में रख लिया। उन्होंने दस दिन का प्रोग्राम बनाया था नानी के घर रहने का।
इतवार के दिन वे मम्मी के साथ अपने-अपने बैग लेकर दिल्ली से अंबाला की बस में चढ़े। अंबाला में उतरकर उन्हें नानी के गाँव जाने वाली दूसरी बस पकड़नी थी। डेढ़ घंटे का रास्ता था। बस ने जहाँ छोड़ा, वहाँ से आगे फिर ताँगे की सवारी थी।
माँ तो अभ्यस्त थीं, पर वैभव और विभोर के लिए तो यह बिलकुल नया अनुभव था। दोनों आश्चर्य से देख रहे थे। ताँगे वाले ने बडे़ स्नेह से दोनों को गोदी में उठाकर ताँगे में अगली सीट पर बैठा दिया। मम्मी पीछे वाली सीट पर बैठीं। फिर टिक-टिक, टिक-टिक करता ताँगा गाँव की ओर चला।
कच्ची-पक्की सड़क के दोनों ओर खेत थे। खेतों में जीरी की पौध लगी थी जो हरे मखमली गलीचे जैसी लग रही थी। वैभव और विभोर तो पहली बार इतनी दूर-दूर तक फैली मखमली हरियाली को देखकर बहुत खुश थे। खुशी से दमकते उनके चेहरे बहुत सुंदर लग रहे थे।
करीब आधे घंटे का सफर तय करके वे गाँव पहुँच गए। नानी और मुगधू उन्हें लेने आए थे। ताँगे से उतरते ही नानी ने वैभव और विभोर को छाती से चिपका लिया और खूब प्यार किया। फिर मम्मी को भी गले लगाया। बोली, “अलका, ठीक-ठाक है न बेटी! पूरे पाँच साल बाद बच्चों की शक्लें देख रही हूँ। कब से बाट देख रही थी।”
इतने में मुगधू ने सारा सामान अपने कंधों पर उठा लिया था और वह नानी के घर की ओर बढ़ने लगा। नानी ने दोनों बच्चों की उँगलियाँ पकड़ ली थीं और चारों जने बातें करते, एक-दूसरे का हालचाल पूछते हुए आगे बढ़ रहे थे।
*
नानी का घर खूब खुला था। बीच में बड़ा सा आँगन था और तीन तरफ कमरे थे। एक तरफ दहलीज और उसके साथ ही ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ!
नानी के घर में रामकली और मुगधू भी रहते थे। मुगधू नानी के खेतों में काम करता था। छह महीने पहले ही वह रामकली को ब्याह कर लाया है। रामकली के आने से नानी को काफी सुख हो गया है। बाहर से पानी भर लाना, भैंस का दूध दुहना और उसका सानी-पानी करना, वगैरह सारे काम रामकली ने खुशी-खुशी सँभाल दिए हैं।
घर पहुँचते ही रामकली बड़े प्यार से शिकंजवी बनाकर ले आई और फिर खड़े-खड़े ही हाथ में पंखा करने लगी। गाँव में बिजली तो है, पर कभी-कभी ही दर्शन देती है। अकसर ही गायब रहती है। वैभव और विभोर को सबसे पहला अहसास भारी गरमी का ही हुआ। वे पसीने से लथपथ हो रहे थे। इतने में नानी की पड़ोसन की बेटी बाला भी आ गई और उसने भी एक हाथ का पंखा उठा लिया और नानी और मम्मी को पंखा झलने लगी।
वैभव और विभोर के लिए यह सीन बिल्कुल नया था। पसीने से लथपथ थे दोनों, पर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। आँखों से ही कुछ इशारा हुआ, पहले तो मुसकान फूटी और फिर जोरों की हँसी।
मम्मी को छोड़कर बाकी सब हैरान, कि अचानक क्या ऊटपटाँग हो गया जो बच्चे एकदम हँस पड़े। पर मम्मी तो गुरु हैं, उनकी एक-एक रग जानती हैं। बोलीं, “बता दूँ, क्यों हँसे तुम लोग?”
“नहीं-नहीं, बिल्कुल नहीं।” विभोर ने मम्मी के मुँह पर हाथ रखते हुए कहा।
पर बाला को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि ऐसी क्या बात है, जो उसकी समझ में नहीं आ रही है।
इतने में ही मम्मी बोलीं, “माँ, ये इसलिए हँस पड़े कि शहर में कोई ऐसे किसी को पंखा नहीं करता। एक तो बिजली ही इतनी नहीं जाती, दूसरे अगर पंखे की जरूरत हो तो खुद ही करते हैं। और यहाँ दो-दो लोग जुटे हुए हैं। इसलिए ये दोनों खुद को राजकुमार समझकर हँस रहे हैं।” फिर बच्चों की ओर देखकर बोलीं, “हँस लो बच्चू! अभी तो और पता नहीं, कितनी और चीजें तुम यहाँ देखोगे, जो तुम्हारे लिए अजूबा होंगी।”
और फिर दूसरे अजूबे के लिए उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। गरमियों के दिन तो थे ही, इसलिए ज्यादातर लोग छतों पर ही सोते। नानी के घर में भी सबकी चारपाइयाँ छत पर बिछा दी गईं। खाना खाकर सब लोग ऊपर आकर घूमने लगे।
वैभव ने आसमान की ओर देखा तो हैरान रह गया। एकाएक खुशी से चिल्लाते हुए बोला, “नानी के तारे, इतने सारे...तारे, इतने सारे!” और खुशी से उछलने लगा।
मम्मी देखकर हैरान, नानी भी। और विभोर भी अवाक रह गया इतने सारे तारे देखकर।
आखिर मम्मी को भी कहना ही पड़ा, “हाँ, बेटा, यहाँ ज्यादातर घर एक मंजिले ही हैं, इसलिए आसमान इतना खुला और इतना बड़ा दिखाई पड़ता है। वातावरण भी साफ-सुथरा है। इसलिए काले आसमान में चमकते सितारे इतने सुंदर लगते हैं कि बड़ा अद्भुत नजारा दिखाई देता है।”
“मम्मी, दिल्ली में तो कभी इतने तारे नहीं देखे? वहाँ क्यों नहीं दिखते?” विभोर से पूछे बिना रहा न गया।
“बेटे, दिल्ली में लोगों ने कई-कई मंजिला मकान बना लिए है। छोटे-छोटे फ्लैट हैं। किसी के पास जमीन है, तो छत नहीं और छत है तो जमीन नहीं। फिर वहाँ की भागमभाग वाली जिंदगी में ऐसे नजारों को देखने की फुर्सत कहाँ है और सुविधा भी कहाँ है? घर के अंदर ही है, जो भी करना है। छत पर कोई और, उसके ऊपर कोई और। और मच्छर इतने कि उनके डर के मारे आधा घंटा भी खुले में नहीं बैठा जा सकता।”
ऐसी ही बातें करते-करते कब नींद आई, पता ही नहीं चला। अगली सुबह वे नाश्ता करने के बाद नानी के साथ खेत में गए। वहाँ नानी के खेत में दो पेड़ आम के भी हैं। हर साल बारी-बारी से कभी एक तो कभी-दूसरे आम के पेड़ पर फल लगते हैं। वैभव और विभोर ने पहली बार जी भरकर चूसने वाले आम खाए। जीरी (धान) की पौध को हाथ से छू-छूकर देखा, “अहा, कितनी मुलायम हैं ये! और हवा चलने से लहरें सी चल रही हैं इनमें।” विभोर ने आनंदित होते हुए कहा।
पास में ही टयूबवैल की मोटी पानी की धार चल रही थी। इतने खुले पानी में वे जी भरकर नहाए। नानी घर से चूरमा बनाकर लाई थी। सबने मिलकर बड़े मजे से चूरमे का एक-एक लड्डू खाया। फिर वे घर लौट आए।
ऐसे ही मजे-मजे में वे रात में नानी से कहानियाँ सुनते। नानी कभी रामायण, कभी महाभारत और कभी-कभी शुद्ध हास्य की ऐसी मजेदार कहानियाँ सुनातीं कि वे हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। हँसते-खेलते दस दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला।
आज नानी के गाँव में रुकने की आखिरी रात थी। रात में खाना आदि खाकर वे ऊपर छत पर जा पहुँचे। नानी और मम्मी दोनों ही उदास थीं कि कल तो बिछुड़ जाना है, फिर पता नहीं, कब मिलना हो। नानी को मलाल था कि बच्चे इतने साल बाद आए। अलका ने उनसे वादा किया कि आगे से हर गरमी की छुट्टियों में वह बच्चों सहित मिलने आया करेगी।
आज दिन में ही नानी ने काफी सारी खाने की चीजें अपने हाथों से बनाकर पैक कर दी थीं। बार-बार उन्हें यही लग रहा था इतने दिनों से जो रौनक मेला लगा हुआ था, वह कल खत्म हो जाएगा और वे फिर एकाकी रह जाएँगी, अगली गरमी की छुट्टियों की बाट जोहती।
रामकली ने सबकी चारपाइयों पर बिस्तर बिछा दिए थे। नानी और मम्मी दोनों अपनी बातों में मशगूल थीं कि अचानक विभोर की जोर की आवाज सुनाई पड़ी, “वैभव, कल सुबह तो हमें यहाँ से चले जाना है। आज जी भर के नानी के तारे देख ले। फिर दिल्ली में नहीं दिखेंगे इतने सारे नानी के तारे!”
सुनते ही नानी और मम्मी दोनों की हँसी छूट गई। विभोर शरमाकर वैभव के पीछे हो लिया।
अगले दिन सुबह ही नानी के बनाए आलू के पराँठे साथ ले, मम्मी, वैभव और विभोर गोपू के ताँगे में बैठकर बस अड्डे की ओर जा रहे थे। नानी भी उनके संग उन्हें छोड़ने जा रही थी। वैभव और विभोर सोच रहे थे, क्या सचमुच वे अगली गरमियों में भी नानी के तारे देखने आ पाएँगे?
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2
सींक वाली ताई
डा. सुनीता
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सारा गाँव उन्हें कहता—सींक वाली ताई। बड़े भी, छोटे भी। सभी इसी नाम से बुलाते। सालवन गाँव में जब से ब्याह कर आई थीं ताई, तब से उनके गाँव का नाम सींक उनके नाम से जुड़ गया। ऐसा जुड़ा कि खुद अपना नाम तक उन्हें याद नहीं।
कोई पचास बरस तो हो ही गए सींक वाली ताई को इस गाँव में आए। तब सोलह बरस की थीं। अब सत्तर से कुछ ही कम होंगी। इस बीच कौन-सा दुख नहीं झेला उन्होंने। पति किशोरीलाल फौज में थे। बड़े ही दिलेर और खुशमिजाज। हर कोई उनकी तारीफ करता। नई दुलहन बनकर सालवन गाँव में आईं सींक वाली ताई के वे सबसे खुशियों भरे दिन थे। मगर शादी के चार-पाँच बरस बाद ही पति की मृत्यु की खबर आ गई। उसके बाद जल्दी ही सास-ससुर का साया भी सिर से उठ गया। सींक वाली ताई रह गईं अकेली, निपट अकेली।
हालाँकि अकेली भले ही हों, दबंग इतनी थीं कि मजाल है कोई दबा ले या कोई उलटी-सीधी बात कह दे। एक की चार सुनाती थीं। इसलिए आस-पड़ोस के लोग भी जरा दूर-दूर ही रहते थे। यों भी देखने में खूब लंबी-चौड़ी, खूब ऊँची कद-काठी वाली थीं सींक वाली ताई। खूब साँवला, पक्का रंग। चेहरे पर ऐसा मर्दानापन कि कोई दूर से देख के ही डर जाए। और बोली ऐसी सख्त, कड़वी कि जिसे दो-चार खरी-खरी सुना दें, उसे रात भर नींद न आए।
सबसे ज्यादा तो डरते थे गाँव के बच्चे उनसे। जरा-सी बात पर घुड़क देतीं। और कभी-कभी तो सामने वाले मैदान में ज्यादा शोर माने पर पास में पड़ी लाठी उठाकर फर्श पर ऐसे ठकठकातीं कि बच्चे दूर भागते नजर आते। कुछ तो उनकी शक्ल देखते ही उड़न-छू हो जाते।
डर तो शुरू में नीना को भी उनसे लगता था। पर नानी के कहने पर कभी-कभी सींक वाली ताई से लस्सी लेने चली जाती थी। सींक वाली ताई कभी तो उसे बेबात घुड़क देतीं और कभी प्यार से पास बिठाकर बातें करने लगतीं, “आ बैठ, तनिक मक्खन निकालकर अभी लस्सी देती हूँ।”
नीना डरते-डरते बैठ जाती और सींक वाली ताई को मक्खन निकालते देखती रहती। बीच-बीच में अपने स्कूल या नानी की कोई बात छेड़ देती।
सींक वाली ताई को उसकी बातें अच्छी लगतीं। पूछतीं, “तुझे मक्खन अच्छा लगता है न! ले खा।” और कटोरी में ढेर सारा मक्खन डालकर सामने रख देतीं।
कभी-कभी वे चूल्हे के पास बिठाकर बातें करती जातीं और तवे से उतारकर मक्के की गरम रोटी खिलातीं। ऊपर ढेर-सा मक्खन। नीना का जी खुश हो जाता। हालाँकि जाने क्या बात थी कि सींक वाली ताई के इतना प्यार जताने पर भी, वह अंदर ही अंदर डरी-सी रहती। लगता, बस अभी सींक वाली ताई सुर बदलने ही वाली हैं और फिर ऐसे कड़वे बोल सुनाएँगी कि रोते-रोते भागकर जाना होगा।
मगर, आश्चर्य! सींक वाली ताई नीना से कभी नाराज नहीं होती थीं। कभी-कभार रूखा भले ही बोल दें, पर डाँटा कभी नहीं। और सच तो यह है कि नीना उन्हें अच्छी लगने लगी थी।
शायद इसलिए कि नीना की भोली बातें सींक वाली ताई के कठोर दिल को पिघलाकर मुलायम मक्खन-सा बना देती थीं। नीना उनसे कहती, “ताई, कहानी सुनाओ ना!”
और सींक वाली ताई चाहे-अनचाहे शुरू हो जातीं और फिर उन्हें भी रस आने लगता। सुनाती जातीं और खुद भी हँसते-हँसते दोहरी होती जातीं। उनकी कहानियाँ थीं ही ऐसी मजेदार। पिद्दी-पिद्दे की कहानी उनकी सबसे प्रिय कहानी थी। जितनी बार सुनातीं, खूब हँसतीं। हँसते हुए उनका पूरा शरीर हिलता और खुशी की हिलोर से भर जाता था।
कभी-कभी नीना भी उन्हें अपनी किताब में लिखी बातें बताती। सुनकर सींक वाली ताई खूब हैरान होतीं। मासूम बच्चों जैसा चेहरा बनाकर पूछतीं, “अच्छा, ऐसा लिखा है तेरी किताब में!... बता बेटी, और क्या-क्या लिखा है तेरी किताब में?”
