टिफिन एक्सचेंज
ये है मुंबई. मेरे सपनो का शहर. मेरी बचपन से एक ही तमन्ना थी की में मुंम्बई जाऊ और मुंम्बई में रहु यहाँ की संस्कृति, यहाँ का रहेन सहन, बड़ी बड़ी इमारते और यहाँ के समंदर की विशालता मेरे दिल को छू गई थी और तब ही मैने तय किआ था की एक दिन में मुंम्बई जरूर जाउंगी और आज मुझे यहाँ आये दो साल हो गए.
अमदावाद से MBA करने के बाद मैने यही जॉब ढूढ़ना शुरू किआ था और मुझे यहाँ एक कंपनी में जॉब मिल भी गई और में यही रहने लगी शुरू शुरू में एक आंटी के यहाँ पे अपनी फ्रेंड निशा के साथ पेइंग गेस्ट रहती थी (वो भी मेरे साथ अमदाबाद में मेरी ही कॉलेज में पढ़ती थी उसका प्लेसमेंट कॉलेज से ही हो गया था और उसने ही मुझे दो तीन कोम्पनिओ में एप्लाई करने के लिए कहा था जिस में से एक कंपनी में मुझे जॉब मिल गई और मै यहाँ आ गई) लेकिन खाने और रहने की परेशानी की वजह से हमने एक फ्लैट ढूंढ लिआ और हम ५ लडकिया एक फ्लैट में रहने लगी. में, मेरी अहमदाबाद वाली फ्रेंड निशा और दो मेरे साथ ही मेरी ऑफिस में काम करती थी और एक निशा की ऑफिस में. इस तरह से हम ५ कब खास फ्रेंड बन गई पता ही नहीं चला. धीरे धीरे करके हमने मानो जैसे घर ही बसा लिए था हम घर पर ही खाना बनाते थे और सभी साथ मिलके ही खाते थे दोपहर का टिफिन अपनी अपनी ऑफिस में और रात का खाना फ्लैट पे. कभी कभी कोई शाम को निकल पड़ते थे समंदर के किनारे घूमने तो कभी रोड साइड पे चाट और पानी पूरी खाने............
एक अलग ही दुनिया बन गई थी हमारी................
मै हररोज़ सुबह टिफिन लेके ही ऑफिस जाती और दोपहर को हम सभी ऑफिस के कर्मचारी साथ में खाना खाते. कभी कभी मन करता तो कभी कबार बहार से टिफिन मंगवा लेती हु खाना खाते समय ही हम सब बाते कर पाते बाकि समय तो सभी अपने अपने काम में व्यस्त रहते थे. हमारी ऑफिस में तरह तरह के लोग काम करते थे मराठी भी , पंजाबी भी, तमिल भी और मेरे जैसे गुजराती भी, सब के त्यौहार और संस्कृति की बाते होती तो कभी कोई नई फैशन के बारे में या तो नई फिल्म के बारे में , कुछ न कुछ तो मिल ही जाता बाते करने के लिए और हमारा खाना तो ख़त्म हो जाता लेकिन बाते नहीं.
हमारे यह कॉम्प्लेक्स में और हमारी ऑफिस में भी ज्यादातर लोग टिफिन लेके ही आते थे कई लोग दूसरे शहर से सिर्फ नौकरी करने के लिए ही आते थे तो वो लोग कभी कभी बहार खाना खाने जाते तो कभी बहार से टिफिन मंगवाते थे. बहोत बार मै सुनती की लोगो बहार का खाना खा खा के ऊब जाते थे उन लोगो को घर का बना हुआ खाना खाने को मन करता था लेकिन बेचारे का घर दूसरे शहर या गाव में होने की वजह से बहार का खाना ही खाना पड़ता था. मै आज सोच ही रही थी की आज खाना ना बनाया होता तो अच्छा था आज कुछ बाहर का खाना खाने को मन कर रहा है लेकिन अब क्या? मैने तो सुबह ही खाना बना लिआ था फिर सोचा पूरा टिफिन तो नहीं लेकिन कुछ चटपटा हो जाए यही सोचके मै वेफर्स लाने निचे गई और वेफर्स लेके लिफ्ट में वापिस आ रही थी . लिफ्ट में मेरे साथ एक लड़का भी था दिखने में शरीफ था और खूबसूरत भी . उसके हाथ में खाने का बहार से लाया हुआ पैकेट था खुशबु से ही पता चलता था की शायद उसमे पंजाबी खबना होगा जो की मुझे बहोत पसंद है उसने एक दम से अचानक ही मुझे पूछ लिआ - आप गुजरती है?
