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टेम्स की सरगम
संतोष श्रीवास्तव
असरदार तारीख़ों से गुज़र जाना
बीसवीं सदी के अंग्रेजों की गुलामी के कुछ दशक भारतीय मंच पर तमाम ऐसी घटनाओं को फोकस करने में लगे रहे जिससे सम्पूर्ण जनमानस जागा और गुलामी के कलंक को माथे से मिटाने में जुट गया। आजादी का प्रयास इतना, महत्वपूर्ण हो उठा था कि तमाम धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक असमानताएँ भूल बस संघर्ष की आँच में कूद पड़ने का जनमानस बन चुका था। एकबारगी धर्म, साहित्य, कला (संगीत, नृत्य, चित्रकला) से जुड़े लोग भी कुछ ऐसी ही मानसिकता बना खुद को उसमें झौंकने को तत्पर थे। बीसवीं सदी की शुरूआत के वे चार दशक मैंने बड़ी बारीकी से पढ़े थे और उस वक्त की परिस्थितियों ने मेरे मन में अन्य किसी भी काल के इतिहास से अधिक जगह बना ली थी। मैं साहित्य में उतरी, फिल्मों को खँगाला, संगीत, चित्रकला और नाट्यकला के द्वार खटखटाए और इतनी असरदार तारीख़ों से गुज़री कि मुझे लगा अगर इन तारीखों पे मैंने नहीं लिखा तो मन की उथलपुथल कभी शांत नहीं हो सकती। मैंने आजादी के लिए सुलगते उन दशकों में एक प्रेम कहानी ढूँढी और खुद को उसमें ढालने लगी। यदि खुद को नहीं ढालती तो शायद न घटनाएँ सूझतीं, न शब्द.....। पूरे विश्व को अपने सम्मोहन में बाँधे भगवान कृष्ण को भी मुझे उन दशकों में जोड़ना था। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने वहाँ कृष्ण के विराट रूप को इस्कॉन के जरिए जीवंत होते देखा और बड़ी मेहनत से उस काल को इस काल तक जोड़ने की कोशिश की। सात वर्षों की मेरी अथक मेहनत, शोध.....एक-एक पेज को बार-बार लिखने की धुन और हेमंत के शेष हो जाने के शून्य में खुद को खपाना….बहुत मुश्किल था ऐसा होना पर मैं कर सकी। अक्सर उसका भोला चेहरा कभी दाएँ से झाँकता, कभी बाएँ से......‘‘माँ, कलम मत रोको, लिखो न.....ओर मैं जैसे जादू से बँधी बस लिखती चली जाती...तो मैं कह सकती हूँ कि हेमंत ने यह उपन्यास मेरी यादों में घुसपैठ कर मुझसे लिखवाया।
मेरी छोटी बहन कथाकार प्रमिला वर्मा ने हर अध्याय के बाद मेरे अन्दर आत्मविश्वास जगाया और मेरे रचनात्मक श्रम को सहलाया, आगे बढ़ाया।
मेरी अभिन्न मित्र कथाकार सुधा अरोड़ा ने मेरी इस रचना को नाम दिया ‘‘टेम्स की सरगम’’। वे कई दिनों तक इसके शीर्षक पर विचार करती रहीं.....। यह मेरी लिए ऐसी खुराक थी जिसने मेरे दिमाग को बड़ी राहत दी।
इस उपन्यास के रचना समय के दौरान तमाम आवश्यक अनावश्यक परिस्थितियों को खारिज करते हुए मैंने खुद को समेट कर रखा और इसके हर पात्र हर घटना को जीती रही। चाहती हूँ मेरी आवाज़ उन तक पहुँचे जो जिन्दगी और प्रकृति के जरूरी तत्व प्रेम को भूलकर मात्र अपने लिए जी रहे हैं। और मनुष्यता को ख़त्म कर रहे हैं।
संतोष श्रीवास्तव
टेम्स की सरगम
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उस समय जब रातें ठण्डी और लम्बी थीं, रोशनी की तमाम शहतीरें, परछाइयाँ, चोट खाए पंछी-सी डैने फड़फड़ाती धरती पर बिछ गई थीं, डायना ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के उच्च पदाधिकारी अपने पति टॉम ब्लेयर के साथ भारत के कलकत्ता शहर में कदम रखा और उसे लगा कि भारत की यह धरती, यह शहर, सड़कें, उद्यान, पेड़-पौधे, नदी, पर्वत उसके अपने हैं...जैसे वह सदियाँ गुज़ार चुकी है यहाँ। कहीं अजनबियत नहीं जबकि लंदन से जब वह पानी के जहाज पर सवार हुई थी तो एक उदासी ने घेर लिया था उसे। वह एक ऐसी जगह जा रही है जहाँ कोई उसका अपना नहीं। अपना शहर, अपनी आलीशन कोठी, नौकर चाकर छोड़ते हुए उसका मन असुरक्षा की भावना से भर उठा था। वह अकेली डेक पर खड़ी अंधेरे में समन्दर की काली लहरों की भयंकरता देख रही थी और टॉम अपने अंग्रेज़ साथियों के साथ जहाज़ में अंदर किसी केबिन में शराब पार्टी में मगन था। न जाने कितना रहना पड़े हिन्दुस्तान में। इधर उसके पिता का करोड़ों का व्यापार है जिसकी जिम्मेवारी उस पर है। व्यापार को आगे बढ़ाना अब मुमकिन नहीं क्योंकि न पिता रहे न माँ.......उनकी एकमात्र संतान सिर्फ वह। क्या करेगी व्यापार बढ़ाकर। जितनी चल, अचल संपत्ति है उसी को सहेजना मुश्किल है। जब टॉम की ईस्ट इंडिया कंपनी में नियुक्ति थी....लंदन से चलते समय डायना ने सोचा भी न था कि अपना देश छोड़ते हुए कैसा रीतापन घेर लेता है और यूँ लगता है कि मात्र शरीर जा रहा है..... जान तो यहीं छूटी जा रही है पर ज्योंही जहाज़ ने हिन्दुस्तान के समुद्री तट पर लंगर डाला वह देश की सीमाएँ भूल गई और उसे लगा जैसे एक मोहल्ले से चलकर दूसरे मोहल्ले ही तो आई है वह।
अंग्रेजों के शानदार बंगलों में से एक बंगला टॉम ब्लेयर को एलॉट किया गया था। बिल्कुल अछूता इलाका जहाँ सिर्फ अंग्रेज रहते थे। हिन्दुस्तानियों के लिए ब्लैक टाउन था....कालों का काला इलाका...इस बात का टॉम को बहुत घमंड था। वह उन्हें गुलाम कहता। काले गुलाम। उनके बंगले में भी एक काला गुलाम नौकर था बोनोमाली। वह संथाल की ओड़ाओ जाति का युवक था। जिस्म आबनूस-सा काला। आँखें पीली। उन आँखों में करूणा का सागर लहराता था। अपने खाली वक्त में वह अपने इकतारे पर बाउल गीत गाता था। बंगले में खाना पकाने के लिए पार्वती थी जिसे सब पारो कहा करते थे। मँझोले कद की साँवली बंगालिन। कलाइयों में सफेद शाँखा, कड़ा। मांग में सिंदूर और लम्बे काले बालों का ढीला-सा जूड़ा। वह खाना बहुत लज्जतदार बनाती थी। भारतीय, मुगलाई, राजस्थानी और अब तो विलायती खाना बनाना भी सीख गई थी वह। टॉम के शानदार बंगले के शानदार बगीचे को अधेड़ उम्र का माली सँभालता था। ड्राइवर मोटर या जीप की सीट पर बैठा हुकुम का इंतजार करता रहता था। अपने सेवकों की भीड़ से घिरा रहता था टॉम लेकिन डायना विनम्र थी। सीधी सरल...प्रेम से ओतप्रोत। न उसे अपने रूप सौंदर्य का अभिमान था न दौलत का। संगीत, पुस्तकें, देशाटन यही उसके शौक थे। वह बोनोमाली के बाउल गीतों की दीवानी हो गई थी। जब वह इकतारा बजाकर गीत गाता तो ऐसा लगता जैसे कई भ्रमर एक साथ गुनगुन कर रहे हों और उनका गुंजन शरीर में डूब-डूब जाने वाला रस पैदा कर मथ डालता था हृदय को। उसके गीतों को डायना चाहे जब सुनने लगती। बोनोमाली भी गीत सुनाने के मौके तलाशता रहता। उसे पता चल गया था कि उसकी मालकिन को संगीत का शौक है।
‘‘मैं आपको चंडीदास से मिलवाऊँगा मेमसाहब। उन्होंने शांतिनिकेतन से संगीत सीखा है। उनके गीतों में नदी की धार मोड़ देने की ताकत है।’’
‘‘अच्छाऽऽ।’’ चकित थी डायना संगीत के जादू से .....नदी की धार क्या, यहाँ तो संगीत के जादू से बुझते दीप जल जाते हैं, मेघ जल बरसा देते हैं और हिरन चौकड़ी भरना भूल ठगे से खड़े रह जाते हैं। रहस्यों से भरा है भारत....धर्म, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला....पत्थरों में जान डाल देने की अद्भुत शक्ति से समृद्ध है भारत। पिता के घर असीमित संपत्ति का भोग करते हुए भी विरक्त मन की मालकिन थी वह। दुनिया जहान की किताबें पढ़-पढ़ कर ज्ञान तो बढ़ा लेकिन उससे कहीं अधिक बेचैनी बढ़ गई। उसके मन में सदैव प्रश्न मंडराते रहते। आकाश, तारे, चाँद, सूर्य क्यों हैं? सुबह, शाम, रात क्यों होती हैं? मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं? क्या हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार यह सच है कि आत्मा पुनः शरीर धारणा करती हैं? जब अपने इन तर्कों का समाधान वह नहीं पाती तो फिटन पर सवार निकल पड़ती कलकत्ते की सड़कों पर।
फिटन चौरंगी से गुज़रती जहाँ बड़ी कलात्मक इमारतें थीं। अंग्रेजों के टाउन हाउस थे... शानदार ऊँची बुर्जियों, बड़े-बड़े खिड़की दरवाजोंदार....फाटक खोलते ही बाँस के पेड़ों का सघन झुरमुट....सफेद पींड़ वाले यूकेलिप्टस और घास के लॉन में झरी उनकी सूखी, भूरी, नुकीली पत्तियाँ एक अजीब-सा एहसास करातीं। फैलते अंधेरे में जब कोई मोटर या जीप वहाँ से गुजरती तो हैडलाइट्स में झुरमुट की छायाएँ बंगलों की दीवार पर सरकती हुई गायब हो जातीं।
फिटन नदी के किनारे की सड़क पर दौड़ती। वहाँ भी अमीर अंग्रेजों के गार्डन हाउस थे... जहाँ काले गुलाम मालीगिरी करते थे। अंग्रेजों की कोठियों के पीछे इन गुलामों के लिए सर्वेंट क्वार्टर थे। बगीचे में छोटे-छोटे पुकुर और पुकुर में खिले सफेद गुलाबी कमल के फूल। एक ओर अंग्रेजों के शासन की शानदार समृद्धि थी। और दूसरी ओर भारत की अद्भुत सौन्दर्यशाली प्रकृति और तमाम रहस्य….उन रहस्यों को परत दर परत खोलना चाहती थी डायना। भारत में घी दूध की नदियाँ बहती थीं। महलों, मंदिरों के दरवाजों पर हीरे, मोती, नीलम, पन्ना जड़े थे और इंग्लैंड इस कामधेनु का दोहन कर रहा था। वहाँ समृद्धि की नीवें मज़बूत हो रही थीं। अमीर और अमीर हो रहे थे। गरीब अमीरी की तरफ बढ़ चुके थे। भारत से पाए धन के ढेर पर खड़ा था इंग्लैंड जहाँ उसका झंडा लहरा रहा था। पर इन बातों से अगर डायना को तकलीफ भी होती है तो उससे क्या? इसीलिए डायना ने इन फिजूल की बातों को सोचना बंद कर दिया था। उसे तो भारत के अद्भुत किस्से बेचैन किए हुए थे। कैसी अद्भुत बात है कि सीता राजा जनक को खेत के अंदर जमीन से निकले एक घड़े में मिलीं...रावण के दस सिर थे, कुंभकर्ण छः महीने सोता था और छः महीने जागता था......दशरथ की तीन पत्नियों को यज्ञ की अग्नि से निकले खीर के कटोरे से खीर खाकर पुत्र हुए और कुंती ने बिना पति के समागम के मंत्र पढ़-पढ़कर तीन पुत्र पैदा किए और उसी तरह माद्री ने दो पुत्र पैदा किए.....असंभव.....डायना चकरा जाती। जहाँ एक ओर त्रेता युग उसे भूलभुलैयों के जंगल में भटका देता वहीं द्वापर युग के कृष्ण...ओह, लॉर्ड कृष्ण। सोलह कलाओं से पूर्ण लीला पुरूष कृष्ण.....अद्भुत व्यक्तित्व। कृष्ण को जानना है तो डायना को हिन्दी और संस्कृत सीखना होगा।
बंगले के सामने फिटन से उतरते हुए डायना की नजर बगीचे में खिले रातरानी के फूलों पर गई। दोपहर ढलते ही रातरानी की कलियाँ खिल जाती हैं और हवाएँ महक उठती हैं। मौसम की दीवानगी में भी वह तनहा-सा महसूस करती है। जब से शादी हुई है... टॉम ने उसे कभी न तो प्यार से देखा... न दो बोल प्रेम के कहे। वैसे भी वह महीने के पंद्रह दिन तो टूर पर ही रहता है और बाकी के दिन में क्लब, बाल रूम्ज, दोस्तों के संग शराब, सिनेमा में गुज़ारता है। घर में उसकी मौजूदगी भी कभी डायना की तनहाई दूर नहीं कर पाई। तनहा अकेलेपन की छाया के संग जीना सीख लिया है उसने क्योंकि यह छाया न तो मिटती है न उसका पीछा छोड़ती है।
साँझ फूली थी और उसके खुशनुमा रंगों से चमत्कृत डायना अद्भुत प्रकृति में लीन थी कि तभी गेट खुलने की आवाज़ के साथ ही आदतन डायना ने कलाई में बँधी घड़ी देखी और अपने पर ही हँस दी-‘‘अरे, टॉम तो आसाम गया है... मैं भी बस.....।’’
लेकिन तभी बोनोमाली चंडीदास को लेकर हाज़िर हुआ। डायना चंडीदास को देखती ही रह गई। साँवले रंग के, ऊँचे कद के तराशे हुए नाक-नक्श और बड़ी-बड़ी काली आँखों वाले आकर्षक युवक का नाम बोनोमाली ने चंडीदास बताया। उसकी आँखों में विद्वत्ता अलग से झलक रही थी। हाथ जोड़कर नमस्ते करके चंडीदास लॉन पर खड़ा हो गया।
‘‘इन्हें हॉल में ले चलो बोनोमाली।’’ कहती हुई डायना जैसे खुद ही उसे अंदर लिवा लाई।
‘‘बैठिए, सोफे पर बैठिए।’’ चंडीदास के बैठते ही बोनोमाली पानी ले आया। चंडीदास देख रहा था, एक आला अंग्रेज अफ़सर के आलीशान ड्रॉइंग रूम को....दीवारों पर टँगी पेंटिग्ज और फूलों की साज-सज्जा उनके कला के प्रति रुझान को स्पष्ट बता रही थी। कहीं बारहसिंगा, शेर, चीते का सिर नहीं था जो कि अक्सर समृद्ध घरों की दीवारों पर उनकी बहादुरी को प्रदर्शित करता है। जानवरों से प्रेम था ब्लेयर दंपति को। सोचा चंडीदास ने और स्वयं को बहुत अदना-सा समझने लगा। लेकिन... नहीं, कला की कद्र करना डायना के खून में बसा था। चंडीदास बचपन से संगीत की साधना में रत था। उसकी गायकी में निखार आया शांतिनिकेतन से। निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में वह अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। दो बहनें... दोनों उससे छोटी। माँ बाप की सारी आस चंडीदास पर लगी थी। पढ़-लिखकर वह स्कूल में पढ़ाता था और समय निकालकर संगीत साधना किया करता था। संथालियों की तरह इकतारे पर वह ऐसे-ऐसे बाउल गीत गाता था कि वक्त मानो ठहर-सा जाता था। चंडीदास ने डायना की तरफ गौर किया....पल भर को वह चकित हुआ कि अब तक उसकी पारखी नज़रों ने कैसे नहीं परखा कि सामने बैठी खूबसूरत औरत के चेहरे पर शालीनता, सौम्यता और सरलता साफ़ दिखाई देती है।
‘‘मिस्टर चंडीदास, आप मुझे संगीत सिखाएँगे?’’ डायना ने अपनी नीली चमकीली आँखें उसके चहरे पर टिका दीं। वह उनकी आँखों की गहराइयों में डूब गया।
‘‘मैं बांग्ला, हिन्दी और संस्कृत भाषा भी सीखना चाहती हूँ और बांग्ला संगीत भी।’’
चंडीदास आश्चर्य से इस विदेशी औरत के अपने देश की भाषाओं के प्रति लगाव को देख रहा था। जैसे उसकी जबान डायना के आगे मूक हो चुकी थी। ऐसे में जबकि अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचार अपने चरम पर थे क्योंकि इस देश के नागरिक अब आजादी चाहते थे। अंग्रेज उन्हें आपस में लड़वा रहे थें साम्प्रदायिकता का विष बीज बो रहे, ईसाई मिशनरियाँ स्थापित की जा रही थीं और शूद्र वर्ग को बरगला कर धर्म परिवर्तन कराए जा रहे थे... एक अंग्रेज औरत चंडीदास से इस देश के साहित्य, संगीत को अपनाने की, सीखने की बात करती है तो जबान मूक तो होगी ही।
‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ डायना ने अधीरतावश पूछा।
‘‘जी?’’ चंडीदास सकपका गया जैसे पकड़ा गया हो।
‘‘मैं लॉर्ड कृष्ण को जानना चाहती हूँ। औरों के मुँह से उनके बारे में मैंने जो कुछ सुना है उसने मेरे मन में खलबली पैदा कर दी है। चंडीदास....मेरा मानना है कि इस विश्व का पूरा ज्ञान हमारे अपने भीतर मौजूद है लेकिन उसे देखने वाली हमारी आँखें बंद है। इन बंद आँखों को खोलने के लिए गुरु की जरूरत होती है। गुरु अपने ज्ञान दीप की लौ का प्रकाश दिखा हमें ज्ञान मार्ग के दर्शन कराते हैं।’’
चंडीदास का मन हुआ वह इस विदुषी औरत का चरण स्पर्श कर ले, वह गद्गद् था- ‘‘मैं उस सम्पूर्ण ज्ञान का कण भर भी नहीं जानता मैडम...बस एक शब्द जानता हूँ प्रेम.........प्रेम पूरे ब्रह्मांड में समाया है बल्कि प्रेम की विशालता को समो लेने में ब्रह्मांड भी छोटा है। प्रेम में बड़ी शक्ति है मैडम।’’
डायना ने पहली बार चंडीदास के वचन सुने...कितनी मधुरता है इसकी वाणी में। वह अभिभूत थी-‘‘और संगीत में?’’ ‘‘संगीत तो आत्मा है... प्रेम की आत्मा।’’
डायना के हाथ जुड़ गए-‘‘मुझे उस आत्मा के दर्शन करा दीजिए चंडीदास जी।’’
विधिवत संगीत शिक्षा आरंभ हुई। डायना में स्वरों की पकड़ थी और चंडीदास के पास अथाह खजाना... अभ्यास अनवरत चालू था। सप्ताह में दो दिन मास्टर जसराज आते हिन्दी और संस्कृत सिखाने। डायना ने मास्टर जसराज के द्वारा निर्देशित की गई पुस्तकें खुद बाजार जाकर खरीद ली थीं। नई-नकोर किताबों पर हाथ फेरती डायना के आनन्द का ठिकाना न था। टॉम ब्लेयर जब टूर से लौटता तो इस आनन्द में थोड़ी रूकावट आ जाती क्योंकि चंडीदास और जसराज जल्दी क्लास खत्म कर देते। कभी-कभी शाम के झुटपुटे में ही जब बगीचे में झरी पत्तियाँ धीरे-धीरे तैरती हुई लॉन में बिखर जातीं....पोर्च की सीढ़ियों पर, बरामदे पर भी। कुछ पत्तियाँ मौलसिरी के पेड़ के नीचे रखी हुई बेंत की कुर्सियों के नीचे, आस-पास काँपती रहतीं। ये शिशिर ऋतु में झरी पत्तियाँ थीं जब जाड़ा पाला बनकर धरती की, बाग-बगीचों, खेतों की हरियाली को सहमा देता है और पत्तियाँ ठिठुर जाती हैं।
टॉम आसाम से लौट आया था। इस बार ज्यादा रहना पड़ा था उसे वहाँ। सुबह की हलकी धूप कोहरे की चादर चीरकर बगीचे के लॉन पर धब्बों में बिखर गई थी। बोनोमाली ने बेंत की कुर्सियों पर से ओस की बूँदें साफ कीं, गद्दियाँ लाकर रखीं और टेबल पर चाय की केतली टीकोजी से ढककर रख दी, साथ में बिस्किट और अखबार। धूप को सेंकते हुए डायना टॉम के साथ सुबह की चाय वहीं बैठकर पीती थी। प्याली में चाय ढाल बोनोमाली चला गया। टॉम ने प्याला उठाया-‘‘कैसी चल रही है तुम्हारी प्रैक्टिस?’’ डायना उत्साह से भर उठी-‘‘मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मेरे पास वक्त कम है और... जसराज सर बता रहे थे कि भारतीय संगीत के ढेरों प्रकार हैं। कजरी, दादरा, ठुमरी, बिरहा, आल्हा ऊदल। शादियों में गाए जाने वाले बन्ना-बन्नी, शिशु जन्म पर सोहर, मंदिरों में भजन कीर्तन, सबद...’’
टॉम लापरवाही से हँसा। चाय का घूँट भरा और सिर्फ एक शब्द ही सुन पाया हो जैसे-‘‘डायना, यह देश हमारा गुलाम है फिर तुम जसराज के लिए सर शब्द का इस्तेमाल क्यों कर रही हो?’’
डायना ने आहत हो टॉम की ओर देखा और एक ही घूँट में चाय खत्म कर कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
‘‘कहाँ जा रही हो?’’
डायना ने दोबारा टॉम को देखा पर इस बार हिकारत से। टॉम से कुछ भी कहना अब उसके बस में न था। वह जान गई थी कि जीवन के सफर को तय करने के लिए उसने हमसफर ही गलत चुना... चुना नहीं, चुन दिया गया। उसके पिता ने टॉम में न जाने कौन सी अच्छाई देखी थी। टॉम उसके हुनर, उसकी भावनाओं के तो बिल्कुल भी योग्य नहीं। टॉम की दुनिया छोटी-सी है जिसमें केवल धन के लिए अथाह मोह है और अपने मालिक होने का घमंड है। जबकि डायना की दुनिया विस्तृत है क्योंकि उसका मन जिज्ञासु है। जिज्ञासु मन की दुनिया बड़ी आकर्षक होती है लेकिन उतनी ही खतरों से भरी और उतनी ही तकलीफ देने वाली भी।
शाम का वक्त। हुगली नदी के मंथर जल पर तैरती पालदार नौकाएँ। शरमाया हुआ सूरज क्षितिज की मिलन रेखा पर अस्त होने को था। सारी धरती अनुराग से भर उठी थी....सिंदूरी छिटका अनुराग। डायना और चंडीदास नौका पर बैठे थे। गंगा की शांत लहरों पर नौका के चलते चप्पुओं की छपाक-छपाक ध्वनि के बीच मल्लाह द्वारा छेड़े भटियाली संगीत पर डायना मोहित थी। अब डायना और चंडीदास के बीच औपचारिकता नहीं रही थी। इतने दिनों से आमने सामने बैठकर संगीत सीखते सिखाते वे एक-दूसरे के करीब आ गए थे। कभी चंडीदास को आने में देर हो जाती तो डायना बगीचे में चहलकदमी करती हुई गेट की ओर टकटकी बाँधे निहारती रहती और चंडीदास भी जल्द से जल्द उसके पास पहुँच जाने के लिए उतावला हो उठता। दोनों में प्रेम के अंकुर ने पनपना शुरू कर दिया था।
‘‘तुम सुन रहे हो चंडीदास....एक विचित्र संगीत की ध्वनियों के बीच से मैं गुजर रही हूँ। मेरे अंदर प्रेम की शक्ति समा रही है जैसे राधा ने किया था कृष्ण से प्रेम .....अद्वितीय प्रेम’’ डायना की नीली आँखें प्रेम के गुलाबी डोरे, उसकी आँखों के सम्मोहन को दुगना बना रहे थे। धीरे-धीरे अंधेरा घिरने लगा था और हुगली के तट पर बत्तियाँ टिमटिमा उठी थीं। मल्लाह इंतजार में था कि मालिक का हुक्म हो तो लौटें। लेकिन डायना और चंडीदास को होश कहाँ था ?प्रेम के चुम्बक में वे खिंचे चले जा रहे थे।चँडीदास ने डायना की भीगी हथेलियाँ अपनी हथेलियों में भरकर उसके करीब मुँह लाकर कहा-‘‘मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूँ डायना।’’ डायना सिहर उठी। उसने घबराकर चंडीदास के होठों पर अपनी हथेली रख दी और फुसफुसाई-‘‘कुछ मत कहो.....केवल सुनो.....हवाओं के स्वर, लहरों से पतवार के टकराने के स्वर चंडी......प्रेम को जबान नहीं चाहिए। मैं तुम्हारी हूँ....हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी। पर कहकर इस पल को हलका मत करो।’’
चंडीदास ने डायना के कंधे पर सिर टिका दिया। इशारा पाते ही मल्लाह ने किनारे की ओर नौका खेनी शुरू कर दी। हुगली की लहरें काली हो चुकी थीं और उन पर सितारे टंक चुके थे। चंडीदास ने डायना को फिटन में बिठा दिया था जो रात की तफरीह के लिए निकले लोगों की चहल-पहल से भरी सड़क पर दौड़ पड़ी थी।
चंडीदास अकेला ही हुगली के किनारे चहल-कदमी करता रहा। देश एक क्रांतिकारी, जोशीले दौर से गुजर रहा था। अंग्रेज अब फूटी आँख नहीं सुहा रहे थे। ऐसे में एक अंग्रेज युवती को दिल दे बैठना....पर प्रेम व्यापार तो नहीं जो ठोक बजा कर किया जाए। चंडीदास क्या करे, उसका अपने दिल पर वश नहीं.......वह अपनी सम्पूर्ण ताकत से डायना की ओर उसे खींचे लिए जाता है। चंडीदास के मन में भी क्रांति की ज्वाला भड़कती है, देश के लिए कुछ कर गुजरने की चाह सिर उठाती है, पर अपने बूढ़े, असहाय माँ-बाप को वह कैसे बेसहारा छोड़ दे? उसे कुछ हो गया तो उन्हें कौन सँभालेगा? इन्हीं विचारों के मंथन से गुजर रहा था वह कि सामने से जसराज आते दिखाई दिए।
‘‘अरे, मास्टरजी आप यहाँ?’’ चंडीदास ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा। वे उम्र में चंडीदास से काफी बड़े थे और स्कूल में अध्यापन करते हुए अगले वर्ष रिटायर होने वाले थे।
‘‘चंडीदास मिसेज ब्लेयर तो बड़ी विदुषी महिला हैं। इतनी जल्दी हिन्दी और संस्कृत का ज्ञान हो गया है उन्हें कि मैं तो आश्चर्यचकित हूँ।’’
‘‘जी...संगीत भी उतनी ही तेजी से सीख रही हैं वे।’’ दोनों टहलते हुए एक चाय के होटल में आ बैठे। चंडीदास ने चाय मंगवाई साथ में समोसे।
‘‘एक बात पूछनी थी चंडीदास...मुझे डायना ब्लेयर के उनके पति के साथ सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं लगते।’’ जसराज ने चाय का घूँट भरते हुए कहा तो चंडीदास सतर्क हुआ...कहीं अगला प्रश्न जसराज उन दोनों के सम्बन्धों को लेकर न पूछ लें।
‘‘ऐसा लगता है जैसे रिश्ते का बोझ ढो रही हैं मिसेज ब्लेयर।’’ चंडीदास ने अनभिज्ञता प्रगट की-‘‘इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया।’’
जसराज ठहाका मारकर हँसे-‘‘संगीत सिखाते हो न इसलिए अपने आसपास की दुनिया दिखाई नहीं देती।’’
चंडीदास की हिम्मत नहीं हुई जसराज से आँखें मिलाने की। अभी-अभी तो उसने डायना के सामने प्रेम का इजहार किया है और अभी अभी पकड़ा गया।
वायदे के मुताबिक चंडीदास को मुनमुन की किताबें लेकर लौटना था पर वह खाली हाथ लौटा...ट्यूशन वालों ने आज भी रुपए नहीं दिए थे। दरवाजा मुनमुन ने ही खोला था लेकिन उसके हाथ में किताबें न देख वह बुझ गई थी। बिना कुछ कहे वह चंडीदास के लिए खाना गरम करने लगी। माँ के घुटनों पर गुनगुन तेल मल रही थी और बाबा खर्राटे ले रहे थे। वे जब से नौकरी से रिटायर हुए हैं जल्दी सो जाते हैं और सुबह जल्दी उठ जाते हैं। मुँह अँधेरे उठकर वे घूमने चले जाते हैं और लौटते हुए दूध और अखबार लेते आते हैं। तब तक माँ नहा-धोकर पूजा पाठ से फुरसत हो लेती हैं। फिर चाय पीते हुए चश्मा लगाकर अखबार पढ़ती हैं।
‘‘दादा...अगले महीने से मेरे इम्तहान शुरू हो जायेंगे। क्या आप मुझे स्कूल जाते हुए कॉलेज छोड़ते जाया करेंगे। वहीं बैठकर नोट्स बना लिया करूँगी।’’ मुनमुन ने चंडीदास की थाली परोसकर उसके सामने रख दी। चंडीदास समझ गया यह किताबें न मिल पाने की हताशा है।
‘‘परसों से। कल और देख लेते हैं कि उनके यहाँ से रुपए मिल पाते हैं या नहीं।’’
‘‘आप मिस्टर ब्लेयर के यहाँ से क्यों नहीं ले लेते एडवांस। नोट्स भी मैं इतने कम समय में कैसे बना पाऊँगी।’’ मुनमुन की चिंता वाजिब थी। वार्षिक इम्तिहान थे और दो किताबें उसके पास नहीं थी। पर डायना से एडवांस लेना क्या उचित होगा? नहीं...नहीं...डायना के सामने वह अपनी विपन्नता इस रूप में उजागर करना नहीं चाहता, यह तो बड़ी अपमानजनक स्थिति हो जाएगी।
उस रात चंडीदास को दो कारणों से नींद नहीं आई। एक तो मुनमुन की पढ़ाई और दूसरा डायना से प्रेम निवेदन। मोहल्ले के काली माँ के मंदिर में घंटे टुनटुनाए। अब मंदिर के कपाट बंद कर दिए जायेंगे। क्योंकि यह वक्त उनके विश्राम का है तभी सड़क पर घोड़ों की टाप सुनाई दी। फिर कुछ लोगों की बात करने की आवाज। चंडीदास ने माँ के कमरे में झाँक कर तसल्ली कर ली...गुनगुन है तो.... चंडीदास को तो गुनगुन हमेशा घर पर ही मिलती है। फिर लोग क्यों कहते रहते हैं कि गुनगुन क्रांतिकारी हो गई है और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में भरती हो गई है।
पर यह सच था कि गुनगुन ने आजाद हिंद फौज में आजादी के लिए मर मिटने को नाम दर्ज करा दिया था। उसके मन में आजादी के सपने कुलबुलाने लगे थे। बाबा ने व्यक्ति से घृणा करना तो सिखाया न था उसके कर्मों से घृणा करना सिखाया था। इसीलिए गुनगुन अंग्रेजों से नहीं बल्कि उनके अत्याचारी शासन से घृणा करती थी। उसका सहपाठी डेव फ्रेंकलिन उसका दोस्त था। डेव के पिता फौज में थे और डेव का जन्म भारत में ही हुआ था। शायद यही वजह थी कि उसमें अंग्रेजियत कम और भारतीयता अधिक थी। गुनगुन भी खुलकर उससे अंग्रेजी शासन की निंदा करती थी।
‘‘अंग्रेज शासन के नाम पर अत्याचार करते हैं, आतंक फैलाते हैं। आखिर यह सरजमीं हमारी है... हम क्यों नहीं आजाद होने का हक रखते।’’ वह डेव से कहती थी।
‘‘कोई भी आसानी से हाथ आई समृद्धि, शासन कैसे वापिस कर सकता है। ममा बताती हैं कि इंग्लैंड विभिन्न देशों में शासन के बल पर ही समृद्ध हुआ है। सबसे ज्यादा समृद्धि तो उसे बंगाल से ही मिली है। अमेरिका से मिली है, केनेडा से। अफ्रीकी देशों में नीग्रों पर शासन कर उसने अपने लिए गुलाम इकट्ठे किए हैं। मैं कभी इंग्लैंड नहीं गया पर सुना है वहाँ हर नागरिक अमीर हैं.....कभी सोचता हूँ इतना धन कमाऊँ कि वहाँ जाकर एक आलीशान कोठी खरीदूँ।’’ डेव सपने देखने लगता।
गुनगुन ने उसकी सपने देखती आँखों के आगे चुटकी बजाई-‘‘जागो डेव जागो... धरती पर आ जाओ। सपनों को धरोहर समझ कर मंजिल की ओर कदम बढ़ाओगे तभी कुछ हासिल होगा।’’
पढ़ाई के साथ-साथ गुनगुन इला और द्विजेन के साथ कमर कसकर नेताजी के बताए कामों को सरअंजाम देने लगी। इला नेताजी की भतीजी थी और द्विजेन भतीजा। एक बड़े क्रांतिकारी समूह का नेतृत्व उनके ही हाथों में था। गुनगुन वैसे तो नौ साढ़े नौ बजे रात तक घर लौट आती थी पर कभी-कभी रात अधिक हो जाती या मध्यरात्रि को उसे लेने समूह का कोई सदस्य आ जाता। ऐसे में उसने मुनमुन को पटा रखा था। मुनमुन उससे केवल दो वर्ष बड़ी थी और दोनों में बहनापा कम दोस्ती अधिक थी। एक-दूसरे के प्रति समर्पित दोनों बहने एक-दूसरे के सपनों को साकार करने में मदद करती थीं। जब गुनगुन को मध्यरात्रि दो बजे जाना होता तो वह मुनमुन को इसकी सूचना पहले से दे देती। समूह के किसी सदस्य के बाहर से विशेष आवाज में हलकी दस्तक देते ही गुनगुन मुस्तैदी से उठ जातीं-‘‘चलती हूँ मुनमुन। सँभालना।’’
‘‘हाँ... वही रिहर्सल वाला बहाना... ठीक है? देखो सावधानी से जाना।’’
अंधेरे में गुनगुन की गुम होती परछाई मुनमुन को थोड़ी देर के लिए विचलित कर देती-‘‘क्या पता, वक्त किस मोड़ पर जिन्दगी को ला खड़ा करे... हे माँ काली, गुनगुन की रक्षा करना।’’
आज भी वह दरवाजे को आहिस्ते से बंद कर ही रही थी कि तभी अचानक हवाएँ सर्द-सी लगीं जबकि सर्दी लगभग अंतिम विदाई पर थीं। अंधेरे में ही कई जुगनू एक साथ चमके और कुछ लोगों के भागते कदमों की आहट कलेजा कंपा गई। तभी बंदूक चलने की आवाज सुन उसके मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई।
‘‘कौन?’’ बाबा शायद जाग गए थे।
पर मुनमुन ने जवाब नहीं दिया और बिस्तर पर आ दम साधे लेट गई।
‘‘कौन है?’’ माँ ने करवट बदल कर पूछा।
‘‘पता नहीं।’’ बाबा ने लापरवाही से जवाब दिया ‘‘होंगे आजादी के मतवाले।’’
रोजमर्रा की तरह बाबा मुँह अंधेरे उठ गए। नित्यकर्म से फुरसत हो वे घूमने निकल गए। सड़कों पर अंधेरा था और स्ट्रीट लैंप अभी गुल नहीं हुए थे। अपने मोहल्ले को जब उन्होंने पार किया तो साफ-सुथरी चौड़ी सड़क पर वे तेजी से चलने लगे। सड़क के किनारे गुलमोहर, अमलतास, बरगद, पीपल और भी तमाम दरख्तों का लम्बा सिलसिला था। फुटपाथ इन दरख्तों से झरे पत्ते और बारीक फूलों से तब तक भरे रहते जब तक इन्हें जमादार बुहार नहीं लेता। सुबह के समय फुटपाथ पर जॉगिंग करने वाले युवक-युवतियों के जूतों की चरमराहट हवा में काँपती। अचानक उन्हें लगा जैसे पास से गुनगुन गुजरी है। वे थोड़ी देर रुक कर काला दुपट्टा ओढ़े उस लड़की को जाता देखते रहे। पीछे से बिल्कुल गुनगुन दिख रही है। क्या आवाज दें? आवाज देने में हर्ज ही क्या हैं? लेकिन यह गुनगुन कैसे हो सकती है? वैसे उनके मन में कई दिनों से इस शंका ने सिर उठाया है कि गुनगुन क्रांतिकारी हो गई है। देश जिस हालात से गुजर रहा है ऐसे में किसी भी युवक युवती का क्रांतिकारी होना आश्चर्य की बात नहीं। उनके तीनों बच्चे अलग ही स्वभाव लेकर पैदा हुए। चंडीदास को वे सिविल सर्विस में भेजना चाहते थे पर वो जिद्द करके शांतिनिकेतन चला गया और चित्रकारी और संगीत की शिक्षा लेकर ही लौटा। बच्चे कलाकार हों तो खुशी होती है पर कला को प्रोफेशन बनाना निरी मूर्खता है। कला समृद्धि नही देती। जिन्दगी भर गृहस्थी के जुए में जुते रहो और एक दिन दुनिया से चल दो। बाबा ने खुद भी वही किया इसीलिए बच्चों के लिए डरते हैं।
वह लड़की सड़क के मोड़ पर न जाने कहाँ गायब हो गई। बाबा ने अपने संदेह को झटका, फिजूल की बातें हैं ये सब। उन्होंने हाथ की छड़ी जो आदतन वे साथ रखते थे हवा में घुमाई और कालीघाट की ओर जाने वाली सड़क को रुककर देखने लगे। सड़क पर एक पालकी जा रही थी। सुनसान माहौल में पालकी उठाने वालों की हईया हो, हईया हो गूँज रही थी।
जब वे अखबार और दूध लेकर घर लौटे तो गुनगुन अपने कमरे में पढ़ रही थी और मुनमुन ने चौके में चाय का पानी चढ़ा दिया था। उन्होंने गौर किया कि गुनगुन का दुपट्टा पीला है। जब उसने पढ़ते-पढ़ते बाबा की ओर नजरें उठाई तो उन्हें उसकी आँखों में उनींदा रीतापन-सा महसूस हुआ। जूते उतारकर बाबा ने रैक पर रखे और गुनगुन के पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा-‘‘पढ़ाई ठीक ठाक चल रही है न?’’
‘‘जी बाबा।’’ गुनगुन की नजरें किताब पर ही झुकी थीं।
‘‘और तुम्हारी रिहर्सल?’’ बाबा के पूछने पर गुनगुन के मन का चोर काँपा। लेकिन मुनमुन तो बता रही थी कि आज उसका जाना किसी को पता नहीं चला? आज उसे रिहर्सल का बहाना नहीं बनाना पड़ा?
‘‘कब होगा तुम्हारा नाटक स्टेज?’’ बाबा के दुबारा पूछने पर उसने सधे शब्दों में जवाब दिया-‘‘सरस्वती पूजा पर।’’
और फिर से अपनी नजरें किताब के पृष्ठों पर गड़ा दीं। मुनमुन चाय ले आई थी। बाबा हाथ में कप लिए बाहर के कमरे में चले गए। गुनगुन ने राहत की साँस तो इस वक्त ले ली पर मन में यह विचार भी कौंधा कि आखिर कब तक ये बात वो घर से छुपा पाएगी। क्रांति क्या छुपने वाली चीज है? एक न एक दिन तो माँ बाबा को पता लगना ही है।
इतवार के दिन जब चंडीदास मुनमुन के लिए किताबें खरीद रहा था उसने किताबों की दुकान विश्वभारती से आई नई किताबों से भरी पाई। किताबें तो नई नहीं थीं उनके संस्करण नए थे। जयदेव, टैगोर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरदचंद्र, मीराबाई, कबीरदार, सूरदास.....चंडीदास अपने को रोक नहीं पाया। उसने सभी किताबों को पार्सल करने का ऑर्डर देकर डायना के बंगले का पता दे दिया। किताबें शाम तक बंगले पर पहुँच जाएँगी और पेमेंट भी वहीं से मिल जाएगा, आश्वासन दे, लेकर वह मुनमुन की किताबें लेकर घर लौट आया।
डायना बाकायदा हिन्दी और बंगाली न केवल बोल लेती थी पर लिख पढ़ भी लेती थी। अपनी मोती जैसी सुंदर लिखावट में वह धीरे-धीरे लिखने का अभ्यास करती। उसका कमरा वैसे ही किताबों से भरने लगा था फिर जहाँ भी तफरीह के लिए जाती। किताबें खरीद लाती। शाम को चंडीदास का भेजा पार्सल बोनोमाली ने उसे लाकर दिया। डायना के असिस्टेंट जॉर्ज ने पेमेंट कर दिया था। अभी बोनोमाली पार्सल खोल ही रहा था कि फोन की घंटी बजी। बोनोमाली ने फोन उठाया और चंडीदास की आवाज पहचान रिसीवर डायना को थमा दिया- ‘‘मेमसाहब आपका फोन है।’’
‘‘हॅलो डायना.... मैंने विश्वभारती की कुछ किताबें तुम्हारे लिए भिजवाई हैं।’’
तब तक बोनोमाली पार्सल खोल चुका था और एक-एक किताब निकालकर टेबिल पर जमाता जा रहा था। डायना का चेहरा खिल पड़ा।
‘‘हाँ चंडी.....बस, अभी-अभी पार्सल मिला है। थैंक्स चंडी, तुम मेरा कितना ख्याल रखते हो। तुम सचमुच ग्रेट हो।’’
‘‘डायना, मैं कल शाम आऊँगा। आज कुछ काम निकल आया है। लेकिन तुम रियाज़ जरूर करना।’’
‘‘हाँ चंडी....जरूर करूँगी और अभी से तुम्हारा इंतजार भी।’’ फोन रखते ही डायना नई किताबों को उलट पलटकर देखने लगी। पृष्ठों पर हाथ फेरते हुए उसका मन असीम आनंद से भर उठा। कठिन शब्दों के लिए पार्सल में चंडीदास ने एक शब्दकोश भी रखवा दिया था। उसने सबसे पहले सूरदास को पढ़ने की कोशिश की। दो-तीन पन्ने पढ़कर उसका ध्यान तानपूरे की ओर गया। बंगले में एक म्यूजिक रूम भी था जिसे चंडीदास संगीत कक्ष कहता था। लगभग सारे वाद्य उस कक्ष में थे और फर्श पर चारों दीवारों को छूता मोटा, गुदगुदा कालीन बिछा था। कमरे की खिड़की से जुही की बेल झाँकती। जब फूल खिलते तो कमरा खूशबू से लबरेज़ हो उठता।
डायना ने संगीत कक्ष में जाकर तानपूरा उठा लिया और देर तक रियाज़ करती रही। अचानक उसका मन भटकने लगा। होम सिकनेस सताने लगी। वहाँ लंदन में वह अपने महल जैसे घर में पियानो बजाती थी। जब तक माँ थी घर भरा-भरा लगता था। वे रिश्तेदारों से घिरी रहतीं। डायना को शुरू से ही भीड़भाड़ पसंद नहीं थी, वह एकांतप्रिय थी। अकेले बैठी सोचती रहती या पियानो बजाती एक रहस्य से घिरी रहती थी। उसे लगता था जैसे पियानों से निकले सुर हवाओं में ऊँचे ऊँचे होते हुए बाहर की नीली धुंध, चीड़ और चिनार के पेड़ों को चीरते न जाने किस लोक में समाते चले जा रहे हैं और उन सुरों के बीच उसका व्यक्तित्व पंख-सा हलका तैरता-सा कि जैसे सदियों को मुट्ठियों में भींच लाया हो। इस आग को...वह पसीने-पसीने हो उठती बावजूद बदन काटती ठंड के...बदन में उठी इस आग को अब किसी भी तरह नहीं बुझाया जा सकता। यह आग उसका वजूद है जो वह सब जलाने को आतुर है जो कुछ उसने चाहा था...लेकिन यहाँ हिन्दुस्तान में उसे चंडीदास मिल गया और उस आग की लपटें सहमकर पीछे हट गईं।
डायना को चंडीदास में कोई अवगुण नजर नहीं आता। इतना रूपवान, विद्वान, कलाकार...शब्दों में, गले में, ऐसी मिठास जो बेकाबू कर दे। उस दिन नौका पर बैठे हुए उसका प्रेम निवेदन याद आते ही डायना शरमा गई। अब डायना की बारी है और वह चंडीदास के सामने अपना दिल खोलकर रख देगी। जैसा आज तक उसके जीवन में नहीं हुआ, अब होगा। टॉम ने उसे कभी दिल से नहीं चाहा। न कभी उसकी इच्छाओं की परवाह की, न शौकों की। दो घड़ी उसके साथ चैन से बैठकर कभी बात नहीं की। कभी जताया नहीं कि उसके जीवन में डायना है या डायना का ये स्थान है। इसीलिए तो डायना चंडीदास से मिलने से पहले तक अकेली थी, पर अब नहीं। उसने तानपूरा कोने से टिकाया और दोनों बाँहों से क्रॉस बनाया-‘‘प्रभु यीशु...हमारी मदद करो।’’
दूसरे दिन दोपहर ढलते ही चंडीदास आ गया। डायना उसी के इंतजार में थी।
‘‘पसंद आई किताबें?’’
‘‘बहुत अधिक.....मैं पहले जयदेव पढूंगी।’’ डायना ने संगीत कक्ष की ओर चलते हुए कहा।
डायना उतावली थी चंडीदास के साथ रियाज़ करने के लिए। आज दो दिन के अंतराल के बाद दोनों की महफिल सजेगी। दोनों कालीन पर आमने सामने बैठ गए। बीच में तबले की जोड़ी थी। चंडीदास की उँगलियाँ तबले पर और डायना की तानपूरे पर.....चंडीदास ने उसे एक बांग्ला गीत सिखाया था- ‘‘एई कूले आमी आर ओई कूले तुमी, माझखाने नोदी ओई बोए चोले जाए......इस तट पर मैं हूँ और उस तट पर तुम हो, बीच में नदिया बहती चली जा रही है।’’
‘‘यह तो जुदाई का मंजर है चंडी...’’
‘‘हाँ.....प्रेम करने वाले जुदाई में ही जीते हैं। कृष्ण का राधा से मिलन लघु था फिर जीवन भर की लम्बी जुदाई.....लेकिन फिर भी उनका प्रेम अमर है। नदी के तट भी कभी नहीं मिलते, बस प्रेम की नदी को थामे रखते हैं। अगर तट मिल जायें तो हाहाकार मच जाए। भूगोल बदल जाए... सारी कायनात बदल जाए।’’
‘‘पर मैं नहीं बदलूँगी.....क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम मेरी आत्मा में समा गए हो।’’
‘‘तुम प्रेम की साक्षात अवतार हो राधे और मैं तुम्हारा दास.....राधे का दास।’’
डायना हुलसकर चंडीदास के सीने में समा गई।
‘‘राधे, हमारे बीच प्रेम की अथाह नदी बह रही है। और उस नदी को सँभालने के लिए हम दोनों की जरूरत है उसे। प्रेम के दो कूलों की। कूल नहीं होंगे तो नदी भी नहीं होगी।’’ डायना ने चंडीदास के हाथ ऐसे थामे जैसे डूबते को तिनके का सहारा।
चंडीदास ने डायना के होठों को चूमा-‘‘तो तुम्हें मेरी राधा बनना कबूल है? बोलो बनोगी मेरी राधे?’’
‘‘और तुम मेरे किसना...।’’
दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े.....खिड़की से झाँकती जुही की बेल से खिले फूल चौंक कर चू पड़े.....चंडीदास के स्पर्श ने डायना के बदन का रोम-रोम नशे से भर दिया था। वह गुनगुनाई तो जैसे सारी कायनात गुनगुना उठी। सूरज दूर मंदिर के कलश के पीछे छिप गया और अंधेरा जो इसी ताक में था कि कब सूरज डूबे, उचककर क्षितिज की रेखा से इस पार उतर आया। आज जब चंडीदास ने विदा ली तो डायना और उसके जीवन की किताब के नए पृष्ठ खुल चुके थे।
पुरानी ईंटों के ढेर के पीछे बिल्ली ने बच्चे जने थे। एकांतप्रिय डायना सुबह की सैर बिना अपने सेवकों के अकेले करती। टॉम उसके अकेले जाने पर उसकी सुरक्षा को लेकर सवाल खड़े कर चुका है पर डायना निश्चिंत है। जब वह किसी की दुश्मन नहीं तो उसका दुश्मन कौन होगा? लिहाजा वह अकेली ही जाती। ईंटों के ढेर के पीछे कई बच्चों के बीच एक सफेद बालों वाला बच्चा ईंट में दब गया था ओर उसकी माँ उसकी पूँछ पकड़कर उसे खींच कर बचाने में लगी थी। उसे घेरे सभी बच्चे सहमे से मूक हो खड़े थे। डायना ने ईंट हटाई तो बच्चे को घायल पाया। उसका पिछला एक पैर लहूलुहान हो चुका था। डायना उसे घर ले आई और माली से उसे जानवरों के अस्पताल ले जाने को कहा। गनीमत थी कि उसकी हड्डी नहीं टूटी थी। जब मलहम पट्टी करवाकर बच्चा घर लौटा तो डायना उसकी सुन्दरता देखती ही रह गई। उसके भोले भाले मासूम चेहरे को देख डायना ने उसे पालने का निश्चय कर लिया। उसने उसके गले में लाल रिबन बाँधा और उसका नाम ब्लॉसम रखा।
ब्लॉसम को ठीक होने में हफ्ता भर लग गया। वह चंडीदास को भी पहचानने लगी थी। चंडीदास के आने के पहले डायना ब्लॉसम के बदन पर ब्रश करती.....आज भी वह उसे ब्रश करके गोद में लिए बैठी गुनगुना रही थीं जब गुनगुनाना बंद हुआ तो ब्लॉसम ने एक लम्बी जमुहाई ली और गेंद-सी गोल सिमटकर उसकी गोद में घुरघुराती हुई सो गई। बिल्ली के बदन की गरमाहट का सेंक डायना में एक विचित्र एहसास जगाता रहा।
नियत समय पर चंडीदास आया। बिल्ली उछल कर उसके कंधे पर चढ़ गई -‘‘देखो डायना, तुम्हारी पहरेदार मेरा मुआयना कर रही है।’’
डायना मुस्कुरा पड़ी। बिल्ली को चंडीदास देर तक प्यार करता रहा। फिर डायना के साथ संगीत कक्ष में आने से पहले उसे सोफे पर बैठा दिया। वह भी शांति से दुबककर सो गई। संगीत कक्ष का परदा हटते ही दोनों बड़ी प्रगाढ़ता से आलिंगनबद्ध हुए......आज चंडीदास ने देर तक डायना के अधरों का रसपान किया। सिहरते बदन सहित दोनों जब रियाज़ करने बैठे तो हवा रेशमी हो उठी और आसमान पर छाई सफेद बादलों की थिगलियाँ सूरज से लिपट-लिपट गईं।
बाहर अंधेरा गहराने लगा। सोफे से कूदकर ब्लॉसम पूँछ खड़ी कर डायना के पैरों से लिपटने लगी। उसे भूख लगी थी लेकिन डायना और चंडीदास एक के बाद एक गीतों के मुखड़े उठाते जाते ओर गायन में तल्लीन हो जाते जैसे समय उनके पास आकर ठिठक गया हो, बीतना ही भूल गया हो।
‘‘चंडी.....प्यार की नदी के कूलों को जोड़ने के लिए हम उस पर एक पुल बनाएँगे और एक-दूसरे के दिल में उतर जाएँगे।’’
‘‘यह इतना आसान नहीं राधे.....पुल के आसपास भयानक बिजलियाँ कड़केंगी, उसे डायनामाइट से उड़ा दिया जाएगा......प्रेम को मिटा देते हैं लोग.....वे डरते हैं क्योंकि प्रेम की शक्ति इस दुनिया की सारी शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली है। इसीलिए दोनों कूलों के बीच नदी बहना जरूरी है.....उसे कोई नहीं मिटा सकता।’’
दोनों संगीत कक्ष से बाहर हॉल में आ गए। इतना प्यार पाकर डायना के पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे। उसे ताज्जुब हुआ पंख तो कब से उसके पास थे पर खुले आसमान में उड़ने के लिए वह हौसला क्यों नहीं जुटा पाई।
बोनोमाली चाय की ट्रे लिए हॉल में दाखिल हुआ। नजरें झुकाए-झुकाए उसने ट्रे टेबिल पर रखी और म्याऊँ-म्याऊँ का शोर करती ब्लॉसम को उठाकर चला गया। जाने क्यों वह अपनी मालकिन और चंडीदास को जब साथ-साथ देखता है तो आह्लाद से भर जाता है......वह मालिक का मालकिन के प्रति व्यवहार जानता है.....और इसीलिए उसे मालिक जरा भी पसंद नहीं।
दीवारघड़ी की टिक-टिक ने डायना को जैसे स्मरण दिला दिया कि अब चंडीदास को चला जाना चाहिए। उसने बाहर छाए अन्तहीन सघन अँधेरे में अपनी तारों-सी दिपदिपाती स्वप्निल आँखें टिका दीं-‘‘अब तुम जाओ किसना......आज टॉम टूर से किसी भी वक्त लौट सकता है।’’
‘‘डरती हो?’’
‘‘तुम्हारे लिए डरती हूँ किसना। तुम टॉम को नहीं जानते।’’
‘‘प्रेम करने वाले डरा नहीं करते... आइंदा मैं तुम्हारे मुँह से यह शब्द कभी नहीं सुनना चाहूँगा। प्लीज......इस वक्त चलता हूँ।’’
जॉर्ज ने आकर खबर दी थी कि सर आज दोपहर तीन बजे लौट रहे हैं। डायना के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान उभर आई.....कितनी अजीब बात है कि उसके पति के आने की खबर उसे उसके असिस्टेंट से मिलती है। टॉम की जिन्दगी में अपना वजूद उसे पिघली हुई मोमबत्ती के नीचे फैली उस मोम की पपड़ी-सा लगा जो झाड़ बुहार कर कूड़ेदान में डाल दी जाती है। खिन्न मन से वह पूरे बंगले का चक्कर लगाने लगी। चौके में पारो एक स्टूल पर बैठी आलू छील रही थी और बोनोमाली आलमारी में से कुछ निकाल रहा था। बगीचे में माली क्यारियों में से सूखे पत्ते, घास का कचरा उठा-उठा कर पास रखी डलिया में भरता जा रहा था। नीम के पेड़ पर से एक सलेटी रंग की चिड़िया जिसकी पूँछ बहुत लम्बी थी, उड़ती हुई पास ही जामुन के पेड़ पर जा बैठी। डायना अपने कमरे में लौट आई। खिड़की का परदा हटाया तो धूप का एक टुकड़ा आहिस्ता से फर्श पर सरक आया। मानो सुबह से वह बाहर खिड़की के पास दुबका परदा सरकने की प्रतीक्षा कर रहा हो। डायना ने टेबुल पर से जयदेव की पुस्तक उठाई और सोफे पर बैठकर पढ़ने लगी। ग्यारहवीं शताब्दी में बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के राजकवि थे जयदेव। उन्होंने प्रेम काव्य का अद्भुत वर्णन किया था अपने लेखन में। डायना भाव विभोर थी कि तभी टॉम ने प्रवेश किया।
‘‘हैलो..... कैसी हो?’’
डायना ने पुस्तक पर से नजरें उठाकर टॉम को देखा-‘‘हाय... आ गए।’’
आते ही टॉम टेबिल पर रखी डाक देखने गला। वह लिफाफे खोलता जाता और खुद से कुछ कहता जाता। आधा घंटे बाद वह कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया। डायना को लगा वह बाथ लेकर खाने की फरमाइश करेगा। लेकिन तभी वह तौलिया लपेटे कमरे से बाहर आया। अपने लिए पैग बनाया और सिगरेट सुलगा ली। डायना की नजरें पुस्तक पर थीं पर वह टॉम की हर गतिविधि का बारीकी से अवलोकन कर रही थी। रात से पहले बल्कि शाम से भी पहले टॉम का यूँ शराब पीना उसके लिए नया नहीं था। वह अक्सर छुट्टी के मूड में सुबह शाम की परवाह पीने के लिए नहीं करता। पैग हाथ में लिए वह कमरे में चहलकदमी करने लगा। फिर दूसरा पैग बनाया और पैग हाथ में लिए हुए ही वह अपने कमरे के बाथरूम में घुस गया। डायना ने इत्मीनान से सिर पीछे टिकाया ही था कि वह भीगे बदन बिल्कुल नग्नावस्था में बाहर आया। डायना के कमर तक खुले रेशमी बाल तेज हवा में लहरा रहे थे। वह बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसका अलसाया सौंदर्य टॉम को बेकाबू किए दे रहा था। टॉम ने तीसरा पैग बनाया-‘‘क्या गुलामों की लिखी किताबें पढ़ती हो। उन पर सिर्फ शासन किया जा सकता है।’’ कहते हुए उसने डायना की किताब छीनकर टेबिल पर पटक दी और उसे गोद में डठाकर बाथरूम में लाकर शॉवर के नीचे खड़ा कर दिया। डायना की नीली पोशाक भीग कर उसके बदन से चिपक गई जिसमें से उसका संगमरमरी बदन झलक रहा था। नशे में डूबा टॉम डायना के बदन से पागलों की तरह खेलने लगा। डायना के हृदय की प्रेम कलियाँ सूख गई.....जयदेव की यमुना के कूलों पर धूल उड़ने लगी। एक बवंडर-सा उठा जिसमें कृष्ण और राधा जाने कहाँ गुम हो गए। रह गई वृंदावन के वंशी वृक्षों पर सर पटकती हवा। डायना के नयन अश्रुओं से भरे थे। वह पत्नी होने का दंड भुगत रही थी। टॉम बस देह पर हक जताता है और डायना को महसूस होता है जैसे हर बार वह उसका बलात्कार कर रहा है। एक पल को भी तो टॉम उसका हो न सका जबकि उसने टॉम को अपना बनाने की तमाम कोशिशें की लेकिन हर बार उसका दिल टूटा....हर कोशिश में उसे हार मिली। न जाने क्यों टॉम के दिल में उसके लिए भावनाएँ नहीं जागतीं, न जाने क्यों वह डायना के लिए कभी कुछ नहीं सोचता। बस उनके बीच देह का सम्बन्ध है। थक चुकी है डायना नशे और वासना की पंक, सिगरेट की तीखी गंध और कामातुर टॉम से.....
डायना का मन टॉम के व्यवहार से टूट चुका था....बिल्कुल मर ही जाता अगर चंडीदास नहीं मिलता। चंडीदास से मिलने से पहले वह सोचा करती थी लौट जाए अपने देश.....इस अजनबी देश में कुछ भी तो नहीं ऐसा जिसे वह अपना कह सके। न सगे-सम्बन्धी, न मित्र, न भाषा, न रीति- रिवाज.....लंदन से चलने से पहले उसके चाचा ने हिन्दुस्तान की अजीबोगरीब तस्वीर खींची थी उसके सामने.....बिल्कुल असभ्य देश है। जहाँ साँपों को, पेड़ों को और बिल्कुल कोयले जैसी काली, लाल रंग की जीभ निकाले....कई हाथों वाली मूर्ति को पूजते हैं। औरतों को परदे में रखते हैं मुसलमान और कई-कई शादियाँ करते हैं। वे मर्दों का लिंग काट कर उन्हें मुसलमान बनाते हैं। हिन्दू औरत जब विधवा होती हैं तो उसे आग में जिंदा जला देते हैं या सिर मुँडाकर, सफेद कपड़े पहनाकर जिन्दगी भर उबला खाना खिलाते हैं। ऐसी विधवा औरतें उनके धार्मिक उत्सवों में शामिल नहीं होतीं। कई घरों में तो लड़कियाँ जन्मते ही मार डालते हैं या राजा के हाथी के पैरों तले कुचलवा कर अपने को धन्य समझते हैं। सुनकर डायना ने फुरेरी ली थी। यह कैसा देश है.....एकदम जंगली, पाशविक....उसका कोमल मन इन बातों से इतना अधिक दुखी हुआ था कि जब वह हिन्दुस्तान आई तो ऐसा लगा जैसे उसे देश निकाला दिया जा रहा हो। लेकिन यहाँ मिला चंडीदास....जिसने उसके तमाम तर्कों, तमाम शंकाओं का समाधान किया। वह चंडीदास से प्रेम करने लगी। भूल गई अपने दुख और टॉम से मिली उपेक्षाओं को। दोनों के मन में प्रेम का ऐसा पुल बना कि जिस पर से होकर दोनों एक-दूसरे के अन्दर उतरते रहे। उसके दिल में टॉम के साथ बिताए शुरूआती दिनों के चंद मोहक पल पुरानी तस्वीरों की तरह पीले पड़ चुके थे। वैसे भी वो सब कुछ भुला देना चाहती है। मन में बसा है चंडीदास....उसका किसना.....टॉम से कहीं अधिक सुंदर, लम्बा, छरहरा.....एक भरा-पूरा सजीला युवक...टॉम से कहीं अधिक विद्वान, कहीं अधिक पढ़ा-लिखा.....तेजस्वी किसना और वो उसकी राधा...लम्बे-लम्बे चरागाहों में घोड़े पर सवार राधा और पीछे प्रेम का उमड़ता सागर किसना.....यही प्रेम चैतन्य महाप्रभु को ब्रज की धरती तक खींच ले गया जहाँ वर्षों से विचर रहे, आँख मिचौली खेलते राधा-कृष्ण को वन, वीथिकाओं, वल्लरियों की आड़ से निकालकर उन्होंने जनमानस में अवतरित किया था। उस कुसुम-कुंज में आज भी कृष्ण वनपुष्पों से जगतमोहिनी राधा का श्रँगार करते नजर आते हैं। एक दिन चंडीदास ने भी डायना का शृंगार किया। अपने छोटे-छोटे बालों को चंडीदास के ही आग्रह पर डायना ने कमर तक बढ़ा लिया था। घने, सुनहले, रेशम के गुच्छों जैसे मुलायम बालों की चोटी गूँथी थी चंडीदास ने और सिंदूर से मांग भर दी थी। अपनी सद्य परिणीता के माथे पर बिन्दी लगाकर पैरों में आलता लगाया था और पाजेब पहना दी थी। पाजेब भारी और पेच वाली थी। उसके कोमल गुलाबी पैरों को चूम लिया था उसने। डायना पाजेब पहने तीन चार डग जिस ढंग से चली उसे देख चंडीदास हँस पड़ा था। उस पल डायना को लगा वह चंडीदास की इस प्रेम भरी चितवन पर अपनी पूरी जिन्दगी कुर्बान कर सकती है।
शाम ने परछाइयाँ समेट ली थीं और जादूगरनी-सी परछाइयों की पिटारी लिए दबे पाँव चली गई थी। आसमान तारों से सँवरने लगा था।
‘‘बंगाल का काला जादू प्रसिद्ध है। अपने लम्बे बालों और बड़ी-बड़ी काली आँखों में मर्द को बाँधकर मेढ़ा बना देती हैं यहाँ की औरतें.....पारो ने डायना के बालों की मालिश करते हुए बताया था।’'
‘‘अच्छाऽऽ....’’ आश्चर्य से डायना की आँखें फैल गई थीं।
‘‘वैसे मेमसाहब...मर्द भी कुछ कम नहीं होते यहाँ के। बड़े बहादुर होते हैं जैसे हमारे बाघा जतिन थे।’’
‘‘बाघा जतिन?’’
‘‘हाँ.....वैसे तो उनका नाम यतीन्द्रनाथ मुखर्जी था पर उन्होंने बाघ मारा था न इसलिए उनका नाम बाघा जतिन पड़ा।’’
‘‘कैसे मारा था बाघ?... बाघा जतिन ने?’’ डायना की आँखें मालिश की वजह से मुँदी जा रही थीं।
‘‘अरे.....आपको ये किस्सा नहीं मालूम? यह किस्सा तो पूरा बंगाल जानता है। नदिया जिले के कोया गाँव में आस-पास के जंगल से एक खूँखार आदमखोर बाघ आता था और गाय, बैलों, छोटे बच्चों को मारकर खा जाता था। तब बाघा जतिन ने अकेले दम पर मार डाला बाघ को..... वो भी चाकू से...’’
डायना सचमुच रोमांच से भर उठी। उसकी आँखों के आगे चित्र-सा खींच दिया था पारो ने..... पारो और भी बहुत कुछ बताने के मूड में थी.....आज न चंडीदास आने वाला है, न जसराज। वे अपने स्कूल के सालाना जलसे की तैयारियों में जुटे हैं। सेवानिवृत्त होने के बावजूद मास्टर जसराज अपने स्कूल से संपर्क रखे हुए थे और हिन्दी नाटक आदि की रिहर्सल करा देते थे। पारो को आज पूरी शाम मिल गई थी डायना से बतियाने के लिए।
‘‘आपको पता है मेमसाहब.....अपने संगीत मास्टरजी की छोटी बहन क्रान्ति की सिपाही है।... बोस बाबू की फौज में हैं वो।’’
''क्या? तुम कैसे जानती हो पारो?'' डायना चौंक पड़ी।
''जानती हूँ न... तभी तो... वो घोषाल बाबू का लड़का भी उसी फौज में हैं। घोषाल बाबू बोनोमाली को जानते हैं... इसीलिए तो....''
‘‘अरे वाह.....तुम तो सारी दुनिया की खबर रखती हो?’’
पारो ने इसे अपनी प्रशंसा समझी। वह शरमाते हुए मुस्कुरा दी। पारो के मन में एक प्रश्न जो महीनों से कुलबुला रहा था.....आज बाहर आने को उतारु हो गया। आज मालकिन का मूड अच्छा है। पूछ ही लेती है...‘‘मेमसाहब... एक बात पूछूँ...बुरा तो नहीं मानेंगी?’’
‘‘हाँ, पूछो पारो... बुरा होगा तो डाँट खाओगी।’’
‘‘डाँट लेना... डाँट लेना..... आपकी तो डाँट में भी प्रेम होता है। अब जो इतनी लड़ाई हो रही है। सब लोग फिरंगियों को उनके देश वापिस भेज देने पर उतारू हैं, तिरंगा लिए घूमते हैं.....वंदे मातरम् गाते हैं..... मेमसाहब...क्या आप भी अपने देश लौट जाओगी?’’
डायना के मन में छन्न से कुछ टूटा.....शायद शीशए दिल, जिसकी किरचे बिखरकर उसकी पोर-पोर लहूलुहान करने लगीं। यह कैसा सवाल किया पारो ने? कि उसे जड़ से उखाड़कर धरती पर ला पटका। क्या यह देश अब उसका नहीं? जब चंडीदास उसका है तो यह देश भी उसका ही हुआ। वह चंडीदास की परिणीता है.....हिन्दुस्तान उसका ससुराल.....इस वक्त वह पारो के सवाल पर खामोश रही लेकिन इसका जवाब उसके मन में तैयार था।
सालाना जलसे में चंडीदास इस कदर व्यस्त था कि वह महीने भर डायना को समय नहीं दे पाया। बस फोन पर ही बातें हो जातीं। वह जयदेव के राधा कृष्णमय गीतगोविंद पर एक नृत्य नाटिका तैयार करवा रहा था। साथ ही अपने बनाए चित्रों की प्रदर्शनी की भी तैयारी में जुटा था। वह एक बेहतरीन चित्रकार था और पैदाइशी इस गुण को सँवारा था शांतिनिकेतन ने। इस बार वह डायना की तस्वीरों के एल्बम पर भी काम कर रहा था।
डायना जयदेव की किताब तो पढ़ चुकी थी पर उसकी इच्छा केंदुली गाँव देखने की भी थी जहाँ जयदेव का घर था। उसने इस काम के लिए बोनोमाली को चुना। बोनोमाली जाकर गाँव आदि देख आया। सब जानकारी ले आया। डायना ने चंडीदास को फोन लगाया। वह केंदुली जा रही है सुनकर चंडीदास खुश हो गया।
‘‘मैं भी चलता पर इधर व्यस्तताएँ बढ़ गई हैं।’’
‘‘जानती हूँ.....तुम्हारी व्यस्तता से उपजे शून्य को ही तो भरने जा रही हूँ वहाँ। वैसे जयदेव के बाद अब मैं बंकिमचंद्र का आनंदमठ पढ़ रही हूँ। अद्भुत पुस्तक है। उनके वंदे मातरम् गीत को मैंने याद कर लिया है। अपनी तरह से कंपोज भी किया है और हारमोनियम पर गाती भी हूँ।’’
‘‘ओह.....यह ग्रेट न्यूज है। तुम एक दिन महान गायिका बनोगी।’’
‘‘ज्यादा तारीफ नहीं.....बस इतना बताओ, तुम्हारा सालाना जलसा कब है? मुझे बुलाओगे?’’
‘‘ए....शरारती, सोच कैसे लिया तुमने? अगले महीने की पाँच तारीख शाम छह बजे... पंक्चुअल रहना... वरना...’’
‘‘वरना क्या?’’