और यों थोड़े ही दिनों में नीना और सींक वाली ताई की ऐसी दोस्ती हुई कि जो भी देखता, हैरान होता। इस नन्ही-सी बच्ची को भला क्यों सींक वाली ताई इतना प्यार करने लगीं?
सींक वाली ताई को आँख से थोड़ा कम सूझने लगा है, यह भी सबसे पहले नीना को ही महसूस हुआ। हुआ यह कि एक बार नीना को घी-बूरा खिलाने के लिए रोक लिया ताई ने। घी-बूरा बना रही थीं, तभी नीना को शक हुआ, ताई घी में कहीं बूरे की जगह नमक तो नहीं डालने जा रहीं? देखा तो टोका, “क्या कर रही हो ताई? यह बूरा नहीं, नमक है!”
सींक वाली ताई शर्मिंदा हो गईं, “क्या करू बेटी? आँख से कुछ सूझता ही नहीं। अच्छा हुआ जो तूने देख लिया।”
कहते-कहते उनका चेहरा थोड़ा रुआँसा हो गया। गाँव में कोई उनसे हमदर्दी नहीं रखता था, तो भला वे अपना दुख किससे कहतीं?
नीना बोली, “ताई, कहो तो मैं नानी से थोड़ा-सा काजल ले आऊँ? मेरी नानी बहुत अच्छा काजल बनाती हैं। शायद उससे आपकी आँखें ठीक हो जाएँ।”
“अच्छा, ऐसा काजल है उनके पास? ...एक बार सुना तो था, पता नहीं किसने कहा था। पर...तेरी नानी देंगी मुझे?”
“देंगी क्यों नहीं? अरे ताई, वो तो बहुत गुन गाती रहती हैं आपके। कहती हैं, सींक वाली ताई की जुबान भले ही कड़वी हो, पर दिल की बहुत अच्छी हैं। गाँव में उन जैसी भली और मेहनती औरत कोई और नहीं है।” नीना ने उत्साह से कहा।
“अच्छा, ऐसा कहा तेरी नानी ने...? ऐसा! सच्ची कह रही है ना नीना, तू?” पता नहीं सींक वाली ताई के चेहरे पर कैसी तृप्ति और पुलक भरी परछाइयाँ तिरने लगी थीं कि नीना अवाक, अपलक देखती रह गई।
“अच्छा, अभी आई ताई!” कहकर उसी समय नीना दौड़ी-दौड़ी गई और नानी से कहकर काजल की डिबिया ले आई।
सींक वाली ताई ने हफ्ते-दो हफ्ते लगाया, तो आँख की जलन तो ठीक हो गई। थोड़ा-बहुत नजर भी आने लगा, मगर आँखें पूरी तरह ठीक नहीं हुईं। फिर तो नीना पर सींक वाली ताई का प्यार थोड़ा और बढ़ गया। वे नीना को पास बिठाकर घंटों बातें करती रहतीं। प्यार से खिलाती-पिलातीं। कभी किसी दिन नीना उनके घर आने से चूक जाती, तो डंडा खटखटाते हुए चल पड़तीं। किसी तरह खुद को सँभालते हुए नीना की नानी के घर जा पहुँचतीं और प्यार से उसका हाथ पकड़कर ले आतीं। कहतीं, “नीना, तू अपनी किताब भी ले ले। मुझे पढ़कर सुनाना।”
नीना अपनी हिंदी की किताब में से कभी उन्हें सबको हँसाने वाले चतुर पीटर की कहानी सुनाती, तो कभी प्रेमचंद की दो बैलों की कहानी। सुनकर सींक वाली ताई कुछ देर तो चुप-सी रह जातीं। फिर एकाएक कह उठतीं, “सच्ची कहा भई, एकदम सच्ची कहा!” और फिर खुद भी किसान और पिद्दी चिड़िया का किस्सा छेड़ देतीं या लोटन कबूतर का।
*
नीना और सींक वाली ताई का यह प्यार गाँव के शरारती बच्चों को तो चुभ ही रहा था। बदला लेने के लिए उन्होंने सींक वाली ताई को तंग करना शुरू कर दिया। ताई दिन में सिर्फ एक दफे चूल्हा जलातीं और एक बार में रोटियाँ बनाकर पूरे दिन के लिए रख लेतीं। इसी को लेकर ऊधमी बच्चों ने गाना बनाया। वे चिल्ला-चिल्लाकर बोलते—
सींक वाली ताई,
सींक वाली ताई,
कितनी रोटी खाईं
कितनी बचाईं!
कितनी बिलौटे ने
आकर चुराईं?
सींक वाली ताई मक्खन निकालकर एक छोटे से मर्तबान में रख देतीं और ढक्कन खोलकर उसी में से नीना को निकालकर दे दिया करती थीं। इस पर भी गाँव के बच्चों ने गाना बना लिया। वे ताई को सुनाते हुए खूब जोर-जोर से चिल्लाकर कहते—
सींक वाली ताई
सींक वाली ताई,
खोल के ढक्कन
खिला दे मक्खन!
तू पीना छाछ,
हम खाएँ मक्खन!
ताई को शरारती बच्चों की इस हरकत से गुस्सा तो बहुत आता, पर सब्र कर जातीं। बच्चों को भी पता था कि ताई को अब ज्यादा दिखाई नहीं पड़ता। तेजी से चल-फिर भी नहीं सकतीं। तो फिर डर की क्या बात?
पर एक दिन की बात, बच्चों ने कुछ ज्यादा ही चिढ़ा दिया, तो ताई अपना गुस्सा काबू नहीं कर पाईं। लाठी लेकर पीछे-पीछे दौड़ पड़ीं। पर अभी कुछ ही आगे गई थी कि एक गड्ढे में उनका पैर पड़ा। लाठी दूर जा गिरी और ताई बुरी तरह लडख़ड़ाकर जमीन पर आ गिरीं। सिर से खून निकलने लगा। एक पैर भी बुरी तरह मुड़ गया था और ताई ‘हाय-हाय’ कर रही थीं।...
उन्होंने खुद उठने की दो-एक बार कोशिश की, पर लाचार थीं। बच्चे दूर से यह देख रहे थे। पर पास आने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। आखिर गोलू और भीमा ने किसी तरह आगे आकर उन्हें सहारा दिया और उन्हें घर के अदर ले गए।
नीना ने सुना तो दौड़ी-दौड़ी घर गई, नानी को बुला लाई। नानी और नीना दोनों बड़े प्यार से सींक वाली ताई को अपने घर ले गए। पूरे महीने भर तक नीना अपनी नानी की मदद से सींक वाली ताई की खूब सेवा करती रही। उन्हें हलदी मिला दूध पिलाया। सिर और पैर पर हलदी, तेल लगाकर पट्टियाँ बाँधीं। सींक वाली ताई के मुख से नीना के लिए लगातार आशीर्वाद निकलते रहते। उनकी कड़वाहट न जाने कहाँ गायब हो गई थी। यहाँ तक कि जिन बच्चों के कारण वे गिरीं, उनके लिए भी कोई कड़वा शब्द उनके मुँह से नहीं निकला।
बच्चे पहले तो दूर-दूर, डरे-डरे-से रहे। पर फिर वे भी नीना के साथ मिलकर ताई की सेवा में जुट गए। काई महीने, डेढ़ में ही पूरी तरह ठीक हो गईं ताई तो नीना और बच्चे ही उन्हें घर छोड़कर आए। अब तो बच्चे हर समय उन्हें घेरे रहते। अपनी किताबों में से पढ़-पढ़कर उन्हे कहानियाँ सुनाते। महाभारत और रामायण की कथाएँ भी। सुनकर ताई भी खुश होकर उन्हें दिलचस्प किस्से-कहानियाँ सुनातीं। कभी किसी अलबेले जादूगर की तो कभी पिद्दीपुर की महारानी की। बचपन में सुनी हजारों कहानियाँ सींक वाली ताई को याद थीं और उनका खजाना कभी खत्म होने में ही नहीं आता था। उन्हें सुन-सुनकर बच्चे हँसते। संग-संग ताई भी।
और अचरज की बात यह कि नीना की नानी के काजल का असर था या कि बच्चों की खिल-खिल का, सींक वाली ताई की आँखें भी काफी कुछ ठीक हो चली थीं।
अब सींक वाली ताई कभी-कभी कहा करतीं, “आज मैं समझ पाई हूँ कि प्यार लुटाने से ही प्यार मिलता है।”
और नीना मुसकराकर कहती, “ताई, जब मैं बड़ी होऊँगी, तो ‘सींक वाली ताई की कहानियाँ’ नाम से तुम्हारी कहानियों की किताब छपवाऊँगी।” सुनकर बलैयाँ लेती थीं ताई और इस तरह मीठी-मीठी, मोहक हँसी हँसतीं कि कुछ न पूछो।
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नीला का नया स्कूल
डा. सुनीता
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बहुत छोटी-सी थी नीला। कोई आठ बरस की। उसे और लड़कियों की तरह ज्यादा बातें करना पसंद नहीं था। बढ़िया कपड़े पहनने का भी शौक नहीं था। जब देखो, अपने में खोई रहती। कुछ न कुछ पढ़ती रहती। अपनी किताबें तो पढ़ती ही थी, घर में कोई किताब या पत्रिका आती, तो उसे भी अटक-अटककर पढ़ती। फिर खुश होकर अपने आप से कहती, “अरे वाह, मैं तो इसे भी पढ़ सकती हूँ। मैं तो बहुत कुछ पढ़ सकती हूँ। बड़ी होकर तो मैं बहुत पढ़ा करूँगी।”
नीला की माँ कमलादेवी उसे हरदम पढ़ते देख खुश होकर सोचतीं, “जरूर यह लड़की पढ़ने-लिखने में आगे जाएगी। यह जितना भी पढ़े, मैं इसे जरूर पढ़ाऊँगी, चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ।”
घऱ की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। लिहाजा खुद वे भी घर के कामों से फुर्सत मिलने पर नीला के होमवर्क में मदद कर देतीं। साथ ही पूरी कोशिश करतीं कि घर की तंगी की हालत में भी नीला की फीस टाइम से जमा हो। उसे जरूरत की कापी-किताबों और दूसरी चीजों में कोई मुश्किल न आए।
फिर भी मुश्किलें कहीं न कहीं से तो आ ही जाती थीं। और सबसे बड़ी मुश्किल थी नीला के पिताजी का तबादला। वे सरकारी नौकरी में थे और हर दूसरे-तीसरे साल उनका तबादला एक शहर से दूसरे शहर में होता रहता। उनके साथ-साथ पूरा घर उखड़कर यहाँ से वहाँ पहुँचता।
नीला का स्कूल छूट जाता। पुरानी सहेलियाँ छूट जातीं, और नई जगह फिर से नई जान-पहचान की शुरुआत करनी पड़ती। नया स्कूल खोजकर एडमिशन लेने का चक्कर शुरू होता। इस सबमें कई बार तो ऐसी उलझन आती कि उसे रोना आ जाता। मगर फिर धीरे-धीरे रास्ता निकल आता। नई सहेलियाँ बनतीं, पास-पड़ोस के नए चेहरे पहचान में आने लगते और नया शहर भी दोस्त शहर लगने लगता।
ऐसी ही एक मुश्किल तब आई, जब नीला के पिताजी का तबादला कैथल से पानीपत में हुआ। वे तहसील में क्लर्क थे। उनका तबादला हुआ तो नीला का परिवार भी गाँव से पानीपत आ गया। तब नीला ने दूसरी कक्षा पास की थी और तीसरी में आई ही थी। यहाँ उसे फिर से तीसरी कक्षा में दाखिला लेना था। गाँव से आकर तीन-चार दिन तो घर का सामान लगाने में लग गए थे। फिर अगले दिन माँ कमलादेवी उसे सरकारी स्कूल में दाखिल करवाने के लिए ले गईं।
स्कूल पहुँचने पर चपरासी उन्हें तीसरी कक्षा में फूलाँ बहनजी के पास छोड़ आया। फूलाँ बहनजी देखने में खूब गोरी, लंबी-चौड़ी थीं, दो चोटियाँ किए हुए। आँखें खूब बड़ी-बड़ी। उन्होंने कुछ हिकारत से नीला को घूरा, जैसे एक और बकरी फँसी या कि एक और सिरदर्दी बढ़ी। नीला की माँ ने कहा, “बहनजी, यह दूसरी में सेकिंड आई है। होशियार है। आपको तंग नहीं करेगी। आप इसे दाखिल कर लें।”
“ऐसे कैसे कर लूँ? पहले टेस्ट देणा पड़ेगा।” बहनजी ने थोड़ी सख्त लहजे में कहा। फिर आगे-आगे टाटा पर बैठे बच्चे से स्लेट-बत्ती लेकर उन्होंने नीला को दी और रुपए, आने, पाई की इबारत लिखवाकर भाग करने को कहा।
उनकी लंबी-चौड़ी काया और बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें थोड़ा गुस्सा भरा हुआ था, देखकर नीला कुछ डर-सी गई। वह इतनी आतंकित हो चुकी थी कि वह सवाल कर ही नहीं पाई। उसके हाथ काँपने शुरू हो गए, साथ ही रुलाई भी छूट गई।
“आप तो कह रही थीं कि यह लड़की सेकिंड आई है। इसे तो यह भी नहीं पता कि रुपए, आने, पाई का घटा-जोड़ कैसे करते हैं। ले जाओ इसे। इतनी नालायक लड़की को मैं नहीं दाखिल करूँगी। यह तो मेरी क्लास में पास भी नहीं हो सकती।” फूलाँ बहनजी ने नीला की माँ से दो-टूक लहजे में कहा।
सुनकर नीला ही नहीं, उसकी माँ कमलादेवी का भी जी धक से रह गया। सोचने लगीं, “क्या नीला नहीं पढ़ पाएगी? नीला की आगे की पढ़ाई बंद! यह तो बड़ी मुसीबत हो गई।”
नीला का डेढ़ साल का छोटा भाई संजू माँ कमलादेवी की गोद में था। उन्हें अध्यापिका के व्यवहार से बहुत दुख हुआ। एक बार फिर उन्होंने अनुनय की, “बहनजी, आप दाखिल तो कर लें, मैं इसे खुद मेहनत कराऊँगी। आपको कोई शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।”
“आपका इतना छोटा बच्चा है। आप इसे सँभालेंगी या इस नालायक को पढ़ाएँगी?” फूलाँ बहनजी ने व्यंग्य किया। इस पर नीला की माँ ने बड़ी कातर दृष्टि से फूलाँ बहनजी की ओर देखा, कहा कुछ नहीं। नीला और उसकी माँ दोनों चुप थे। स्तब्ध!