"हा" मैने कहा.
उसने अपना परिचय देते हुए (गुजराती में )कहा जी में आकाश मेहता . मै भी गुजराती हु और आई टी कंपनी में प्रोजेक्ट मेनेजर हु .
उसने फिर पूछा - आप घर से ही खाना बना कर लाती है?
"हा जी" मैने फिर कहा
क्या आज आप अपना टिफिन मुझे दे सकती है?
मै कुछ नहीं बोली सिर्फ उसको देखती रही
शायद वो सोच रहा होगा की मै उसके बारे मै क्या सोच रही हु? मुझे कोई गलतफैमी न हो इसलिए उसने जल्द ही उत्तर दिआ. जी मै गुजरात के अहमदाबाद शहर से हु. हररोज़ बहार का खाना खा के ऊब गया हु यहाँ का गुजराती खाना भी हमारे घर के खाने जैसा नहीं होता इसलिए में घर का गुजराती खाना खाना चाहता हु आप तो शायद हररोज़ घर का ही खाना खाती होगी तो क्या एक दिन आप अपना टिफिन मुझे दे सकती है? अगर आपको कोई एतराज़ न हो तो .वो एक ही साँस में ये सब बोल गया
जब की मै किसी और ही खयालो में खोई थी, मै सोच रही थी की आज खाना ना बनाया होता तो अच्छा होता बहार से कुछ खाने को मन कर रहा है और एक ये है जो घर का खाना खाने के लिए तड़प रहा है जिसको ये भी नहीं पता की मै कैसा खाना बनाती हु? आज मैंने क्या बनाया है? मैरे खाने का स्वाद कैसा होगा ? कुछ भी जाने बिना वो मेरे टिफिन के लिए बिनती कर रहा है और मै उत्तर देने के बजाए उसे देखती ही रही.
मै उसे मना नहीं कर पाई. मै ऑफिस मै टिफिन लेने गई और मैने अपना टिफिन उसे दे दिआ और आकाश ने अपना पंजाबी खाने का पैकेट मुझे दे दिया. उसके चहेरे पर कुछ अलग ही खुशी ज़लक रही थी और उसको खुश देखते मेरे चहेरे पे भी मुस्कान आ गई. उसने मेरी ऑफिस का एड्रेस पूछा और शाम को टिफिन वापिस देंगे ऐसा कहकर खुश होते होते चला गया .
शाम को ऑफिस से छूटने के बाद मुझे अपना टिफिन वापिस मिला और ढेर सारी तारीफे भी .
हा, आकाश को मेरा खाना बहोत पसंद आया था और वो तारीफ करते करते थकता नहीं था. मेरे खाने की इतनी तारीफ मैने पहले कभी नहीं सुनी थी उसकी तारीफे सुनके और उसको खुश देखके ख़ुशी के मारे मेरी आँखे भर आई .
समय जाते जाते ये एक सिलसिला बन गया कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को पूछता
"क्या आज मै आपका टिफिन ले सकता/सकती हु?"
और सामने वाला /वाली हसते हुए उसे अपना टिफिन दे देता .
मै सोचने लगी थी ऐसा अचानक ही क्यों होने लगा? तभी फिर से एकबार मेरी मुलाकात आकाश से हो गई और उसने बताया की
“हमारे टिफिन एक्सचेंज के बारे मै मैने अपनी ऑफिस मै बात की थी वो दर असल मेरे ऑफिस में सब को पता था की मै बहार से ही टिफिन मंगवाता हु लेकिन आपका टिफिन ले गया तो सभी पूछने लगे की इतना स्वादिष्ट खाना कहा से लाया और मैंने हमारी मुलाकात की बात बताई फिर तो मेरे साथी ऑफिस वाले दूसरे लोगो से टिफिन एक्सचेंज के बारे में पूछने लगे और धीरे धीरे ये बात पुरे कॉम्प्लेक्स मै फ़ैल गई . सभी एक दूसरे से टिफिन एक्सचेंज करने लगे और दूसरे का खाना खाने लगे और हमको बातो का नया मुद्दा मिल गया था फिर तो ये एक खेल बन गया था
“सिर्फ घर का खाना खाने की नहीं बल्कि दूसरे के घर का खाना खाने का .”