‘‘मिलने पर बताऊँगा, उधार रहा।’’
इन दिनों कलकत्ता जलसों की तैयारी में जुटा था। सरस्वती पूजा के लिए जगह-जगह तैयारियाँ चल रही थीं। कुछ स्कूलों के सालाना जलसे भी इसी माह थे। फिजाओं में कला का नूर समाया था। सड़कों के किनारे खड़े पेड़ जो पतझड़ से बिसूर रहे थे अब बसंत की नई कोपलों से सज गए थे। जैसे किसी चित्रकार ने अपनी तूलिका ताजे घुले रंग में डुबोकर शाखों पर फेर दी हो.....चंडीदास भी रात रात-भर चित्र बनाता था। आठ दस चित्र उसने प्रकृति और उल्लास तथा दुख के रंगों से बनाए थे.....कुछ महापुरूषों के पोट्रेट थे.....अब उसकी पूरी तल्लीनता डायना की तस्वीरों को लेकर थी। वह डायना के चेहरे को लेकर पूरा हिन्दुस्तान रचना चाहता था। हिन्दुस्तान की तमाम पोशाकों में वह डायना को उतारेगा, बस यही धुन चढ़ी थी उसे।
गुनगुन भी सरस्वती पूजा के लिए अपने ग्रुप के साथ नाटक की रिहर्सल में जुटी थी। घर पर केवल माँ और मुनमुन होतीं। मुनमुन पढ़ती रहती थी। उसे टॉप करना है और स्कॉलरशिप लेना है। बाबा अपने बच्चों की प्रतिभा से संतुष्ट थे।
रात के दो बजे थे। पढ़ते-पढ़ते मुनमुन को प्यास लगी तो देखा चंडीदास के कमरे की लाइट अभी तक जल रही है। वह उसके लिए भी एक गिलास पानी ले गई ‘‘पानी पियोगे दादा?’’ कहते हुए गिलास आगे बढ़ा दिया और दीवार पर टंगे चित्रों में एक ही चेहरा देख पूछा-‘‘दादा ये लड़की कौन है?’’
चंडीदास का चेहरा खिल पड़ा। वैसे डायना शादी के बाद भी लड़की ही दिखती थी.....कमसिन...उम्र भी तो उसकी छोटी थी। जिस साल टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला उसी साल डायना का जन्म हुआ। सत्ताइस, अट्ठाइस साल की उम्र ही तो है उसकी।
‘‘ये मिसेज डायना ब्लेयर हैं जिन्हें मैं संगीत सिखाता हूँ।’’
‘‘अच्छाऽऽ....तो ये हैं डायना ब्लेयर...मैं तो कोई प्रौढ़ महिला समझ रही थी। ये तो बहुत छोटी दिखती हैं।’’ मुनमुन ने आश्चर्य से कहा।
‘‘हाँ......लेकिन कम उम्र में भी वे गजब की टैलेंटेड हैं, मिलवाऊँगा तुमसे।’’
ऐसा कहते हुए अपने दादा की आँखों में मुनमुन ने प्रेम का वह भाव देखा जो सदा के लिए उसकी आँखों में अंकित हो गया। प्रेम में यही तो खूबी है जब जन्मता है तो अपने आस-पास समूचे माहौल को प्रेममय कर देता है और तब एक भूख जन्म लेती है जो जिस्म की नहीं होती पर जिस्म से होती हुई आत्मा तक फैल जाती है।
नरेन्द्र ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में उपासना करते स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पूछा था-‘‘आप ईश्वर को देख सकते हैं?’’
‘‘मैं उन्हें साक्षात देख रहा हूँ।’’ परमहंस ने नरेन्द्र को चकित करते हुए कहा था।
‘‘कैसे?’’
‘‘जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ।’’ परमहंस ने शांत भाव से जवाब दिया था।
‘‘कुछ समझ में नहीं आई बात।’’
‘‘ईश्वर को समझने के लिए मनुष्य से प्रेम करो नरेन्द्र। मनुष्य के हृदय में ही तो ईश्वर विराजमान है।’’
नरेन्द्र ने उसी क्षण उन्हें अपना गुरु स्वीकार करते हुए उनके चरणों में अपना सिर नवा दिया था-‘‘मैं आज से ही मानव प्रेम, मानव सेवा को अपना लक्ष्य बनाऊँगा।’’
परमहंस गद्गद थे-‘‘तो आज से तुम मेरे शिष्य विवेकानन्द। क्योंकि तुममें विवेक भी है और आनन्द भी।’’
चंडीदास ने भी यही किया.....डायना के हृदय में छुपे आनन्द को, बुद्धि और विवेक को बाहर निकालने की दिशा दी। और हुआ यूँ कि वह दिशा डायना ने चंडीदास की ओर मोड़ दी। अब दोनों एक-दूसरे की बुद्धि बन गए, विवेक बन गए, आनंद बन गए। चंडीदास ने एक बड़े कैनवास पर दक्षिणेश्वर का बेलूड़मठ चित्रित किया। मठ की बाहरी दीवारों पर नवग्रह की प्रतिमाएँ बनाई और जब मंदिर को छूकर बहती हुई हुगली नदी बनाने लगा तो अचानक डायना याद आ गई। वह अविस्मृत शाम जब नौका पर बैठे हुए उसने डायना से प्रेम निवेदन किया था। तब से कितना कुछ बीत गया। उसे लगता है जैसे सदियाँ गुजर गई हों और हर सदी में डायना और वह वहीं के वहीं हैं। वैसे ही प्रेम सागर में आकंठ डूबे। प्यार की यह कशिश कैसी अद्भुत अनुभूतियों को जगाती है।
सुबह-सुबह माँ ने एक बड़ी-सी चादर धो डाली थीं.....कनस्तर भर चावल में से कंकड़ चुने थे और केले के फूल सब्जी के लिए तोड़े थे और अब कमर दर्द लिए पड़ी थीं। मुनमुन उनकी कमर में तेल की मालिश करती उन्हें डाँट रही थी-‘‘जरूरत क्या थी एक ही दिन में सब कुछ निपटा देने की। बीमार पड़ गई तो? एक तो परीक्षा को कुल एक महीना बचा है।’’
‘‘चलो, इसी बहाने तुम्हारे मुँह से बोल तो फूटे।’’ माँ ने औंधे शरीर को सीधा किया और उठकर बैठ गई-‘‘‘वरना मुझसे बात करने की फुरसत ही किसे है? इस घर में दिन-भर अफरा-तफरी मची रहती है। कोई पढ़ रहा है, कोई चित्र बना रहा है, कोई नाटक की रिहर्सल कर रहा है। आधी-आधी रात तक तुम्हारे कमरे की खिड़कियों के पल्ले शोर करते हैं, बाहर सीटियाँ गूँजती हैं।’’
मुनमुन अब दौड़ती चौके में गई और माँ के लिए चाय बना लाई-‘‘लो.....गरम-गरम पियो.....और हमारे बारे में सोचना छोड़ो।’’
‘‘नही सोचूँ तो क्या करूँ? एक वो चंडी है। कितनी मन्नतों से तो हमने उन्हें पाया, तुम्हारे बाबा तो उम्मीद ही छोड़े बैठे थे और तुम्हारी दादी उनकी दूसरी शादी की बात सोच रही थीं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘शादी के चार साल हो गए थे और मैं.....’’
कहती माँ झिझक गईं। बेटी के सामने कैसे कबूल करें कि वे चार साल तक माँ बनने के लिए तरसती रही थीं। कहाँ-कहाँ की दवाई की। झाड़-फूँक जादू-मंतर किया तब जाकर चंडी का मुँह देखना नसीब हुआ। आज भी वो दिन याद करती हैं तो दुनिया की तमाम खुशियाँ छोटी लगती हैं। घर पर ही जचकी हुई थी। चंडीदास की दादी सुबह से काली माँ के मंदिर में आसन-पाटी लिए बैठी थी-‘‘हे माँ! पोते का मुँह दिखा दो.....जिन्दगी में तुमने बहुत से अभाव दिए पर यह अभाव सहा नहीं जाता।’’ और शाम पाँच बजे जब चंडीदास पैदा हुआ तो वे बौरा-सी गई थीं... सारे घर में जश्न का माहौल। बाबा संदेश और रसगुल्ले बाजार से खरीद कर लाये थे और मोहल्ले में बाँटे थे। साल भर तक दादी ने माँ को किसी काम को हाथ नहीं लगाने दिया था। वे बस अपने नन्हें-से शिशु की देखभाल करतीं और आराम करतीं। कितना प्यारा लगता था चंडी.....वे नहला धुलाकर काजल लगाकर पालने में लिटातीं और वह शरारती आँखों पर हथेलियों की मुट्ठियाँ बाँध सारा काजल फैला लेता और मचल-मचल कर पालने में हलचल मचाए रखता। उसे लेटना बिल्कुल पसंद न था। हर वक्त गोद में लिए घुमाते रहो और लोरियाँ गाते रहो।
‘‘मुझे तो बचपन से ही पता चल गया था कि ये गायक बनेगा।’’
‘‘माँ तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है। चाय पीकर तुम आराम करो। भात मैं पका लेती हूँ।’’ मुनमुन ने माँ को जबरदस्ती लिटा दिया और कप उठाकर चौके में चली गई।
माँ आँखें मूँदकर उस जमाने में खो गईं जो अभी-अभी बेसाख्ता याद आने लगा था।
चंडीदास की सभी पेंटिंग्स पूरी हो चुकी थीं। वह नहाकर तैयार होने लगा। कमरा रंग, ब्रश आदि के बिखराव से बेतरतीब नजर आ रहा था। मुनमुन उसके लिए खाना परोस लाई।
‘‘आज मेरी पढ़ाई नहीं होने वाली। उधर माँ के कमर दर्द के कारण चौका सँभालना पड़ा, इधर कमरा बिल्कुल गोदाम बना कर रखा है दादा तुमने।’’
‘‘कलाकारों का घर है। कोई मामूली बात थोड़ी है।’’ चंडीदास ने खाना खाते हुए मुनमुन को चिढ़ाया।
‘‘दादा...तुम भी न!’’ कहती हुई मुनमुन ब्रश, रंग समेटने लगी।
‘‘अच्छा सुनो मुनमुन शाम को मैं जीप भेजूँगा। नन्दलाल आएगा साथ में। ये सारी पेंटिंग्स तब तक सूख जायेंगी। वह ले जाएगा। चाय-वाय पिला देना उसे।’’
‘‘लो.....अब एक ऑर्डर और.....हो गई पढ़ाई की पूरी छुट्टी।’’
चंडीदास ने मुनमुन के सिर पर हलकी-सी चपत लगाई और चला गया। धूप तेज हो गई थी ओर चंडीदास के गीले बाल धूप में चमक रहे थे। तभी अंग्रेज युवकों का एक झुंड सड़क से निकला। हँसता, बतियाता, सड़क पर पड़ी गिट्टियाँ अपने जूते की नोक से उछालता। मुनमुन ने दरवाजा बंद कर लिया।
बहुत तल्ख अनुभव था मुनमुन को इन अंग्रेज युवकों का। जुलाई का महीना था। बादलों से भरा सुहावना मौसम था। मुनमुन अपनी सहपाठिनों के साथ फोर्ट विलियम गेट की सड़क पर बायीं ओर चल रही । सभी बातों में मशगूल थीं कि एक बग्घी सड़क से निकली और अचानक उनकी बातों का क्रम टूट गया। बग्घी में कुछ बंगाली औरतें बैठीं बांग्ला में कुछ कहती हुई चीख-सी रही थीं। मुनमुन ने देखा कि बग्घी के ऊपर तीन-चार अंग्रेज युवक बैठे उन औरतों के साथ अश्लील हरकतें कर रहे थे। औरतें चीखकर इस ओर राहगीरों का ध्यान आकर्षित कर रही थीं पर किसी की हिम्मत न थी कि वो इन युवकों को रोके। मुनमुन के तन-बदन में आग लग गई। उनकी सहपाठिनों के साथ गुपचुप मंत्रणा हुई और फिर बिजली की फुर्ती से उन्होंने किनारे पड़े पत्थरों को उठा-उठाकर युवकों पर फेंकना शुरू किया। कुछ पत्थर लगते कुछ चूक जाते। बग्घी वाले ने बग्घी चलाना रोक दिया था और खुद भी उन्हें मारने में इन लड़कियों की सहायता करने लगा था। तभी एक पुलिस जीप वहाँ से गुजरी। पुलिस ऑफीसर भला व्यक्ति था। अंग्रेज होते हुए भी उसने इन लड़कियों की तरफदारी करते हुए चारों गुण्डों को गिरफ्तार कर लिया और सभी औरतों को अपनी जीप में बैठाकर उनके गंतव्य तक पहुँचाया। मुनमुन जानती थी थोड़ी ही देर में पुलिस उन गुण्डों को छोड़ देगी और यह भी जानती थी कि अंग्रेजों जैसी चालाक कौम दूसरी नहीं....क्रांति की लपटों ने अंग्रेजी शासन की नींव जला डाली थी और इसीलिए डूबती आस लिए अंग्रेजों के कारिन्दे यह जताने की कोशिश में रहते हैं कि वे कानून और न्याय के कितने पक्षधर हैं।
यह आग कोई मामूली आग नहीं है.... इस आग के कुंड से उठी लपटों ने अंग्रेजों के शासन की हरी-भरी घास सुखा डाली है और अब घास का हर सिरा भड़कता हुआ एक बड़े दावानल में तब्दील होता जा रहा है। इस दावानल की एक झलक गुनगुन के स्टेज शो में भी दिखाई दी। सरस्वती पूजा के दिन कॉलेज में बड़ा भव्य कार्यक्रम हुआ था। गुनगुन की मंडली ने प्रतिस्पर्धा जीत ली थी। इतने दिनों की मेहनत रंग लाई थी। इस नाटक की नायिका गुनगुन थी और नायक सुकांत घोषाल। नाटक के बाद मंडली कैंटीन में आ जुटी।
‘‘गुनगुन तुमने तो कमाल कर दिया।’’
‘‘नहीं, कमाल तो अब होगा सुकांत.... अब हमारी भूमिका ज्यादा जटिल है।’’ गुनगुन की आँखों में आजादी के सपने तैर रहे थे। वह सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर अपने बदन का बूँद-बूँद खून निचोड़ने को तैयार थी।
‘‘चलो तुम्हें घर छोड़ दूँ। आज की रात जमकर सोना।’’
‘‘क्या तुम्हें नींद आएगी सुकांत?’’
गुनगुन के इस प्रश्न पर सुकांत अचकचा गया था। कभी-कभी गुनगुन जमाने भर की चिंता ले बैठती है। जैसे सारी की सारी जिम्मेवारी उसी ने ओढ़ रखी है। उसकी इसी अदा पर तो मर मिटा है सुकांत.....पर गुनगुन अनजान बनी हुई है। उसकी आँखों में सुकांत को अकसर एक ज्वालामुखी नजर आता है। वह जानता है गुनगुन की सोच एक दिशा में सिमट कर रह गई है। यह दिशा जिधर रास्ते खोलती है उधर न जीने की चाह है, न मरने की इच्छा। हवा में दो शब्द भर तैरते हैं ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’....अपने लिए सोचने का वक्त ही कहाँ रह जाता है।
झाड़ियों में उलझे हँसिया-से पंचमी के चाँद की फीकी चाँदनी घायल-सी नजर आ रही थी। सुकांत ने गुनगुन के घर की ओर मुड़ने वाली गली पर साइकिल रोक दी। पीछे बैठी गुनगुन जिसके दोनों हाथ गफलत में सुकांत की कमर से रास्ते भर लिपटे रहे थे खुले और वह साईकिल से नीचे उतरी। अनायास ही सुकांत ने उसके कपोलों को चूम लिया। गुनगुन ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। बड़ी खामोशी से दोनों एक-दूसरे से जुदा हुए। गुनगुन गली में लोप हो गई। सुकांत सड़क की चढ़ाई पर साईकिल ढोने लगा।
दो दिन बाद चंडीदास की नृत्य-नाटिका और चित्रों की प्रदर्शनी एक बड़े सांस्कृतिक जलसों के हॉल में आयोजित होगी। इस बीच डायना शांतिनिकेतन हो आए तो अच्छा है।
पारो बाजार से तरह-तरह का गुड़ खरीद कर लाई थी। और बाग बाजार से नवीनचन्द्र सरकार की ऐतिहासिक रसगुल्लों की दुकान से रसगुल्ले भी खरीद लाई थी। आते ही वह डायना के सामने झोला फैलाकर बैठ गई।
‘‘यह देखिए मेमसाहब खजूरे पाटाली गुड़, ताल पाटाली गुड़।’’
‘‘ये तो गुड़ है, दो अलग-अलग पैकिटों में इतना क्यों ले आई पारो।’’
‘‘वही तो....ये कोई मामूली गुड़ थोड़े ही है। ये खजूर से बना गुड़ है, ये ताड़ से बना गुड़ है, ये गन्ने से बना गुड़ है और ये है काशुंदी।’’
उसने एक बोतल में रखे हुए द्रव्य की ओर इशारा किया। ‘‘ये सरसों के दाने के रस से तैयार होता है। हम बंगाली लोग इसे माछझोल और भात में मिलाकर खाते हैं।’’
डायना पारो के कहने के ढंग से खिलखिला पड़ी-‘‘ए पारो दादी अम्मा..........कल सुबह-सुबह ही शांतिनिकेतन चलना है। हम बाहर का कुछ नहीं खायेंगे। बनाकर ले चलना।’’
‘‘माछझोल और भात बना लूँ? कांशुदी मिलाकर खाना मेमसाहब, मजा आ जाएगा।’’ कहती हुई पारो सामान समेटने लगी।
भोर के झुटपुटे में ही डायना पारो और बोनोमाली के साथ जीप पर शांतिनिकेतन रवाना हो गई। शाम से वह चंडीदास को फोन लगाने की कोशिश कर रही थी पर आखिरकार बात नहीं हो पाई। वैसे अपने शांतिनिकेतन और फिर केंदुली गाँव जाने के कार्यक्रम की सूचना वह पहले ही दे चुकी थी उसे।
जीप फर्राटे से सड़क पर दौड़ने लगी। ‘‘पहले केंदुली चलेंगे।’’ डायना ने ड्राइवर से कहा।
‘‘‘जी...’’
कुछ ही घंटों में वे केंदुली पहुँच गए। डायना चमत्कृत-सी जीप से उतरी। जयदेव का काव्यमय प्रेम संसार उसके सामने था। किताब के पन्ने उसकी आँखों के आगे फड़फड़ा उठे और शब्द हवा में तैरने लगे। हर शब्द एक राग बनकर उसके कानों में झंकृत हो उठा। वह तेज-तेज चलने लगी। बावली -सी इस गली से उस गली.....इस मोड़ से उस मोड़, इस पेड़ से उस पेड़.....जैसे बावरी राधा अपने कन्हाई को खोज रही है। पलकें झपकाते हुए वह जयदेव को ढूँढने लगी.....उस घर को....घर की उस कुठरिया को जहाँ बैठकर उन्होंने गीतगोविन्द लिखा।
सामने कोपाई नदी बह रही थी। वह यंत्रचालित-सी कोपाई के तट पर बैठ गई। श्यामल लहरें कोमलता से बह रही थीं। मछुआरों के कुछ बच्चे नंगधडंग पानी में छलाँगे लगा रहे थे। आम के पेड़ के नीचे बैठी एक औरत टोकरी में उबले चने भरे बेच रही थी। डायना दूर-दूर बहती नदी के संग जैसे खुद भी बहने लगी। इसी तट पर जयदेव भी बैठे होंगे। इसी तट पर बैठकर उन्होंने नदी की चंचल उर्मियों का संगीत भरा आह्वान किया होगा। कितनी तड़प महसूस की होगी उन्होंने राधा के लिए तभी तो ऐसी अद्भुत रचना लिख पाए वे। डायना ऐसी खोई कि समय का एहसास ही नहीं रहा। डूबते सूरज की किरणों ने जब उन उर्मियों को सतरंगी जामा पहना दिया और जब आसमान पर अपने घोंसलों में लौटते परिंदों की कतारें गहराने लगीं तो पारों ने नजदीक आकर कहा-‘‘मेमसाहब.....वापस चलें?’’
उस दिन शांतिनिकेतन जाना नहीं हो पाया।
निमंत्रण-पत्र देने से दस मिनट का समय निकालकर चंडीदास खुद आया। बीस दिन की जुदाई बीस सदियों-सी गुजरी थी। डायना उमगकर चंडीदास के सीने में समा गई। चंडीदास ने उसे चूमते हुए कहा-‘‘राधे... कल मेरे इतने दिनों की मेहनत का इम्तिहान है। तुम समय पर आ जाना.... दिखाओं तो अपनी पोशाकें। मैं सिलेक्ट करूँगा कि कौन-सी पहननी है तुम्हें कल।’’
वह डायना के साथ उसके कमरे में आ गया। मंत्रमुग्ध-सी डायना ने अलमारी खोल दी। भूरे काले रंगों की शानदार पोशाक पर उसने हाथ रखा-‘‘इसे पहनना।’’
डायना ने उसके गले में बाहें डाल उसके होठों पर अपने होठ रख दिए......कमरे का सन्नाटा सजीव हो उठा..... ‘‘चंडी.....मेरे किसना.....तुम कितने अच्छे हो।’’
‘‘बस... बस राधे... आज सम्मोहित मत करो। अब मैं चलता हूँ। आज ड्रेस रिहर्सल है।’’
डायना ने उसे मोटर से जाने को कहा पर वह साईकिल से आया था। साईकिल सरपट दौड़ाते हुए वह स्कूल पहुँचा।
हॉल में मद्धिम प्रकाश था और पृष्ठभूमि में रवीन्द्र संगीत बज रहा था। आगे की कुसिर्यों में कुछ अंग्रेज अफसर बैठे थे। डायना को भी वहीं बैठाया गया। धीरे-धीरे परदे के पीछे से हुई घोषणा के बाद परदा उठा और नृत्य नाटिका आरंभ हुई। चंडीदास की गायकी ने हॉल में बैठे दर्शकों को मुग्ध कर लिया था। नृत्य नाटिका क्या थी डायना और चंडीदास की इतने दिनों की जुदाई का सबूत थी। नेपथ्य से गूँजती चंडीदास की आवाज डायना के इर्द-गिर्द लिपट रही थी। लिपटते-लिपटते उसने विशाल रूप धारण कर लिया और सारे संसार को अपने में समेट लिया....नदी, नाले, समंदर, झरने, पर्वत, हरे-भरे मैदान....चाँद तारे और आकाशगंगा....और फिर वह विशालता एक धुँध बन डायना में समाने लगी.... और फिर गायब हो गई। परदा गिर चुका था। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच चंडीदास मंच की सीढ़ियाँ उतर डायना के पास आया। सफेद कुरता पायजामा और काली बंडी में वह बहुत खूबसूरत दिख रहा था।
‘‘ब्यूटिफुल, बहुत सुन्दर गाया तुमने और नाटिका भी बेहतरीन थी और तुम तो आज गजब ढा रहे हो।’’
चंडीदास ने उसे हाथ पकड़कर उठाया और हॉल का प्रकाश धीरे-धीरे तेज होता गया। अभी तक जो कुछ अदृश्य था सब दृश्य हो उठा।
‘‘वैसे तो प्रदर्शनी हफ्ता भर चलेगी पर उद्घाटन आज है। चलोगी न?’’
‘‘हाँ... क्यों नहीं। उद्घाटन कौन कर रहा है?’’
‘‘तुम्हारी ही बिरादरी के हैं। शिमला से आए हैं प्रोफेसर ऑल्टर।’’
किसी ने डायना के हाथ में कॉफी का मग लाकर थमा दिया। चंडीदास हँसा।
‘‘दोस्त है मेरा नन्दलाल। चित्रकार है।’’
कॉफी खत्म कर डायना अकेली ही मोटर से आर्ट गैलरी आई क्योंकि चंडीदास बाकी तैयारियों में मुब्तिला था।
उद्घाटन के बाद प्रोफेसर ऑल्टर की नजर डायना पर पड़ी और वे चौंक पड़े-‘‘ओह... मिसेज ब्लेयर....क्या इत्तेफाक है? क्या टॉम यहाँ हैं?’’
डायना भी ऑल्टर को देखकर चौंकी.....लंदन में ऑल्टर का परिवार उसका पड़ोसी था। गैलरी में चलते हुए ऑल्टर डायना से ही मुखातिब रहे। चंडीदास दूर से देखता रहा। तसल्ली भी थी कि अब डायना तनहाई महसूस नहीं कर रही होगी.....लेकिन जब डायना की नजरें पेंटिंग्ज पर पड़ीं और ऑल्टर ने ताज्जुब से कहा...ये सारे चेहरे आपसे हूबहू मिलते हैं मिसेज ब्लेयर... ओह, आज तो इत्तिफाकों की झड़ी लग गई.....तो डायना चकरा गई। चंडीदास ने डायना की आकृति में हिन्दुस्तान रच दिया था.... कहीं लहँगा दुपट्टा पहने, कहीं बंगाली साड़ी, कहीं सलवार कुरता, कहीं कश्मीरी फ़िरन, कहीं सीधे पल्ले में सिर ढका हुआ..... यह क्या कर डाला चंडी ने? यह आर्ट गैलरी में चप्पे-चप्पे में मौजूद डायना...उसने तमाम भीड़ पर एक सरसरी नजर डाली और प्रोफेसर ऑल्टर से क्षमा मांगते हुए मोटर में आ बैठी। चंडीदास भागता हुआ आया.....‘‘डायना क्या हुआ....मेरी बहनों से, माँ बाबा से नहीं मिलोगी? बस, आने ही वाले हैं वे।’’
‘‘बस...अब जाऊँगी चंडी... नहीं, कुछ मत पूछो... तुमने मुझे लेकर जो चित्रों का संसार रचा है... सच मानो चंडी... इतना प्यार में सँभाल नहीं पा रही हूँ। इस वक्त जाने दो प्लीज...’’
बंगले की ओर लौटते हुए डायना को एक नई सोच की अनुभूति हुई..... बल्कि नए ज्ञान की कि महारास खेलते हुए हर गोपिका के बाजू में कृष्ण थे... हर गोपी यही समझती थी कि कृष्ण केवल उसके हैं... प्रेम का यह निराला समीकरण आज चंडीदास ने उसे दिखा दिया।
2
चंडीदास का मकान उस इलाके में था जहाँ ज्यादातर अपने वेतन पर जीविका चलाने वाले परिवार रहते थे। लगभग सभी के किराए के मकान थे। कई मकान खस्ताहाल हो चुके थे। चंडीदास के घर में दीमक लग गई थी। दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों, चौखटों से बुरादा झरता रहता। बाबा फिक्रमंद थे पर मकान बदलकर दूसरा मकान लेना उनके बस की बात न थी। उनकी नाममात्र की पेंशन और चंडीदास के वेतन से मुश्किल से घर खिंच पाता। मुनमुन, गुनगुन की पढ़ाई का खर्च चंडीदास ट्यूशनों से पूरा करता। हालाँकि नन्दलाल के साथ मिलकर चित्रकला और संगीत की क्लासेज खोलने की उसकी योजना अरसे से चल रही थी पर जगह का टोटा था। कई बार सोचा इस बात का जिक्र डायना से करे पर अब रिश्ते गुरू-शिष्य के तो रहे नहीं.....अब वे प्रेम के जिस समंदर में आकंठ डूब चुके हैं उसमें अपनी दीनता दिखाना चंडीदास को अपमान लगता है।
चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन शिमला के जिन प्रोफेसर ऑल्टर ने किया था वे चंडीदास की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दो पेंटिंग ऊँचे दामों में खरीद लीं। एक में डायना मणिपुरी पोशाक में थी, दूसरी में बाघा जतिन का कद्दावर शरीर बाघ को चाकू भोंक रहा था। बाघा जतिन के व्यक्तित्व ने ऑल्टर को मोह लिया था और वे इस बहादुर पुरुष के जीवन की सम्पूर्ण जानकारी पाने कलकत्ता आए। चंडीदास से मुलाकात की और चंडीदास के साथ ही डायना के घर गए। दोनों को साथ देखकर डायना विस्मय से भर उठी.... चंडीदास ने ही सारी बात विस्तार से बताई।
‘‘प्रोफेसर साहब आप शांतिनिकेतन जाइए। विश्वभारती से जुड़िए, किसी भी जानकारी के लिए आपको इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।’’ चंडीदास ने कहा तो डायना ने भी जोशीले स्वर में इसका समर्थन करते हुए कहा-‘‘अद्भुत साहित्य है.....बांग्ला साहित्य...एक से बढ़कर एक लेखक, कवि, इतिहासकार.....ऐसा लगता है जैसे सारा कुछ पढ़ने के लिए हमारी जिन्दगी बहुत छोटी है।’’
‘‘लगता है आप काफी अध्ययन कर चुकी हैं।’’
‘‘हाँ मैंने जयदेव, बंकिमचंद्र, शरतचंद्र, टैगोर पढ़ लिए हैं और अब बंगाल के कवियों को पढूँगी।’’ डायना ने चाव से कहा।
बोनोमाली कॉफी और नमकीन, मिठाई आदि लाकर रख गया था। प्रो. ऑल्टर को बंगाली मिठाईयाँ बहुत पसंद आई थीं। उन्होंने बिना झिझक एक रसगुल्ला उठाकर मुँह में रख लिया।
‘‘बंगाली मिष्टी प्रेमी होते हैं।’’ चंडीदास ने उन्हें झिझकने की मोहलत ही नहीं दी और एक रसगुल्ला खुद भी मुँह में रख लिया।
‘‘बहुत जबरदस्त कलाप्रेमी भी, आप चित्रकारी की क्लासेज क्यों नहीं चलाते? हर कलाकार को अपनी कला ज्यादा से ज्यादा लोगों में बाँटनी चाहिए वरना उसकी कला उसी के साथ दफन हो जाती है।’’
प्रो. ऑल्टर ने तो चंडीदास के मुँह की बात छीन ली थी। उसकी पलकें अपने इस स्वप्न के दरवाजे खुलते महसूस कर अनझिप-सी हो गईं।
‘‘वाह, यह तो बहुत अच्छा आइडिया है। इस काम को कर ही डालना चाहिए।’’ डायना ने रोमांचित होते हुए कहा।
‘‘यह तो मैं कब से सोच रहा हूँ.....जगह की तलाश है।’’
‘‘तो जगह मिली समझिए चंडीदास.....’’
‘‘सेनगुप्ता.....‘‘चंडीदास ने ऑल्टर के अधूरे वाक्य को पूरा किया।
‘‘देखिए सेनगुप्ताजी.....यहाँ कैमेक स्ट्रीट पर एक कमरे में मेरे एक परिचित मूर्तिकला सिखाते हैं। वे हफ्ते में तीन दिन ही क्लासेज लेते हैं बाकी के चार दिन आप लीजिए।’’
‘‘उन्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’
‘‘इसमें एतराज कैसा? जगह तो किराए की है। आधा आप देना आधा वो देंगे। दोनों के खर्चें में बचत होगी।’’
ऑल्टर के प्रस्ताव को इंकार करने का सवाल ही नहीं था। डायना ने कॉफी के दूसरे दौर से इस शुरूआत को चियर्स किया।
चंडीदास जब ऑल्टर के साथ बंगले से बाहर निकला तो उसे लगा कि कोई भी मुलाकात, कोई भी घटना बिना ईश्वर की मर्जी के नहीं होती। ऑल्टर से अपनी प्रदर्शनी का उद्घाटन उसके स्वप्न को साकार करेगा, इसमें भी तो ईश्वर की ही मर्जी है। लिहाजा देर रात तक नन्दलाल के साथ बैठकर क्लासेज की योजना बनने लगी। अपनी योजना के सभी मुद्दे दोनों ने डायना से भी डिस्कस किए। प्रबंधन की योग्यता डायना में जन्मजात थी क्योंकि उसके पिता एक सफल बिज़नेसमेन थे। डायना ने कागज पर सारा प्रोजेक्ट तैयार करके चंडीदास को दे दिया। चंडीदास ने पेम्फ्लेट्स छपवाए.....क्लासेज का नाम रखा....‘‘संगीत चित्रकला अकादमी’, और पेम्फ्लेट की एक-एक प्रति अंग्रेजी, बंगाली के दैनिक अखबारों में रखवाकर घर-घर बाँटी। डायना के बंगले के संगीत कक्ष में चंडीदास और डायना की जो बैठकें होती थी उनमें एक विषय और आ जुड़ा......दोनों प्रतीक्षारत थे... क्या उनकी मेहनत रंग लाएगी? क्या छात्र जुटेंगे? डायना बड़े दिलचस्प और रोमांचक दौर से गुजर रही थी। बंगले का माहौल ही बदल गया था। तनहा, उबाऊ, मुश्किल से कटने वाले दिन डायना को छोटे लग रहे थे। दिन जल्दी से गुजर जाते हैं..... जल्दी से शाम हो जाती है। यूँ चंडीदास आता है, यूँ चला जाता है और वक्त हो जाता है टॉम के घर लौटने का।
घर लौटते ही टॉम तैयार होकर क्लब चला जाता है। उसकी जिद्द रहती है डायना भी साथ जाए। पर डायना कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती है। क्लब में जो मनोरंजन के साधन अपनाए जाते हैं डायना को उनमें जरा भी दिलचस्पी नहीं.... ताश, टेबिल, टेनिस, ब्रिज, रमी, बिलियडर्स, कैरम... इनके साथ सिगरेट का धुआँ, शराब की बदबू और हिन्दुस्तानियों के लिए अपमानजनक कहकहे, तीखे कटाक्ष से उसे सख्त नफरत है। हाँ, खेलों में उसे बैडमिंटन पसंद है जो वह अपने ही बगीचे में अपनी मुसलमान सहेली नादिरा के साथ खेलती है। नादिरा नई-नई उसके पड़ोस में आई है। उसके पति अंग्रेजों के वफादार पुलिस कमिश्नर हैं। नादिरा आकर्षक चेहरे की, औसत कदकाठी की मृदुभाषी महिला है और डायना को ताज्जुब है कि छुट्टी के दिन जो टॉम अक्सर घुड़सवारी करता जंगलों की ओर निकल जाता था अब घर में टिकने लगा है और घर आई नादिरा से खुलकर बतियाता है। पर इस बार उसे लगभग बीस दिन के टूर पर दार्जिलिंग जाना है और यह सूचना नादिरा को देते हुए उसने कहा कि वह उसे दार्जिलिंग में मिस करेगा और डायना ने साफ देखा कि इस बात से वह शरमा गई थी।
अकादमी का उद्घाटन मार्च की पंद्रह तारीख तय हुआ क्योंकि कक्षाएँ शुरू करने का वक्त आ चुका था और सात विद्यार्थियों ने प्रवेश ले लिया था।
‘‘अच्छी संख्या है यह.....शुभ संख्या...’’ चंडीदास ने डायना को बताया-
‘‘सुबह नौ बजे वास्तु पूजा का मुहूर्त निकला है।’’
‘‘लेकिन मिस्टर ऑल्टर की जिद्द है कि मैं और टॉम इस महीने शिमला घूमने आयें।’’ डायना ने कहा।
‘‘हाँ तो हो आओ न.....आज तो सत्ताइस तारीख है। लौट आना तब तक।’’
‘‘नहीं जा सकते न। टॉम दार्जिलिंग जा रहा है कल ही और यह बात जब मैंने मिस्टर ऑल्टर को बताई तो कहने लगे कि ठीक है... आप सेनगुप्ता के साथ आ जाइए। हमने यहाँ आपके स्वागत के प्लान बना लिए हैं।’’
‘‘मुझे क्या एतराज हो सकता है। स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ेगी। ट्यूशन के गैप तो मैं आकर पूरे कर लूँगा। वैसे भी संगीत के मेरे टयूशंस ही हैं। सब परीक्षा की तैयारी में जुटे हैं।’’ चंडीदास ने कंधे से लटकाने वाले शांतिनिकेतनी बैग में अकादमी से सम्बन्धित कागज-पत्तर रखे जिनके प्लान डायना ने बनाए थे।
डायना ने सीधे चंडीदास की आँखों में झाँका-‘‘तुम कहीं प्यार करना भूल तो नहीं गए? कितने व्यस्त हो गए हो तुम?’’
चंडीदास ने डायना की पसीजती हथेलियाँ अपने हाथों में लीं। जैसे गुलाबी आभा वाले कमल की पंखुड़ी पर से अभी-अभी बूँदें फिसली हों.....उन हथेलियों को अपने रूमाल से पोंछते हुए चंडीदास ने कहा-‘‘यह सब प्यार ही तो है। मेरी व्यस्तता तुम्हें समर्पित है.....वरना मेरे जीवन में था ही क्या? एक बँधा-बँधाया रूटीन...ऊब, घुटन से भरे बोझिल दिन। राधे तुमने मुझे प्यार करना सिखाया, व्यस्त रहना सिखाया। तुमने मेरी जिन्दगी में रोमांच भरा, चुनौती भरी.....अब जो मैं हूँ वो तुमसे सृजित हूँ......तुमसे गढ़ा गया। तुम मेरी शिल्पकार हो।’’
‘‘और तुम मेरे शिल्पकार... मेरा भी तुम जैसा हाल था। अब मेरे पास वक्त की कमी पड़ रही है, जीवन छोटा पड़ रहा है। इतना कुछ सीखना है.....इतना कुछ समझना है कि.....’’
एक सौंधी-सी महक दोनों की साँसों में समा गईं। जैसे तपती जमीन पर बादल की बूँदों के छींटे। बाहर माली टयूब से क्यारियाँ सींच रहा था। पानी की फुहारें जब मँझोले कद के पेड़ों के पत्ते, शाखें नहलातीं तो गोरैया चिड़ियों का झुंड चहचहाता हुआ उड़कर दूसरे पेड़ पर बैठ जाता। चंडीदास ने उठते हुए डायना की हथेली चूमी। डायना ने उसके सिर के नजदीक... बिलकुल कान के पास फुसफुसाकर कहा-‘‘हम शिमला चलेंगे। परसों ही।’’ और उसके माथे पर उड़ते बालों को पीछे की ओर सँवार दिया।
गुनगुन पर तो इस बात का कुछ असर नहीं हो रहा था पर मुनमुन कुढ़ी जा रही थी-‘‘दादा, आप शिमला जा रहे हैं.....वो भी अंग्रेजी रुतबे में.....दादा....यू आर सो लकी।’
‘‘जलन हो रही है न?’’ चंडीदास ने उसे छेड़ा।
‘‘मुझे क्यों जलन होने लगी.....बल्कि तुम ही फूले नहीं समा रहे हो? देखो.....देखो....कैसे खिले पड़ रहे हो।’’ कहती मुनमुन खिलखिला कर हँस पड़ी।
माँ ने एक अटैची में शॉल, स्वेटर, कनटोपा, दस्ताने सब रख दिए-‘‘अब कोट का क्या करूँ......उधर तो इस वक्त खूब ठंड पड़ती है।’’
‘‘तुम चिन्ता मत करो माँ...कोट का प्रबन्ध नन्दलाल कर रहा है। उसके जीजाजी का कोट मुझे फिट भी आएगा क्योंकि हम दोनों की कद काठी एक जैसी है।’’
चंडीदास ने माँ की चिन्ता दूर करते हुए अपने मन में सोचे कामों पर सही का निशान लगाना शुरू किया। टयूशन में तो बताने की जरूरत नहीं है। वैसे भी अब वे लोग अप्रैल में ही टयूशन लेंगे। स्कूल में एप्लीकेशन दे दी है। इस साल की पूरी सिक लीव बाकी है। अतिरिक्त छुट्टियाँ नहीं लेनी पड़ेंगी। पंद्रह दिन की ही तो बात है। फिर चंडीदास ने तारीखों का हिसाब लगाया तो बस दस दिन ही मिलते हैं शिमला के लिए क्योंकि हर हालत में बारह मार्च तक लौट आना है।
डायना ने जीप भेज दी थी चंडीदास को लिवाने। ड्राइवर सामान रख रहा था। सामान क्या, एक अटैची और डलिया।
‘‘इस डलिया में क्या रख दिया माँ।’’ चंडीदास ज्यादा सामान ले जाना पसंद नहीं करता और माँ हैं कि...तभी बाबा की आवाज आई....‘‘मुनमुन...मिठाई रख दी?’’
चंडीदास ने बाबा के पैर छुए।
‘‘सब रख दिया है बाबा.....ठंड के हिसाब से अदरक की बर्फी और मिठाई भी।’’
‘‘मिठाई-विठाई मैं नहीं ले जाता।’’
बाबा ने आँखें तरेरी-‘‘रख लो.....तुम महाशिवरात्रि पर यहाँ नहीं हो इसीलिए... दो दिन बाद ही है शिवरात्रि...उपवास तो क्या रखोगे यात्रा पर, रखना भी मत।’’
देर हो रही थी। चंडीदास सबसे विदा ले जीप में आ बैठा। चंडीदास ने स्टार्ट होती जीप के शोर के बीच बाबा के पीछे खड़ी गुनगुन को देखा.....उसकी आँखों में सूरज-सी कौंध थी.....सब कुछ जला कर रख देने की लपट....ऐसा क्यों लगा चंडीदास को.....वह रास्ते भर सोचता रहा।
गुनगुन की आँखों का सूरज सात घोड़ों पर सवार भाग रहा था बगटुट....न वह उदय होना जानता था न अस्त होना। आजाद हिन्द फौज की सिपाही गुनगुन और सुकांत घोषाल अपने दिन पर दिन बड़े होते समूह के साथ भविष्य की योजनाओं में व्यस्त थे। कुछ योजनाएँ अंजाम पर भी पहुंच चुकी थी। और गुनगुन को खुशी थी कि उन योजनाओं को अंजाम देने में उसका बड़ा हाथ था। कॉलेज की कैंटीन में बैठे सुकांत और गुनगुन अपनी कामयाबी का जश्न एक प्लेट भजिया और चाय के साथ मना रहे थे कि तभी उनके पास अंग्रेज युवक डेव फ्रेंकलिन आया-‘‘हलो एवरीबडी....’’
‘‘हाय...बैठो।’’ कहते हुए सुकांत ने भजिया की प्लेट उसके सामने सरकाई।
‘‘नो थैक्स.....मेरा नाम डेव है, डेव फ्रेंकलिन।’’
‘‘हम जानते हैं।’’ सुकांत और गुनगुन ने एक साथ कहा।
‘‘अच्छा... और डेव हँस पड़ा-तब तो आप दोनों ये भी जानते होंगे कि मैं पूरे एक महीने बीमार रहा और कल से कॉलेज आना शुरू किया है और अगले महीने से एग्जाम हैं।’’
‘‘हाँ....तो।’’ सुकांत ने चाय की घूँट भरी- ‘‘बताईए डेव साहब हम आपकी क्या मदद करें?’’
गुनगुन जानती थी कि सुकांत अंग्रेजों से चिढ़ता है। बात उसी ने सँभाली ताकि सुकांत के कथन की तल्खी डेव महसूस न करें।
‘‘डेव.....नोट्स चाहिए होंगे न तुम्हें?’’ गुनगुन ने सीधे डेव की आँखों में झाँका-‘‘मिल जाएँगे, पर एक शर्त पर’’
‘‘शर्त?’’ डेव चौंका।
‘‘हाँ....शर्त.....अँदर एक हफ्ते के वो नोट्स तुम हमें लौटा देना।’’ और जोरों से हँस पड़ी गुनगुन.....‘‘कल नोट्स मिल जायेंगे न।’’
‘‘हाँ.....लेकिन कॉलेज के बाद।’’
‘‘ओ के... तो अब मैं चलता हूँ... आप लोग नहीं चल रहे? आज कॉलेज ग्राउंड पर फुटबॉल मैच है।’’ डेव ने उठते हुए कहा।
‘‘नहीं... हम नहीं चल रहे। हमें फुटबॉल में कोई इंटरेस्ट नहीं।’’ सुकांत ने डेव को घूरा तो टेबिल के नीचे से गुनगुन ने सुकांत के पैर को अपने पैर से छुआ और इशारे से उसे मना भी किया। उसके जाते ही सुकांत ने उसकी नकल की.....‘‘आप लोग नहीं चल रहे? ईडियट....’’
‘‘सुकांत...क्यों इतना चिढ़ते हो, नफरत करते हो इन लोगों से। हो सकता है ये भी हमारी तरह बेकसूर हों। हम भी तो बेकसूर हैं फिर भी इनके द्वारा शोषित किए जा रहे हैं। ईस्ट इंडिया कम्पनी यहाँ शासन करती है तो क्यों...भारत के शासकों की कमजोरी, आपसी दगाबाजी और उनके अपने स्वार्थ के बल पर ही न। क्यों यहाँ व्यापार करने के लिए पैर जमाने दिए अग्रेजों को और क्यों यहाँ के बादशाहों, नवाबों की आपसी गृहकलह का फायदा उठाने दिया अंग्रेजों को। पहले अपनी गलती देखो सुकांत। जिन्हें पॉवर मिली है वे तो शक्ति का प्रदर्शन करेंगे ही।’’
जब तक गुनगुन बोलती रही सुकांत चुपचाप प्लेट में बची एक भजिया को चुटकी-चुटकी तोड़कर टूँगता रहा और जब वह चुप हुई तो उसने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए।
‘‘गुनगुन.....तुम सचमुच महान हो...तुम्हारी सोच महान है... आज मैं कुछ निवेदन करुँ तो उसे परिस्थितिवश हुआ न समझना, गुनगुन, मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूँ और तुम्हें अपना जीवन साथी बनाना चाहता हूँ। बोलो, बनोगी मेरी संगिनी।’’ गुनगुन को लगा उसकी आँखों के आगे चकाचौंध करने वाली बहुत सारी बत्तियाँ जल उठी हैं। रोशनी के हँडे लिए सजे-धजे आदमी सड़क पर भागे जा रहे हैं। एक काली घोड़ी हिनहिना कर उस पर सवारी करते सुकांत को जो सेहरा बाँधे है, पटक देने की कोशिश कर रही है....और बजते-बजते अचानक शहनाईयों की धुन मातम में बदल गई है। घबराकर गुनगुन ने अपना हाथ छुड़ाया ‘‘सुकांत....हमारे रास्ते कुरबानी चाहते हैं और कुरबानी देने वाले घर नहीं बसाया करते।’’
सहसा सुकांत की आवाज भीग गई- ‘‘मैं कहाँ घर बसाने को कह रहा हूँ। साथ-साथ कुरबान होने की बात कह रहा हूँ। और जब देश के लिए कुरबान होऊँ तो मेरी नजरों के सामने तुम रहो...मैं तुम्हें देखते हुए ये दुनिया छोड़ना चाहता हूँ।’’ और रो पड़ी गुनगुन। टेबिल पर सुकांत के दोनों हाथ एक के ऊपर एक थे.....हाथों पर गुनगुन का माथा। उबलते आँसुओं ने उस शाम एक-दूसरे का वरण कर लिया। दूर.....बहुत दूर से आरती के घंटे दोनों को सुनाई देने लगे।
बाहर घर जाने वाली सड़क पर सुकांत की साईकिल पर पीछे बैठी गुनगुन नाजुक लता-सी उससे लिपटी थी। घर के मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो गया। अंधेरे में दोनों ने एक-दूसरे के होठों को चूमकर विदा ली। जब गुनगुन घर के अंदर घुसी तो मुनमुन बेचैनी से उसका इंतजार कर रही थी-‘‘कॉमरेड आया था... कल...54 बाग बाजार में इकट्ठा होना है तुम सबको।’’
पूरा शिमला बर्फ की चादर में गुड़ी-मुड़ी हुए पड़ा था। कल रात से ही बर्फ गिर रही थी और पारा इस मौसम के सबसे कम अंक तक गिर चुका था। लंदनवासी डायना के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। वह आदी थी ऐसे मौसम की पर चंडीदास अपनी जिन्दगी में पहली बार ऐसी बर्फ देख रहा था। उसे ठंड इतनी परेशान नहीं कर रही थी जितना आनंद बर्फ देख कर हो रहा था। प्रो. ऑल्टर खुद आए थे उन्हें लेने। डायना और चंडीदास उन्हें देखते ही जीप से उतरे....‘‘हैलो प्रोफेसर...’’
‘‘वेलकम मिस्टर सेनगुप्ता, मिसेज ब्लेयर... आपके स्वागत में कल रातभर बर्फ गिरी। सुबह से धुँध छँट रही है। रास्तों पर की बर्फ भी हटाई जा रही है।’’
चंडीदास ने देखा घोड़ों पर सवार अंग्रेज भारतीय मजदूरों को हुकुम दे देकर रास्ते साफ करा रहे थे। मजदूरों के हाथ में फावड़ा, कमर झुकी हुई, ठंड के लायक पर्याप्त कपड़े भी नहीं बदन पर.....उसका मन कसैला हो गया। जीप प्रो. ऑल्टर की मोटर के पीछे-पीछे चलने लगी।
शानदार कॉटेज में मौसम के विपरीत काफी गरमाहट थी। प्रोफेसर ऑल्टर आराम से सोफे पर बैठ गए और डायना चेंज के लिए अंदर के कमरे में चली गई। लौटी तो काफी तरोताजा दिख रही थी।
‘‘आप भी फ्रेश हो लें सेनगुप्ता जी फिर एक-एक पेग आपके आगमन की खुशी में। क्या लेंगे?’’
‘‘जी मैं ड्रिंक नहीं करता।’’
ऑल्टर ठठाकर हँस पड़े। इतनी खुली और तेज हँसी कि जैसे लकड़ी से बना कॉटेज खड़खड़ा गया हो-‘‘ड्रिंक नहीं कराएँगे आपको....शरीर में थोड़ी गरमी लाने के लिए रम जरूरी है।’’ चंडीदास हँसता हुआ फ्रेश होने चला गया।
डायना ने सरसरी नजर कॉटेज पर डाली। यह तो पता था कि ऑल्टर की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है। एक बच्ची को जन्म देते समय उसकी अकाल मृत्यु हो गई। साथ में बच्ची की भी। ऑल्टर अब अकेले हैं अपनी जिन्दगी में। इतने साल हो गए पर वे अपनी पत्नी के गम को भुला नहीं पा रहे हैं और यही वजह है कि उन्होंने दूसरी शादी नहीं की।
‘‘ यहाँ कोई अपना नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं.... इसीलिए परदेश में आपको अचानक देखकर लंदन की यादें ताजा हो गईं। जब से आपसे कलकत्ते में मिला हूँ मेरा शिमला में मन नहीं लगता।’’ ऑल्टर के स्वर में उदासी की परतें थीं। एक हटती तो दूसरी उघड़ आती।
‘‘मन तो मेरा भी नहीं लगता था प्रोफेसर, पर मैंने संगीत को अपना साथी बना लिया...अब मैं दुनिया को भूल चुकी हूँ।’’ डायना ने फायर प्लेस की ओर अपना मुँह कर लिया। लपटों की परछाईयाँ उसके कपोलों पर नाच रही थीं। नत्थू डायना के लिए कॉफी बना लाया था और चंडीदास उसके पीछे-पीछे मिठाई का डिब्बा लिए...फ्रेश होकर वह बहुत प्यारा लग रहा था-‘‘ड्रिंक डिनर के वक्त ली जाए तो कैसा रहे? इस वक्त नत्थूजी हमें भी कॉफी पिला दीजिए और आप भी मिठाई खाइए हमारे बंगाल की।’’
चंडीदास की इस सहजता पर सब हँस पड़े-‘‘आज किसका मुँह देखकर उठे थे नत्थूजी।’’ ऑल्टर ने पूछा।
नत्थू ने झट से एक मिठाई का टुकड़ा उठा लिया और शरमाते हुए बोला-‘‘आपका हुजूर।’’ और किचन की ओर भाग गया।
‘‘आपका नौकर बहुत अच्छा है।’’
‘‘इसी के बल पर तो हूँ मैं यहाँ...इतनी सेवा करता है यह मेरी... कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि जब मैं लंदन वापिस लौटूंगा तो कैसे रहूँगा इसके बिना।’’
‘‘इसे भी साथ ले जाना।’’ डायना ने सलाह देते हुए मिठाई का टुकड़ा उठाया-‘‘खाइए प्रोफेसर......’’
बर्फबारी के कारण अंधेरा जल्दी घिर आया था। मौसम विभाग की सूचना थी कि अब मौसम साफ हो जाएगा और घाटियों में वसंत के फूल खिलेंगे। नत्थू लैंप जलाकर रख गया था। किचन से मसाले वाली मटर गोभी की सब्जी पकने की खुशबू आ रही थी। ऑल्टर ने चंडीदास के सामने नत्थू से हारमोनियम मंगवा कर रखा और गाने की फरमाइश की। गायक को क्या चाहिए माहौल और प्रसन्नता......ना-नुकुर की गुंजाइश ही नहीं थी। हारमोनियम पर सरगम साध कर चंडीदास गाने लगा.....‘‘हो पहरे चाँदी के गहनवा मेरी प्यारी धनिया.....प्यारी धनिया हो देखो बाँकी धनिया.....’’
गीत के नशीले बोलों ने समां बाँध दिया। नत्थू काम-धाम छोड़ कर दीवार के सहारे हाथ बाँधे खड़ा हो गया। डायना नशे में डूब ही जाती अगर अपने को न सँभालती। उसके होठ भी चंडीदास का साथ देने को मचल उठे।
‘‘आप भी गाइए न....’’ चंडीदास ने हारमोनियम डायना के सामने कर दिया। वह गाने लगी- ‘‘पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।’’ ‘‘वाह.....आई थिंक मीरा का पद है ये।’’ ऑल्टर ने आनंदमग्न होते हुए कहा। गीत समाप्त हो चुका था, नत्थू गदगद हआ खड़ा था और डायना ऑल्टर के ज्ञान पर चकित थी। मीरा, कबीर सब पढ़े बैठे हैं प्रोफेसर।
ऑल्टर के बहुत आग्रह पर चंडीदास ने और डायना ने एक-एक पैग रम का लिया...लेकिन ऑल्टर पीते रहे। शायद अपना रोज का कोटा तय कर लिया था उन्होंने......चार पाँच पैग पीकर उन्होंने थोड़ा-सा खाना खाया और नशे में धुत अपने कमरे में जाकर सो गए। नत्थू ने दोनों छोटे कमरों में चंडीदास और डायना के बिस्तर लगा दिए।
‘‘अंदर से किवाड़ बंद कर परदे खींच लीजिए मेमसाहब, दरारों से ठंडी हवा घुस जाती है।’’
डायना रजाई में घुस गई। कमरा गर्म था और बिस्तर भी आरामदायक था। चंडीदास और उसके कमरे के बीच एक दरवाजा था जिसे बंद कर नत्थू ने परदा खींच दिया था और इस तरह अपनी प्रबन्ध पटुता दिखाकर लैंप बुझा कर चला गया था। खिड़की के सतरंगी काँच में बाहर की बर्फ पर गिरती चाँद की चाँदनी चमक रही थी। डायना ने उठकर दरवाजे की चिटकनी खोल दी और चंडीदास के कमरे में झाँकते हुए पूछा- ‘‘सो गए चंडी?’’
सवाल के उत्तर में चंडीदास रजाई परे फेंक डायना की तरफ तेजी से आया और उसे बाहों में भरकर फुसफुसाया -‘‘तुम सोई क्या?’’
तभी हिलते परदे ने हवा के तीखेपन का अहसास कराया। दोनों यंत्रचालित से डायना के बिस्तर पर आ गए। रजाई ओढ़ते ही कँटीली हवा जाने कहाँ दुबक गई। कमरे में नीले काँच का नन्हा-सा नाइट लैंप जल रहा था.....वह नन्हा-सा प्रकाश पूर माहौल को अरेबियन नाइट का रहस्य भरा लुक प्रदान कर रहा था। रजाई में ही चंडीदास ने डायना को अपने में समेट लिया। उसके हृदय की धड़कने तेज थीं, होंठ काँप रहे थे।
‘‘डरती हो राधे...
किसलिए?’’
चंडीदास को महसूस हुआ जैसे बावजूद बर्फीली हवाओं के आसपास ही कहीं लपटों का जंगल है और वह उस जंगल की ओर खिंचा चला जा रहा है। नहीं, वह जा कहाँ रहा है लपटें तो उसके आसपास ही हैं। उसने डायना के गुदाज बदन को आलिंगनबद्ध करते हुए अपने होंठ उसके होठों पर टिका दिए। नीले उजास के स्वप्निल दायरे में न जाने कितने चुम्बन कमरे में तैरने लगे। डायना ने नाइटी का रिबन खोल कर अपने को बन्धन मुक्त कर लिया। धीरे-धीरे उसने रजाई भी हटा दी और पलंग से उतरकर खड़ी हो गई।
‘‘लो... चंडी... मेरे किसना... आज मैं तन से भी तुम्हारी हुई। देख लो, भरपूर देख लो अपनी राधे को ताकि मेरा अंग-अंग पहचान सको।’’ चंडीदास का अंग-अंग गुनगुना उठा। प्यार का ऐसा समर्पण? संगमरमर की आवरण रहित तराशी हुई मूर्ति उसके सम्मुख है.....सच, विधाता कितना बड़ा कलाकार है। वह भी उठकर खड़ा हो गया और डायना के एक-एक अंग का स्पर्श कर स्वर्गिक आनंद में डूबता गया। प्रेम का प्रथम स्पर्श, प्रथम उमड़न, प्रथम एहसास.....जिन्दगी का महान सच। औरत के बिना अधूरा है पुरुष, अधूरी है उसकी आत्मा, लेकिन चंडी, वह तो डायना के बिना सम्पूर्ण रूप से अस्तित्वहीन है। डायना है तो वह है। उसने उसे गोद में उठाकर बिस्तर पर लेटा दिया और उसकी नर्म, गुदाज गोलाईयों में अपना मुँह छुपा लिया। डायना ने उसके माथे को चूमा और बुदबुदाई- ‘‘चंडी... मैं मर जाऊँगी।’’
चंडीदास के कान सुन्न थे और हाथ जाग गए थे। वह डायना के शरीर की लपटों में स्वयं को झोंकता चला गया। उसे लगा जैसे वह बेहद स्थूल हो गया है और कमरा उसके शरीर के फैलाव के सामने बेहद छोटा हो गया है। दोनों के शरीर गुँथ-से गए हैं। डायना लपटों-सी काँपने लगी है, पिघलने लगी है...उसने प्रेम के अंतिम ज्वार के समाप्त होते ही तृप्ति की आहें भरते हुए कुछ बुदबुदाया और चंडीदास के सीने में समा गई। चंडीदास को लगा, लपटें बुझ गई हैं और वक्त ठहर-सा गया है। हवाओं का शोर बंद खिड़कियों पर दस्तक देते-देते सहमकर वहीं ठिठक गया। प्रेम के स्पर्श का पहला एहसास चंडीदास के हृदय में अंकित हो गया। वह डायना को बाहों में लिए-लिए सो गया।
नत्थू की किचन में जारी खटर-पटर से दोनों की आँख खुली तो दोनों ही शरमाकर एक-दूसरे से लिपट गए।
‘‘कैसी हो राधे...नींद अच्छी आई?’’ चंडीदास ने उसके बिखरे बालों को सँवारते हुए कहा।
‘‘और तुम्हें चंडी...सच कहना, मुझसे खुशी मिली?’’
‘‘अपार, अद्भुत, तुम्हारा स्पर्श मेरी जिन्दगी को संतुष्टि से भर गया है राधे.....अब और कोई लालसा रही नहीं। अभी तक मैं अधूरा था, आज सम्पूर्ण हुआ। आज मैंने पूरी सृष्टि के दर्शन पा लिए।’’
‘‘देखो, मौसम भी हमारे मिलन से खुश है, धूप खिल आई है।’’
डायना के इशारे पर चंडीदास ने खिड़की के बाहर धूप को चीड़ और देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ को बूँद-बूँद टपकाते देखा। रोशनदान के सतरंगी काँच पर पड़ती धूप ने मानो सतरंगी जामा पहन लिया था...आज चंडीदास और डायना के जीवन में सारे रंग जो बिखर गए थे।
शिमला से सोलह किलोमीटर दूर कुफ्री की राह पर हैं डायना और चंडी। प्रोफेसर ऑल्टर साथ नहीं हैं, उन्हें कुछ जरूरी काम निपटाने थे। नत्थू ने थरमस में कॉफी और बैग में नाश्ते के पैकेट्स रख दिए थे। साथ में हिदायत भी-‘‘कहीं जीप रुकवाकर खा लेना मेमसाहब...कुफ्री पहुँचते दोपहर हो जाएगी।’’
सुनकर अच्छा लगा डायना को। कितने संवेदनशील होते हैं भारतीय और कितने प्रेम भरे। सहसा रात का नशीलापन आँखों में तिर आया...उसने पहलू में बैठे चंडीदास के हाथों में अपना हाथ देते हुए आँखें मूँद ली। ड्राइवर ने जीप स्टार्ट की तो हवा के तेज झौंके ने चंडीदास के बालों को माथे पर बिखरा दिया।
शिमला से कहीं ज्यादा ठिठुरन थी कुफ्री में। सारी घाटियाँ, स्कीइंग की ढलाने, चीड़, देवदार सब कुछ धुँध में डूबा था.....बस हलका-सा आभास भर था उनका। डाक बंगले में प्रवेश करते ही दोनों के स्वागत में हल्का-हल्का संगीत बज उठा....वे सोफे पर बैठे ही थे कि दो पहाड़ी लड़कियाँ.....पहाड़ी वेशभूषा में चाय के प्याले लिए हाजिर हो गईं। लड़कियों ने गले, कान, नाक और कलाईयों में चाँदी के आभूषण पहन रखे थे। दोनों ने झुककर सलाम किया और टेबिल पर चाय की ट्रे रखकर उनके आगे कालीन पर घुटनों के बल बैठ गई। चंडीदास ने एक प्याली डायना को थमाई और दूसरी खुद लेकर चाय का घूंट भरा। इतनी ठंड में चाय भी ठंडी लगी। एक ही घूँट में चाय खतम कर उसने दोनों का नाम पूछा।
‘‘इसका नाम दमयन्ती है।’’ उनमें से एक ने कहा।
‘‘और तुम्हारा?’’
‘‘लाजवन्ती। ये मेरे से छोटी है। हम दोनों इस डाक बंगले के खानसामा पंडित की बेटी हैं....अम्मा हमारी गुजर गईं... भाई फौज में चला गया। मेमसाहब....मालिश कर दूँ?’’
डायना और चंडीदास खिलखिलाकर हँस पड़े। लड़की है या खबरों का पिटारा। डायना घूमने के मूड में थी पर चंडीदास धुँध देखकर पस्त था। दोनों को उठते देख लाजवन्ती फिर चहकी-‘‘साहब....घूम आइए....पर उधर ढलान की तरफ मत जाना.....बहुत गहरी घाटी है। धुँध में पता थोड़ी चलता है। मैं चलूँ साथ में? मुझे सब रास्ते पता हैं।’’
‘‘हाँ चलो।’’ डायना ने ओव्हरकोट पहनते हुए कानों में ऊनी मफलर बाँधकर हैट पहन लिया। चंडीदास भी कोट आदि गरम कपड़ों से लैस था।
‘‘एक मिनट रुको मेमसाहब....मैं बापू से कहकर आती हूँ।’’ कहती हुई वह किचन की ओर भागी और पलक झपकते ही लौट भी आई। पर अकेली ही।
‘‘अरे वह....कहाँ रह गई?’’
‘‘कौन दमयन्ती? वो बापू के संग काम जो कराएगी.....बहुत महीन मसाला पीसती है सिल पर.....आप सब्जी खाएँगे, तब देखना।’’ डायना को लाजवन्ती की चंचलता भा गई। धुँध में प्रवेश करते ही तीनों एक काले आकार में बदल गए जैसे.....ठंड के काँटे जूतों के भीतर चुभ नहीं पा रहे थे। कुछ भी कहने के लिए उन्हें मुँह पर से स्कार्फ हटाना पड़ता। सुनने के लिए कान पास लाना पड़ता। उनके इस करतब पर लाजवन्ती ठठा कर हँस पड़ती। कभी वे ढलान से फिसलने लगते जैसे स्कीइंग कर रहे हों, कभी देवदार और चीड़ के दरख्तों की पींड़ पकड़-पकड़ कर चलते...लाजवन्ती उनकी अजनबीयत पर हँस- हँस कर दोहरी हुई जा रही थी। अचानक देवदार की आड़ में चंडीदास पीछे से आकर डायना से लिपट गया। बर्फीले शिखर पर जैसे सूरज की किरण ने दस्तक दी हो। डायना ने महसूस किया चंडीदास का बदन काँप रहा है। होठ नीले से पड़ने लगे थे-‘‘चंडी, तुम्हें ठंड लग रही है, चलो लौट चलें।’’
और उसकी कमर में बाहें डाले डायना डाक बंगले की ओर चल पड़ी। लाजवन्ती गिलहरी-सी फुदकती आगे-आगे।
कमरे में पंडित ने आतिशदान गरम कर रखा था। कमरा खूब गर्म था। चंडीदास की कँपकँपी अभी भी कम नहीं हो रही थी। डायना ने उसे लिहाफ ओढ़ाकर पलंग पर लेटा दिया और पंडित को रम लाने कहा।
‘‘लगता है साहब को ठंड लग गई है। मैं बूटी घिसकर लाता हूँ।’’ पंडित ने चंडीदास के तलवे रगड़ते हुए कहा।
‘‘बूटी?’’
‘‘हाँ मेमसाहब....बहुत गरम होती है। ठंड में वही काम देती है पहाड़ों पर।’’
और तलवे घिसने का का काम लाजवंती को सौंप वह किचन की तरफ भागा। डायना सोफे पर सिकुड़ी-सी बैठी थी लेकिन चंडीदास की हालत से फिक्रमंद भी थी। थोड़ी ही देर में पंडित प्याले में दवा ले आया और चंडीदास को पिलाकर शांत लेटे रहने की सलाह दी। लाजवन्ती और पंडित के कमरे से बाहर जाते ही डायना ने दरवाजा बंद कर दिया और चंडीदास के सिरहाने बैठकर उसके बाल सहलाने लगी। चंडीदास ठंडी शिला-सा निश्चल लेटा था इतनी अधिक ठंड की उसे आदत नहीं थी। ठंड शरीर के हर पोर में समा गई थी। डायना ने अपने शरीर की आँच में उसे समेट लिया। उसके पहलू में लेटते हुए उसने धीरे-धीरे उसके हर अंग को सहलाना शुरू किया। कुछ बूटी का असर और कुछ डायना के स्पर्श का ताप....चंडीदास ने आँखें खोल दीं।
‘‘कैसे हो चंडी?’’
‘‘अब अच्छा लग रहा है.....ऐसा लग रहा था......नहीं जाने दो।’’
‘‘कहो न.......रूक क्यों गए?’’
‘‘ऐसा लग रहा था राधे जैसे अब चेतना नहीं लौटेगी....जीवन का अंत बड़ी गहराई से महसूस किया मैंने।’’
डायना ने घबराकर उसके होठों पर अपने होठ रख दिए....‘‘ऐसा न कहो चंडी.....मैं मर जाऊँगी। तुम्हारे बिना जीवन कैसा?’’ चंडीदास ने हुलसकर डायना को बाँहों में भर लिया। बाहर कोहरा अब धीरे-धीरे छँट रहा था। लेकिन सूरज नहीं निकला। वह संध्या रानी की पदचाप सुन बड़ी खामोशी से अस्त हो गया। अब अंधेरे की बारी थी....जिसने तमाम घाटी और पहाड़ों को अपने खौफ में लपेटना शुरू कर दिया था। बहुत देर बाद शाम को सात बजे के लगभग कमरे के बाहर चहलकदमी सुन डायना और चंडीदास अलग हुए। डायना ने अपने उघड़े बदन को गरम कपड़ों से लैस किया। चंडीदास ने मुस्कुराते हुए डायना का पुनः चुम्बन लिया और अभी जो उसके शरीर की महक चंडी को आनन्द के चरम में ले गई थी उस महक को लम्बी साँस भर भीतर तक समोते हुए लिहाफ से बाहर कदम निकाले। यह आनन्द...यही तो जीवन का मूल है.....यही तो आत्मा को, शरीर को ऊर्जावान बनाए रखता है। न जाने क्यों इन्सान इस आनन्द को छोड़ युद्ध, आतंक और भ्रष्टाचार में डूबा रहता है। न वह प्रेम कर पाता है, न आनन्द की अनुभूति ही....दूसरों को नष्ट कर डालने में, साम्राज्य मिटा डालने में, अपनी सत्ता कायम कर डालने में कैसा आनन्द? अभी चंद घन्टे पहले वह अपनी महबूबा के साथ धुन्ध के समन्दर में डूब गया था। धरती, आकाश कुछ भी पता नहीं चल रहे थे....बस धुंध थी और वे दोनों थे...लाजवन्ती के गुनगुनाने और तीखी हवाओं के झोंकों ने दोनों को बेबस कर डाला था...उसी बेबसी में डायना ने समर्पण किया और उसी बेबसी में चंडीदास के अंदर ठंड से गार हुई चिंगारियाँ भड़क उठी थीं। ‘‘और....डायना...तुम सृष्टि हो, तुम सृजन हो...तुम मंजिल हो मेरी...प्रेम के नशे में, लड़खड़ाते हुए चंडीदास डायना का हाथ थाम बरामदे में निकल आया। अंधकार को अपनी शीतल चाँदनी से अलविदा कहने चाँद पहाड़ों के शिखर पर निकल आया था। शिखर को छूता-सा गोलाई में हलका-सा कटाव लिए....पूर्णिमा के बाद तिथि घटा जो रही थी चाँद को।
पंडित कुमायूँ का था....टेबल पर डिनर सर्व करते हुए बोला-‘‘साहब....अब रात को कहीं न निकलिएगा। धुँध कम हैं, ठंड भी थोड़ी-सी नरम हुई है पर...’’
और बंद खिड़की की ओर इशारा कर बोला....‘‘वो घाटी देखते हैं?’’ फिर खुद ही झेंप गया.....‘‘अंधेरे में कहाँ दिखाई देगी आपको...सुबह देखिएगा।’’
‘‘तुम कुछ बता रहे थे घाटी के बारे में?’’ चंडीदास ने सूप का घूँट भरा।
‘‘बापू का मतलब है उधर भूत आते हैं।’’ लाजवन्ती के कहने पर दमयन्ती जोर से अम्मा कहती हुई पंडित से चिपट गई।
‘‘अरे......क्या हुआ?’’ डायना चौंक पड़ी थी।
‘‘कुछ नहीं......आप खाना खाएँ। मैं गरम फुलके लेकर आता हूँ।’’ कहते हुए पंडित रोती हुई दमयन्ती को लेकर किचन में चला गया। लाजवन्ती खामोश खड़ी थी। बिटर-बिटर दीवार को ताकती हुई। डायना और चंडीदास के लिए यह घटना अप्रत्याशित थी। वे अम्मा और भूत का आपस में जितना मिलान करते उतना ही उलझते जाते।
खाने के बाद दोनों आतिशदान के आगे आरामकुर्सियों पर बैठकर कॉफी पीने लगे। लेकिन फिर भी माहौल गमगीन ही रहा, सहजता आ ही नहीं पा रही थी। पंडित के परिवार को लेकर उठे सवाल उन्हें सब कुछ जानने के लिए विवश कर रहे थे। परसों चंडीदास का जन्मदिन है। बाबा ने कितने एहतियात से मिठाई रखवाई थी उनके साथ.....प्रोफेसर ऑल्टर के साथ जन्म दिन नालदेरा में मनाने की पूरी योजना गुपचुप बना ली थी डायना ने......पर ये सवाल?