कुछ देर बाद फूलाँ बहनजी को शायद तरस आ गया। उन्होंने कहा, “अच्छा, चलो ठीक है। मैं इसे दाखिल कर लूँगी। पर आपको इसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी, वरना लड़की फेल हो जाएगी और मेरी क्लास का रिजल्ट खराब हो जाएगा।”
कमलादेवी की हालत ऐसी थी, जैसे किसी प्यासे को पानी मिल गया हो। उन्होंने फौरन कहा, “आपकी बहुत मेहरबानी बहनजी। मैं इसे खुद मेहनत कराऊँगी। आप चिंता न करें, आपका रिजल्ट खराब नहीं होगा।”
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फिर क्या था, अगले ही दिन से नीला तख्ती और बस्ता लेकर स्कूल जाने लगी। वह होशियार तो थी ही, खूब मेहनती भी थी। और अब तो उसके सामने एक चुनौती थी, यह साबित करने की कि वह नालायक नहीं है।
फिर माँ कमलादेवी भी हर पल उसकी पढ़ाई और होमवर्क की चिंता करतीं। नीला को पढ़ाई में सचमुच आनंद आ रहा था। फूलाँ बहनजी का डर भी खत्म हो गया। इसलिए कि वे देखने में भले ही खासी रोबदार हों, पर पढ़ाती बहुत अच्छा थीं। जो कुछ वे पढ़ातीं, नीला को क्लास में ही याद हो जाता। घर आते ही वह उसे दोहरा लेती। लिहाजा कुछ ही दिनों में वह क्लास के कुछेक सबसे होशियार बच्चों में शामिल हो गई। उसे नालायक कहने वाली फूलाँ बहनजी अब उससे खुश रहने लगी थीं।
क्लास के दूसरे बच्चे जो शुरू-शुरू में नीला का मजाक बनाते थे, वे भी अब कभी-कभी उससे पढ़ाई में मदद लेने लगे। नीला की कापियाँ क्लास में सबसे साफ-सुथरी होतीं। उनमें गलतियाँ भी नहीं होती थीं। इसलिए क्लास के बहुत-से बच्चे उससे कापियाँ माँगकर ले जाते और उनसे काम उतार लेते।
होते-होते मार्च का महीना आ गया और सालाना इम्तिहान शुरू हो गए। नीला के सभी पेपर अच्छे हुए थे। उसके चेहरे पर खुशी और संतोष का भाव था। लग रहा था, उसकी मेहनत बेकार नहीं गई।
आखिर 31 मार्च आ पहुँचा। आज ही परीक्षा का परिणाम घोषित होना था। नीला के दिल में सुबह से ही कुछ धुक-धुक-सी हो रही थी। पता नहीं, कैसा नतीजा आए? कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो जाएगी ? लेकिन परिणाम आया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। फूलाँ बहनजी ने हँसते हुए उसे क्लास में प्रथम घोषित किया था।
किसी को उम्मीद नहीं थी कि जिस लड़की को कल तक फूलाँ बहनजी क्लास में दाखिल भी नहीं कर रही थी, वही प्रथम आएगी। खुद नीला को भी नहीं।
नीला की खुशी का ठिकाना न था। उसे लगा कि वह आसमान में उड़ रही है। वह घर से ही एक गेंदे के फूलों की माला ले गई थी। परिणाम निकलते ही बच्चों ने जोर-जोर से तालियाँ बजाकर प्रथम आने पर उसका उत्साहवर्धन किया। उसी समय नीला ने वह गेंदे की माला फूलाँ बहनजी के गले में डाल दी। उन्होंने नीला का सिर पुचकारकर उसे आशीर्वाद दिया। पहले दिन वाली उनकी आँखों की हिकारत का अब कहीं नामोनिशान न था। उनमें स्नेह ही स्नेह छलक रहा था।
और नीला...! उसे क्लास में अव्वल आने की तो खुशी थी ही, पर इससे कहीं ज्यादा बड़ी खुशी इस बात की थी कि उसने अपनी अध्यापिका का प्रेम जीत लिया था और साबित कर दिया था कि वह नालायक लड़की नहीं है!
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4
करमू चाचा का ताँगा
डा. सुनीता
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बचपन की बातें याद करती है नीना, तो मन दौड़-दौड़कर नानी के गाँव जा पहुँचता है। और फिर सालवन गाँव की यादों में ऐसे रम जाता है कि समय का कुछ पता ही नहीं चलता।
नीना जब छोटी थी, कोई दस-ग्यारह बरस की, तब तो हालत यह थी कि कोई छुट्टी होते ही उसकी चीख-पुकार शुरू हो जाती थी, “चलो माँ, चलो, नानी के गाँव में। बताओ, कब चलोगी नानी के गाँव में?”
सुनकर नीना की माँ भी खुश होतीं, पर कभी-कभी परेशान होकर डाँट भी दिया करती थीं, “क्या दिन भर गाँव-गाँव लगाए रखती है! शहर अच्छा नहीं लगता, तो जा, गाँव में ही जाकर रह ले।”
नीना रोंआसी हो जाती तो माँ झट मनाना शुरू कर देतीं, “अच्छा, मेरी बिट्टो, चलेंगे, जल्दी ही जाएँगे। बस, गरमी की छुट्टियाँ आने दे।”
और नीना ने माँ से पक्का वादा करा लिया था कि इस बार वह पूरी की पूरी गरमी की छुट्टियाँ नानी के गाँव में ही बिताएगी।
गरमी की छुट्टियाँ होते ही नीना ने माँ को फिर याद दिलाया, “चलो माँ, चलो नानी के गाँव में!”
माँ ने झटपट तैयारी की। नीना और रोहित को साथ लिया और गाँव की यात्रा शुरू हो गई। पहले बस में और फिर देर तक करमू चाचा के ताँगे में।
करमू चाचा का ताँगा गाँव के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर टिक-टिक-टिक करके आगे बढ़ता तो नन्हे रोहित को डर लगता, पर नीना खिलखिला पड़ती। कहती, “करमू चाचा का ताँगा, ताँगा नहीं, किसी राजा का रथ है। मुझे तो इस पर सवारी करके बड़ा मजा आता है।”
इस पर नीना की माँ हँस पड़तीं और करमू चाचा अपने ताँगे को और भी तेज भगाना शुरू कर देता।
गाँव में पहुँचकर नीना को इतने पुराने दोस्त और सहेलियाँ मिल गईं कि वह तो सारा दिन उन्हीं के साथ खेल-कूद में मस्त हो गई। और फिर रात को नानी से किस्से-कहानियाँ सुनने का प्रोग्राम। कई रोज यों ही गुजर गए। नीना की माँ ने दो-एक बार कहा भी, “नीना, बहुत दिन हो गए। शहर में तेरे पिताजी परेशान हो रहे होंगे। अब वापस चलना चाहिए।”
पर नीना भला इतनी जल्दी गाँव को छोड़कर कैसे लौट जाती? वहाँ उसे इतनी नई-नई बातें जानने-सुनने को मिल रही थीं। इतने नए-नए खेल थे। पेड़ों की ठंडी छाँव में घर बनाने और दौड़ने-भागने का आनंद ही कुछ और था। अब तो रोहित को भी यह अच्छा लगने लगा था। नीना ने कहा, “माँ...माँ, आप लौट जाइए। मैं और रोहित छुट्टियाँ खत्म होने पर आएँगे।”
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माँ के चले जाने पर तो नीना की शरारतें और भी बढ़ गईं। उसका प्यारा खेल था पेड़ पर चढ़कर वहाँ से नीचे छलाँग लगाना। एक बार छलाँग लगाते समय उसका पैर पेड़ की डाल में ऐसे अटका कि नीचे गिरी तो सिर खूनमखन हो गया। उधर से करमू चाचा अपना ताँगा लेकर आ रहे थे। नीना की हालत देखी, तो झट उसकी नानी के घर पहुँचाया। फिर करमू चाचा ही अपने ताँगे में वैद्य लक्खीरामजी को बिठाकर ले आए। उन्होंने पट्टी बाँधी, पर नीना का दर्द के बारे बुरा हाल था। नानी मुश्किल से उसे सँभाल पा रही थी।
तब करमू चाचा नीना के पास बैठकर गप्पें हाँकते रहे और ‘ऊँ -ऊँ’ कर रोती नीना न जाने कब खिलखिलाकर हँस पड़ी।
तीसरे दिन अपना ताँगा लेकर फिर आए करमू चाचा। बोले, “चल नीना, तुझे घुमाकर लाऊँ। तेरा मन भी बदल जाएगा।”
नीना और रोहित के साथ-साथ गाँव के और बहुत-से बच्चे भी बैठे और करमू चाचा का ताँगा गाँव से कुछ बाहर जंगल की दौड़ पड़ा। वहाँ नीना ने पहली बार नाचते हुए मोर देखे और दूर, बहुत दूर एक हिरन भी दिखाई दिया। खूब सारे बंदर भी पेड़ों पर उछल-कूद कर रहे थे। ताँगे में बैठे बच्चे पहले तो डरे, फिर तालियाँ बजाकर खिलखिलाकर हँसे। नीना ने पूछा, “करमू चाचा, आपको जंगल में ताँगा चलाते डर नहीं लगता?”
करमू चाचा हँसकर बोले, “वाह, डर कैसा! मैं ताँगा दौड़ाऊँ तो शेर भी मेरा पीछा नहीं कर सकता। उसे मुँह की खानी पड़ेगी!” सुनकर नीना समेत ताँगे में बैठे बच्चे जोर से चिल्लाए, “करमू चाचा, जिंदाबाद!”
फिर एक-एक कर छुट्टियाँ खत्म होती गईं। नीना के स्कूल खुलने का दिन पास आ गया। नीना के पिताजी की चिट्ठी आई, ‘प्यारी बेटी, तुमने नानी को बहुत तंग किया होगा। अब करमू चाचा से कहना, इस शनिवार को वह तुम्हें बस में बिठा देगा। यहाँ मैं तुम्हें बस अड्डे पर लेने आ जाऊँगा।’
वह दिन भी आ गया, जब नीना और रोहित को गाँव छोड़कर करमू चाचा के ताँगे में बैठकर शहर की यात्रा करनी थी। उस दिन आसमान में बादल छाए हुए थे और बूँदा-बाँदी भी हो रही थी। नानी बोलीं, “नीना, आज रहने दे। कल चले जाना। स्कूल तो सोमवार को ही खुलेगा न!”
नीना बोली, “नानी, पिताजी बेकार में बस अड्डे पर घंटों खड़े रहेंगे, परेशान होंगे। आज ही चले जाएँ तो अच्छा है।”
करमू चाचा का ताँगा नीचे आकर खड़ा था। नानी के साथ-साथ गाँव भर के बच्चे नीना और रोहित को ताँगे तक छोड़ने आए। नानी बार-बार समझा रही थीं, “बस में आराम से बैठना। शरारत मत करना।” नीना और रोहित ताँगे में बैठे और करमू चाचा ने झट ताँगा दौड़ा दिया।
पर थोड़ा दूर आगे जाते ही बारिश तेज हो गई। बिजली कड़कने लगी। रोहित डर गया। पर नीना ने समझाया, “डर मत रोहित, अभी करमू चाचा हमें बस में बैठा देंगे। फिर हम जल्दी ही शहर पहुँच जाएँगे।”
लेकिन अब पानी इतना तेज हो गया था कि रास्ते का कुछ पता ही नहीं चल रहा था। कच्ची सड़क थी, पर उस पर तेजी से बहता, ठाठें मारता पानी। बीच-बीच में घोड़ा आगे बढ़ने से इनकार कर देता, दोनों टाँगें ऊपर करके खड़ा हो जाता। करमू चाचा प्यार से उसे मीठी फटकार देते, तो वह आगे चलता।
अंदर ही अंदर डर तो नीना को भी लग रहा था। पर वह अपना डर भूलकर रोहित को चिपकाए हुए थी। प्यार से समझा रही थी, “डर मत रोहित, डर मत! करमू चाचा तो कितने होशियार हैं। देखना, अभी ताँगा पक्की सड़क पर आया जाता है।”
और ताँगा पक्की सड़क पर पहुँचता, इससे पहले ही एक गड्ढे में पहिया फँसा तो करमू चाचा का ताँगा उलट गया। नीना और रोहित दोनों पानी में डुबक-डुबक करने लगे।
करमू चाचा दौड़कर आए। दोनों को पानी से निकाला, छाती से चिपकाया। फिर बोले, “अरे, तुम्हारे तो सब कपड़े गीले हो गए! मेरा घर पास में है। चलो, चलकर पहले कपड़े बदलो।”
करमू चाचा ने प्यार से घोड़े की गदरन पर हाथ फेरा तो अपनी अक्खड़ता भूलकर, फिर वह सँभल-सँभलकर चलने लगा। ताँगा गड्ढे से बाहर आ गया था। अब वह करमू चाचा के घर की ओर दौड़ रहा था, जो सड़क के पास ही था।
नीना और रोहित करमू चाचा के घर पहुँचे, तो सर्दी के मारे उनके दाँत बज रहे थे। शरीर में कँपकँपी छूट रही थी। करमू चाचा की पत्नी यशोदा ने नीना और रोहित को अपने बच्चों के कपड़े लाकर बदलने को दिए। सूखे कपड़े पहनकर दोनों ने गरम-गरम चाय पी, पराँठे खाए। तब कुछ चैन पड़ा।
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अगले दिन फिर करमू चाचा का ताँगा दौड़ रहा था। करमू चाचा ने नीना और रोहित के साथ अपने बेटे शिवराम को भी बिठा लिया था। बस अड्डे पर आकर करमू चाचा खुद नीना और रोहित के साथ बस में बैठे। शिवराम ताँगा लेकर वापस चला गया।
उस दिन करमू चाचा के साथ नीना और रोहित घर पहुँचे, तो नीना की माँ-पिताजी की खुशी का ठिकाना न था। उन्होंने करमू चाचा को बड़े प्यार से दुआएँ दीं। करमू चाचा उस दिन शहर में ही रहे। अगले दिन गाँव लौट गए।
उसके बाद तो नीना जब-जब गाँव गई, करमू चाचा के ताँगे की सवारी करना नहीं भूली। करमू चाचा के ताँगे में बैठकर दूर-दर की सैर करने का मजा ही अलग था।
बरस पर बरस बीतते गए। नीना बड़ी हो गई, लेकिन करमू चाचा की मीठी बातें नहीं भूली। उनकी सुनाई हुई कई मजेदार कहानियाँ भी उसे याद थीं। करमू चाचा का निश्छल प्यार भी उसे रह-रहकर याद आता था और वह सोचती थी, “इस बार गाँव जाऊँगी तो बहुत बातें करूँगी करमू चाचा से!”
पर अगले बरस वह गाँव गई तो करमू चाचा उसे लेने के लिए नहीं आए। ताँगा तो करमू चाचा का ही था, पर उसे उनका बेटा शिवराम चला रहा था।
नीना नानी के पास पहुँची तो बहुत खुश थी। उसने नानी से गाँव के बारे में ढेरों बातें की। फिर करमू चाचा का बात भी चली। नानी बोलीं, “करमू गुजरा तो तुझे बहुत याद कर रहा था, नीना। उसने मुझे सफेद मोतियों की यह माला दी थी कि नीना की जब शादी हो, तो उसे करमू चाचा की ओर से यह उपहार देना।”
नीना ने सफेद मोतियों की उस माला को सँभालकर रख लिया। जब-जब वह उसे पहनती है, करमू चाचा का हँसता-मुसकराता चेहरा आँखों के सामने आ जाता है।
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आप कहाँ हैं मैडम?
