रूह ने मांग की, शाम शिलांग की
संदीप मील
अगर खामोशी का संगीत सुनना हो तो शिलांग जैसे किसी पहाड़ी शहर को याद करना चाहिए, वहां की शाम उस संगीत से सुरमई होकर हम में रच-बस जाती है।
भारत का स्कॉटलैण्ड कहे जाने वाले मेघालय का नामकरण रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था और यहां के प्यारे शहर शिलांग शहर की कुछ अपनी परंपराएं हैं जो शायद बाहर के लोगों को अजीब लगें पर वहां के जीवन की लय में हवा की तरह समाई हुई हैं।
कस्बे के बीच में स्थित डॉन बोस्को म्युजियम की छत पर खड़े होकर पूरे शहर की दीवानगी को देखा जा सकता है। यह शिलांग की सबसे ऊंची छत है और सैलानियों के लिए उपलब्ध भी है। यहां से शहर ऐसे नजर आता है जैसे पर्वत की कोख में कोई खिलखिलाता बच्चा हो। शिलांग के अधिकतर मकानों का रंग गहरा है, टिन की चादर से बने मकानों का गहरा रंग कुदरत की हरियाली में अलग ही नजर आता है। लगभग मकानों की बनावट भी एक जैसी झोंपुड़ीनुमा। हिमालय की वादियों में बसे छोटे और खूबसूरत कस्बे की सड़कें इतनी संकरी हैं कि कभी भी जाम लग जाता है और जाम भी एकदम खामोशी भरा। न कहीं हॉर्न की आवाज आपको मिलती है तो नहीं ड्राइवरों की चिल्लाहट। ऐसा लगता है कि कयामत तक यह जाम लगा रहे। असल में जाम ने यहां के जीवन में अपनी जगह बना ली है और लोगों ने तय कर लिया है कि हॉर्न से जाम नहीं खुलने वाला है। यूं लगता है कि उन्हें कुदरत की लय में हॉर्न की रुकावट बिल्कुल भी पंसद नही है।
यहां चार बजे से ही शाम की रौनक शुरू हो जाती है। पहाड़ों के बीच छुपते सूरज से बेखबर लोग बड़ा बाजार और पुलिस बाजार में मोमोज खाते नजर आते हैं। आम जरूरतों के सामन खरीदने के साथ वे पान खरीदना नहीं भूलते। पान मुख्यत: यहां के आदिवासियों की मेहमाननवाजी का पहला दस्तूर होता है। वैसे तो आम लोगों में भी इसका रिवाज है पर आदिवासियों के घर जाते ही सबसे पहले पान खिलाया जाता है। एक पत्ते में लगा चूना और भीगी सुपारी बस यहां का पान इतना ही होता है। बाहर के लोगों के लिए इसे खाना बड़ी मुश्किल है। बाजार में भी अधिकांश दुकानों में यह पान मिल जाता है। तीन रुपए में पांच पान और दस सुपारी। युवक, बच्चे और बुजुर्ग इसे बड़े चाव से खाते हैं।
शाम के समय बाजार में घूमते युवाओं में भी किसी तरह की कोई हड़बडा़हट नहीं होती, वे हर काम को बड़े आराम से करते हैं। वे सड़क भी पार करते हैं तो फुरसत से। मोमाज के साथ चाऊमिन भी खूब खाया जाता है। इस शहर में चाय की दुकानें बहुत ही कम दिखाई देती हैं। चाय का उत्पादक होने के बावजूद भी इस इलाके में चाय पीने की परंपरा कम है। खास बात यह है कि यहां शाम के वक्त बाजार में अधिकतर युवा ही नजर आते हैं। अगर कहीं भी जल्दबाजी दिखाई देती है तो समझ लीजिए कि वह कोई सैलानी है। बाजार में पुरुषों से ज्यादा औरतें नजर आती हैं।
दोपहर के बाद ही शरू हो जाता है घरों में पानी भरना। पहाड़ की ढलानों पर बने घरों में पानी की सप्लाई पहुंच नहीं पाती है, इसलिए नीचे से पानी ले जाया जाता है। पानी भरने का काम बच्चे करते हैं। मस्ती में पानी भरते बच्चे जब मेघालय के लोक गीत गाते हैं तो उनकी आवाज वादियों में गूंज उठती है। हर घर का बच्चा पहाड़ पर पानी ले जाता नजर आता है। इस शहर में की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां कि टैक्सियों में आज भी हिन्दी फिल्मों के सत्तर के दशक के गाने सुने जाते हैं। लोगों को ये गाने जबानी याद भी हैं। वे आपको सडक पर गुनगुनाते हुए मिल जाएंगे। इसका कारण यह है कि आधुनिक किस्म में धूमधड़ाके वाले गाने यहां के बाशिंदों के जीवन की लय में नहीं मिल पाते हैं। अगर कोई आधुनिक गाना भी बजाता है तो बिल्कुल धीमी धुन का गाना बजाएगा। यह बात तो गूगल भी आपको बता देगा कि खासी और जयंतियां पहाडिय़ों के बीच ब्रह्मपुत्र और सुरमा घाटियों में इस शहर के अंग्रेजों ने बसाया था अपनी प्रशासनिक जरूरतों के लिए। आपको शायद पता ना हो कि यह शहर 21 जनवरी 1972 तक अविभाजित असम की राजधानी रहा है।
लगता है कि शिलांग के कारण ही गुरुदेव ने मेघालय नाम दिया होगा। वजह ये कि बारिश इस शहर की रगों में खून की तरह दौड़ती है। कभी भी मेघ उतर के आपके साथ चलने लगेंगे, कभी भी बरसने लगेंगे। इसी कारण से छतरी लोगों के पास हरदम देखी जा सकती है।
बहुत खूबसूरत और प्यारा शहर है, छतरी लेकर जाइए तो जरा कभी।