‘‘पंडित, यहाँ आओ।’’
‘‘जी मेमसाहब?’’ पंडित हड़बड़ाता हुआ आया।
‘‘तुम भूत की बात कर रहे थे। कैसा भूत? किसका भूत? तुम मानते हो भूत प्रेत?’’
‘‘जी......मेमसाहब.....भूत तो होता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जिसकी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं उसकी आत्मा मरने के बाद भटकती है।’’ पंडित ने तर्क देते हुए कहा।
‘‘इच्छाएँ तो किसी की पूरी नहीं होतीं तो क्या सब भूत बन जाते हैं मरने के बाद? तुम भी पंडित.....‘‘चंडीदास ने हँसते हुए कहा।
आतिशदान की लपटें अंगारों में बदल गई थीं। पंडित और दोनों लड़कियों को डायना ने कालीन पर बैठने को कहा।
लड़कियाँ अपनी उसी मुद्रा में घुटने टेक कर बैठ गई। पंडित खड़ा रहा।
‘‘नहीं साहब...भूत प्रेत होते हैं। दमयन्ती को तो उसकी अम्मा दिखती है...’’
‘‘क्या..........क्या ऊटपटांग बक रहे हो......नामुमकिन।’’ चंडीदास के कहने पर डायना ने उसे आँख के इशारे से शांत रहने को कहा। फिर दमयन्ती से पूछा-‘‘बताओ दमयन्ती, क्या सचमुच तुम्हें अम्मा दिखती हैं।’’
‘‘जी......मेमसाहब... कभी... कभी...जब मैं घाटी की तरफ जाती हूँ।’’ और वह फिर रोने लगी।
इस बार डायना ने ममता भरे स्पर्श से दमयन्ती को अपनी और खींचा-‘‘देखो, रोते नहीं.....अम्मा तुम्हें याद करती होगी न ईश्वर के घर इसलिए तुम्हें कल्पना में दिखाई देती है। वह तो ईश्वर में समा गई....अब वह यहाँ कहाँ?’’
‘‘नहीं मेमसाहब.....अम्मा ईश्वर में नहीं समाई है, वह उस घाटी में समाई है। वहीं से कूदकर उसने जान दे दी थी... उसे गोरों ने इतना..........’’
लेकिन दमयन्ती के बोल अधबीच में ही टूट गए। पंडित की मोटी, खुरदुरी हथेली ने उसके पँखुड़ी से कोमल होठों को दबोच लिया-‘‘चोप्प....’’
और उसे बाँह से पकड़कर धमकाता हुआ ले गया। लाजवन्ती काठ बनी निश्चल सी खड़ी थी। डायना और चंडीदास के आगे स्थिति की गंभीरता पर से परदा उठने लगा। लाजवन्ती ने बताया-
‘‘उस दिन इस डाकबंगले में चार गोरे आकर रुके थे। चारों ने खूब शराब पी और जब बापू उनका खाना लेकर कमरे में गया तो उससे आलू के फिंगर चिप्स तलकर लाने को कहा। इस बीच उन्हें सोडा चाहिए था। उन्होंने सामने वाले पेड़ से सूखी लकड़ियाँ तोड़ती अम्मा को बुलाया......सीधा कमरे में ही.....थोड़ी देर बाद दरवाजा बंद हो गया और अम्मा की चीखें दरवाजे के शीशों पर हथौड़े-सी पड़ने लगी। बापू बाहर से दरवाजा पीट रहा था और हम दोनों बहने रो-रो कर हलकान हुई जा रही थीं। धीरे-धीरे अम्मा की चीखें शांत हो गई। बापू दरवाजे के बाहर ठगा-सा खड़ा रहा। काफी देर के बाद दरवाजा खुला और अम्मा फटे कपड़ों में रोती कलपती बदहवास घाटी की तरफ भागीं और घाटी में छलांग लगा दी। बापू ने डंडा उठा कर उन गोरों को मारा पर होना क्या था....वो चार, बापू अकेला....खूब लात-घूँसे खाए उसने.......’’
डायना ने लम्बी साँस खींची। साँस के साथ सूखी सिसकी ने उस जानलेवा माहौल को चौंका दिया था। चंडीदास ने इतनी जोर से मुट्ठी भींची कि नाखून हथेली में गड़ गए। डायना ने लाजवन्ती को गले से लगाया। वह खामोशी से सुबकने लगी। डायना को लाजवन्ती समझदार और जिन्दगी का दृढ़ता से मुकाबला करने वाली लगी.....
‘‘लाजवन्ती.....तुम लोगों को यह डाकबंगला छोड़ देना चाहिए। तुम लोग शिमला में जाकर क्यों नहीं रहते?’’
‘‘बापू ने कसम जो खाई है... अम्मा के संग हुए हादसे का बदला लेगा। चार गोरों को मार कर हटेगा यहाँ से।’’ लाजवन्ती ने भोलेपन से कहा।
‘‘अरे....सब एक जैसे थोड़े ही होते हैं।’’ चंडीदास ने ऐसा शायद इसलिए कहा ताकि डायना को बुरा न लगे। पर डायना अपनी कौम के अत्याचार और मनमानी की पक्षधर नहीं थी बल्कि उसे इस बात को बेहद अफसोस था कि उसकी कौम भारतीयों के संग ऐसा शर्मनाक व्यवहार करती है। उसका सिर तो चंडीदास के आगे शर्म से झुका जा रहा था।
रात जब वह बिस्तर पर चंडीदास के आगोश में थी, उसने बड़े आहत स्वर में कहा-‘‘चंडी, हम कल सुबह ही नालदेरा के लिए निकल चलेंगे, अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहती।’’ चंडीदास ने उसका सिर अपने सीने पर दबा लिया।
‘‘तुम बहुत भावुक हो राधे....इतनी खूबसूरत जगह ढंग से देखे बिना ही चली जाओगी। अब जाकर तो धुँध कम हुई है......कल देखना धूप भी खिलेगी।’’
डायना ने खामोशी से पलकें बंद कर ली। यही वह कमरा है जहाँ उन चार अंग्रेजों ने एक औरत को बेबस कर उसकी इज्जत लूटी....इज्जत के साथ-साथ उसके सपनों की दुनिया.....उसकी नन्हीं बेटियों से चहकता घर और सीधे सादे पति का संसार भी लूट लिया। क्या वे चारों जान पाएंगे कि उनकी उस घिनौनी हरकत ने कैसे तीन जीवित जिन्दगियाँ शमशान में बदल दी हैं?
दूसरे दिन दोपहर ढलने के पहले वे नालदेरा पहुँच चुके थे। लाल टीन की ढलवाँ छत वाला सुंदर-सा कॉटेज था। कॉटेज चीड़ और ओक दरख्तों के बीच था। प्रोफेसर ऑल्टर को ढूँढती डायना की निगाहें कॉटेज का निरीक्षण करने लगीं। सारी सुविधाओं से लैस शानदार कॉटेज के ड्राइंग रूम में बेंत के सोफे पर बैठती हुई उसने पानी से भरे गिलासों की ट्रे थामे नाटे कद के पहाडी नौकर से पूछा.”प्रोफेसर कहाँ है?”वह आधा झुका...ट्रे तिपाई पर रखी, सलाम ठोंका और बोला-‘‘साहब सुबह ही शिमला चले गए। कल शाम को आ जाएँगे, कल साहब का जन्मदिन है न!’’ और उसने चंडीदास की ओर देखा। ओह, तो प्रोफेसर ऑल्टर ने इसे सब कुछ समझा दिया है......चंडीदास का जन्मदिन मनाने का कुछ अलग तरह का इंतजाम किया है-शायद!
‘‘सुनो.....‘‘डायना ने नौकर को सम्बोधित किया।
‘‘जी.......भोटू.....हमको भोटू पुकारिए।’’ और वह शरमा गया।
चंडीदास और डायना भी हँस पड़े। कुफ्री के उदास हो गए माहौल के बाद डायना के चेहरे पर हँसी देख चंडीदास पुलक से भर गया-‘‘भोटू साहब... बढ़िया-सी चाय बना लाइए हमारे लिए।’’
चंडीदास से ऐसी सहजता पाकर भोटू का संकोच और अंग्रेजों के प्रति डर दोनों जाते रहे। वह चहका-‘‘साहब......बढ़िया पहाड़ी चाय पिलाता हूँ आपको।’’
डायना के लिए जो कमरा सोने के लिए तैयार किया गया था.......उसी में एक बड़े से टेबिल पर हारमोनियम रखा था। इतने दिनों बाद हारमोनियम देख डायना खिल गई। कपड़े बदलकर वह हारमोनियम के पास आ बैठी और उसके सुरों पर उँगलियाँ फेरी तो एक मद्धम-सी झनकार कमरे में फैल गई। चंडीदास भी तरोताजा हो पास आ बैठा। हारमोनियम ने जैसे दोनों के दिलों में सम्मोहन-सा पैदा कर दिया था। चंडीदास ने हारमोनियम अपनी ओर खींचकर सुर साधा और डायना की ओर सवालिया निगाहें उठाई.........सुनोगी?’’
‘‘कब से तरस रही हूँ। इतने दिनों से संगीत के बिना एक अधूरापन-सा लग रहा था।’’
चंडीदास गाने लगा-
जारा हाथे दिए माला, दिते पारो नाइ
केनो मनो राखा तारे
भूले मनो राखा तारे
भूले जाओ एके बारे..........
‘‘गाओ राधे.......मेरे साथ सुर मिलाओ....जारा हाथे दिए माला...जिसके हाथ में माला देकर तुमने वापिस ले ली, उसे क्यों याद रखे हुए हो? भूल जाओ उसे.....भूल जाओ।’’
डायना ने पीछे से आकर चंडीदास के गले में अपनी बाहों की माला पहना दी........‘‘लो, मैं भूल गई और इन बाहों की माला तुम्हें पहना दी......और तुम्हारी परिणीता बन तुम्हारे प्यार की डोर के सहारे चली जा रही हूँ सागर तट पर.........अकेली.....सागर जल की रेखा जहाँ क्षितिज को छू रही है.....अभी अभी सूरज ने डुबकी लगाई है और अभी अभी उसकी डुबकी से चकित चाँद नभ से झाँका है।’’
जारो कोथाय, शेई एकेला
ओ तुई अलस बैशाखे?
इस अलस भरे बैशाख मास में मैं अकेले कहाँ हूँ......तुम जो हो साथ में......मेरे किसना....ये तुम्हारा बरगद जैसा छतनारा व्यक्तित्व.....इसकी छाँव भी तो मेरे संग है। मैं अकेली कहाँ हूँ......सागर की लहरों पर सवार हो मैं दूर चली जाऊँगी, तुम पीछे-पीछे आना.......मेरे प्रियतम......।
चंडीदास सौ-सौ जान से कुर्बान हो दुगने जोश से गाने लगा।
तोमारे वंदना करि, स्वप्न सहचरी,
ओ आमार अनागत प्रिया
आमाय पावार बुके ना-पावार तृषा जागानिया।
तोमारे बंदना करि, हे आमार मानस रंगिनी
अतप्त यौवनाबाला, चिंरतन, वासना संगिनी
तोमारे वंदना करि, नाम नहिं जाना.....
इस बार डायना खामोश रही। गीत वह समझ गई थी पर शब्द नहीं सूझ रहे थे। चंडीदास ने हारमोनियम सरकाकर अपने पीछे लिपटी डायना को आगे खींच लिया......‘‘ओ मेरी स्वप्न सहचरी, ओ मेरी अनागत प्रिया, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। तृप्ति पाने के इच्छुक मेरे हृदय में अतृप्त तृषा जगाने वाली ओ मेरी मानस रंगिनी, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। ओ तापहीन यौवन बाले, चिंरतन वासना की संगिनी........नाम न जानते हुए भी मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ।’’
डायना फुसफुसाई....तुम्ही ने तो नाम दिया है किसना....तुम्हीं मेरे आराध्य हो.....तुम प्रेम के विशाल स्वरूप, ईश्वरमय..मेरे मंदिर, मेरे चर्च.......।
चंडीदास डायना को बाहों में लिए हुए बिस्तर पर आ गया। बाहर घोड़े की टापों का शोर था। घोड़ों पर बैठे अंग्रेज एक-दूसरे से जोर-जोर से बातचीत कर रहे थे। किचन में भोटू द्वारा सब्जी छौंकने की आवाज यहाँ तक आ रही थी। चंडीदास ने कमरे का दरवाजा बंद करते हुए तिपाई पर रखे लैंप की बत्ती उकसा दी। पीले, मरियल-से उजाले में कमरे में रखी वस्तुओं की परछाइयाँ दीवार पर पड़ रही थीं। उन परछाइयों में चंडीदास और डायना की समर्पण के लिए आतुर परछाइयाँ लैंप की लौ की तरह काँप रही थीं। अब उनके कानों में कोई शोर प्रवेश नहीं कर पा रहा था। अब अगर वे सुन रहे थे तो केवल एक- दूसरे के दिलों का धड़कना और साँसों की लयबद्ध आवाज..........डायना के रोम रोम में चंडीदास बस चुका था और चंडीदास स्वयं को भूल चुका था।
काफी देर बाद टिहु-टिहु आवाज से दोनों सचेत हुए। कॉटेज के बाहर खुबानी के पेड़ पर टिटहरी ने पँख फड़फड़ाए। अपने को समेटती डायना के कान के पास मुँह लाकर चंडीदास फुसफुसाया-‘‘तुम खुश तो हो न राधे...........’’
‘‘और तुम? मेरे चंडी.....’’
चंडीदास ने डायना को स्वेटर पहनाते हुए कहा-‘‘मुझे तो अपने नसीब से ईर्ष्या होने लगी है।’’
घबराकर डायना ने उसके मुँह पर हथेली रख दी।
बाहर डाइनिंग रूम में भोटू ने कैंडिल नाइट डिनर लगा दिया था। सब्जी का डोंगा खोलते हुए चंडीदास ने खुशबू ली-‘‘अरे....ये तो बिरयानी है.....गुच्छियों की बिरयानी.....’’
‘‘और गाँठगोभी का शोरबा......’’ भोटू ने प्लेटें लगाते हुए कहा।
‘‘वाह.....भई, मुझे तो बहुत भूख लगी है।’’ और फुर्ती से चंडीदास ने बिरयानी से भरी चम्मच मुँह में रखी और तुरन्त ही मुँह खोलकर सी....सी....करने लगा। डायना खिलखिलाई-‘‘मुँह जल गया न।’’
सुबह से हलकी-हलकी बूँदाबाँदी ही रही थी। कॉटेज की टीन की छत समवेत स्वरों में एक बड़ा प्यारा-सा शोर पैदा कर रही थी। डायना ने आईने में अपना चेहरा देखा। चंडीदास के भरपूर प्यार ने उसके चेहरे की खूबसूरती में एक आकर्षक लुनाई-सी ला दी थी जो टॉम कभी नहीं ला पाया था। ओह, इस मोहक माहौल में वह भी किसे याद कर रही है। वह तो चेहरा सँवारने आईने के सामने आई थी। आज उसके चंडी का जन्मदिन है। सुबह सबसे पहले शुभकामना उसी की होगी जब चंडी जागेगा। उसने भोटू से बाहर बगीचे में खिला सुर्ख गुलाब तोड़ लाने को कहा था। भोटू उसके हर आदेश पर फौजियों की तरह सैल्यूट मारता था। बूँदाबाँदी के संग तेज हवाओं के झोंकों में देवदार के पेड़ बड़ी गंभीरता से हिल रहे थे और उनकी टूटी पत्तियों पर जो लॉन की घास पर तमाम फैली थीं भोटू के जूते पहने पाँव चर्र-मर्र बज रहे थे।
‘‘बाहर बहुत सरदी है, दरवाजे बंद रखने पड़ेंगे... मैं कमरा भी गर्म किए देता हूँ।’’ डायना के हाथ में लाल गुलाब देते हुए भोटू ने कहा और दरवाजे बंद करने लगा। खिड़कियों के पल्ले हवाओं में खड़खड़ा रहे थे। एक अजीब-सा शोर......लेकिन भला-भला सा......।
चंडीदास अँगड़ाई लेते हुए उठा तो डायना ने फूल उसके आगे कर दिया-‘‘जन्मदिन मुबारक हो।’’
चंडीदास हतप्रभ था...जन्मदिन की शुरूआत इस तरह? ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ.....उसने फूल लेकर चूम लिया। डायना ने झुककर उसके माथे को चूमा-‘‘ईश्वर तुम्हारी हर आकांक्षा पूरी करे।’’
‘‘मेरी आकांक्षा तुम हो राधे।’’ और डायना के दोनों हाथों की अंजलि में अपना चेहरा दबा दिया उसने।
कलकत्ते में होता तो माँ नया पायजामा कुरता जिद करके पहनाती और काली माई के मंदिर में दर्शन करने को ले जातीं... रिश्तों के साथ ही जैसे सब कुछ बदल जाता है। अब यहाँ वह डायना के संग है जिसे वह अपनी जीवनसंगिनी, अपनी परिणीता मान चुका है। सामाजिक मान्यता तो नहीं मिली है पर दिल के बंधन से बड़ा और कोई बंधन नहीं है। यह केवल बरसाती नदी का उफान नहीं है, यह गंभीरता से बहता वह सागर है जिसकी हर लहर को काटता, हर लहर को तराशता एक समर्पित मुकाम है जहाँ आकर फिर कहीं और जाने को रास्ते शेष नहीं बचते...इसी मुकाम से जिन्दगी अपने अर्थ खींच लाती है।
आज किचन में भोटू के साथ डायना भी थी और उसके निर्देशन में विशेष प्रकार का ब्रेकफास्ट तैयार हो रहा था। मदद के लिए भोटू की माँ भी आ गई थी जिसकी एक भी बात डायना को समझ में नहीं आ रही थी।
ब्रेकफास्ट करते हुए चंडीदास ने घूमने जाने के लिए डायना को तैयार करना चाहा पर डायना खराब मौसम से बुझ-सी गई थी। चार बजे तक प्रोफेसर ऑल्टर भी आ जायेंगे। आज वह चर्च भी जाना चाहती थी चंडीदास के लिए प्रेयर करने, पर न जाने कहाँ, कितनी दूर होगा चर्च? मौसम ने भी क्या रंग दिखाए....शिमला में जब वे दोनों थे तो बर्फ गिर रही थी, कुफ्री में गाढ़ी धुँध का समंदर था। और यहाँ बरसात के संग तेज हवाएँ भी....क्या पता प्रोफेसर ऑल्टर आ भी पाएंगे। आज सुबह से ही सामने वाली सड़क सूनी पड़ी है। आवाजाही नहीं के बराबर है।
आशा के विपरीत प्रोफेसर ऑल्टर ठीक चार बजे आ गए... ‘‘अरे, हम लोग तो सोच रहे थे कि...कि शायद मैं नहीं आ पाऊँगा। पर अध्यापक हूँ न......समय का पाबंद...हम यही सीख तो अपने विद्यार्थियों को देते हैं।’’ और हाथ में पकड़ा बड़ा-सा फूलों का गुच्छा ग्रीटिंग कार्ड सहित चंडीदास की ओर बढ़ाया-‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू हैंडसम।’’
‘‘हैंडसम!!’’ चंडीदास ठहाका मारकर हँसा। सभी कमरे में सोफों पर आ बैठे।
‘‘तो.....कैसा लगा कुफ्री, नालदेरा...’’
‘‘हम तो मौसम के मारे हैं...वो भी बदलते मौसम के।’’
इस बार प्रोफेसर जोर से हँसे। उनकी हँसी में जो आत्मीयता थी उसने कमरे के सूनेपन को खुशनुमा बना डाला था।
‘‘चलिए...अब मौसम परेशान नहीं करेगा। बाहर मोटर खड़ी है... थोड़ा घूम आते हैं।’’
‘‘हाँ...क्यों नहीं। चंडीदास भी घूमने के मूड में है।’’
बाहर निकलते ही भीगी हवाओं ने दबोच लिया। लेकिन अब चंडीदास को ठंड उतना परेशान नहीं कर रही थी। यह इतने दिनों से यहाँ रहने की वजह थी या डायना का ईश्वरीय प्रेम...चंडीदास सोचता रह गया। मोटर चल पड़ी। लगा जैसे हवाओं की रफ्तार कम हुई है। आसमान में तेजी से उड़ते बादल अब जगह-जगह नीले आकाश को छोड़-ठिठके से खड़े हैं....मानो सुस्ता रहे हों। गोल्फ के मैदान में कुछ अंग्रेज गोल्फ खेल रहे थे। उनकी पत्नियाँ कुत्तों को जंजीर से बाँधें आस-पास टहल रही थीं। खुबानी और सेब के पेड़ों की आड़ में एक अंग्रेज दम्पति आलिंगनबद्ध एक-दूसरे को चूम रहे थे। शायद दम्पति नहीं हों वे.....दोनों कमसिन, चुलबुले से थे। वे एक-दूसरे को चूमते, फिर खिलखिलाते हुए दौड़ते और फिर आलिंगनबद्ध हो जाते। डायना और चंडीदास ने एक-दूसरे की ओर देखते हुए नजरें झुका लीं।
‘‘मि. सेनगुप्ता...आप तो कलकत्ता लौटते ही अपनी क्लासेज में जुट जाएँगे? सच है कलाकार के पास वक्त ही नहीं रहता। जिन्दगी छोटी पड़ती है। वह तो हम जैसों के लिए लम्बी है, काटे नहीं कटती।’’ प्रोफेसर ऑल्टर ने आर्द्रता से कहा।
‘‘हम चाहें तो भी भाग्य का लिखा बदल नहीं सकते। आप भाग्य पर यकीन करते हैं प्रोफेसर?’’
‘‘करने लगा हूँ...जब से मेरी बीवी मुझसे बिछुड़ी है।’’ कहते हुए प्रोफेसर ने भागते हुए चीड़ के दरख्तों को नजरों से साधना चाहा...एक कड़वी स्मृति, एक उद्भ्रांत-सी कचोट....प्रोफेसर की आंखों में जैसे सारे दृश्य ताजा थे....वह काट डालने वाला सच...वह पिता बनने की खुशी का चूर-चूर होना। वह प्रसव पीड़ा में तड़पती अपनी जीवनसंगिनी का अचानक शांत हो जाना......।
भीगी घास पर तीनों टहलने लगे....पैरों तले चीड़ की पत्तियाँ दब-दब जातीं। हवा में झुकी हुई खुबानी की शाख पर पत्तियाँ काँप रही थीं। धीरे-धीरे शाम का सुनहरापन फिजाओं में तैरने लगा....फिर अंधेरा, लैंपपोस्ट जल उठे।
‘‘वो देख रहे हैं मि. सेनगुप्ता...उस लैंपपोस्ट को.....लगता है जैसे ठंडी रोशनी बिखेर रहा है पर हकीकत में वह अन्दर से जल रहा है। वैसे भी चीजें जैसी दिखाई देती हैं वैसी होती नहीं।’’ प्रोफेसर ऑल्टर के स्वरों में पीड़ा ही पीड़ा थी.....जलते रहने की पीड़ा।
‘‘आपको सब कुछ भूलना होगा प्रोफेसर....जिन्दगी को बोझ मत बनाइए.....ईश्वर की मर्जी के आगे किसी का जोर नहीं।’’ चंडीदास ने उनकी पीठ सहलाई।
‘‘चलिए....कॉलेज चलकर आपको बढ़िया-सी गजल सुनाती हूँ।’’ डायना ने विषय बदलते हुए कहा।
मोटर वापसी की राह पर थी। मौसम खुशनुमा हो चला था और सड़क पर तफरीह के लिए निकले लोगों की भीड़ उमड़ आई थी। एक भटकता हुआ पंछी सामने कुंड में भरे पानी में सिर डुबोकर पंख फड़फड़ाता घोंसले की ओर उड़ चला....जहाँ पहले से अन्य पंछियों का शोर था।
कॉटेज का ड्राइंग रूम.....डायना और चंडीदास दंग थे। उन्हें वापिस लौटने में लगभग ढाई-तीन घंटे लगे होंगे और इधर भोटू ने कमरे का कायाकल्प कर दिया था। चारों कोनों में फूलों का अंबार दीवार पर ‘‘हैप्पी बर्थ डे टु डियर चंडीदास सेनगुप्ता’ क्रेप कागज की पतली-पतली पट्टियाँ काटकर लिखा गया था। मेज पर छोटी-सी केक और आसपास मोमबत्तियाँ.....
‘‘ओह माई गॉड.....’’कहते हुए डायना ने प्रोफेसर की तरफ देखा।
‘‘आप तो बड़े-छुपे रूस्तम निकले।’’
‘‘मैं तो कलकत्ते में ही समझ गया था कि आप दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं.....’’
अब की बार चौंकने की बारी चंडीदास की थी.....तो क्या इसीलिए इधर बुलाने की दावत दे डाली थी प्रोफेसर ने।
‘‘प्रेम ईश्वर का दिया वरदान है। मैं अब तक तरस रहा हूँ। मेरा घर ईश्वर ने उजाड़ दिया। मेरा देश भी.....हाँ देश भी। हालात ने पराया कर दिया। कभी-कभी होमसिक हो जाता हूँ फिर अपने ही ऊपर ताज्जुब होता है कि जब होम ही नहीं है तो सिकनेक कैसी?’’ प्रोफेसर के चेहरे पर पीड़ा की घनीभूत परतें थीं जो किसी भी हालत में टस से मस होने का नाम नहीं ले रही थीं।
‘‘आपने इतना अच्छा इंतजाम किया है प्रोफेसर......आज मैं आपके साथ ड्रिंक जरूर लूँगा।’’
प्रोफेसर मुस्कुराए-‘‘रियली? थैंक्स.......लेकिन पहले केक काटिए।’’
डायना ने दियासलाई की तीली सुलगाई....मोमबत्तियों की बत्ती पीली लौ फेंकने लगी....लौ की फीकी रोशनी के इर्द-गिर्द कमरे का अंधेरा सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी।....चंडीदास ने केक काटकर एक टुकड़ा डायना को खिलाया फिर प्रोफेसर को। प्रोफेसर जन्मदिन का गीत अपनी मोटी आवाज में गाने लगे। नीरवता में जैसे एक जीवंत हलचल जाग उठी।
गिलासों में बीयर खुद प्रोफेसर ने निकाली और डायना और चंडीदास को देते हुए डायना से कहा-‘‘आपने ग़ज़ल सुनाने का वादा किया था।’’
भोटू हारमोनियम ले आया। कुछ ही पलों में सुर सध गए और डायना की मीठी आवाज फिजा में तैरने लगी। भोटू भी दरवाजे से लगा खड़ा रहा मंत्रमुग्ध-सा। प्रोफेसर ने आँखें मूँद लीं और चंडीदास लाड़ से डायना को निहारने लगा। लगा जैसे पल ठहर गए हैं... और चकित हैं गीत की गति को देखकर कि हमसे भी अधिक तेजी से समूचे ब्रह्मांड को यह कौन जीते ले रहा है। इस नीरव खामोशी को तोड़ता जो पहाड़ी इलाके में शाम होते ही बरपा हो जाती है।
भोटू ने डिनर बहुत स्वादिष्ट बनाया था, वैसे भी चंडीदास को नशा हो गया था। एक तो वह पीता नहीं था दूसरे माहौल भी नशीला था। बीच-बीच में प्रोफेसर के चुटकुले.......लगता नहीं था कि दुख के पारावार में आनंद की उर्मियाँ भी उठ सकती हैं।
रात पूरे शबाब पर थी। यह चंडीदास और डायना की इस पहाड़ी इलाके की आखिरी रात थी। कल उन्हें कलकत्ता लौट जाना है। पूरा कॉटेज खामोशी में दुबका था। प्रोफेसर दूसरे कमरे में कब के सो चुके थे। भोटू भी....क्योंकि किचन से आती खटर-पटर की आवाज भी थम चुकी थी। खिड़की के शीशे पर चाँद की दस्तक थी जो यह जता रहा था कि उनके यहाँ आगमन से वह जितना खुश था उनके जाने से उतना ही हर दिन तिथि....तिथि घटा है और अब आधा रह गया है। अष्टमी का चाँद....यानी पूरे आठ दिन.........प्रेम से भरे आठ दिन.......आज भी नशे की गिरफ्त में जब चंडीदास ने डायना को आगोश में भरा तो कमरे की खामोशी में एक सिसकारी-सी तिर गई......लग रहा था जैसे वे अलग-लअग दो व्यक्तित्व नहीं है...एक हैं.....एक दूसरे में समाए.....अब अगर एक खुश है तो दूसरा भी, एक पीड़ित है तो दूसरा भी, अनिर्वचनीय सुख में डूबे.........समर्पण का सुख जो पीड़ा भी लिए है। पर यह पीड़ा कचोटती नहीं। अपने में अथाह सुख डुबोती है......ज्वार उमड़ रहा है। चंडीदास के प्रेम का ज्वार जो अपने चाँद को छू लेने को आतुर है। यह आतुरता, जिसमें दर्द है पर वह दर्द आनंद से उपजा है इसलिए दर्द रह कहाँ जाता है.............
आधी रात के किसी ठहर गए पल में चंडीदास डायना से अलग हुआ......डायना कुनमुनाई लेकिन अगले ही पल गहरी नींद में खो गई। उसके उघड़े बदन को अच्छी तरह कंबल से ढँक कर चंडीदास ने भरपूर अंगड़ाई ली। पूरा पहाड़ खामोशी में डूबा था पर उस खामोशी में भी हवा डालियों को झुलाती, झुमाती अपने होने का एहसास करा रही थी। वैसे भी जंगल चुप नहीं रहते। जंगल की नीरवता में भी प्रकृति की आवाजें नीरवता के हलके झीने आवरण पर सलवटें बिछा जाती हैं मानो कोई दबे पाँव यह जता रहा हो कि तुम अकेले कहाँ हो, मैं हूँ न तुम्हारे साथ।
समय बग्टुट भागा जा रहा था। आठ दिनों के बेशकीमती अनुभवों को लिए चंडीदास और डायना कलकत्ता लौट रहे थे। उन अनुभवों में प्रेम के कोमल स्पंदन थे तो प्रोफेसर ऑल्टर के जीवन की वेदना......कुफ्री में पंडित के परिवार के साथ घटी भयंकर त्रासदी की पीड़ा भी थी। दमयन्ती और लाजवन्ती का मासूम चेहरा अक्सर आँखों के आगे मुस्कुराता रहता, जैसे कह रहा हो-‘‘मेमसाहब.......क्या हमारे साथ इंसाफ होगा.....आपकी कौम के लिए क्या हम गुलाम मात्र खिलौना हैं?’’ और डायना बेचैन हो उठती। जानती है सिवा कसमसा कर रह जाने के वह और कुछ कर नहीं पाएगी।
प्रोफेसर ऑल्टर उसे चर्च ले गए हैं। उसका सिर प्रार्थना में झुक गया हैं- ‘‘हे प्रभु, उन बच्चियों को एक सुखी जिन्दगी मिले.....उनके हृदय का संताप हर लो प्रभु और मेरे चंडी को हर कदम पर सफलता मिले.....यही कामना है मेरी।’’
‘‘आमीन...’’ फादर ने बाइबिल बंद कर दी। ईसामसीह की मूर्ति के नीचे ढेर सारी मोमबत्तियाँ जल रही थीं जिसके प्रकाश में मूर्ति तेजोमय हो उठी थी। डायना ने दुबारा आँखें मूँदी और पास खड़े चंडीदास के हाथ में अपना हाथ दे दिया।
प्रोफेसर ऑल्टर की मोटर ढलान उतरने लगी। जंगली गुलाबों के नाटे कद के पौधों पर गुलाबी, लाल और सफेद फूल बेशुमार खिले थे। स्ट्रॉबेरी की लतरें दूर-दूर तक फैली थीं। ढलान के छोर पर जहाँ देवदार के पेड़ जिनकी डालियाँ शमादान लगती थीं......खामोश खड़े थे। मोटर से उतरकर दोनों जीप में जा बैठे। जीप के स्टार्ट होते ही प्रोफेसर ने गर्मजोशी से हाथ मिलाकर दोनों को विदाई दी.......‘‘अच्छा मिसेज ब्लेयर, मिस्टर सेनगुप्ता....ईश्वर ने चाहा तो दुबारा मुलाकात होगी।’’
‘‘जरूर....और बहुत जल्दी ही मैं आपको कलकत्ता बुलाऊँगा।’’
जाती हुई जीप देर तक प्रोफेसर की नजरों में समाई रही। जब वे लौटे तो सूना कॉटेज मुँह बाए उन्हें समा लेने को आतुर था.....अब न जाने कितना समय लगेगा उन्हें वापस अपने रूटीन में आने में........।
डायना को उसके बंगले पर उतारकर जीप चंडीदास के घर के सामने जाकर रुकी। घर बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। जीप की आवाज के साथ ही दरवाजा खुला और मुनमुन चिल्लाई- ‘‘दादा आ गए।’’
वह जीप से कूदा....खुशी का अतिरेक आँखों से छलका पड़ रहा था। शिमला में बिताए वे दस दिन उसके लिए दस जन्म जैसे थे। जैसे वह हर दिन जन्मा हो और हर दिन डायना के प्यार में सराबोर एक पतंगे की तरह रात होते-होते अलविदा कहता रहा हो। बाबा माँ के पैर छूकर वह कुर्सी पर बैठ गया। उसके चेहरे की चमक स्पष्ट बता रही थी कि वह ऊर्जावान होकर लौटा है।
‘‘कैसी रही ट्रिप?’’ बाबा ने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूछा।
‘‘बेहद खूबसूरत जगह है....जैसे स्वर्ग। वहाँ समय का बीतना पता ही नहीं चलता।’’
‘‘हाँ....लेकिन मौसम बदलता रहा।’’
‘‘आपने अखबार में पढ़ा होगा....पर बाबा......यह तो पहाड़ की खासियत है। कभी बर्फ, कभी धुँध, कभी बारिश, कभी तूफान......’’
मुनमुन चाय बना लाई थी।
‘‘गुनगुन कहाँ है? दिखाई नहीं दे रही।’’
‘‘वह दिखाई ही कब देती है।’’ बाबा ने रूखेपन से कहा।
माँ ने तेज आवाज करते हुए चाय सुड़की-‘‘तुम फिर शुरू हो गए। जवान लड़की के साथ ज्यादा टोकाटाकी नहीं करना चाहिए।’’
‘‘वह जवान है....इसीलिए तो चिंता है।’’
नहा-धोकर नन्दलाल के पास जाने से पहले चंडीदास बाबा से कहता गया था कि आज ही पंडित से वास्तु पूजा का मुहूर्त निकलवा लें। गांगुली महाशय को पहले ही बतला दिया था कि उद्घाटन उन्हें ही करना है। अब बस समय बताना है।
नन्दलाल सड़क के मोड़ पर ही मिल गया -‘‘मैं तो तुम्हारे ही पास आ रहा था।’’ फिर चंडीदास का हाथ शरारत से दबाकर बोला-‘‘लगता है बाबू मोशाय पर पहाड़ का जादू छा गया। चेहरा देखो.....हैंडसम लग रहे हो यार...’’
जवाब में चंडीदास ने भी नन्दलाल की पीठ पर पर धौल जमाई-‘‘हुई न जलन?’’
‘‘क्यों नहीं....यहाँ तनहा रहते-रहते आजिज आ गए....लगता है यूँ ही बिसूरते चले जायेंगे दुनिया से।’’
सहसा चंडीदास गंभीर हो गया-‘‘नन्दू...तुम सब जान गए हो क्या? सच-सच बताना।’’
दोनों ने अपनी साईकिलें डायना के बंगले की ओर मोड़ दी थीं। सड़क पर वाहनों की आवाजाही थी। पैदल रिक्शा, घोड़े, फिटन, जीप.....अंग्रेज कर्मचारियों की लाल काली वर्दियों पर धूप अटक गई थी। बंगलों की शुरूआत में गुलमोहर के पेड़ों की छायाएँ चित्रकारी-सी कर रही थीं। डालियों पर पंछियों का शोर माहौल में संगीत भर रहा था। नन्दलाल ने जवाब दिया-‘‘हाँ चंडी....मैं जान गया हूँ तुम्हारे और डायना के बीच के रिश्ते को....और तभी से चैन खो चुका हूँ। अब न जाने क्या हो....टॉम बहुत खतरनाक है वह हिन्दुस्तानियों से घृणा करता है।’’
तब तक डायना के बंगले का फाटक आ चुका था। चंडीदास ने नन्दलाल के कंधे पर हाथ रखा-‘‘तुम तो मेरे साथ हो न?’’
‘‘हमेशा.....निश्चिंत रहो।’’ नन्दलाल ने जैसे धीरज की पोटली थमा दी हो दीनहीन चंडीदास के हाथों में।
बोनोमाली ने दरवाजा खोला....‘‘अरे आप?’’ और अदब से उन्हें रास्ता दिखाते हुए अन्दर ले आया। सोफे पर डायना पहले से बैठी थी....हाथों में किताब। उन्हें देख किताब बंद कर मुस्कुराई-‘‘वेलकम.....मैं अभी याद ही कर रही थी।’’
प्यालियों में चाय और साथ में गरमागरम पकौड़े आ गए। एक बार फिर संगीत अकादमी के प्रोजेक्ट पर चर्चा हुई। दस दिनों से बंद प्रोजेक्ट के पन्ने खोले गए। तीनों के बीच तर्क-वितर्क होते रहे कि शाम हो गई। सड़कों पर अंधेरा सिमटने लगा। लैंपपोस्ट जल उठे।
‘‘शुक्रवार को सुबह नौ बजे उद्घाटन के बाद वास्तु पूजा रखी है। समय तब्दील भी हो सकता है क्योंकि बाबा ने पंडित से अभी बात नहीं की है लेकिन कर ली होगी अब तक।’’ चंडीदास ने उठते हुए कहा। नन्दलाल प्रोजेक्ट की फाइल लिए बाहर चला गया। शायद चंडीदास और डायना को तनहाई देना चाह रहा हो। नन्दलाल के जाते ही डायना चंडीदास की ओर बरसाती नदी-सी उमड़ी-‘‘तुम्हारा सपना अब सच हो जाएगा किसना।’’
‘‘तुम्हारा नहीं हमारा......और उस सपने में सातों रंग होंगे राधे.....प्यार अनुराग के सातों रंग।’’ चंडीदास ने डायना को चूमा ही था कि शरारती नन्दलाल ने साईकिल की घंटी बजाई। चंडीदास हँसते हुए बाहर निकल आया।
मुनमुन के गुरु मुकुट गाँगुली को मुनमुन अपने साथ रिक्शे में लिवा लाएगी, ऐसा तय हुआ। बाबा ने मुहूर्त का समय सुबह साढ़े नौ का बताया। इसका मतलब है कि उद्घाटन नौ बजे हो जाए फिर वास्तु पूजा आरंभ हो। चंडीदास के दस पंद्रह दोस्त, मुनमुन के साथ संगीत सीख रहे ग्रुप की छह लड़कियाँ और गुनगुन के कुछ कॉमरेड दोस्त.....कुल मिलाकर तीस लोगों के चाय-नाश्ते का प्रबंध डायना की ओर से....साथ में मुकुट गाँगुली के लिए फूलों की माला, शॉल और नारियल भी। डायना ने उस दिन सफेद पीले प्रिंट की बहुत खूबसूरत पोशाक पहनी थी। पारो ने उसके माथे पर लाल बिंदी लगा दी थी। जिसके कारण उसका संगमरमरी चेहरा गुलाबी उजास से दमक उठा था। ब्लॉसम पूँछ खड़ी किए उसके साथ-साथ गेट तक आई....उसने ब्लॉसम को गोद में उठा लिया।
‘‘इसे भी ले चलेंगी क्या?’’
‘‘हाँ मोटर में बैठी रहेगी। एक डेढ़ घंटे में तो सब निपट ही जाएगा।’’
‘‘पूजा में देर लगेगी....यह उतनी देर नहीं बैठ पाएगी मोटर में।’’ पारो पुरखिन की तरह बोली।
बोनोमाली ने ब्लॉसम को डायना की गोद से ले लिया-‘‘हम बाद में आयेंगे मेमसाहब........साईकिल से आ जायेंगे। इसे दूध-नाश्ता कराकर।’’
‘‘ठीक है।’’ डायना पोशाक का घेर हाथ में उठाए मोटर में बैठ गई। मोटर कैमेक स्ट्रीट की ओर तेजी से दौड़ने लगी। घड़ी में पौने नौ बज चुके थे। डायना इस वक्त तक वहाँ पहुँच जाना चाहती थी पर उसे लगा वह समय को नहीं पकड़ पा रही है। समय पल-पल...छिन-छिन....भाग रहा है....हर तरफ से.....दरख्तों के साए से.....आसपास फैली सुबह की हलचल से.........तह-दर-तह....धूप की किरणों में गुम होता जा रहा है समय.....वह बेताब है बाबा से मिलने को, गुनगुन मुनमुन, और माँ से मिलने को अगर वक्त से पहले नहीं पहुँची तो ये सब व्यस्त हो जाएँगे.....वह कैसे रोके घड़ी की सुईयाँ.....चाह प्रगाढ़ थी....ठीक नौ बजे वे चंडीदास की अकादमी में पहुँच चुके थे और उसी वक्त मुकुट गाँगुली को लिए मुनमुन का रिक्शा आकर रूका। नन्दलाल उन्हें अन्दर लिवा लाया। दरवाजे पर लाल रिबन बँधा था।
‘‘माँ...बाबा........ये डायना हैं।’’ चंडीदास ने डायना की ओर देखते हुए इशारा किया.....डायना समझ गई। आज वह टॉम की पत्नी के रूप में नहीं बल्कि चंडीदास की परिणीता के रूप में माँ-बाबा से मिलेगी। खुली सघन केश राशि को लाल पाड़ की बादामी साड़ी के पल्ले से ढके माँ ने अपने पैरों की ओर झुकती डायना को बीच में ही थाम लिया और गले से लगा लिया। बाबा गद्गद थे। उन्हें सूझा ही नहीं कि डायना को पैर छूने से रोक लें........और बिल्कुल आशा के विपरीत मुनमुन ने डायना के पैर छूकर जैसे आशीर्वाद माँगा हो......‘‘मैं जानती हूँ आप मेरे दादा की प्रेरणा हैं....उन की स्वप्न सहचरी’’.......लेकिन माँगने की हिम्मत नहीं जुटा पाई मुनमुन। डायना देख रही थी चंडीदास के स्नेहिल परिवार को....इंसानियत से लबरेज....एक कलाकार परिवार.....अब डायना के मन की दुविधा खत्म हो चुकी थी। उसने मुकुट गांगुली के भी पैर छुए.........
‘‘डायना ब्लेयर! बता रहा था चंडी कि तुम बहुत मधुर गाती हो।’’
‘‘जी थोड़ा बहुत........आपसे बहुत कुछ सीखना चाहती हूँ।’’
‘‘सीख तो रही हो चंडी से...ये तो बहुत विद्वान है....ये सिखाए तो फिर किसी और की जरूरत नहीं।’’
मुकुट गांगुली की तारीफ से डायना गर्व से भर उठी।
रिबन काटकर मुकुट गांगुली ने अंदर प्रवेश किया। उनका स्वागत फूलों की माला पहनाकर और शॉल ओढ़ाकर चंडीदास ने किया तभी गुनगुन सुकांत के साथ तेजी से दाखिल हुई। उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा रही थीं-‘‘हो गया उद्घाटन?’’
‘‘तुम थीं कहाँ गुनगुन?’’ पर गुनगुन को सुनने की फुरसत कहाँ थी। उसने मुकुट गांगुली के पैर छुए और जाकर डायना से लगभग लिपट-सी गई- ‘‘बाप रे, कब से मिलने की इच्छा थी आपसे....सुकांत, यही हैं डायना ब्लेयर।’’
सुकांत ने अभिवादन किया। डायना के तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि छोटी गुनगुन है या मुनमुन। मुनमुन शांत, लजीली, गुनगुन हड़बहाडट से भरी.........पुरखिन-सी सारी जिम्मेवारियों को ढोती........एक अलग व्यक्तित्व...आँखों में ज्वलंत मिशन.........जैसे मंजिल पाकर ही दम लेना है। डायना से मिलकर सुकांत ओर गुनगुन चाय-नाश्ते का प्रबंध देखने सामने वाली मेज की ओर चले गए। कमरे में बिछी दरियों पर लोग आकर बैठने लगे। पंडित जी ने वास्तु पूजा आरंभ कर दी थी। पूजा में माँ-बाबा बैठे थे। चंडीदास ओर नन्दलाल द्वार पर खड़े मानो अपने स्वप्न महल की पहली सीढ़ी चढ़ रहे थे.....डायना भी वहीं....उन्हीं के आसपास छाया-सी खड़ी थी....एक संतुष्टि का भाव दोनों के चेहरे पर जबकि यह तय है कि एक समझदार व्यक्ति इस जीवन में सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकता....डायना ने चंडीदास की ओर देखा....चंडीदास ने डायना की ओर ‘‘यह देखो यह मेरा संगीत महल है.....यहाँ मेरी पोर-पोर से निकला संगीत बसता है।’’ फिजा में खुशनुमा सुबह की मुस्कान थी लेकिन अब जब चंडीदास अपने लक्ष्य पर पहुँच चुका है, आँखें भर आई हैं डायना की।
वास्तुपूजा के बाद संगीत वाद्य बज उठे। सभी ने बारी-बारी से गाया। चंडीदास, नन्दलाल, मुनमुन और अन्त में डायना को सुनने के लिए मुकुट गांगुली अधीर हो उठे। डायना यह बात अच्छी तरह सीख चुकी थी कि भारत में गुरु के प्रति विशेष आदर भाव है। अगर बातों-बातों में गुरु की चर्चा भी चल पड़ी हो तो कानों को हाथ लगाकर श्रद्धा जताई जाती है। फिर उसके गुरु, उसके प्राण तो उसके सामने थे। हारमोनियम अपनी तरफ घुमाने से पहले उसने चंडीदास के पैर छुए। एक तरलता चंडीदास की आँखों में तैर गई.....तमाम दुआओं, शुभकामनाओं के फूल उसने मन ही मन डायना के ऊपर उड़ेल दिए। वह गाने लगी-‘‘वन उपवन में, चंचल मोरे मन में, कुंज कुंज फिरे श्याम...........’’
मुकुट गाँगुली वाह-वाह कर उठे। गुनगुन और सुकांत नाश्ते की प्लेटें लगाना छोड़कर दौड़ते आए। मुनमुन अवाक थी....‘‘ये इतना सुंदर गा लेती हैं?’
गीत खत्म हो चुका था लेकिन माहौल अब भी जीवंत था। थोडी देर सभी खामोश रहे फिर तालियों की गूँज ने अनिर्वचनीय आनंद और प्रशंसा की झड़ी लगा दी।
चाय नाश्ते के बाद सब लौट गए। चंडीदास के परिवार को डायना की मोटर घर तक छोड़ने आई। चंडीदास और डायना अकादमी में ही रुक गए थे।
‘‘आज तो तुमने कमाल कर दिया राधे, सबका मन जीत लिया।’’
‘‘तुम खुश हो, मेरी जीत उसी में हैं चंडी। क्लासेज कब से शुरू कर रहे हो?’’
‘‘कल से ही... अब किस बात की देर। परीक्षा के बाद मुनमुन भी सिखाएगी।’’
‘‘हाँ... वह इस योग्य है.....तुम्हारी छोटी बहन गुनगुन एक खास कैरेक्टर है चंडी....इतनी सी छोटी उम्र में पुरखिन की तरह सोचती है।’’
चंडीदास मुस्कुराया-‘‘अभी तो कुछ ही घंटों का परिचय है तुम्हारा......आगे देखोगी कि कैसी जिम्मेवारियों से भरी है वह। शायरों की तरह महसूस करती है और बच्चों की तरह हँसती और दुखी होती है, मानो सृष्टि का सारा बोझ उसी के कंधों पर हो।’’
चंडीदास ने प्लेट में से संदेश का टुकड़ा उठाकर डायना को खिलाया ‘‘मैंने तुम्हारा मुँह मीठा तो कराया ही नहीं।’’
डायना आधा टुकड़ा मुँह में दबाए आधा चंडीदास के मुँह की ओर ले गई। दोनों के मुँह में एक साथ टुकड़े गए और दोनों ने एक साथ एक-दूसरे के होठों को चूमा। अचानक गला खँखारता नंदलाल बोला-‘‘परमीशन है अंदर आने की।’’ और तीनों की हँसी देर तक कमरे में गूँजती रही।
3
ऋग्वेद में लिखा है कि सृष्टि की रचना करते समय पहले अहं था जो पुरुष के रूप में प्रकट हुआ। डायना के विचारों में मंथन.... एक हलचल-सी मची थी। दुनिया भर की किताबें पढ़ते-पढ़ते धीरे-धीरे वह इस बात को लेकर अपना चैन खोती जा रही थी कि वह एक औरत है और अहंकारी पुरुष से टकराना उसकी नियति है। औरत को लेकर ग्रीक के प्रारंभिक दार्शनिकों का नजरिया बहुत उपेक्षापूर्ण था। उनका तर्क था कि प्राकृतिक रूप से औरत में कमियाँ हैं और वह पूर्ण मानव नहीं है। पश्चिम ने भी इन विचारों को अपना लिया ओर दुनिया के बदलते युग में भी ये विचार खारिज नहीं हुए। रूसो और वॉल्टेयर जैसे लेखक भी इन विचारों से सहमत थे....वे मानते थे कि औरत एक चिंता है जो सदा पुरूष को पीड़ित करती है। लेकिन डायना का तर्क कुछ और कहता था। एक दोस्त के रूप में प्रोफेसर ऑल्टर, टॉम के रूप में पति और चंडीदास के रूप में प्रेमी... इन तीनों के तीन अलग-अलग व्यक्तित्व उसने देखे हैं। ऑल्टर के लिए यदि औरत चिंता होती तो वे कभी अपनी पत्नी की याद में यूँ घुल-घुल कर न जीते और चंडीदास....औरत को सच्चा प्रेम करने वाला पुरूष औरत को चिंता नहीं बल्कि उसके बिना स्वयं को अधूरा समझता है। टॉम के लिए औरत मात्र खिलौना है....शारीरिक भूख के लिए भोजन और शराब की तरह ही अनिवार्य....डायना को लगता है कि विश्व साहित्य में आज तक जो भी लिखा गया वह लेखक के अपने निजी अनुभव और अपने विचार ही हैं। जब वह लिखेगी तो केवल प्रेममय अनूभूतियों का जिक्र करेगी। वह लिखेगी कि चंडीदास में कृष्ण का अंश मौजूद है। लीलाधारी कृष्ण का जिन्हें हर गोपी केवल अपना समझती है और यह मानती है कि कृष्ण तो बस उसके हैं.....उसके और उसके ही।
‘‘मेमसाहब....साहब आ गए।’’ बोनोमाली ने डायना की सोच को जैसे विराम-सा दिया। पीछे-पीछे जॉर्ज चमड़े का बैग उठाए जो खुला था और जिसमें से कागज, फाइलें झाँक रही थीं अदर दाखिल हुआ। जॉर्ज ने बैग टेबिल पर रख दिया।
‘‘हाय.....कैसी हो।’’ टॉम ने मुस्कुराते हुए डायना की ओर देखा और अपना हैट उतारकर बोनोमाली के हाथों में थमा दिया।
‘‘कैसी रही शिमला की ट्रिप?’’
डायना खामोशी से बस मुस्कुराती भर रही। टॉम तरोताजा और खुश दिख रहा था। वह सोफे पर आराम से बैठकर अपना बेल्ट खोलने लगा। जूते बोनोमाली ने उतारे। डायना को उसका यह दूसरों से तीमारदारी कराने का स्वभाव नागवार गुजरता है पर उसे पता है टॉम अपनी यह आदत कभी नहीं छोड़ेगा। तभी कुत्ते के पिल्लों की कूँ-कूँ आवाज सुन डायना चौंकी। बोनोमाली अपनी गोद में छोटे-छोटे दो पिल्ले दबाए हुए आया। टॉम ने दोनों को सोफे पर रखने का हुक्म दे उससे कॉफी बना लाने को कहा। डायना एकदम खुश होकर पिल्लों के पास आई-‘‘ओह, कितने प्यारे हैं।’’
‘‘पसंद आए न। ये दोनों तुम्हारे लिए हैं....बेहतरीन मोंगरेल जाति के हैं दोनों।’’
डायना ने दोनों को गोद में बैठा लिया। पिल्ले सहमे से बैठे रहे।
‘‘रास्ते में मैंने इनका नामकरण भी कर दिया। यह सफेद पिल्ला बेस है और भूरा वाला पोर्गीं....पोर्गीं शरारती है, मेरी तरह.....’’ और ठहाका लगाकर हँस पड़ा टॉम।
अपनी मालकिन की गोद में पिल्लों को देख ब्लॉसम कूद कर आई और डायना के कंधे तक चढ़ गई। डायना ने उसे जब प्यार कर लिया तो आश्वस्त हो कंधे से नीचे उतरी और दोनों को पहले सूँघा फिर पंजों से मारने लगी। पिल्लों का सहमापन भी खत्म हो चुका था। जानवर नए माहौल में सहज ही रम जाते हैं। डायना ने दोनों को कालीन पर छोड़ दिया जहाँ वे ब्लॉसम के संग खेलने लगे। टॉम ने फोन लगाया। डायना को टॉम के किसी काम से कोई सरोकार नहीं रह गया था। अब वह पूरी तरह चंडीदास की थी और अपनी इस प्रेमनगरी में उसे किसी का दखल बर्दाश्त न था। वह उठकर चलने को तत्पर हुई थी कि नादिरा का नाम सुन चौंकी। देखा, टॉम रिसीवर कान से लगाए नादिरा से हँस-हँस कर बात कर रहा था.....‘‘हाँ, काफी लम्बा पीरियड आपके दीदार के बिना गुजरा....दार्जिलिंग की वादियों में आपको मिस करते रहे।’’
आम पत्नियों की तरह यह सुन डायना को सतर्क हो जाना चाहिए था.....सवालों की झड़ी लगा देनी चाहिए थी कि मेरे ही सामने एक पराई औरत के संग इस तरह की बातें। पर उस पर कुछ भी असर नहीं हुआ बल्कि आश्वस्ति से उसका मन तनाव मुक्त हो गया..अगर टॉम उससे खुद ही दूर हट जाए तो फिर दुविधा ही खत्म हो जाए।
शाम हो चली थी। डायना लॉन में चहलकदमी कर रही थी। चंडीदास से मिलने के लिए उसका मन बेचैन था। पर वह फोन पर भी उसका हालचाल नहीं पूछ पा रही थी क्योंकि टॉम वहीं बैठा फाइलें देख रहा था। चंडीदास परसों आएगा संगीत की प्रैक्टिस के लिए....तब तक....डायना के खयालों में प्रेम का नशा तारी था। शाम रौनक से भरी थी। दुनिया में इस समय क्या-क्या हो रहा होगा....इस विशाल दुनिया में बूँद सादृश्य उसका अस्तित्व.....पर इस बूँद में प्रेम का सागर बनने की अपार कुशलता है....शायद इसीलिए उसका जन्म हुआ है और शायद इसीलिए वह भारत की धरती पर बस गई है आकर....दुनिया अपनी तमाम तमन्नाओं, तमाम इरादों, तमाम महत्वाकांक्षाओं के एक बड़े मेले को उठाए है इस सबका क्या अन्त होगा। ईस्ट इंडिया कम्पनी का फैलता विस्तार, व्यापार......आधुनिकता की होड़ में और धन जुटाने की हवस में संसार कहाँ जा रहा है? अमीरजादों को पाने के लिए इंगलैंड से भारत आई बिनब्याही लड़कियाँ अपनी स्वप्निल आँखों में कितना बड़ा आकाश उठाए हैं.....क्या होगा अन्त इस सबका....सोच में डूबी डायना कुर्सी पर बैठी ही थी कि नादिरा ने अपने अहाते के लॉन से उसे पुकारा-‘‘हाय डायना.....मिस्टर ब्लेयर लौट आए हैं इसका मतलब ये नहीं कि तुम बैडमिंटन नहीं खेलो। वैसे भी दस पंद्रह दिन से मैं बोर हो रही हूँ। शिमला फिर अकादमी का उद्घाटन...तुम तो ईद का चाँद हो गई डायना।’’
‘‘आओ न! एक दो पारी खेले लेते हैं।’’ डायना ने बोलोमाली से रैकेट और शटलकॉक मँगवाकर नेट बाँध देने को कहा।
बैडमिंटन खेलते हुए डायना ने शिकायत की ‘‘तुम नहीं आईं उद्घाटन के दिन।’’
‘‘अब क्या करें....कमिश्नर साब ऐन उसी दिन छुट्टी पर थे। और फिर तुम तो जानती हो मियाँ घर में हों तो मसरूफियत कितनी बढ़ जाती है।’’
नादिरा के चेहरे पर उचक-उचक कर रैकेट चलाने के कारण पसीना आ गया था और उसका खूबसूरत चेहरा भीगे गुलाब-सा नजर आ रहा था। तभी टॉम भी आ गया। दोनों खेल बंद कर बेंत के सोफों पर आकर बैठ गईं। थोड़ी देर में पारों चाय नाश्ता ले आई।
‘‘आप तो हर वक्त टूर पर ही रहते हैं।’’ नादिरा ने टॉम की ओर देखा और फिर नजरें झुका लीं। टॉम की आँखों में अजीब-सी भूख नजर आई डायना को शायद इसीलिए नादिरा आँख नहीं मिला पा रही है। चाय की घूँट भरते हुए डायना अकादमी के उद्घाटन के दिन का बयान करने लगी। वह टॉम की ऊल-जलूल एवं कुछ भी कह डालने का मौका नहीं देना चाहती थी पर टॉम मौका चूकता नहीं कभी। किसी भारतीय ऋषि ने कहा है कि इन्सान हर क्षण बदलता रहता है। वह बचपन में कुछ और होता है....जवानी में कुछ और... और बुढ़ापे में कुछ और....हम इस क्षण से पहले नहीं थे पर निरन्तरता कायम रहती है। दूर सड़क की ढलान पर छतनारे बरगद की डालियों पर पंछियों का अनवरत शोर था....अंधेरा दम साधे गहराता जा रहा था उजाले की हर चीज को दबोच लेने को आतुर
‘‘आप नहीं गातीं नादिरा जी?’’ टॉम ने बात का सिरा पकड़ा।
‘‘गाती हूँ.... हम भारतीय औरतों में गायन एक जरूरी बात मानी जाती है। जैसे खाना पकाना, सीना-पिरोना, वैसे ही गाना भी सीखना जरूरी है। हमारे यहाँ जब शादियाँ तय होती हैं तो लड़की के गले की भी परीक्षा ली जाती है कि वह सुरीला है या नहीं।’’ नादिरा की आँखें चमक रही थीं- ‘‘जानते हैं मि. ब्लेयर ऐसा क्यों होता है?’’
टॉम ने सवालिया नजरें नादिरा पर टिका दीं।
‘‘जितना मैं जानती हूँ बता सकती हूँ।’’ डायना ने आहिस्ते से कहा-‘‘यहाँ जितनी ऋतुएँ आती है, जितने मौसम बदलते हैं, हर एक के अपने गीत अपना राग है। चैत्र मास में चैती गाई जाती है....फसल बोने-काटने के गीत होते हैं। वर्षा के गीत, बसन्त के गीत, शिशिर और पतझड़ के गीत, शादी की रस्मों के गीत, विदाई के, मुंडन के, कान-नाक छेदने के, जनेऊ संस्कार के, जन्मदिन के....कितनी तरह के गीत...और लगभग सारे गीत औरतें ही गाती हैं।’’
नादिरा ने ताज्जुब से डायना को देखा-‘‘वाकई....इतनी गहराई से गीतों की महिमा मैंने सोची नहीं थी। दाद देनी पड़ेगी आपकी होशियारी की।’’
डायना मुस्कुरा पड़ी-‘‘और भी नादिरा....त्यौहारों के भी अलग-अलग गीत...जब शिशु जन्म लेता है तब सोहरें गाई जाती हैं जिनमें ननद भाभी के रिश्तों की चुटकी ली जाती है।’’
‘‘वाह....क्या बात है डायना, तुम सही अर्थों में गायिका हो...अब होली के बाद फागुन मास खत्म होकर चैत्र लग जाएगा। सुना दो चैती.....’’ नादिरा ने आग्रह किया।
टॉम इतनी देर से खामोश बैठा शायद कुछ और सोच रहा था। अब वक्त हो चला था, ड्रिंक का... तलब हावी हो रही थी। गाना सुनने का मूड भी नहीं था सो उठते हुए बोला-‘‘आज रहने दीजिए नादिरा जी, सफर की थकान है जल्दी सोना चाहता हूँ।’’
लेकिन माहौल तो संगीतमय हो चला था। टॉम के सुनने न सुनने से डायना को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बोझिल कदमों से नादिरा से माफी मांगते हुए चला गया। डायना गुनगुनाने लगी। गुनगुनाते हुए ही स्वर साधा और सुरीली आवाज नादिरा के कानों को मधुरता प्रदान करने लगी...पिछले दिनों ही चंडीदास ने यह भोजपुरी गीत डायना को सिखाया था।
रामा चैत कै निन्दिया बड़ी बैरनिया हो रामा,
सुतलो बलमवा न जागे हो रामा
चढ़त चैत चित न लागे हो रामा, बाबा के भवनवा
उर बीच उठत दहनवां हो रामा।
अचानक डायना के सुर में सुर मिलाकर नादिरा भी गाने लगी। डायना नादिरा के इस रूप से अपरिचित थी जैसे एक ही नादिरा अनगिनत जगहों पर मौजूद थी। जैसे आईने के टूटे टुकड़ों में एक ही चेहरे के अलग-अलग प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं।
नादिरा को विदाकर जब डायना कमरे में लौटी टॉम दूसरा पैग गिलास में ढाल रहा था। डायना सीधी कमरे में पहुँची और जूते उतारकर बाथरूम में तरोताजा होने चली गई। होली नजदीक थी और हलकी-हलकी गर्मी पड़ने लगी थी। हालांकि रातें काफी ठंडी थीं। अलमारी में से उसने सफेद पोशाक निकाली जिस पर काले बटन टँके थे। पोशाक देखकर वह खो-सी गई। इस पोशाक की तारीफ में चंडीदास ने उसे चाँदनी नाम दिया था...‘‘ऊपर से नीचे तक सिर्फ चंद्रिका हो उठी हो राधे....जानती हो चाँद पर एक धूमिल-सा धब्बा है पर तुम....बेदाग....निर्मल....संगमरमर सी।’’
‘‘जानते हो चंडी वह धब्बा चाँद का दोष नहीं है बल्कि उसका पहरेदार है....कोई बुरी नजर नहीं डाल सकता।’’ डायना के इस तर्क पर चंडीदास निरुत्तर था। अपनी इस विदुषी प्रियतमा की तर्कशक्ति पर वह हमेशा चकित हो जाता। शायद इसीलिए उसका आग्रह था कि डायना अब लेखनी उठा ले। अपने अनुभवों, विचारों को वह कलमबद्ध करे...लिखे ताकि उसकी योग्यता और विकसित हो। डायना के मन में भी उथल-पुथल थी। वह भारतीयता पर और कम्पनी शासन की निर्ममता पर लिखने का मन बना रही थी। इधर टॉम आकाश को छूना चाहता था। वह डायना पर दबाव डाल रहा था कि वह अपना व्यापार बम्बई और कलकत्ता में भी शुरू करे...व्यापार के सिलसिले में रहने रुकने के लिए वह मालाबार हिल में एक कोठी खरीदना चाहता था पर डायना ने इस विषय पर गँभीरता से विचार नही किया था। आज भी जब डायना तरोताजा होकर सफेद पोशाक में कमरें में आई तो टॉम ने वही बात छेड़ दी-‘‘तुम मन बना लो डायना, बहुत अधिक संभावनाएँ हैं बॉम्बे में... तुम्हें रूचि नहीं है बिजनेस को बढ़ाने में पर यह तो सोचो...हमारे बच्चे होंगे...परिवार बढ़ेगा, जरूरतें बढ़ेंगी।’’
‘‘टॉम, तुम इण्डिया की राजनीतिक उथल-पुथल से वाकिफ़ नहीं हो क्या? यहाँ आजादी के दीवाने मरने-मारने पर उतारू हैं... देश नई करवट ले रहा है। जागरण की लहर पूरे देश में फैल चुकी है। कभी भी, कुछ भी हो सकता है। ऐसे में क्या यह ठीक रहेगा कि हम अपना बिजनेस यहाँ भी शुरू करें?’’
‘‘ओह डायना.....तुम भी क्या फिजूल की बातें ले बैठीं। ऐसा कुछ नहीं होगा। हमारे पास बंदूकें हैं और इन गुलामों के पास केवल भावनाएँ। गांधी के आदमी सीना खोलकर अंग्रेजों की गोली खाते हैं....मूर्ख, जाहिल.....लड़ना नहीं जानते।’’ और वह ठठाकर हँस पड़ा।
उसकी जहरीली हँसी देर तक डायना के कानों में चिनगारियाँ सुलगाती रही। टॉम को अपनी बंदूक पर बहुत भरोसा है पर वह नहीं जानता कि मतवाले हाथियों के आगे बंदूकें भोथरी हो जाती हैं। दुनिया में यही कुछ हो रहा है। मित्र राष्ट्रों ने फ्रांस का खात्मा कर दिया। अंग्रेजों को लड़ाई के लिए सैनिक चाहिए थे पर इन्हीं गांधी की कांग्रेस ने उनसे कहा कि यदि केन्द्र में पूर्ण रूप से स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार स्थापित कर दी जाए तो वे लड़ाई में सहयोग देने को तैयार हैं पर अंग्रेजों को यह स्वीकार न था। स्वतंत्रता शब्द से ही चिढ़ थी उन्हें....और फिर आरंभ हुआ सत्याग्रह आंदोलन। जिन भारतीयों को टॉम मूर्ख, जाहिल कह रहा है उन्होंने ही अंग्रेजों को रोनी रुलवा दी। जेलों को सँभालना मुश्किल हो गया क्योंकि जेल भरो के नारों ने इंच भर जगह भी जेलों में नहीं छोड़ी। अब सँभालो उन्हें।....सारी व्यवस्था चरमरा गई।
अब तो डायना दिल से दुआ कर रही है कि इण्डिया आजाद हो जाए। उसका चंडी आजाद हो जाए.....आजादी की हवा में जीने का नशा ही कुछ और है।
पर इस वक्त...इस वक्त शराब का नशा है और एक तीखा सच.....एक विडंबना कि वह टॉम की गुलाम है...जिस शरीर पर चंडीदास का हक है और जिस शरीर का रोयाँ-रोयाँ चंडीदास के लिए व्याकुल है....सामाजिक हक लिए आज उसी शरीर को भोग रहा है टॉम....यह कैसी बेबसी है कि उसे टुकड़ा- टुकड़ा बिखरकर टॉम की वासना को शांत करना पड़ रहा है? यह कैसी नियति है जो उसका पीछा ही नहीं छोड़ती जबकि वह पूरी तरह टॉम से विरक्त हो चुकी है। इन अनचाहे पलों में अपनी डबडबाई आँखों के आँसू आँखों में ही रोककर वह बुदबुदाई... ‘‘मुझे माफ करना चंडी, मेरे किसना.......’’
मुनमुन की परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थीं और वह संगीत चित्रकला अकादमी में संगीत सिखाने जाने लगी थी। एक-एक कर विद्यार्थी भी बढ़ते जा रहे थे। कमरा छोटा पड़ने लगा था तो चंडीदास ने सभी विद्यार्थियों को दो दलों में बाँट दिया था। सुबह के दल को संगीत सिखाने में नन्दलाल उसकी मदद करता और शाम को मुनमुन....लिहाजा डायना के संगीत में लगातार चंडीदास की अनुपस्थिति होने लगी। डायना ने सलाह दी कि शाम के लिए एक संगीत मास्टर नियुक्त कर लो।
‘‘लेकिन उसे तनख्वाह देनी पड़ेगी न।’’ चंडीदास ने शंका व्यक्त की।
‘‘हाँ तो क्या हुआ...विद्यार्थी भी तो ज्यादा हो रहे हैं। उनकी फीस से ही एडजस्ट करना पड़ेगा। और फिर इतना घबराते क्यों हो चंडी.....मैं किस दिन के लिए हूँ?’’
चंडीदास को यह कबूल न था। उसका डायना से जो रिश्ता था उस रिश्ते के ऊपर कुछ न था...न पैसा, न समाज, न व्यक्तिगत अड़चनें...इन सबसे वह खुद निपट लेगा पर इसमें अपनी महबूबा को शामिल नहीं करेगा। यह उसके उसूलों के खिलाफ था। हँसकर बोला-‘‘मेरी खजाँची....मेरे खजाने को भरने तो दो तब देना जितना जी चाहे............’’
डायना चंडीदास के उसूलों के आगे नतमस्तक थी। एक ओर टॉम था जिसे डायना की दौलत से जुनून की हद तक लगाव था और डायना से केवल इतना कि वह उस मोमबत्ती की तरह हो जिसे रात होते ही वह जला दे और मोमबत्ती पिघलने लगे और दूसरी ओर चंडीदास जिसके लिए डायना ईश्वरीय अनुभूति थी....प्रेम की ऐसी नदी जिसकी लहरों पर उन दोनों की मोहब्बत के दीप आहिस्ता-आहिस्ता बहते हैं। डायना की दौलत चंडीदास के लिए महज ठीकरा थी... उससे उसे कोई वास्ता न था।
मुनमुन का ही एक सहपाठी सत्यजित शाम की कक्षा सँभालने लगा। चंडीदास को थोड़ा वक्त मिल गया अपने अधूरे कामों को निपटाने का और डायना को संगीत सिखाने का। तनख्वाह की बात पर सत्यजित दुखी हो गया- ‘‘कैसी बात करते हैं दादा........मैं मुनमुन का दोस्त हूँ और इसी नाते यहाँ आया हूँ...जब रुपयों की जरूरत होगी माँग लूँगा।’’
चंडीदास ने साफ देखा कि यह कहते हुए सत्यजित ने बहुत स्नेह से मुनमुन की ओर देखा था और मुनमुन ने निगाहें झुका ली थीं।
न ठंड का मौसम था, न बर्फीली हवा, फिर भी सुकांत के साथ चलते हुए गुनगुन ने कँपकँपी-सी महसूस की। सामने दूर तक सड़क बड़े साफ-सुथरे अंदाज में खुलती चली गई थी पर जाने क्यों गुनगुन का मन अंतहीन भटकाव में डैने पसारे परिंदें-सा भटक रहा था। राहें कहाँ तितर-बितर हुई जा रही हैं....मंजिल तो स्पष्ट है फिर भी मन में दुविधा क्यों?... किस बात का तनाव? किस बात की फिक्र? जैसे नदी की ठंडी मौजों में वह तैर रही है और बदन सिकुड़ा जा रहा है। सुकांत ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया - ‘‘गुनगुन......इतनी खामोश रहोगी तो कुछ भी हो नहीं पाएगा।’’
सहसा गुनगुन के फीके चेहरे पर खोया हुआ जोश वापिस लौटने लगा- ‘‘होगा सुकांत.....यह जो मैं थोड़े समय के लिए दुनिया को भूल जाती हूँ यह मेरा कल है। मेरे आज तो तुम हो सुकांत। सदा मेरे अंदर मौजूद। जानते हो आज की रात कितनों के ब्याह की रात होगी। कितनी पालकियाँ दुल्हनों को लेकर विदा हो जाएँगी.....’’