डा. सुनीता
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आज जब पीछे लौटकर देखती हूँ कि वह क्या था जिसने मेरे जीवन को ढर्रे का नहीं बनने दिया, हर क्षण कुछ न कुछ नया पढ़ने-गढ़ने, गुनने-समझने की तड़प मेरे भीतर से नहीं गई, तो एकाएक कुछ चेहरे स्मृतियों में तैरते हुए मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं। उनमें एक चेहरा इतना सुंदर और समझदारी से भरपूर है—खासकर उसकी ज्ञान से चमकती आँखों की सुंदरता ऐसी है कि मैं मानो सब कुछ छोड़, उसी के साथ हो लेना चाहती हूँ।
आपको आश्चर्य होगा, जिस सुंदर चेहरे की मैं यहाँ चर्चा कर रही हूँ, वह मेरी अध्यापिका कृष्णा वर्मा का है, जो तब मुझे अंग्रेजी पढ़ाती थीं जब मैं किशोरावस्था में भावनाओं की दुनिया में धीरे-धीरे कदम रख रही थी। उन दिनों साहित्य से मेरा नया-नया जुड़ाव हुआ था। यों एक नई दुनिया के द्वार मेरे लिए धीरे-धीरे खुल रहे थे।
मैडम कृष्णा वर्मा के पढ़ाने का ढंग एकदम अनौपचारिक था। वे मानो पढ़ाती नहीं थीं, उँगली पकड़कर हमें एक नई दुनिया के द्वार पर ला खड़ा करती थीं। वे पढ़ाते-पढ़ाते इस कदर खो जाती थीं कि हम मानो इस दुनिया से ऊपर उठकर कल्पना की एक नई दुनिया में पहुँच जाते थे।
यही वजह है कि कोई तीस बरस हो गए, लेकिन न तो मैडम कृष्णा वर्मा मुझे भूलीं और उन उनके द्वारा पढ़ाए गए पाठ। यह अलग बात है कि इस बीच मैंने स्वयं हिंदी साहित्य से एम.ए. करने के बाद डॉक्टरेट किया, खुद भी कुछ बरसों तक प्राध्यापिका रही हूँ और अपने विद्यार्थियों में खासी लोकप्रिय भी रही हूँ। पर सच पूछिए तो अध्यापन में मेरा आदर्श नौवीं कक्षा की मेरी अंग्रेजी अध्यापिका मैडम कृष्णा वर्मा ही हैं।
क्या मैं कभी भूल सकती हूँ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी ‘द होम कमिंग’! पर उसे मेरे जीवन में एक यादगार अनुभव बनाया था मैडम कृष्णा वर्मा ने ही। यह अनुभव इतना जीवंत और अनोखा था कि आज भी मैं आँखें मूँदूँ तो हुबहू उसी समय...उसी खूबसूरत कालखंड और परिदृश्य में पहुँच जाती हूँ, जहाँ हमारी नौवीं की अंग्रेजी की अध्यापिका कृष्णा वर्मा हमारी पाठ्य पुस्तक में शामिल यह कहानी पढ़ा रही हैं, एकदम तन्मय होकर। बच्चे भी उतनी ही तन्मयता से सुन रहे हैं। कक्षा में पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ है। मानो सभी बच्चों को मैडम कृष्णा वर्मा अपने साथ बहाए लिए जा रही हों और वे भी किसी जादू से बँधे बिलकुल मूक, जिधर वे मुड़ती हैं, उधर ही मुड़ते जा रहे हैं।
यों तो टैगोर की यह जगविख्यात कहानी भला किसने न पढ़ी होगी! फिर भी कुछ पंक्तियों में बताना हो, तो यह गाँव से आए एक मासूम-से किशोर की कहानी है, जो शहर में अपने मामा के यहाँ पढ़ने के लिए आया है। पर वह यहाँ के वातावरण और जीवन की चाल-ढाल से अपना किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बिठा पाता। शहराती जीवन से सामंजस्य बिठाने की उसकी सारी कोशिशें भोंडी साबित होती हैं। और उसकी शहरी नखरीली मामी और उनके बड़े शोख और सिरचढ़े घमंडी बच्चे उसका मजाक बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
वह पढ़ाई में तो लगातार पिछड़ता ही जाता है। साथ ही अपने गाँव-घर से, माँ और भाई-बहनों से बिछुड़े होने का दुख भी उसे बुरी तरह कचोटने लगता है। अंत में वह बुरी तरह बीमार पड़ता है। उसकी हालत लगातार बिगड़ती जाती है और जब उसके जीवन का अंतिम समय है, उसे लगता है, वह अपार समुद्र में डूबता जा रहा है—और नीचे...और नीचे...और नीचे!
कहानी खत्म। मैडम एकदम चुप। कुछ भी टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं, और टेबल के पास ही टाट-पट्टी पर बैठी मैं—टप-टप, टप-टप...लगातार टप-टप, टप-टप बहते आँसुओं से भीगी हुई। यहाँ तक कि आँसू पोंछने का भी होश नहीं। और सामने खुली पड़ी किताब के पन्ने धुँधलाते जा रहे हैं।
मेरे साथ ही कक्षा के और भी कुछ बच्चों का यही हाल था। थोड़ी देर बाद ही घंटी बजी और अंग्रेजी का वह पीरियड खत्म। मैडम ने धीरे से अपना पर्स उठाया और धीमे और बोझिल कदमों से चल दीं। उनकी चाल में रोज जैसी फुर्ती न थी। आज मानो उनके कदमों को कहानी में उमड़ते दुख ने भारी कर दिए था।
यहाँ इस बात का और जिक्र कर दूँ कि मैडम कृष्णा वर्मा की एक बेटी थी। उस समय तक वह छोटी-सी थी, शायद तीन या चार साल की। नाम था मिनी। उन्होंने जब हमें ‘काबुलीवाला’ कहानी पढ़ाई थी, तब कुछ ऐसा समाँ बाँधा था, मानो कहानी की मिनी में उनकी अपनी बेटी मिनी भी शामिल हो गई हो।
कहानी का अंत बेहद करुण है। जेल से छूटा काबुलीवाला दुलहन बनी मिनी को देखने की आस लिए उसके दरवाजे पर आता है, तो घर की स्त्रियाँ भले ही उसे अपराधी समझकर भय खाएँ, वह खुद को एक सच्चा इनसान और एक बेटी का ममतालु पिता ही साबित करता है। यह प्रसंग बड़ा मार्मिक है और मैडम कृष्णा वर्मा के पढ़ाने के ढंग ने इसकी करुणा को और अधिक उभार दिया था।
तो ऐसा था उनका पढ़ाने का अंदाज। मनमोहक और अपने साथ-साथ बहा ले जाने वाला।
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आज मैडम कृष्णा वर्मा को याद करती हूँ तो लगता है, उनकी यही तो खासियत थी। मुझे याद नहीं कि उन्होंने कभी किसी बच्ची पर हाथ उठाया हो या ऊँची आवाज में डाँटा हो। पर उनकी शांत, दृढ़ और ठहरी हुई दृष्टि में ही कुछ ऐसा जादू था कि बच्चों के व्यक्तित्व के सारे ऊधमी कोने कछुए की तरह खुद-ब-खुद अंदर सिमट जाते थे। कक्षा में उनके कदम रखते ही एकदम सन्नाटा छा जाता था।
जो भी वे पढ़ातीं, इतना लीन होकर पढ़ातीं कि कक्षा में ही वह सब हमारे दिल-दिमाग के भीतर उतर जाता था। निगाह इतनी पैनी कि क्या मजाल, कक्षा में कोई टेस्ट लिया जा रहा हो और बच्चा किसी की नकल कर ले—असंभव, एकदम असंभव!
कभी-कभी सोचती हूँ, भला ऐसी क्या खासियत थी मैडम कृष्णा वर्मा के व्यक्तित्व में कि हम विद्यार्थियों में से कोई उनकी बात की अवमानना करने की बात तो दूर, सोच तक नहीं सकता था। तो लगता है, यह शरीर से ज्यादा मन और बुद्धिमत्ता की सुंदरता थी जिसका जादू समूची कक्षा पर तारी हो जाता था। यह एक समझदार और सुरुचिपूर्ण अध्यापिका की आंतरिक सुंदरता थी, जिसे महसूस तो किया जा सकता है, पर ठीक-ठीक बताया नहीं जा सकता!
उम्र कोई 27-28 बरस। कद पाँच-सवा पाँच फुट। दुबला-पतला शरीर, लेकिन आकर्षक देह-यष्टि। चेहरे पर अत्यधिक आकर्षण। रंग हलका साँवला, बाल खूब घने और लंबे। लंबी-सी चोटी पीठ पर लटकती रहती, जो उनकी चाल में एक अनोखी लय उत्पन्न कर देती। आँखों में बुद्धिमत्ता की चमक। ये थीं नौंवी कक्षा की हमारी अंग्रेजी अध्यापिका श्रीमती कृष्णा वर्मा, जो उस समय तो मेरे लिए सुरुचि और सुंदरता का सर्वोच्च प्रतिमान थीं, आज भी हैं।
मैडम कृष्णा वर्मा से जुड़ा एक प्रसंग और याद आता है। शायद दिसंबर के दिन थे। ठिठुरा देने वाली सर्दी। वे साड़ी पर शाल ओढ़कर आतीं। आँखें ज्ञान से दीप्त। वे शायद दूसरी बार माँ बनने जा रही थीं। अपने इस रूप में किसी स्त्री को मातृत्व की गरिमा से इतना आलोकित मैंने आज तक नहीं देखा। वे अपने इस नए रूप में और सुंदर होती जा रही थीं। उनके चेहरे पर हर समय एक आलोक-सा छाया रहता। और पहले जो उनका आतंक था, वह भी कुछ कम हो चला था। वे पहले से ज्यादा कोमल, सहानुभूतिपूर्ण और उदार होती जा रही थीं।
जनवरी में लोहड़ी का त्योहार आया। क्लास मॉनीटर की यह जिम्मेदारी होती कि वह कक्षा को पढ़ाने वाले सभी अध्यापकों से चंदा इकट्ठा करे। उसके साथ तीन-चार लड़कियाँ और भी होती थीं। मैं भी थी। हमने सभी अध्यापिकाओं से पैसे इकट्ठे किए। किसी ने दस दिए, किसी ने इक्कीस और किसी ने इकतीस। सबसे अंत में हम अपनी क्लास टीचर कृष्णा वर्मा के पास गए। हम चारों ने तय कर लिया था कि इस बार मैडम कृष्णा वर्मा से पचास रुपए से कम नहीं लेने हैं।
हम मुसकराते हुए स्टाफ रूप में गए। कृष्णा वर्मा जी वहाँ कापियाँ जाँच रही थीं, क्योंकि उनका यह पीरियड फ्री था और हमारा पीटी का था, सो हम अपनी पीटी मैडम से कहकर आए थे। स्टाफ रूम में दो-एक अध्यापिकाए और थीं। हम मैडम के पाए गए और बोले, “मैडम, लोहड़ी मनानी है। आप भी कुछ सहयोग करें।”
उन्होंने मुसकराते हुए हमें देखा और बोलीं, “बोलो, कितने दे दूँ?”
“पचास!” दीपा ने कहा।
“अरे, पचास तो बहुत ज्यादा हैं!”
“नहीं, इस बार आपसे पचास ही लेने हैं, कम नहीं।” हमने आग्रह से भीतरी भाव को छिपाते हुए कहा।
मैडम ने भी शब्दों के पीछे छिपे भाव को हमारी आँखों से पढ़ लिया था। उन्होंने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से हमें पचास रुपए का नोट पकड़ाते हुए कहा, “चलो, ठीक है। ले जाओ और मूँगफली-रेवड़ियाँ चपरासी से मँगवा लो। फिर सारी क्लास में बराबर-बराबर बाँट लेना।”
यों हमारे पास कुल 140 रुपए इकट्ठे हुए थे। हमने चपरासी मनोहरलाल को पैसे दिए और मूँगफली-रेवड़ियाँ लाने भेज दिया। वह भी कुछ पाने की उम्मीद में खुशी-खुशी चला गया। उस दिन लोहड़ी के त्योहार की वजह से सारे स्कूल का वातावरण ही उत्सवमय हो रहा था।
स्कूल के मैदान में लोहड़ी जलाई गई, गीत गाए गए और फिर अपनी-अपनी कक्षा के सभी मानीटरों ने मूँगफली-रेवड़ियाँ बाँटीं। अंजुरी भर-भर रेवड़ियाँ और मूँगफलियाँ हरेक बच्चे के हिस्से में आईं। सभी लड़कियाँ बड़ी खुश थीं।
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लोहड़ी के तीन या चार दिन बाद की बात है। मैडम कृष्णा वर्मा ने, जो कि मुझ पर बहुत विश्वास करती थीं, मुझे स्टॉफ रूम में बुलाया, कापियाँ ले जाने के लिए। मैं स्टॉफ रूम में गई, तो उन्होंने अपनी अलमारी की ओर इशारा करके मुझे चाबी दी। मैंने कापियाँ निकाल लीं।
उन्होंने चाबी वापस लेते हुए, मुझे समझाने के लहजे में कहा, “देखो सुनीता, मैं कल से लंबी छुट्टी पर जा रही हूँ। फिर हम लोग नई क्लास में मिलेंगे।”
कुछ दिन से अपनी सहज नारी-बुद्धि से हम सबने उनके कहने से पहले ही अनुमान लगा लिया था कि अब वे ज्यादा दिन स्कूल नहीं आ पाएँगी। इसलिए मुझे ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ।
मैडम कृष्णा वर्मा उसी अपनत्व वाले लहजे में कह रही थीं, “मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा है। मुझे लगता है कि मेरे पीछे तुम्हारी क्लास में अब नई टीचर लगना तो मुश्किल है। हाँ, कभी पीरियड लगेगा, कभी नहीं। कोर्स मैंने सारा कंपलीट करा ही दिया है। मेरे बाद क्लास की किसी लड़की को इंग्लिश में कुछ समझ न आ रहा हो, तो उसे तुम अच्छी तरह समझा देना, खासकर संतोष, सुधा, कैलाश और नीरू को। अगर तुम उनकी थोड़ी-सी भी मदद कर दोगी, तो वे भी नई कक्षा में तुम्हारे साथ आगे बढ़ सकेंगी। वे गरीब हैं और ट्यूशन नहीं रख सकतीं। तो मेरा कहना है कि जब भी ये तुमसे कुछ पूछें, तो अच्छी तरह समझा देना। और खुद तो तुम्हें कुछ कहने की जरूरत ही नहीं। आई होप, यू विल डू योर बेस्ट!...समझ गई न!”