अब तो जो लोग घर से टिफिन लेके आते थे वो भी टिफिन एक्सचेंज करने लगे .लंच टाइम हुआ नहीं की सब डाइनिंग रूम में आ जाते सब के टिफिन डाइनिंग टेबल के बीच में रख देते और जैसे ५ मिनिट में टाइम बम फूटने वाला हो ऐसे टिफिन की और देखते कुछ आश्चर्य से तो कोई ख़ुशी से, की आज एक्सचेंज में क्या मिला होगा?
पर एक हकीकत यह थी की इस एक्सचेंज से सब लोग कुछ ना कुछ तो जरूर सीखे थे .
जीन लोगो के टिफिन में अच्छा खाना निकलता तो वे खुश हो जाते की
वाह.....
मज़ा आ गया
कितना स्वादिष्ट खाना है
अहा आआ………….
कितना खुश नसीब होगा वह जिसकी बीवी/बहन या मम्मी इतना अच्छा खाना बना कर उसे खिलाती है और जब किसीके टिफिन में अच्छा खाना ना हो तो वह सोचता की मै कितना खुश नसीब हु की जो हररोज़ अच्छा और स्वादिष्ट खाना खता हु लोग ऐसे फिक्का और बेस्वाद खाना हररोज़ भी खा लेते है तो मुझे कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए अगर कभी खाना अच्छा ना बना हो या फिर सलाड या पापड़ टिफिन में डालना भूल गया हो तो मुझे चुपचाप खा लेना चाहिए
मै जब भी इस टिफिन एक्सचेंज के बारे में सुनती तो मन ही मन खुश हो जाती की अच्छा किया की मैने आकाश को मना नहीं किया जिससे एक नई प्रथा का जन्म हुआ और अच्छा हुआ की आकाश ने भी मुझसे टिफिन मांगने की हिम्मत की और हमारे इस अनजान व्यव्हार से एक प्रथा का जन्म हुआ जो आज भी चल रही है.
जो भी नए लोग इस कॉम्प्लेक्स में जॉब करने के लिए आते वो हमारी इस टिफिन एक्सचेंज प्रथा को एक बार जरूर अपनाते और जो लोग ये कॉम्प्लेक्स छोड़के नई जगह जाते वहा पे कुछ लोग इस प्रथा को आगे चलने की कोशिश करते है और कुछ "सामने वाला क्या सोचेगा? " यह सोच में ही रह जाता है और टिफिन एक्सचेंज का ख्याल मन में ही रह जाता है और ये प्रथा को मन ही मन याद कर लेता है
मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था की दो अनजान लोगो ने किया हुआ एक व्यहार त्यौहार की तरह सब मनाएंगे ............
मै कॉम्लेक्स के अंदर आ ही रही थी की आकाश मेरी राह देख रहा था
लेकिन अब वो मुझसे टिफिन के लिए बिनती नहीं करता
“अरे आज इतनी देर क्यों हो गई?? टाइम देखा है?” आकाश थोड़ा गुस्से से तो थोड़ा चिंतित होके बोल रहा था
अरे बाबा सॉरी सॉरी थोड़ी देर हो गई - में अपना दुपट्टा ठीक करते हुए बोली
ठीक है ठीक है
मेरा टिफिन कहा है- अरे अब तो वो हक़ से मागता है
ये लो बाबा तुम्हारा टिफिन
आज क्या है?? आकाश ने खुश होते हुए पूछा
सरप्राइज है मैने मुस्कुराते कहा और में और आकाश जल्दी जल्दी लिफ्ट की और भागे .