‘‘तुम भटक रही हो गुनगुन...हमारा ब्याह आजादी के संग होना है। हम उसे ही वरेंगे।’’
सुकांत के कथन से झटका-सा लगा गुनगुन को.....अभी कुछ क्षण पहले खुली राहों पर वह जो यह महसूस कर रही थी कि अब मैं किस ओर जाऊँ? अजनबी और अनजाने रास्तों ने उसके शरीर में कँपकँपी पैदा कर दी थी....अब वह स्थिर थी। स्थिर और मजबूत...वह सुकांत को बताना चाह रही थी कि दो दिन पहले वह शिशिर बोस से मिली थी। वुडबर्न पार्क के उनके बंगले पर। उस दिन आजाद हिंद फौज के काफी लोग इकट्ठे हुए थे। मुसीबत की उस घड़ी में सभी के दिमाग में बस एक ही बात खलबली मचा रही थी कि नेताजी को कैसे सुरक्षा प्रदान की जाए। वे अंग्रेजों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे। उन्हें गिरफ्तार कर लेने का शिकंजा कसता जा रहा था। नेताजी ने निर्णय ले लिया था कि अब उनका भारत में रहना ठीक नहीं इसलिए उन्होंने भारत से बाहर चले जाने की योजना पर विचार करना शुरू कर दिया। लेकिन वे जाएँ कैसे, यह एक गंभीर मसला था। इसी पर उस दिन विचार-विमर्श चल रहा था।
गुनगुन ने सुन रखा था कि नेताजी जब से बम्बई से लौटे हैं, अन्दर ही अन्दर कोई योजना क्रियान्वित होने के लिए फड़फड़ा रही है। वैसे भी पूरा देश तरह-तरह के संगठनों, तरह-तरह के नियमों, तरह-तरह की योजनाओं को लेकर खलबला रहा है लेकिन सभी का उद्देश्य आजादी है। वह चाहे मार कर मिले या मर कर। नेताजी मारकर जीतना चाहते थे इसीलिए गांधीजी से उनका मतभेद था। इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता से त्यागपत्र भी दे दिया था और फॉरवर्ड ब्लाक नामक दल का गठन कर लिया था। उनका बम्बई जाना भी इसी उद्देश्य के तहत था ताकि वो अपनी पार्टी की स्थापना और विकास के लिए कार्य कर सकें। बम्बई में वे प्रसिद्ध व्यापारी जटाशंकर डोसा चेचाणी के घर रुके। चेचाणी धनबाद में कोयला खान के मालिक थे। चेचाणी प्रभावशाली व्यक्ति थे इसलिए उनके सम्पर्क कलकत्ता और बम्बई के कई नेताओं से थे। बुनियादी रूप से वे क्रांतिकारी विचारधारा के थे। सबसे पहले तो चेचाणी भवन में नेताजी के सम्मान में बम्बई के क्रांतिकारियों ने एक विशाल जुलूस निकालने का तय किया। उस वक्त जबकि किसी भी एक घटना की बिनाय पर अंग्रेज नेताजी को गिरफ्तार कर सकते थे, यह एक खुली चुनौती थी। जुलूस दक्षिण बम्बई के अनेक भागों से होता हुआ चौपाटी पहुँचा और विभिन्न अखबारों बम्बई हेराल्ड, बम्बई क्रॉनिकल, बम्बई समाचार ओर दैनिक विश्वामित्र ने इस खबर के साथ उनके चित्र भी छापे और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना हो गई। अपनी इस यात्रा में नेताजी की मुलाकात कॉमरेड डांगे से हुई। यह मुलाकात प्रगाढ़ सम्बन्धों की नींव बन गई क्योंकि नेताजी ने डांगे से मजदूर यूनियन फॉरवर्ड ब्लॉक का समर्थन करें, इसके लिए आग्रह भी किया। उन्होंने वीर सावरकर से भी भेंट की जो आजादी के लिए एक विशेष भूमिका निभा रहे थे।
गुनगुन के सामने आजाद हिंद फौज की भूमिका स्पष्ट थी....इस फौज ने अंग्रेजों की नींद उड़ा कर रख दी थी। ब्रिटिश हुक्मरानों को अपना सिंहासन डोलता नजर आ रहा था लेकिन वे नेताजी को गिरफ्तार नहीं कर पा रहे थे जबकि फौज की कार्यवाहियों पर उनकी कड़ी नजर थी। पार्टी के गुप्त सूत्रों से गुनगुन को इतना पता चल गया था कि बम्बई से नेताजी बहुत आश्वस्त होकर लौटे हैं। शायद...शायद नहीं, यकीनन उनके भारत छोड़ने की योजना गढ़ ली गई है। कॉमरेड डॉक्टर गंगाधर अधिकारी को यह कठिन काम सौंपा गया है। गुनगुन की रगों में खून उबाल मार रहा था...वह तन, मन, धन से सच्चे सिपाही-सी अपने को इस बात के लिए तैनात पाती थी कि भले ही रूप छोटा हो पर इस योजना में उसकी भी कोई न कोई भूमिका हो।
सुकांत इन बातों से बेखबर था। लगभग हफ्ते भर ननिहाल में रहकर वह कलकत्ता लौटा था...इस बीच क्या कुछ नहीं गुजर गया।
जूते से सड़क का कंकड़ उछालते हुए उसने गुनगुन से जानना चाहा था कि इस बीच पार्टी की क्या गतिविधियाँ रहीं। गुनगुन ने सतर्क योद्धा के समान आसपास के नजारे का जायजा लिया। सड़क पर इक्का-दुक्का आदमी थे...उनसे कुछ खतरा हो नहीं सकता था फिर भी गुनगुन ने धीमी आवाज में नेताजी के भारत से बाहर जाने की बात कह सुनाई।
‘‘इसमें हमारी क्या भूमिका रहेगी?’’
‘‘वही जो इमारत बनाने में ईंट की होती है। हम सब मिलकर ही तो आजादी की इमारत खड़ी करेंगे।’’
गुनगुन के इस उदाहरण पर सुकांत निहाल हो गया। उसका विश्वास था कि इंसान बस एक बार पैदा होता है और मरता है तो मर ही जाता है....न आत्मा है, न पुनर्जन्म...इसलिए जितनी गहराई से वह देश को आजादी दिलाना चाहता था उतनी ही गहराई से गुनगुन को चाहता भी था। सुकांत का घर नजदीक आ रहा था लेकिन वह गुनगुन का साथ कैसे छोड़े? अपने घर की सड़क पर वह ठिठक कर खड़ा हो गया। सामने आम, अमरूद के बगीचे में अंधेरा बढ़ रहा था और रखवाला तोतों को उड़ाने के लिए मुँह से तरह-तरह की आवाजें निकाल रहा था, जो शाम उस सन्नाटे भरे माहौल में डरावनी-सी लग रही थीं। तोते रात का बसेरा लेने के लिए टहनियों पर आ बैठे थे। घर के बरामदे में सुकांत के पिता आरामकुर्सी पर ध्यान मग्न बैठे थे।
‘‘घर चलोगी?’’ सुकांत ने झिझकते हुए गुनगुन के सामने प्रस्ताव रखा।
‘‘कॉफी मिलेगी?’’ दोनों खिलखिलाते हुए अंदर दाखिल हुए। सुकांत के पिता घोषाल बाबू के पैरों तक गुनगुन झुकी।
‘‘अरे..अरे...रहने दो बेटी।’’ फिर उसके चेहरे को गौर से देखते हुए बोले-‘‘सुकांत के साथ पढ़ती हो न!’’
‘‘जी...बाबा...’’ गुनगुन के मुँह से अनायास बाबा शब्द सुन घोषाल बाबू तपाक से उठे-‘‘अरे कहाँ हो...एई पुकू...देखो तो....कौन आया है।’’ और गुनगुन को साथ चलने का इशारा कर अन्दर बैठक में ले आए। तब तक सुकांत की माँ एक प्लेट में मिठाई लाकर रख गईं....‘‘बैठो...बैठो, कॉफी लाती हूँ। बातें बाद में होंगी।’’
गुनगुन अपनत्व से भरे इस माहौल में ता-उम्र गुजारने के लिए लालायित हो उठी। पर उसके पास उम्र कहाँ है? उसने बड़ी लाचारी से बैठक का मुआयाना किया। घोषाल बाबू ने फुर्ती से मिठाई उठा कर मुँह में डाली-‘‘खाओ....खाओ...अब तो मिठाई खाने के दिन आ गए हैं। अंग्रेजों को देश से खदेड़ने के लिए गाँधी बाबा अपनी लाठी लिए तैयार हैं।’’
‘‘हाँ बाबा....हम सब तैयार हैं....आजादी पाकर ही दम लेंगे।’’ गुनगुन ने भी मिठाई का टुकड़ा मुँह में रखा।
‘‘अपने नेताजी तो प्राणप्रण से लगे हैं आजादी दिलाने में। मैं तो अपना खून देने को तैयार हूँ...छुटकारा चाहता हूँ इन अंग्रेजों से....अरे, हमारा ही देश, हमारा ही धन, हम ही कारीगर-मजदूर और हम पर तरह-तरह के टैक्स लगाते हैं.....नहीं दो तो तोप का धमाका....इतना अत्याचार!!’’
‘‘पर बाबा, कुछ लोग तो अंग्रेजी राज की तारीफ़ करते हैं। कहते हैं बड़ा अमन चैन है।’’
‘‘बेटी, इन्हीं देश के सौदागरों ने तो देश बेचा है। इन्हीं के बल पर तो अंग्रेजो ने व्यापार के नाम पर घुसपैठ मचा दी। इन देशद्रोहियों ने पीढ़ियों तक के लिए मोहरें जमा कर लीं पर उन मोहरों पर हमारा खून लगा है। फलेंगी थोड़े ही।’’
‘‘तो पहले इन्हीं से क्यों न निपटा जाए।’’
घोषाल बाबू ने स्नेह से गुनगुन को देखा...कमसिन उम्र और कुछ कर गुजरने का इतना बड़ा जज्बा! वे सुकांत को समझाते थे कि पहले पढ़ाई पूरी करो फिर कुछ सोचो पर अब सोचते हैं...मोहलत नहीं है इतनी। कांग्रेस आंदोलन तेजी से बढ़ रहा है...आजाद हिन्द फौज का हर सिपाही चिनगारियाँ समेटे तैनात है। ट्रेड यूनियन स्थापित हो रहे हैं। अंग्रेज सरकार उनके लीडरों को गिरफ्तार कर यूनियन को मिटाने पर तुली है....कम्यूनिस्ट पढ़े-लिखे इन्टेलेक्चुअल के रूप में आजादी के मंच पर उभरे हैं। मुस्लिम लीग का अखिल भारतीय अधिवेशन लखनऊ में सितारे-सा उदित हुआ है। लखनऊ में ही कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना हुई है... इतनी घटनाओं को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता....तब वे कैसे रोक सकते हैं सुकांत और गुनगुन को......
‘‘मैं बूढ़ा हो चुका हूँ पर शरीर में दम अभी भी है। तुम्हारे पीछे तो चल ही सकता हूँ।’’
माँ कॉफी ले आई थीं- ‘‘एई पुकू....मैं कहता था न देश आजाद होकर रहेगा.... जहाँ ऐसी वीरांगनाएँ मौजूद हैं वहाँ परतंत्रता कैसी?’’ माँ ने गौर से गुनगुन को देखा-‘‘तुम्हारे भाई ने संगीत की क्लास खोली है न।’’
‘‘संगीत ही तो रणभेरी है।’’ घोषाल बाबू ने कॉफी सुड़की।
‘‘आप भी बस.....पूछने दीजिए न। इनके भाई वो अंग्रेजनी को भी तो संगीत सिखाते हैं। उसका पति कितना जालिम है...ब्लेयर, हाँ ब्लेयर है।’’
‘‘चुप भी करो माँ....उससे गुनगुन का क्या ताल्लुक।’’ सुकांत ने बात सँभालते हुए गुनगुन से कहा-‘‘चलो तुम्हें घर तक छोड़ दें... रात हो रही है।’’
‘‘हो रही है नहीं, हो चुकी। साईकिल ले जाओ।’’ कहते घोषाल बाबू उठे तो गुनगुन ने दोबारा उनके पैर छुए। वे गंभीर विचारों के सुलझे हुए व्यक्ति लगे गुनगुन को जबकि सुकांत की माँ आम गृहस्थिन।
फाटक के दोनों और छाई टहनियों को हटाती गुनगुन का हाथ फाटक तक पहुँचा ही था कि टहनियों का काँटा उसकी उँगली में चुभा....टहनियों पर फूल और पत्ते समान मात्रा में थे...बोगनविला के बैंजनी फूल और हरे-हरे पत्ते.....उसने काँटा चुभी उँगली मुँह में रखी ही थी कि बाजू वाली कोठरी से बिना ब्लाउज के सफेद साड़ी पहने....माथे पर गोरोचन की सफेद बिंदी लगाए अपने घुटे सिर को पल्लू से ढके एक महिला निकलीं-‘‘साईकिल लेकर कहाँ जाता रे सुकांत।’’
‘‘बस बुआ....यहीं तक।’’ सुकांत ने गुनगुन को आने का इशारा किया। चलते-चलते गुनगुन ने कोठरी में जलता हुआ दीया देखा। दीये के उजाले में चारों ओर की दीवारें धुएँ की कालौंच से भरी थीं...न जाने किस चीज के बघार की महक कोठरी में भरी थी। महिला ने गुनगुन को अनदेखा कर जल्दी-जल्दी संध्या पूजन के लिए चाँदनी के सफेद फूल तोड़ने शुरू कर दिए।
रास्ते में सुकांत ने बताया-‘‘बुआ चार साल पहले विधवा हो गई।’’
‘‘लेकिन वो कोठरी....’’ गुनगुन ने शंका प्रगट की।
‘‘उसी में तो रहती हैं बुआ....अपना खाना खुद पकाती हैं....हमारी तरह का खाना खाना मना है न उन्हें....धार्मिक बंधन....यही है विधवाओं की विडंबना।’’
गुनगुन काँप उठी....अगर यही जिन्दगी है तो ऐसी जिन्दगी को ठोकर मारती है वह। मरना जीना क्या इंसान के वश में है। कौन पहले दुनिया से विदा ले, कौन बाद में....इसमें इंसान का क्या दोष?
रास्ते भर गुनगुन उदास रही। अमावस की रात में तारे मनमोहक नजर आ रहे थे। गुनगुन के घर की सड़क जिस चौराहे से मुड़ती थी उधर एक कटा नीबू, सिंदूर, राई के दाने पास रखे टिमटिमाते दिये की रोशनी में साफ दिख रहे थे।
‘‘यह सब क्या है?’’ गुनगुन वहीं उतर गई थी और सुकांत के इस कथन पर बेबसी से उसकी ओर देख रही थी।
‘‘वह अंग्रेजनी पूछती तो बात थी। तुम तो बंगाली हो और बंगाल का काला जादू जानते हो। यह अमावस की रात है। जादू टोने की रात है।’’
‘‘माँ की बात का बुरा मान गईं?’’
‘‘हाँ... उस वक्त तो बहुत ही बुरा लगा था। डायना जैसी औरत होना मुश्किल है। कौन से गुण हैं जो उसमें नहीं हैं। वह भारतीय संस्कृति को जितना जानती है....हम तुम उतना नहीं जानते....हिन्दी, संस्कृत, बंगाली धाराप्रवाह बोलती है वह...’’
‘‘मैं माँ की तरफ से क्षमा चाहता हूँ।’’
‘‘सुकांत........मैंने पहले भी कहा था कि नफरत इंसान से नहीं उसके दुष्कर्मों से करो। न सभी अंग्रेज बुरे हैं, न सभी भारतीय अच्छे....यह बात दीगर है कि अंग्रेज हम पर हुकूमत करते हैं और हम उनके गुलाम हैं।’’
खड़क खत्म हो चुकी थी और इस अन्त से सुकांत को गुनगुन से विदा लेना था, पर दोनो के बीच बड़ी उदास खामोशी छाई थी। अंधेरे में केले के गाछ भूत की तरह लग रहे थे। गुनगुन ने ही बोझिल माहौल को हलका किया-‘‘अब जाओ सुकांत, कल शाम को मिलते हैं....वहीं अपने पुराने अड्डे पर।’’
‘‘ओके बॉस.......जो आज्ञा।’’ सुकांत ने तपाक से कहा तो दोनों खिलखिला पड़े। पेड़ के घोंसलों में बैठे पंछियों ने उस आवाज से सतर्क हो पँख फड़फड़ाए। गुनगुन ने उँगली पेड़ की ओर उठाकर कहा- ‘‘वो हैं असली कॉमरेड।’’
खूब पटने लगी थी नादिरा और डायना में। अक्सर दोपहर में नादिरा घर आ जाती....उस वक्त डायना ब्लॉसम, पोर्गीं और बेस के साथ मन बहलाती मिलती। कलकत्ते के अंग्रेजी अखबार में पुलिस कमिश्नर खान साहब के कारनामे की कोई खबर छपी थी उसी को दिखाने नादिरा जब डायना के ड्राइंग रूम में आई उस वक्त दोपहर के तीन बजे थे। सामने लॉन में मौलसिरी के पेड़ की छाया में बैठा बोनोमाली अपना इकतारा बजा कर गीत गा रहा था। लॉन पर तमाम पत्तियाँ ही पत्तियाँ बिखरी थीं जिन पर छोटी-छोटी चिड़ियाँ फुदक रही थीं। हवाएँ पच्छिम की थीं।
‘‘मियाँ की तारीफ़ छपी है।’’ नादिरा ने पेपर डायना की ओर बढ़ाया।
‘‘हाँ, मैंने पढ़ी....खान साहब काबिल इन्सान हैं।’’ डायना ने पेपर लेकर मेज पर रख दिया और पोर्गीं के बालों से खेलने लगी।
‘‘काबिल हैं पर औरतों के प्रति संकीर्ण।’’
‘‘वो तो तुम्हारे इस्लाम धर्म में ही औरतों के प्रति संकीर्णता का नजरिया है।’’
‘‘तुमने इस्लाम धर्म पढ़ा है डायना?’’ नादिरा के स्वर में तल्खी उभर आई थी।
‘‘नहीं....सुना है। पढ़ने की बहुत इच्छा है। पर मुझे उर्दू-फारसी लिपि का ज्ञान नहीं और अनुवाद पढ़ने में विश्वास नहीं करती क्योंकि तथ्य बदल जाते हैं अनुवादक से।’’
‘‘बजा फरमाया.......पर डायना मेरी जान......मैंने तो पढ़ा है इस्लाम धर्म। मैं जानती हूँ कि तुम्हारे मुल्क में ऐसी मान्यता है कि इस्लाम की नजर में औरत आदमी से कमतर है। पर यह सच नहीं है......मुझे तो लगता है कि पश्चिम के मुल्क कुरान और इस्लाम की परम्पराओं तक पहुँच ही नहीं रखते अपनी।’’ नादिरा बहस पर उतर आई थी।
‘‘तो फिर सच क्या है?’’ डायना को भी मजा आ रहा था.....मजा भी और जिज्ञासा भी....वह पहलू बदल कर आराम से बैठ गई। उसकी गोद से कूदकर पोर्गीं कालीन पर एक अंगड़ाई लेते हुए बैठ गया।
‘‘सच ये है कि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा सिस्टम है जिसमें मर्द और औरत बराबर की नजर से देखे जाते हैं। औरत के अधिकारों की सुरक्षा और उसे पुरुषों के बराबर स्टेटस देने में जो काम इस्लाम ने किया वह किसी दूसरे धर्म और सिस्टम ने नहीं किया है। इस्लाम द्वारा औरत को दिया गया दर्जा बेजोड़ है, जिसका किसी भी दूसरी जगह या दूसरे समाज समरूप नहीं मिलता है।’’
‘‘क्या तुमने अन्य धर्मों को भी पढ़ा है?’’ डायना इस्लाम की प्रशंसा पर संदेह करने लगी।
नादिरा ने डायना की नब्ज पकड़ ली-‘‘हाँ क्यों नहीं, ईसाई धर्म को ही लो। ईसामसीह कहते हैं औरतों और कोढ़ियों पर दया करो.....यानी कि औरतों के अधिकारों को स्वेच्छा से या दया दिखाते हुए स्वीकार किया है पश्चिम के देशों में.....बड़ा उपेक्षापूर्ण नजरिया है वहाँ।’’
इस बात की कायल तो डायना भी थी और इसी बात को लेकर पश्चिम समाज से वह कुछ मतभेद भी रखे थी। नादिरा के तथ्य गहन अध्ययन को स्पष्ट कर रहे थे।
‘‘डायना....आप पढ़िए इस्लाम धर्म जनाब.....नाहक भ्रांतियों को मत पालिए....इस्लाम की तरह कुरान में औरतों को पुरुषों के समान ही अच्छे कार्य पर इनाम मिलने की बात कहीं गई है। अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भी औरत और आदमी के बीच कोई भेदभाव नहीं है। सम्पत्ति पर तो दोनों का समान अधिकार है।’’
‘‘अच्छा!!’’ डायना की आँखें फैल गई- ‘‘यह तो नई बात सुन रही हूँ मैं जबकि तीन बार तलाक कहकर औरत को हर अधिकार से वंचित कर देता है पुरुष।’’
‘‘वह एक दीगर चर्चा का विषय हो जाएगा। मुझे तो बस इतना कहना है कि हमारी आजादी को मर्द ने अपनी मनमानी के कारण नकारा है। हमारे लिए स्कूल, मदरसे के दरवाजे बंद हैं और मुहम्मद साहब ने कहा है कि ज्ञान की खोज हर मुस्लिम स्त्री-पुरूष का परम कर्त्तव्य है। अब बताओ, मानते हैं क्या ये बात मर्द।’’
‘‘बड़ी गंभीर चर्चा चल रही है नादिरा बाजी और हमारी बेगम साहिबा में।’’ अचानक टॉम कब कमरे में दाखिल हुआ दोनों नहीं जान पाईं। नादिरा चिहुँकी-‘‘अरे, अब तो आप मेरे भाईजान हो गए।’’
टॉम ने हैट मेज पर रखा-‘‘वह कैसे?’’
‘‘लीजिए.....आपने अभी तो मुझे बाजी कहा। मतलब जानते हैं इस शब्द का। हमारे में बड़ी बहन को बाजी कहते हैं।’’
‘‘ओ माई गॉड....यह तो बुरा हुआ....हम अपने शब्द वापिस लेते हैं।’’
‘‘शब्द वापिस नहीं होते.....अब तो आप मुझे बाजी ही कहिए।’’ नादिरा ने शरारत से कहा।
‘‘बुरे फँसे।’’ टॉम ने ठहाका लगाया और दोहराया’’ ‘‘नादिरा बाजी।’’
आदत के मुताबिक टॉम के आते ही चाय आ जानी चाहिए सो आ गई। केतली खुलते ही उम्दा चाय की महक कमरे में फैल गई।
‘‘हूँ......दार्जिलिंग की चाय।’’ नादिरा ने हवा में महक को सूँघा।
‘‘हाँ....एक बड़ा खोखा भरवा के लाए हैं चाय....वहाँ की चाय ही ऐसी है।’’ टॉम को बहुत कुछ चाय बागानों से जुड़ा याद आया। एक फुरेरी-सी ली उसने और प्रगाढ़ता से बारी-बारी से नादिरा और डायना को देखा। उसकी आँखों में सुरूर-सा छा गया। दूर कहीं गिरजाघर के घण्टे टनटनाए....ऐन उसी वक्त मुल्ला ने अजान दी। नमाज का वक्त हो चला था।
‘‘अब चले टॉम भाईजान।’’ नादिरा ने उठते-उठते फिर छेड़ा।
‘‘ओके नादिरा बेगम।’’ टॉम भी मूड में आ गया था।
‘‘ऐसे कैसे पहले बाजी फिर बेगम?’’
‘‘आप लोगों में तो ऐसा चलता है न?’’
‘‘हाँ....ऐसे रिश्ते भी समझाओगी नादिरा? इसे लेकर भी भ्रांतियाँ हैं मन में।’’ डायना उसे छोड़ने फाटक तक आई। सूनी सड़क पर उसकी आँखें चंडीदास को खोजने लगीं। उसके आने का वक्त हो चला था। टॉम अभी तैयार होकर क्लब चला जाएगा और चंडीदास की प्रतीक्षा में वह सुनसान होती शाम में एक-एक पल एक-एक युग के समान बिताएगी। न जाने क्या हो जाता है। शाम होते ही अथाह उदासी घेर लेती हैं.........उस वक्त गोधूलि बेला में जब दोनों वक्त मिलते हैं और जब चिरागों से रोशन जगमगाते कमरों में लोग अपने-अपने हमसफर के साथ मौज-मस्ती करते हैं......डायना को एकाएक पछतावा-सा दबोच लेता है और ऐसा हर शाम होता है और वह समझ नहीं पाती कि क्यों?
चंडीदास ने साईकिल स्टैण्ड लगाकर खड़ी की और नाटकीय अंदाज में फाटक के पास ही टहलती डायना से बोला-‘‘ओ मेरी चंपा की डाल....यह पंछी बसेरा लेने शाम होते ही आ धमका।’’
डायना की उदासी पल भर में काफूर हो गई। वह चंडीदास से हाथ मिलाकर ड्राइंग रूम में जाने के लिए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी-‘‘यहाँ द्वार पर किसे सी ऑफ करने खड़ी थीं....टॉम को?’’
‘‘नहीं.....तुम्हें वेलकम करने के लिए खड़ी थी, बस तुम्हारे इंतजार में। आज क्लब चलने के लिए टॉम आग्रह कर रहा था।’’
‘‘चली जातीं? बंदा दरवाजे से ही अबाउट टर्न हो हुगली के किनारे उसकी लहरों के साथ सर धुनता।’’
‘‘लगता है आजकल नाटकों की किताबों पर शामत आई है।’’ डायना ने चुटकी ली और संगीत कक्ष में आकर तानपूरा उठा लिया-‘‘आज तुम्हें गालिब की ग़ज़ल सुनाऊँगी जो मैंने खुद कंपोज की है।’’
चंडीदास को इन्हीं पलों का इंतजार रहता है। अपनी इस संगीत शिष्या के हाथों के और गले के हुनर को वह बखूबी समझता है। उसने हारमोनियम खोला जरूर पर बजाया नहीं। वह टकटकी बाँधे अपनी प्रिया को निहार रहा था। जिसे वह अपने अन्तर्मन से चाहता है लेकिन अपने जीवन के दुखों में कमियों में उसे कभी शरीक नहीं करना चाहता। प्यार और दुख के इस संगम पर वह खुद को असहाय महसूस करता है कि वह कुछ कर नहीं पाया अब तक अपनी राधे के लिए। उसे लगता है जैसे वह समंदर की लहरों के बीच एक जजीरे में है। चारों और अथाह जलराशि और डायना उस जजीरे से सैंकड़ों प्रकाश वर्ष दूर अपनी कोमल हथेलियों में मेहंदी लगाए और आँखों में सपने सजाए उसके इंतजार में बैठी है। वह महसूस कर सकता है उसे, सोच सकता है उसे....खुद के वजूद में खुशबू की तरह सूँघ सकता है उसे। अपनी बेचैनियों की अथाह गहराइयों में खिलते और मुरझाते मौसमों की सरगोशियों में सुन सकता है उसे.....पर......पर उस तक उसकी पहुँच क्यों नहीं? जिन्दगी की डगर पर हमसफर क्यों नहीं?
‘‘कहाँ खो गए। गजल अच्छी नहीं लगी न....मैं और रियाज करूँगी, और मेहनत करूँगी।’’ डायना ने तानपूरा एक ओर रखते हुए कहा।
‘‘नहीं राधे.....बेमिसाल गायन था पर मैं इस दिल का क्या करूँ जो यह सोच-सोच कर घबराता है कि कहीं छूट न जाऊँ तुमसे।’’
‘‘अरे, कैसी बेतुकी बात सोचते हो।’’ कहती हुई डायना चंडीदास के नजदीक आ बैठी फिर उसके गले में अपनी बाँहें डालती हुई बोली-‘‘जानती हूँ......चारों ओर आजादी के लिए आंदोलन छिड़े हुए हैं.....किसी भी वक्त क्रांतिकारी अंग्रेजों को उनके देश का रास्ता दिखा देंगे पर तुम्हारी राधे काल, सीमा से परे है और केवल तुम्हारी है।’’
चंडीदास डायना को पागलों की तरह चूमने लगा। उसकी डबडबाई आँखों से आँसू ढलक कर डायना के गालों को भिगोने लगे। वह बुदबुदाया-‘‘नहीं रह पाऊँगा तुम्हारे बिना.....तुमसे बिछुड़ते ही मैं तुम्हारे लिए तरसने लगता हूँ.......कल्पना की खुलती बंद होती खिड़की से बस तुम्हारी राह तकता हूँ.......और तब अपनी हसरतों को मायूसी में तब्दील पाता हूँ।’’
‘‘नहीं किसना... इस तरह मन को मत उलझाओ। इस तरह प्यार को असहाय मत करो। हमें ईश्वर ने मिलाया है तो कोई वजह जरूर होगी। बिना उसकी मर्जी के पत्ता भी नहीं खड़कता।’’
दोनों ड्राइंग रूम में आ गए। बोनोमाली चाय-नाश्ता ले आया। धीरे-धीरे दोनों प्रकृतिस्थ हुए तो बातों के सूत्र खुलने लगे। संगीत अकादमी की बातें, मुनमुन के दोस्त सत्यजित की बातें, गुनगुन के देश के लिए देखे जा रहे सपनों की बातें और फिर नादिरा के दिए तथ्यों पर हुई गर्मागर्म बहस की बातें........
‘‘नादिरा काफी जानकारी रखती है....और तो और कविताएँ भी लिखती है। मिलवाऊँगी तुमसे।’’
टॉम के लौटने का वक्त हो चला था। चंडीदास भी घर के लिए अपना शांति निकेतन का झोला कंधे पर टाँगने लगा। डायना उसे छोड़ने फाटक तक आई....सुनसान सड़क पर उसकी साईकिल को जाता देखती रही। पोर्गीं और बेस उसकी टाँगों से लिपटे जा रहे थे.......रातरानी की महक से बगीचा गुलजार था। वह दोनों कुत्तों को गोद में उठाए थकी-थकी-सी आकर सोफे पर बैठ गई। आज उसे चंडीदास काफी बेचैन लगा था। यह तो सही है कि देश नाजुक परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है। अक्सर वह खुली आँखों एक जलजला-सा महसूस करती है। उस जलजले में उसे हुगली के किनारे लगी नौकाएँ उलटी पड़ी नजर आती हैं। पेड़ जड़ से उखड़ गए से लगते हैं.....घर, बंगले, कोठियाँ, गुरूद्वारा, मंदिर, मस्जिद सबकी नींवें ऊपर नजर आती हैं और बुर्जियाँ, कलश नीचे.....लगता है जैसे सिंहासन डोल रहे हैं, चारों और हथगोले फूट रहे हैं, बंदूके चल रही हैं। तोपों के मुहाने आग उगल रहे हैं.....उस जलजले के साथ कितना बड़ा जुलूस है जिसमें सफेद कपड़ों में मदर मेरी धीरे-धीरे अपनी छाती में क्रॉस दबोचे आगे बढ़ रही हैं क्योंकि वे जानती हैं कि वे जिसे जन्म देंगी उसे इस क्रास की जरूरत पड़ेगी। और अचानक सब कुछ गाढ़े धुएँ में तब्दील हो जाता है। और डायना बेचैन हो अस्फुट चीख को दबा लेती है......भीतर ही भीतर! ओह चंडी.....यह कैसी मन की दशा होती जा रही है...कहीं तुम सचमुच छूट तो नहीं रहे हो मुझसे।
हवाएँ गर्म हो चली थीं। क्षितिज चिलचिलाने लगा था। बाजार में खरबूजे, ककड़ियों का अम्बार नजर आता। दोपहर होते ही तवे-सा दहकने लगता था शहर। धीरे-धीरे अमीरों की कोठियाँ खाली हो रही थीं और वे पहाड़ों का रुख कर रहे थे। डायना को भी टॉम के साथ बिना मर्जी के कश्मीर जाना पड़ा था। देखते ही देखते आसमान पर घटाटोप बादल छा गए.....पहले रिमझिम फिर तेज बौछारों ने शहर को भिगो भिगो डाला। हर ओर जल ही जल। कश्मीर से लौटी डायना को जब चंडीदास ने बाहों में भरकर चूमा तो ठंडी तेज हवाओं में उसके बाल लहराकर चंडीदास के चेहरे पर छा गए। एक घटा वहाँ भी उमड़ आई। बरसात बीती तो क्वार लग गया। घर-घर में दुर्गा पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। इस बार दशहरे पर चंडीदास ने अपनी कमाई से सोने की मोती जड़ी अंगूठी डायना को पहनाकर उसके हृदय को अपने बंधन में बाँध लिया। अंग्रेजों में अंगूठी पहनाना महज एक शगल नहीं बल्कि एक पवित्र समझौता है....साथ-साथ जिन्दगी गुजारने का। इस समझौते की परीक्षा से वे दोनों मुद्दतें हुई गुजर चुके हैं। कार्तिक की अमावस्या आई.....जगमग दीपमालिका ने दुल्हन-सा सजा दिया अंधेरे को। फिर माघ-पूस की ठंडी पुरवाइयाँ चलने लगीं। ठंड में ठिठुरे मन, शरीर लिपट पड़ने को आतुर हो उठे। सड़कों पर, बाग-बगीचों में कोहरा ही कोहरा, ओस ही ओस और जोर शोर से क्रिसमस की तैयारियाँ शुरू हो गईं। कलकत्ते की रौनक देखते ही बनती थी। इस बार डायना चंडीदास को क्रिसमस पर सरप्राइज देना चाहती थी।
और गुनगुन और सुकांत व्यस्त थे अपनी पार्टी की गतिविधियों में। पार्टी का हर एक सदस्य नेताजी को गिरफ्तारी से बचाने और देश छोड़ने की योजना को क्रियान्वित करने की अपनी जिम्मेवारी को अलग-अलग ढंग से निभा रहा था। बम्बई से सीमांत नेता भगतराम तलवार, डॉक्टर गंगाधर अधिकारी के निर्देशानुसार मुस्लिम फकीर के भेष में कलकत्ता पहुँच गए। नेताजी को भी मुस्लिम फकीर ही बनना था। उनके फकीराना वेशभूषा की खरीदारी का काम दो कॉमरेडों के साथ सुकांत और गुनगुन को सौंपा गया। चारों ने अभी बाजार में कदम ही रखा था कि डायना की मोटर भी वहीं आकर रुकी। वह पारो के साथ क्रिसमस की खरीदारी के लिए आई थी। बाजार की रौनक देखते ही बनती थी। बिजली के लट्टुओं, कंदीलों और खिलौनों से पटा पड़ा था बाजार। गुनगुन इस वक्त डायना से मिलना नहीं चाहती थी क्योंकि वह गुप्त खरीदारी के लिए आई थी। जब डायना एक कपड़ों की बड़ी-सी दुकान में घुस गई तब गुनगुन अपने साथियों के साथ दूसरी गली में मुड़ गई। डायना ने चंडीदास के लिए बेहतरीन, कीमती कोट और पैंट का कपड़ा खरीदा, कीमती जूते खरीदे और पन्ने की कीमती अँगूठी। डायना ने नगों के बारे में पढ़ा था कि कलाकारों को पन्ना बहुत सफलता दिलाता है। वह चंडीदास को सफलता के शिखर पर देखना चाहती थी तभी तो उसकी साधना भी सफल होगी।
गुनगुन और उसके साथियों ने भगतराम तलवारजी के आदेशानुसार नेताजी के लिए दो पाजामे और फैज टाइप टोपी खरीदी। सूटकेस अटैची और बिस्तरबंद खरीदा। एक चीनी दुकान से काबुली चप्पलें खरीदीं। खरीदारी के बाद चारों फुर्ती से बाजार से बाहर हो लिए। गुनगुन का मन फुचके खाने का था। खा भी लेती पर दोनों कॉमरेड क्या कहेंगे यह सोचकर रह गई। चारों ने सारा सामान वुडबर्न पार्क पहुँचाया। इला दी और द्विजेन दा ने सारा सामान चैक करके प्रशंसा भरी नजरों से गुनगुन की ओर देखा- ‘‘वाह, खरीदारी में तुम उस्ताद हो।’’
गुनगुन के सीने में उमंग की लहर उठी और ओर छोर फैल गई।
‘‘इला दी, और काम बताएँ।’’
इला दी ने भगतराम तलवार की ओर देखा। वे एकदम सैन्य मुद्रा में कुर्सी पर तने बैठे थे। बोले-‘‘कुरान शरीफ़ मैं बम्बई से लेता आया हूँ। विजिटिंग कार्ड भी छप गए हैं।’
उन्होंने कॉमरेडों को विजिटिंग कार्ड दिखाया जिस पर नेताजी के नाम की जगह मुहम्मद जियाउद्दीन, ट्रेवलिंग इंस्पेक्टर, द अंपायर ऑफ लाइफ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड छपा था। सबने बारी-बारी से कार्ड देखा और एक दूसरे की ओर....कि अब हमें इस बदले हुए स्वरूप को अंतिम अंजाम तक पहुँचाना है। लगभग दो घंटे चली इस बैठक में तमाम बातों पर पुनर्विचार हुआ और सभी कॉमरेडों को उनके कार्य समझा दिए गए। क्रिसमस के बाद मिलने का तय हुआ। बंगले से बाहर सब एक साथ नहीं बल्कि एक-एक कर थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद निकले क्योंकि पुलिस के गुप्तचरों की कड़ी नजर उन पर थीं। लेकिन सुकांत और गुनगुन साथ-साथ निकले। ढलती शाम के खुशनुमा माहौल में क्रिसमस का उत्सव अंगड़ाइयाँ ले रहा था। हर सड़क, हर गली रोशन थी। बच्चे सांता क्लाज के लिए अभी से पलक पाँवड़े बिछाए थे और क्रिसमस कार्डस से दुकानें सजी थीं। सामने ठेले पर फुचके देख गुनगुन का मन फिर मचला। वह सुकांत का हाथ पकड़ ठेले की ओर चलने लगी-
‘‘चलो फुचके खाते हैं।’’
‘‘इस ठंड में इमली का पानी गला खराब कर देगा।’’
‘‘अरे, तुम कब से गायक हो गए?’’
‘‘जब से तुम मिलीं।’’ सुकांत की हाजिर जवाबी पर गुनगुन फिदा हो गई।
फुचके के ठेले के पास पंद्रह सोलह साल का एक अंग्रेज लड़का अपनी बहुत मोटी थुलथुल माँ के साथ खड़ा फुचके खा रहा था। वह फुचका मुँह में रखता और मुश्किल से चबा कर निगलता। मुँह से सी-सी की आवाज करता और आँख, नाक से पानी बहाता। फुचके वाला भी उसके फुचकों में मिर्ची वाली चटनी कुछ ज्यादा ही भर रहा था। गुनगुन और सुकांत को मजे से फुचके खाता देख लड़का बोला.....‘‘आपको हॉट नहीं लगता, इट्स वेरी हॉट.......’’
सुकांत ने चिढ़कर कहा- ‘‘हमें मिर्च खाने की आदत है....आप भी खाना सीख जाइए.....पाचन-शक्ति बढ़ाती है मिर्ची’’ और हो-हो करके हंसने लगा। इस बार गुनगुन ने भी हँसी में उसका साथ दिया। पिछले कुछ घंटों का तनाव अब दूर हो गया था। यही खासियत है इन क्रांतिकारियों की। सुख-दुख, हँसी-खुशी उसी दिन जी लेते हैं। भविष्य के लिए कुछ बचाकर नहीं रखते क्योंकि ये जानते हैं कि इनका भविष्य बंदूक की नोक पर है। कब गोली चले और कब सब कुछ खत्म।
क्रिसमस के दिन सुबह से ही डायना के बंगले पर बधाई देने वालों का ताँता लगा था। बंगला कंदीलों, बिजली के लटूटुओं, क्रेप पेपर की झालरों और क्रिसमस ट्री से दुल्हन की तरह सजा था। हर आगंतुक का स्वागत टॉम और डायना कर रहे थे। उपहारों का आदान-प्रदान तो देर रात तक चला। चर्च से लौटकर लगातार मेहमानों के संग बोलती-बतियाती डायना थक चुकी थी। थोड़ा एकांत, थोड़ा आराम चाहती थी....पर समय ही नहीं मिल पा रहा था। शाम के समय जब टॉम के ऑफिस से ऑफिसर वगैरह मिलने आए तो डायना ने राहत की साँस ली। अब वहाँ उसकी उपस्थिति की जरूरत नहीं थी। वैसे भी वह चंडीदास से मिलने को बेचैन थी। आना तो चाहिए उसे क्रिस्मस की बधाई देने। अभी तक आया क्यों नहीं? थोड़ी देर बाद डायना आराम करते हुए भी बेचैन हो उठी। हर पल फाटक खुलने का इंतजार रहता। साईकिल के फाटक की दीवार से टिकाने की आवाज से भी वह खूब परिचित थी। टॉम की बैठक से कहकहे गूँज रहे थे। ऐसा क्यों होता है कि जब भी वह बैचेन होती है बड़ी शिद्दत से लंदन याद आता है। क्रिसमस पर तमाम समृद्धि के बीच वह पिता को गुमसुम पाती थी......खामोशी उसे विरासत में मिली है अगर जीवनसाथी मनपसन्द मिलता....अगर टॉम की जगह उसका चंडी होता तो वह दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत होती क्योंकि उसके जीवन में बस यही एक कमी है। अचानक उसने चंडी को सामने खड़ा पाया। उसके हाथों में लाल गुलाबों का एक बड़ा-सा गुच्छा था जिसमें ग्रीटिंग कार्ड अटका था।
‘‘मैरी क्रिस्मस डायना’’ उसने हाथ आगे बढ़ाया। डायना हुलसकर उसके गले में बाँहें डाल फुसफुसायी-‘‘मैरी क्रिस्मस चंडी....कहाँ थे अब तक? कब से इंतजार कर रही हूँ।’’
‘‘मेरी जानेमन से हजार-हजार बार माफी चाहता हूँ। तुम्हें मुझसे जरा-सा भी दुख मिले तो मैं मर जाता हूँ।’’
डायना ने उसके होठों पर हथेली रख दी-‘‘मरने की बात मत करो चंडी....आज के दिन तो बिल्कुल नहीं। आज तो ईसा का जन्म हुआ था। ईश्वर के उस दूत के जन्म से दसों दिशाएँ उजाले से भर उठी थीं।’’
चंडीदास ने देखा डायना की आँखें भी जैसे उसी उजाले से चमक रही हैं। डायना का हृदय भी ईश्वरीय प्रेम से छलक पड़ता है। वह दिन का हर हिस्सा डायना के लिए जीता है पर ऐसा क्यों महसूस होता है कि डायना के छलकते प्रेम घट में बूँद भर भी प्रेम नहीं लौटा पाया वह। अपनी इस प्रिया के लिए क्या कुछ कर डालना चाहता है वह, पर हर बार यही पाता है कि डायना आगे बढ़ गई और वह पीछे रह गया।
डायना ने पहले चंडीदास को क्रिसमस केक खिलाया फिर उस बेशकीमती उपहार का डिब्बा उसे भेंट किया जिसे वह पिछले दिनों खरीद कर लाई थी।
‘‘खोलूँ? इतना बड़ा डिब्बा! क्या है इसमें?’’
‘‘नहीं, घर जाकर खोलना।’’ कहते हुए डायना ने एक और डिब्बा दिया जिसमें चंडीदास के परिवार के लिए मिठाई, केक आदि था।
‘‘ले कैसे जाऊँगा। आज तो साईकिल भी नहीं है।’’
‘‘मोटर छोड़ आएगी।’’
डायना ने बोनोमाली को आवाज दी और सारा सामान मोटर में रखवा दिया। बैठक से कहकहों की आवाज बंद हो चुकी थी। टॉम के ऑफिस के लोग चले गए थे। वह बड़े हॉल में आया और तेजी से चंडीदास से हाथ मिलाया-‘‘मैरी क्रिस्मस मिस्टर सेनगुप्ता। कैसे हैं आप? सुना है संगीत का इंस्टीट्यूट खोल लिया है आपने?’’
‘‘आइए कभी। आपको अपने विद्यार्थियों से मिलवाऊँगा।’’
‘‘क्यों नहीं.....देखने की मेरी इच्छा है पर टूर से परेशान हूँ। ड्रिंक चलेगा?’’ टॉम ने चंडीदास की आँखों में गहरे देखा।
‘‘मैं ड्रिंक नहीं लेता।’’ चंडीदास का लहजा सपाट था। उसके मन में टॉम के लिए कोई भावना नहीं थी। टॉम महज एक अंग्रेज था। ईस्ट इंडिया कम्पनी का पदाधिकारी....जो भारत से और भारतीयों से घृणा करता था.....ऐसे व्यक्ति के लिए चंडीदास के मन में एक बेचारगी थी....बेचारा टॉम....ईश्वर जाने इस हालत में लंदन से भटकता यहाँ क्यों आ गया और क्यों डायना के जीवन पर कुंडली मारे बैठा है।
नादिरा और उसके पति खान साहब उपहार का पैकेट थामे अंदर आए-‘‘लीजिए, यहाँ तो पहले से महाफिल जमी है। सही वक्त पर आए हैं हम।’’
‘‘हाँ नादिरा...बैठो। बस तुम्हारी कमी थी। इनसे मिलो मेरे संगीत मास्टर चंडीदास सेनगुप्ता।’’ डायना ने नादिरा का हाथ पकड़ अपने पास ही सोफे पर बैठा लिया।
‘‘आप अजनबी नहीं लगते।’’ नादिरा ने चंडीदास को मानो आँखों ही आँखों में परखा। जैसा डायना बताती है उससे कहीं आला इंसान लगा चंडीदास। वह अभिभूत हो पलकें झुकाने को बेबस हो उठी।
‘‘मेरी बेगम साहिबा गजब की पारखी नजर रखती हैं मि. सेनगुप्ता....मिल रही है पहली बार और कहती हैं कि आप अजनबी नहीं लगते।’’ खान साहब ने चुटकी ली।
‘‘यही तो फर्क है हमारी और आपकी जात में। आप जिन्दगी भर जिसे अपना समझते हैं वही अंत में धोखा दे जाता है और हम औरतें पति के हर कदम पर नजर रखती हैं। यह बात दीगर है कि जानबूझकर धोखा खाना हम औरतों का नसीब है।’’
‘‘आज तो माफ करें बेगम साहिबा....यह औरतों पर बहस फिर कभी, आज तो खुशियाँ मनाने का दिन है....टॉम साहब....वहाँ लंदन में तो लोग व्हाइट क्रिस्मस मना रहे हैं?’’
खान साहब ने अपनी जानकारी जताकर जैसे दिल जीतना चाहा टॉम का। पर टॉम का जवाब लापरवाही भरा था-‘‘हाँ, बहुत ज्यादा स्नोफॉल हुआ है वहाँ।’’
टॉम जानता है यह पुलिस कमिश्नर अंग्रेजों के आगे दुम हिलाता है पर है तो भारतीय ही....दुम हिलाने वालों से दो टूक बात ही करनी चाहिए। उसे तो चंडीदास के रुतबेदार व्यक्तित्व को छेड़ने, आहत करने में मजा आता है। वह चंडीदास के ड्रिंक न लेने की बात पर ठहाका लगाकर हंसना चाहता था और कहना चाहता था कि.....‘‘आप मर्द होकर ड्रिंक नहीं लेते। बड़े पोंगापंथी विचारों के हैं आप तो? फिर ब्राह्मणों की तरह अपनी खोपड़ी की लट बढ़ाकर गाँठ क्यों नहीं बाँध लेते आप?’’ पर तभी नादिरा और खान आ गए और टॉम को चंडीदास को शब्दों से बेधने का विचार हवा में बह गया। टॉम यह भी जानता था कि डायना का चंडीदास के प्रति गहरा रुझान था, पर वह हिदायत देने से डरता था कि कहीं डायना उसे तलाक न दे दे। तब तो वह कहीं का नहीं रहेगा। इसीलिए वह डायना का ध्यान संगीत से हटाकर व्यापार में लगाना चाहता था.....। वह चाहता था डायना अपना व्यापार भारत में बम्बई में स्थापित करें। आजकल इसी बात को लेकर दोनों में बहस होती रहती थी।
डायना ने सभी के सामने डिनर का प्रस्ताव रखा। नादिरा और खान तो झट से मान गए पर चंडीदास व्यस्तता का हवाला देकर उठ खड़ा हुआ- ‘‘डिनर फिर कभी। वैसे भी इतने पकवान खिला दिए हैं आपने कि पेट हाउसफुल हो रहा है।’’
डायना उसे मोटर तक छोड़ने आई। ड्राइवर को हिदायत देने की जरूरत नहीं थी, वह चंडीदास से अच्छी तरह परिचित था। चंडीदास से विदा ले जब वह हॉल में लौटी तो लगा जैसे उसके अंदर एक विशाल आइसबर्ग है जिसे अलग-अलग लोगों के सामने अलग-अलग अनुभूतियों से भरे संवादों में काट-काट कर वह अब तक बहाती आई है पर अब बहाना कठिन हो रहा है। अब वह अपनी जगह शिला-सा अड़ गया है, जिस तक सूरज की एक भी किरण पहुँच नहीं पाती। बस, मन का एक कैनवास भर अछूता है उस ठिठुरन से जिसकी गुनगुनी मौजूदगी उसे हमेशा जीने की ऊर्जा देती है। उस कैनवास पर मात्र चंडीदास का चेहरा जो अंकित है।
नया साल लग चुका था। उन्नीस सौ इकतालीस का नया सूरज मानो एक जागरण लेकर आया था। वैसे भी उन्नीसवीं सदी से अब तक बंगाल के जनजीवन में एक नई चेतना, एक नए विकास को जन्म मिला था और वह था नवजागरण। राजा राममोहन राय, विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, विवेकानंद आदि अनेक महापुरूषों के योगदान के फलस्वरूप धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य जीवन पद्धति में व्यापक परिवर्तन का दौर आया था। ब्रह्म समाज जैसी संस्थाओं ने समाज में फैले अंधविश्वासों, कुसंस्कारों, पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं को नष्ट कर एक नए युग की शुरूआत करने की कोशिश की थी। उसके प्रयासों से समाज में राष्ट्रीयता जागृत हुई। लोग आजादी की कीमत पहचानने लगे थे और स्वतंत्र होने के कठोर प्रयास में जुट गए थे। औरतों की शिक्षा पर भी बल दिया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि राष्ट्र और अधिक शिक्षित होने लगा। राष्ट्रीय धारा के तमाम राष्ट्र में बहाव, फैलाव के कारण कई क्रांतिकारी अंग्रेजों की आँख की किरकिरी हो गए थे। जिसमें बंगाल और खासकर कलकत्ता में नेताजी सबसे प्रमुख थे। अब वह वक्त आ गया था जब उन्हें देश छोड़ विदेश भागना था ताकि वे वहाँ से अधिक सजगता से आजादी के लिए काम कर सकें। सत्रह जनवरी की मध्यरात्रि उनके विदेश प्रस्थान के लिए मुकर्रर की गई। पर पुलिस की कड़ी निगरानी के कारण इस काम को अंजाम देना आसान न था। पुलिस शिकारी कुत्ते की तरह उनकी मौजूदगी को सूँघने और झपटने की कोशिश में लगी थी।
हफ्ते भर पहले बैठक में मौजूद सभी कॉमरेडों को हर तरह की बातें अच्छी तरह समझा दी गई थीं। योजना की रूपरेखा जिसे बम्बई से कॉमरेड गंगाधर अधिकारी ने तैयार कर भगतराम तलवार के हाथों भेजी थी, को सुनकर गुनगुन का शरीर रोमांचित हो उठा था। द्विजेन दा रूपरेखा पढ़कर सुना रहे थे और गुनगुन सुकांत का हाथ पकड़े दम साधे सब कुछ सुन रही थी। जिस दिन नेताजी विदेश के लिए प्रस्थान करेंगे उससे पहले उन्हें अपने मौनव्रत और एकांतवास की घोषणा करनी है। उनका एकांतवास ही अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंकेगा.....वे समझेंगे कि उनका शत्रु एकांतवास में मौनव्रत लिए चिंतन कर रहा है। नेताजी को यह भी घोषणा करनी है कि उनके एकांतवास के दौरान न तो कोई उनसे मिलेगा और न ही वे किसी से बात करेंगे। उनके एकांतवास में कोई खलल न डाले। यहाँ तक कि जिस कमरे में मौनव्रत धारण कर वे एकांतवास करेंगे वहाँ भोजन भी उन्हें पार्टीशन के पीछे से दिया जाएगा। भोजन शुद्ध शाकाहारी होगा जिसमें फलों और मेवों का समावेश रहेगा। अगर किसी को कोई बात पूछनी हो तो पर्ची पर लिखकर पूछी जाएगी। यह घोषणा पुलिस का ध्यान बँटाने के लिए थी।
नेताजी ने कई कॉमरेडों के नाम चिट्ठियाँ लिखीं थीं ताकि बाद की तारीखों में उन्हें भेजा जा सके। बहुत सारी पर्चियों में निर्देश लिख कर रख दिए थे। उनके प्रस्थान के बाद इला दी और द्विजेन दा बारी-बारी से उनकी यह भूमिका निभाएँगे। इला दी का गुनगुन के साथ खास लगाव था अतः वे अपने साथ उसे भी रखेंगी, इस बात के लिए उन्होंने नेताजी को मना लिया था। गुनगुन ओर सुकांत दोनों ने नेताजी के चरण छूकर आर्शीर्वाद मांगा कि हम देश के काम आएँ। नेताजी ने दोनों के झुके सिरों पर अपना दायाँ-बायाँ हाथ रखकर आर्शीर्वाद दिया-‘‘हमें तुम्हारे जैसे युवाओं की जरूरत है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। जय हिंद.....’’
दोनों ने उन्हें सावधान की मुद्रा में खड़े हो सेल्यूट किया...’’जय हिंद’’
इला दी नेताजी की अटैची जमा रही थी। गुनगुन उनकी सहायता करने लगी। वह खुद ही सारा सामान खरीद कर लाई थी। कपड़े टोपी आदि के साथ कुरान शरीफ़ और विजिटिंग कार्ड भी रखे गए। सतर्कता खास बरती गई कि कहीं कोई चूक न हो जाए। बंगले के आगे पार्किंग की जगह दो कारें खड़ी थीं जो खास इस काम के लिए तैयार थीं। एक बड़े मॉडल की स्टडबेकर प्रेसिडेंट और दूसरी जर्मन मॉडल की छोटी वांडरर। तय हुआ सभी सोलह तारीख की शाम को यहाँ इकट्ठा होंगे।
उस दिन गुनगुन सुबह से ही चहक रही थी। हालाँकि घर में यह चिंगारी सुलग चुकी थी कि गुनगुन आजाद हिंद फौज के लिए काम करती है पर माँ इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थीं। उनकी नन्ही-सी मासूम बिटिया जिसके मुँह से अभी कच्चे दूध की महक आती है....कहाँ क्रांति की बड़ी-बड़ी बातों में उलझेगी। सोचते हुए उन्होंने भात पका कर बैंगन भूँजना शुरू किया। गुनगुन नहाकर भीगे बाल लिए चंदन के साबुन की खुशबू उड़ाती उनके पास खड़ी हुई-‘‘हूँ... बैंगुन भाजा......मेरा फेवरेट......माँ बड़ी जोर की भूख लग आई है।’’
‘‘उधर डिब्बे में बेसन के लड्डू हैं। खा ले, तब तक खाना बन जाएगा। अच्छा गुनगुन.....बता, तो क्या तू सच्ची में क्रांतिकारी हो गई है?’’
‘‘ओ माँ.....क्यों सोच करती हो। हो भी गई तो क्या? हमारे देश में स्त्रियों ने क्या कुछ नहीं किया। हर क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर काम किया है। अब वो जमाना गया जब औरतें घूमने के लिए ताँगे में घोड़ागाड़ी में चारों और से लगे परदे के अंदर बैठती थीं और तांगेवाला हाँक लगाता था-‘‘बाजू....जनाना सवारी है....बाजू हटो....।’’
गुनगुन के इस अभिनय पर माँ हँसने लगीं। गुनगुन पीछे से उनकी कमर में बाहें डाल लिपट गई....‘‘माँ टैगोर के समय तो जब उनके परिवार की औरतों को गंगा नहाने जाना होता था तो वे पालकी में बैठकर जाती थीं और कहार पूरी पालकी गंगा में डुबो कर उन्हें डुबकी लगवा देते थे।’’
‘‘तो! औरतें परदे में जो रहती थीं.....खुले में कैसे नहाएँगी?’’ ‘‘हाँ, तो हमारी तो ऐसी दुर्दशा नहीं है न और माँ ये सुधार औरत ने ही किया है अपने लिए।’’
‘‘अच्छा चल....खाना परोसती हूँ....बहुत बढ़-बढ़ के बोलती है।’ माँ ने मुनमुन को आवाज देते हुए सबका खाना परोस देने को कहा।
खाना खाकर गुनगुन तैयार होने लगी। उसे वुडबर्न पार्क एक दो कॉमरेडों से मिलते हुए जाना था और वहीं कहीं सुकांत भी उससे मिलने वाला था।
‘‘इतनी जल्दी जा रही हो गुनगुन?’’ मुनमुन पलंग पर आराम से लेट गई थी उसकी आँखों में नींद की खुमारी थी- ‘‘आओ, थोड़ा आराम कर लो, फिर चली जाना।’’
‘‘मुनमुन....कॉमरेडों के लिए आराम हराम है। आज आखिरी बैठक है वुडबर्न पार्क में.....और हाँ....मैं शायद रात को न लौट पाऊँ। मुँह अंधेरे आ जाऊँगी। किसी को पता भी नहीं चलेगा।’’
‘‘गुनगुन....तुम्हारे इन खतरनाक खेलों से अब मैं घबराने लगी हूँ। अब मुझे माँ बाबा की नहीं बल्कि तुम्हारी चिन्ता खाए जाती है।’’
सहसा गुनगुन लेटी हुई मुनमुन से आकर उसी अवस्था में लिपट गई-
‘‘काली माँ ऐसी बहन सबको दे.....मैं कितनी खुशनसीब हूँ। जरूर पिछले जन्म के पुण्य होंगे जो तुम मिलीं.....दादा मिले....माँ बाबा और सुकांत....’’
‘‘मैं तो पहले से जानती थीं।’’ मुनमुन मुस्कुराई।
‘‘क्या?’’
‘‘यही कि तुम दोनों एक-दूसरे को चाहते हो।’’
मुनमुन से लिपटी गुनगुन आहिस्ता से फुसफुसाई जैसे हरी-भरी दूब के सिरों को छूकर हवा का झोंका अभी-अभी गया हो....‘‘मुनमुन देश आजाद होगा....मैं दुल्हन बनूँगी सुकांत की....कितना हसीन पल होगा....कितना विरल....जो मैंने अपने सपनों की पिटारी में एकदम तलहटी में दबाकर रखा है क्योंकि वह फिर मेरा अंतिम स्वप्न होगा।’’
दीवार घड़ी ने तीन बजाए। गुनगुन फुरती से दरवाजे के पार यह कहते हुए चली गई-‘‘चलती हूँ....ध्यान रखना मुनमुन।’’
तब तक मुनमुन नींद की गिरफ्त में थी।
गुनगुन सुकांत के साथ अंधेरा होने के बाद वुडबर्न पार्क पहुँची। पार्टी के सभी लोग आ चुके थे। उस रात अंतिम बार इला दी, द्विजेन दा, गुनगुन, सुकांत और सभी ने नेताजी के साथ रात का भोजन किया। फिर जरूरी निर्देश लेकर बड़ी सतर्कता से वे बाहर पहरे के लिए आ बैठे। नेताजी मुहम्मद जियाउद्दीन के वेश में तैयार थे। गुनगुन के लिए बेहद रोमांचकारी मंजर था। द्विजेन दा को कहा गया कि वे ऊपर जाकर सड़क पर नजर रखें और जब सड़क एकदम सुनसान हो जाए तो खाँसकर उन्हें जाने का संकेत दें। नेताजी ने इला दी और गुनगुन से विदा ली, सुकांत को गले लगाकर उसका माथा चूमा। ‘‘मेरे जाने के एक घंटे बाद तक बत्ती जलाए रखना।’’
लगभग डेढ़ बजे रात को वे नीचे उतरे। धीमे से कार का दरवाजा खोला और बिना कोई आवाज किए उसमें बैठ गए। नीम, पीपल के पेड़ों पर बैठे कुछ कौवों के पँख फड़फड़ाने की आवाज आई। फिर सन्नाटा छा गया। उनके घर के आसपास पुलिस गुप्तचरों का जाल बिछा था लेकिन योजना की रूपरेखा इतने महीने धागों से बुनी गई थी कि उन्हें कानों-कान भनक तक नहीं लगी कि नेताजी चले गए। लगभग दो घंटे तक सब दम साधे अपनी अपनी जगह तैनात रहे। फिर धीरे-धीरे सबने राहत की साँस ली। गुनगुन ने इला दी से इजाजत चाही-
‘‘हाँ जाओ, चार बजने वाले हैं। तुम्हारे घर में सब परेशान होंगे। सँभलकर जाना....सुकांत साथ जाएगा न।’’
‘‘हाँ इला दी.....उसके बिना इतनी सुनसान रात में घर कैसे पहुँचूँगी।’’
इला दी ने उसके सिर पर हाथ रख उसका माथा चूम लिया। दोनों आहिस्ता से सीढ़ियाँ उतर जब बाहर निकले तो ऊँघते हुए पुलिस वाले ने उन्हें देखकर ललकारा-‘‘कौन है वहाँ?’’
यहीं दोनों से चूक हो गई। उन्हें रुककर जवाब देना चाहिए था पर दोनों भागने लगे। पुलिस वाले को शक हुआ....कहीं ये नेताजी के साथी तो नहीं हैं? वह उनके पीछे दौड़ा......‘‘रुक जाओ, नहीं तो गोली चला दूँगा।’’ अंत में उसने गोली चला दी जो सुकांत की पीठ में लगी। वह पलटा....जेब में रखा चाकू निकालकर उसने निशाना साधकर पुलिस वाले की ओर फेंका। निशाना अचूक था। पुलिस वाला वहीं ढेर हो गया....तब तक पीछे से दूसरा पुलिस वाला उनकी ओर झपटा। अब की बार गुनगुन का चाकू भी नजदीक से दूसरे पुलिस वाले के दिल के आर-पार धँस गया लेकिन मरते-मरते उसने गुनगुन को भी गोली का निशाना बना लिया। कुछ ही पलों में सब कुछ खत्म हो गया। कौवों के पँख फिर फड़फड़ाए लेकिन इस बार भेष बदलकर जाते क्रांतिवीर की विदाई के लिए नहीं बल्कि देश के लिए शहीद हुए सुकांत और गुनगुन के लिए। सुकांत देश के लिए मरना चाहता था पर उसकी इच्छा थी कि अंतिम समय गुनगुन उसके साथ हो। ईश्वर ने उसकी ये इच्छा पूरी की। उसकी प्रिया उससे कुछ ही कदमों की दूरी पर चिरनिद्रा में लीन है। सुकांत के शरीर से निकला रक्त बह-बह कर गुनगुन का माथा भिगो रहा है- ‘‘लो मेरी प्रिया....आज मैंने अपने रक्त से तुम्हारी मांग भर दी। आज मैंने तुम्हें वरण किया।’’
गोलियों की आवाज इला दी और अन्य कॉमरेडों तक भी पहुँची थी पर वे उनकी कुछ सहायता नहीं कर पाए क्योंकि भेद खुल जाने का डर था। करीब डेढ़ घंटे बाद जब पुलिस का पहरा थोड़ा ढ़ीला पड़ा....इला दी और दो कॉमरेड गुनगुन ओर सुकांत के पास गाड़ी लेकर आए। झटपट दोनों की लाश गाड़ी में रखी और गुनगुन के घर की ओर गाड़ी मोड़ दी। इत्तेफाक से घर में उस वक्त चंडीदास नंदलाल और सत्यजित के साथ बैठा था। जब गाड़ी से गुनगुन नहीं बल्कि उसकी लाश उतरी तो तीनों दौड़ पड़े गाडी की ओर.....‘‘क्या हुआ, गुनगुन को क्या हुआ?’’
‘‘कुरबानी दे दी गुनगुन ने देश के लिए।’’ इला दी ने कहा और रो पड़ीं। पूरा घर स्तब्ध था जैसे सबको साँप सूँघ गया हो। इला दी वहीं रुक गई थीं और सुकांत की लाश अन्य दो कॉमरेड उसके घर पहुँचाने चले गए थे। चंडीदास ने डायना को फोन से खबर दी थी। जिस वक्त डायना बोनोमाली के संग चंडीदास के घर पहुँची उसका मन विचलित हो उठा। बड़ा हृदयविदारक दृश्य था। माँ गुनगुन के शव के पास बैठी दहाड़े मारकर रो रही थीं। मुनमुन पत्थर हो उठी थी और वीरान आँखों से शून्य में ताके जा रही थी। चंडीदास बाबा को सँभाले था जो बुढ़ापे में बेटी की पालकी उठने की आस पाले जी रहे .थे...पालकी उठेगी पर दुल्हन बनी गुनगुन के रूप में नहीं.....बल्कि अर्थीं के रूप में। डायना उनके पास आई। उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर धीरज बँधाया ‘‘बाबा......आपकी बेटी महान थी। शहीदाना मौत मरी.....ऐसी मौत के लिए तरसते हैं लोग।’’ बाबा कुछ नहीं बोले। उजाड़ आँखों से बेटी की अर्थी सजते हुए देखते रहे। डायना ने मुनमुन को जैसे ही गले से लगाया वह फूट-फूट कर रो पड़ी। अब डायना के लिए स्वयं को रोक पाना कठिन था। धारोंधार आँसू उसके कपोलों को भिगाने लगे। अर्थी पर लेटी हुई गुनगुन कितनी सुंदर लग रही थी। उसके माथे पर तिलक था। होठ अधखुले मानो कुछ कहना चाहते हों। चेहरे पर गौरव का दर्प था। अपने देश के लिए शहीद होने की शान.......दुश्मन को मारकर मरने की शान.....‘‘देखा बाबा, मैंने नेताजी से किया वादा निभाया। मैंने खून दे दिया अब उन्हें आजादी देनी है।’’
बाबा ने शायद बेटी का स्वप्न स्वर सुन लिया था इसलिए उनके चेहरे पर बेटी की मृत्यु का गम नहीं बल्कि उसकी कुरबानी का गर्व था। फूलों से लद गई थी गुनगुन सिर से पाँव तक। जो आता, मुट्ठी भर फूल चढ़ाकर नमन करता....फूलों से महक उठी थी वह....शांत.....परम तत्व में लीन.....यही जिन्दगी है बस....चार दिन की। उसके लिए इतनी हाय हाय। डायना चंडीदास के पास आकर खड़ी ही हुई थी कि एक युवक दौड़ता आया और हाथ में पकड़ा पन्ना चंडीदास को थमा दिया। पन्ने पर लिखा था- ‘‘अंतिम यात्रा मेरे घर से होते हुए हो। सुकांत और गुनगुन साथ-साथ देश के लिए शहीद हुए हैं.......साथ-साथ ही पंचतत्व में समाएँ यही ठीक रहेगा।’’ घोषाल.........।
पत्र पढ़कर चंडीदास ने बाबा को दे दिया। बाबा तैयार थी। अर्थी को कंधा डेव फ्रेंकलिन ने भी दिया.....जो था तो अंग्रेज पर गुनगुन से प्रगाढ़ मित्रता थी उसकी।
दोनों की चिताएँ पास-पास तैयार की गई और जब चिता में से लपटें उठीं तो आपस में मिल-मिल जाती थीं। हवाएँ उन लपटों को एकमएक किए दे रही थी। अनायास ही दोनों की अंतिम इच्छा पूरी हो गई। कभी-कभी अनकहे ही कुछ ऐसा घटित हो जाता है कि इसे सिवा चमत्कार के और कोई नाम देना कठिन लगता है।
पारो सबका खाना बनाकर ले आई थी। पारो की समझदारी से डायना संतुष्ट थी। उसने जब तश्तरियों में खाना परोसा तो डायना सबको आग्रह करके खिलाने लगी। फिर खुद भी वहीं खाना खाकर जैसे अपने आप को उस परिवार से जोड़ लिया डायना ने। क्या हुआ अगर वह विधि-विधान से ब्याह कर इस घर में नहीं आई। है तो वह चंडी की ही....मन के बंधन से बड़ा और कोई बंधन नहीं होता। जब वह जाने लगी, तो बाबा के पास आई। उनके पैर छुए-‘‘बाबा मैं जा रही हूँ। कल फिर आऊँगी। आप आराम कीजिए वरना तबीयत बिगड़ जाएगी।’’
बाबा ने पनीली आँखों से विदा किया-‘‘हाँ.....वे सोएँगे....क्यों नहीं सोएँगे? उनकी बेटी देश के लिए शहीद हुई है। उनकी बहादुर बेटी....दुश्मन के एक सिपाही को मार कर शहीद हुई है।’’
डायना मुनमुन से और माँ से भी लिपट कर विदा लेने लगी-‘‘माँ.....आपकी गुनगुन अमर है।’’
‘‘तुम नहीं जानती बेटी.....वह कितनी होनहार लड़की थी। मुझसे कहती थी, माँ तुम क्यों इतना सोचती हो, औरतें तो शक्ति हैं.....‘‘अब कहाँ से लाऊँ मैं अपनी गुनगुन को।’’
‘‘आप शक्ति हैं और रोती हैं? आज तो गर्व करने का दिन है।’’ अचानक माँ को जाने क्या हुआ? आँसू पोंछे...पल्ला कमर में खोंसा और हाथ का पंजा माथे तक ले जाकर जोर से बोलीं-‘‘जय हिंद।’’
चंडीदास ने दौड़कर माँ को सँभाला। डायना काँप उठी। वह तेजी से आकर मोटर में बैठ गई। मुनमुन दौड़ी आई- ‘‘एक मिनट रुकिए, दादा आ रहे हैं।’’
चंडीदास तेजी से चलता हुआ आया-‘‘मैं चलूँ क्या?’’