मैंने झुकी आँखों से ही गरदन हिला दी। मैं कापियाँ लेकर चलने लगी, तो उनके प्रति ऐसा भावना का ज्वार सा उमड़ा कि मन में इच्छा हुई, उन्हें कह दूँ—‘मे गॉड ब्लेस यू विद ए सन!’ पर अपनी छोटी उम्र के कारण मुझे लगा कि ऐसा कहना शायद अभद्रता होगी।
मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो वे बड़े स्नेह से मेरी ही ओर देख रही थीं। वे कुर्सी से उठीं, मेरे कंधे पर हाथ रखा और समझ गईं कि उनसे बिछोह की बात सोचकर मेरी आँखें पनीली हो आई हैं। उन्होंने मेरा कंधा थपथपाया और खुद को भी सँभालते हुए कहा, “सुनीता, प्लीज डोंट क्राई, बी ब्रेव, गुड गर्ल!” और यों मैं बोझिल कदमों से कापियाँ लेकर कक्षा में आ गई।
मैडम कृष्णा वर्मा के छुट्टी पर जाने के लगभग महीना भर बाद हमें खबर मिली कि उन्हें बेटा हुआ है, तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मुझे लगा, जो बात मैं मुँह से नहीं कह पाई थी, वह ईश्वर ने मेरे कहे बिना ही सुन ली।
दसवीं कक्षा में वे फिर से हमें इंग्लिश पढ़ाने लगीं और घर से स्कूल आते ही उनकी कक्षा की कुछ इस बेसब्री से मुझे प्रतीक्षा रहती कि लगता, मैं स्कूल में बस उन्हीं की क्लास में पढ़ने, उन्हीं को देखने और सुनने आती हूँ। जैसे-जैसे वक्त गुजरा, उनका यह जादुई सम्मोहन कम होने की बजाए बढ़ा ही।
और आज जब उनसे बिछड़े कोई चालीस बरस के करीब गुजर गए हैं और मैं ठीक-ठीक जानती तक नहीं कि वे आज कहाँ होंगी—एक अध्यापक का मेरा आदर्श मैडम कृष्णा वर्मा ही है।
आज जब मैं अपने बच्चों को या जिज्ञासुओं को कुछ बताने लगती हूँ, तो बताते-समझाते हुए पूरी तरह लीन हो जाती हूँ। कुछ लोग कभी-कभी इस बात की तारीफ भी कर देते हैं। तब मैं एकदम चुप हो जाती हूँ या एक वाक्य धीरे से मेरे मुँह से निकलता है, “काश, आप मैडम कृष्णा वर्मा से मिले होते!”
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मुश्किल में फँसे शिवदास
डा. सुनीता
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एक थे शिवदास। वे एक गरीब ब्राह्मण थे और पूजा-पाठ करके अपना गुजारा करते थे। असम राज्य के छोटे-से गाँव छिपरी में वे अपनी पत्नी सावित्री के साथ रहते थे।
शिवदास बहुत सीधे-सादे थे। जो भी उन्हें प्यार से बुलाता, उसके यहाँ पहुँच जाते थे और वहाँ से जो कुछ भी मिलता, उसे प्यार से गठरी बाँधकर ले आते थे। अकसर छिपरी और आसपास के गाँवों के गरीब लोग उन्हें पूजा के लिए बुलाते, पर वे अनाज के अलावा उन्हें महज कुछ पैसे ही दक्षिणा में देते थे। शिवदास में जरा भी अभिमान न था। जो भी मिलता, उसे खुशी-खुशी स्वीकार करते। इससे हर कोई उनसे प्रसन्न रहता था और बराबर कहीं न कहीं पूजा के लिए उनके पास बुलावा आ जाता।
शिवदास अब काफी बूढ़े हो गए थे। उनके बेटे युवा थे। वे शहर में काम करने चले गए थे। वहीं रहने भी लगे थे। गाँव में शिवदास और उनकी पत्नी सावित्री ही थे। शिवदास का पूरा जीवन विधि-विधान से पूजा-पाठ करते बीता था। इसी में उन्हें सुख भी मिलता था। गाँव में शादी-ब्याह, श्राद्ध, व्रत-त्योहार हों या दूसरे धार्मिक रीति-रिवाज, उनके बिना पूरे न होते।
छिपरी के अलावा आसपास के गाँवों के लोगों का निमंत्रण पाकर भी वे हर हाल में पहुँचते थे। उम्र ढल जाने पर भी उसका यह नियम चल रहा था। यहाँ तक कि बहुत आदर-मान करने वाले किसी यजमान के यहाँ जाना हो, तो वे आँधी-पानी की भी चिंता नहीं करते थे और अपना वचन पूरा करते थे।
पत्नी सावित्री कई बार उन्हें रोकती भी थी। कहती, “अब तुम्हारी उमर आराम करने की है। क्यों बेकार अपनी जान साँसत में डालते हो?”
इस पर शिवदास भोले भाव से मुसकराकर कहते, “अरी भागवान, लोग इतने प्यार से बुलाते हैं। मैं न पहुँचूँगा तो भला उन्हें कितना दुख होगा!”
एक बार की बात, पड़ोस के गाँव देवारी के एक व्यापारी देवकीनाथ के घर पूजा थी। बड़े दिनों के बाद उसके यहाँ पोता हुआ था। साथ ही व्यापार में भी बड़ा लाभ हुआ था। इस खुशी में उसने घर में भगवान विष्णु की पूजा कराने का निश्चय किया। शिवदास को पूजा कराने का निमंत्रण दिया।
बारिशों के दिन थे। आसमान में घने बादल छाए हुए थे और कुछ बूँदा-बाँदी भी शुरू हो गई थी। तेज बारिश के आसार नजर आ रहे थे। एक बार तो शिवदास के मन में आया कि इस मौसम में कहीं आना-जाना मुश्किल है। इसलिए वे टाल ही जाएँ। पर फिर उन्हें याद आया कि देवकीनाथ ने कितने आग्रह से उन्हें बुलाया है। अकेला देवकीनाथ ही नहीं, पूरा परिवार उनका आदर करता है। इसलिए वे हिम्मत करके चल पड़े।
देवारी गाँव में व्यापारी देवकीनाथ के घर पहुँचकर उन्होंने बड़े विधि-विधान से पूजा की। साथ ही घर में छोटे-बड़ों सभी के माथे पर तिलक लगाकर उन्हें आशीर्वाद दिया। देवकीनाथ की घरवाली राधारानी पंडितजी के पूजा-पाठ से बड़ी प्रसन्न और गद्गद थी। पूजा संपन्न होने के बाद उसने पंडितजी को ढेर सारा धान, गुड़ और फल दिए। पंडितजी ने उन्हें एक पोटली में बाँध लिया।
शिवनाथ प्रसन्न थे। पर उनकी यह प्रसन्नता तब और बढ़ गई जब सेठ देवकीनाथ ने दक्षिणा के रूप में उन्हें एक रुपए का करारा नोट दिया। शिवदास ने पहले कभी ऐसा कड़कड़ाता नोट देखा ही नहीं था। लिहाजा उसे पाकर, मन ही मन बड़े खुश हुए। मगर ऊपर से वे बड़े शांत और धीर-गंभीर बने रहे, ताकि सेठ देवकीनाथ की घरवाली राधारानी और उसके बेटे-बेटियाँ और बहुएँ उन्हें हलका या ओछा न समझ लें।
शिवनाथ वहाँ से चलने लगे तो राधारानी और देवकीनाथ ने फिर से बड़े आदर से पैर छुए तथा प्रेम भरे वचनों के साथ उन्हें विदा दी।
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शिवदास पैदल ही घर की ओर चले जा रहे थे। आज उनका मन गद्गद था। वे सोच रहे थे, “जाकर सावित्री को बताऊंगा कि सेठ देवकीनाथ ने कितने आदर-मान के साथ पूरे एक रुपए की दक्षिणा दी है, तो उसे कितनी खुशी होगी।”
शिवदास इन्हीं खयालों में खोए हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। उनका गाँव छिपरी अभी दूर था। रास्ते में थोड़ा हिस्सा दलदली जमीन का था। सिर पर रखी धान, गुड़ आदि से भरी गठरी भी काफी भारी थी। इसलिए शिवदास सावधानी से धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे।
पर कुछ आगे चलते ही एक और मुसीबत शुरू हो गई। अब बड़ी तेज बारिश होने लगी थी। शिवदास पूरे भीग गए थे। तेज बारिश और बादलों के कारण रास्ता भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। वे अनुमान से रास्ते पर आगे तो बढ़ रहे थे, पर लगातार दलदल में धँसते भी जा रहे थे।
जब शिवदास कमर से भी ऊपर धँसने लगे तो वे समझ गए कि अब आगे चलना खतरे से खाली नहीं है। पास में ही उनके साले बलभद्र का घर था। उन्होंने सोचा, “इस हालत में घर पहुँचना तो मुश्किल है। हाँ, अगर साले के घर पहुँच जाऊँ, तो भी किसी तरह संकट से बचाव हो सकता है।”
लिहाजा शिवदास ने पास ही रहने वाले अपने साले को जोर-जोर से आवाजें लगानी शुरू कर दीं, “अरे बलभद्र, मुझे बचाओ! मुझे बचाओ, मैं धँसता जा रहा हूँ। जल्दी आओ बलभद्र, जल्दी—जरा जल्दी!”
बलभद्र ने अपने जीजा की पुकार सुनी तो समझ गया कि वे किसी बड़ी मुसीबत में फँस गए हैं। वह दौड़कर उनके पास पहुँचा। उसने खींचकर अपने जीजा को बाहर निकाला। फिर आदर से अपने घर ले गया। उन्हें सूखे कपड़े पहनने को दिए और फिर ठंड से बचाने के लिए आग जला ली।
शिवदास बुरी तरह ठिठुर रहे थे। पर उन्हें इस समय भी चिंता अपनी इतनी नहीं थी, जितनी जेब में पड़े, भीग गए नए नोट की। उन्होंने अचकचाकर कहा, “देखो बलभद्र, मेरी जेब में एक रुपए का नोट है। पहले उसे निकालकर सुखाओ। कितने दिनों बाद ऐसा करारा नोट मिला था, वह भी भीग गया। ओह, बुरा हुआ, बहुत बुरा!”
बलभद्र ने कहा, “ठीक है जीजा जी, आप चिंता न करें। मैं उसे ठीक से सुखा दूँगा। नोट का कुछ न बिगड़ेगा।”
कहकर बलभद्र ने शिवदास के नहाने का प्रबंध किया। पहनने के लिए अपने साफ, धुले वस्त्र दिए।
पंडित शिवदास ने नहाकर सूखे वस्त्र पहने तो कुछ चैन पड़ा। बलभद्र जीजा के लिए गरम दूध लेकर आया।
दूध पीकर शिवदास के चेहरे पर बड़ी संतुष्टि वाला भाव नजर आने लगा। पर तभी अचानक फिर से उन्हें एक रुपए के करारे नोट का ध्यान आ गया। उन्होंने एकाएक बेसब्र होकर पूछा, “अरे बलभद्र, तुमने नोट ठीक से सुखा दिया था ना? कहीं भूल तो नहीं गए? पहली बार किसी ने दक्षिणा में ऐसा करारा नोट दिया है। देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया था। पर ओह, बारिश भी आज ही आनी थी!”
“जीजा जी, आप चिंता न करें। नोट बिलकुल सुरक्षित है!” बलभद्र ने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा।
पर शिवदास को चैन नहीं पड़ रहा था। बोले, “देखो तो, सेठ देवकीनाथ का दिल कितना बड़ा है! बाकी लोग चवन्नी, अठन्नी देते हुए भी चार बार सोचते हैं, पर उन्होंने पूरा नोट मेरी हथेली पर रख दिया। वह भी ऐसा करारा नोट। उसे तुमने मेरे कुरते की जेब से निकालकर किसी सूखी जगह पर रख दिया ना। देखना, कहीं नोट खराब न हो जाए...!” फिर बोले, “चाहो तो तुम मेरे पास ले आओ। मैं खुद उसे अच्छी तरह सुखा देता हूँ।”
“नहीं-नहीं, इसमें कौन-सी मुश्किल थी!” बलभद्र बोला, “उस नोट को तो निकालकर मैंने ठीक से सूखने के लिए रख दिया है जीजा जी। आप बिलकुल चिंता न करें, उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा!”
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पंडित शिवदास को कुछ चैन पड़ा। वे बलभद्र से घर-परिवार के सुख-दुख की बातें करने लगे। अब तक बारिश थम गई थी। मौसम खुश्क हो गया था। उनके कपड़े भी अच्छी तरह सूख गए थे।
उन्होंने फिर से अपने कपड़े पहन लिए और चलने लगे। पर तभी उन्हें वह कड़कड़ाता नोट याद आ गया। बोले, “पर मेरा वह नोट...? जरा देखना बलभद्र, अब तो जरूर मुड़-तुड़ गया होगा।”
सुनकर बलभद्र हँसकर बोला, “अरे जीजा जी, आप ध्यान से देखिए। मैंने आपके कुरते की जेब में रख दिया वह नोट। उसका कुछ नहीं बिगड़ा, एकदम ठीक है।”
शिवदास ने कुरते की जेब में हाथ डाला और नोट को निकालकर देखा। नोट ठीक था, पर उसकी सुबह वाली कड़क अब गायब हो चुकी थी। थोड़ा मुड़-तुड़ भी गया था और कुछ मुरझाया हुआ-सा लगता था।
देखकर शिवदास का चेहरा उतर गया। “आह, सुबह इस नोट की कैसी धज थी। इतना करारा नोट देखकर मेरा मन खुश हो गया था, पर अब...!” कहते-कहते शिवदास कुछ उदास हो गए। उन्हें अपने भीगने या दलदल में धँसने का इतना दुख नहीं था जितना कि नए नोट के भीग जाने का।
देखकर बलभद्र को हँसी आ गई। उसने कहा, “जीजा जी, आप चिंता न करें। सूखने के बाद भी नोट करारा भले न रहे, पर चलेगा एक रुपए में ही।”
बलभद्र की बात सुनकर शिवदास को भी हँसी आ गई। फिर वे मुसकराते हुए घर चल दिए।
अगले दिन बलभद्र घर आया तो उसने अपनी बहन राधारानी को एक रुपए के नोट का पूरा किस्सा सुनाया। फिर हँसते हुए बोला, “जीजा जी को अपने दलदल में फँसने की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी एक रुपए के उस कड़कड़ाते नोट की। उन्होंने वहीं बैठे-बैठे चार बार पूछ लिया कि अरे बलभद्र, देखना तो, कहीं वह नोट खराब तो नहीं हो गया!”