‘‘चंडी इमोशनल मत हो....माँ-बाबा को सँभालो। काश मैं रुक पाती।’’ और ड्राइवर को फौरन ही गाड़ी चलाने का संकेत दिया।
मानो पटाक्षेप हुआ हो एक दुखांत नाटक का....हम सब नाटक के पात्र ही तो हैं.....और जिन्दगी एक रंगमंच है। नाटक होता रहता है, दृश्य बदलते रहते हैं, नए-नए पात्र आ मिलते हैं। डायना ने पीछे सीट पर सिर टिका दिया और सुकांत और गुनगुन के ख्यालों में खो गई।
4
देश में तेजी से अंग्रेजों के खिलाफ अभियान जन्म ले रहे थे। अगस्त 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन ने देशव्यापी स्वरूप ले लिया था। विद्यार्थियों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। लेकिन अंग्रेज पुलिस यह नही देख रही थी कि कौन विद्यार्थी है और कौन नेता... वह सबको गोली से भूने डाल रही थी....इधर बंगाल सूखे की चपेट में था। खेत-खलिहान बंजर पड़े थे। किसानों की आँखें शून्य में ताक रही थीं......उनके चूल्हे ठंडे पड़े थे.....भूख से जूझने की समस्या मुँह बाए थी। धीरे-धीरे बंगाल के इस भयानक अकाल में लोग भूख से तड़पते-मरने लगे। यमराज की सेना पुलिस की गोली और भूख की शक्ल में लोगों को निगल रही थी।
डायना और नादिरा इसी समस्या पर विचार कर रही थीं कि तभी चंडीदास आया। गुनगुन की मृत्यु हुए डेढ़ वर्ष बीत गए थे पर अभी तक उसके परिवार से शोक की काली छाया हटी नहीं थी। सब जैसे भीतर ही भीतर घुल रहे थे। एक-दूसरे से बस काम की बात करते और खामोश हो जाते। चंडीदास भी ज्यादातर खामोश ही रहता और शोक गीतों को कंपोज किया करता। मानो शोक उस हँसते-खेलते परिवार में अमरबेल की तरह छा गया था। अमरबेल जिसकी जड़ें नहीं होतीं पर वह जिस पर छा जाती है उसे चूस-चूसकर खोखला कर देती है।
‘‘आओ चंडी.....कैसे हो?’’ डायना ने उससे हाथ मिलाया।
‘‘हलो नादिरा जी....लगता है किसी खास विषय पर बहस चल रही है?’’ चंडीदास ने सोफे पर बैठते हुए कहा।
‘‘हम बंगाल के अकाल के बारे में चर्चा कर रहे थे।’’ नादिरा ने तुरंत जवाब दिया।
‘‘कयामत आई है बंगाल पर। अब तक लाखों इंसान भूख से मर चुके हैं।’’ और अंग्रेज सरकार खामोशी से मौत का तांडव देख रही है। चंडीदास की आवाज में दर्द ही दर्द था।
नादिरा जैसे भरी बैठी थी- ‘‘माफी चाहती हूँ डायना पर मुझे यह कहने में जरा भी खौफ नहीं कि अंग्रेज सरकार चाहती है कि भारत की दशा और बिगड़े, वे और असहाय हो जाएँ, भूखे मरें ताकि उनमें लड़ने की ताकत न हो पर वह यह नहीं जानती कि अब तो आजादी का शंखनाद हो चुका है। अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही होगा।’’
‘‘नादिरा, तुम शायद नहीं जानतीं कि मैंने भारतीयता स्वीकार कर ली है। मैं भारतीय हूँ और चाहती हूँ मेरा देश जल्दी से आजाद हो जाए।’’ डायना ने गर्व से कहा।
डायना के इस वाक्य से जहाँ एक ओर चंडीदास आत्मविभोर हो अपनी प्रिया को निहार रहा था। वहीं नादिरा की आँखें विस्मय से फैलकर डायना को देखने लगीं-‘‘या अल्लाह, ये आप क्या कह रही हैं? क्या सच? क्या आपकी इस बात से मिस्टर ब्लेयर सहमत हैं?’’
‘‘नहीं........वे अंग्रेज तो हैं ही पर साथ ही उन्हें हुकूमत करने में मजा आता है। यह अधिकार उन्हें इंग्लैंड में तो मिलेगा नहीं।’’ डायना ने कड़वाहट से कहा।
‘‘खैर छोड़ो ये बातें........हमें देखना ये है कि हम भूख से मरते लोगों के लिए क्या कर सकते हैं। मैं सीधा घोषाल बाबू के घर से ही आ रहा हूँ।’’
‘‘ये घोषाल बाबू सुकांत के पिता हैं न।’’
‘‘हाँ.....सुकांत की मृत्यु के बाद से वे सक्रिय हो उठे हैं। उनके घर में सुकांत के कॉलेज के तमाम विद्यार्थी जमा हुए थे। और भी कई पार्टियों के लोग भी इकट्ठा हुए थे.......घोषाल बाबू तो एक तरह से तमाम पार्टियों और विद्यार्थी संगठनों के नेता ही माने जाने लगे हैं....उन्हीं ने सबको निर्देश दिया है कि जो जिस ढंग से चंदा इकट्ठा कर सकता है करे.....’’
‘‘जितना बोलोगी दूँगी।’’
‘‘मैं भी।’’ नादिरा ने डायना की हाँ में हाँ मिलाई।
‘‘नहीं भाई......पर्सनल जो देना हो देती रहना.......अभी तो ये सोचो कि कैसे अधिक से अधिक चंदा इकट्ठा किया जाए। मैं संगीत का कार्यक्रम करना चाहता हूँ......संगीत के साथ नाटक भी, हो सका तो चित्रकला प्रदर्शनी भी रिलीफ फंड के नाम पर यदि पेंटिंग्स बेची जाएँ तो कलकत्ता का धनाढ्य वर्ग ऊँची कीमत देगा। इस काम में मुझे आप लोगों का सहयोग चाहिए।’’
,‘‘लेकिन इतनी जल्दी प्रदर्शनी के लिए पेंटिंग्स बनाओगे कैसे?’’
‘‘मैंने प्रेम दीवाने नाम से एक पूरी चित्रमाला तैयार की है। हीर राँझा, सोहनी महिवाल, सस्सी पुन्नू, रोमियो जूलिएट, लैला मजनूँ....बस आखिरी टच देना पड़ेगा।’’
‘‘बड़े रोमांटिक होते हैं ये बंगाली।’’ नादिरा ने कटाक्ष किया। चंडीदास कब पीछे रहने वाला था।
‘‘ईश्वर ने कश्मीरियों को सुंदरता दी है तो हम बंगालियों को प्रेम....तभी तो संतुलन बनता है।’’
जाहिर है नादिरा काश्मीरी मुसलमान थी। चंडीदास की बात पर वह ठहाका मारकर हँसी।
‘‘मैं आपके रिलीफ फंड में क्या भागीदारी करूँ.....न मुझे गीत लिखना आता है, न गाना........न ही चित्रकारी.....’’
‘‘आप प्रेरणा बनकर हमारे साथ रहना। हमारे लिए वही बहुत है।’’
सूरज जब कचनारों के पीछे छुपकर लॉन की पीले रंग से पुती दीवार पर क्रोशिए की जाली बुनने लगा......डायना के घर की सभा बर्खास्त हुई। तय हुआ.......तीन चार दिन बाद नाटक तय कर आपस में मिलेंगे और पात्रों का चुनाव करेंगे। डायना शास्त्रीय संगीत का गायन स्टेज करेगी मुनमुन के साथ..........।
नन्दलाल, सत्यजित और विद्यार्थियों का एक युवा दल जिसमें करीब पंद्रह-बीस लड़के लड़कियाँ थे, नाटक के चुनाव में जुट गए। पिछली बार चंडीदास ने बंगाली साहित्य से नृत्यनाटिका का मंचन किया था लेकिन अब पारसी थियेटर की लहर बम्बई से बहती हुई यहाँ तक आ पहुँची थी। पारसी थियेटर कम्पनियों के कई नाटक चंडीदास देख चुका था। रूस्तम-सोहराब का तो एक दृश्य अभी तक जेहन में तरोताजा है। शाह समनगान का दरबार लगा था, नर्तकियाँ नृत्य कर रही थीं........साजिंदे वाद्य बजा रहे थे। वजीर अदब से बादशाह के सामने शराब का प्याला पेश कर रहा था, ठीक उसी वक्त के मनोभावों को अलग-अलग ढंग से जिस तरह कलाकारों ने पेश किया वह चंडीदास कभी नहीं भुला पाता। खासकर नर्तकियों का सहमकर नृत्य बंद करना और अपनी-अपनी जगह उसी मुद्रा में ठगीसी- खड़ी रह जाना.......
चंडीदास ने ‘‘रूस्तम सोहराब’’ को मंचन के लिए चुना। घोषाल बाबू ने एक स्वर में रजामंदी दे दी। अब पात्रों का चुनाव होना था जिसकी पूरी जिम्मेदारी डायना, चंडीदास और नंदलाल की थी। जब डेव फ्रेंकलिन ने सुना कि इस तरह का कोई नाटक स्टेज किया जा रहा है जिसकी टिकटें बेची जाएँगी और सारा धन अकाल राहत कोष में जाएगा तो वह दौड़ा दौडा चंडीदास के पास आया। गुनगुन की तरह वह भी चंडीदास को दादा बुलाने लगा था और गुनगुन की मृत्यु के बाद से तो जैसे इस शब्द से प्रगाढ़ता से जुड़ गया था।
‘‘दादा......मुझे भी कोई रोल दीजिए।’’ उसने चंडीदास से आग्रह किया।
‘‘हाँ क्यों नहीं.....तुम्हारे कॉलेज के कई युवाओं को हमने रोल दिए हैं। तुम तीन चार डायलॉग अभिनय सहित सुना दो.........अगर मिसेज डायना ब्लेयर और नंदलाल को तुम में संभावना दिखी तो जरूर रोल मिलेगा।’’
डेव खुश होकर बोला-‘‘आधा घंटा दीजिए, मैं अभी डायलॉग याद किए लेता हूँ।’’
वह संगीत चित्रकला अकादमी के गेट के पास लगे नीम की छाँव में टहल-टहल कर डायलॉग याद करता रहा। शेक्सपीयर के नाटक का संवाद...। आधे घंटे बाद वह डायना और नंदलाल के सामने था। उसके संवादों की जीवंतता और बहाव से अभिभूत दोनों ने उसे तुरंत पास कर दिया।
रिहर्सल जोरदार तरीके से शुरू हो गई। सभी प्रतिदिन अकादमी में जुटते......कभी कमरे में, कभी बाहर मेंहदी की बाड़ लगे छोटे से मैदान पर जहाँ कहीं हरी और कहीं पीली मुरझाई घास थी.....मन में जोश था, संवाद घर से याद करके आते । कोई संवादों के साथ संगीत को जोड़कर वाद्य बजाता तो कोई गीतों के मुखड़े गाता। डायना हारमोनियम पर गीत कंपोज करती, तानपूरा बजाकर शास्त्रीय गीत का अभ्यास करती कि जैसे समय नहीं है किसी के पास भी.....सब जुटे हैं....। मुनमुन और सत्यजित कलाकारों को निर्देशन देते.....सीन में काट-छाँट करते। मुनमुन की समझ और परख को देख सत्यजित उसे देविकारानी कहता। देविकारानी टैगोर के भाई की पौत्री थी और एक श्रेष्ठ फिल्म अभिनेत्री। सत्यजित ने देविकारानी की फिल्म‘कर्म’ देखी थी जिसमें हिमांशु राय के साथ उसके चुम्बन दृश्य को देखकर वह चकित था। वह देविकारानी के अभिनय का कायल था और न जाने क्यों मुनमुन को देखकर उसे देविकारानी का ख्याल आता था। एक बार इस बात का जिक्र उसने मुनमुन से किया था तो वह तपाक से बोली....‘‘शायद तुम चाहते हो कि मैं भी देविकारानी जैसी अभिनेत्री बनूँ पर क्या तुम हिमांशु राय बनोगे?’’ ‘‘क्या?’’ वह सकपका गया था। वह एक धीर, गंभीर और शर्मीला युवक था जिसके अंदर समाज सेवा का माद्दा कूट-कूट कर भरा था। उसने निश्चय कर लिया था कि वह विवाह नहीं करेगा और स्वामी विवेकानंद के बताए मार्ग पर चलेगा पर न जाने क्यों मुनमुन इस कदर उसके नजदीक आती जा रही थी....कि वह उसे हर अदा में लुभावनी लगती.....शायद इसी तरह देविकारानी हिमांशु राय को लगी होगी। हिमांशु राय जो शांतिनिकेतन में टैगोर के निर्देशन में पढ़ता था और जिसकी रूचि रंगमंच और कला की ओर बहुत अधिक थी। शायद इसी कला ने दोनों को जिन्दगी का हमसफर बना दिया था। आज मुनमुन के मुँह से यह अटपटा सवाल सुनकर सत्यजित का मन बेचैन हो उठा था। वह इसका जवाब मौका आने पर देगा, अभी नहीं। नादिरा ने चंडीदास की साईकिल की घंटी बजाई-ट्रिंग..ट्रिंग....‘‘चलो लंच ब्रेक हो गया।’’
वह बड़े-बड़े डिब्बों में बिरयानी और रायता लिए हाजिर थी। सारे कलाकार भुखमरे-से टूट पड़े खाने पर। डायना खिलखिलाकर हँसने लगी। उसने नादिरा के चमकते चेहरे पर तृप्ति देख कहा-‘‘तुम कहती थीं न नादिरा कि इस अभियान में तुम्हारी क्या भूमिका रहेगी?’’
‘‘समझ गई......बावर्ची बनने के लिए मैं तैयार हूँ हुजूर।’’ नादिरा ने दरबारी अदा में सलाम ठोंका। डायना भी मूड में थी। रूआब से बोली-‘‘हम खुश हुए तुम पर।’’
रिहर्सल दिन में तीन तीन बार होती। घर लौट कर चंडीदास दो घंटे गहरी नींद लेता और थरमस भर चाय बनाकर रात बारह बजे से जुट जाता चित्रकारी में। न जाने कहाँ की कला आ गई थी उसके ब्रश में, रंगों में, ब्रश के एक-एक स्ट्रोक में.....‘‘प्रेम दीवाने’ चित्रमाला में सबसे विलक्षण चित्र सोहनी महिवाल शीर्षक वाला है। कैनवास पर रात के अंधेरे में डूबा दरिया है। ऊँची-ऊँची लहरें। महिवाल तट पर बेचैनी से अपनी तूमड़ी बजा रहा है। घड़े के सहारे तैरती सोहनी की आकृति है। उसका चेहरा पीछे की ओर मुड़ा हुआ है, मानो वह घूमकर देख रही है कि कहीं गाँव वाले उसका पीछा तो नहीं कर रहे हैं? इस चित्र पर खुद चंडीदास फिदा है। उसने सोहनी महिवाल को चित्रांकित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। एक चित्र उसने डायना के आग्रह पर बनाया। डायना ने पूरा दृश्य सजीव करते हुए उसे बताया था-राधा और कृष्ण के अभिसार का दृश्य। कृष्ण राधा से समागम कर संतुष्ट हैं। राधा पुलकित हैं। दूसरे हाथ में पान का बीड़ा है। दूसरे चित्र में वे पान का बीड़ा कृष्ण को देने के लिए थोड़ा-सा आगे बढ़ी हैं। उनके लहँगे और ओढ़नी की डोरिया लहराई हैं और चंडीदास का कमाल कि जब उसने यह चित्र बनाया तो रेखाएँ सहसा चंचल हो उठीं....राधा के भावों के अनुकूल। पारदर्शी ओढ़नी में से झाँकती उनकी खुली केशराशि का भी चित्रण बहुत डूबकर किया उसने।
मुनमुन संग-संग जागी थी चंडीदास के। वह जानती थी....‘‘दादा धुन के पक्के हैं, जब तक वह नहीं कहेगी कि आराम कर लो तब तक उन्हें होश ही नहीं आएगा कि रात बीत चुकी है। सुबह के चार बज चुके हैं। तारे बस डूबना ही चाहते हैं.....यह समय कैसा सन्नाटे भरा होता है....खासकर मुनमुन के लिए, जिसे इस वक्त हमेशा गुनगुन के लौटने का इंतजार रहता था। उसने कभी भी गुनगुन के कामों को गंभीरता से नहीं लिया जबकि वह एक बड़े मिशन में जुटी थी। हर समय हड़बड़ी में रहती।’’
‘‘समय नहीं हैं.....जल्दी ही सब निपटाना है....देखो, हमारी गुप्त बातें कैसी तेजी से कॉमरेडों तक पहुँच जाती हैं और तुम एक कप चाय उबालने में कितना वक्त लगा देती हो।’’ गुनगुन के शब्द उसके कानों में गूंजते। नहीं, अब वह बिल्कुल वक्त जाया नहीं करेगी।.....‘‘दादा उठो....अब बस, इतनी मेहनत करोगे तो बीमार पड़ जाओगे। थोड़ा सो लो।’’
चंडीदास ने उसके गाल पर रंग भरा ब्रश फेर दिया-‘‘चलो दादी माँ....जीने थोड़े दोगी तुम चैन से।’’
मुनमुन ने उसी की बाँह पकड़ अपने गाल से रगड़ ली.....‘‘अरे.....ये क्या किया। अब कुरते पर से रंग छूटेगा?’’
‘‘न छूटे.....मेरी बला से।’’ वह हँसती हुई भागी और अपने कमरे की खुली खिड़की के पल्लों को और ज्यादा खोलकर राह तकने लगी पर किसकी?.....क्या जाने वाले लौटकर आते हैं?
इप्टा के ग्रुप ने अपना अलग नाटक मंचन करने का तय किया था- ‘‘आखिरी शमा’.....घोषाल बाबू ने चंडीदास को इस ग्रुप से मिलवाया था। धीरे-धीरे कुछ ऐसी संगत बैठी कि चंडीदास, डायना, मुनमुन, सत्यजित, नंदलाल सभी इप्टा में शामिल हो गए और चंडीदास को ‘‘आखिरी शमा’ में बाकायदा अपने दल सहित रोल मिल गए। लिहाजा दो नाटक मंचित हुए-‘‘रूस्तम सोहराब’ और ‘‘आखिरी शमा’। दोनों के ही पंद्रह-पंद्रह शो हुए। अपार भीड़ उमड़ी। ‘राहत कोष’ के नाम पर सबने दरियादिली से टिकटें खरीदीं। चंडीदास की एकल प्रदर्शनी का हर चित्र महँगे दामों में बिका और डायना के शास्त्रीय गायन ने तो बंगाल के संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज कर लिया। लेकिन टॉम को यह बात बेहद नागवार लगी।
‘‘तुम यह तो सोचो कि तुम कितने बड़े बिजनेस घराने से ताल्लुक रखती हो। और यहाँ मेरा स्टेटस, मेरा पद.....और मेरी पत्नी स्टेज पर शो कर रही है......सोचो जरा.....।’’
‘‘मैं सरस्वती की उपासक हूँ और लक्ष्मी और सरस्वती का कोई मेल नहीं।’’ डायना ने गंभीरता से कहा।
‘‘बकवास है यह.....तुम पर चंडीदास का फितूर चढ़ा है। अंधी हो गई हो तुम।’’
‘‘मत बोलो ऐसा। वे मेरे गुरु हैं....मैं उनका आदर करती हूँ। यह भारत है जहाँ कला पूजी जाती है पैसा नहीं। मुझसे भी ज्यादा अमीर कलाकार तो सड़कों पर झोली फैलाए रिलीफ फंड इकट्ठा कर रहे हैं। लोग उन्हें देखने को उमड़े पड़ते हैं। कला के प्रति दीवानगी है.....एक जुनून-सा है लोगों के दिलों में। पर ये बातें तुम नहीं समझ सकते।’’ डायना की आँखों में यह कहते हुए एक चमक उभर आई थी......टॉम सह नहीं पाया वह चमक। उसकी आँखें जैसे चौंधिया-सी गईं....वह डायना की तरफ देखने की हिम्मत खो बैठा क्योंकि उन आँखों में था ईश्वरीय प्रेम....प्रेम जो संसार के कण-कण में समाया है। इसी प्रेम के बल पर तो संसार चलता है। दरिया बहता है, नदियाँ मचलती हैं, झरने छलकते हैं, मौसम बदलते हैं, मेघ घिरते हैं, फूल मुस्काते हैं। यही प्रेम तो है जो भौंरों से गवाता है, तितलियों को नचाता है....इस प्रेम को टॉम क्या जाने.....उसके लिए तो भोग-विलास में ही जीवन का सार है.......लेकिन वह नहीं जानता कि यह भोग-विलास, नफरत उसके शरीर को एक दिन जर्जर कर देगी। तब उसे कोई नहीं पूछेगा और तब वह तनहा रहकर इसी प्रेम के लिए तरसेगा।
चंडीदास का फोन था-‘‘डायना, आज शाम इप्टा हमें दावत दे रहा है शो की कामयाबी के लिए। तुम पार्क सरकस में आकर मिलो।’’
‘‘ओके डार्लिग.....मैं वक्त पर पहुँच जाऊँगी।’’
तब तक टॉम ने शराब की बोतल खोल ली थी। अभी पहली घूँट भरी ही थी कि नादिरा आ गई। उसके हाथों में कबाबों से भरी तश्तरी थी।
‘‘इसे कहते हैं कांबिनेशन....डायना तुम कभी ये बात नहीं समझोगी कि ड्रिंक करते आदमी को किस चीज की दरकार होती है।’’ कहते हुए टॉम ने एक कबाब उठा लिया और फूँक-फूँक कर खाने लगा-‘‘हूँऽऽऽ बढ़िया बने हैं। नादिरा, तुमने बनाए?’’
‘‘बावर्चिन जो हूँ।’’ नादिरा ने डायना की ओर देखा और दोनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। नादिरा सोफे पर डायना के नजदीक बैठ गई-‘‘शाम को चलना है।’’
‘‘कहाँ?’’
इप्टा पार्टी दे रहा है....शो की कामयाबी पर।’’
‘‘बिरयानी वाली का उन कलाकारों के बीच क्या काम?’’
‘‘बिरयानी कौन बनाएगा?’’
फिर हँसी....धीमी-धीमी......जैसे घंटियाँ टुनटुनाईं हों।
नादिरा बाकायदा चंडीदास और डायना के दल में शामिल हो गई थी। संगीत, चित्रकला, नाटक.....कितना जीवंत था यह दल। हर समय व्यस्तता, भागदौड़, कार्यक्रमों की फेहरिस्त....इस सबसे नादिरा को अपने आरामतलब जीवन में समझौता करना पड़ा था......यों तो वह कमिश्नर की बीवी थी....जुड़वाँ लड़कियों की माँ, लेकिन थी बिल्कुल तनहा। खान साहब अपनी नौकरी में व्यस्त रहते और लड़कियाँ पढ़ाई में, खेलने-कूदने में। शायद यही वजह थी कि वह डायना से इतनी आत्मीय हो चुकी थी लेकिन टॉम के मन में उसे लेकर बड़े खुराफाती विचार आते थे। वह उसके कश्मीरी सौंदर्य पर फिदा था। इस बात से नादिरा अनभिज्ञ थी। किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि.....तू साँस भी ले तो बहुत धीरे से....ये दुनिया शीशे की है....और एहतियात जरूरी है। सपने जो शीशे के होते हैं उम्मीदें जो शीशे की होती हैं....हर वक्त सहमापन कि कहीं टूट न जाएँ......।
पार्क सरकस में जिस मकान में इप्टा ने दावत दी थी, खासी चहल-पहल थी। घोषाल बाबू भी आए थे और इसी वजह से नाटकों की चर्चा के बीच सुकांत और गुनगुन की चर्चा भी चल पड़ी थी। चंडीदास और मुनमुन की आँखें भर आई थीं......लगता था जैसे कल की ही घटना हो....।
‘‘आपके कलाकार परिवार में वह कैसे अलग विचारों की निकली?’’ घोषाल बाबू को यह सवाल मथे डाल रहा था।
‘‘शायद यही उसका लक्ष्य था....हम वक्त रहते उसे पहचान नहीं पाए।’’
अब मुनमुन कैसे बताए कि वह तो सब कुछ जानती थी। उसके उठाए हर कदम से परिचित थी.......रोकना चाहकर भी रोक नहीं पाई उसे क्योंकि वह जानती थी कि आजादी के दीवाने गुलामी में कभी नहीं जीते।
‘‘उसने जिस बात के लिए अपनी कुर्बानी दी है वह जल्दी से पूरी होगी। हम जल्दी ही आजाद होंगे।’’
दल में डेव फ्रेंकलिन और डायना भी थे।यह बात घोषाल बाबू ने शायद उन्हें ही सुनाने के लिये कही हो पर वे चकित रह गये जब डायना ने कहा”मै भी यही चाहती हूँ।
“मै भी”डेव फ्रेंकलिन ने भी कहा।
हाँ, यह सत्य था कि इंग्लैंड से आए बहुत सारे अंग्रेज परिवार ऐसे थे जो भारत को आजाद देखना चाहते थे....भारत आजाद होगा तो उन्हें अपने देश लौटने को मिलेगा। कुछ को भारत की धरती से प्यार हो गया था.....कुछ के वैवाहिक सम्बन्ध हो गए थे भारतीयों से....। वे यहीं बस जाना चाहते थे। वैसे भी अब साफ दिखाई दे रहा था कि अधिक दिन अंग्रेज टिकेंगे नहीं यहाँ....। फिर भी टॉम की जिद्द थी कि डायना बम्बई जाए और वहाँ अपना बिजनेस शुरू करे। यह बात उसने दावत से घर लौटते हुए चंडीदास को बताई तो वह सोच में पड़ गया-‘‘तब तो तुम्हें अधिकतर बम्बई में ही रहना पड़ेगा।’’
‘‘हाँ....आना जाना लगा रहेगा....वैसे तुम्हारा क्या विचार है?’’
‘‘मुझे लगता है फॉर अ चेंज....यह कर ही डालो। टॉम शायद तुमसे थोड़े समय के लिए अलग रहना चाहता हो।’’
‘रहता तो है वो पंद्रह दिन टूर पर हर महीने।’’
‘‘शायद वह हमारे रिश्ते को जान गया हो। और इसीलिए तुम्हें कलकत्ते से दूर भेजना चाहता हो।’’
‘‘चंडी....जब मैं इंडिया आई थी तो अपने जीवन का शिकारा लहरों के हवाले कर दिया था। मुझे टॉम से जरा भी लगाव न था....वह मेरे पिता की पसंद थी, मेरी नहीं। मेरे स्वभाव की खामोशी और सहनशक्ति में विरोध की ताकत बिल्कुल नहीं थी। इसीलिए सब कुछ को अपना भाग्य मान लिया था। वैसे भी, जिन घटनाओं को मैं मन पर नहीं लेती, वे मुझे सालती नहीं हैं। मैं उदासीन रहकर उनका सामना कर लेती हूँ। मेरे जीवन का खालीपन तुमने भरा, मेरे शब्दों को अर्थ तुमने दिया.....असल में मैं दूसरी ही मिट्टी से बनी हूँ चंडी।’’
चंडीदास की आँखें मुँद गईं। मोटर की गति में सड़कों पर लगे रोशनी के हँडे भागते से लग रहे थे। मानो कुछ कहने को उतावले हैं पर जल्दबाजी में कह न पा रहे हों। आम के पेड़ पर एक मोर का जोड़ा अपनी लंबी पूंछ लटकाए बैठा था। मोटर की आवाज से वह चौंका और फिर चिल्लाया....। वीराने में दूर तक जैसे आवाज की लकीर-सी खिंच गई। जब वे मोटर में बैठे तो अंग्रेजी में बात करते थे क्योंकि ड्राइवर सिर्फ बंगाली बोलता समझता था। वैसे अंग्रेज परिवार की संगत में गुड़ मॉर्निंग, गुड नाइट आदि सीख गया था। वह उन दोनों की बातों से बेखबर हो ड्राइविंग कर रहा था।
‘‘एक बार हो आओ बम्बई। देख लो कि टॉम क्या चाहता है।’’
‘‘पूरा इंतजाम कर आया है वहाँ। मालाबार हिल में एक कोठी अभी तो किराए से ली है पर उसकी जिद्द है कि मैं वह कोठी खरीद लूँ। कोलाबा में ऑफिस ले लिया है....कुछ लोगों को अपॉइन्ट करके कारोबार की शुरूआत कर दी है।’’
‘‘अच्छा......... याने चाक-चौबन्द कर दिया है बम्बई को तुम्हारे लिए।’’
कहीं से हारमोनियम बजने की आवाज सुनाई दी। जैसे हुगली की लहरों पर थिरकती हुई गूँज तट तक लौट आई हो...... एक पल के अंतराल में गायब....।
चंडीदास अपने घर के सामने की सड़क पर उतर गया। जब मोटर का दरवाजा ड्राइवर ने बंद किया तो अपने बाजू की खाली सीट देखकर डायना को लगा जैसे वह अंधेरी वीरान गुफा में भीतर ही भीतर घुसती जा रही है। उस गुफा का कोई अंत नहीं है।
शनिवार की सुबह डायना बम्बई के लिए टॉम के साथ रवाना हो गई। इस बीच चंडीदास से मुलाकात नहीं हो पाई। बेहद व्यस्त थे दोनों अपने-अपने कामों में...या शायद व्यस्तता इसलिए ओढ़ ली गई हो कि विरह की पीड़ा सही जा सके.....कभी-कभी स्थितियां आस-पास फैले दायरे को यूँ ही छोड़ देती हैं.....स्थितियों का उन पर कुछ अख्तियार नहीं होता।
मालाबार हिल में जिस जगह टॉम ने किराए से कोठी ली थी गझिन हरियाली में डूबा एक टापू-सा हो जैसे....। कोठी के सामने बेशुमार विलायती फूलों के पौधे लगे थे। पीछे हहराता सागर और धूप में चमकती, झिलमिलाती बालू वाला खूबसूरत तट....। नारियल, सीताफल के पेड़.....डायना मंत्रमुग्ध-सी इस मंजर में डूबी थी। बम्बई की हवाओं में समुद्र का खारापन साफ महसूस किया जा सकता था...। इस बम्बई को पाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कितने पापड़ बेले थे। पहले यहाँ पुर्तगालियों का शासन था। सात द्वीपों वाली इस अद्भुत नगरी में गज़ब का आकर्षण था। 1661 में इंग्लैंड के किंग चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरिन डे ब्रिगेंजा से शादी की थी। कैथरिन और चार्ल्स को बम्बई दहेज में मिला था.....। ईस्ट इंडिया के अनुरोध पर चार्ल्स ने इसे दस पाउंड सालाना की लीज पर ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया था। उसके बाद यहां धनी घरानों और व्यापारियों की तादाद तेजी से बढ़ने लगी थी। कहते हैं यहाँ पाँव के नीचे सोने की मोहरें हैं बस उसे पहचानने की मनुष्य की कूवत होनी चाहिए। शायद यही वजह थी कि टॉम डायना का कारोबार यहाँ बढ़ाना चाहता था।
डायना के साथ पारो भी आई थी उसकी देखभाल के लिए.... जॉर्ज को कोलाबा ऑफिस के सब पदाधिकारियों से मिलवाकर और दो दिन कोठी में आराम से गुजारकर टॉम कलकत्ते लौट गया था। वैसे तो कारोबार की नींव पड़ चुकी थी पर डायना का मन जरा भी नहीं लगता था कारोबारी कामों में। उसकी शिथिलता के कारण ऑफिस के कामों में भी शिथिलता ही रही, तेजी नहीं आ पाई, पर डायना क्या करे, वह दिल के हाथों मजबूर थी। रात को सोते-सोते वह समुद्र की गर्जन से जाग जाती....चंडीदास शिद्दत से याद आता। ऐसा लगता जैसे शरीर का कोई हिस्सा कलकत्ते में कटकर छूट गया है और इस विच्छिन्न हालत में बाकी का शरीर तड़प रहा है। रात को कोठी पर पहरा देते चौकीदार की सीटी उसकी उचटी-उचटी नींद में सुराख बना देती। वह अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़ कर देखती पर चंडीदास कहीं नजर नहीं आता। कुछ देर बाद आँखें अंधेरे में टोहती एक एक चीज की अभ्यस्त हो जातीं....क्या कर रहा होगा इस समय चंडीदास? क्या वह भी मेरी तरह चुभती आँखें लिए, बोझिल पलकें झिपझिपाता मेरे लिए तड़प रहा होगा....हवा में लहरों की गर्जना तीखी हो कानों को बेधने लगती। ऊफ, इतना शोर जैसे तट की रेत को हजारों पैर थपथपाते चले जा रहे हों..... वह बेचैनी में खिड़की की चौखट पर सिर टिकाए बाहर झाँकती। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की भुतैली छाया मन में दहशत फैला देती। जब वह कुफ्री में थी तो धुँध से ठिठुरा चाँद अपनी फीकी आभा में आकाश के बीचों-बीच टँका था। पर इस वक्त दूर-दूर तक कहीं चाँद नजर नहीं आ रहा था। बस तारे टिमटिमा रहे थे जैसे गहरी अंधेरी खोह में किसी ने जुगनुओं से भरी टोकरी उलट दी हो।
सुबह-सुबह चंडीदास का फोन आया। जैसे उसके मुर्दा शरीर में जान आ गई हो-‘‘कैसे हो चंडी...तुम्हारी आवाज का सूनापन में साफ महसूस कर रही हूँ.... मैं तुमसे अलग कुछ भी सोच नहीं पा रही हूँ।’’
‘‘यह हमें क्या होता जा रहा है राधे? इस तरह हम कैसे अपनी उम्र गुजारेंगे....तुम्हारी जुदाई के चंद दिनों ने मेरे शरीर से प्राण खींच लिए हैं।’’
‘‘नहीं चंडी....अब मुझसे बिजनेस नहीं हो पाएगा....इसे यहीं विराम देना होगा। मुझे तुम्हारे पास लौटना है, लौटना ही होगा।’’
‘‘जानता हूँ राधे तुम लौटोगी, तब तक अपने को सँभालूँगा....मुझे इप्टा ज्वाइन करने की सलाह घोषाल बाबू ने दी है.....नंदलाल बता रहा था कि बम्बई के थियेटर में इप्टा द्वारा अभिनीत नाटक का दसवाँ शो चल रहा है और शीघ्र ही वे नया नाटक शुरू करने वाले हैं जिसकी रिहर्सल बम्बई में ही होगी। उस नाटक में कोई बड़ा रोल मुझे मिलने वाला है।’’
सहसा डायना का शरीर रोमांचित हो उठा-‘‘उस रोल के लिए तुम हाँ कह दो और बम्बई आ जाओ।’’
चंडीदास के आने की खबर से डायना की दिनचर्या ही बदल गई। अब वह हिंदी साहित्य की किताबों की ओर ध्यान देना चाहती थी। बांग्ला साहित्य और अंग्रेजी साहित्य तो उसने लगभग पूरा पढ़ डाला था। वह प्रेमचंद का पूरा उपलब्ध साहित्य बाजार से मंगवाकर इकठ्ठा कर चुकी थी। चंद्रकांता संतति के सभी खण्ड भी उसने खरीद लिए थे....उसके पिता एक सफल बिजनेस मेन थे लेकिन डायना को बिजनेस में जरा भी रुचि नहीं थी। न जाने कैसे कलाकार मन की भावुक लड़की उस खानदान में पैदा हो गई थी जहाँ संगीत की नहीं बल्कि पैसों की झनकार गूँजती थी। लेकिन डायना के मन का फलक बड़ा विस्तृत था। संगीत, चित्रकला, नाटक और भारत के स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े साहित्य को पढ़कर उसने अपने ज्ञान का धरातल ओर छोर फैला लिया था। भौतिक धन-संपत्ति, नाते-रिश्तों से सर्वथा परे वह एक ऐसे धरातल पर खड़ी थी जो सीधा कृष्ण के पीतांबर को छूता था....प्रेम का अद्भुत कोष थे कृष्ण। हद है कि रुक्मणी से मिलने आई राधा के प्रेम को आजमाने के लिए रुक्मणी राधा को गर्म-गर्म दूध पीने को देती है। दूध राधा पीती हैं और छाले कृष्णजी के हलक में पड़ जाते हैं.....ऐसा प्रेम तो आज तक सुना नहीं डायना ने।
जॉर्ज ने ऑफिस का काम तो सँभाल लिया था पर डायना का रुझान न देखकर उसका मन भी नहीं लग रहा था। फिर भी वह सुबह-सुबह फाइलें डायना के टेबल पर रख देता था कि कहीं उससे कोई चूक न हो जाए। डायना तीन चार बार कोलाबा हो भी आई थी। कामकाज जाँच-परख आई थी। फाइलें पढ़कर ओके कर दी थी। बम्बई में आंदोलनों की खूब गहमागहमी थी। सबकी जबान पर एक ही बात थी कि भारत के टुकड़े होंगे क्योंकि मलाबार हिल में उसके पड़ोसी जिन्ना अलग पाकिस्तान की मांग कर रहे थे। लोगों का अमन चैन छिन गया था। पाकिस्तान बनेगा तो मुसलमानों का क्या होगा.....क्या उन्हें भारत छोड़ना होगा? तय था कि अंग्रेजी शासन का सूर्य अस्त होने वाला है....डायना का मन भटकता-भटकता टॉम की ओर चला गया। टॉम भी तो लौट जाएगा, टॉम के साथ उसे भी जाना होगा....तब क्या छूट जाएगा प्रेम संसार यहीं?
वह यू शेप में समंदर को घेरे हीरे से जगमगाती सड़क की बत्तियाँ देख रही है। मरीन ड्राइव में कुछ पल आँखें इस मंजर पर ठिठक-सी गई हैं। क्वींस नेकलेस नाम से प्रसिद्ध ये खूबसूरत जगमगाहट भी उसके मन को शांत नहीं कर पाई है.....बत्तियों की लाल पीली रोशनी समंदर के काले पानी को स्वप्निल बना रही है। एक मराठी लड़की मोगरे के गजरे लिए पास आती है- ‘‘मेमसाहब गजरा’’ पारो ने उसे इशारे से दूर हटने कहा पर डायना ने उसे नजदीक बुलाकर सारे गजरे खरीद लिए। गजरों की महक से भी मोहक मुस्कान उस लड़की के चेहरे पर बिखर आई.....।
पंद्रहवें दिन चंडीदास आ गया। उसके रुकने का इंतजाम ड्रामे के निदेशक के घर किया गया था जो माहिम में एक छोटे से घर में रहते थे लेकिन डायना ने उसे कोठी पर ही रुकाया.....।
‘‘रिहर्सल ऑपेरा हाउस में होगी। यहाँ से तुम्हें नजदीक पड़ेगा।’’
चंडीदास बहुत जोश में था। एक तो इप्टा ने महत्वपूर्ण रोल देकर उसकी बरसों की मुराद पूरी कर दी। कलकत्ते में उसने जितने भी नाटकों और नृत्य-नाटिकाओं का मंचन किया था वह सब उसके अपने दिमाग की उपज थी जो सीमित दर्शकों के बीच सिमटकर रह गई थी लेकिन अब उसे बड़ा कैनवास मिल गया था, जिसमें वह अपनी योग्यता के रंग भर कर दूर-दूर तक अपनी बात पहुँचा सकता था। दूसरे डायना का साथ...जहाँ केवल वह होगा और दूर-दूर तक फैला सागर होगा। दोनों सुबह-सुबह सागर तट पर आ जाते। उगते सूरज की इन्द्रधनुषी किरणों को डायना अपने शरीर पर लपेटती धूप स्नान करती। तब चंडीदास लहरों पर तैरता.....इतना मंथर जैसे बत्तख तैर रही हो। थोड़ी देर बाद डायना भी आ जाती। दोनों साथ-साथ तैरते......तैरते-तैरते थक जाते तो किनारे पर बैठकर सुस्ता लेते.....फिर रेतीले बिछावन पर कोहनियों के बल लेट कर एक-दूसरे को मंत्रमुग्ध देखते....।
‘‘कहते हैं जहाँ राधा की पाजेब के घुँघरू बजते हैं वहाँ कृष्ण हमेशा मौजूद होते हैं।’’
‘‘राधाकृष्ण तो हर युग में प्रेम बनकर अवतरित होते हैं। जहाँ प्रेम है वहाँ राधा है।’’
‘‘और जहाँ राधा है वहां कृष्ण है।’’
धूप जब थोड़ा चढ़ जाती....तट की रेत में मिले अभ्रक कण चमकने लगते तो दोनों वापिस लौटते...।
आज पारो ने बावरची से कहकर आलू के पराँठे नाश्ते में बनवाए थे और अंगूर का रस निकालते हुए वह उसे हिदायत दे रही थी.....‘‘अब बाकी की लोइयाँ रहने दो। जब मेम साहब और बाबू मोशाय नाश्ता करने बैठें तो गरम-गरम सेक कर देना।’’ नाश्ते के बाद डायना कोलाबा में अफगान चर्च देखना चाहती थी। लौटते हुए वह ऑफिस आ जाएगी और चंडीदास कार से ऑपेरा हाउस रिहर्सल के लिए चला जाएगा। आज लंच कैंसिल। पराँठे डटकर खा लिए हैं दोनों ने। फिर तीन चार बजे तक फुरसत ही कहाँ होगी लंच लेने की।
अफगान चर्च की गोथिक कला देखकर डायना मुग्ध हो गई। चर्च की मीनार इतनी ऊँची थी कि देखते हुए सिर चकरा जाए। यह मीनार बम्बई हार्बर जाने वाले जहाजों को रास्ता दिखाती है। वह चंडीदास के हाथों में हाथ दिए चर्च का गलियारा पार करने लगी। दीवारों पर शिलाएँ थीं जिन पर अफगान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम लिखे हैं। डोरिक स्टाइल में बने स्तंभ मन मोह रहे थे। चर्च की जादुई खूबसूरती से दोनों ठगे-से खड़े थे। जब वे अंदर प्रार्थना हॉल में पहुँचे तो हलके से अंधेरे में मोमबत्तियों की लौ दिपदिपा रही थी। प्रार्थना के बाद दोनों बाहर आए-‘‘पता नहीं क्यों चंडी.....मैं जब भी चर्च आती हूँ एक उदासी-सी मुझे घेर लेती है। अजीब-सी अनुभूति होती है, जैसे मदर मेरी मैं ही हूँ जो अपने सीने में क्रॉस सहेजे अपनी आने वाली नस्ल के कष्टों को महसूस करती हूँ। चैपल में बिशप के हाथों बजाई घण्टियों की आवाज सुन लगता है जैसे मेरे आसपास वृंदावन के गोप-ग्वालों की गाएँ हैं जिनके गले में पड़ी घण्टियाँ टुनटुना रही हैं....और जैसे मैं ही सीता हूँ जिसे वनवास मिला है। मुझे लगता है ये सारे के सारे धार्मिक प्रतीक मेरे अपने हैं और मैं उनमें उलझ कर रह गई हूँ।’’
चंडीदास ने उसकी खूबसूरत नाक दबाते हुए कहा-‘‘तुम सिर्फ मेरी राधिका हो......हमारे बीच और हमारी जिन्दगी में बस यही एक सच है और सब छलावा।’’
जब वे कार में बैठे तो अचानक आसमान पर बादलों का झुंड तैर आया। सूरज उसमें छुप गया और समंदर की ओर से आती हवाओं का भीगापन बढ़ गया। सड़क से वंदे मातरम् के नारे लगाता एक छोटा-सा जुलूस जा रहा था। हाथों में तिरंगा झंडा और कदमों में बला की फुर्ती। सामने होटल में रेडियो बज रहा था। बी.बी.सी. से खबरें आ रही थीं....भारत में छिड़े आंदोलनों की। ‘‘अंग्रेजों भारत छोड़ों’, मुस्लिम लीग का पाकिस्तान के लिए आह्ववान....। मुस्लिम बहुल इलाका इलाका पाकिस्तान हो, अलग वतन हो उनका.....कोलाबा की एक चॉल से बुरका ओढ़े एक औरत निकली और सोलह गज की साड़ी पहने मराठिन से बोली-‘‘आपा, ये शोर कैसा?’’
‘‘अरी बाई.....पाकिस्तान माँगते वो लोग।’’
‘‘पाकिस्तान?....इस नाम की कोई मजार, कोई दरगाह है क्या ये पाकिस्तान?’’
‘‘क्या मालूम....बाई....मेरे को थोड़ी साकर द्यो न। आज सुब्बू से चाय नको पिया।’’
वारदातें....चर्चा....बहस......आम आदमी के लिए बस यही जरूरत की चीजें ईश्वर हैं, नून, तेल, लकड़ी।
और डायना खोती जा रही है....जैसे पैर टिकाने को चंडीदास का सहारा तो है पर उन सामाजिक बंधनों का क्या करें जो टॉम के साथ जोड़ दिए गए हैं।
रात को बेहद अंतरंग क्षणों में जब उसने चंडीदास से पूछा-‘‘चंडी, क्या ये जरूरी है कि टॉम के साथ मैं जिस बंधन में बंधी हूँ.....जो रिश्ता है वह रिश्ता कायम रहे? रिश्तों के रंग बदल भी तो सकते हैं।’’
चंडीदास ने उसे आलिंगन में भरकर हलके से उसके होठों को चूमा-‘‘कलकत्ते जाकर तुम टॉम को तलाक दे सकती हो।’’
‘‘लेकिन वह किसी भी हालत में मुझे तलाक नहीं देगा। वह मेरी प्रॉपर्टी को भोगना चाहता है। ऐश-आराम, भोग-विलास की उसे आदत पड़ गई है।’’
चंडीदास सोच में पड़ गया-‘‘इसका मेरे पास कोई हल नहीं है। मैं तुमसे शादी करने को अभी इसी वक्त तैयार हूँ....लेकिन टॉम का क्या करोगी? तुम्हें लेकर हम दोनों के बीच छीना-झपटी क्या उम्र भर चलेगी?’’
उस गंभीरता में भी डायना हँसने लगी। चंडीदास अपनी प्रिया के इस रूप पर दिलोजान से न्यौछावर हो गया। वक्त ठहर सा गया......मानो वह भी रुककर इस प्रेमी युगल के जुनून को चकित हो देख रहा था.....जिनके आगे सारा संसार तुच्छ था.....सारी समृद्धि, सारे आराम, सारी नाते रिश्तेदारियाँ.....बस था तो प्रेम.....प्रेम जिसके जुबान नहीं थी पर जो दोनों के आपस में गुँथे शरीर को देख फुसफुसा उठा था। मैं हूँ, तुम दोनों में समाया, मैं ही चुम्बन हूँ, मैं ही आलिंगन हूँ, मैं ही रतिक्रीड़ा हूँ, सृजन और मरण भी मैं ही हूँ.....मैं ही वासना, लिप्सा, और चाह हूँ.....इसी अधीर लिप्सा के वशीभूत मैं तुममें उछाहें भरता हूँ.......भगवान ने जब कृष्ण के रूप में, एक इंसान के रूप में अवतार लिया तो मैं भी राधा बन उनमें समा गया। राधा ने उनकी बाँसुरी में सुर भरे और स्वयं गूँज बनकर सृष्टि के कण-कण में समा गई।
रात के किसी प्रहर में डायना की नींद खुली तो बेसुध सोए चंडीदास को देख वह मुस्करा दी....आहिस्ता से चादर उढ़ा उसने गाउन पहना और बाथरूम चली गई। उसके अंगों में हलकी-हलकी मीठी-सी पीड़ा थी जो चंडीदास से मिलन का संकेत दे रही थी....वह इस पीड़ा को हमेशा महसूस करना चाहती है। चंडीदास की दी इस पीड़ा से भी उसे प्यार है।
जॉर्ज डायना के किए उपकारों से गद्गद् था। वह बेहद गरीब घराने का था। लंदन में उसके पिता ने उसे और उसके दो छोटे भाइयों और दो बहनों को मिलों में मजदूरी करके पढ़ाया था......डायना ने वक्त बेवक्त उनकी भरपूर मदद की थी, अभी भी करती हैं....जॉर्ज को उन्होंने ही अपना पर्सनल असिस्टेंट चुना था क्योंकि वह ईमानदार, मेहनती और जिम्मेदार व्यक्ति था और यही कारण था कि बम्बई के कारोबार का सर्वेसर्वा उसे बनाकर डायना निश्चिन्त हो गई थी। जॉर्ज डायना के खिलाफ किसी को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह जानता था कि टॉम और डायना के बीच मधुर सम्बन्ध नहीं हैं। डायना को एक सुखी वैवाहिक जीवन नहीं मिला। फिर भी वे सबकी फिक्र रखती हैं। जॉर्ज से भी कई बार कह चुकी हैं कि वह शादी क्यों नहीं कर लेता और हर बार वह टाल जाता है लेकिन इस बार.....उसने मन बना लिया है। कोलाबा ऑफिस में उसके मातहत एक पारसी लड़की दीना सेठना काम करती है और चंद दिनों में ही दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित होकर शादी करने का फैसला कर चुके हैं। दीना का परिवार पर्शिया से भारत उस वक्त आया था जब पारसियों का धर्म खतरे में था। जोरोस्ट्रियन धर्म को मानने वाले पारसियों को अपनी पवित्र अग्नि ईरानशाह की रक्षा अरब मुस्लिम समुदाय से करने के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा था। स्वभाव से नम्र, दयालु पारसी हर स्थिति में खुद को बदल डालने में माहिर थे। भारत में ब्रिटिश राज और बाम्बे रेसीडेंसी का जमाना आते ही पारसी समुदाय ने खुद को ब्रिटिश शासन का वफादार सिद्ध करने में जरा भी देर नहीं की। नतीजा, अंग्रेज उनके प्रशंसक हो गए। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के मामले में आगे आने से बम्बई में अंग्रेजों के बाद पारसी ही सबसे अधिक शिक्षित वर्ग के रूप में उभरे। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभुत्व से भारत जिस आर्थिक संकट से गुजर रहा था उसे दादाभाई नौरोजी ने महसूस किया और बड़े दर्द के साथ लिखा-‘‘भारत की धन-संपदा का अंग्रेजी शासन ठीक उसी तरह दोहन करता है जैसे गंगा के पानी को स्पंज में सोखकर लंदन की टेम्स नदी के किनारे ले जाकर निचोड़ दिया जाए।’’
दादाभाई नौरोजी के इस वक्तव्य ने पारसी समुदाय को स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए उकसाया। दीना के पिता पेशान सेठना भी इस लड़ाई में कूद पड़े थे। सेठना परिवार यह मानता था कि जिस भारत में वे अपने कारोबार सहित आजादी से फल-फूल रहे हैं.....न कोई धार्मिक उत्पीड़न है न कोई मजबूरी बल्कि उनकी भाषा भी वह गुजराती भाषा है जो पहले से यहाँ का गुजराती समुदाय बोलता था लेकिन जब पारसियों ने उसमें ईरानी को मिलाकर एक अलग तरह की गुजराती गढ़ ली जिसे ‘‘ईरानी पारसी’ भाषा का नाम दिया गया तो उनका भी फर्ज बनता है कि वे भारत को आजाद कराएँ। दीना खुद भी क्रांतिकारी विचारों की थी लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उसे इस विचार को त्यागने पर मजबूर किया। फिर भी वह स्वतंत्र विचारों की थी और जो दिल को अच्छा लगे उसे कर डालने में बुराई नहीं समझती थी। लिहाजा जॉर्ज के साथ कोर्ट मैरिज करने का उसने सोच लिया था।
बम्बई की सड़कों के किनारे बाग-बगीचों में मौसम की दस्तक बेशुमार फूलों के रूप में हुई थीं। दीना के पिता को यह समझ में नहीं आ रहा था कि देशव्यापी स्वतंत्रता आंदोलनों का नतीजा भारत की आजादी ही होगा और जब अंग्रेज वापस लौटेंगे तो उसकी बेटी का क्या होगा? पर यह सोचने का वक्त दीना को नही था। लिहाजा एक सादे समारोह में दोनों विवाह बंधन में बँध गए। डायना ऐसे खुश हो रही थी जैसे उसके सगे भाई की शादी हो। संगमरमर-सी रंगत वाली दीना का माथा चूमते हुए उसने कहा-‘‘मुबारक हो....कुछ मत सोचो.....बस ये सोचो कि तुम दोनों एक नई जिन्दगी की शुरूआत कर रहे हो, बाकी वक्त के हाथों छोड़ दो।’’
दीना ने हाथ जोड़ दिए-‘‘मैडम......आपका आर्शीवाद चाहिए, बाकी हम अपने रास्ते खुद बना लेंगे।’’
अब डायना के परिवार में एक व्यक्ति का इजाफा हो गया था और वह थी दीना....मर्द होने के नाते जिन बातों तक पहुँचने के लिए जॉर्ज दरवाजे बंद पाता था वहाँ अब दीना की पहुँच थी।
रिहर्सल पूरी हो चुकी थी। आज ड्रेस रिहर्सल थी और दो दिन बाद शो.....चंडीदास बेहद व्यस्त था और डायना परछाई की तरह उसके साथ....उसकी प्रेरणा बनी कि जैसे उसके बिना चंडीदास का वजूद ही न था और ये सच भी था। ड्रेस रिहर्सल के बाद चंडीदास डायना को दो सरप्राईज देना चाहता था। पिछली शाम उसने डायना के लिए रिदम हाउस से नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया और अमीरबाई कर्नाटकी के गीतों के रिकॉर्डस खरीदे थे जो वह आज उसे भेंट करने वाला था ओर दूसरा नमन दादा से मुलाकात। आज शाम को ही उन्होंने उसे अपने घर बुलाया था।
‘‘नमन दा गीतकार, संगीतकार, गायक और न जाने क्या-क्या हैं.....हालाँकि उनकी ये सारी योग्यताएँ फिल्मों में इस्तेमाल हो रही हैं पर वे जन्मजात संगीतकार हैं।’’
‘‘अरे....मुझे तो आज ही पता चला और मिलने की तड़प जाग गई मन में।’’
‘‘बंदा हाजिर है.....आपकी इच्छा सर आँखों पर....चलिए।’’
चंडीदास का जब काम खत्म हो जाता है तो वह हलके-फुलके मूड में आ जाता है....वरना गंभीर बना रहता है।
नमन दा से मिलकर दोनों की खुशी का पारावार न था.....दादा ने बताया था कि वे फिल्मिस्तान और बॉम्बे टाकीज में काम करते हैं और फिल्मों के लिए संगीत और गायकी उनके जीवन का लक्ष्य है.....उन्होंने एक गीत गाकर सुनाया तो डायना को लगा जैसे वह नौका में बैठी है और मल्लाह की पतवार के संग गीत के बोल सुर में ढल रहे हैं.....अभी देखते-देखते नदिया पार हो जाएगी और नाव खाली की खाली रह जाएगी.....नमन दा के आग्रह पर चंडीदास और डायना ने एक युगल गीत सुनाया।
‘‘तुम लोग फिल्मों के लिए क्यों नहीं गाते?’’
‘‘नहीं दादा....वो क्षेत्र हमारा नहीं है। उसमें स्ट्रगल बहुत है और हमारे पास उसके लिए समय नहीं है।’’
‘‘खैर....कल तुम दोनों स्टूडियो अगर आ जाओ तो तुम्हारे सोलो और डुएट का हम रिकॉर्ड तैयार करवा सकते हैं।’’
‘‘अरे वाह....यह तो आपने मनपसंद बात कह दी। लेकिन अभी अरसे से हमने रियाज नहीं किया है और दूसरे मेरी सारी एकाग्रता अभी शो के लिए है। शो हो जाने दीजिए।’’
‘‘ठीक है।’’ नमन दादा ने उन्हें गीतों की एक किताब देते हुए कहा.....‘‘इन गीतों को मैं तुम दोनों से गवाऊँगा.....उसमें संगीत मेरा रहेगा।’’
रियाज के लिए कोई भी वाद्य कोठी में न था। लिहाजा हारमोनियम, ढोलक, तबला और तानपूरा खरीदा गया। हफ्ते भर तक थियेटर में कामयाब शो के बाद यह तय हुआ कि जनवरी में बंगलौर में इसके शो किए जाएँगे। और इस तरह चंडीदास बम्बई में उलझकर रह गया।
डायना के पास गीतों का खजाना था ही....बस थोड़े से रियाज की जरूरत थी जो वह सुबह चंडीदास के साथ करती थी....दीना और जॉर्ज हफ्ते भर महाबलेश्वर में हनीमून मनाकर लौट आए थे और ऑफिस के काम में मुस्तैदी से जुट गए थे।
पंद्रह दिन के अथक प्रयास के बाद नमन दा के संगीत निर्देशन में डायना और चंडीदास के गीतों की रिकॉडिंग हुई और नई आवाज को लिए नया रिकॉर्ड बाजार में आया तो धूम मच गई। डायना के लिए यह चमत्कार था और चंडीदास के लिए सपनों से कहीं अधिक बढ़कर एक जीवन्त घटना।
उस शाम जब वे सागर तट बैठे लहरों का नर्तन देख रहे थे तो उनके पास शब्द न थे और उन मूक पलों में जिन्दगी के अपार सौन्दर्य और सुख में ईश्वर के प्रति अगाध विश्वास से भर उठे थे वे। तभी बच्चों का एक झुंड खिलखिलाता हुआ सामने से निकला और दूर कहीं स्वर उभरे......इंकलाब जिन्दाबाद, वन्दे मातरम्......डायना ने चौंककर चंडीदास की ओर देखा। सूरज नारंगी गेंद-सा सागर में आधा डूब चुका था और लहरें सतरंगी हो उठी थीं.........
‘‘जिन्दगी भी क्या से क्या रंग दिखाती है। कहाँ मैं स्कूल का संगीत मास्टर और कहाँ.......’’
‘‘इतने बड़े अभिनेता, चित्रकार, गायक....।’’
‘‘और यह सब तुमसे मिलकर, तुम्हारे भाग्य से राधे।’’
‘‘मेरे भाग्य से?’’ डायना फीकी हँसी हँसी-‘‘नहीं चंडी, अपने इस चमकते ख्वाब की सच्चाई मेरे भाग्य से मत जोड़ो। यह सब तुम्हारी अपनी काबलियत है......हाँ, मुझे बनाने में तुम्हारा हाथ जरूर है।’’
चंडीदास ने दूर सागर की सीमा रेखा पर गायब होते सूरज पर नजरें टिका दीं....अचानक सागर की सतह लाल हुई और लहरें उसे दबोचे अपनी आरामगाह में डुबकी लगा गई....आसमान में तारे टिमटिमा उठे।
‘‘अब मुझे बम्बई को अपना कर्मक्षेत्र बनाना पड़ेगा.....यानी बम्बई कलकत्ता की रेस.....इस रेस में तुम मेरे साथ हो न राधिका.....‘‘डायना ने चंडीदास के कंधे पर सिर टिका दिया-‘‘मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।’’
धीरे-धीरे सागर तट सूना होने लगा था। बच्चे अपनी माँओं के साथ घर लौट रहे थे और उनके बनाए घरौंदे पीछे छूट रहे थे....अब वहाँ युवाओं की चहल-पहल थी।
सुबह चंडीदास कलकत्ता लौट गया।
जिस दिन डायना को बम्बई छोड़कर टॉम कलकत्ते लौटा था उसकी आँखों में डायना के बढ़ते कारोबार की चमक थी। अब वह और अधिक धनवान हो जाएगा.....और अधिक आराम....और अधिक सुखद, सुन्दर भविष्य....और इसी खुशी में वह पैग बनाकर बैठ गया और ग्रामोफोन पर अफ्रीकी धुन का रिकॉर्ड लगा दिया।
‘‘कैसे हैं टॉम साहब.....वहाँ बम्बई में हमारी डायना कैसी हैं?’’ सामने नादिरा को खड़ी देख वह अचकचा गया-‘‘अरे आप?’’
‘‘हाँ.....घर में मन नहीं लग रहा था और डायना के हालचाल भी जानने थे।’’
टॉम ने ग्रामोफोन बंद कर दिया और नादिरा को सोफे पर बिठाते हुए पैग ऑफर करने लगा। नादिरा खिलखिलाकर हँस पड़ी-‘‘तौबा, तौबा....हमारे लिए गुनाह है शराब......।’’
‘‘नहीं, मुसलमानों के साथ मैंने शराब पी है। खान साहब भी तो पीते हैं।’’
‘‘उनकी अल्लाह जाने....मैं तो रोजे नमाज वाली हूँ......मेरे लिए गुनाह है ये।’’
टॉम इस वक्त धार्मिक बहस के मूड में नहीं था। बात बदलते हुए पूछा-‘‘हैं कहाँ खान साहब?’’
‘‘गए हैं दोनों लड़कियों को लिवा लाने श्रीनगर....बहुत दिनों से वे अपनी दादी के पास हैं न।’’
‘‘ओह, तब तो आपका अकेले घर में मन लगना मुश्किल है....आज आप डिनर हमारे साथ लें।’’
नादिरा ने इनकार नहीं किया। बोनोमाली दोनों कुत्तों को घुमाकर लौट रहा था....ब्लॉसम हॉल में बिछे कालीन पर उछलकूद कर रही थी। टॉम की आँखों में नशे की वजह से गुलाबी डोरे तैर रहे थे। सामने नादिरा का लाजवाब हुस्न था....कश्मीरी काढ़ के काले सलवार कुरते में वह गजब ढा रही थी। कमर तक खुले काले बाल जैसे काली घटाएँ....गोरे गोल चेहरे पर झील-सी गहरी खूबसूरत आँखें और भरे-भरे होठ.....जब वो डिनर के लिए उठने लगा तो उसने नादिरा के आगे हाथ बढ़ाया-‘‘चलिए....टेबल लग चुका है।’’
नादिरा ने उसके बढ़े हाथ को तवज्जो नहीं दी और खुद ही उठकर डाइनिंग टेबल तक आई। बोनोमाली प्लेटें लगा रहा था। काँच के डोंगों में चिकन शोरबेदार.....एक-दो सब्जियाँ, रायता, पुडिंग, सलाद....दौड़-दौड़कर गरमा-गरम फुलके दोनों की प्लेटों में परोसते बोनोमाली के हाथ बिजली की फुर्ती से चलते.....और टॉम इसरार करता.....‘‘और लीजिए.....आपने तो कुछ लिया ही नहीं।’’
नादिरा तकल्लुफपसंद नहीं थी। खुलकर जीना उसकी आदत थी....सो डिनर में भी कोई नाज-नखरे नहीं दिखाए उसने। खाने के बाद दोनों आधा पौन घंटे तक गपशप करते रहे.....हालाँकि यह वक्त बहुत भारी पड़ रहा था टॉम के लिए। नशे और डिनर के बाद उसे औरत चाहिए। भरपूर लाजवाब हुस्न था सामने पर एकाएक हिम्मत नहीं पड़ रही थी नादिरा को छूने की।
नादिरा के जाने के बाद वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा....नींद कोसों दूर चली गई थी और अपनी तनहाई पर जार-जार रोने को मन कर रहा था टॉम का।
अगली शाम ऑफिस से लौटकर तरोताजा होकर वह नादिरा के बंगले खुद ही पहुँच गया। नादिरा उस वक्त क्रोशिया बुन रही थी उसे देखते ही मुस्कुराई।
‘‘कैसी बीती रात? नींद आई डायना के बिना?’’
‘‘मत पूछो....मुझसा अकेला शायद ही कोई हो इन दिनों।’’ टॉम बेतकल्लुफी से सोफे पर बैठ गया।
‘‘वो कैसे भला? डायना बम्बई में अकेली है, खान साहब श्रीनगर में और मैं यहाँ.....’’
‘‘तो क्यों न हम इस जुदाई को मिल-बाँट कर जिएँ।’’ टॉम ने इरादतन कहा।
नादिरा ने उँगली में लपेटा डोरा खोलते हुए क्रोशिया टेबिल पर रख दिया-‘‘बिल्कुल जनाब...कैरम खेलते हैं पर उसके पहले एक-एक कप कॉफी। मैं कॉफी बहुत अच्छी बनाती हूँ।’’ कहती हुई वह रसोईघर की ओर चल दी। हीटर ऑन कर कॉफी का पानी चढ़ाया और प्लेटों में नाश्ता निकाल ही रही थी कि टॉम ने दबे पाँव आकर उसे पीछे से दबोच लिया।
नादिरा लड़खड़ा गई-‘‘मिस्टर टॉम, यह क्या...।’’
लेकिन बात अधूरी छूट गई। उसके होठों पर टॉम के होठों का कसाव था। वह छटपटाकर परे हटी और घूर-घूर कर टॉम को देखने लगी। लेकिन टॉम होश में कहाँ था। उसने गोद में नादिरा को उठाया और सीधा उसके शयनकक्ष में दाखिल हो गया।
‘‘यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। खान साहब सुनेंगे तो....।’’
पर इसी बात से तो निश्चित था टॉम। एक पुलिस कमिश्नर की बीवी शोर करके मजमा तो इकट्ठा करेगी नहीं, इज्जत का सवाल है। न ही खान साहब को बताएगी क्योंकि उनकी उँगली उसकी ओर भी उठ सकती है....शादीशुदा जिंदगी नर्क हो जाएगी नादिरा की और नादिरा के सिले होठों का खूब फायदा उठाया टॉम ने। पंद्रह दिन तक जब तक खान साहब लौट नहीं आए वह रात के सन्नाटे में नादिरा के बंगले में दाखिल होता और आधी रात को घर लौट जाता। औरतों के मामले में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली, बहस करने वाली, आधुनिक विचारों की बुद्धिमान नादिरा टॉम से हार मान कर हर रात कैसे उसे अपना जिस्म सौंपती रही.....यह वह खुद नहीं समझ पाई। जबकि वह जानती थी कि यह सब वक्ती तौर पर है। टॉम के मन में उसके लिए जरा भी प्यार नहीं है....फिर भी....तो कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके ही मन का एक कोना खान साहब के प्यार से अधूरा छूट गया हो और अब जिस पर टॉम ने कब्जा जमा लिया हो।
खान साहब के लौटने के दूसरे दिन टॉम मध्यप्रदेश के जंगलों की ओर टूर पर भेज दिया गया। चंडीदास के बम्बई जाने और कोठी पर ही ठहरने की बात उसे पता चल गई थी। वैसे भी उसमें छुपाने जैसा कुछ था नहीं। डायना और टॉम की अपनी अपनी अलग तरह की जिन्दगियाँ थीं। अपने शौक थे, अपनी पसंद, अपने उसूल उसमें एक-दूसरे का दखल नहीं के बराबर था लेकिन जब बात टॉम के हक को छूने लगती है तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। वह जानता था दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं। उसके मन में हमेशा शंका रहती थी कि कहीं डायना उसे तलाक न दे दें। वह जब भी यह बात सोचता उसकी रातों की नींद उड़ जाती और वह देर रात तक शराब पीता रहता। नहीं, वह किसी भी कीमत पर डायना को नहीं छोड़ सकता। न वह खुद उसे छोड़ेगा न डायना को छोड़ने देगा। हर बार सोचता है कि डायना को इतना प्यार करे कि उसके कदम बहकने ही न पाएँ, कोशिश भी करता पर डायना के नजदीक जाते ही उसकी यह कोशिश हवा में ताश के महल-सी ढह जाती। निश्चय ही डायना की खूबसूरती, बुद्धिमानी अमीर घराने में हुई उसकी परवरिश, उसका शालीन स्वभाव उसके आड़े आ जाता। और आड़े आ जाती लंदन में घटी वह घटना जब डायना के पिता ने उसे मामूली किसान परिवार से उठाकर अपना दामाद बनाया था......अब महसूस होता है जैसे वह एहसान नहीं था बल्कि भीख में मिला एक रिश्ता था जो उम्र भर टॉम को यह भूलने नहीं देगा कि उसने किस तरह कई-कई दिन बिना खाए कैम्ब्रिज में अपने पढ़ाई के साल पूरे किए हैं। अचानक उसे कैम्ब्रिज के दिनों का अपना दोस्त जॉन याद आया जो आजकल कैम्ब्रिज में ही लिटरेचर पढ़ाता है और जब भी वह लंदन जाता है डायना की कोठी पर वह जॉन के साथ ही अपनी शामें गुजारता है। जॉन उसका अंतरंग मित्र है.....वह अपनी समस्या उसके सामने रखेगा, उससे सलाह लेगा और यह सोच कर टॉम को बड़ी राहत मिली।
डाक बंगले में उसके साथ चार अंग्रेज अफसर और थे जो चुहलबाज और खाने-पीने वाले नजर आ रहे थे। लेकिन आज टॉम का मन कहीं नहीं लग रहा था। उसे बड़ी शिद्दत से लंदन याद आ रहा था जहाँ की सड़कों पर बारिश में भीगते हुए वह कितनी ही बार जॉन के साथ गुजरा है। तब उनकी जेब में इतने पैसे नहीं रहते थे कि वे किसी अच्छे रेस्तराँ में बढ़िया-सी कॉफी पी सकें या टोस्ट के साथ मक्खन भी ले सकें। वे टहलते हुए लंदन सिटी से दूर देहातों की ओर चले जाते। सच पूछो तो उन्हीं देहातों में टॉम का बचपन गुजरा है। वहाँ उसका छोटा-सा घर था ओर दूसरों के खेत जिनमें उसके पिता खेती किया करते थे। बाद में वे बर्मिघम आकर बस गए थे.....वह जॉन के साथ किसी देहाती कहवाघर में बैठकर कहवा पीता और चूल्हे की आँच तापता था। कैसे दिन थे वे भी.....अनिश्चित, दुर्निवार और सरक-सरक कर बीतने वाले। बाद में.....काफी समय गुजर जाने के बाद जब डायना के साथ उसकी शादी हुई तो वह दोस्तों के बीच रश्क का विषय बन गया था। उसकी तकदीर पर सभी गश खा रहे थे पर शायद वे जानते नहीं थे कि डायना के पिता ने बहुत सोच-समझ कर यह शादी की थी। उन्होंने समृद्ध घरानों के बिगड़ैल लड़कों को देखा था जो एक डेढ़ साल बाद तलाक तक नौबत ला देते थे....कम-स-कम यह गरीब लड़का डायना की समृद्धि से तो बँधेगा। उड़ती चिड़िया के मजबूत पर पहचान लिए थे उन्होंने। टॉम उनकी उम्मीदों पर खरा उतरा था।
कोई दरवाजा खटखटा रहा था। जंगल निबिड़ एकांत में ऊँघ रहा था....नहीं, आज वह किसी तरह के मूड में नहीं है जबकि उसके अंग्रेज सहकर्मी जानते थे कि इस वक्त टॉम कभी सोता नहीं.....अक्सर कहता है मैं अपनी रात किसी को नहीं दे सकता चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो.....मेरी रात सिर्फ मेरी है।
पर आज इस हक का भी मूड न था, उसने अपने साथियों से क्षमा मांगी और अनमना-सा बिस्तर पर जाकर लेट गया। पर इस वक्त नींद कैसी......उसकी आँखों के आगे तो चंडीदास सवाल बनकर खड़ा था। सारी जिन्दगी तूफानों से भर दी थी चंडीदास ने.....वह उससे छुटकारा पाना चाहता था, पर कैसे? उसने अपनी फाइल में से कागज निकाला और जॉन को खत लिखने लगा-
जॉन, मेरे दोस्त,
जिस नाटक के सूत्र ने मुझे डायना से मिलवाया था वही नाटक का सूत्र अब मेरा सिरदर्द बन गया है। डायना की जिन्दगी में एक कलाकार ने घुसपैठ मचा दी है। मैं बहुत तनाव में हूँ। समझ नहीं पा रहा हूँ कैसे छुटकारा पाऊँ.....मैं खुद अलग हट जाऊँ या उस घुसपैठिए को अलग हटाऊँ जो आसान नहीं है। डायना ने उसे अपने जीवन में रचा-बसा लिया है। न जाने क्या जादू है उस बंगाली महाशय में... उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें जरूर जादू जानती हैं वरना डायना जैसी शख्सियत आसानी से पिघल नहीं सकती। वह काँटा मेरी जिन्दगी में गहरे चुभकर अब नासूर बनता जा रहा है....डायना मुझसे दूर होती जा रही है....बताओ जॉन, क्या करूँ?
पत्र लिखकर टॉम का तनाव हलका-सा कम हुआ। उसने पैग बनाया और बरामदे में कुर्सी पर बैठकर चाँदनी में डूबा सौंदर्य अपने पेग के साथ घूँट-घूँट पीने लगा। उसके चारों साथी सो चुके थे। इस वक्त डायना क्या कर रही होगी.....नया प्रोजेक्ट लाँच करके क्या उसे सचमुच खुशी हुई होगी या यह सब मेरे आग्रह पर बेमन से किया उसने? सोचते-सोचते टॉम कब बिस्तर पर आया, कब नींद के आगोश में चला गया, पता ही नहीं चला।
दूसरे दिन....पूरा दिन....शाम और रात तक वे सब ऑफिस के काम में व्यस्त रहे। खाना खाने तक की फुरसत नहीं मिली.....रात जो बिस्तर में ढेर हुए तो सुबह ही नींद खुली। वह पूरा दिन छुट्टी का था। नाश्ते के बाद टॉम अपने साथियों के साथ नदी में तैरने निकल गया। डाक बंगले के चौकीदार ने सतर्क कर दिया था-‘‘साहब....नदी में मगरमच्छ है, जोड़े से रहता है।’’ वे सावधानी से तैरते रहे.....मगरमच्छ की छाया तक उनके नजदीक नहीं फटकी। नदी से लौटकर उन्होंने लंच लिया और दोपहर भर सोते रहे, क्योंकि रात को शिकार का कार्यक्रम था।
उतरते अक्टूबर की खुनकी भरी रातें....सबने आधी बाँह के स्वेटर पहन लिए थे। जंगल का महकमा सँभालने वाले ताराबाबू और मुसद्दीलाल को इंतजाम करने का जिम्मा दिया गया था। ताराबाबू ने ही तो बताया था कि जंगलों में चीता, गुलबाघ और शेर है.......रात के सन्नाटे में शिकार की टोह में निकलते हैं ये जानवर। शिकार के लिए जरूरत थी पेड़ पर मचान की, गारे की और सर्चलाइट की।
झुटपुटे अंधेरे में ही उन्होंने दो-दो पैग व्हिस्की के लिए.....सिर्फ खुद को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए। क्योंकि वे शिकार के लिए जा रहे थे। इसलिए होश में रहना जरूरी था। मुर्गा और रोटियाँ सलाद के साथ उस जंगली इलाके में बड़ा मजा दे रही थीं। रात गहराते ही वे जीप से घने जंगल तक आए और बंदूकों से लैस हो मचान पर जाकर बैठ गए। मुसद्दीलाल चाय से भरा थरमस लिए मचान के सिरे पर बैठा था। ताराबाबू जीप को सही जगह खड़ी करने गए थे। दूर पेड़ के तने से बकरी बँधी थी जो रह-रहकर मिमियाती और पहचल सुन शांत हो जाती। थोड़ी देर में ताराबाबू भी लौट आए और सर्चलाइट का काम सँभाल लिया। ठंडी, कंटीली हवा में पत्तों की सरसराहट खौफ पैदा कर रही थी। चारों और ऊँचे-ऊँचे दरख्त काले भूत से नजर आ रहे थे। सन्नाटे में कोई सियार हुआ-हुआ करता तो पेड़ों की टहनियों पर और घोंसलों में बैठे पंछी पंख फड़फड़ाने लगते। चाँद जब आसमान के बीचोबीच आ गया तो चाँदनी और भी उज्ज्वल होकर झरने लगी। मचान के ऊपर से एक टिटहरी ‘‘टिहु टिहु’’ की पुकार करता जैसे चाँद की ओर ही उड़ा जा रहा था। जब वे पाँचों जम्हाईयाँ लेने लगते तो मुसद्दीलाल थरमस में से गरमागरम चाय प्यालों में उँडेलने लगता....न शेर, न चीता, न गुलबाघ....कोई दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। रात ढलने को आ गई। बकरी मिमियाते-मिमियाते थक गई पर कहीं चमकती दो आँखें नजर नहीं आई। धीरे-धीरे सुबह के उजाले में जंगल स्पष्ट होने लगा। वे सभी मचान से उतरे। टॉम ने बंदूक कंधे से उतारकर मुसद्दीलाल को थमा दी-‘‘मुसद्दीलाल, क्या तुम श्योर हो कि जंगल में शेर, बाघ, चीता है।’’
‘‘हओ मालिक....अपनी इन्हीं आँखों से देखा है हमने। इधर परली तरफ नदी बहती है, उसी में पानी पीने आते है सब।’’
‘‘चलो दिखाओ वो नदी......’’
‘‘अरे वही नदी तो इधर से निकलती है जिसमें आप सब नहाए रहे।’’
सुबह की ताजी हवा में वे सब जंगल में चहलकदमी कर रहे थे।
‘‘ताराबाबू.....तुम सब सामान जीप में रख लो.....मुसद्दीलाल....तुम भी ताराबाबू की हैल्प करो....तब तक हम लोग घूमकर आते है।’’
पाँचों जंगल की नर्म लचीली घास पर अपने जूतों के निशान बनाते घूमने लगे। दरख्तों पर रंग-बिरंगे जंगली फूल बहुतायत से खिले थे जिनकी मीठी और तुर्श महक हवा में तैर रही थीं.........पंछियों की चहचहाहट जंगल को जीवंत कर रही थी। तभी एक आदिवासी औरतों का झुंड वहाँ से निकला। झुंड नहीं बल्कि एक सधी हुई पंक्ति में वे एक के पीछे एक चली जा रही थीं......शीशम-सी चमकदार काली....घुटनों तक बंधी साड़ी। ब्लाउज नदारद.....साड़ी के पल्ले से ही अपना यौवन ढके हुए...पाँचों का मन चंचल हो उठा। वे कसमसाए से खड़े देखते रहे। औरतों की पंक्ति आँखों से ओझल हो सामने पहाड़ की तराई में खो गई। वे आपस में उनके यौवन की चर्चा करते घूमने लगे। विशाल बरगद की जटाओं का फैलाव देखकर वे चकित थे। टॉम ने ऐसा ही बरगद कलकत्ते के बोटेनिकल गार्डन में देखा था। जटाएँ जमीन में धँसी हुई थीं, दरख्त की टहनियों, पक्तियों का चँदोवा तनता चला जा रहा था। वहीं घास पर साड़ी-सा कुछ था....हाँ....नीले रंग की सूती साड़ी धूप में सूख रही थी। साड़ी की दिशा में ही एक बावड़ी थी.....पाँचों ने बावड़ी में झाँका...काई लगी सीढियाँ गोलाकार,बीचोंबीच धूप में झिलमिलाता बावडी का शीतल जल.....सीढ़ियों पर बैठकर लोटे से नहाती एक आदिवासी औरत, बिल्कुल नग्न......शायद उसके पास एक ही साड़ी थी जो उसने धोकर धूप में फैला दी थी और सुनसान जंगल में निश्चिन्त हो नहा रही थी। पाँचों उसे देखकर सीटी बजाने लगे। उसने चौंककर ऊपर देखा और घबराकर अपने दोनों हाथों का क्रॉस बनाते हुए खुद को छुपा लिया पर तब तक टॉम सीढ़ियाँ उतर चुका था। उसने अपना हाथ औरत की ओर बढ़ाया। औरत ने इंकार में सिर हिलाया.....उसके नग्न बदन से पानी की बूँदे चू रही थीं और ठंडी हवा और घबराहट में वह काँप रही थी। टॉम ने जबरदस्ती उसका हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींचा और चिल्लाया-‘‘फिनले.....नीचे आओ, हेल्प करो।’’
उनमें से फिनले नामक अंग्रेज नीचे उतरा और टॉम के साथ औरत को टाँगों, हाथों से पकड़कर झुलाते हुए लाकर घास पर पटक दिया। सभी के इरादे स्पष्ट थे। सबसे पहले टॉम ने फिर चारों ने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया। औरत कमसिन थी, उसकी चीख आसपास के दरख्तों को हिला रही थी......उसने अपनी शक्ति भर उनका विरोध किया....नोचा, खसोटा......पर वे पाँच थे.....जब आखिरी अंग्रेज युवक उसके बदन को भेड़िए-सा चीथ रहा था तभी एक आदिवासी युवक वहाँ आया और चीखता हुआ अंग्रेजों पर पत्थर उठा उठा कर बरसाने लगा.....अंग्रेज निहत्थे थे....बंदूकें मुसद्दीलाल के पास थीं....वे मचान की दिशा में भाग गए।
दोपहर होते-होते उनके डाक बंगले को आदिवासियो ने घेर लिया। उनके हाथों में तीर कमान, भाले आदि थे और वे अपनी भाषा में अंग्रेजों को ललकार रहे थे। मुसद्दीलाल घबराया हुआ आया-‘‘साहिब, बाहर मत निकलना....वे लोग बहुत खूंखार हैं....उस औरत ने बावड़ी में कूदकर जान दे दी हैं।’’
‘‘तो? उनसे कहो सीधी तरह चले जाएँ....हमारे पास बंदूकें हैं।’’ टॉम ने निर्दयता से कहा।
‘‘नहीं साहिब....यह गलती मत करना....यहाँ इन जंगलों में आदिवासियों के बड़े-बड़े कबीले रहते हैं....आग लगा देंगे जंगल को, डाक बंगले को....साहिब, आप तो चले जाएँगे। मैं बेमौत मारा जाऊँगा। मेरी नौकरी का सवाल है, रहना तो मुझे जंगल में ही है।’’ मुसद्दीलाल ने गिड़गिड़ाकर कहा।
‘‘तब क्या करें.....उनके तीर का निशाना बनें क्या?’’ टॉम ने आँखें तरेरीं।
‘‘बस, निकलिए मत बाहर....और हमें थोड़े रूपए दीजिए बाकी हम सँभाल लेते हैं।’’
टॉम ने पर्स ही थमा दिया मुसद्दीलाल को। वह बाहर आया। न जाने क्या समझाया, क्या किया.....आधे घंटे बाद जब वह कमरे में लौटा तो टॉम का पर्स खाली था और आदिवासी जा चुके थे। टॉम हँसा-‘‘भूखे.....कुत्ते....।’’
और बिस्तर पर गहरी नींद लेने के लिए आराम से लेट गया।
शाम का वक्त था। सूरज अस्त हो रहा था। उसकी हलकी पड़ती किरणें बंगले के सतरंगी काँच पर पड़कर माहौल को इंन्द्रधनुषी बना रही थीं। टॉम लौट आया था.....हर बार की तरह खुश, तरोताजा होकर.....अब सबसे पहला काम उसे यह करना है कि चंडीदास के बारे में एक बार फिर ठंडे दिल से एकांत में बैठकर सोचना है और तब जॉन को पत्र भेजना है और फिर जवाब का इंतजार....इंतजार। यही इंतजार तो उसे खाए जाता है। वह बहुत जल्द हर बात का जवाब चाहता है। एक तरह की हड़बड़ाहट उसे हमेशा घेरे रहती है......न जाने क्यों? शायद भारत में न रहने की बहुत जल्दी लंदन लौट जाने की उसकी इच्छा उसे चैन नहीं लेने देती। नफरत है उसे इस देश से, देशवासियों से.....काहिल, मूर्ख, गँवारों के साथ रह-रहकर वह भी वैसा ही हुआ जा रहा है। और डायना उतनी ही प्रभावित है इस देश से.....हमेशा तारीफ, हमेशा भारतीयों की कला, साहित्य, नवजागरण का गुणगान.......वह विवेकहीन औरत एक गुलाम से प्यार ही कर बैठी। क्या हो गया है उसकी कौम को? डायना को? सी. एफ. ऐण्डूज को जिन्होंने गाँधी के पैर तक छू लिए थे और जो सबसे बड़े भारतभक्त कहलाते हैं। डायना ने ऐण्डूज की किताब ‘‘इंडियन इंडिपेंडेंस इट्स इमीडिएट नीड’ उसे पढ़ने को दी थी। समझ में नहीं आता कि आखिर स्वाधीन होकर क्या कर लेगा भारत? एक डग भी तो किसी के सहारे के बिना चल नहीं पाता। अंग्रेजों के आने के पहले सदियों से गुलाम ही तो रहता आया है यह देश। न जाने कितनी विदेशी कौमों ने इस पर राज किया। टॉम इतिहास का अच्छा जानकार है इसीलिए वह उँगलियों पर गिना सकता है उन विदेशी लुटेरों, हमलावरों के नाम जिन्होंने इस देश को लूटा भी और इस पर शासन भी किया है। उसे अपने इंग्लैण्ड पर नाज है। दुनिया के न जाने कितने देशों पर राज रहा है अंग्रेजों का.....निश्चित ही नोबल कौम का है टॉम। औरों से श्रेष्ठ, बुद्धिमान और वक्त की नब्ज पकड़ने वाला। उसकी कौम का एक अंग्रेज ऐण्डूज भले ही भारत भक्त हो.....टैगोर के शांतिनिकेतन में रहकर भले ही प्रवासी भारतीयों के विषय में लेख लिखता हो, किताबें लिखता हो पर इस सबके पीछे आखिर उसके अंग्रेज होने का चमत्कार भी तो शमिल है। वरना बता दे कोई.....कि कोई भारतीय फ्रांसभक्त है, रूसभक्त है या इंग्लैण्डभक्त है। हो ही नहीं सकता। न! गुलामों की सोच इतनी परिपक्व कहाँ। उनसे तो बस गुलामी करवाओ और काम का न रहने पर गोली मार दो। उनकी औरतों को भोगो। हैं ही वे भोगने के लिए....सदियों से यही होता आया है। दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी। कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा.....परिवर्तन होगा तो बस इतना कि चंडीदास जाएगा जहन्नुम में और वह डायना के साथ दुनिया के सुख भोगेगा।
चंडीदास को अपने रास्ते से हटाने की तरह-तरह की योजनाओं पर टॉम रात बारह बजे तक विचार करता रहा। वह शराब पीता जाता था और सोचता जाता था। कोई ऐसी योजना बने कि डायना को, चंडीदास के परिवार को....अड़ोस-पड़ोस को कुछ पता ही न चले और वह चंडीदास से छुटकारा पा ले। पर कैसे? क्यों न जॉन को लंदन से यहाँ बुला लिया जाए? या वह खुद ही कुछ दिनों के लिए लंदन चला जाए। हाँ-यही ठीक रहेगा। लंदन में जॉन के साथ सारी समस्याओं पर अच्छे से विचार किया जा सकता है और एक बलवती योजना बनाई जा सकती है। बहुत ज्यादा एहतियात की जरूरत है क्योंकि चंडीदास एक प्रसिद्ध गायक, अभिनेता और चित्रकार हो चुका है। उसका दल काफी सदस्यों वाला, संगठित और जाना-माना है। अकाल राहत कोष के लिए उसने जो धूम मचाई थी, वाहवाही लूटी थी......पूरा बंगाल उसे मानने लगा था। उसके बारे में बहुत सोच-समझकर फैसला लेना होगा।
यही ठीक रहेगा कि वह लंदन चला जाए। वह बम्बई होते हुए लंदन जाएगा। डायना से मिल भी लेगा। काफी महीने बीत गए हैं मुलाकात नहीं हुई। डायना आई ही नहीं कलकत्ते....उसका बिजनेस में मन लग गया है और यह कल्पना करते ही टॉम खुशी से भर उठा...बिजनेस में मन लगना यानी करोड़ों का स्वामित्व....खुशी और नशे से धीरे-धीरे उसकी आँखें मुँदने लगीं।
मलाबार हिल में जिस कोठी में डायना रहती थी उसी को उसने खरीद लिया था। बम्बई में उसका मन लग गया था। एक तो यहाँ चंडीदास के संग जीने का मौका मिल गया था। चंडीदास कलकत्ते की अपनी संगीत कक्षाएँ भी सँभाल रहा था और बम्बई में नाटक और गायकी से गहराई से जुड़ गया था। इप्टा का आकर्षण जबरदस्त था। पूरे भारत में इप्टा के रंगकर्मी फैले हुए थे जो नित नए प्रयोग करते। कभी-कभी तो अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए कलाकार अपनी-अपनी भाषाओं में लोकनाट्य शैली के कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। बंगाल के...बल्कि सिर्फ कलकत्ता और शांतिनिकेतन के कलाकारों के साथ चंडीदास भी ‘‘जात्रा’’ पर एक अनूठा कार्यक्रम तैयार करने की योजना बना रहा था। इन सब कामों के लिए बम्बई सुरक्षित गढ़ था। चंडीदास के कई गीत रिकार्ड की शक्ल में बाजार में आ गए थे। गायन में डायना भी पीछे नहीं थी। उसकी बेहतरीन उर्दू मिश्रित हिन्दी से संगीतकार दंग थे और उसे गवाने में पीछे नहीं थे। उसके चंडीदास के साथ तो गीत आए ही....शास्त्रीय गायन में भी उसने कइयों को पीछे छोड़ दिया था।
ब्लॉसम, पोर्गी और बेस को डायना क्रिसमस में कलकत्ता जाकर बम्बई ले आई थी। मलाबार हिल में वह अकेली नहीं थी। कोठी में उसके साथ जॉर्ज और दीना भी रहते थे, पारो का पति दुर्गादास भी बम्बई आ गया था और कोठी का सारा दीगर काम सँभाल लिया था। टॉम ने कलकत्ते से ही डोरोथी को डायना का केयर टेकर बनाकर भेजा था जो अधेड़ उम्र की, थुलथुल ईसाई महिला थी और खूब रूआब झाड़ती थी। इस तरह कोठी आधा दर्जन लोगों को लेकर आबाद थी। चंडीदास का कमरा उसके लिए हमेशा तैयार रहता....सजा सजाया....अगर वह कलकत्ते चार-पाँच दिनों या हफ्ते दस दिन के लिए गया होता तब भी पारो अपने बाबू मोशाय के कमरे में ताजे गुलाब के फूल गुलदान में रखना नहीं भूलती थी।
क्रिसमस में डायना कलकत्ता आई थी। चंडीदास भी उन दिनों कलकत्ते में ही था लेकिन ज्यादातर शांतिनिकेतन में। वहाँ के छात्र एक अँग्रेजी नाटक का हिन्दी रूपांतर कर रहे थे ताकि चंडीदास उसका मंचन कर सके। शांतिनिकेतन में ही चंडीदास के एकल चित्रों की प्रदर्शनी भी लगने वाली थी। डायना ने अपने आने की पूर्व सूचना टॉम को नहीं दी थी.....वह उसे सरप्राइज देना चाहती थी। जैसे ही उसके आने की सूचना बोनोमाली ने टॉम को दी वह हड़बड़ाया हुआ बेडरूम से बाहर निकला....पीछे-पीछे नादिरा......चकरा गई डायना। यह क्या? टॉम के कारनामों से तो वह परिचित थी पर नादिरा से उसे यह उम्मीद नहीं थी। वह मुँह फेरकर सोफे पर बैठ गई। नादिरा उसके पास आई। उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली-‘‘मुझे माफ कर दो डायना....लेकिन इतना जान लो.....तुम्हारा पति तुम्हें बिल्कुल नहीं चाहता......कैसे तुमने जिन्दगी के इतने साल उसके साथ बिता दिए।’’
डायना तैश में भर उठी-‘‘कहना क्या चाहती हो नादिरा तुम? खुद को गुनाह से बचा रही हो?’’
‘‘नहीं डायना......मेरी मजबूरी ऊँचे खानदान से जुड़ाव के कारण थी और टॉम ने उसी बात का फायदा उठाकर मेरा यौनशोषण किया.....तुम्हें गए साल भर से ऊपर हो गया....मैं इसकी शिकार होती रही। इसकी वासना की।’’
‘‘तो क्या करता? तुम्हारी गैरमौजूदगी में खुद को कहाँ उलीचता? और ये गुलाम....तुम इनकी परवाह करती हो डायना.....ये तो होते ही भोगने के लिए हैं।’’
‘‘यू बास्टर्ड’’ कहते हुए नादिरा तेजी से उठी और उसने टॉम के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया-‘‘हमारे...भारत के टुकड़ों पर पलने वाले तुम अँग्रेज किस मुँह से हमें गुलाम कहते हो? कोई खजाना लेकर आए थे इंग्लैंड से जो रूआब मारते हो.....ऐसे खदेड़े जाओगे कि कभी इधर का रुख नहीं करोगे।’’
और वह पैर पटकती वहाँ से चली गई। सब कुछ सिनेमा की रील की तरह डायना की आँखों के सामने से गुजरा और फिर सीन गायब.....पटाक्षेप....।
डायना के मन में टॉम के प्रति कोई भावनाएँ न तो पहले थीं, न अब हैं......हाँ उसके प्रति उदासीनता में और इजाफा हो गया था। लेकिन इस बात ने....टॉम की इस दलील ने उसे गहरे आघात पहुँचाया था कि डायना की अनुपस्थिति में वह अपने को कहाँ उलीचता। अचानक अपने आप से घृणा-सी होने लगी उसे कि वह टॉम की जिंदगी में बस इतना महत्व रखती है कि उसकी वासना के विकार को अपने शरीर पर झेले। हे प्रभु! यह कैसी उसकी जिन्दगी है? कैसी नियति कि एक ओर प्यार से लबालब खजाना उसके इंतजार में है तो दूसरी तरफ वासना की वह आग जो उसे लील जाने को आतुर है। उस आग की लपटों में झुलसकर क्या वह साबुत बच पाएगी? और क्या अपना खंडित स्वरूप अपने चंडीदास के चरणों में अर्पित करेगी? डायना का सिर चकरा गया। अचानक उसे सिरदर्द महसूस हुआ और वह सिर पकड़कर वहीं सोफे पर लेट गई। टॉम बेशर्मी से उसके नजदीक आया-‘‘सिर दुख रहा है। दवा भिजवाता हूँ।’’
डायना के कान सुन्न हो चले थे....वह नीमबंद आँखों से देखती रही.....बोनोमाली दवा लाया है....पारो चाय बनाकर सिरहाने खड़ी है। फिर प्याला बोनोमाली को पकड़ाकर उसके तलवे सहलाने लगती है....जैसे चंडीदास सहलाता है। वह मन ही मन बुदबुदाई-‘‘मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ चंडी और तुम उस प्रभु का अंश जिसने मुझे बनाया है।’’
5
एक डायना वह है जो चार सालों से बम्बई में अपना कारोबार सँभाल रही है....एक डायना वह है जो गायन-वादन के क्षेत्र में तहलका मचाए है। तहलका इसलिए कि वह अंग्रेज है लेकिन अंग्रेजी संगीत से उसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं......उसके अंदर जो संगीत बसा है वह शुद्ध भारतीय है। संगीत उसकी आत्मा है। और एक डायना यह जिसके लिए चंडीदास उस प्यार का देवता है जिस प्यार को पाने के लिए वह तरसती रही थी। चंडीदास के साथ उसका रिश्ता एक साथी का, एक प्रेमी का और अब एक हमसफर का है और यह बात चंडीदास के साथ बिताए इन छह वर्षों में डायना से जुड़े हर व्यक्ति ने जान ली है। टॉम ने भी। टॉम उसका दुनियावी पति जरूर है पर डायना के दिल ने उसे कभी नहीं स्वीकारा। वह चंडीदास के संग एक विवाहिता की तरह पेश आती है जबकि उसके साथ कोई दुनियावी रिश्ता नहीं है उसका। फिर भी वह चंडीदास के साथ उसी रास्ते पर चलती है जिस पर एक वैवाहिक सम्बन्ध चलता है। मलाबार हिल की इस कोठी में हर चीज उसने चंडीदास के साथ मिल जुलकर बसाई है.....और इस मायने में उसने चंडीदास के प्रति अपनी स्त्रियोचित भूमिका निभाई है। ऐसे मुक्त सम्बन्ध और पारम्परिक शादीशुदा सम्बन्धों में एक छोटे से हाशिए भर का तो फर्क है। डायना इस बात को स्वीकार करती है कि टॉम के साथ शादी के इन आठ वर्षों में उसने महज एक नीरस और उबाऊ जिंदगी जी है.....एक ऐसी जिंदगी जो सिर्फ टॉम की है और डायना का उसमें प्रवेश महज पत्नी होने के नाते है। वरना कहीं से, किसी भी कोण से टॉम उसके योग्य नहीं।
क्रान्ति अपने चरम पर थी। हर प्रदेश सुलग रहा था। हर तरफ एक ही आवाज बुलन्द थी.....आजादी... आजादी...हमें आजादी चाहिए....चले जाओ अंग्रेजों.....छोड़ो हमें ताकि हम मानसिक और शारीरिक गुलामी से आजाद हो सकें.....हम सोच सकें अपनी संस्कृति, धर्म और दर्शन को।......कवियों की कविताएँ झँझोड़ रही थीं भारतीय मानस को....ईसा, मुहम्मद आदि का जग में न था कोई पता, तब की हमारी सभ्यता है कौन सकता है बता? न केवल भारत में यह बदलाव था बल्कि संसार भर के हालात बदलाव के कगार पर थे। अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप भी बदल रहा था.....खलबली मची थी। जापान तहस-नहस हो चुका था....आग......आग.....हर ओर मानवता को लीलती आग। घबराकर डायना ने जॉर्ज से कहा था-मेरे ख्याल में अब हमें अपनी कंपनी बंद कर देना चाहिए।’’
‘‘हाँ मैडम.....देश के हालात तो यही कहते हैं। कभी भी ईस्ट इंडिया कंपनी के पैर उखड़ सकते हैं।’’
‘‘हमें वापिस कलकत्ते चलना चाहिए और वहीं मिल बैठकर सोचना चाहिए। यह समय बिखराव में रहने का नहीं है।’’ डायना ने सोच समझकर जॉर्ज के सामने प्रस्ताव रखा था और जब चंडीदास रिकॉर्डिंग से लौटा तो यही बातें उसने चंडीदास के सामने भी रखीं।
‘‘मेरी भी यही राय है....मैं भी बाबा, माँ के लिए यहाँ परेशान रहता हूँ......कलकत्ता भी क्रान्ति की लपटों की गिरफ्त में है। कभी भी कुछ भी हो सकता है।’’
‘‘लेकिन कलकत्ते में तुम करोगे क्या? अब तो नौकरी भी नहीं है तुम्हारी?’’
‘‘वे तो अब भी बुलाने को उतावले बैठे हैं पर अब मैं नौकरी नहीं करूँगा....अपने इंस्ट्टियूट को ही आगे बढ़ाऊँगा और इप्टा से जुड़ा रहूँगा।’’
डायना को चंडीदास की बात में वजन महसूस हुआ। अब वह लोकप्रियता के ऐसे मुकाम पर है जहाँ से राह नहीं बदली जा सकती।
कोठी बेचने का विज्ञापन अखबारों में जॉर्ज ने दे दिया था....दीना ने पारसाल जुड़वाँ लड़कों को जन्म दिया था। उसने पिता अपने परिवार सहित सूरत जाकर बस गए थे और दीना की योजना जॉर्ज के साथ लंदन जाकर बसने की थी। वहाँ जाकर वे डायना का पूरा कारोबार सभाँल लेंगे। पर इस योजना में डायना की रजामंदी की मुहर लगनी बाकी थी। दीना डायना को प्यार करने लगी थी....लगता था जैसे दोनों एक ही कोख से जन्मी बहनें हैं। दीना का कोई भी काम डायना के बिना पूरा नहीं होता था। शायद यही वजह थी कि उसे लंदन जाने की अनुमति नहीं मिली।
देश के साथ-साथ डायना के परिवेश में भी आमूलचूल परिवर्तन होने से वह उदास थी। ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ बिखर रहा है। मुँह अंधेरे ही उसकी आँख खुल गई। वह चंडीदास की बाहों से अपने को अलग कर खिड़की के पास आ खड़ी हुई। आँखें निबिड़ गहरे अंधेरे में ठहर-सी गईं। ब्रह्ममुहूर्त का यह समय सबसे ज्यादा रहस्यमय होता है। डूबते चाँद का फीका आलोक ढल चुके समय को कुरेद कर रख देता है। सागर के रेतीले तट पर बनाए बच्चों के घरौंदे ढूह में बदलते नजर आते हैं। पीछे मलाबार हिल का हरा-भरा समंदर, आगे पल-पल में बदलता हहराता अरब सागर....दोनों के बीच रुकती चलती हवा की सुबुक साँस में समा गई.....लगा जैसे यह हवा उस लहर, लहर की हर बूँद को अपने में समो लेना चाहती है जो तट से टकराकर अभी-अभी सागर में लौटी है.....लौटेगी और मिट जाएगी....क्या यही जिन्दगी का भी दर्शन है?
अचानक चंडीदास की नींद खुली। डायना को बिस्तर पर न पाकर वह बेचैन हो उठा। दबे पाँव आकर उसने डायना को पीछे से आलिंगन में भर लिया। डायना के चेहरे पर हलकी स्मित थी-‘‘तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है।’
चंडीदास अधीर हो उठा-‘‘बताओ तो।’’
‘‘हमारे प्यार का फूल खिलने वाला है....हमारा अपना शिशु.....जो मेरे अंदर प्रवेश कर चुका है।’’
चंडीदास विस्मय से आँखे फाड़ें डायना को देखने लगा, मानो यकीन न आ रहा हो.....‘‘डायना...मेरी राधे...क्या यह सच है?’’
‘‘हाँ चंडी....कल ही डॉक्टर ने चैकअप करके बताया कि मुझे एक महीने की प्रेग्नेंसी है।’’
‘‘ओ माई गॉड.....राधे मैं पागल हो जाऊँगा।’’ और उसने डायना को गोद में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा-‘‘अब मुझे चिंता नहीं.....मेरे अधूरे छोड़े कामों को हमारा यह शिशु पूरा करेगा.....मैं उसके रूप में हमेशा जिन्दा रहूँगा। मैं भी, तुम भी।’’
यह जनवरी सन् छियालिस की बात है। फरवरी में टॉम आया और बम्बई से पूरे तौर पर नाता तोड़ डायना कलकत्ता लौट गई। डायना की केयर टेकर डोरोथी का स्वभाव डायना को रास नहीं आया.....वैसे भी पारो और दुर्गादास डायना के ज्यादा करीब थे। लिहाजा डायना कलकत्ते में अपने पुराने दिनों में वापिस आ गई जब वह पारो और बोनोमाली की देखरेख में चैन का जीवन जी रही थी। टॉम से उसके सम्बन्ध मधुर तो रहे नहीं थे लेकिन सामाजिक तौर पर दोनों पति-पत्नी की भूमिका निभा रहे थे। खान साहब का तबादला हो चुका था और नादिरा के बंगले में एक अंग्रेज पुलिस अफसर आकर रहने लगा था।
समय बीतता गया। टॉम ने चंडीदास को डायना की जिन्दगी से अलग करने की जो योजना बनाई थी और जिसमें वह जॉन की राय लेने लंदन जाने वाला था सो उसका लंदन जाना हुआ नहीं क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियाँ तेजी से रंग बदल रही थीं और ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी ने टॉम को लंदन जाने की अनुमति नहीं दी थी। इन सब बातों से अनभिज्ञ डायना ने नूरजहाँ के गीतों का रिकॉर्ड ग्रामोफोन पर लगाया और पारो से एक प्याला कॉफी बना लाने का कह सोफे पर आँखें मूँदे गीत का आनंद लेने लगी। इन दिनों वैसे भी उसने खुद को सब ओर से समेट लिया था और अपना पूरा ध्यान अपनी कोख में पल रहे शिशु पर लगा दिया था। क्या होगा जब यह शिशु दुनिया में आएगा। बहारों की दस्तक वह साफ सुन रही थी.....लेकिन कहीं से ढीठ पतझड़ आकर उसे सहमा गया था....किन परिस्थितियों में यह शिशु जन्म ले रहा है जबकि वह चंडीदास का है लेकिन दुनिया तो टॉम को ही उसका पिता समझेगी? डायना के लिए यह बात रुला डालने वाली थी। नूरजहाँ की आवाज के साथ उसके आँसू टपकने लगे-
‘‘आज की रात से साजे-दिले पुरदर्द न छेड़.....’’
‘‘यह क्या राधिका.....तुम रो रही हो?’’
चंडीदास को सामने देख डायना सकपका गई। रूमाल से आँसू पोंछ मुस्कुराई-‘‘नहीं, यूँ ही।’’ और ग्रामोफोन से रिकॉर्ड पर की सुई सरका दी।
‘‘एक बात का तुम्हें वादा करना होगा राधे.....मेरे शिशु के सृजन काल में तुम्हारे आँसुओं, आहों और उदासियों पर मैं कर्फ्यू लगाता हूँ.....जानती हो न कर्फ्यू तोड़ने की सजा?’’
डायना ने उँगलियों से बंदूक बनाकर कहा-‘‘ठाँय.....’’
दोनों हँसते हुए लॉन में निकल आए। अब कलकत्ता बदला-बदला नजर आता था। जगह-जगह तिरंगे-लहराने की जद्दोजहद थी.....पर इन राजनीतिक बातों से न चंडीदास को सरोकार था, न डायना को....दोनों प्रेमी युगल अपने में ही डूबे हुए थे।
‘‘क्या वरदान मिलेगा हमें.....बेटी का या बेटे का?’’
‘‘यह तो ईश्वर जानता है.....तुम किसमें खुश होगे चंडी?’’
‘‘मेरी खुशी केवल इसमें है कि हमारे प्यार का पवित्र फूल खिल रहा है........फिर चाहे बेटी हो या बेटा.....बेटी होगी तो मेरी रागिनी होगी, बेटा होगा तो संगीत।’’
डायना खुशी के आवेग में रोमांचित हो उठी। ओह.....कैसे अद्भुत होंगे वे क्षण......जब उनका प्रेम दुनिया में किलकारियाँ भरेगा।
बोनोमाली चाय की ट्रे उठाए लॉन की ओर आ ही रहा था कि टॉम आ गया। आते ही सीधा लॉन पर....डायना और चंडीदास के पास.....।
‘‘हलो मि. सेनगुप्ता...अब तो आप सेलिब्रेटी हो गए.....व्यस्त और लोकप्रिय....लेकिन इस बार थोड़ा समय हमें भी दीजिए।’’ चाय के प्याले तीनों के हाथों में आ गए। टॉम की उपस्थिति से डायना कसमसाई पर चंडीदास औपचारिक हो उठा-
‘‘फरमाइए।’’
‘‘हम कुछ दिन आपके साथ गुजारना चाहते हैं। बिल्कुल एकांत में और मध्यप्रदेश के जंगलों से बढ़कर मुफीद जगह और कोई हो ही नहीं सकती जहाँ पहाड़ों से फूटते झरनों के साथ-साथ आपके और हमारी स्वीट हार्ट के सुर गूँजेंगे।’’
‘‘इसकी वजह जान सकता हूँ मिस्टर ब्लेयर....क्योंकि इतने सालों में ऐसी इच्छा कभी आपने जाहिर नहीं की।’’
टॉम ने पैंतरा बदला....‘‘सही है....सही है.....’’ ‘‘लेकिन इतने सालों में ऐसा भी तो नहीं सोचा था कि राजनीतिक परिस्थितियाँ एकदम इस तरह बदल जाएँगी......अब देखिए न... हमें अपना बम्बई का बिजनेस समेटना पड़ा। बीच में लंदन जाना चाहता था जाने नहीं मिला।’’
‘‘हम लोग तो कलाकार ठहरे.....भावुक और आज में जीने वाले। इन सब बातों में हमारी रुचि नहीं।’’ चंडीदास ने निर्विकार होकर कहा।
‘‘आखिर तुम जाना कहाँ चाहते हो टॉम?’’
,‘पंचमढ़ी....बेहद खूबसूरत जगह है। सतपुड़ा के जंगल इतने घने हैं कि धूप और हवा उसमें घुस नहीं पाती....बेहद विचित्र एहसास होता है वहाँ। मेरी इच्छा है हम तीनों वहाँ कुछ दिन चैन से गुजारें। अब तो आप फैमिली सदस्य जैसे हैं।’’
‘‘शुक्रिया मिस्टर ब्लेयर....मैं सोचकर बताऊँगा।’’
‘‘आराम से.....मार्च में होली पड़ेगी....उस वक्त वहाँ के आदिवासी एक विशेष डांस करते हैं। मेरे ख्याल में वही दिन ठीक रहेंगे। आपके संगीत इंस्टिट्यूट के स्टुडेंट्स भी उन दिनों अपनी फाइनल परीक्षाओं में व्यस्त रहेंगे।’’
‘‘ठीक है....फाइनल जवाब अगले हफ्ते दूँगा। तो चलूँ अब?’’
‘‘ओके......‘‘टॉम डायना के साथ उसे गेट तक छोड़ने आया।
फरवरी की शुरूआत थी......ठंड बेतहाशा पड़ रही थी। बोनोमाली हीटर से कमरों को गर्म रखता था....खासकर डायना के कमरे को....टॉम को फैमिली डॉक्टर से पता चल गया था कि डायना माँ बनने वाली है। एक दिन उसने दीना को यह कहते भी सुन लिया था-‘‘मैडम.....मैं तो उन दिनों खूब इमली खाती थी जब प्रेग्नेंट थी....।’’
‘‘तो तुम प्रेग्नेंट हो?’’ टॉम ने खुद ही पहल की।
‘‘हाँ।’’
‘‘बताया नहीं तुमने? आठ सालों में हमारे जीवन में खुशी आई है और यह बात मुझे किसी और से पता चल रही है।’’
‘‘हमारे नहीं, सिर्फ मेरे....यह बच्चा सिर्फ मेरा है।’’ डायना ने दृढ़ता से कहा और व्यस्तता का बहाना करने लगी। टॉम दाँत पीसकर रह गया। उसने मन ही मन एक भद्दी-सी गाली डायना और चंडीदास को दी और शराब में डूब गया।
दीना ने बावर्ची खाने में जाकर डायना के लिए खुद ही इमली की खट्टी-मीठी चटनी बनाई और खस्ता कचौड़ियाँ। डायना कोट, पैंट, मफलर से लैस कहीं जाने की तैयारी में थी। शाम के छह बजे होंगे। आज जॉर्ज और दीना का फिल्म देखने का प्रोग्राम था। उसके दोनों बच्चे भूरे रंग के कोट पहने बड़े प्यारे लग रहे थे। दीना ने कचौड़ियों की प्लेट डायना के सामने रखते हुए कहा-‘‘मैडम, नाश्ता करके जाएँ।’’
डायना ने मुस्कुराकर दीना की ओर देखा। कभी-कभी कुछ अनाम रिश्ते इतने प्रगाढ़ हो जाते हैं कि फिर उन्हें कोई नाम देने की हिम्मत नहीं पड़ती। दीना ऐसे ही अनाम रिश्ते में उसकी सब कुछ थी....वह एक आज्ञाकारी लड़की की तरह कचौरियाँ खाने लगी।
‘‘यह बहुत अच्छी बनी हैं। तुम भी तो लो दीना।’’
डायना ने एक टुकड़ा उसके मुँह में भी रख दिया। पारो पीछे-पीछे दौड़ी आई, कार तक.....‘‘मेमसाहब....ज्यादा थकना नहीं। मुझे पता है आप बाबू मोशाय के पास गाने की रिहर्सल के लिए जा रही हैं पर जल्दी लौट आना।’’
पारो ने पुरखिन की तरह रूआब से कहा। डायना इन सबके प्यार से निहाल थी....जैसे कृष्ण गोप गोपी और अपने सखाओं के प्यार को ही सब कुछ समझते थे। सम्पूर्ण कलाओं से युक्त लीलाधारी कृष्ण तभी तो उनके पीछे-पीछे घूमते थे....पीछे-पीछे इसलिए घूमते थे कि उनकी चरण रज उनके शरीर पर पड़े क्योंकि वह मामूली चरण रज नहीं थी। उसका कण-कण प्रेम में डूबा था। उन्होंने अपने से प्रेम करने वाले भक्तों के लिए क्या-क्या नहीं किया। सधन कसाई के सँग माँस बेचा, रैदास के चमड़े धोए, गोरे कुम्हार के मटके बनाए, सेन नाई की दुकान पर बैठकर हजामत की, नामदेव की छपरी बनाई, जनाबाई के साथ बैठकर चक्की पीसी, एकनाथ के घर में नौकर बनकर रहे। द्रौपदी के जूतों को अपने पीतांबर में बाँधकर चले, रूक्मिणी के लिए रात-रात भर उन्हें नींद नहीं आई, सुदामा को आलिंगनबद्ध कर इतना रोए कि...‘‘पानी पराँत को हाथ दियो नहीं, नैनन के जल से पग धोए’ और विदुर पत्नी के पास उन्हें खाने को देने के लिए कुछ न था.....जो एक दो केले थे वे अभी-अभी खाकर उन्होंने भूख मिटाई थी, छिलके पड़े थे, उन छिलकों को खाकर ही वे इतने आनंदित हुए कि जिसकी कोई सीमा नहीं थी। ऐसे प्रेम के सागर कृष्ण के अद्भुत चरित्र से डायना अभिभूत है। इसीलिए तो डायना के मन में प्रेम ही प्रेम भरा है।
चंडीदास के साथ रिहर्सल तो हफ्ते भर से चल रही थी। आज रिकॉर्डिंग थी....दोनों ने लाजवाब गीत गाया.....एक साथ चार पाँच गानों की रिकॉर्डिंग का तय था, पर डायना थके नहीं इसलिए दो ही गीत रिकॉर्ड कर चंडीदास ने कहा-‘‘अब बाकी कल।’’
नंदलाल, सत्यजित और मुनमुन भी जोर देने लगे कि अब बाकी के गीतों की रिकॉर्डिंग दो दिन बाद किए लेते हैं। पर डायना के मन पर तो कृष्ण छाए थे। न केवल सारे गीतों की रिकॉर्डिंग हुई बल्कि डायना ने एक भजन भी गाया....‘‘ब्रज के लता पता मोहे कीजै......।’’
लेकिन रिकॉर्डिंग के तुरन्त बाद डायना का गला सूखने लगा और चक्कर आने लगे। भगदड़ मच गई.....कोई पानी ला रहा है तो कोई कॉफी....उसके चेहरे पर चुहचुहा आई पसीने की बूँदे अपने रूमाल में सोखते हुए चंडीदास ने कहा-‘‘इस कड़कड़ाती ठंड में भी तुम पसीने से नहा रही हो.....क्यों इतनी मेहनत कर डाली? अपनी तबीयत का जरा भी ध्यान नहीं?’’
रात दस बजे चंडीदास और नंदलाल के साथ डायना घर लौटी....उसे सहारा देते हुए जब चंडीदास ने लाकर सोफे पर बैठाया उस वक्त टॉम के पेट में दो पैग उतर चुके थे....वह वहीं से चीखा-‘‘क्या हुआ.....यह डायना को क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं, अब ठीक हैं। थोड़ा चक्कर आ गया था। डॉक्टर को दिखाते हुए लौटे हैं।’’ चंडीदास ने बताया। पारो दौड़कर पानी ले आई और डायना को शॉल ओढ़ाते हुए बंद होठों से अपनी नाराजी भी प्रगट की। डायना समझ गई। उसकी पीठ थपथपाते हुए बोली-‘‘सॉरी।’’
‘‘अब तो आप भी महसूस करते हैं न चंडीदास सेनगुप्ताजी कि इन्हें चेंज की, रेस्ट की जरूरत है? आप सोचने में इतना वक्त क्यों लगा रहे हैं?’’
‘‘कहाँ लगा रहा हूँ....चलूँगा न....एक दो बार की रिकॉडिंग और बची है, इस हफ्ते पूरी हो जाएगी।’’
‘‘गुड.....मुझे खुशी है आपने मेरी बात मान ली।’’
चंडीदास और नंदलाल टॉम ब्लेयर को मनहूस से कोने में, नीमउजाले में अकेले पीता छोड़ बाहर निकल आए। तभी जॉर्ज और दीना की कार आकर रुकी। वे फिल्म देखकर लौटे थे और चंडीदास से डायना की तबियत का सुन तेजी से अंदर आए। दीना ने डायना का माथा छूकर देखा-‘‘मैडम’’
‘‘मैं ठीक हूँ पगली। तुम लोग नाहक परेशान होते हो।’’
‘‘चलो....चलो बंटी-शंटी बाबा लोग....भूख लगी होगी, डिनर तैयार है।’’
पारो दीना के बेटों को बंटी-शंटी कहती थी जबकि एक का नाम जॉर्ज ने अपने मजहब के अनुसार माइकल रखा था और दूसरे का दीना के मजहब के अनुसार नेकजाद और जॉर्ज की इस दरियादिली से डायना बेहद प्रभावित थी.....कुछ लोग कितने उदार दिल के होते हैं। इन्हीं के बल पर तो दुनिया टिकी है।
चंडीदास नंदलाल को उसके घर की तरफ छोड़ता हुआ जब रेसकोर्स के पास से गुजरा तो देखा मुनमुन और सत्यजित धीरे-धीरे हवा खाते हुए वहाँ टहल रहे थे। इतनी रात को? अब तक तो मुनमुन को घर पहुँच जाना चाहिए था। वह उनके नजदीक पहुँचा तो दोनों चौंक पड़े-
‘‘मुनमुन.....सत्यजित.....घर नहीं गए तुम लोग?’’
‘‘घर ही जा रहे हैं। मुनमुन की चप्पल टूट गई थी, सुधरवाने में वक्त लग गया।’’
‘‘ठीक है....अब तुम घर जाओ सत्यजित.....मुनमुन के साथ मैं हूँ ही।’’
‘‘नहीं दादा, मैं भी चलूँगा....आजकल हवा कुछ ठीक नहीं है, कभी भी कुछ भी हो सकता है।’’
चंडीदास ने साफ महसूस किया कि सत्यजित की सारी चिन्ता मुनमुन के लिए थी। ठीक भी है....पुलिस, आन्दोलनकर्त्ता और कलकत्ते की इस वक्त सूनी पड़ी सड़कें, फिर मुनमुन का साथ....वह खामोश हो गया।
घर में बाबा बेचैन थे-‘‘मुनमुन को कैसे इतनी देर हो गई?’’
‘‘मेरे साथ बाबा। रिकॉर्डिंग थी न।’’ चंडीदास ने उनकी चिन्ता दूर करते हुए कहा तो माँ रजाई से मुँह निकाल बड़बड़ाई-‘‘कहती हूँ शादी कर दो इसकी.....पर न तुम्हारे बाबा को कोई चिन्ता है और न मुनमुन ही हामी भरती है। एक तो छोड़ कर चली गई....दूसरी के ये हाल।’’
‘‘क्यों दुखी होती हो माँ.....गुनगुन के लिए तो तुम्हें गर्व करना चाहिए कि देश के लिए शहीद हो गई। मुनमुन को शादी के लिए मैं मना ही लूँगा।’’
‘‘नहीं दादा.....यह काम इतना आसान मत समझिए। माँ को झूठी तसल्ली मत दीजिए...गुनगुन के जाने के बाद से ही मैंने अकेले जिन्दगी गुजारने का फैसला कर लिया है।’’ मुनमुन ने गंभीरता से कहा और कपड़े बदलने अंदर चली गई। माँ ने गहरी साँस ली-‘‘हे काली माँ!....इस घर को क्या हो गया है?’’
चंडीदास माँ के पाँयते बैठ उनके पैर दबाने लगा। बाबा पानी पीकर रजाई ओढ़कर लेट गए थे। थोड़ी देर बाद मुनमुन के कमरे की बत्ती भी बुझ गई। लेकिन सड़क से आते प्रकाश में खिड़की के काँच पर मुनमुन का चेहरा स्थिर टँका सा रहा। बाहर तेज हवा चल रही थी। ठंडी और कंटीली। अमूमन फरवरी खत्म होते-होते ठंड थोड़ी कम हो जाती है पर इस बार तो हर दिन बीते दिन से अधिक ठंडा महसूस हो रहा था। सड़क पर से फौजी गाड़ियाँ गुजर रही थीं। कोई माउथऑर्गन पर फिल्मी गीत गा रहा था....बहुत दूर की वह आवाज रात के सन्नाटे में नजदीक ही जान पड़ती थी। रात के गाढ़े होते अंधेरे में तरह-तरह की आवाजों की भूल-भूलैया में वे चारों मौजूद रहे....तीन जागते हुए....एक सोते हुए।
‘‘चंडी, बेटे....बताओ तो वह कौन है जिसे तुम प्यार करते हो?’’
‘‘माँ....है एक देवत्व से भरी जीवात्मा....पर हम मजबूर हैं माँ, हम सामाजिक बंधन में नहीं बँध सकते।’’
‘‘कहीं तुम्हें रिश्तेदारों का, समाज का तो डर नहीं?’’
चंडीदास की आँखें झुक गईं-‘‘अपने लिए नहीं माँ....उसके लिए डरता हूँ.....वह बेमिसाल है।’’
‘‘माँ को नहीं बताओगे, जिसने तुम्हें जन्म दिया।’’
‘‘क्यों जन्म दिया माँ। यही तो पूछता हूँ.....मैं क्यों आया दुनिया में। किसी काम का नहीं मैं। न तुम्हें सुख दे सका, न बाबा को। उसे प्यार किया पर साथ नहीं पा सका उसका। मेरा जीना बेमानी है।’’
पहली बार माँ ने चंडीदास की आँखों में आँसू देखे। उन्होंने बिस्तर से उठते हुए हुलसकर उसे कलेजे से भींच लिया। वह भर्राए गले से बोला-‘‘कुछ नहीं किया मैंने माँ उसके लिए....भिखारी-सा बना रहा उसके सामने। वह देती रही......मैं लेता रहा...माँ......नहीं जी सकता उसके बिना।’’
‘‘हौसला रखो चंडी, सब ठीक हो जाएगा। महान आत्माएँ दुख उठाने के लिए ही पैदा होती हैं। पर वे दुख उनके नहीं होते, संसार के होते हैं। मुझे अपने बच्चों पर गर्व है और विश्वास है कि वे कभी कोई गलत काम नहीं करेंगे।’’
माँ देर रात तक चंडीदास को ऐसे थपकाती रहीं जैसे बचपन के उन दिनों में जब वह माँ की गाई लोरी के बिना सोता न था। वे गुनगुनाती हुई उसे थपकाती जाती थीं।....आज भी चंडीदास की आँखें माँ के आँचल में मुँह दिए मुँदने लगीं।
जिस वक्त मुनमुन ने फैसला किया कि वह अकेली रहेगी ठीक उसी वक्त सत्यजित ने अपना दिल मुनमुन को दे दिया। दोनों अगले दिन डूबते सूरज के दरम्यान पार्क में मिले और संग-संग मरने-जीने की कसमें खा लीं। जैसे गुनगुन और सुकांत ने खाई थीं।
‘‘सत्यजित....मैं तुम्हारी हूँ......लेकिन हमारे बीच शादी का बंधन मुमकिन नहीं।’’ मुनमुन ने सत्यतिज का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा।
‘‘मुनमुन....क्या मैं इतना स्वार्थीं हूँ कि जब देश बदलाव के कगार पर है....जगह-जगह विप्लव की आग फैली है तब मैं अपने लिए सोचूँ? नहीं मुनमुन....इस माटी में ही मैंने जन्म लिया है। इस माटी का कर्ज है मुझ पर। मैं क्रान्तिकारी तो नहीं....पर अपने सुखों का बलिदान तो कर ही सकता हूँ। हम साथ-साथ जीते हुए, बन्धन रहित एक मुक्त संसार बसाएँगे जहाँ हमारे घर के दरवाजे सबके लिए खुले रहेंगे। हम दादा के इंस्ट्टियूट को एक विशाल रूप देंगे। दादा उसके प्रिंसिपल होंगे.....बाकी सब हम लोग देखेंगे।’’
‘‘हाँ, मेरी इच्छा नृत्य कक्षाएँ शुरू करने की भी है।’’ मुनमुन ने खुशी में भरकर कहा।
‘‘यह तो बहुत अच्छा आइडिया है....तुमने दादा से बात की?’’
‘‘करूँगी....वे रिकॉडिंग से फुरसत हो जाएँ। बता रहे थे कि वे ब्लेयर फेमिली के साथ पंचमढ़ी आउटिंग के लिए जा रहे हैं।’’
‘‘अच्छा...मुनमुन बुरा मत मानना पर दादा और डायना ब्लेयर का प्रेम छुपा नहीं है और भी कई लोग चर्चा कर रहे थे।’’
‘‘करने दो न। प्रेम और खुशबू छुपाए नहीं छुपती। कोई पाप थोड़ी है प्रेम करना।’’
‘‘वैसे डायना है बेहद खूबसूरत....कहीं से भी अंग्रेज नहीं लगती।’’
‘‘बाल जो बढ़ा लिए हैं।’’ कहती हुई मुनमुन हँसने लगी।
सत्यतिज ने सिगरेट सुलगा ली....कुछ देर तीली सुलगने दी...उसकी लौ में उसे पार्क का लॉन काले रंग के कालीन वाला स्टेज नजर आया.....मुनमुन स्टेज पर बैठी तानपूरा हाथ में लिए गा रही है....जाने कैसे चंडीदास द्वारा अभिनीत नाटक के कुछ दृश्य सर्र से आँखों के सामने से गुजरे....उसी समय स्टेज के पीछे मशालें लिए लोगों का शोर........‘‘भागो......भागो....अंग्रेजों भागो....छोड़ दो हमारा देश....अब इस देश में तुमने छोड़ा ही क्या है? सब कुछ तो लूट लिया....हमारा कोहिनूर भी....वापिस करो....हमारा कोहिनूर.....वापिस करो.....।’’
एक हलकी-सी सिसकारी लेकर सत्यजित ने तीली छोड़ दी। उँगली पर एक बूँद बराबर फफोला उभर आया। मुनमुन की नजरें बचाकर उसने हाथ जेब में डाल लिया। सामने बेंच पर कुछ अंग्रेज लड़के-लड़कियाँ किसी बात पर जोर-जोर से हँसे। सत्यजित ने लॉन के किनारे बजरी पर चलते हुए एक छोटा-सा पत्थर हवा में उछाला और अंग्रेजों की ओर लानत भेजी......खामोश लेकिन सुलगती हुई।
मुनमुन ने सरदी के कारण फुरेरी ली। वे सड़क पर आ गए और हाथ दिखाकर रिक्शा रोका-‘‘चलो मुनमुन, तुम्हें छोड़ते हुए मैं घोषाल बाबू के यहाँ निकल जाऊँगा। अब तक उन्होंने मेरी किताबें मँगवा ली होंगी।’’
मुनमुन के मन में एक अजीब-सी विरक्ति तब से समा गई थी जब से गुनगुन की मृत्य हुई थी। गुनगुन उसकी बहन कम सखी अधिक थीं जब तक वह अपने मन की बात उसे बता नहीं देती थी चैन नहीं मिलता था। अब किसे बताए....लिहाजा धीरे-धीरे उसका मन सांसारिक बातों से उचटने लगा था। ऐसे में सत्यजित का उसकी जिन्दगी में प्रवेश वह तूफान था जो उसके जीवन की बंद खिड़कियाँ, दरवाजे खड़का गया था। मुनमुन में एक खूबी और थी कि वह जो फैसला ले लेती फिर उसे कोई बदल नहीं सकता था। शादी न करने का फैसला भी माँ, बाबा, चंडीदास लाख चाहें कि बदल जाए पर यह मुमकिन न था। सत्यजित ने उसके फैसले का स्वागत किया था। सत्यजित गंभीर प्रकृति का लेकिन भावुक और नरमदिल इंसान था। गीत, संगीत, अभिनय उसकी पहचान थे....वह कलकत्ता यूनिवर्सिटी में इतिहास का लेक्चरर हो गया था जबकि मुनमुन संगीत में विशेषता हासिल कर अभी तक बेरोजगार थी और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेज चुकी थी। वह सिर्फ संगीत की शिक्षिका होना चाहती थी। चंडीदास ने स्कूल से कब का त्याग पत्र देकर सारा ध्यान अपने इंस्टिटयूट् और गायन वादन में लगा दिया था। अब वह कलकत्ते और बम्बई का मशहूर कलाकार था और दोनों शहरों में तमाम हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली अखबारों में उसकी प्रशंसा, साक्षात्कार छपते थे। वह बेहद व्यस्त हो गया था। नाटक और गीतों की रिकॉर्डिंग के दौरान तो यह आलम रहता है कि रात एक डेढ़ बजे लौटे हैं और सुबह दस बजे फिर चल दिए...माँ कहती ही रह गई कि दोपहर का खाना खाने तो आएगा न। माँ अक्सर चंडीदास को केन्द्र में रखकर ही घर की सारी योजनाएँ बनाती हैं।
पाँच मार्च को चंडीदास का जन्मदिन है और मुनमुन ने सोच लिया है कि इस बार जन्मदिन जोर-शोर से मनाया जाएगा। वह माँ के साथ बाजार जाकर सारी खरीदारी भी कर चुकी है। बाबा खुश हैं-गुनगुन को गए पाँच साल हो गए। पाँच सालों तक यह घर मुस्कुराना, हँसना, खिलखिलाना भूल गया था लेकिन अब धीरे-धीरे गुनगुन के बिना रहने की आदत पड़ चुकी है और अब पहली बार चंडीदास के जन्मदिन से उस खुशी के आगमन का वे स्वागत कर रहे हैं। उन्होंने माँ को आवाज लगाई-‘‘मैं सोचता हूँ मुनमुन के लिए भी साड़ी खरीद लाऊँ....अरसे से उसके लिए कुछ खरीदा नहीं।’’
‘‘इसमें पूछना क्या? ले ही आना था। खुश हो जाती वो। वैसे भी चार मार्च को शिवरात्रि है। उस दिन पहनेगी तो शुभ होगा।’’
शुभ-अशुभ सोचना बाबा ने बंद कर दिया था। विश्वास-सा हो गया था कि इस जिन्दगी की नकेल ऊपर वाले के हाथ में है। हम तो केवल कठपुतली हैं जैसा नचाता है नाच लेते हैं। वे तो इसी बात से खुश हो लेते हैं कि उनका चंडीदास एक बड़ा कलाकार हो गया है और घर की गाड़ी आराम से खिंच रही है। वरना आर्थिक तंगी रहती थी। हालाँकि बहुत रुपया तो नहीं मिल रहा है पर जितना भी मिल रहा है उससे संतुष्ट हैं वे। मुनमुन भी खोई खोई-सी रहने के बावजूद खुश नजर आती है। हमेशा गुनगुनाती, मुस्कुराती रहती है। कभी कभी उन्हें शक होने लगता है कि कहीं.....लेकिन फिर अपने ही विचारों को वे झटका सा देते हैं कि नहीं.....मुनमुन की शादी की इंकारी की वजह कुछ और है....पर क्या?
नहीं मुनमुन से कभी नहीं जान पाएगा कोई कि इसकी वजह क्या है.....
दर्द का कहना चीख उठो
दिल का तकाजा वजा निभाओ
सब कुछ सहना, चुप चुप रहना
काम है इज्जतदारों का.....
लेकिन मुनमुन की यह खामोशी चंडीदास ने ताड़ ली है। वह जानता था कि सत्यजित और मुनमुन के दिल में क्या चल रहा है, क्या पल रहा है....चंडीदास खुद भी तो उसी दौर से गुजरा है और जानता है कि जब दो दिल मिलते हैं तो आरजूएँ कैसी मचलती हैं? कामनाएँ कैसी तूफान उठाती हैं? होश में कहाँ रहता है वजूद? बस....नजर आता है तो हर ओर महबूब.... खैर,
खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीत, मद्यपान
रहिमन दाबैं न दबैं जानत सकल जहान
उस दिन भी तो यही हुआ। कलकत्ते में रिकॉर्ड तोड़ सफलता प्राप्त कर चुकी देविकारानी की फिल्म जिस टॉकीज में दिखाई जा रही थी उसके गेट पर चंडीदास ने मुनमुन और सत्यजित को देख लिया था। मुनमुन लाल बॉर्डर की काली साड़ी पहने आश्चर्यजनक रूप से खूबसूरज नजर आ रही थी। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े अंदर की ओर जा रहे थे। वह उल्टे पाँव सड़क पर चल पड़ा था। पतझड़ी हवाओं ने सड़कों पर सूखे, पीले पत्तों को जहाँ-तहाँ बिखरा दिया था जो चलती कारों और मोटरों के साथ रेलों में बहते और फिर शांत होकर जहाँ के तहाँ थम जाते।
रात दस बजे जब चंडीदास घर लौटा तो मुनमुन आराम से बिस्तर पर बैठी अपने लम्बे बालों में कंघा फेर रही थी।
‘‘मुनमुन हाँ या ना में जवाब देना। तुम सत्यजित को चाहती हो?’’
मुनमुन चौंक पड़ी। यह कैसा सवाल पूछा दादा ने? कहीं उसकी शादी के लिए इंकारी की वजह यही तो नहीं समझ रहे हैं वे।’’
‘‘दादा...’’
‘‘बोलो मुनमुन....जवाब दो।’’
मुनमुन ने हामी में सिर हिलाया।
‘‘क्या वह भी तुम्हें चाहता है?’’
मुनमुन ने फिर हामी में सिर हिलाया।
‘‘क्या तुम दोनों शादी करोगे?’’
यही सवाल मुनमुन के लिए खतरे से भरा था....इसी सवाल का तो कोई माकूल उत्तर नहीं था उसके पास। वह उठी और दादा से लिपटकर अपने अंदर के आवेग को रोक नहीं पाई-
‘‘दादा, मुझे राह सुझाएँ। मेरा रास्ता बस यहीं तक है....इसके आगे कुछ सुझाई नहीं देता।’’
‘‘तुम्हें इंतजार करना पड़ेगा मुनमुन। वक्त अपने आप रास्ते बनाता चलता है।’’ चंडीदास ने मुनमुन का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया-‘‘इधर देखो, मेरी तरफ....तुम कभी कुछ गलत नहीं करोगी, भरोसा है तुम पर। बस इतनी गुजारिश है कि कुछ ऐसा न कर बैठना कि माँ बाबा दुखी हों। बहुत दुख उठाए हैं उन्होंने।’’
और उसका माथा चूमकर चंडीदास फौरन ही वहाँ से चला गया।
चंडीदास का जन्मदिन कलकत्ते के सांस्कृतिक इलाके के हॉल में उसके ही इंस्ट्टियूट के विद्यार्थियों ने अरेंज किया था। नेतृत्व की बागडोर मुनमुन और सत्यजित ने सभाँल रखी थी। बाकायदा हॉल बुक किया गया.....लगभग पचास लोगों के डिनर का इंतजाम कैटरर को सौंपा गया। डिनर का मीनू तैयार हुआ। विद्यार्थियों ने गीतों के बेहतरीन आइटम तैयार किए थे.....सोलो, डुएट, कोरस और कव्वाली। डायना ने संदेशा भेजा था कि वह एक गज़ल सुनाएगी जिसे उसने खुद ही कंपोज भी किया है। घोषाल बाबू अपनी पुकू के साथ हाजिर थे। डायना के साथ दीना और जॉर्ज भी थे....मुनमुन और सत्यजित ने कणिका मजूमदार का कत्थक नृत्य भी रखा था और इस नृत्य के साथ वे यह घोषणा करने वाले थे कि अब इंस्टिट्यूट में नृत्य क्लासेस भी होंगी और यह चंडीदास के लिए सरप्राइज आइटम था। भरसक कोशिशों से यह बात उससे छुपा कर रखी गई थी।
पाँच मार्च की सुबह माँ ने खीर बनाई और चंडीदास के साथ काली माँ के मंदिर दर्शनों के लिए गईं। लौटते हुए चंडीदास सीधा डायना के बंगले चला गया। जब से डायना गर्भवती हुई है फूलों से उसका लगाव बढ़ता जा रहा है फिर आज तो चंडी का जन्मदिन है। पूरा बंगला फूलों से महक रहा था। टेबिल पर लाल गुलाबों का बुके चंडी की प्रतीक्षा में था। जब चंडीदास ने बंगले में प्रवेश किया तो दिल-दिमाग को सुकून सौंपती एक रोमेंटिक सुगंध को अपने आसपास पाया। डायना ने आगे बढ़कर उसका आलिंगन करते हुए फूलों का बुके उसे दिया-‘‘हैप्पी बर्थडे चंडी....याद करो पिछले कुछ सालों से आज के दिन हम कहाँ-कहाँ होते थे? शिमला, मलाबार हिल, महाबलेश्वर, खंडाला, लोनावला और आज यहाँ.....लगता है जैसे तुम्हारे साथ गुजारे यह छह साल....ठहर गए वक्त का खजाना हैं.....’’
‘‘और उस खजाने में हमारी चाहत का फूल खिल रहा है.....मेरा अपना शिशु.....मैं बहुत कंजूस हूँ इस मामले में.....वो सिर्फ मेरा है....तुम तो उसकी मैया हो....मैया, कबहुँ बढ़ेगी चोटी...।’’
‘‘मतलब तुमको चोटी वाली चाहिए।’’
‘‘बिल्कुल तुम्हारे जैसी....तुम्हारा ही प्रतिरूप जो मेरे और तुम्हारे हाथों गढ़ा जा रहा है।’’
सहसा चर्च का घंटा टनटना उठा और उसके साथ ही मधुर स्वर घोलती पूजा की घंटी भी जो पारो अपने कमरे के मंदिर में आरती करते हुए बजा रही थी। उसका कल शिवरात्रि का व्रत था और आज अब पूजा के बाद ही व्रत का पारायण होना था। उसने अपने बाबू मोशाय के लिए रोशोगुल्ला बनाया था। आरती के बाद वह काँच के कटोरे में रसगुल्ले लेकर आई। झेंपते, झिझकते उसने जन्मदिन की बधाई देते हुए चंडीदास के पैर छुए और कटोरा उसके आगे कर बोली-‘‘मिष्टी रोशोगुल्ला।’’
‘‘तुम ही खिला दो न पारो अपने हाथ से।’’
डायना के कहने पर पारो ने बाकायदा रस में उँगलियाँ डुबो कर रसगुल्ला उठाया और चंडीदास को खिलाकर दूसरा डायना को खिला दिया और पत्ते-सी काँप उठी क्योंकि उसकी मालकिन ने भी एक रसगुल्ला उठाकर अपने हाथों से पारो को खिलाया....‘‘धन्न भाग्य......तर गई पारो.....‘और वह रसगुल्ले का कटोरा वहीं रख शरमाकर भाग गई वहाँ से।
हॉल में गूँजती डायना की गज़ल, कणिका मजूमदार का नृत्य और विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत की गई गीतों की श्रृंखला से अभिभूत चंडीदास ने डिनर के दौरान ऐलान किया कि पंचमढ़ी से लौटकर वह इंस्ट्टियूट में बाकायदा नृत्य की कक्षाएँ भी आरंभ करेगा। और उसके सर्वेसर्वा सत्यतिज और मुनमुन होंगे। तालियों की गड़गड़ाहट इस बात का सबूत थी कि सभी तहेदिल से यह चाहते हैं। न जाने कितने नाम एक पर्ची में लिखकर मुनमुन को दिए गए.....‘‘हम भी सीखेंगे नाच.....हम भी सीखेंगे.....कहीं ऐसा न हो कि जगह का कोटा भर जाए और वे सीखने से रह जाएँ। कणिका मजूमदार पैंतीस चालीस वर्ष की प्रौढ़ महिला थी और अभी-अभी विदेश में अपने नृत्य का तहलका मचाकर लौटी थी और चाहती थी कि उसकी कला दूर-दूर तक फैले तो बाकायदा चंडीदास का इंस्ट्टियूट ज्वाइन करने के लिए उसने अपनी रजामंदी दे दी। सभी ग्रुप बनाकर नाचने लगे....सत्यजित ने ग्रामोफोन पर रिकार्ड लगा दिया। पार्टी देर रात तक चली।
डायना की गाड़ी ने चंडीदास के परिवार को उनके घर तक पहुँचाया। दूसरी गाड़ी जब दीना और डायना को लेकर आगे बढ़ी तो चंडीदास और नन्दलाल सड़क के किनारे गेट के पास खड़े बातें करने में तल्लीन थे। गेट से लगी पुलिया के पीछे झड़बेरी की झाड़ियाँ थीं। सहसा तेज हवा चली और झाड़ियों के पीछे उगा पीला-सा चाँद हिलता नजर आया। डायना ने सिर पीछे टिकाकर आँखें मूँद लीं।
अगले हफ्ते चंडीदास डायना और टॉम ब्लेयर के साथ पंचमढ़ी रवाना हो गया। जाते-जाते मुनमुन से कहता गया ‘‘माँ बाबा का ध्यान रखना....मैं जल्दी ही लौटूँगा।’’
दो कारें, एक जीप और तमाम लाव-लश्कर के संग भारी इंतजाम सहित टॉम उन्हें पचमढ़ी की सैर कराने लाया था। गेस्ट हाउस के दो कमरे आलीशान ढंग से सजाए गए थे और उनकी सेवा में हाजिर दो-दो नौकर इधर से उधर भागदौड़ कर रहे थे। पचमढ़ी में प्रकृति ने सुंदरता खुले हाथों लुटाई है। सतपुड़ा के पहाड़ों से घिरी हजारो फीट गहरी घाटियाँ किसी तिलिस्म से कम न थीं। जैसे तिलिस्मी दीपक रगड़कर एक नई दुनिया उजागर होती है। पृष्ठभूमि में उभरते हैं ख्वाबगाह से कमरे, हसीन वादियाँ, पेड़ों की शाखाओं पर फूल ही फूल, चहचहाती रंग-बिरंगी चिड़ियाँ......घाटियों में सहसा प्रगट होते पानी के झरने......कलकल का स्वर घाटियों को तरन्नुम में डुबोए रखता। टॉम का तो जैसे कायाकल्प ही हो गया था। वह शालीन और हँसमुख हो गया था और डायना और चंडीदास के साथ बेहद शिष्ट नजर आ रहा था।
होली दो दिन बाद थी और गेस्ट हाउस के सामने हरी दूब के लॉन पर आदिवासियों के लोकनृत्य का आयोजन था। पंचमढ़ी कलकत्ते से अधिक ठंडा था.....वैसे भी जंगलों के बीच बसे इस पहाड़ी शहर में झरनों की तादाद इतनी अधिक थी कि गर्मियों में भी ठंडक रहती थी। लॉन के बीचोबीच अलाव जलाया गया था जिसकी लपटों की रोशनी में लॉन रंगीन हो उठा था। होली के त्यौहार के आगमन की खुशी में महुआ फलों से लद जाता है। इसी महुए की शराब बनाकर जंगलों के भीतर रहने वाले गौंड़ आदिवासी होली की प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। महुए के फलों की खुशबू से मानो हवा भी नशीली हो उठी थी। आदिवासी नर्तक-नर्तकियों ने शराब पी रखी थी ओर नशे में झूमते हुए ढोल बजा बजाकर नाच रहे थे। टॉम, डायना और चंडीदास के बैठने का इंतजाम सामने कुर्सियों पर था। उनके साथ और भी चार-पाँच अंग्रेज सैलानी थे जो पंचमढ़ी घूमने आए थे। सभी के हाथों में व्हिस्की के गिलास थे और सामने भुने गोश्त की मसाले में लिपटी बोटियाँ। कौड़ियों और बड़े-बड़े मनकों की माला पहने, बालों के जूड़े में जंगली फूल लगाए काली अर्धनग्न औरतों के साँचे में ढले ठोस स्तनों को देखकर अंग्रेज सैलानियों के साथ शराब का घूँट लेते टॉम ब्लेयर पूरी मस्ती के आलम में था.....