सुनकर राधारानी जोर से हँस पड़ीं। शिवदास भी बड़े भोले भाव से हँस रहे थे।
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7
साकरा गाँव की रामलीला
डा. सुनीता
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साकरा गाँव में थी रहती थी दीपा की संतो नानी। दीपा को इतनी अच्छी लगती थीं संतो नानी कि वह माँ के साथ साकरा गाँव आई तो वापस जाने का नाम ही नहीं लेती थी। और एक दिन तो उसने जिद ही ठान ली, “मम्मी...मम्मी, मैं वापस नहीं जाऊँगी। मुझे तो संतो नानी और उनका साकरा गाँव ही अच्छा लगता है।”
“ओ री ओ बुद्धू, ऐसे कैसे चलेगा? घर पर जाकर पढ़ाई भी तो करनी है तुझे!” दीपा की मम्मी श्यामला ने हँसते-हँसते डाँटा। उनके होंठ हँस रहे थे, पर आँखों में हलका गुस्सा और नाराजगी भी थी।
पर दीपा को भला इसकी क्या परवाह? वह क्या जानती नहीं है अपनी मम्मी को कि वे हँसते-हँसते डाँट लगाती हैं और गुस्सा भी उनका बड़ा कच्चा होता है। अगले ही पल झट उतर जाता है।
फिर संतो नानी तो दीपा की मम्मी की भी मम्मी हैं। उनके आगे भला उनकी क्या चल पाएगी? सोचकर उसने संतो नानी की ओर देखा, जो इतना लाड़ करती थीं उसे कि दीपा का मन होता, बस वह नानी के पास ही रहे। सारे दुनिया-जहान से अच्छी हैं उसकी नानी। कहने को अनपढ़, पर बातें इतनी प्यारी करती हैं कि दीपा को लगता है, उसकी नानी से समझदार तो कोई दुनिया में हो ही नहीं सकता।
संतो नानी समझ रही थीं श्यामला की मुश्किल। वे खुद चाहती थीं कि दीपा कुछ दिन गाँव रह जाए। पर फैसला तो श्यामला को ही करना था। वे मुसकराती हुई कभी दीपा की ओर देखने लगतीं तो कभी श्यामला की ओर।
शयामला का तो पूरा बचपन इसी साकरा गाँव में ही बीता था। फिर बड़े होने पर यहीं विवाह हुआ। आज भी गाँव उन्हें बहुत अच्छा लगता था। यहाँ का सीधा-सरल रहन-सहन और लोग भी। पर उन्हें चिंता थी दीपा की पढ़ाई-लिखाई की। ठीक है, अभी दीपा छोटी है। पर कुछ दिनों बाद तो स्कूल में इसका दाखिला कराना है ना! इसलिए वे घर पर रोज थोड़ा पढ़ा देती हैं। अभी अंग्रेजी और हिंदी की कुछ कविताएँ भी याद करानी हैं। पर गाँव में भला यह सब कैसे होगा?
उन्होंने दीपा से कहा तो वह अपने उसी चंचल अंदाज में बोली, “अरे मम्मी, आप बिलकुल चिंता न करो। जब वापस घर आऊँगी तो दो दिन में झटपट सब सीख जाऊँगी। आप एडमिशन कराने जाओगी तो मैं फर-फर मैडम के सारे सवालों का जवाब दे दूँगी।”
“और यहाँ गाँव में रह लेगी तू, दीपा? तुझे याद नहीं आएगी मम्मी की...? नहीं न!” श्यमला ने गरदन टेढ़ी करके थोड़े मान से कहा।
“ओहो, पर यहाँ नानी तो हैं ना मम्मी! नानी कितनी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती हैं रामायण की, महाभारत की। मुझे तो बड़ी पसंद हैं। मैं सारी की सारी याद कर लूँगी। लौटकर आपको भी सुनाऊँगी।” दीपा का उत्साह थम नहीं रहा था।
अब दीपा की मम्मी भला क्या कहतीं!
कुछ सोचकर उन्होंने दीपा को कुछ समय के लिए साकरा गाँव में ही छोड़ने का फैसला किया। इस पर इतनी खुश थी दीपा, इतनी खुश कि वह झट नानी से लिपट गई। अब भी जैसे उसे डर था, कि कहीं मम्मी बातों-बातों में बहलाकर उसे अपने साथ शहर न ले जाएँ।
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मम्मी गईं तो दो-एक दिन थोड़ा उदास तो रही दीपा, पर नानी उसे इतना प्यार करती थीं और इतनी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती थीं कि उसकी उदासी देखते ही देखते गायब हो गई। वह हर पल नानी के साथ छाया की तरह लिपटी रहती। यों तो गाँव में छोटे-बड़े बहुत लोग थे। सभी उससे लाड़ करते और नानी उसे सबके बारे में बताया करती थी। पर वह गाँव में थी तो बस नानी की वजह से। वह तो सिर्फ इतना ही जानती थी कि वह नानी की है और नानी उसकी। बस, सारे दिन लड़ियाती हुई नानी के आगे अपनी फरमाइशों का पिटारा खोल देती, “नानी, यह दो...नानी, वह दो! नानी, नानी, नानी...!”
छोटी-सी थी दीपा, पर इतना तो जानती थी कि उसकी नानी बहुत बड़ी हैं। जो चाहे, वह कर सकती हैं। बहुत बड़ा दिल है उनका और गाँव में सभी उनकी बहुत इज्जत करते हैं। उसकी नानी असल में जगताई थीं और कहीं भी आजे-जाते पूरा गाँव ‘ताई, राम राम!’ कहकर आदर से उसके आगे सिर झुकाता था।
फिर एक दिन नानी ने कहा, “दीपा, कल से रोज मैं घर के आँगन में रामकथा कहूँगी। सारा गाँव सुनने आएगा। कथा के बीच में कुछ बोलकर मुझे परेशान करना। और हाँ, आँगन कच्चा है तो अच्छी तरह साफ करके गोबर से लीपूँगी। तू भी थोड़ी-बहुत मदद करना।”
दीपा को भला क्या परेशानी थी? उसे तो एक नया ही खेल मिल गया। और नानी की कथा शुरू हो गई तो वह भी सारे गाँव वालों की तरह ध्यान लगाकर सुनने लगी। सचमुच नानी की कथा में अनोखा रस था। शुरू में दीपा ने सोचा था, उसे तो कथा समझ में नहीं आएगी। पर नानी इतने सीधे-सरल ढंग से सुना रही थीं राम-कथा कि दीपा को बड़ा आनंद आ रहा था।
अब तो नानी रोज बिना नागा शाम के समय घर के आँगन में रामजी की कथा सुनातीं। नानी के स्वर में ऐसा जादू था कि पूरा गाँव उमड़ पड़ता था कथा सुनने के लिए। कथा सुनाते-सुनाते खुद नानी भी इतनी मगन हो जाती थीं कि सभी की आँखों से प्रेम और आनंद के अश्रु बहने लगते।
देखकर दीपा को बड़ा अच्छा लगता। वह खुद प्रेम-मगन सी हो जाती। और सोचने लगती, ‘आहा, नानी के स्वर में कितनी मिठास और कैसा जादू है। उनकी बात सीधे दिल में उतरती जाती है।’
पर उसे क्या पता था कि एक दिन नानी के इसी घर में चमत्कार होने वाला है। वह भला सोच भी कैसे सकती थी कि पूरा गाँव जिसे ‘पत्थर दिल’ और ‘राच्छस’ कहता है, उस सिंघू को भी वह नानी की कथा में फूट-फूटकर रोते देखेगी! और सिंघू को भला कौन नहीं जानता था गाँव में? यों तो गाँव का जमींदार था सिंघाड़ाराम यानी सिंघू। पर पूरा गाँव ही उससे नफरत करता था।
“जो अपने सगे भाई का न हुआ, वह किसका होगा? राम...राम-राम!” गाँव के लोग सिंघू का नाम सुनते ही अजीब ढंग से अपनी कड़वाहट प्रकट करते थे। औरतें तो उसका नाम तक नहीं लेना चाहती थीं। नानी की सहेली कदारी कहती, “जो मानुष जनम लेकर भी राच्छस हो, उसका तो नाम लेना भी पाप है।”
छोटी-सी दीपा ने कई बार गाँव के लोगों को नानी के सामने सिंघू के चरित्र की पूरी कलई खोलते देखा है। ज्यादा तो उसकी समझ में आता नहीं था, पर इतना जरूर वह जान गई थी कि सिंघू बड़ा खराब आदमी है, जिसने पिता के मरते ही अपने छोटे भाई दुखहरण को धक्के मारकर निकाल दिया। उसके हिस्से के खेतों पर भी कब्जा कर लिया। और दुखहरण बेचारा गाँव से मारा-फिरता है। कभी कहीं मजदूरी मिल गई तो ठीक, वरना भूखा ही सो गया।
दुखहरण की पत्नी कैलासो इतनी बार नानी के आगे आकर रो चुकी है कि दीपा चाहे तो उसके मुँह से सुनी एक-एक बात आज भी याद कर सकती है। नानी कैलासो के सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरतीं और कहतीं, “तू चिंता न कर बेटी। ऊपर वाले के यहाँ देर है, अंधेर नहीं।”
फिर उन्होंने दिलासा देते हुए कहा था, “जो भी मुझसे हो सका, तेरे लिए जरूरी करूँगी बेटी। कुछ और नहीं, तो अपने रामजी से तेरे लिए प्रार्थना तो कर ही सकती हूँ।”
“नानी भला क्या कर पाएँगी? उन्होंने रामजी से प्रार्थना की भी तो क्या रामजी आएँगे दुखहरण की मदद के लिए? क्या उसके बच्चे भी दूसरों की तरह हँस-खेल पाएँगे?” दीपा दुखी होकर सोचती रहती। उसका नन्हा-सा मन जीवन के इतने उलझे हुए तानों-बानों को भला कैसे सुलझा सकता था?
फिर एक दिन दीपा ने नानी को एक अधेड़-सी स्त्री से बतियाते हुए, उसे अच्छी-अच्छी सीखें देते सुना। बादामी सलवार-सूट पहने वह स्त्री उसे बड़ी भली लगी।
“देख, तू एक बार कथा में सिंघू को लाइयो जरूर, भूलियो नहीं।” नानी उस स्त्री से कह रही थीं।
“हाँ ताई, मैं पूरी कोशिश करूँगी। देवर-देवरानी की यह हालत देखकर मेरा भी कलेजा फटता है।” वह स्त्री बार-बार यही शब्द दोहरा रही थी।
बाद में नानी ने दीपा को बताया, “यह लछमो थी, सिंघू की घरवाली। बड़े अच्छे सुभाव की है बेचारी। खुद अपने घरवाले के आचरण से दुखी है।”
“नानी, सिंघू क्या आपकी कथा में आ जाएगा? वह तो बड़ा खराब है। लोग कहते हैं, पक्का डाकू है, डाकू! उससे आपको डर नहीं लगेगा?” दीपा ने डरते-डरते नानी से पूछा था।
और इस पर नानी हँस पड़ी थीं—खिल-खिल...खिल-खिल! वे इतना हँसी थीं, इतना हँसी थीं कि दीपा भौचक-सी देखती रह गई थी।
“क्यों नानी, तुम हँस क्यों रही हो? क्या तुम्हें डर नहीं लगता? सच्ची-मुच्ची!” दीपा ने हकबकाकर पूछा।
“पगली जो सच्चाई पर टिके होते हैं, उन्हें किसी का डर नहीं होता। यमराज का भी नहीं। फिर सिंघू तो आदमी है।” नानी ने कहा तो दीपा को लगा, उसकी नानी बड़ी होते-होते इतनी बड़ी हो गई हैं कि यह सामने वाला बड़ा-सा बरगद का पेड़ भी उनसे छोटा है।
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ऐसे ही दो-एक दिन और बीते। फिर सचमुच सबने एक ऐसा दृश्य देखा जिस पर किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि यह सपना है या हकीकत? पर थी तो वह असलियत ही। लछमो अपनी पति सिंघू को किसी तरह मनाकर नानी की कथा में ले आई थी। सिंघू ने आकर माता सीता और रामचंद्र जी की तसवीर के आगे सिर नवाया और फिर एक ओर बैठ गया।
दीपा को खूब अच्छी तरह याद है, उस दिन नानी ने वन में राम को मनाने गए भरत का प्रसंग सुनाया था। वह पूरा प्रसंग इतना मार्मिक था और बीच-बीच में पद, दोहे और चौपाइयाँ गाती हुई नानी उसे इतना भाव-विभोर होकर सुना रही थीं कि सबकी आँखों से आँसू बह निकले। दीपा को तो सचमुच ऐसा लग रहा था, मानो नानी का आँगन ही वन में सीता की कुटिया बन गया है।
उस दिन दीपा की नानी के शब्दों में मानो उनका हृदय उमड़ पड़ा था और करुणा की धाराएँ बह रही थीं। नानी धीमे-धीमे सुर में कह रही थीं—
“हाँ, तो रामकथा के प्यारे भक्तो!...उस दिन जंगल में अद्भत दृश्य था, अद्भुत खेल! ऐसा खेल आपने कभी देखा-सुना न होगा। अयोध्या का राज्य तो एक गेंद की तरह था। भरत उसे राम को देना चाहते थे, मगर राम उसे बार-बार भरत की ओर लुढ़का देते थे। भरत राम से कहते थे कि हे भाई, आप इसे सँभालिए! पर राम का कहना था कि मैंने पिता को वचन दिया था, वन में रहने का। वह टल नहीं सकता। तो यह राज्य तो अब तुम्हीं सँभालो भाई!...”
कहते-कहते नानी एक पल को रुकीं। फिर बोलीं, “कोई नहीं लेना चाहता था!...दोनों भाइयों में से कोई नहीं लेना चाहता था उस राज्य को। इसलिए कि राज्य बड़ी चीज नहीं थी। बड़ा वह समय था। बड़ी वह मर्यादा थी, जिसके आगे राज्य बहुत छोटी चीज थी। ...और एक आज का समय है कि छोटे से फायदे के लिए हम अपने सगे भाई तक को पैरों से ठोकर मार देते हैं। वह भूखा है, उसके बच्चे भूख से तड़प रहे हैं, बिलबिला रहे हैं और हम छत्तीस पकवान खा रहे हैं। पर हमें कोई दर्द ही नहीं व्यापता। हमारी छाती नहीं फटती...हमारे अंदर से कोई करुण पुकार नहीं निकलती। आह, क्या समय आ गया है!”
नन्ही दीपा ने देखा, सभी की आँखें गीली हैं। उसने सीधे मुड़कर देखा, तो पता चला, सिंघू भी रो रहा है, धार-धार।
उधर नानी का गला भी भर आया था और उनकी कथा जारी थी, “लेकिन...यह राज्य, यह जमीन तो किसी के साथ नहीं गई, न जाएगी। बड़ी चीज तो आदमी के गुण हैं। इसलिए हम बखानते हैं कि राम कितने बड़े थे, भरत कितने बड़े थे और आज भी याद करते हैं।...इसलिए जरूरी है कि हम कथा को सिर्फ कथा की तरह न सुनें, अपने जीवन में भी उतारें। आज भी राम हैं, भरत हैं, पर अपने स्वभाव को भूल गए हैं। मेरी कथा का तो मकसद है, उन्हें उनके असली स्वभाव की याद दिलाना। ताकि वे सच्चे राम बनें, सच्चे भरत बनें...!”
यहाँ आकर नानी रुकीं। फिर दोनों हाथ जोड़कर सब भक्तों को नमस्कार करके बोलीं, “अच्छा भक्तजनो, अब आगे की कथा कल...!”
नानी अपने आसन से उठने ही वाली थीं कि इतने में ही सिंघू उठा और रोते-रोते नानी के पैरों पर गिर पड़ा। बोला, “मुझे माफ कर दे ताई। मुझसे बड़ा पाप हुआ।...आज मेरी आँखें खुल गई हैं!”
सारी की सारी सभा भौचक—‘अरे-अरे, यह क्या? सिंघू की आँखों में आँसू?’ और अगले ही पल वह किसी बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ा।
दीपा सारे गाँव वालों के साथ हक्की-बक्की सी यह दृश्य देख रही थी। पर नानी शांत थीं। एकदम शांत, गंभीर। उन्होंने प्यार से सिंघू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “उठ सिंघू, उठ! जब जागे, तभी सवेरा।”
इसके बाद महीने भर के अंदर ही सिंघू ने न सिर्फ अपनी आधी जमीन छोटे भाई दुखहरण के नाम कर दी, बल्कि उसके पूरे परिवार को तीन आँगनों वाले अपने बड़े घर में आया। बोला, “आज से तुम यहीं रहोगे, यह घर पहले तुम्हारा है, बाद में मेरा। अब कभी निकलना पड़ा तो मैं निकलूँगा, तुम नहीं।”
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और साकरा गाँव में उस साल एक नई बात हुई। संतो नानी ने अपनी महिलाओं की टोली बनाकर बड़ी अद्भुत रामलीला की। नानी कथा कहती थी और उनकी महिला टोली की स्त्रियाँ उसी के आधार पर खुद-ब-खुद संवाद बना-बनाकर अभिनय शुरू कर देतीं।
दीपा देख-देखकर हैरान थी।
औरतें ही राम, लक्ष्मण बनी थीं, औरतें ही दशरश और मुनि वसिष्ठ भी। उन्हीं में से कोई पहले कौसल्या बनती और फिर लंबी काली दाढ़ी लगाकर विश्ववामित्र के संवाद बोलने लगती। यहाँ तक कि रावण का पार्ट भी साकरा गाँव की गरजदार आवाज वाली दबंग औरत धूपा ने किया था।...और हनुमान बनी हर काम में आगे रहने वाली और सीधा तनकर चलने वाली कदारी। हनुमान जी का उछल-कूद का रोल उससे बढ़कर और कौन कर सकता था! और उसने रामलीला ने सचमुच जान डाल दी।
सारा गाँव मुग्ध होकर देख रहा था। ऐसी रामलीला सचमुच न किसी ने देखी थी न सुनी थी। बीच-बीच में भगवान रामचंद्र जी की जय-जयकार होती तो सारा आसमान गूँजने लगता।
तब से कितने बरस गुजर गए। दीपा अब बड़ी हो गई। खूब पढ़-लिख गई है। उसका अपना परिवार भी है। पर वह न अपना बचपन भूल पाई है और न बचपन का नानी का गाँव। नानी अब बहुत बूढ़ी हो गई हैं, पर आज भी उनकी कुटिया की सफाई करने और कथा सुनने वालों में सबसे आगे नजर आता है सिंघू। गाँव साकरा के लोग कहते हैं, “यह तो बिल्कुल भक्त हनुमान हो गया है!”
और आश्चर्य, आज भी जब रामकथा की बात चलती है, लोग कहते हैं, “यकीन मानो या मत मानो, राम आज भी हैं, भरत भी।” और तब एकाएक उनके होंठों पर साकरा गाँव के सिंघू का नाम नाचने लगता है!
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8
विजयन का बगीचा
डा. सुनीता
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यों तो हर शख्स अपने में कुछ खास होता है, मगर विजयन का किस्सा तो कुछ अजीब ही था।
उसके परिवार में पीढ़ियों से ज्यातिष गणना का काम होता था। पिता भी जाने-माने ज्योतिषशास्त्री थे। उन्होंने विजयन को भी यह प्राचीन विद्या सिखाने की कोशिश की। विजयन सीख भी गया। पर उसे दिन भर कागज पर लकीरें खींचने वाला ज्योतिष गणना का काम बड़ा उबाऊ लगता था। इसकी बजाय फलों के पौधों का बगीचा लगाने में उसकी कहीं ज्यादा रुचि थी। पेड़-पौधे और हरियाली से उसे प्यार था।
घर के अहाते में काफी जमीन थी। उस पर कुछ फूल-फल लगे रहते थे। पर विजयन को उससे संतोष न था। वह वहाँ नए-नए पौधे लगाता। उनमें खाद और पानी डालता। देखते ही देखते खूब हरियाली हो गई। कुछ समय बाद उसने अहाते में पीछे की ओर बेकार पड़ी जमीन को अपने हाथों से साफ करके वहाँ केले का बड़ा ही सुंदर बगीचा लगाया।
उसे अपने हाथों से लगाए गए इस इस ‘कदली कुंज’ पर बड़ा गर्व था। उसे देखते ही उसके होंठों पर खूब चौड़ी-सी मुसकान आ जाती और खुशी के मारे दिल में गुदगुदी-सी होने लगती।
पहले तो विजयन के पिता उसके इस अटपटे शौक के कारण झुँझलाए। नाराज भी हुए। पर फिर उन्होंने देखा कि विजयन को तो इसी में आनंद आता है और वह रात-दिन बस इसी खयाल में डूबा रहता है कि कैसे अपने कदली-वन को और सुंदर और हरा-भरा बनाए, तो उन्होंने चुप रहना ही ठीक समझा।
आसपास के इलाके में विजयन के कदली-कुंज की धूम मची थी। हर कोई जानता था कि इस पूरे इलाके में सबसे स्वादिष्ट और उत्तम कोटि के केले विजयन के कदली कुंज में मिल सकते हैं। विजयन के केले सचमुच खूब बड़े-बड़े और स्वाद में अनोखे ही थे।
उनसे विजयन का लगाव इतना अधिक था कि उसे अपने कदली कुंज में सुबह-सुबह सैर करना और हर रोज पुष्ट होते केलों को निहारना बड़ा अच्छा लगता था। उसे इसमें निराला आनंद मिलता था।
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पर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि विजयन परेशान हो गया। उसने देखा कि एक केले की गाछ के सारे केले अधखाए हैं और काफी सारे पेड़ के नीचे पड़े हैं। बहुत-से केले बिलकुल खाने लायक हालत में नहीं हैं। देखकर विजयन के पैर वहीं जम गए। उसे बड़ा क्रोध आया। मन ही मन वह सोचने लगा कि भला यह किसकी करतूत हो सकती है?
“जिसने भी मेरी बगिया का यह हाल किया है, उसे मैं छोड़ूँगा नहीं।” गुस्से में भुन-भुन करते हुए उसने अपने आप से कहा।
विजयन ने इधर-उधर बगीचे के आसपास देखा, पर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। पर थोड़ा आगे चलते ही उसे केले के अगले पेड़ पर एक चंचल गिलहरी दिखाई पड़ी, जो कि मजे में कुट-कुट करती हुई यहाँ-वहाँ दौड़ रही थी और केलों को कुतर रही थी।
“ओह, तो यह है सत्यानास की जड़! इसी ने मेरी महीनों की मेहनत पर पानी फेर दिया।” सोचते हुए उसकी आँखें गुस्से के मारे लाल हो गईं।
अब तो विजयन का गुस्सा इतना बढ़ गया कि उसे लगा कि वह उस गिलहरी को कुचल डाले। पर जैसे ही वह गिलहरी की ओर झपटा, वह तुरंत बड़ी तेजी से अगले पेड़ पर कूद गई। फिर अगला पेड़, फिर उससे अगला, ऐसा कर वह एक से दूसरे पेड़ पर कूदती-फाँदती जा रही थी।
विजयन उसके पीछे-पीछे एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर चढ़ता-उतरता रहा। उसे अपने पीछे पड़ा देख, गिलहरी भी पेड़ की बिलकुल ऊपरी टहनी पर चढ़ जाती और फिर दूसरे पेड़ पर कूद जाती। उसके लिए यह खेल था।
पर विजयन तो इतना हलका था नहीं। वह तो अच्छे डील-डौल का हट्टा-कट्टा जवान था। भारी भी बहुत था। लिहाजा गिलहरी का पीछा करते-करते वह एक पेड़ की टहनी पकड़ रहा था और ऊपर चढ़ने के लिए। पर तभी एकाएक वह टहनी एकदम आधी झुक गई और विजयन बीच में ही लटका रह गया, त्रिशंकु की तरह।
अब तो उसकी ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। उसने तुरंत अपनी पत्नी को आवाज लगाई। पत्नी भी दौड़ी-दौड़ी आई और विजयन को इस हालत में देख, एकदम हक्की-बक्की रह गई।
विजयन के लिए अब अपने आप को सँभालना मुश्किल था। उसने गुस्से में डपटते हुए कहा, “ऐसे आँखें फाड़े क्या देख रही है? जल्दी से भूसा लेकर आ और यहाँ मेरे ठीक नीचे डाल दे। जरा जल्दी कर, जल्दी!”
वह सोच रहा था कि नीचे भूसा होगा, तो पेड़ से कूदने पर मुझे ज्यादा चोट नहीं आएगी।
पर विजयन तो अधीर और बेसबरा था ही, उसकी पत्नी भी कुछ कम बुद्धू न थी। उसने पूछा, “कितना भूसा लाऊँ?”
विजयन ने जैसे ही यह बताने के लिए हाथ फैलाए, “इतना...!” वैसे ही वह धड़ाम से नीचे जमीन पर आ गिरा। उसके माथे और हाथ-पैरों पर काफी चोट आई थी।
कई रोज तक बेचारा विजयन हाथ-पैरों पर पट्टियाँ बाँधे, खाट पर लेटा कराहता रहा। हालाँकि मजे की बात यह कि इस हालत में भी गिलहरी दिन में कई बार उसका हाल-चाल पता करने आ जाती। दूर से झाँकते हुए वह मुसकराकर विजयन से कहा करती थी, “तुमने बढ़िया कदली वन लगाया, यह तो ठीक, पर भैया, पेड़ों पर उछल-कूद करने में मुझसे होड़ करने की क्या जरूरत थी?”
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9
बूढ़े दादाजी की समझदारी
डा. सुनीता
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पुराने समय की बात है, किसी गाँव में रहते थे बूढ़े दादाजी। नाम था उनका घनश्याम दास। वे इतने बुद्धिमान और समझदार थे कि पूरा गाँव उनकी इज्जत करता था। गाँव में हर कोई उन्हें आदर से ‘बड़के दादाजी’ कहकर पुकारता था। बूढ़े दादाजी की खेती-बाड़ी में बहुत रुचि थी। उनका बेटा बरसों पहले किसी बीमारी की चपेट में आकर गुजर गया था। अब घर में उनके अलावा बस दो ही लोग और थे—एक उनके बेटे की बहू मिन्ती और एक जवान पोता मुकुआ।
उस गाँव के लोग अपना ज्यादातर समय जंगलों में घूमने, जंगली फल और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी करने तथा जंगल में छोटे-छोटे पानी के गड्ढों से मछलियाँ पकड़ने में व्यतीत करते थे। उनकी अपने खेत में खूब मेहनत करके अच्छा अन्न प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं थी। खेती करने का काम उन्होंने घर की लड़कियों और महिलाओं पर छोड़ रखा था। पर वे उस काम को अकेले बहुत ही मुश्किल से कर पाती थीं।
कारण यह था कि समय-समय पर खेत की गुड़ाई करना, खर-पतवार निकालना, दूर-पास के गड्ढों से पानी भरकर लाना और खेतों को सींचना—ये काफी मुश्किल काम थे। स्त्रियाँ घरेलू कामों की थकान के बाद खेती के काम में जुटतीं, तो इन्हें पूरी तरह नहीं कर पाती थीं। इसलिए फसल कम होती थी और वह साल भर नहीं चलती थी। खाने-पीने की तंगी हर घर में बनी रहती थी, सिवाय बूढ़े दादाजी के घर के।
बूढ़े दादाजी की हड्डियों में जान थी और सबसे बड़ी बात तो यह कि वे आलसी नहीं थे। इस उम्र में भी वे हाड़तोड़ मेहनत करते।
जब भी उनका पोता मुकुआ अपने दोस्तों के साथ जंगल में जाने, वहाँ से जंगली फल और मछलियाँ लाने की बात करता, तो दादाजी उसे बड़े प्यार से पुचकारकर कहते, “बेटा, जंगल में भटकने से कुछ नहीं मिलेगा। तू वहाँ दो-चार मछलियाँ पकड़ लेगा या फिर दो-चार जंगली फल। इसके अलावा तुझे कुछ नहीं मिलेगा। चल ना, मेरे साथ चल। दोनों मिलकर खेत से खर-पतवार निकालेंगे तो चावल के पौधों को बढ़ने के लिए खूब जगह मिलेगी और फिर भरपूर फसल होगी।”
बूढ़े दादाजी अपने पोते के कंधे पर हाथ रखकर ये सारी बातें इतने प्यार से कहते कि मुकुआ मना नहीं कर पाता था। हारकर उसे दादाजी के साथ खेत पर काम करने के लिए जाना ही पड़ता था। उनके खेत में चावल की भरपूर फसल खड़ी थी और चावल के दानों में खूब दूध भरता जा रहा था। यानी फसल पकने पर दाने खूब स्वस्थ होने वाले थे।
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एक बार बातों-बातों में बूढ़े दादाजी ने पोते को समझाया, “देखो मुकुआ, अगर हमारे पास चावल की भरपूर फसल होगी तो मछलियाँ और जंगली फल हमें अपने आप मिल जाएँगे, घर बैठे बैठे। उसके लिए हमें जंगल में नहीं भटकना पड़ेगा।”
मुकुआ को यह बात समझ में नहीं आई थी, पर वह चुप खड़ा था।
इसके कुछ समय बाद की बात है। एक बार मुकुआ का दोस्त बीजू घर पर उसे अपने साथ जंगल में ले चलने के लिए बुलाने आया। दादाजी द्वार के पास ही बैठे थे। उन्होंने मुकुआ के दोस्त से कहा, “बेटा बीजू, मुकुआ तो नहीं जा पाएगा। उसे मेरे साथ खेत पर काम करने जाना है, पर तुम मेरा एक छोटा-सा काम कर देना। वह यह कि जंगल से एक छोटी-सी मछली जिंदा पकड़कर ले आना।”
बीजू ने कहा, “दादाजी, यह तो मेरे लिए मामूली-सा काम है। मैं शाम को जंगल में आते हुए आपके लिए जिंदा मछली जरूर ला दूँगा।”
यह कहकर वह दरवाजे से जंगल की ओर चला गया। शाम को जब वह आया तो दादाजी के पास आकर बोला, “दादाजी, यह लीजिए अपनी जिंदा मछली।” यह कहते हुए उसने दादाजी को मछली दिखाई।
दादाजी ने एक हौदी में पहले से पानी भरकर रखा था। उन्होंने उस मछली को उस पानी से भरी हौदी में डालने के लिए कहा। अब दादाजी ने बीजू से कहा कि वह हौद में से मछली पकड़कर दिखाए।
बीजू ने पहले एक हाथ से वह मछली पकड़नी चाही। जब वह नहीं पकड़ी गई तो दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश की। मछली मोटी थी और बहुत तेजी से इधर-उधर हो रही थी। बीजू हक्का-बक्का था। यहीं पर मुकुआ भी कुछ हैरान-सा खड़ा था।
दादाजी मुसकराते हुए यह सारा खेल देख रहे थे। आखिर उन्होंने मुकुआ और बीजू दोनों को समझाते हुए कहा, “देखो, तुम घर के अंदर एक जगह स्थिर रखी हौदी में एक छोटी मछली ही नहीं पकड़ पाए, तो जंगल के पास बहने वाली नदी से यानी बहते पानी से मछलियाँ कैसे पकड़ सकते हो? या ज्यादा से दो-चार ही तो पकड़ पाओगे। बोलो?”