‘‘लाजवाब....क्यों चंडीदास सेनगुप्ता जी......देख रहे हैं ये अद्भुत डांस?’’
‘‘ये राई नृत्य है जिसे आदिवासी कबीलों में विशेष दिनों और त्यौहारों में नाचा जाता है। असली मजा तो अब आएगा आपको क्योंकि अब नृत्य ने तेजी पकड़ ली है।’’
टॉम सोचता था कि चंडीदास के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोले हैं उसने। पर यहाँ तो जनाब सब पहले से जानते हैं। डांस ने तेजी पकड़ ली थी और युवक-युवतियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले घेरा बनाए फिरकनी से नाच रहे थे। उनके कदमों की तेजी लपटों की रोशनी में अद्भुत समां बांध रही थी। सहसा ढोल तेजी से बजने लगे, गीत के स्वर भी ऊँचे होते गए और एक पंक्ति पर आकर फिर धीमे हो उठे। रात थकने लगी थी। और चुभती हवाओं संग ओस की बूँदे लॉन पर टपकने लगी थीं। धीरे-धीरे धीमा होता नृत्य वहीं खत्म हो गया। टॉम नशे की हालत में वहीं कुर्सी पर लुढ़क गया। आदिवासियों के मुखिया ने ताजा औंटाया खोवा ढाक से बने दोने में रखकर डायना और चंडीदास को दिया....दल की बूढ़ी महिला एक बाँस की टोकरी में मक्के की लाई फोड़कर लाई थी। डायना के लिए ये देहाती सौगातें अनमोल थीं। यही प्यार तो उसकी पूँजी थीं। आदिवासियों को विदा कर डायना और चंडीदास ने टॉम को नौकरों के द्वारा बिस्तर तक पहुँचाया और दिन भर घूमते रहने और इतनी रात तक जागते रहने के कारण दोनों अपने-अपने कमरों में बिस्तर पर जा लेटे तो कब नींद की गिरफ्त में आए पता ही नहीं चला।
चार दिनों तक लगातार वे घूमते रहे। सुबह चाय-नाश्ता कर घोड़ों पर सवार हो वे घटियों में उतर जाते। दोनों नौकर और दो आदिवासी लड़के उनके खाने-पीने का सामान, दरी चादर आदि टट्टुओं पर लादे पीछे-पीछे चलते। जंगल की खूबसूरती में डायना खो-सी गई थी। टॉम घाटियों से जुड़ी ऐसी कहानियाँ सुनाता जो अंग्रेजों के हैरत अंग्रेज कारनामों से जुड़ी होतीं-‘‘जानते हैं चंडीदास सेनगुप्ताजी, पंचमढ़ी को जिसने भारत के नक्शे से खोज निकाला वह था अंग्रेज कैप्टन जे. फारस्थी। उसके पहले कोई नहीं जानता था कि मध्यप्रदेश के जंगलों में इतनी खूबसूरत वैली भी है।’’ डायना और चंडीदास इन कहानियों के जवाब में चुप ही रहते।
दोपहर ढल रही थी। डूबने का आतुर सूरज की किरणें घाटियों को सोने में रंग रही थीं। टॉम ने नौकरों और आदिवासियो को डिनर आदि के इंतजाम के लिए गेस्ट हाउस की ओर रवाना कर दिया था। अब वे तीनों अकेले थे और दूर-दूर तक वीरान जंगल था। हवाओं की सरसराहट पत्तों को खड़खड़ाती उन्हें चौंका देती। पेड़ों की डालियों पर कभी परिदों का शोर होता कभी लंगूरों की किचकिचाहट। दिन भर घूमते रहने के कारण डायना थक चुकी थी। पर टॉम लौटने का नाम ही नहीं ले रहा था। चंडीदास को डायना की थकान उसके चहरे से साफ दिखाई दे रही थी-‘‘थक गईं न।’’
‘‘हाँ.....अब हम गेस्ट हाउस ही लौट रहे हैं न?’’
जवाब टॉम ने दिया-‘‘रुकिए जनाब....अभी तो इस एरिया की सबसे ‘‘ब्यूटिफूल वैली’’ देखनी बाकी है।’’
चंडीदास ने कंधे से लटके थर्मस से पानी निकालकर डायना को पिलाया और टॉम की नजरें बचाकर उसके पैर सहलाए। डायना को राहत-सी मिली।
घोड़े उस तथाकथित ब्यूटीफुल वैली की ओर चलने लगे। नीलगिरी के सफेद पींड़ और नुकीली पत्तियों वाले सतर पेड़ों के घने जंगल का उदासीन सौंदर्य और भयभीत कर देने वाली लगभग पाँच सौ फीट गहरी घाटी के किनारे घोड़े रूक गए। टॉम ने हाथ बढ़ाकर डायना को उतारा और नुकीली सूखी पत्तियों के बिछावन पर उनके चरमराते जूते क्षण भर रुके। टॉम ने बताया-‘‘ये है वो ब्यूटीफुल वैली.....आह.....अद्भुत सौंदर्य है। सन् 1887 में अंग्रेज मेजर मिस्टर हाँडी यहाँ शिकार खेलने आए थे। अचानक उनके घोड़े का पैर फिसला और वे घोड़े सहित इस वैली में गिर गए। कई दिनों की तलाश के बाद भी उनकी लाश नहीं मिली। घाटी में ही कहीं खो गई। तब से इस वैली का नाम ही पड़ गया ‘‘हाँडी खो।’’
चंडीदास और डायना ने सैकड़ों फीट गहरी भयभीत कर देने वाली घाटी में निर्झर की एक क्षीण धारा देखी-‘‘एई कुले आमी, ओई कूले तुमी.....माझखाने नोदी ओई बोए चोले जाए।’ चंडीदास ने डायना के चेहरे की ओर देखा जिस पर ढलते सूरज की किरणें अपनी फीकी होती रोशनी बिखेर रही थीं। जैसे आदिवासियों के लोकनृत्य के समय जलाए गए अलाव की लपटें अब तक सुलग रही हों....अब तक अपनी नारंगी पीली रोशनी बरकरार रखे हों......चंडीदास का मन हुआ डायना को बाहों में भर कर उन लपटों को चूम ले.....डायना ने चंडीदास की आँखों में छलकता अनुराग देखा.....सारा जंगल उस अनुराग के आलते में रंग उठा.....पक्षियों के परों की सरसराहट....प्रेम....प्रेम का कीर्तन करती-सी लगी.....डायना को उस अनुराग की शक्ति का अपने अंदर फैलना महसूस हुआ....जैसे चाँदनी जमुना की लहरों पर फैलती है....रंग, उज्जवलता, संगीत.....मेरे किसना....नन्दलाला, मेरे मुरारी, बाँके बिहारी.....मेरे कान्हा...।
अचानक पीछे कुछ दूरी पर खड़े टॉम ने कंधे से बंदूक उतारी और धाँय.....धाँय....धाँय। चंडीदास कटे पेड़-सा ‘‘हाँडी खो’ में सदा के लिए खो गया। डायना की आँखें फटी की फटी रह गई.....’’ चंडी.......’’ घने पेड़ों पर बैठे परिन्दों के पँखों की फड़फड़ाहट के साथ डायना की हृदयविदारक चीख की प्रतिध्वनि लौट-लौट कर कई बार टॉम के कानों में पिघला गरम सीसा उड़ेलती रही। डायना बेहोश होकर गिर पड़ी थी......घास के उस छोटे से टुकड़े पर जहाँ तीन-तीन गोलियों से छलनी हुई चंडीदास की पीठ से बहे खून के कतरे थे.....उस वक्त आसपास कोई न था। टॉम ने घाटी में झाँका पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया.....सालों से धीरे-धीरे सुलगते अपने इरादे की कामयाबी पर टॉम अट्टहास कर उठा-‘‘जीना हराम कर दिया था चंडीदास तुमने.....लेकिन अफसोस मैं डायना को तुम्हारे पास नहीं भेज सकता......यह जानकर भी कि उसकी कोख में तुम्हारी नाजायज औलाद पल रही है.....गुडबाय चंडीदास......गुडबाय.......’’ उसने घोड़े की गर्दन से लटकते चमड़े के बैग से व्हिस्की का क्वार्टर निकाला और एक ही साँस में पी गया। फिर उसका ध्यान डायना की ओर गया। वह अब भी बेहोश थी। टॉम ने उसे गोद में उठाकर घोड़े पर किसी तरह चढ़ाया और गेस्ट हाउस तक गिरते पड़ते लौटा.....नौकरों ने मेमसाहब को बेहोश देखा तो भगदड़ मच गई। इलाके का नीम हकीम खतरे जान वैद्य बुलाया गया। टॉम ने बताया -‘‘हमारा साथी चंडीदास वैली में गिर गया तभी से बेहोश हैं।’’
वैद्य ने कोई जड़ी पत्थर की चौकी पर घिर कर डायना के तलवों, हथेलियों और माथे पर लेप किया.....किसी दूसरी जड़ी का रस उसकी नाभि में भरा.....करीब आधे घंटे बाद डायना को होश आया लेकिन चंडीदास को आवाज देती वह फिर से बेहोश हो गई।
टॉम कुर्सी पर अकेला बैठा डायना के बेहोश शरीर को ताक रहा था। अँधेरा पूरी तरह जंगल को निगल चुका था। घने अंधेरे जंगलों से गुजरती हवा का तूफानी स्वर और टिटहरी की आवाज मानो टॉम का मजाक उड़ा रही थी। उसे लगा चंडीदास हाहाकार करता उसी की ओर बढ़ा आ रहा है। टॉम पैग पर पैग पिए जा रहा था पर नींद उससे कोसों दूर थीं, शायद कोसों दूर रहेगी भी......क्योंकि उसने प्यार का खून किया है.......और नफरत की उम्र अधिक नहीं होती। उस खूनी रात का अक्स ताउम्र उसे देखना ही होगा। अपने ही पैरों की आहट उसे डराएगी....वह जीना भूल जाएगा और हर पल....हर लम्हा.....सुकून के लिए तरसेगा।
‘‘नहीं.....मेरे पास धन है.....डायना की करोड़ों की दौलत.....मैं उसके बल पर अपनी दुनिया बसाऊँगा।’’
लेकिन उसका मन। जिस पर चंडीदास के खून में लथपथ घाटी में गिरते शरीर की छाप गरम सलाखों से अंकित हो गई थी, वह मन, वह उसका विवेक.......कतई यह मानने को तैयार नहीं था। दौलत, भौतिक ऐशोआराम देती है, पर शांति नहीं, सुकून नहीं.....हाँ.....उसे डायना और चंडीदास के प्रेम का शाप लग गया है। वह कभी चैन नहीं पाएगा।
पीते-पीते टॉम भी वहीं लुढ़क गया। खिड़कियों के पल्ले चीखती हवा से रात भर भड़भड़ाते रहे।
6
भयानक सदमे की हालत में टॉम डायना को लेकर कलकत्ते लौटा। बिजली की तेजी से यह खबर फैल गई कि चंडीदास की हादसे में मौत हो गई। नंदलाल, सत्यतिज, डेव और इंस्टिट्यूट के सारे विद्यार्थी टॉम के बंगले पर दौड़े आए कि आखिर कब, कैसे हुआ ये हादसा? चंडीदास का शव कहाँ है? चंडीदास के घर में कोहराम मच गया। माँ उस वक्त रसोईघर में व्यस्त थीं। उनके हाथ में दाल की बटलोई छूटी और गरम दाल पैरों पर गिर गई। मुनमुन दौड़ी-‘‘माँ......ये क्या कर लिया माँ?’’ और बेहोश होती माँ से लिपट फूट-फूट कर रो पड़ी। बाबा की आँखों में एक भी आँसू न था। वे काठ की मूर्ति बन चुके थे। टॉम के घर से सीधे नंदलाल और सत्यजित चंडीदास के घर बाबा को सँभालने पहुँच गए।
दूसरे दिन कलकत्ते के तमाम अखबारों में चंडीदास की फोटो सहित उसकी मृत्यु का समाचार छप गया। शोक-सभाएँ आयोजित होने लगीं। कलकत्ते का बुद्धिजीवी कलाकार वर्ग इस घटना से हिल गया था क्योंकि चंडीदास उनके बीच महान कलाकार तो था ही वह सही मायनों में इंसान भी था जो लोगों के दुख-दर्द बाँटने की कोशिश करता था और हर एक की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहता था। इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों ने शोक सभा के बाद यह तय किया कि वे पचमढ़ी जाकर पता लगाएँगे कि आखिर चंडीदास का शव मिला क्यों नहीं? डायना अस्पताल में एडमिट थी......न कुछ खा रही थी, न पी रही थी बस टकटकी बाँधे छत की ओर ताकती रहती और आँखों की कोरों से आँसुओं की धारा बहती रहती। पारो, दीना उसके नजदीक बैठी रहती।....बोनोमोली और दुर्गादास हाथ बाँधे पायते खड़े रहते थे। सबका रो-रो कर बुरा हाल था। पारो डायना को इस हालत में देखकर जितना रोई उससे चौगुना पचगुना तो वह अपने बाबू मोशाय के लिए रोती रहती है। लेकिन टॉम को इन सबसे कोई मतलब नहीं। उसे जो करना था, कर चुका। अब वह निर्द्वन्द्व था.....हलका-फुलका.....जैसे सिर से चट्टान सरक गई हो। अलबत्ता सुबह शाम अस्पताल में हाजिरी देकर डॉक्टरों से पूछ लेता कि-‘‘डायना कब तक घर ले जाने लायक हालत में होगी?’’
‘‘अभी कुछ कहा नहीं जा सकता मिस्टर ब्लेयर। सदमा गहरा लगा है। ब्लडप्रेशर भी नॉर्मल नहीं है। अभी कुछ दिन सावधानी की जरूरत है।’’
पारो डायना की आँखों पर हथेली रख देती-‘‘थोड़ा सो लो मेम साहब......ऐसे तो आप अच्छी होने से रहीं।’’
‘‘अच्छी होना किसे है?’’ इतने दिनों बाद पहली बार डायना के मुँह से बोल फूटे। पारो खुशी में भरकर उससे चिपट गई। डायना ने उसे कसकर सीने से लगा लिया- ‘‘मेरा चंडी खत्म हो गया पारो.....तुम्हारे बाबू मोशाय.....अब हमसे कभी नहीं मिलेंगे।’’
‘‘मेम साहब.....बाबू मोशाय......’’
‘‘हाँ पारो.....अब वो हमसे कभी नहीं मिलेंगे....तुम ही कहो पारो मैं जिन्दा कैसे रहूँ?’’
‘‘आपको जीना है मैडम, आने वाले बेबी के लिए।’’ दीना ने कब कमरे में प्रवेश किया किसी को पता ही नहीं चला। उसे देखते ही डायना ने अपनी बाहें फैला दी। दीना दौड़कर डायना से लिपट गई-‘‘मैडम.....आपको जीना है, बेबी के लिए, हम सबके लिए.....बस, यहीं आकर तो इंसान असहाय हो जाता है। मृत्यु पर उसका कोई अख्तियार नहीं। मन मसोसकर रहना ही एकमात्र उपाय बचता है। कल्पना और साँसों को ढोना.....।’’
अचानक दीना से इतनी गहराई की बातें सुन डायना के बेजान शरीर में जैसे रक्त का संचार हुआ।
‘‘ठीक कहती हो दीना.....साँसों को ढोना पड़ेगा। अब यही मेरी नियति है। मेरा इस दुनिया में कोई नहीं......अनाथ तो थी ही मैं अब एकदम अकेली हो गई हूँ.....तनहा......’’ और डायना रो पड़ी, दीना के आँसू भी नहीं रुके..... ‘‘हम सब आपके साथ हैं मैडम।’’
‘‘मैम साहब.....बाबू मोशाय के घर से.......’’
बोनोमाली का वाक्य अधूरा ही छूट गया। डायना तेज स्वर में बोली-‘‘बाबा......मुनमुन......’’और रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गईं। बाबा उसके पास कुर्सी पर बैठ गए। मुनमुन उससे लिपट कर निःशब्द रोती रही। जब ज्वार थमा तो मुनमुन और पारो ने सहारा देकर डायना को पलंग से टेक लगाकर बैठा दिया। डायना ने बाबा को देखा जो बुढ़ापे में लुटे-लुटे से बैठे थे। उनका तो इकलौता बेटा था चंडीदास.....बुढ़ापे का सहारा......टॉम ने उनका घर उजाड़ डाला। उसे लगा वह न होती तो आज बाबा को ये दिन नहीं देखना पड़ता। उसका मन हुआ दौड़कर बाबा के चरणों में गिर पड़े......‘‘मुझे माफ कर दें बाबा। मेरे ही कारण आज चंडी आपसे बिछुड़ गया। आप महान हैं जिन्होंने चंडीदास जैसे देवपुरूष को जन्म दिया। आप टॉम को शाप दीजिए बाबा कि वह हमेशा एकाकी, तनहा और बिना प्रेम की जिन्दगी जिए। हमेशा औलादहीन रहे। कभी चैन न पाए।’’
‘‘बेटी.....इतनी बीमार पड़ गई? जरा भी सब्र से काम नहीं लिया? मुझे देखो, मैं चंडी के बिना भी जिन्दा तो हूँ न।’’
बाबा ने डायना के निस्तेज पीले चेहरे को देखते हुए नीचे फर्श पर आँखें टिका दी। डायना ने इन आठ दिनों में और अधिक जर्जर, असहाय और टूट चुके बाबा की ओर देखा। उनके लिए उसका मन ऐसा कलपा कि लगा वह अभी होश खो बैठेगी पर उसने अपने पर काबू किया.....जब जन्म देने वाला पिता हिम्मत कर उससे मिलने यहाँ तक आया है तो वह क्यों टूटती जा रही है। टूटकर अपने चंडी की आत्मा को दुख ही तो पहुँचा रही है वह। उसने वेग से उठी रुलाई रोकी और आँखें रगड़कर पोंछी। मुनमुन ने उसे गिलास में पानी निकालकर पिलाया।
‘‘दीदी......’’
‘‘मुनमुन के संबोधन पर डायना चौंकी। पहली बार उसे दीदी कहकर बुलाया था मुनमुन ने.....एक पल को वह यह भूल गई कि वह टॉम की पत्नी है। उसे लगा वह इस परिवार की ही सदस्य है जिसके हर सदस्य में प्रेम कूट-कूट कर भरा है।’’
‘‘दीदी....हम लोग गए थे पंचमढ़ी.....हाँडी खो.....पर वहाँ ऐसी कोई जगह दिखाई नहीं दी जहाँ से हादसा हो....इतनी गहरी घाटी को कोई इतना झुककर देखेगा ही क्यों कि गिर जाए।’’ क्या कहे डायना? गूँगा कर दिया था उसे टॉम ने। कितनी सफाई से टॉम ने इस कत्ल को एक हादसा करार कर दिया था। हाँडी खो में उस वक्त डायना के सिवा और था भी कौन जो ये हकीकत जानता। हालाँकि गुनाह पर परदा डालने के लिए उसने जबर्दस्त नाटक खेला था, चंडीदास को ढूँढने का। दस बारह वनकर्मियों को भेजा था इस काम के लिए। पर हजारों फीट गहरी घाटी में उतरना क्या इतना आसान था? टॉम को पता था न कोई उतरेगा, न गोली खाया चंडी का शरीर मिलेगा। वनकर्मियों ने आदिवासियों से सहायता लेने की सलाह दी थी टॉम को पर वह टाल गया था.....‘‘आदिवासियों को भी कुछ नहीं मिलेगा.....इतने जानवर हैं, क्या बची होगी अब तक बॉडी।’’
‘‘मुझे तो इतना ताज्जुब होता है सोच-सोचकर कि बॉडी तक नहीं मिली......ये कैसे संभव है?’’ दीना ने मुनमुन की बात के समर्थन में कहा।
‘‘समझ में ही नहीं आता। मुझे तो लगता है दादा गए ही नहीं। लौट आयेंगे अभी।’’
अब कैसे विश्वास दिलाए डायना कि उसका ही पति कातिल है। वह नराधम जिसकी पत्नी कहलाने में आज उसका सिर शर्म से झुका जा रहा है। लगता है धरती फटे और वह उसमें समा जाए....सीता की तरह.....शायद सदियों से यही होता आया है औरतों के साथ। ईश्वर ने जब औरत बनाई तो उसके नसीब की गाँठ में सब्र की हल्दी बाँध दी।
बाबा चलने को तत्पर हुए। अपने दोनों घुटनों पर हथेलियों से दबाव डालते हुए बोले-‘‘जिन्दगी भर यह बात चीरती रहेगी कि हमें उसके अन्तिम दर्शन तक करने नहीं मिले। अन्तिम संस्कार से वंचित रह गया मेरा चंडी। न जाने किस जन्म के पापों का दंड मिला है हमें।’’
‘‘चलिए बाबा....फिर आपका बी.पी. हाई हो जाएगा। अब तो सब्र करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।’’
डायना ने विदा होती मुनमुन और बाबा को देखा उसकी साँसों ने एक सूखी सिसकी ली। और नजरें दरवाजे की ओर टिका दीं।
डायना घर लौट आई थी। अभी भी कभी-कभी तबीयत घबराने लगती, बुखार चढ़ जाता पर अब अस्पताल में रहना भी डायना के लिए जानलेवा सिद्ध हो रहा था। बंगले में किताबें, ब्लॉसम और संगीत से मन बहला रहता। पोर्गीं और बेस ज्यादातर दीना के लड़कों के साथ खेलते या गेट से बंधे रहते। अब वे बड़े हो गए थे और खूँखार भी।
नीम और पीपल के पेड़ों पर हवा सनसना रही थी। होली का रंग पलाश की चटख लाल कलियों पर छाया था। डायना का दिल अनाथ हो चुका था फिर भी कोख में पलती चंडी की निशानी के लिए उसे खुद को सँभालना था और यह कोशिश करनी थी कि टॉम की निर्ममता की उस पर छाया तक न पड़े। इस बात से सतर्क सावधान डायना रातों को छटपटाकर नींद से जाग जाती। उसे लगता अंधी वीरान खोह में चंडी का खून से लथपथ शरीर पड़ा है। चंडी की आँखों में उसके लिए प्रेम का सोता छुपा है जो बस बहने को आतुर है लेकिन बहे कहाँ? हर तरफ बंदूक की भयानक आवाज है। छूटी हुई गोलियों का धुआँ है। निर्मम हाथों में इतनी समझ कहाँ कि इस विशाल.....ब्रह्मांड से भी विशाल प्रेम को नष्ट कर डालने के अपने भ्रम को मिटा सके। प्रेम ईश्वर है और ईश्वर को कोई मिटा नहीं सकता। ईश्वर पृथ्वी के कण-कण में समाया है। फूलों के खिलने में,नदियों के बहने में,समुद्र के ज्वार भाटे में,भौंरों के गुंजन में तितलियो के नर्तन में, बादलों के गर्जन में हवा के थपेड़ों में प्रेम ही प्रेम है, ईश्वर ही ईश्वर है जिसे कोई आसुरी ताकत नहीं मिटा सकती। चाहे उसने मंत्र फूँककर कितनी ही भयानक कापालिक क्रिया क्यो न की हों, कितना ही मसान क्यों न साधा हो।
गेट खुलने की आवाज सुन वह चौंकी। उसे लगा चंडीदास आया है.......अक्सर ऐसा ही होता है। चंडीदास के कदमों की आहट शाम होते ही उसे कुरेदने लगती है। दुर्गादास था, बाजार करके लौट रहा था। आते ही उसने पारो को झोला आदि उठाने के लिए बुलाने के इरादे से साईकिल की घंटी बजाई। ब्लॉसम चौंककर म्याऊँ-म्याऊँ करती उसकी गोद में आ दुबकी। अब यह आवाज भी इस बंगले का जानलेवा सन्नाटा नहीं तोड़ पाती। सिरफिरी हवाएँ जब भी आती हैं पेड़ों से सूखे पत्ते, मुरझाए फूल झकझोर-कर अपने साथ उड़ा ले आती हैं पेड़ों से सूखे पत्ते, मुरझाए फूल झकझोर-कर अपने साथ उड़ा ले जाती हैं। क्या बच पाता है सिर्फ सन्नाटे के, सिर्फ नंगी शाखों के....। वह पुलिस को खबर करना चाहती है कि टॉम ने चंडीदास का खून किया है लेकिन अंजाम? टॉम से सच्चाई उगलवाने की कोशिश में डायना और चंडीदास का प्रेम बदनाम हो सकता है। कीचड़ उस पर भी उछाली जाएगी, कालिख उस पर भी पोती जाएगी। टॉम एक पहुँचा हुआ खिलाड़ी है.......जैसे उसने डायना की संपत्ति को हथियाने के लिए डायना के पिता को अपना बना लिया था ताकि डायना शादी से इंकार न करे उसी तरह उसे बदनाम करने में वह क्या कोई कोर कसर बाकी छोड़ेगा? तब डायना क्या करे? एक कातिल के साथ जिंदगी गुजारे.....उसकी अर्धांगिनी बनकर रात को उसकी बाहों में समा जाए?
नहीं, ऐसा करना चंडीदास के साथ धोखा होगा, खुद के साथ धोखा होगा। वह सिर्फ चंडीदास की है, आखिरी साँस तक उसी की रहेगी.....और आखिरी साँस भी कब तक? जब तक उनकी यह प्रेम की निशानी दुनिया में जन्म नहीं ले लेती.......बस, उसके बाद वह होगी और चंडी होगा......यहाँ भी तू.....वहाँ भी तू......जमीं तेरी फलक तेरा.......मेरी हर साँस में तू.....तेरी आत्मा मे मैं......यह जो मैं हूँ यह भी तेरा जिया प्रतिरूप है....डायना अपने चंडी की यादों में खो गई। उसे होश नहीं रहा कि कब दिन ढला और कब रात ने अपने पैर धरती की ओर बढ़ा दिए।
मौलसिरी और चंपा के पेड़ की डालियों के पीछे चाँद पीला-पीला निस्तेज, मृतप्राय-सा नजर आ रहा था। चंपा के फूल अलबत्ता खिलकर सुवास बिखेर रहे थे। पीले उजास में पेड़ों की छायाएँ लॉन पर फैली थीं। कभी इन छायाओं में उसकी छाया के साथ चंडीदास की छाया भी होती थी। तब चाँद ऐसा पीला नजर नहीं आता था। उसकी शुभ्र चाँदनी में छायाएँ चित्र-सी जान पड़ती थी। कैसी अजीब बात है कि इंसान जीवन भर जिन छायाओं का पीछा करता है वे कभी हाथ नहीं आतीं उसके जबकि रहती साथ-साथ हैं हमेशा.....‘‘तुम भी मेरे साथ हो चंडी। मेरी छाया बनकर, मैं जानती हूँ छाया में बड़ी ताकत होती है, वह इंसान को कभी तनहा नहीं छोड़ती कभी मिटने नहीं देती।’
सहसा डायना की कमर को टॉम की बाहों ने जकड़ लिया। बिना पानी मीन-सी वह छटपटा उठी-‘‘छोड़ो टॉम.....तुम्हारे हाथ खून से सने हैं।’’
‘‘क्या बचपना है डायना.....पागल तो नहीं हो गईं तुम? गुलामों के लिए शोक करती हो?’’
‘‘गुलाम भी इंसान होते हैं और यह मत भूलो टॉम कि तुम भी गुलाम हो ईस्ट इंडिया कम्पनी के....फर्क बस इतना है कि तुम भी उसी नस्ल के हो, अपने मालिकों की नस्ल के।’’ कहती डायना बिस्तर पर आकर अपने तकिये को उठाने लगी-‘‘यह क्या? तुम यहाँ नहीं सोओगी?’’
‘‘नहीं......और आइंदा कभी नहीं। तुम अपने षडयंत्र में जरूर कामयाब हो गए जो तुमने मेरे और चंडीदास के खिलाफ रचा था लेकिन तुम उसी दिन हार भी गए जिस दिन चंडी की मृत्यु हुई। तुम हार गए जिन्दगी की बाजी....खो चुके हो तुम मुझे।’’
और डायना फफक-फफककर रो पड़ी.....वह कातर रूलाई.....मन मसोसता हाहाकार जब यह एहसास भीतर तक खुब चुका हो कि जो कुछ छूट गया वह कभी वापस नहीं आएगा....अब कभी चंडी को वह देख नहीं पाएगी। सब कुछ खत्म कर दिया टॉम ने.....अब वह अकेली है। सूनी सन्नाटे भरी सड़क पर उसकी बोझिल जिन्दगी किस तरह गुजरेगी? कैसे वह अपने चंडी के बिना साँस ले पाएगी। रोते-रोते वह आहिस्ते से कमरे से बाहर आ गई। संगीत के कमरे में से तानपूरा उठा कर वहीं कालीन पर बैठकर उसने रागिनी छेड़ दी। यही चंडीदास से मिलन का एकमात्र विकल्प रह गया था। संगीत में ही तो चंडीदास की आत्मा बसी है.....धीरे-धीरे मधुर तरंगें पसरे सन्नाटे को अपनी झनकार से तोड़ने लगीं। अचानक हॉल में सोफे पर एक बड़ी गेंद की शक्ल में सोई ब्लॉसम चौंकी। उसने एक लम्बी अँगड़ाई ली और डायना के दुखी स्वरों का पीछा करती संगीत कक्ष तक आई और दौड़कर अपने पंजों से तानपूरे के तारों को छेड़ने लगी। रागिनी टूट सी गई। गीत के स्वर बिखर गए। डायना ने गायन रोककर ब्लॉसम की ओर देखा....ब्लॉसम उसके कंधों पर लपककर चढ़ी और उसके गालों को चाटने लगी। डायना के उदास सूखे होठों पर मुस्कान फैल गई। उसने ब्लॉसम को आहिस्ते से दबोच लिया.......उसे क्या पता था कि यह बेजुबान एक दिन उसके दुख की साथिन हो जाएगी। यह समझती है उसकी पीड़ा, आघात.....तभी तो.......तभी तो.....और एक टॉम है......उसका पति.....जिस पर विश्वास कर वह लंदन से इतनी दूर एक पराए देश में यह सोचकर आई थी कि टॉम तो है उसके साथ......उसका जीवनसाथी......लेकिन टॉम ने जिन्दगी की राहें काँटों से भर दीं। वह सिर्फ गोश्तप्रेमी है.....रात होते ही उसे भुना गोश्त भी चाहिए और जीवित भी। तभी तो उसकी बीमारी और चंडीदास के कत्ल की ताजा-ताजा घटना के बावजूद उसने डायना के शरीर को हाथ लगाया, वासना से छुआ......आह।
रात भर डायना सो न सकी। सुबह वह हलके बुखार की गिरफ्त में थी। रोज ही ऐसा होता है, जब से अस्पताल से लौटी है यह बुखार पीछा ही नहीं छोड़ता। वह अंदर ही अंदर घुल रही है, जीने की इच्छा खत्म हो चुकी है। पर अभी अपने फर्ज को पूरा करना है और यही एक बात उसमें हर दिन जीवित रहने की थोड़ी बहुत ऊर्जा भर देती है। वह टॉम से घृणा भी तो नही कर पाती। चँडीदास के प्रति अथाह प्रेम उसे ऐसे शैतान के प्रति घृणा करने का अवकाश ही कहाँ देता है? और टॉम उसके जीवन में है ही कहाँ? क्योंकि चंडीदास उसके जीवन से गया ही नहीं और टॉम उसके जीवन में कभी आया ही नहीं। उसने बोनोमाली को आवाज दी-‘‘बोनोमाली, ड्राइवर से कहो कार निकाले। मैं चंडीदास के घर जाऊँगी।’’
‘‘तबीयत तो ठीक हो जाने दीजिए मेमसाहब।’’
डायना इस आग्रह पर मुस्कुरा कर तैयार होने लगी। बोनोमाली अपनी मालकिन के हठ के आगे लाचार था।
जब चंडीदास के घर के सामने आकर कार रुकी तो तहलका मच गया। सड़क पर खेलते हुए बच्चे खेल रोककर किनारे खड़े हो गए और तमाम घरों की खिड़कियों से चेहरे झाँकने लगे। निम्न मध्यमवर्ग के रहवासी इलाके में एक धनी और वह भी अंग्रेज महिला का आगमन सबके आश्चर्य का विषय था। यूँ तो वह गुनगुन के वक्त भी आई थी पर तब बात दूसरी थी। डायना दुख और भावनाओं के आवेग में कुछ देख न पाई। बोनोमाली ने उसे कार से उतारा और एक सीलन भरे अँधेरे से कमरे में ले आया। कमरे का फर्श बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से जड़ा था। लगता था आज फर्श खूब रगड़-रगड़कर धोया गया है क्योंकि पत्थरों के जोड़ों, उखड़े किनारों पर नमी थी। ठंडक थी कमरे में। दीवारें उघड़ी-सी थीं, प्लास्टर उखड़ा था और जगह-जगह से चूना झर रहा था। लकड़ी की चौखट वाली दहलीज में दीमक लग गई थी जिसने तमाम लकड़ी को चर डाला था और जगह-जगह छेद कर दिए थे। एक ओर लकड़ी का तख्त था जिस पर गद्दा बिछा था और गाव तकिये रखे थे। कोने में रखे टेबल पर हारमोनियम रखा था और वहीं कोने से ही दीवार के सहारे तानपूरा टिका था। दरवाजे पर पड़े पुरानी साड़ी से बनाए हुए परदे को हटाकर बाबा आए-‘‘आओ बेटी।’’
पीछे-पीछे चौड़े पाड़ की बंगाली साड़ी पहने माँ आई, मुनमुन के साथ। डायना अपने को रोक नहीं पाई। उनसे लिपटकर रो पड़ी। चंडी की माँ भी सहारा पाकर ढह गईं-‘‘मेरा एक ही बेटा था, काली माँ ने उसे भी छीन लिया। अब किसके लिए जिऊँ? कैसे जिऊँ?
डायना ने कहना चाहा.....चंडी की निशानी मेरी कोख में पल रही है, क्या उसके लिए नहीं जीना चाहेंगी आप? माहौल बोझिल था। खामोशी में देर तक किसी की ओर से कोई संवाद न था लेकिन आँखें सबकी भरी थीं जिन्हें उनमें से कोई जब्त किए था तो कोई बहा रहा था। सवालों का तूफान उस सीलन भरे कमरे में बरपा था-‘‘कैसे हुआ ये हादसा.....यकीन करने लायक कोई तो तर्क हो.....’’ डायना ने देखा सामने चंडीदास की तस्वीर पर गुलाब की माला थी और तस्वीर के आगे दीपक जल रहा था। अगरबत्तियों का धुआँ कमरे में ठिठका-सा था। तस्वीर में चंडीदास डायना की ओर देख रहा था, उसके खूबसूरत दाँतों की हँसी डायना के मन में उजाला भर गई।
‘‘वह बिल्कुल महत्वाकांक्षी नहीं था। बस, उसका मन तो संगीत में रमा रहता था। कहता था संगीत मेरी आत्मा है, मेरा प्रेम है मेरा जीवन है। संगीत से ही मुझे जीवन की अमूल्य प्राप्ति हुई है।’’ डायना ने नजरें झुका लीं।
‘‘शादी की बात पर भड़क जाता था। कहता था मुझे शादी के बंधन में मत बाँधो......मुझसे नहीं निभेगा।’’
बाबा की बात बीच में ही काटकर माँ ने बंगाली में कहा-‘‘अरे बाबा कुछ नहीं मालूम तुमको।’’ फिर डायना की ओर देखती हुई बोली ‘‘उसे किसी से प्यार हो गया था। बहुत सुंदर......बहुत गुणी थी.....वो.....फिर भी पता नहीं क्या बात थी। कहता था शादी नहीं हो सकती उससे। हम शादी के लिए नहीं बने हैं।’’
डायना का सारा शरीर रोमाँचित हो उठा। दुख के माहौल में भी उसके गाल दहक उठे, कनपटियाँ गर्म हो उठीं। मन हुआ, कुछ ऐसा चमत्कार हो कि वह हाथ बढ़ाकर चंडी को तस्वीर से बाहर निकाल ले और माँ, बाबा से कहे-‘‘मैं ही तो हूँ चंडी की राधिका......प्रेम का शाश्वत रूप.....बाकी सब भ्रम है। सत्य है तो बस हम दोनों का प्रेम।’’
‘‘अब बस भी करो माँ.....दादा की बातें क्या आज ही बता डालोगी दीदी को........’’
माँ उमड़ आई आँखों को पल्ले से ढकने लगीं।
‘‘तबीयत कैसी है दीदी?’’
‘‘मेरी चिन्ता छोड़ो मुनमुन.....माँ, बाबा को सभाँलो। खुद को सभाँलो’’
‘‘जिन्दगी के मेले में सब कुछ लुट गया दीदी।’’
अब मुनमुन भी सिसकने लगी थी.....डायना का मन व्याकुल हो गया.....उसे अपने आप पर ग्लानि हो रही थी। न वो चंडीदास से परिचित होती, न इस परिवार को ये दिन देखना पड़ता। अंदर से कोई प्रौढ़ महिला चाय बना लाई। माँ चेहरा धोने अंदर गईं......चंडीदास की फोटो के आगे रखे दीपक में बाबा तेल डालने लगे। जिन्दगी की बाजी उलट गई थी। चंडीदास के हिस्से का काम बाबा कर रहे थे.......चाय का प्याला डायना के हाथों में पकड़ाते हुए मुनमुन का हाथ उसके हाथ से छू गया-‘‘अरे, आपको तो तेज बुखार है दीदी।’’
सभी चौंक पड़े। इस ओर तो अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया था लेकिन अब डायना की लाल आँखें, पीला निस्तेज चेहरा और पपड़ाए होठ सब कुछ बयान कर रहे थे। बाबा तेजी से अन्दर गए और होम्योपैथी की दवा की शीशी ले आए। ‘‘जादू है इस दवा में।’’ और शीशी में से ढक्कन में चार गोलियाँ निकाल कर डायना से मुँह खोलने कहा। अपने हाथों दवा खिलाकर उन्होंने शीशी बोनोमाली को दे दी कि चार-चार घंटे में खिलाता रहे। आँखों में उमड़ आए आँसुओं सहित जब वह विदा हुई तो अपना बहुत-सा हिस्सा वहीं छोड़ आई.....अपने चंडी के घर.....अपनी पीड़ा....अपनी कराह...अपना अकेलापन भी......हाँ, अब वह अकेली नहीं है अब उसके साथ एक भरा पूरा परिवार है जिसमें माँ है, बाबा हैं, मुनमुन है। काश वह चंडी के रहते यह सब जान पाती।
और जब टॉम ब्लेयर के बंगले की वे चार सीढ़ियाँ जो बरामदे से हॉल की ओर जाती थीं वह पारो का सहारा ले चढ़ने लगी तो उसके पैर लड़खड़ा गए.....एक बड़ा बोझ-सा मन में महसूस हुआ। अभी तक तो वह मान रही थी कि टॉम ने चंडीदास का कत्ल किया है पर अब लगता है उसने अपनी इस साजिश के तहत तीन कत्ल और किए हैं......माँ, बाबा और डायना के खुद के कत्ल से उसके हाथ रंग चुके हैं। वह बड़ा शातिर खूनी निकला.....अपने मिशन में कामयाब। अब इन शेष साँसों को डायना कैसे ढोए? टूट चुकी है वह, कतरा-कतरा मर चुकी है वह। पारो ने उसे बिस्तर पर लिटाकर कंबल ओढ़ा दिया। बुखार अब भी नहीं उतरा था और उसकी आँखों में लगातार रोते रहने और नींद नही आने के कारण कांटे से चुभ रहे थे। उसने पलकें मूँदीं तो लगा पलकों का बोझ ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद पारो गुलाबजल में भीगे रूई के फाहे उसकी बंद पलकों पर रखकर हाथ और तलवे सहलाने लगी ताकि उसकी मालकिन दो घड़ी चैन से सो लें। ब्लॉसम भी चुपचाप डायना के पास ही बिस्तर पर सो गई।
बुखार उतरने में हफ्ता भर लग गया। डायना बहुत कमजोर हो गई थी। चेहरा पीला पड़ गया था। आँखों में हमेशा यह सवाल कौंधता.....क्यों किया टॉम ने ऐसा? जो वो खुद मुझे न दे सका उसे किसी और से पाने में उसने डायना के साथ क्यों निर्ममता की....जब मुझे टॉम के अनैतिक स्त्री सम्बन्धों में आपत्ति नहीं तो फिर उसे क्यों? क्योंकि वह मर्द है? क्योंकि वह कुछ भी कर सकने की छूट पाए हुए है समाज से? समाज को दिशा देने वाले बड़े-बड़े दार्शनिक, लेखक भी तो स्त्री की सीमा बाँधे रखने की बात पर बल देते हैं। डायना ने बालजाक को पढ़ा है जिसने स्त्री को पुरूष की संपत्ति कहा है.....वह एक जंगम संपत्ति है जिसको पुरूष जहाँ चाहे हाँक कर ले जा सकता है। आखिर इस दासता को क्यों स्वीकार करती आ रही है स्त्री? क्यों यह धारणा उसके मन में जड़ जमा चुकी है कि मर्द औरत से अधिक सुपीरियर है।
‘‘तुम अस्वीकार करोगी? तुम मुक्त करोगी खुद को इस बंधन से? सवाल किया था डायना ने अपने आप से, हाँ, वह मुक्त होना चाहती है पर टॉम उसे मुक्त करेगा नहीं। पुरूष ने सभ्यता की शुरूआत से ही अपनी ताकत के बल पर अपने लिए एक रुतबेदार श्रेष्ठ जगह बना ली है समाज में। इसी ताकत के बल पर वह स्त्री पर राज करता है। सारे धर्म, सामाजिक मूल्य, परंपराएँ, रहन-सहन, आचरण सब पुरूष ने अपनी सुविधानुसार गढ़े, स्त्री की सुविधानुसार नहीं। स्त्री को केवल उतनी ही छूट प्राप्त है जितनी पुरूष ने देनी चाही। टॉम भी उतनी ही छूट देगा उसे जितनी वह देना चाहेगा। वह उसे हरगिज तलाक नहीं देगा। उसे डायना नहीं चाहिए, उसकी करोड़ों की दौलत चाहिए। पिता की मृत्यु के बाद से डायना को रुपयों से मोह रहा नहीं। बहुत समय तक उसकी माँ कारोबार सँभालती रहीं लेकिन असमय ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हो गई......रहा सहा मोह भी जाता रहा........डायना इस संसार में अकेली रह गई। टॉम का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। करोड़ों की सम्पत्ति की अकेली वारिस डायना। डायना के मन में प्रेम बस चुका है और जिसके मन में प्रेम है उसके लिए हर दौलत मात्र ठीकरा है।......’’तुमने चंडीदास का शरीर मिटाया है टॉम.......प्रेम नहीं। प्रेम तक तुम्हारे नापाक हाथ कभी नहीं पहुँच सकते। लेकिन वह ऐसे खूनी, नापाक इंसान के साथ कैसे जिन्दगी गुजारे? वह एक नोबल खानदान की प्रतिष्ठित संतान है। लंदन में रुतबेदार जिन्दगी जी है उसने। मान-सम्मान पाया है। ऊँची सोसाइटी में उठना बैठना रहा है उसका। लक्जरी माहौल में बीते हैं जीवन के इतने वर्ष। अगर वह अपनी तरफ से कड़ा कदम उठाती है तो टॉम उसे बदनाम कर देगा। उसकी कोख में पल रही प्रेम की निशानी को भी मिटा देगा। बस यहीं आकर मात खा जाती है औरत। यही वत्सलता, ममता, माँ बनने की चाह और औलाद का सुख औरत को हर जुल्म के आगे घुटने टेकने पर मजबूर करता है। जब से डायना गर्भवती हुई है.....एक विचित्र ईश्वरीय एहसास से गुजर रही है। उसके अंदर एक शरीर आकार पा रहा है, उसकी धड़कनें उसके शिशु को भी धड़कना सिखा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे अब उसके शरीर में परमात्मा का वास है। अब वह पूर्ण नारी है। अपने नारी जन्म की पूर्णता उसने पा ली है। वह अपनी दिनचर्या, अपने सोचने, विचारने के ढंग, उल्लास, खुशी, हर मुकाम पर सतर्क हो गई है। अब वह अपने स्वभाव, अपने विश्वास, बुद्धि, शौक, नैतिकता, व्यवहार सब की समीक्षा करती है और जो नागवार लगता है उसकी कतरब्यौंत कर डालती है क्योंकि अपने अंदर पल रही नन्हीं जान को वह एक साफ सुथरे, दोष रहित, प्रेममय संसार में लाना चाहती है। अब उसे मात्र दो चीजें याद रहती हैं अपना मातृत्व और अपने फर्ज।
धीरे-धीरे डायना स्वस्थ होती गई। मातृत्व की गरिमा के कारण चेहरे पर रौनक लौटने लगी। ब्लॉसम उसका खूब मनोरंजन करती। अब वह प्रतिदिन बोनोमाली के साथ चंडीदास के घर जाने लगी बुखार उतरने,स्वस्थ होने के बाद जब वह पहली बार चँडीदास के घर गई तो कार से उतरते हुए उसका ध्यान आसपास के घरों और सड़क पर गिल्ली डंडा, कंचे खेलते बच्चों की ओर गया। जब वह लंदन में थी तो उसने सुना था कि इंडिया सरसों का वह खेत है जहाँ रहट चलते हैं और जहाँ सिर पर रंग-बिरंगे साफे बाँधे लोग भांगड़ा करते हैं। जहाँ पग-पग पर देवी-देवताओं के मंदिर हैं जिनके आगे मन्नत करते प्रार्थना में लीन झुके सिर हैं। इंडिया वह सड़क, वह पगडन्डी, वह तिराहा, वह चौराहा है जहाँ से पूरी सज-धज के साथ हाथी पर सवार महन्त की सवारी निकलती है, ढोल, मजीरे, घुँघरू के सुरों में हवा मतवाली हो नाचती है और पेड़ झूमते हैं। इंडिया एक ऐसी दरगाह है जहाँ इतने बड़े देग में खिचड़ी पकती है कि उसमें से बाल्टियाँ भर-भर कर दर्शनार्थियों को परोसी जातीं है, गुरूद्वारों में कड़ाह परसाद पकता है तो उसके द्वार से कोई भूखा नहीं जाता है। बड़ी-बड़ी शानदार हवेलियों में, कोठियों में, बंगलों में खानसामाँ ऐसा लजीज खाना पकाता है, रूमाल से भी बारीक परत वाली रूमाली रोटियाँ सेंकता हैं और तरह-तरह के कबाब कि लोग उंगलियाँ चाटते रह जाते हैं। सड़कें सुबह शाम धोई जातीं हैं जिन पर से अंग्रेज साहब बहादुर और मेमें कुत्तों को लेकर टहलने निकलतीं है। नवाबों के महल के आगे इत्रदार पानी से छिड़काव होता है। दरीचों में हवा सुगंध से ठिठकी खड़ी रहती है। इंडिया दर्शन शास्त्र का अपार जखीरा था....आकाश के तमाम रहस्यों को आध्यात्म से जोड़ एक नए लोक का रचयिता.....जिस लोक के दर्शन मात्र प्रभु नाम संकीर्तन के होने का दावा था उसका। इंडिया कबीर था, तुलसी था, मीराबाई, सूरदास, रहीम, रैदास था, संत तुकाराम था, संत ज्ञानेश्वर था। संत ज्ञानेश्वर ईश्वर भक्ति में इतने डूबे रहते थे कि वे ईश्वर से सीधे बातचीत करते थे। देवशयनी एकादशी के दिन जब भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ चार महीने विश्राम करने के लिए क्षीरसागर जाते हैं तो संत ज्ञानेश्वर उनके मंदिर पंढरपुर में उनसे मिलने आते थे। जब संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु हो गई तो भगवान विष्णु स्वयं उनसे मिलने आलंदी में बनी उनकी समाधि पर जाते हैं। अद्भुत.....।
लेकिन ऐसा इंडिया......ऐसे इंडिया से तो अनभिज्ञ थी डायना कि जहाँ बेतरबीत, कुकरमुत्तों से उगे घर थे जिनकी दीवारों के प्लास्टर उघड़े थे। सार्वजनिक कुएँ और हैंड पंप थे। बच्चों के खेलने के लिए न प्ले ग्राउंड था न कोई पार्क। वे सड़कों पर खेलते थे और अक्सर मोटरों, वाहनों की आवाजाही से घायल होते थे। औरतें सड़क के किनारे बोरियों पर लगे सब्जी बाजार से सब्जियाँ खरीदतीं थीं। कई घरों के आगे केले के गाछ थे जिनमें मच्छर भिन-भिना रहे थे और पोखर के कीचड़ भरे पानी में मछलियाँ तैर रही थीं। जो उन घरों का प्रतिदिन का खाद्य थीं। माहौल से भारी मन लिए डायना चंडीदास के घर आई। मौत का सन्नाटा अब भी पूरे घर पर तारी था। उसे देखते ही मुनमुन दौड़कर उससे लिपट गई-‘‘कैसी हैं दीदी, कितनी दुबली हो गई हैं?’’ अंदर से माँ, बाबा आए। डायना की आँखों ने एक पल में भाँप लिया कमरे के भारी तनाव को। चंडीदास की फोटो के आगे दीपक वैसे ही जल रहा था। सधे हुए अगरबत्ती के धुएँ को कमरे में टंगे रहने की आदत पड़ गई थी।
‘‘माफ करना बेटी.....मैं तुम्हारी बीमारी में तुम्हें देखने नहीं आ सका। ये देखो अपनी पगली माँ को.....इसे विश्वास ही नहीं होता कि चंडी अब इस दुनिया में नहीं है। कहती है वह जरूर लौटेगा।’’ बाबा डायना के सामने कुर्सी पर बैठ गए। माँ एक पल को अंदर गईं कि मुनमुन धीमी आवाज में बोली-‘‘दादा की लाश घर आ जाती तो माँ यकीन कर लेतीं.....पर हमारा दुर्भाग्य....हम उनके अस्थि फूलों को गंगा में नहीं सिरा सके, उनका दाह संस्कार नहीं कर सके तो कैसे यकीन हो?’’
डायना का कलेजा फटने लगा। उसने भी तो जिन्दा चंडी को घाटी में गिरते देखा है, जान तो उसकी बाद में निकली होगी। जान तो डायना की भी निकल चुकी है। डायना की आत्मा चंडी की आत्मा के साथ एकाकार हो चुकी है। शायद इसे ही मौत कहते हैं। यह डायना का दूसरा जन्म ही तो है। चंडी ने ही प्रेरणा दी है कि वह उसके शिशु को जन्म दे और उसके घर को सँभाले।
डायना की सहृदयता, प्रेम और अपनत्व की भावना ने चंडीदास के घर में अपनी जगह बना ली। वह मुनमुन, माँ, बाबा के साथ नीचे पालथी मारकर बैठती और अक्सर दोपहर का खाना वहीं खाती। माछ का झोल और भात......या फिर केले के फूलों की चटपटी सब्जी और मुँह में घुल जाने वाला स्वादिष्ट संदेश। मुनमुन ने उसे साड़ी बाँधना सिखाया जो गभर्वती होने के कारण इन दिनों काफी आरामदायक लगती थी। चंडीदास के घर की आर्थिक हालत से वह परिचित हो चुकी थी। पर एकदम से कुछ करना नहीं चाहती थी.....कहीं माँ, बाबा बुरा न मान जाएँ.....लेकिन क्या करेगी इसके बारे में सोच लिया था उसने। अभी तो उसका पूरा ध्यान अपने शिशु पर था। प्रेम और आध्यात्मिक पुस्तकों से उसकी लाइब्रेरी भर चुकी थी। वह हिन्दुस्तान के लेखकों से बेहद प्रभावित थी। टैगोर के लेखन ने तो उसे मोह ही लिया था। वह अक्सर शांतिनिकेतन जाती। कभी मुनमुन या बाबा साथ होते.....कभी अकेली ही। अब अकेलापन उसकी आदत हो चुकी थी। केवल अंग्रेजों के लिए आरक्षित डांसिंग क्लब में पड़ोस के बंगलों से अंग्रेज दंपत्ति उससे भी साथ चलने का आग्रह करते, एक दो बार गई भी पर ऐसे शोर शराबे में उसका मन नहीं लगता था। बाल रूम्ज में नाचती अंग्रेज अमीरजादियाँ अक्सर गैरमर्दों के साथ भौंडे मजाक करतीं और इसे वे हाईसोसाइटी की कल्चर समझती थीं। ताश, रमी, कैरम, शराब में डूबा यह संसार डायना को कभी लुभा नहीं पाया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्मदिन था। सुबह से ही वह मुनमुन और अपने सेवक बोनोमाली को लेकर जीप से शांतिनिकेतन गई थी। वह रोमांचित थी क्योंकि वह पहली बार अपने प्रिय लेखक को देखेगी। वह जानना चाहती थी कि उनकी कविताओं, उपन्यासों को पढ़कर उसने अपने मन में टैगोर के व्यक्तित्व का जो खाका खींचा है क्या वे हूबहू वैसे ही हैं? उत्तरायण के प्रांगण पर बिछी दरियों पर शांतिनिकेतन के केवल विद्यार्थीं ही नहीं बल्कि कलकत्ता के प्रसिद्ध और समृद्ध व्यक्ति भी बैठे थे। डायना भी मुनमुन के साथ वहीं बैठ गई। बोनोमाली बाहर खड़ा था। वैसे वह ठस्स मूर्ख नौकर नहीं था बल्कि संगीत का जानकार एक अच्छा गायक था और बंगाली भाषा की किताबें पढ़ता था। डायना यह कैसे भूल सकती है कि उसी ने उसे चंडीदास से मिलवाया था। लेकिन अपनी मालकिन के बराबर बैठने की वह कैसे हिम्मत कर सकता है सो वह खड़ा रहा। कुछ विद्यार्थी टैगोर के जन्मदिन की संदेश प्रतियाँ सभी को बाँट रहे थे। उसके पास एक साँवली-सी लड़की आकर रुकी-‘‘मैडम, आप बांग्ला भाषा जानती हैं?’’
इसका जवाब डायना ने बांग्ला भाषा में ही दिया तो उसने बहुत ही सहज भाव से संदेश की एक प्रति उसे दी। मुनमुन अपनी प्रति पढ़ने लगी लेकिन डायना की आँखें टैगोर के इंतजार में बिछी थीं। अँधेरा हो चुका था और टैगोर रचित संगीत नृत्य-नाटिका चंडालिका का एक अंश संगीत कला भवन के विद्यार्थी पेश कर रहे थे। नृत्य-नाटिका में विद्यार्थियों ने अपना सम्पूर्ण कौशल उड़ेल कर रख दिया था। एक-एक भाव भंगिमा मन मोह लेती थी। बहुत सुंदर प्रस्तुति थी। बायीं तरफ की बत्तियाँ बुझी थीं। उजाला बरामदे के मध्य भाग में किया गया था और जैसे अंधेरे में सूरज उगा हो टैगोर दरवेशों जैसा काला चोगा पहने, हलकी-सी झुकी कमर किए, आँखों पर चश्मा लगाए माइक तक आए। डायना मंत्रमुग्ध-सी उन्हें देखे जा रही थी। उसका प्रिय लेखक, गीतांजलि का रचयिता उसके सामने खड़ा था। ऐसी अनुभूति उसे अंग्रेज लेखकों, कवियों विलियम ब्लेक, डन, ग्रे की कविताएँ पढ़कर उनके लिए क्यों नहीं हुई? डायना सोच ही रही थी कि टैगोर ने अपना वही भाषण पढ़ना शुरू किया जिसकी प्रतियाँ बाँटी गई थीं। भाषण इतना ओजस्वी, इतना प्रभावशाली था कि उसके खत्म होने के बाद भी न ताली बजी, न शोरगुल हुआ। चित्रलिखित से श्रोताओं के बीच खामोशी थी, सोच थी। टैगोर लौट गए। बरामदे की बत्तियाँ भी बुझा दी गई। डायना और मुनमुन भी बाहर आ गए। संध्या के सतरंगी माहौल में दिलोदिमाग पर मात्र टैगोर की छवि ही अंकित थी, उनके भाषाण के हर शब्द दिल में गूँज रहे थे। दोनों खामोशी से चलती हुई हरे-भरे निकुंजों के बीच उस तालाब तक आई जो ‘‘हाथी पुकुर’ कहलाता था। वहाँ बोलपुर के जंगलों से एक हाथी रोज पानी पीने आता था। जब वह मरा तो टैगोर ने उस तालाब का नाम ‘‘हाथी पुकुर’ रख दिया। आदमी तो क्या जानवरों तक की इज्जत करना टैगोर जानते थे, तभी तो महान कहलाए। हाथी पुकुर के किनारे हरी लचीली दूब पर दोनों बैठ गईं......इतने विद्यार्थियों, अध्यापकों के होते हुए भी शांतिनिकेतन में एक सुखद शांति थी। उस निबिड़ एकांत में अगर कुछ था तो आसमान पर तनहा चाँद जो तालाब के शांत जल में हौले से उतर आया था। यहीं मुनमुन के सामने डायना ने कबूल किया था कि वह चंडीदास के बच्चे की माँ बनने वाली है। दोनों में अपूर्व प्रेम था।
‘‘मुझे पता है दीदी। दादा मुझसे कुछ छुपाते नहीं थे। उन्होंने ही बताया था कि वे जो दिन रात राधे, राधे जपा करते हैं वो आप ही हैं।’’
डायना चकित थी.....‘‘तो क्या घर में भी सब जानते हैं।’’
‘‘नहीं, लेकिन बाबा को कुछ कुछ आभास हो चला है। वे आपके लिए चिंतित दिखाई देते हैं।’’
‘‘ओह!’’ डायना के मन में एक हिलोर-सी उठी। उस हिलोर में घने दरख्तों के पीछे आँख मिचौली खेलते चाँद की चंद्रिका जगमगा उठी। बड़े-बड़े आम के पेड़ों के नीचे से होकर डायना मुनमुन का हाथ पकड़कर चलने लगी। खुले आसमान के नीचे लगने वाली कक्षाएँ इस वक्त घास का मैदान नजर आ रही थीं। घास पर गुलमोहर, अमलतास के फूलों की पंखड़ियों ने छितराकर गलीचा-सा बुन दिया था। क्या ही अद्भुत लगती होंगी ये कक्षाएँ दिन के उजाले में। गुलमोहर, अमलतास और आम की छाया में विद्या अध्ययन करते विद्यार्थी तपस्वी से लगते होंगे। इस कल्पना मात्र से ही डायना की आँखें मुँद-सी गईं। हालाँकि दिन में कई बार वह शांतिनिकेतन में यह सब महसूस कर चुकी है पर इस वक्त। जबकि यह पता है कि मुनमुन उसके बारे में सब कुछ जानती है....डायाना उन घड़ियों को याद करने लगी जब वह मुनमुन के सामने आई थी। यह सोचकर कि इन सबकी नजरों में वह मात्र मिसेज ब्लेयर है। पर अब?
‘‘नाराज हो मुनमुन?’’ डायना ने झिझकते हुए पूछा।
‘‘किस बात से.....दादा से आपके प्रेम सम्बन्धों से?’’ पल भर रुकी मुनमुन-‘‘दीदी.....अगर वो मौका मेरे हाथ आता.....दादा के जीवित रहते तो सच कहती हूँ मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत होती कि मेरे दादा की प्रेमिका आप हैं।’’
पेड़ों पर पंछियों के पर फड़फड़ाए। एक लम्बी पूँछ वाला मोर एक डाल से उड़ता हुआ दूसरी डाल पर जा बैठा। तभी विद्यार्थीयों का एक झुंड खिलखिलाता हुआ पास से गुजरा।
‘‘चलें?’’ असीम सुख में डूबी डायना ने मुनमुन का हाथ दबाया।
मुनमुन ने डायना का मुख चूम लिया-‘‘मैं खुश हूँ, बहुत खुश हूँ।’’
फिर डायना के पेट पर हाथ फेरकर बोली-‘‘कब तक बनूँगी मैं बुआ?’’
जीप कलकत्ता जाने वाली सड़क पर तेज दौड़ने लगी।
डायना के लिए चंडीदास के संग हुए हादसे को भुला पाना तो कठिन था लेकिन धीरे-धीरे उसने उस हादसे के संग जीना सीख लिया था। वह चंडीदास से सीखे संगीत को भोर होते ही रियाज करके ताजा कर लेती। कहीं.....कभी गलती हो जाती तो चंडीदास सुधार देता जैसे। हाँ, यह अनोखा सत्य डायना के साथ घटित होने लगा था। कभी-कभी वह चंडीदास से शून्य में बातें करती और उसे लगता उसकी बातों के उत्तर उसे मिल गए। यह इस अद्भुत देश का अद्भुत सच था जहाँ आदमी मरकर भी हमारी इच्छा रहते जीवित रहता है। डायना के सर्वांग में चंडी बस गया था.....‘‘तभी तो तुम राधे हो, चंडी की राधे।’ राधा ने भी आजीवन कृष्ण वियोग सहा। फिर भी वे कृष्णमय थीं। वे कृष्णमय होकर ही इस धरती पर मानव धर्म का पालन करती रहीं। कैसी विचित्र बात है कि हिन्दुस्तान में कृष्ण के मंदिर उनकी पटरानियों के साथ नहीं मिलते, राधा के साथ ही मिलते हैं। यहाँ प्रेम पूजा जाता है। वो भी चंडीमय होकर ही रहेगी हमेशा.....जीवन के अंत तक....।
टॉम जब टूर से लौटा तो उसने डायना में गजब का परिवर्तन महसूस किया। डायना का सौंदर्य दुगना हो गया था। चेहरे पर सलोनी आभा झलक रही थी। आँखें मातृत्व के चरम सुख से अर्धनिलीमित सी.....अपने करोड़पति घराने की जो एक कोमलता, नाज-नखरा उसके व्यक्तित्व में था उसकी जगह प्रौढ़ता ने ले ली थी। टॉम को लगा डायना चंडीदास को भूल चुकी है......उस हादसे को, उसकी करतूत को भुला दिया है उसने। पर वह नहीं जानता मातृत्व को......वह नहीं जानता औलाद पैदा करने के सुख को। ईश्वर ने पुरूष को इस सुख से वंचित रखा है। इस सुख में औरत पुरूष से बाजी मार ले गई। ईश्वर भी जब धरती पर अवतार लेता है, दूत बनकर आता है तो उसे औरत की कोख तलाशनी पड़ती है। गर्भवती औरत सृजन के उस काल से गुजरती हैं जब सारी कायनात मातृत्व के चरणों में आ दुबकती है। भारत में तो ईश्वर के पहले माँ को नमन किया जाता है। माँ से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं।
संध्या के सुनहले रंगों के बिखरते ही मौसम की तपिश घटने लगी। गंगा की लहरों को छूकर आई भीगी-भीगी हवाएँ जब कमरे के द्वार पर दस्तक देने लगीं टॉम आकर सोफे पर पैर फैलाकर बैठ गया। सामने वाले सोफे पर पहले से बैठी डायना क्रोशिया बुन रही थी। उँगली में गुलाबी डोरा लिपटा था जैसे नन्हा-सा बटनरोज हो। डायना धीरे-धीरे कोई गीत गुनगुना रही थी। बोनोमाली ने टॉम के लिए नियमानुसार व्हिस्की का पैग बनाया.......ऑमलेट और सलाद पारो रख गई। सब कुछ घड़ी के काँटों से बंधा था.....रोज का एक जैसा रूटीन। लेकिन डायना इस सारे रूटीन से अलग-थलग अपने में ही खोई बैठी थी। अभी टॉम ने पहला घूँट भरकर सिगरेट सुलगाई ही थी कि फोन की घंटी बज उठी। फोन डायना के लिए था।
‘‘कोई मुनमुन है....दीदी को पूछ रही है। कौन है दीदी?’’
डायना ने फोन का चोगा हाथ में थामा.....‘‘मैं।’’
और मुनमुन से मुखातिब हुई.....‘‘हाँ मुनमुन.....नहीं, इस वीक नहीं आ पाऊँगी.....हाँ, एप्लाई कर दो। बायोडाटा जरा प्रभावशाली होना चाहिए, मैं सँभाल लूँगी। तुम चिन्ता मत करो। नहीं, तुम भी इस वीक यहाँ मत आओ। इंटरव्यू की तैयारी में जुट जाओ.....मैं ठीक हूँ.......जयदेव पढ़ रही हूँ आजकल। ओके .......गुडनाइट।’’
फोन रखते ही टॉम की सवालिया आँखों से डायना की आँखें टकराई पर उसने परवाह नहीं की। डायना की बेरुखी टॉम को दंश चुभो रही थी-‘‘तुमने बताया नहीं।’’
‘‘बताया तो कि मुनमुन मुझे दीदी कहती है। वह चंडीदास की छोटी बहन है।’’
‘‘क्या.....तो तुम चंडी को भूली नहीं अब तक? उन लोगों से....उन दो कौड़ी के गुलामों से पारिवारिक रिश्ते भी बना लिए?’’
डायना ने नफरत भरी निगाहें टॉम पर टिका दीं। टॉम की शक्ल में यह कोई शैतानी शक्ति है जो डायना को उजाड़ने पर उतारू है। हिन्दुओं में पुनर्जन्म मानते हैं तो हो सकता है टॉम उसके और चंडीदास के पिछले जन्म का कोई दुश्मन हो। कहते हैं पहले अहं पैदा हुआ, फिर पुरूष.......तो सारा का सारा अहं पुरूष के हिस्से आया। औरत बाद में बनाई गई पुरूष के मनोरंजन के लिए सो वह नत रही। अपनी कोमलता, नम्रता और शालीनता के कारण नत रही हमेशा। इसे पुरूष ने औरत की कमजोरी माना और उस पर शासन किया। टॉम पुरूष के इस व्यवहार से अछूता नहीं इसीलिए वह नहीं मानता कि उससे भूल हुई है, अपराध हुआ है। उसके मन में थोड़ा-सा भी रंज नहीं, थोड़ा सा भी गम नहीं।
‘‘ऊँची सोसाइटी, ऊँचे खानदान से ताल्लुक रखती हो तुम। आखिर क्या देखा तुमने उस परिवार में जो तुमने घरेलू सम्बन्ध जोड़ लिए उनसे।’’
‘‘जो मैंने देखा, उसे तुम देख नहीं सकते टॉम? तुम भोग, ऐश्वर्य और वासना के पुतले हो। कैसे देख सकते हो ऐसे परिवार को?’’
‘‘पाँव की धूल सर पर चढ़ाओगी तो आँख की किरकिरी बनेगी ही।’
अचानक पहली बार डायना के मुँह से निकला-‘‘आई हेट यू....नफरत है मुझे तुमसे।’’
‘‘हाँ, मुझसे नफरत करो और उस मर चुके गुलाम से प्रेम करो....न अपनी गृहस्थी का सोचो, न बच्चे का......क्या यही पत्नी का कर्त्तव्य है?’’
‘‘और पति का? टूर के दौरान हर रात किसी मासूम औरत को अपनी हवस का शिकार बनाना और बावजूद इसके यह सोचना कि पत्नी सिर्फ उसकी होकर रहे। अगर वह आँख उठाकर भी पराए मर्द को देखेगी तो आँखें फोड़ दी जाएँगी, शूट कर दिया जाएगा मर्द।’’
‘‘ओ.....यू शट अप.....और एक शब्द भी कहा तो.....’’