इस पर दोनों दोस्त चुप रहे। उन्हें अहसास हो गया था कि दिन भर भटकने के बाद भी दो-चार मछलियाँ ही पकड़ पाना तो बिल्कुल फिजूल का काम है।
फिर दादाजी अपने पोते मुकुआ को खेत पर ले गए। उसे बड़े प्यार से फसल की खूब अच्छी तरह देखभाल करना सिखाया।
फसल पकने पर उनके घर धान का ढेर लग गया। फसल इतनी ज्यादा थी कि साल भर का खर्च निकालकर भी उनके पास काफी चावल बचे रहते। दूसरे गाँव वालों ने अपने खेतों पर इतना ध्यान नहीं दिया था। अत: उनके खेतों में जो फसल हुई, वह सिर्फ उनके परिवार के गुजारे के लिए ही छह-सात महीने की थी। छह महीने बाद ही गाँव के लोग बूढ़े दादाजी के घर चावल लेने के लिए आने लगे। वे रतालू के थैले भरकर लाते, साथ ही मछलियाँ और शहद भी। बदले में वे बूढ़े दादाजी से चावल ले जाते थे।
अब तो दादाजी ही नहीं, उनके पोते मुकुआ और उसकी माँ मिन्ती के दिन भी सुख से बीत रहे थे। उनका घर धन-धान्य से भरपूर था। उनकी देखा-देखी गाँव के अन्य लोगों ने भी खेती पर ध्यान देना और कड़ी मेहनत करना शुरू किया। कुछ ही बरसों में पूरा गाँव ही सुख-समृद्धि से भर गया।
अब लोग जब भी इकट्ठे होते तो बूढ़े दादाजी की ही चर्चा करते जिनके कारण पूरा गाँव खुशहाल हो गया था। भले ही अब दादाजी नहीं हैं, पर वे हर गाँव वाले के मन में बसे हुए हैं।
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10
सुंदर है सुबना
डा. सुनीता
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टुंगीपुर गाँव में एक किसान रामदास अपने बेटे मुरली के साथ रहता था। रामदास की पत्नी को गुजरे कई बरस हो चुके थे। पिता-पुत्र खुद ही घर के सारे काम करते थे। रामदास संतोषी स्वभाव का था। यही बात उसने बेटे को भी सिखाई थी। वह भी मेहनती और सीधे-सरल स्वभाव का था।
बेटा मुरली अब युवा हो गया था। पिता को उसके विवाह की चिंता हुई, पर वह चाहता था कि जो भी लड़की इस घर में बहू बनकर आए, वह सीधे-सरल स्वभाव की हो। घमंडी और दिखावा करने वाली न हो। इस घर को वह अपना घर समझे और इसे सँवारने के लिए खूब लगन से काम करे।
पिता ने बेटे मुरली को अपने मन की बात बताई, तो उसके मुँह से निकला, “हाँ पिताजी, यही तो मैं भी सोच रहा था।”
पिता की बात मुरली ने अच्छी तरह गाँठ बाँध ली थी और सोचता था कि घर में ऐसी बहू आए, जिससे पूरे घर में खुशियाँ भर जाएँ। पिता का जी भी खुश हो।
जगह-जगह से मुरली के लिए रिश्ते आ रहे थे, पर वह विवाह से पहले लड़की को अच्छी तरह देख-परख लेना चाहता था कि वह जीवन भर उसका साथ अच्छी तरह निभा सकेगी या नहीं?
पिछले महीने एक अमीर घर की लड़की लक्ष्मी और एक गरीब किसान की लड़की सुबना के परिवार के लोग उसके घर विवाह की बात करने आए थे। पिता के कहने पर मुरली भी उनके घर हो आया था। मुरली को लगा कि दोनों ही लड़कियाँ देखने में तो सुंदर हैं, पर उनके स्वभाव को भी भी परख लेना जरूरी है। तभी वह निर्णय कर पाएगा कि वह अमीर घर की लड़की लक्ष्मी से विवाह करेगा या कि गरीब किसान की बेटी सुबना को बहू बनाकर लाएगा?
मुरली यही सब सोच रहा था। पर किसी के स्वभाव को इतनी जल्दी कैसे परखा जा सकता है, उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
कुछ समय बाद की बात है, गाँव में मेला था। इस मेले में गीत-नृत्य के साथ तरह-तरह के खेलों की भी प्रतियोगिताएँ थीं। इनमें टुंगीपुर और आसपास के गाँवों के युवक-युवतियाँ बड़े जोश और उत्साह से हिस्सा ले रहे थे। साथ ही बढ़िया दावत का भी इंतजाम था। मुरली के सभी मित्र और जान-पहचान के लोग वहाँ आए थे। इन्हीं में अमीर घर की लड़की लक्ष्मी और गरीब किसान की लड़की सुबना भी थी, जिनसे उसके विवाह की बात चल रही थी।
मुरली ने सोचा, “यह अच्छा अवसर है। इस समय दोनों को स्वभाव को निकट से देख लूँगा। तब पता चल जाएगा कि इस घर में किसे बहू के रूप में लाना ठीक रहेगा?”
मेले में नृत्य-प्रतियोगिता के लिए सभी युवक-युवतियों ने खासी तैयारी की थी। मैदान में एक-एक कर टोलियाँ आतीं और अपने-अपने मनोहारी नृत्य की छाप छोड़कर चली जातीं। फिर वह टोली भी आई जिसमें और युवतियों के साथ लक्ष्मी भी थी, सुबना भी। दोनों ही नृत्य में प्रवीण थीं और नृत्य की सुंदर भंगिमाएँ प्रस्तुत कर रही थीं। मुरली का ध्यान बार-बार लक्ष्मी और सुबना की ओर चला जाता।
उसने देखा कि सुबना तो अपने नृत्य में इतनी लीन है कि उसे आसपास का कुछ होश ही नहीं है। उसके अंग-अंग से मानो संगीत फूट रहा था। वह आनंदविभोर हो रही थी। कौन उसे देख रहा है, कौन नहीं, इस पर उसका ध्यान नहीं था। पर लक्ष्मी का ध्यान नृत्य पर अधिक नहीं था। उसका ध्यान इसी बात पर ज्यादा था कि कौन-कौन उसके नृत्य और सुंदरता से प्रभावित हो रहा है। इस कारण बार-बार उसके पैरों की गति और ताल गड़बड़ा जाती थी।
मुरली का मन बार-बार कहता, “सुबना गरीब घर की है, तो क्या है! इसका मन तो सुंदर है, तभी तो उसका नृत्य इतना मनमोहक है। लक्ष्मी देखने में ज्यादा सुंदर है, पर भला सुबना से उसका क्या मुकाबला?”
इसके बाद सबके खाने-पीने का इंतजाम था। पहले सबको सुगंधित शर्बत पीने के लिए दिया गया। मुरली ने देखा कि अमीर घर की लड़की लक्ष्मी ने बड़ी ही नजाकत से दो-चार घूँट शरबत के पिए। फिर पूरा गिलास ऐसे ही छोड़ दिया। इसी तरह खाने के लिए सामान परोसा गया, तो सिर्फ दो-तीन चम्मच ही चावल और सूप लिया। मुरली को बहुत अजीब लगा। वह सोचने लगा, “क्या सचमुच इतना-सा खाने से ही इसका पेट भर गया?”
फिर उसने गरीब घर की लड़की सुबना की ओर देखा। पूरा गिलास भरकर शरबत पीने के बाद अब वह खूब खुशी और चाव से खाना खा रही थी। उसे पेट भरकर खाने में कोई संकोच नहीं था। उसके चेहरे से सच्ची खुशी और उत्फुल्लता फूट रही थी।
मुरली के मन में बार-बार एक ही बात चक्कर काट रही थी। वह सोच रहा था कि क्या अमीर लड़की लक्ष्मी बस इतना-सा ही खाती होगी, या फिर दिखावा कर रही है? उसका मन संदेह से भरा हुआ था। दूसरी ओर सुबना के स्वभाव में उसे कहीं कोई दिखावा नजर नहीं आया। मुरली को लगा, जो कुछ इसके मन में है, वही बाहर भी है। इसे झूठ-मूठ दिखावा करने और कोशिश करके अपने को अलग दिखाने की बिलकुल चिंता नहीं है।
पर मुरली को अब भी संतोष नहीं था। वह चाहता था कि उन दोनों का असली स्वभाव क्या है, यह वह जल्दी से जल्दी जान ले। पर इसका तरीका क्या हो सकता था? आखिर उसे एक ऐसी बात सूझी कि उसके होंठों पर मुसकान आ गई।
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उसी दिन मेला खत्म होने पर मुरली छिपकर अमीर जमींदार की लड़की लक्ष्मी के घर पहुँचा। उसने लक्ष्मी के घर जाकर छिपकर देखा कि वह लड़की जो मेले में इतनी नजाकत से बहुत थोड़ा-सा खा रही थी, घर आकर भुक्खड़ों की तरह खाने-पीने की चीजों पर टूट पड़ी है। दो नौकरानियाँ उसके लिए दौड़-दौड़कर खाने-पीने की चीजें ला रही थीं, फिर भी वह उन पर लगातार बिगड़ रही थी।
लक्ष्मी बार-बार चिल्लाकर कहती, “अरे, इतनी देर क्यों लग रही है? कहाँ मर गई हो तुम दोनों की दोनों! जल्दी करो, जल्दी!” यहाँ तक कि उसकी माँ भी उसकी इस हड़बड़ी और गुस्से से परेशान थी और उसे खुश करने के लिए अपने हाथ से उसे खिला रही थी।
लक्ष्मी ने पहले मीठा खाया, फिर थाली भर चावल के साथ ढेर सारे नमकीन व्यंजन खाए। फिर मीठे पर टूट पड़ी। साथ ही एक के बाद एक पूरे छह गिलास शरबत। इसके बाद वह खूब पसरकर लेट गई और जोर-जोर से खर्राटे लेने लगी।
देखकर मुरली ने अपना सिर पकड़ लया। उसने सोचा, “ओह, इस लड़की ने मेले में अपना जो रूप दिखाया था, वह कितना झूठा और नकली था! यह तो एकदम भुक्खड़ और आलसी है। साथ ही बदमिजाज भी। ऐसी लड़की घर का काम कैसे करेगी? घर की जिम्मेदारी कैसे सँभालेगी?”
थोड़ी देर बाद मुरली गरीब किसान की बेटी सुबना के घर गया। वहाँ भी उसने छिपकर देखा। उसे यह देखकर बड़ा अच्छा लगा कि गरीब घर की लड़की मेले से घर लौटकर खुशी-खुशी माँ की मदद करने में जुट गई। वह तेजी से घर का काम निबटाने में लगी थी।
उसकी माँ बड़े प्यार से कह रही थी, “बेटी, तू थक गई होगी। अब थोड़ा-सा खा ले। थोड़ी देर तो आराम कर ले।”
पर सुबना बोली, “नहीं माँ, मैं पेट भरकर खा आई हूँ और मुझे जरा भी थकान नहीं है। तुम जाकर आराम करो, मैं रसोई समेट देती हूँ।”
इसके बाद सुबना ने बड़े करीने से सबके बिस्तर बिछाए। फिर अपनी माँ के पैर दबाने लगी। साथ ही मेले में जो कुछ देखा, वह सब माँ को बता रही थी।
माँ ने मुसकराते हुए कहा, “बड़ी अच्छी बात है बेटी, कि मेले में तू सबसे मिल ली। आपस में मिलने-जुलने से खुशियाँ बढ़ती हैं।”
कुछ देर बाद सुबना की माँ को नींद आने लगी तो उसने कहा, “बेटी, जा, तू भी तो थक गई होगी। सारा दिन तो काम में लगी रहती है। सच बेटी, तू अपने घर चली जाएगी, तो तेरी बहुत याद आएगी।”
“माँ, चिंता न करो। मैं तुमसे दूर तो जा नहीं सकती। मैं कहीं भी रहूँ, एक आवाज देना। बस, मैं दौड़ी-दौड़ी तेरे पास आ जाऊँगी। तेरे सारे काम झटपट कर दूँगी। तूने मेरे लिए कितना किया है! मैं क्या तेरे छोटे-मोटे काम भी नहीं कर सकती?” कहते-कहते सुबना का गला भर आया।
“आ बेटी, मेरी छाती से लग जा।” कहकर सुबना की माँ ने उसका माथा चूम लिया और उसके सिर पर आशीषों बरसाने लगी।
फिर बोली, “मेरा तो बहुत मन है बेटी, मुरली से तेरी शादी हो जाती। वह बड़ा अच्छा लड़का है। तुझे बहुत सुख से रखेगा।”
“पर माँ, तू ही तो बता रही थी कि उसकी शादी की बात तो लक्ष्मी से चल रही है। कितने अमीर घर की है वह। मुझसे ज्यादा सुंदर भी है। तो भला वह मुझसे क्यों शादी करेगा?” सुबना ने कहा।
“बेटी, तुझे नहीं पता, तेरा असली धन तो तेरे अच्छे गुण हैं। क्या उसे पता नहीं चलेगा कि तेरा दिल सोने का है! भला दिल की सुंदरता से बड़ी सुंदरता और कौन-सी होती है? तेरे जैसी अच्छी और भली लड़की उसे ढूँढ़े से नहीं मिलेगी?”
मुरली अँधेरे में छिपकर यह सब देख रहा था। सुबना और उसकी माँ की बातें उसके दिल में गहरे उतर गईं। उसका मन आनंद से भर गया। उसी समय उसने निर्णय कर लिया कि उसकी जीवन-साथी तो बस यही गरीब घर की लड़की सुबना ही बन सकती है। सिर्फ और सिर्फ यही लड़की।
घर जाकर मुरली ने अपने पिता को पूरी बात बताई तो उनका चेहरा खिल गया। मुरली को छाती से लगाकर उन्होंने कहा, “मेरे बेटे, मुझे खुशी है कि तू इतना समझदार हो गया है। तूने एकदम सही निर्णय लिया। अब देखना, हमारा घर हरदम खुशियों से छनछनाता रहेगा।”
कुछ ही दिनों में सुबना से मुरली का बड़ी धूम-धाम से विवाह हुआ। उनकी जोड़ी इतनी प्यारी थी कि जिसने भी उन दोनों को देखा, खूब बलैयाँ लीं और आशीर्वाद दिया। और सच ही सुबना के आने के बाद उस छोटे-से घर में हँसी-खुशी के अनेक रंग बिखर गए।
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डा. सुनीता, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
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