‘‘तो......तो क्या कर लोगे? चंडी की तरह मुझ पर भी गोली चला दोगे? मैं तो चाहती हूँ चलाओ गोली। लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। तुम्हें औरत का शरीर चाहिए और अपार दौलत चाहिए....और ये दोनों तुम्हें मुझसे सहज मिल रहे हैं तो तुम मुझे क्यों मारोगे?’’
टाम एक साँस में पूरा गिलास खत्म कर चप्पल अड़ियाता सोने के कमरे में चला गया। डायना जानती थी अब टॉम कुछ भी नहीं कहेगा। औरत और दौलत उसकी कमजोरी है। टॉम के पास है ही क्या? ईस्ट इंडिया कंपनी की अफसरी भर। वह भी डायना के पिता की बदौलत। पिता ने ही टॉम में व्यापार करने, शासन करने के गुण परख लिए थे। लंदन में वह केम्ब्रिज से अपनी पढ़ाई पूरी कर निकला ही था। टॉम के पिता मामूली किसान थे और अक्सर टॉम के पास कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान खाने तक के पैसे नहीं रहते थे। उसके साथी विद्यार्थी उस पर दया करके कभी खाना खिला देते कभी अपने घर सो जाने की स्वीकृति दे देते। टॉम में लगन थी और वह मेहनती था इसीलिए भले ही काली कॉफी और भुने आलू खाकर उसने रातें बिताई, पर हर परीक्षा में अव्वल आया। उसका एक ही सपना था खूब दौलत कमाना और अमीरों की श्रेणी में आना।
मुद्दतें गुजर गईं। अब याद करो तो दिल डूबने लगता है....वह घड़ी डायना की जिन्दगी में आखिर आई ही क्यों। सालाना जलसे के मुख्य अतिथि के रूप में डायना के पिता को टॉम के कॉलेज ने बुलाया था और वहीं उनकी मुलाकात टॉम से हुई थी जब उसके ग्रुप के द्वारा खेले गए नाटक में सर्वश्रेष्ठ अभिनय के पुरस्कार की ट्रॉफी टॉम को उनके हाथों प्रदान की गई थी। उसी के बाद से टॉम का डायना के घर आना-जाना शुरू हो गया था। तभी से वह देखती आ रही है टॉम की सीढ़ी दर सीढ़ी ऊँचाईयों तक पहुँच, तरक्की.....एक बेहद मौकापरस्त, खुदगर्ज और चालाक व्यक्ति को आखिर उसके पिता ने अपना दामाद कैसे बना लिया? यह चूक उनसे हुई कैसे? वे तो एक सफल बिजनेसमैन थे और सफल बिजनेसमैन एक-एक कदम फूँक-फूँक कर रखता है। फिर अपनी इकलौती बेटी के लिए वे कैसे गलत कदम उठा सके? डायना का दिमाग चकरा गया.....वह टॉम को छोड़ भी सकती है, अलग रह सकती है। पर टॉम उसे चैन से जीने न देगा। डायना टॉम की तरफ से तटस्थ ही है। उसे जो करना हो करे पर इसके एवज में टॉम को भी एक वादा करना होगा.....आज और अभी......डायना तेजी से उठी और टॉम के सिरहाने जाकर खड़ी हो गई। टॉम लेटे-लेटे ही ऊँचा तकिया किए सिगरेट फूँक रहा था। यह भी होश न था कि सिगरेट की राख झड़कर नीचे बिछे कालीन पर बिखर रही है।
‘‘टॉम......’’
टॉम ने डायना की ओर देखा लेकिन सिगरेट उसी तरह पीता रहा।
‘‘टॉम......मैंने हर पहलू से सोचा और यही पाया कि.......’’
‘‘क्या? अब तुम क्या चाहती हो? चैन तो छीन चुकीं मेरा। अब क्या एकांत भी।‘‘
‘‘तुम्हें मुझसे एक वादा करना होगा। वादा नहीं बल्कि समझौता करना होगा। मेरे साथ।’’ डायना पलंग के पास पड़ी ईजी चेयर पर बैठ गई।
टॉम उठ कर बैठ गया। मन ही मन सोच रहा था कि उसका क्रोध इस वक्त बड़े काम आया, डायना कैसी गिड़गिड़ाने को आतुर है। अरे, औरत की औकात ही क्या है जो वह मर्द के आगे सिर ऊँचा कर अपनी मनमानी करते रहने का दावा करे। वह औरत की इस अदा से खूब परिचित है। आखिरकार इन्हें मर्द की मर्जी से ही जीना पड़ता है फिर चाहे वह साधारण औरत हो या असाधारण।
‘‘हाँ बोलो।’’ उसने निर्विकार बने रहने का ढोंग किया।
‘‘आज के बाद अंतिम सांस तक तुम कभी भी मेरा जिस्म नहीं छुओगे। तुम्हारे साथ रहना मेरा इसी शर्त पर मुमकिन है कि वह साथ बिना किसी रिश्ते का होगा।’’
टॉम के ऊपर मानो बिजली-सी गिरी-‘‘यह तुम क्या कह रही हो डायना?’’
‘‘अभी मेरी बात खत्म नहीं हुई है टॉम।’’ डायना के स्वरों में कोई उत्तेजना न थी। जिन्दगी के इस अहम फैसले पर वह पूरी तरह शांत थी।
‘‘तुम मेरे किसी भी काम में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करोगे। और तुम जो हर महीने हमारे पुश्तैनी बिजनेस से मनमानी रकम लेते हो.....तो वह भी निश्चित रूप से तय करके तुम्हें मिलेगी। जितना मैं चाहूँगी। फैसला तुम्हें करना है। मुझे जो कहना था मैंने कह दिया। चाहो तो हफ्ते भर का वक्त ले लो....सोचने के लिए। मुझे कोई जल्दी नहीं है।’’
और डायना बिना टॉम की प्रतिक्रिया का इंतजार किए वहाँ से चली गई। टॉम का गला सूख गया। उसकी सोच के विपरीत डायना के वाक्य तीर की तरह उसके शरीर को छेदे डाल रहे थे। उसने जग से उँडेलकर ढेर सारा पानी पिया फिर भी गला सूखा का सूखा। उसने फिर एक सिगरेट सुलगाई और कमरे में चहलकदमी करते हुए परदे से हॉल में झाँककर देखा। डायना शांत भाव से बैठी क्रोशिया बुन रही थी ओर पारो से दवा और कॉफी लाने का कह रही थीं। आज डायना ने टॉम को उसकी औकात दिखा दी......आज टॉम भी उस नशे से बाहर आया जिस नशे में वह डायना से शादी करके था और डायना के पिता और माँ की मृत्यु के बाद एक राहत-सी महसूस कर रहा था कि अब तो सब कुछ उसका है। लेकिन चंडीदास को कत्ल कर उसने जो भयानक अपराध किया उसके लिए डायना ने जीते जी उसे फाँसी पर चढ़ा दिया....अब वह जिन्दगी भर इस सजा से उबर नहीं सकता।
डायना के मन से एक बोझ-सा उतर गया था और वह काफी हलका महसूस कर रही थी। अब उसके जीवन में सिर्फ उसका प्यार था....उसका चंडी....और आने वाली प्यार की निशानी उसका शिशु.....पारो कॉफी ले आई। बाहर अंधेरा बढ़ चुका था। और सड़क पर रोशनी के धब्बे फैलाते लैम्प जल चुके थे। इस इलाके की सड़क इस वक्त वीरान हो जाती है.....इतनी कि पत्ता भी खड़के तो ब्लॉसम चौंक जाती है। वह क्रोशिया बुनती डायना की गोद में बैठी क्रोशिया के हिलते धागे से खेल रही थी।
‘‘मेम साहब.....रात में सिलाई-बुनाई का काम नहीं करते ऐसे में। बच्चे की आँखें कमजोर हो जाती हैं।’’
डायना ने तुरन्त कोशिया बेंत की डलिया में रख दिया और ब्लॉसम को प्यार करते हुए मुस्कुराई-‘‘और क्या-क्या नहीं करते तुम लोगों में ऐसे में।’’
पारो वहीं कालीन पर बैठ गई और डायना के पैर अपनी गोद में रख तलवे सहलाते हुए बोली-‘‘बहुत परहेज से रहना पड़ता है ऐसे में। लेकिन खाने की इच्छा कभी नहीं दबानी चाहिए नहीं तो लार बहती है बच्चे की। ऐसे में अगर साँप पर अपनी छाया पड़ जाए तो साँप अंधा हो जाता है।’’
‘‘अरे बाप रे.....ऐसा क्यों?’’
‘‘वो तपस्या का पीरियड होता है न, बहुत तेज आ जाता है अपने में। देखो, आप कितनी सुन्दर होती जा रही हो। एक बात बोलूँ मेम साहब.....आप बहुत अच्छी हो.....एकदम यहीं की लगती हो।’’
डायना का मन पुलक से भर गया। उसे चंडीदास याद आया....वह भी तो कहता था-‘‘तुम बिल्कुल भारतीय दिखने लगी हो राधे।’’ और इसी तरह उसके कोमल गुलाबी पैरों का हथेलियों में दबोच कर मसलता था.....वह स्पर्श, वह एहसास आज तक जिन्दा है उसके हृदय में। पारो के हाथों में वह एहसास नहीं, पर इस तरह पैरों का सहलाना.....उसने पैर खींच लिए.....‘‘बस पारो....डिनर का टाइम हो रहा है.......तुम जाओ।’
पारो ब्लॉसम को गोद में लेकर चली गई। उसके भी दूध ब्रेड का वक्त हो चला था। डायना ने पैर सिकोड़कर सोफे में ही समेट लिए। न जाने क्यों दीवाना था चंडी इन पैरों का। कहता था....‘‘चीन में सेक्स का सिंबल होते हैं पैर। चीनी औरतें अपने पैरों को बचपन से ही लकड़ी के जूते पहना कर रखती हैं ताकि वे बढ़े न। मर्द इन छोटे-छोटे टयूलिप जैसे पैरों को मसल कर असीम आनंद में डूब जाते हैं। छोटे पैर उनकी उत्तेजना को बढ़ाते हैं। डायना के पैर भी बेहद सुंदर थे जिन्हें मौका मिलते ही चंडीदास सहलाने लगता था। आज पारो ने उन सुखद स्मृतियों को दस्तक दे दी। रात बढ़ रही थी......उसकी रफ्तार सदा की तरह थी पर डायना की रफ्तार में विराम लग चुका था। अब उसकी रातों में टॉम का कोई दखल नहीं होगा। अपने बेडरूम से लगे दूसरे बेडरूम में वह सोने के लिए चली गई। दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और नाइट गाउन पहन लम्बे चौड़े बिस्तर पर तनहा लेट गई। खिड़की से दिखती बोगनविला की उलझी डालियों के पीछे चाँद भी तनहा, उदास था। न जाने कहाँ से एक बगुला उन डालियों के उस पार से उड़ता हुआ गंगा की ओर चला गया। डायना ने पलकें मूँदकर सोने की कोशिश की।’’
मुनमुन में बहुत कुछ झलक चंडीदास की थी। रंग, रूप, बोलने का ढंग......भाई बहन में फर्क करना मुश्किल होता। मुनमुन भी चंडी की ही तरह संगीत की दीवानी थी और चंडीदास के बाद से इंस्ट्टियूट का काम बखूबी सँभाल रही थी। अभी तो सत्यजित साथ था पर जून जुलाई से नया सैशन शुरू होते ही वह यूनिवर्सिटी की नौकरी में व्यस्त हो जाएगा तब क्या होगा? अकेली मुनमुन के बस का नहीं है इंस्ट्टियूट सँभालना। लेकिन चंडीदास के इस सपने को बंद भी नहीं होने देना है। नए शिक्षक नियुक्त करने होंगे। उनके वेतन का खर्च विद्यार्थियों की फीस से निकल तो आएगा पर घर खर्च कैसे चलेगा? पहले तो सारा खर्च चंडीदास सँभालता था, अब यह नई समस्या आन खड़ी हुई है। इसीलिए मुनमुन अपने लिए स्थाई नौकरी चाहती है।
सत्यजित अब उसके घर पर ही मुनमुन से मिलता, परिस्थितियाँ आदमी को कितना लाचार कर देती हैं। हालाँकि सत्यतिज गंभीर, शालीन और शरीफ घराने का सभ्य पुरूष था, पर चंडीदास के रहते मुनमुन से उसके घर पर ही मिलने की सत्यजित ने कभी हिम्मत न की थी। लेकिन अब बाबा, माँ के हालचाल पूछने के बहाने आड़े दूसरे आता रहता। झोले में कभी सब्जी भर लाता कभी फल। माँ बाबा भी खामोश रहते। अब उनकी प्रतिवाद करने की शक्ति चुक गई थी। लगातार दो संताने खो चुके बाबा की तो बल्कि सत्यजित से मन बहलाने के लिए विभिन्न विषयों पर बहस ही होती रहती अक्सर। बातचीत का मुद्दा आजादी पर आकर टिक जाता।
‘‘आपको क्या लगता है कि हम आजाद हो ही जाएँगे? अंग्रेज भारत छोड़ ही देंगे?’’
‘‘अब और क्या बाकी बचा है सोचने को? देखते नहीं देश के हालात, हर पार्टी अपनी-अपनी तरह से इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिबद्ध है।’’
‘‘बहुत मुमकिन है कि मुस्लिम लीग अपने मिशन में कामयाब हो.....एक अलग वतन.....एक अलग स्वप्न......’’
‘‘होने दो कामयाब। इन फिरंगियों से तो छुटकारा मिले।’’ माँ बीच में ही बोल पड़ीं-‘‘इन्हें देख-देख कर अब मुझे तो भ्रम होने लगा है कि मैं अपने देश में हूँ या पराए।’’
‘‘बहुत जल्द माँ हम सारे राष्ट्र के मालिक होंगे।’’ मुनमुन चाय की ट्रे लिए आती हुई बोली-‘‘लेकिन इस वक्त समस्या ये है कि मुझे नौकरी कहाँ मिले.....इतनी जगह एप्लाई कर चुकी हूँ पर कहीं से कोई जवाब नहीं आया।’’
समस्या तो विकट थी।
स्कूलों में नया सत्र शुरू हो चुका था। नए अध्यापकों की नियुक्तियाँ हो रही थीं। चंडीदास के स्कूल में संगीत अध्यापक का पद रिक्त था.....उसी के लिए डायना ने मुनमुन से एप्लाई करवाया था लेकिन अभी तक इन्टरव्यू का बुलावा नहीं आया था। एक दिन डायना अकेली ही स्कूल गई। हेड मास्टर से मिलकर चंडीदास के घर की हालत बयान की और मुनमुन के लिए सिफारिश की। मुनमुन के गुरू मुकुट गांगुली का नाम सुनते ही हेड मास्टर की बाँछे खिल गईं-‘‘उनकी शिष्या हैं मुनमुन? वे तो बहुत महान गायक हैं। संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं है। मैं आज ही औपचारिकतावश इंटरव्यू के लिए मुनमुन को बुलवा लेता हूँ। आपका काम हो गया मैडम।’’
डायना तसल्ली से भर उठी। वैसे भी इतने बड़े अफसर की करोड़पति बीवी का अनुरोध टालने की हेड मास्टर में हिम्मत नहीं थी। बल्कि उसने तो तपाक से घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और डायना के लिए कॉफी मंगवाई।
उस रात डायना देर रात तक संगीत कक्ष में बैठी तानपूरे पर गीत गाती रही। मुनमुन की नौकरी लगने से उसे जो खुशी मिली थी उसकी प्रतिध्वनि हवाओं में गूँज रही थी। तेज हवाओं में घर के परदे.....हलकी-फुलकी चीजें खड़खड़ा उठी। हलकी-हलकी बरसात शुरू हो गई और गरमी से झुलसी धरती से सौंधी महक उठने लगी। डायना का मन चंडी के लिए कसक उठा...तानपूरे की आवाज में उसके मन का दर्द सिमट आया.....वह गाती रही और बादलों के संग-संग उसके नयनों ने भी बरसना शुरू कर दिया। वे नयन जिन्हें चंडी नीली झील कहा करता था। उस झील में जब चंडी का चेहरा झिलमिलाता तो वह आहिस्ता से उसकी पलकें मूँद देता.....खुद को उसकी आँखों में कैद करके। बाहर बारिश धीमी......तेज होती रही और डायना की आँखों की झील भी तरंगित होती रही। इतनी जोरदार हवा चली कि बगीचे की एक-दूसरे से टकराती डालियाँ और काँच की खिड़कियों के खड़कते पल्ले एकमेक हो गए। तमाम झौंकों ने दिल काट-काट डाला। तानपूरा रख वह उठ खड़ी हुई और बेडरूम में आ गई। ब्लॉसम पूँछ खड़ी क्रर उसके पैरों से अपना बदन रगड़ती साथ-साथ चल रही थी। दीवार घड़ी ने गिनकर बारह घंटे बजाए....तूफान का शोर अब कुछ कम हो चला था।
दूसरे दिन दोपहर तक डायना आराम करती रही। दिन ढले मुनमुन मिठाई का डिब्बा लिए आई। खुशी से खिली पड़ रही थी वह-‘‘लो दीदी.....मुँह तो खोलो, काली माँ का प्रसाद है। मेरी नौकरी लग गई।’’
‘‘मुबारक हो।’’ डायना ने मिठाई का टुकड़ा पहले मुनमुन को खिलाया फिर खुद खाया।
‘‘कब से ज्वाइन कर रही हो?’’
‘‘कल ही से। कल से कक्षाएँ शुरू होने वाली हैं।’’
‘‘तो अब आप संगीत मास्टर हो गईं.....इस बात की ट्रीट देनी होगी। आज शाम का डिनर यहीं करो।’’
पारो चाय-नाश्ता लेकर आई तो मिठाई का डिब्बा मुनमुन ने उसे थमा दिया। पारो ने बंगाली में पूछा कि मिठाई किस खुशी में? कारण जानकर वह वहीं कालीन पर घुटने के बल बैठी और माथा टेककर काली माँ का धन्यवाद करने लगी फिर उसने डायना और मुनमुन के पैर छुए और दौड़ती हुई चौके में भाग गई जहाँ बोनोमाली और वह दोनों बहुत स्पेशल डिनर की तैयारी करने लगे।
चंडीदास की मृत्यु होली के आसपास मार्च के महीने में हुई थी। अक्टूबर में डिलीवरी किसी भी दिन हो सकती थी। सितम्बर मास था, विदा होती बरसात का उमस भरा महीना......डायना को पता चला कि जब से चंडी गया है घर का किराया ही नहीं दिया गया है और मकान मालिक ने तंग आकर सरकारी नोटिस भिजवा दिया है मकान खाली करने का। घर के लोग भयंकर तनाव की स्थिति से गुजर रहे थे। डायना की इच्छा थी कि उन्हें एक घर खरीदकर दे दे ताकि उस गंदी बस्ती से उनका पीछा छूटे और किराए की किल्लत मिटे। डायना अधिक कहीं आती जाती नहीं थी आजकल, तबीयत भी खराब रहने लगी थी। जॉर्ज से कहकर उसने लिटिल रसेल स्ट्रीट पर एक घर बाबा और मां के नाम से खरीदने का प्रस्ताव बाबा के पास भेजा। शाम को बाबा खुद आए डायना के बंगले पर। घबराहट उनके चेहरे पर साफ झलकर रही थी।
‘‘यह क्या बेटी.....कहाँ से लायेंगे हम इतना पैसा?’’
‘‘बाबा.....आप क्यों चिंता करते हैं। वह घर मेरी दोस्त का है जो लंदन वापिस जा रही है। इस वक्त मैं खरीद लेती हूँ, आपका मन हो तो थोड़ा-थोड़ा करके चुका देना।’’
‘‘लेकिन वह जगह तो धनाढयों की है......इतना महँगा मकान।’’ बाबा ने शंका जाहिर की।
‘‘सस्ते में बेच रही है न मेरी दोस्त.....उसे तो जाना है और यहाँ की सारी प्रॉपर्टी बेचकर जाना है। जल्दी में अच्छे खरीददार भी तो नहीं मिलते।’’ डायना ने कहा। बाबा के पास अपने तर्क थे और डायना हर तर्क की काट लिए पहले से तैयार थी। अंत में बाबा को मानना पड़ा। तय हुआ कि कल डायना और जॉर्ज के साथ बाबा कोर्ट जाएँगे। मकान का रजिस्ट्रेशन आदि कल ही निपटा कर पजेशन ले लेंगे।
बाबा को विदा करने डायना गेट तक आई। बाबा ने उसका माथा चूमकर कहा-‘‘पूर्वजन्म का सम्बन्ध है तुमसे.....सदा खुश रहो।’’
डायना देर तक बाबा को जाता देखती रही जब तक कि वे सड़क से ओझल नहीं हो गए।
क्वार मास में बंगाल नवरात्रि की धूम से सराबोर रहता है। पूजा के ये नौ दिन विशेष व्रत, उपवास, पूजा पाठ के दिन कहलाते हैं। नवरात्रि की शुरूआत के पहले चंडीदास के परिवार को यह घर छोड़ देना था। सब इसी संशय में थे कि गृहप्रवेश की पूजा कैसे करें, अभी तक चंडीदास को गए केवल छह महीने ही हुए हैं। मुनमुन का तर्क था कि अब जो बचे हैं उनका शुभ भी तो सोचना पड़ेगा.....अगर हमें कुछ होता है तो क्या दादा की आत्मा को तकलीफ नहीं होगी?
माँ के पास कहने को कुछ रह नहीं गया था। इस घर से जुड़ी गुनगुन, चंडी की यादें थीं, वे उन यादों को समेट कर ले जाने के लिए सहेज रही थीं। इस भारी परिवर्तन से सभी विचलित थे। रहते-रहते जमीन से मोह हो जाता है फिर इस घर में तो बरसों गुजारे थे उन्होंने। देखते ही देखते सब बिखर गया.....शायद इसी को मुकद्दर कहते हैं। बड़ी मुश्किल से बाबा पंडित के पास से मुहुर्त निकलवा कर लाए थे। इतवार का दिन बताया था उसने। चार दिन बाद का।
और शनिवार को टॉम ब्लेयर को एक महीने के लिए ऊटी जाना था। जब से डायना ने उससे दूरियाँ बनाई हैं वह अपनी अच्छाइयाँ प्रगट करने की कोशिश करता रहता है। डायना का नौवां महीना बस पूरा होने ही वाला था कभी भी डिलीवरी हो सकती थी लेकिन बीच में उसका टूर आ गया। उसने डायना के लिए पूरी तैयारी करवा ली थी। अस्पताल में कमरे की बुकिंग, डाक्टर से डीटेल में बातचीत, नर्सेज, दवाएँ, स्ट्रेचर सहित जीप आदि का इंतजाम ऐसे कराया था कि पलक झपकते ही सारे साधन मुहैया हो जाएँ। पारो, बोनोमाली के अलावा ड्राइवर, माली आदि को भी सतर्क कर दिया था। दीना और जॉर्ज को हिदायत थी कि वे पल-पल की खबर साहब को ऊटी में देते रहें। डायना को सारे इंतजामात फिजूल लग रहे थे पर वह खामोश थी.....अब सम्बन्धों में मधुरता तो रही नहीं थी। टॉम को जो अच्छा लगे करे, उसमें क्यों दखल दे।
इतवार के दिन सुबह से मौसम बड़ा खुशगवार था। आसमान पर सफेद रूई के ढेर से बादल छाए थे.....हवा हलकी खुनकी लिए थी। डायना पारो और बोनोमाली के साथ बाबा के नए घर की ओर रवाना हुई। बड़ी आलीशान जगह था मकान ऊँचे-ऊँचे दरख्तों से घिरी चहारदीवारी का लोहे का फाटक खोलते ही अंदर बगीचा था और बगीचे के बीचोबीच हौज......हौज के पानी में सफेद कमल खिले थे। कई बार डायना अपनी सहेली से मिलने इस घर में आ चुकी है। हौज पर भी नजर गई होगी पर उसे याद नहीं कि उसने यहाँ पहले भी कमल देखे थे। बायीं तरफ करौंदे और कचनार के पेड़ों की शाखों पर एक मोर का जोड़ा बैठा था। और नीचे घास पर गौरैया चिड़ियाँ फुदक रही थीं।
हॉल में हवन का इंतजाम था। बस, डायना का इंतजार था। मुनमुन ने डायना को आरामकुर्सी पर बैठाया। पारो पानी ले आई। कमरे में बिछी दरी पर उनके रिश्तेदार और चंडीदास के दोस्त बैठे थे। पूजा आरंभ हुई। बाबा, माँ जोड़े से हवन के कुंड के आगे आसनी पर बैठे। पंडित मंत्र पढ़ने लगा। पूजा के बाद हवन की अग्नि प्रज्ज्वलित कर आहुतियाँ दी जाने लगीं। डायना डबडबाई आँखों से सब कुछ घटित होते देख रही थी। काश, आज चंडी होता तो अपनी राधे को अपने परिवार के बीच बैठे देख कितना खुश होता।
‘‘दीदी, आप रो रही हैं?’’ मुनमुन ने पास आकर घुटने के बल बैठते हुए कहा।
‘‘नहीं तो...हवन के धुएँ से आँसू आ रहे हैं।’’ डायना ने रूमाल से आँखें रगड़ते हुए कहा।
‘‘मैं जानती हूँ दीदी.....दुख हम सभी को है। हवन पूजन होना तो नहीं चाहिए था अभी पर वो हादसा जो हुआ है उसके बाद जरा-जरा सी बात शंका पैदा कर देती है। अगर कहीं चूक हो गई तो फिर न कोई अनर्थ हो जाए इसी से मन घबराता है इसीलिए दीदी......ये पूजा...।’’
‘‘नहीं मुनमुन, मैं वह सब कहाँ सोच रही हूँ? बस, चंडीदास की याद आई और आँखें भर आईं। आज वो होते तो...’’
‘‘एक बात कहूँ दीदी.....अब संकोच की जरा भी बात नहीं रह गई है। बाबा, माँ आप दोनों के बारे में सब जान गए हैं.....यह भी कि आप उन्हें पोता देने वाली हैं.....मैंने सब बता दिया। उसमें छुपाना क्या?’’
मुनमुन सहज भाव से कहे जा रही थी लेकिन डायना के लिए यह खबर भूचाल समान थी। तो माँ बाबा सब जान गए.....क्या वे उसे क्षमा करेंगे? क्या वे चंडी के शिशु को कबूल करेंगे? डायना का गला सूखने लगा। चेहरा पसीने से नहा उठा। साँस लेने में तकलीफ होने लगी ओर दिल डूबने-सा लगा। पारो दौड़कर पानी ले आई।
‘‘दीदी....दीदी....क्या हुआ आपको.....बाबा देखिए तो।’’ मुनमुन लगभग चीख-सी पड़ी। हवन की अंतिम आहुति थी। उसे किसी तरह समाप्त कर बाबा दौड़े। पीछे-पीछे माँ-‘‘लगता है दर्द आने शुरू हो गए। जल्दी एंबुलेंस बुलवाओ।’’
‘‘उसकी जरूरत नहीं। जीप है बाहर।’’ और ड्राइवर बोनोमाली के साथ जाकर जीप से स्ट्रेचर निकाल लाया। लेकिन तब तक चंडीदास के दोस्तों ने डायना को बाहों में उठा लिया था.....वे उसी तरह जीप तक आए और उसे सीट पर लिटा दिया। टॉम का खाली स्ट्रेचर जीप में रख दिया गया। बाबा और मुनमुन साथ गए। पंडित जी और मेहमानों को विदा कर माँ सत्यजित और नंदलाल के साथ आ जाएँगी ऐसा तय हुआ।
भयानक प्रसव वेदना सहकर रात के करीब साढ़े तीन बजे डायना ने बेबी शिशु को जन्म दिया। कोमल, गुलाबी, एकदम चंडीदास जैसी बड़ी-बड़ी काली आँखें, वैसा ही उन्नत ललाट। बाहर गैलरी में बाबा, माँ, मुनमुन, चंडीदास के सारे दोस्त और डायना का सेवक समूह बेसब्री से इंतजार कर रहा था.....नहीं था तो बस टॉम...जैसे नियति को भी मंजूर न था कि अब टॉम डायना की खुशियों में शामिल हो। बेटी पैदा होने की खबर से मुनमुन नाच उठी। बाबा, माँ की आँखों से अश्रु बह चले। वे अपने चंडी के अंश को देखने के लिए उतावले हो उठे। पारो ने वहीं जमीन पर माथा टिका कर काली माँ का धन्यवाद किया और जॉर्ज जल्दी-जल्दी टॉम को फोन मिलाने लगा। करीब घंटे भर बाद डायना से मिलने की सबको अनुमति मिल गई। सबसे पहले माँ बाबा गए। डायना कमजोर थकी-थकी सी लगी। चेहरा पीला पड़ चुका था। होठ पपड़ा गए थे। प्रसव की पीड़ा जो उसने झेली थी....उसका पूरा शरीर बयाँ कर रहा था। बाबा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा-‘‘कैसी हो बेटी?’’
‘‘ठीक हूँ बाबा....’’फिर पालने की ओर इशारा किया जहाँ चंडी का अंश मुलायम कपड़े में लिपटा साँसें ले रहा था। माँ ने उसे गोद में उठाया तो लगा जैसे उनके हाथों में वही कंपन है जो चंडी को पहली बार गोद में लेते समय था। सहसा वे रो पड़ीं। बाबा ने बच्ची को उनसे लेकर वापस पालने में लिटा दिया-‘‘तुम रोती हो, यह तो खुशी की बेला है।’’ माँ ने डायना को चूमते हुए कहा-‘‘ये आँसू भी तो खुशी के हैं।’’
माँ, बाबा के जाते ही मुनमुन आई-‘‘बुआ बनाने का शुक्रिया दीदी।’’
डायना मुस्कुराई....लेकिन दवाओं, इंजेक्शन और प्रसव की थकान से उसकी आँखें मुंदने लगीं। डॉक्टर ने उसे आराम करने की सख्त हिदायत दी थी। वह सोई तो नहीं लेकिन महसूस करती रही पालने में लेटी बच्ची के पास तक आती तमाम लोगों की पहचल को। आँखें मूँदे हुए ही उसे चंडी के गाए गीत की आवाज भी आहिस्ता-आहिस्ता सुनाई देने लगी-‘‘एई कूले आमी, आर ओई कूले तुमी.....’’ डायना आहिस्ता से करवट बदलकर अपने चंडी की बाहों में चली गई......‘‘मैंने नदी नहीं सूखने दी चंडी.....हमारे प्रेम की नदी बह रही है...बहती रहेगी....सदा। तुम अपनी बिटिया को देख रहे हो न....तुम्हीं ने तो सुनाई थी न ब्रह्माकमल की कथा.....जो पानी में नहीं उगता पत्थरों में, घाटियों में उगता है बिना एक बूँद जल के.....फिर भी कितना शुभ्र, कितना सुगंधित कि उसकी सुगंध का जादू मन को अनंत सुख, असीमित आनंद देता है। इसी सुगंध के जादू से सम्मोहित द्रोपदी ने पाँडवों से दुर्गम घाटियों के बीच खिले ब्रह्माकमल को लाने की जिद की थी और भीम कूद पड़ा था घाटी में। मैं ब्रह्माकमल हूँ........पत्थरों में खिला प्रेम का फूल.....टॉम की कठोरता मुझे छू तक नहीं सकी।
बाबा की जिद्द थी कि अस्पताल से डायना पहले उनके घर आए.....अब जब गृहप्रवेश के हवन से मातम का माहौल शुद्ध हो चुका है तो वे एक छोटी-सी पूजा कराना चाहते हैं। डायना को इंकार न था। दसवें दिन पूरी तरह स्वस्थ होकर डायना बाबा के घर आई। जॉर्ज ने इस बात की खबर भी टॉम को तत्काल दी। सुनकर टॉम झल्लाया लेकिन जॉर्ज से अपनी झल्लाहट छुपाकर एकदम स्वाभाविक हो कहा-‘‘ठीक है, बंगले में अभी लौटकर क्या करेंगी। वहाँ उसकी अच्छे से देखभाल हो सकेगी।’’
सारा दिन टॉम शराब पीता रहा और मन ही मन डायना को कोसता रहा। शाम होते ही वह घोड़े पर बैठकर चाय बागानों की ओर चला गया। चाय की पत्तियाँ चुन ली गई थीं और पहाड़ी लड़कियाँ अपनी कमर से टोकरी उतार सुस्ता रही थीं। एक कमसिन खूबसूरत पहाड़ी बाला पर नजर पड़ते ही वह अपना आपा खो बैठा। उसे गोद में उठाकर घोड़े पर बैठाया और डाक बंगले की ओर लौट गया। रात भर उस लड़की के शरीर से वह डायना का बदला लेता रहा। बाहर कड़कड़ाती ठंड में लड़की का बाप बैठा आँसू बहाता रहा। अंग्रेज साहब बहादुर के राज में उनकी मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने की सजा मौत है।
डायना को मुनमुन ने बसंती रंग की जरीदार साड़ी पहनाकर उसके लम्बे बालों का जूड़ा डाला था और माथे पर बिंदी लगाई थी। डायना का रूप खिल पड़ रहा था। बच्ची भी नए रेशमी कपड़ों में बड़ी प्यारी लग रही थी। पूजा के बाद रिवाज था कि बच्ची का नामकरण हो। नामकरण बुआ करती है। मुनमुन असमंजस में थी कि नाम अंग्रेजी हो या हिन्दुस्तानी। डायना ने उसे पास बुलाकर धीमे से कहा-‘‘चंडी की इच्छा थी कि यदि लड़का होगा तो संगीत नाम रखेंगे और लड़की होगी तो रागिनी।’’
मुनमुन खुशी से बावली हो पंडितजी के पास लौटी......
‘‘पंडित जी, रागिनी।’’
पंडितजी ने घोषणा की-‘‘बच्ची की माँ ने बच्ची का नाम रागिनी रखा है। बहुत शुभ और राशि के अनुकूल है यह नाम।’’ कहते हुए उन्होंने रागिनी के माथे पर तिलक लगाया और कलाई में रक्षा सूत्र बाँधा। डायना ने भी रक्षा सूत्र बंधवाया। सभी ने डायना को बधाई दी। रागिनी का आगमन चंडीदास के जाने से पैदा हुए शून्य को भर चुका था।
बाहर बगीचे में हरसिंगार के फूल महक रहे थे। मोर के जोड़े ने भी पंख पसारकर नाचना शुरू कर दिया। अक्टूबर की यह शाम गुलाबी हो उठी।
टॉम टूर से लौट आया था। घर के माहौल में खासी चहल-पहल थी। कोई रागिनी के लिए पानी उबाल रहा है तो कोई दूध। दीना पालने के ऊपर झुनझुने लटका रही थी....पारो रेशमी लिहाफ ला रही थी.....दुर्गादास फूलों से गुलदान सजा रहा था। टॉम का मन उखड़ गया......यह तो वह समझ गया था कि यह बच्ची चंडीदास की है.....उसके ही घर में उसके ही नौकरों द्वारा डायना की नाजायज औलाद की इतनी खातिरदारी? मन हुआ अभी इसका गला दबाकर किस्सा खत्म करें पर डायना के बदले हुए रवैये से वह समझ चुका था कि नित नई औरतों के बाहुपाश नहीं बल्कि डायना की समृद्धि का संरक्षण ही उसके लिए सबसे मौजूँ स्थान है। वह पालने के पास पहुँचा-‘‘ओह माई गॉड.....कितनी छोटी है यह...डायना देखो तो इसके हाथ पैर कितने छोटे और नर्म....जैसे रूई का फाहा हों....और सिर पर बाल.....काले टोप जैसे.....’’
डायना ने उसकी ओर हिकारत से देखा जो इतना सब कर गुजरने के बाद भी कितना नॉर्मल है। टॉम के इस नाटकीय अंदाज से डायना के अंदर एक चिनगारी सुलगी-‘‘टॉम, मेरी बच्ची का नाम रागिनी है।’’
टॉम की आँखों में रेत उड़ने लगी....सहसा डायना की मुस्कुराहट दीपक की लौ की तरह उस रेत में धँसकर बुझ गई....टॉम खिसिया-सा गया.....‘‘वाह, यह तो बड़ा प्यारा नाम है। पर यह मेरी उम्मीदों का भी तो गुलाब है....मेरी रोज....’’
‘‘रोज?’’
‘‘हाँ.....इसका नाम रागिनी रोज ब्लेयर होगा।’’
डायना को जॉर्ज के बेटे याद आ गए-माइकल और नेक्जाद। पर वे तो जुड़वाँ है। टॉम ने कितनी खूबी से उसकी बेटी को भी जुड़वाँ बना दिया पर डायना को यह नाम स्वीकार है। वह तंगदिल नहीं है कि इतनी सी बात के लिए खुद को टॉम के आगे बौना कर ले।
अगली शाम टॉम के बंगले पर रागिनी रोज के जन्म की खुशियाँ मनाई जा रही थीं। बंगला दुल्हन-सा सजाया गया था। उस भव्य आयोजन में अंग्रेज अफसरों का जमावड़ा था। अफसरों की पत्नियाँ रंग-बिरंगी पोशाक में मौजूद थीं लेकिन डायना ने और दीना ने साड़ी पहनी थी। टॉम ने ब्रांडी, वाइन, रम, व्हिस्की, शैंपेन, वोदका से बार सजाया था। जिसको जो पीना हो पिए। वह बताना चाहता था कि आज वह बहुत खुश है.....वह पिता बना है....सृजन की खुशी का क्या कोई माप है? सीमा है? यह तो आत्मा में छुपी वह चीज है जिसे मनुष्य ता-उम्र महसूस करता है। लेकिन डायना जानती थी कि टॉम की खुशी मात्र दिखावा है या डायना को रिझाने की कोई नई चाल। जिस तरह डायना ने यह स्वीकार कर लिया था..... बेझिझक, खुलेआम कि यह बच्ची चंडीदास की है उससे टॉम हिल गया था। उसे अपने हाथ से सब कुछ फिसलता नजर आ रहा था। उसे लग रहा था उसके आगे खड़ा समृद्धि का महल ताश के महल के समान कभी भी ढह सकता है अगर हवा का रूख इस ओर हुआ तो। अब उसका हर कदम सावधानी से रखा कदम ही होना चाहिए।
डायना के लिए अब एक ही काम रह गया था, रागिनी की देखभाल......लेकिन धीरे-धीरे वह भीतर से खोखली होती जा रही थी। चंडीदास का एक स्वप्न तो वह पूरा कर चुकी थी दूसरा पूरा होना था, देश की आजादी जिसके लिए गुनगुन ने कुर्बानी दी थी। वह कहता था...’’काश, ऐसा हो कि हमारा शिशु आजाद भारत में अपना पहला कदम रखे।’’
‘‘ऐसा ही होगा चंडी, गुनगुन की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी।’’
वह संवाद, वह पल अटककर रह गया है डायना की जिन्दगी में और वह लगातार अपना स्वास्थ्य खोती जा रही है। उसे बुखार रहने लगा है और भूख मरती जा रही है। वह जब भी रागिनी की ओर देखती है, उसे छूती है, प्यार करती है उसे लगता है वह चंडी को छू रही है, देख रही है, प्यार कर रही है। उसे पता है कि उसे जल्द ही चंडीदास के पास जाना है......वक्त कम रह गया है......जल्दी-जल्दी बहुत कुछ निपटाना है। एक दिन उसने जॉर्ज को बुलाकर अपनी वसीयत लिखवाने की इच्छा प्रगट की। दूसरे दिन वकील आ गया। वसीयत में उसने अपनी सारी चल-अचल सम्पत्ति, जेवरात आदि रागिनी के नाम कर दिए और रागिनी के बालिग होने तक उसकी देखभाल का जिम्मा और जायदाद की सारी कानूनी कार्रवाई का जिम्मा जॉर्ज और दीना को दे दिया। यह बात पच्चीस जुलाई सन् 1947 की थी और पंद्रह अगस्त को भारत आजाद हो गया। लेकिन उसके पहले चौदह अगस्त को पाकिस्तान बना। प्रकृति जब क्रोधित होती है तो आसमान फट पड़ता है। बिजलियाँ गिरती हैं, ज्वालामुखी फटते हैं, भूकंप आता है। बाढ़ और सूखे की चपेट में इंसान के प्राण दीये की थरथराती लौ के समान बुझ जाते हैं पर यह तो इनसानी बल्कि राजनीतिक फितरत का खूनी खेल था। मासूम निर्दोष मुसलमान यह सवाल लिए विभाजन की आग में कूद पड़ने को मजबूर थे-‘‘कि आखिर हमने किया क्या है? कौन जुदा कर रहा है हमें.....लाहौर क्यों पाकिस्तान बन गया और दिल्ली क्यों हिन्दुस्तान? भारत को आजाद कराने की लड़ाई तो हमने भी लड़ी है। यह पाकिस्तान कहाँ से आ टपका? सनकी तुगलक बादशाह ने भी अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित की थी और दिल्ली का एक-एक इंसान दौलताबाद जाने के लिए मजबूर किया गया था। क्या अपनी जमीन का मोह कोई छोड़ सकता है? लेकिन यह मोह छुड़ाया गया। आजादी की खुशियाँ बंट गईं, दो टुकड़ों में देश बँट गया, दिल बँट गए और बिना किसी कारण के हिन्दू मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। धर्म की आड़ ली गई और सांप्रदायिकता का बीज बोया गया। हिन्दू मुसलमान को पाकिस्तानी कहने लगा और मुसलमान हिन्दू को हिन्दुस्तानी। एक बार फिर कुरूक्षेत्र में महाभारत का युद्ध दोहराया गया। भाई-भाई बँट गए और सीमाएँ निर्धारित कर दी गईं। इस तबाही पर आसमान खून के आँसू रोया।’’
सोलह अगस्त की रात डायना ने चंडीदास की तस्वीर सीने से लगाई और जो सोई तो फिर उठी ही नहीं। सोते हुए ही उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया। वह दिल जो चंडीदास के लिए धड़कता था, चंडीदास के बिना कैसे धड़के......मर तो उसी दिन गया था जब चंडी का कत्ल हुआ था। उसके बिना इतने महीने जीना पड़ा......उसकी वजह चंडीदास के स्वप्न जिन्हें डायना पूरा करना चाहती थी....जिस दिन स्वप्न पूरे हुए डायना निश्चिन्त हो अपने चंडी के पास चल दी।
डायना की अंतिम इच्छा थी कि उसका अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति से हो और उसकी राख नदी में न बहाकर पंचमढ़ी की हाँडी खो में डाली जाए। ‘‘पहुंची वहाँ पर खाक जहाँ का खमीर था।’ और उसकी यह इच्छा पूरी करते हुए बाबा रो पड़े थे......‘‘सती थी डायना.....आज मैंने अपना चंडी दुबारा खो दिया।’’ और इस सारे आयोजन में टॉम केवल एक मूक दर्शक था।
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अब हिन्दुस्तान में बचा ही क्या था जिसकी लालच में टॉम रुकता। वह तो रागिनी से भी छुटकारा पा लेता अगर डायना उसके नाम वसीयत न करती लेकिन अब उसके लिए रागिनी को सुरक्षित रखना अनिवार्य हो गया। जॉर्ज और दीना पूरे तौर पर डायना भक्त थे और टॉम की हरकतों पर उनकी कड़ी नजर थी। लिहाजा दस महीने की रागिनी को लेकर टॉम लंदन वापिस लौटा और जार्ज, दीना और उसके दोनों बेटों सहित डायना की कोठी में रहने लगा। रागिनी की तमाम बातों की जानकारी दीना कलकत्ते में मुनमुन को देती रही क्योंकि डायना की यही इच्छा थी और अपनी बीमारी के दौरान उसने दीना और मुनमुन से वचन ले लिया था कि वे दोनो रागिनी की परवरिश के दौरान आपस में सम्बन्ध रखेंगी।
टॉम की शराब और औरत की लत छूटी नहीं थीं। लंदन में उसके लिए सेक्स का बाजार था जहाँ वह हर रात औरत खरीदता और डायना ने उसके नाम जितना मासिक रूपया तय किया था उसे लुटाता। धीरे-धीरे उसका शरीर बीमारी की गिरफ्त में जकड़ता चला गया। शराब के कारण उसके गुर्दे खराब हो गए....हालत यह हो गई कि वह पूरे तौर पर बिस्तर पर आ गया। लीवर सिकुड़ गया और उसमें पानी भर गया। महीने भर अस्पताल में रहने के बाद जब वह घर लौटा तो पैर जवाब दे गए। किसी तरह घिसट कर छड़ी और दीवार के सहारे बाथरूम तक जा पाता। जबान लड़खड़ाने लगी थी और पेशाब पर कंट्रोल नहीं रहा था। जॉर्ज ने उसके लिए एक नर्स नियुक्त कर दी थी पर वह टॉम के हिस्से की पीड़ा तो नहीं बाँट सकती थी। वह तिल-तिल मर रहा था, छीज रहा था। सही कहा है कि स्वर्ग नरक सब इंसान के बनाए भ्रम हैं। अपने कर्मों की सजा यहीं भोगनी पड़ती है। जब तक सारी सजा भोग नहीं ली जाती तब तक आदमी मरता भी तो नहीं। टॉम ने हिन्दुस्तान में नौ वर्षों के प्रवास के दौरान पैंतालीस औरतों के साथ बिना उनकी मर्जी के संभोग किया था। उनमें से कितनी औरतों ने तो आत्महत्या कर ली थी। तीस निर्दोष लोगों की हत्याएँ टॉम ने अपने अंग्रेज होने के दम पर की थीं और सबसे बड़ा गुनाह था चंडीदास का कत्ल जिसकी वजह से डायना जैसी दयालु, गुणी और भोलीभाली औरत इस दुनिया से असमय चली गई। अब पछतावे के सिवा बचा ही क्या है। काश, वह डायना को प्यार करता.....उसके सुख-दुख में जीता मरता तो आज कितनी शान से वह डायना की संपत्ति का उपभोग करता.....पर......वक्त तो हाथों से फिसल चुका था। कैसे लौटाए टॉम उस गुजरे वक्त को? वह तड़पकर रह जाता, उसे एक-एक कर हिन्दुस्तान के अपने जुल्म-अत्याचार से भरे दिन याद आने लगे और वह सिर के बाल नोचता आहें भरने लगा। दर्द से उसका शरीर फटा जा रहा था। वह तड़प रहा था और नर्स से दवा देने की गुहार कर रहा था पर नर्स ने आज के कोटे की सारी दवा दे दी थी। अचानक उसे ऐसा लगा जैसे उसके सारे शरीर के खून ने एक उछाल मारी है और उसने भलभलाकर मुँह से खून उगला। खून कानों और आँखों के रास्ते भी बह निकला। उस वक्त जॉर्ज और दीना वीकएंड पर रागिनी को टेम्स की लहरों पर लांच से सैर करा रहे थे। कोठी के तमाम नौकर टॉम को अस्पताल ले गए जहाँ जाँच के बाद डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। जितना खून उसने लोगों का बहाया था उस खून का हिसाब अपने शरीर के खून से चुकता कर और अपनी भयानक जानलेवा बीमारी के लम्बे दस वर्ष बिस्तर पर गुजार कर टॉम को मौत भी नसीब हुई तो सड़क पर.....हाँ, अस्पताल ले जाते हुए ऐंबुलेंस में ही उसने दम तोड़ दिया था।
यह अंत पीड़ा का नहीं था, यह अंत उस गुनहगार का था जो लगातार दस वर्षों तक अपने गुनाहों की जेल में सड़ता रहा था। टॉम के मर जाने पर किसी की आँख में एक बूँद आँसू नहीं था। यही तो उसकी त्रासदी थी। भरे पूरे संसार को आँच दिखा वह खुद को सर्वशक्तिशाली समझ अत्याचार के दुर्ग रचता गया और वही दुर्ग उसके कैदखाने हो गए। यूँ एक युग का अंत हो गया।
दीना बताती थी कि रागिनी की मुनमुन बुआ जो कलकत्ते में हैं उसको कितना चाहती हैं। मुनमुन के चेहरे-मोहरे, रखरखाव से रागिनी इतनी परिचित हो चुकी थी कि अगर वह सामने आ जाती और कोई नहीं भी बताता तो भी वह जान जाती कि ये उसकी मुनमुन बुआ हैं। लंदन में बसे भारतीयों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जब वह किसी बंगाली लड़की को गाते सुनती तो उसे मुनमुन बुआ ऐसी याद आने लगती जैसे बरसों साथ रहकर अभी-अभी बिछुड़ी हों उससे और जिनका बिछुड़ना एक शून्य बनकर उसकी जिन्दगी में समा गया है।
जिन्दगी के कई वसंत इसी तरह अहसासों में गुजर गए। अब वह बाकायदा केम्ब्रिज की विद्यार्थी थी जहाँ उसका साँचे में ढला बदन और तीखे नाक-नक्श चर्चा का विषय थे। बहुत सारी अंग्रेज और हिन्दुस्तानी लड़कियों सहित कई लड़के उसके दोस्त थे जो विभिन्न देशों से आए थे। वे खुद ही कमाकर अपने रहने खाने और पढ़ने का इंतजाम करते थे। कुछ पार्टटाइम नौकरी करते, कुछ टयूशन्स और कुछ रेस्तराओं में काम......पार्टटाइम नौकरी करने वालों में सैमुअल था जो अमेरिकन था और जिसे सब सैम कहकर बुलाते थे। सैम से रागिनी की मुलाकात एक क्लास का लैक्चर समाप्त होने के बाद कॉलेज के डायनिंग हॉल में हुई थी। नाश्ते की मेज पर सैम ठीक उसकी बगल में आ बैठा था। दोनो ओर काले गाउन में विद्यार्थियों की लम्बी पंक्ति बैठी थी। डाइनिंग हॉल में चम्मच, प्लेट और छुरी काँटों का शोर था। हॉल के कोने वाली मेज पर लैक्चरर्स और प्रोफेसर्स बैठे थे जिनकी धीमी-धीमी गुफ्तगूँ रागिनी के थके दिमाग पर एक नशीला-सा शोर बनकर छा रही थी। ऊँची-ऊँची खिड़कियों के पार बगीचे में लगे लम्बे लम्बे पेड़ पहरेदार की तरह माहौल को सुरक्षित रखे थे।
‘‘आप केम्ब्रिज की स्टुडेंट है मिस.....’’ अचानक सैम ने उससे पूछा था और वह उसके इस बेतुके सवाल पर मुस्कुराकर रह गई थी।
‘‘माफ करिए, कुछ गलत कहा मैंने?’’ सैम झेंप मिटाते हुए बोला।
‘‘जी नहीं, आप सही हैं। मैं रागिनी रोज......इसी कॉलेज की स्टुडेंट हूँ और अभी-अभी प्रोफेसर की उसी क्लास को अटैंड करके यहाँ आई हूँ जिसे आपने भी अटैंड किया था।’’ दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। कोने की मेज पर से चंद प्रोफेसर्स ने उन्हें चौंक कर घूरा।
‘‘चलिए बाहर चलते हैं।’’
बाहर हलकी-हलकी बूँदाबाँदी हो रही थी। रागिनी के गाल पर लम्बे छतनारे पेड़ों की पत्तियों से कुछ बूँदे चू पड़ीं। सैम ने जेब से रूमाल निकाल कर उसकी और बढ़ाया-‘‘थैंक्स’’......रूमाल में बूँदे जज्ब हो गईं। फिट्ज-विलियम लाइब्रेरी से रागिनी को कुछ किताबें लेनी थीं......‘‘मैं चलूँ?’’
‘‘फिर कब मिलेंगे?’’ सैम ने आतुरता से पूछा।
‘‘चाहे जब।’’
‘‘क्यों न अभी....कुछ वक्त और.....ताकि मैं बता सकूँ कि मैं पेरिस से......’’रागिनी ने सैम की आँखों में विशेष आमंत्रण परख रजामंदी में सिर हिलाया और दोनों हाथ पुलोवर में ठूँस लिए। बूँदें थम चुकी थीं। विद्यार्थियों की टोलियाँ आ जा रही थीं। दोनों लॉन में चहलकदमी करने लगे।
‘‘पेरिस सपनो का शहर है। खूबसूरत और समृद्ध......दिलफेंक नौजवानों का अड्डा.......मैं वहीं से आया हूँ.....पढ़ने और अपनी मंजिल पाने।’’
‘‘बहुत मशक्कत उठा रहा हूँ मंजिल के लिए। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब मैं अपनी विज्ञापन फिल्में बनाऊँगा, डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाऊँगा.....आह, सच।’’
‘‘आमीन’’ रागिनी ने उसके लिए दुआ की। पार्किंग प्लेस से उसकी गाड़ी आहिस्ता-आहिस्ता उसकी ओर बढ़ रही थी। रागिनी ने सैम से विदा ली और लाइब्रेरी की ओर भागी। शैले, कीट्स और एलियट की किताबें अपने नाम इशू कराके वह पंद्रह मिनट में लौट आई। सैम जैसे का तैसा खड़ा मिला, उसी जगह जहाँ वह उसे छोड़ गई थी-‘‘अरे, आप गए नहीं?’’
‘‘आपको गुडनाइट जो नहीं कहा था।’’
‘‘ओह.....हाउ स्वीट.......आप बहुत अच्छे हैं।’’
ड्राइवर ने कार का दरवाजा खोला।
‘‘कहाँ जाएँगे आप? आइए, ड्रॉप कर देंगे।’’
‘‘थैंक्स.....मैं पैदल ही जाऊँगा वरना वह उदास हो जाएगा।’’
‘‘कौन?’’
‘‘है कोई......जीजस लेन पर रोज शाम को खड़ा हो न जाने किस वाद्य यंत्र पर गमगीन धुनें बजाता है। उसके वाद्य-यंत्र रोज बदलते हैं......लेकिन हर वाद्ययंत्र से वही रूला डालने वाली धुन। मैं थोड़ा समय उसके साथ गुजारता हूँ। फिर अपने छोटे से किराए के कमरे में जाकर सब्जियाँ उबालकर पावरोटी के साथ खाता हूँ.......मैं जानता हूँ, शीघ्र ही मुझे इस सबसे छुटकारा मिल जाएगा जब मैं अपना प्रोजेक्ट पूरा कर लूँगा।’’
उस शाम सैमुअल के बारे में बस इतना ही जान पाई रागिनी। फिर हफ्ते भर उससे मुलाकात नहीं हुई। रागिनी लाइब्रेरी से लाई किताबें पढ़ने में मशगूल थी। अक्सर रात को दीना मुनमुन को फोन करती तब रागिनी भी उनकी आवाज सुनने को बेताब हो उठती। फोन पर वे पूछतीं-‘‘मेरी रागिनी कौन सी किताब पढ़ रही है?’’
रागिनी को आश्चर्य होता-‘‘अरे बुआ, आपको कैसे पता कि मैं किताब पढ़ रही हूँ? बुआ, मैं कीट्स को पढ़ रही हूँ...लिखा है....एंड नो बर्ड्स सिंग.......एक भी चिड़िया नहीं चहचहाई। कितनी चोट करती है यह पंक्ति।’’
‘‘रागिनी, चिड़िया की चहक प्रकृति की वह खुशी है जो अनजाने ही हमारे इर्द-गिर्द छाई रहती है....यह बात दीगर है कि हम उसे समझ नहीं पाते।’’
‘‘मैं समझी नहीं बुआ।’’
‘‘अरे पगली, चिड़ियों का चहचहाना प्रकृति की मुखर खुशी का एक हिस्सा ही तो है।’’
कितने अच्छे से समझा लेती हैं बुआ.....न जाने कब देख पाएगी वह बुआ को। दीना गंभीरता से समय के हिस्सों का विभाजन करती......इतने साल में कॉलेज की पढ़ाई.....इतने साल में यूनिवर्सिटी की.....झुँझला पड़ती रागिनी-‘‘क्या बूढ़ी होकर जाऊँगी इंडिया? अभी क्यों नहीं?’’
अब दीना क्या बताए कि अभी रागिनी का हिन्दुस्तान जाना ठीक नहीं......अभी उसका मन सिर्फ पढ़ाई में लगना चाहिए। उसका हिन्दुस्तान जाना केवल मुनमुन के घर का सफर नहीं बल्कि एक ऐसा सफर न बन जाए जो डायना और चंडीदास के प्रेम प्रसंगों और टॉम की अमानुषिकता के कारण उसे रास्तों से भटका दे।
सोच में बेचैन दीना की आँखें कमरे में जलती अंगीठी पर टिकी थीं। नफासतपसंद दीना का कमरा अल्ट्रा मॉडर्न आर्टिस्टिक ढंग से सजा था। .....जार्ज बूढ़ा दिखने लगा था.....दीना के बाल भी शानदार ढंग से सफेद थे.....एक भी काला बाल नहीं था उनमें। उनके दोनों बेटे अमेरिका में सैटिल थे। पढ़ाई कम, बिजनेस ज्यादा। जॉर्ज साल में एक चक्कर अमेरिका का लगा लेता। दीना कभी नहीं गई अमेरिका। वह रागिनी के साथ परछाई सी बनी रहती थी। उसे लगता उसकी एक चूक डायना से किए वादे को झूठा न साबित कर दे। बाहर बाग में प्रिमरोज की लताएँ हवा में हौले-हौले साँस ले रही थीं। दूर चिमनियों में चाँद अटका था।
रागिनी को भी अपनी ममा के समान किताबें पढ़ने की खब्त सवार थी। अंग्रेज लेखकों की एक लम्बी फेहरिस्त है उसके पास जिन्हें वह पढ़ डालना चाहती है। अंग्रेज ही क्यों.....अन्य विदेशी लेखकों को भी। ढेरों किताबें हैं डायना की लाइब्रेरी में- शेक्सपीयर, बेकन, पुश्किन, रूसो, टॉल्सटॉय, दॉस्तोवस्की, लैम्ब, लॉक, हॉब्स, सोल्जेनित्सिन, डार्विन, स्विफ्ट, डिफो, चैटविंड, ब्रूस, चेखव और उसके प्यारे हिन्दुस्तानी लेखक कालिदास, बाण, टैगोर, शरतचंद्र, बंकिम, सुनील गंगोपाध्याय, चंडीदास, महाश्वेता देवी, महादेवी वर्मा, देवकीनंदन खत्री, प्रेमचंद, नजरूल, इकबाल.....ओ माई गॉड, दिमाग चकरा जाता है। क्या इतनी किताबें पढ़ने के लिए एक जन्म काफी है? इन दिनों वह कृष्ण को पढ़ रही है। वह जितना ही उनसे सम्बन्धित पुस्तकें, ग्रंथ, काव्य पढ़ती है, उतना ही उलझती जाती है। कौन-सा रूप स्वीकारे कृष्ण का.....वे तो हर रूप में मोहते हैं।
दीना की कोशिश रहती कि वह रागिनी से टॉम का जिक्र न करे इसीलिए डायना की हर छोटी से छोटी बात वह रागिनी के कोमल मन में उतार देना चाहती थी। एक गायक के तौर पर चंडीदास से भी खूब परिचित करा दिया था उसने रागिनी को। रागिनी के कमरे में फायर प्लेस के ऊपर दो तस्वीरें रखी थी। एक डायना की, दूसरी चंडीदास की। दोनों तस्वीरों के बीच में टैगोर की छोटी-सी चॉकलेटी रंग की मूर्ति थी जिसे शांतिनिकेतन के छात्रों ने खुद बनाया था और जिसे बोलपुर के बाजार से डायना ने खरीदा था। सामने की दीवार पर टॉम की बहुत बड़ी तस्वीर टँगी थी। टॉम की नीली आँखों में रागिनी को कभी कोई भाव नजर नहीं आया जबकि चंडीदास की बड़ी-बड़ी आँखें स्नेहिल नजर आती थीं। न जाने क्यों रागिनी ने चौंककर सोचा कि सैम की आँखें भी तो डैड की आँखों से कितनी मिलती-जुलती लगती हैं।
सैम को रूपयों की सख्त जरूरत थी। पिछले छह महीने से हर शाम साथ गुजारते, कॉलेज की क्लासेज में साथ लैक्चर सुनते, कैंटीन या कॉलेज के डाइनिंग हॉल में संग-संग कॉफी की चुस्कियाँ भरते वे एक-दूसरे के काफी करीब आ गए थे। सैम की जेब अक्सर खाली रहती, पर वह जूतों, कपड़ों ओर अपनी खास अदाओं से रईस नजर आता था। सैम समझ चुका था कि रागिनी करोड़पति घराने की इकलौती वारिस है और जो अब अनाथ है और जिसके पास साँचे में ढला मोहक जिस्म है जो यदि कैमरे के सामने आ जाए तो विज्ञापन की दुनिया में तहलका मचा दे। सैम को इंतजार है वक्त का।
‘‘तुम बी.बी.सी. में कैजुअल अनाउन्सर क्यों नहीं हो जाते? पढ़ाई के साथ-साथ तुम्हारा खर्चा भी निकलता जाएगा।’’
‘‘वो मेरा सपना नहीं है रोज। वहाँ साधारण प्रतिभावाले ढेरों हैं। मैं उस भीड़ में खोना नहीं चाहता......चाहे जब वी.आई.पीज के इन्टरव्यू लो, रिपोर्टिंग करो....यह तो कोई भी कर सकता है। मुझे तो फिल्मों के लिए काम करना है। मैं स्क्रिप्ट राइटिंग भी नहीं करूँगा। बस, कैमरा हाथ मैं लूँगा और डायरेक्शन करूँगा’’ सैम की आँखें सपनों से ओतप्रोत थीं।
‘‘और मैं ऑब्जर्वर या मैसेंजर में न्यूज़ पढूँगी। डायरेक्टर सैम की फिल्मों की, विज्ञापनों के स्टिल सीक्वेंस देखूँगी।’’
‘‘डेफीनेटली, ऐसा ही होगा और जल्द होगा।’’
बावजूद अलग-अलग विचारों के दोनों में प्रेम के अंकुर फूटने लगे। अक्सर कॉलेज से दोनों टेम्स के किनारे चले जाते और थोड़ी चहलकदमी के बाद लांच में जा बैठते। जिन्दगी बड़ी हसीन शै है अगर ढंग से जी जाए, तो वरना रिगदते-रंगहीन दिन और रिगदती रंगहीन रातें। सैम को ऐसे दिन और रातों से सख्त एलर्जी है। लांच सफेद और नीले रंग से पुती थी......लहरों पर चलती यूँ लग रही थी जैसे एक बहुत बड़ा ग्लेशियर हो। शाम का धुँधलका छाने लगा। लांच के पीछे टूटते पानी के सफेद झागदार रास्ते में चाँद ने डुबकी ली और लहरों पर बह चला। दोनों उठकर लांच की रेलिंग से आकर टिक गए। गुटरगूँ करते कबूतर की तरह वे बहते चाँद संग खुद भी बहे जा रहे थे.....भावनाओं के उस बहाव में जो अभी दोनों के अंदर धार बन फूटी थी। अचानक सैम ने रागिनी की कमर में बाहें डालकर उसके होंठों का दीर्घ चुम्बन लिया। रागिनी लड़खड़ा गई। यह सब अप्रत्याशित था। उसने सैम के चेहरे पर सवालिया नजरें गड़ा दीं.....सैम दृढ़ था।
‘‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ रोज, असीमित, अछोर......’’
‘‘सैम मैं अपने मन को भाँप नहीं पाई अभी तक।’’ रागिनी की आवाज धीमी थी।
‘‘नहीं, तुम भी मुझे प्यार करने लगी हो। मुझे पता है। तुम जानो न जानो पर मैं जानता हूँ। और ऐसा होना तो तय था मेरी रोज।’’
‘‘तय? ओह गॉड। यह कैसे जाना तुमने?’’
‘‘जाना भी, महसूस भी किया और अब ऐलान भी।’’ उसने रागिनी का एक हाथ अपने हाथ में पकड़कर ऊँचा उठाया और आसमान की ओर देखकर चिल्लाया-‘‘ऐलाने मुहब्बत।’’
लांच की सीटों पर बैठे मुसाफिर चौंक पड़े। किनारा आ गया था। दीना बदहवास-सी रागिनी को टेम्स के किनारे फुटपाथ पर ढूँढ रही थी। यह पहली मर्तबा था जब इतनी देर होने के बावजूद रागिनी घर नहीं लौटी थी।
‘‘आंटी........’’
‘‘ओह......रागिनी तुम यहाँ? यहाँ कैसे?’’ और अपने सवाल के जवाब में सैम को उसके बाजू में खड़ा देख चौंकी-‘‘आप?’’
‘‘आंटी.....’’रागिनी ने शांत धीमे स्वर में सैम का परिचय दीना से कराया.......दीना जबरदस्ती मुस्कुराई और रागिनी का हाथ पकड़ बोली-‘‘चलो....चलो......जॉर्ज घर पर टेंशन में बैठे हैं।’’
‘‘तो पहले उन्हें फोन कर देते हैं।’’ सैम का आग्रह था।
‘‘हाँ, यह ठीक रहेगा।’’
‘‘रुको, मैं ड्राईवर को फोन करके आने को कहती हूँ।’’
‘‘अरे नहीं, आंटी, हम सब कार से किसी रेस्तराँ में चलकर कॉफी पिएँगे और वहीं काउंटर से फोन भी कर देंगे।’’ दीना को कुछ सूझा नहीं। बढ़ती ठंड गर्म कॉफी को आमंत्रण दे रही थी। कार की पिछली सीट पर दीना और रागिनी बैठे, आगे सैम.....ऐसी ही कीमती शानदार कार को खरीदने का स्वप्न पाले है सैम। उसका मन हुआ वह कार ड्राइव करे....तय है कि जब वह अपनी कार ड्राइव करेगा तो सब कुछ उसकी रफ्तार मे अस्पष्ट हो जाएगा।
रेस्तराँ में आधे घंटे कॉफी के प्याले के साथ गुजार कर जब रागिनी दीना के साथ घर लौटी तो उसके बंद होठों से एक गुनगुनाहट उभरी जिसे दीना ने साफ सुना।
विद्यार्थी जीवन के वे सुनहले साल थे जब सारी कायनात मुट्ठी में नजर आती थी। रागिनी के पुराने मध्यवर्गी दोस्तों में कुछ नए उच्चवर्गीय दोस्त भी आ जुड़े थे जो दिन में सपने देखते थे, शामें उनकी हंगामे भरी होती थी। शाहरा वकालत पढ़ रही थी। उसे बरसों पुराना न जाने कौन-सा केस जीतना था और उसकी इस घोषणा पर सब ठहाका मार कर हँस देते थे। सबा हंगेरियन भाषा सीख रही थी। डोरा संगीत....मिला जुला.....अफ्रीकी भी, अंग्रेजी भी और हिन्दुस्तानी भी। वह जब अपने इस मिले-जुले संगीत का खिचड़ा परोसती तो सैम और जोजेफ संग-संग थिरक उठते थे। जोजेफ इंजीनियरिंग कर रहा था। शाहरा सलैका के पिता अमीर व्यापारी थे। सबा और शाहरा चैलसी में शानदार अपार्टमेंट में रहती थीं। जहाँ इतनी खूबसूरत इमारतें हैं कि इमारतों के मुख्य द्वार से ही बिछा लाल रंग का कारपेट इमारत की भव्यता का ऐलान करता है। खंभों से चिपके रखे चीनी मिट्टी के गमलों में चौड़े पत्तों वाला मनीप्लांट, रबर प्लांट और क्रिसमस ट्री सारे माहौल को खुशनुमा लुक देते हैं। वर्दी से लैस वॉचमैन मानो आदेश की प्रतीक्षा में ही खड़े रहते हैं।
डोरा अपने को कला जगत से जुड़ा इसलिए भी महसूसती थी क्योंकि वह रहती ही थी सेंट जॉन्सवुड इलाके में जो कलाकारों, अभिनेताओं और बुद्धिजीवियों का गढ़ माना जाता था। पूरे इलाके में फैली सड़कें छायादार दरख्तों से घिरी थीं। यूँ तो आभिजात्य वर्ग के रहवासियों-सा सन्नाटा रहता वहाँ, पर घरों के अंदर अलहदा अलहदा कल्चर पल रही थी। शाम होते ही यह कल्चर शोर बन कर या तो नुक्कड़ के इटैलियन रेस्तरां में आ धमकती या बगीचों, पब और कॉफी हाउसों में समा जाती। जहाँ होते हर मौजूदा विषयों पर तर्क-वितर्क, खोज। सारी दुनिया की घटनाओं पर बहस मुबाहिसा होता। अगर नहीं था तो, प्रेम, सौहार्द, समझ। एक बिगडैल कल्चर युवा पीढ़ी में पनप रही थी।
रागिनी के भारत प्रेम पर सब दंग थे और इस बात पर भी कि वह रिसर्च करना चाहती है भारतीय आध्यात्म के महानायक और सम्पूर्ण कलाओं से पूर्ण कृष्ण पर.....। लेकिन समीर उसकी इस चाहत को पूरा सपोर्ट देता। समीर खान पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक निहायत छोटे से गाँव से यहाँ इंजीनियर बनने आया था। बेहद भोला मासूम और दयालु स्वभाव का।
‘‘सचमुच कृष्ण महानायक हैं। तभी तो उन्हें चाहने वालों को न अपने वतन की सीमाएँ रोकती हैं, न मजहब। रसखान मुस्लिम थे। उनका नाम था सैयद इबराहिम। रसखान की उपाधि उन्हें अकबर ने दी थी। क्या गजब का कृष्ण के बाल्यकाल का वर्णन है उनकी कविताओं में......।’’
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौं ले गयो माखन रोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकिती बारिधी काम कलानिधि कोटि।
‘‘समीर......’’रागिनी अवाक थी। सभी जहाँ के तहाँ जम से गए थे। बस सैम ही था जो माहौल से बेअसर सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा था।
‘‘रागिनी.....रसखान ही क्यों......निगार सहबाई भी कृष्ण पर मोहित थीं।’’
‘‘पाकिस्तानी शायरा निगार सहबाई न.....’’
‘‘हाँ लिखती हैं-
‘रास्ता न रोको नटखट श्याम, सौ सौ बार करूँ परनाम
आँचल न खैंचो गोकुल के वासी, हो जाऊँगी बदनाम’
क्यों वृन्दावन के नटखट श्याम और बदनामी के डर से झिझकती गोपी ही याद आई शायरा को? लैला मजनूँ क्यों नहीं?’’
‘‘एई समीर.....हो क्या गया है यार तुम्हें। दिन रात किताबें पढ़ते हो तुम, झेलना पड़ता है हमें।’’ जोजेफ उकता रहा था।
‘‘झेलो भी और तारीफ भी करो.....क्या यार, थोड़ा आज की दुनिया में लौटो डियर।’’ सैम ने जूतों तले सिगरेट रगड़ी।
रागिनी तैश में उठी-‘‘मैं चलती हूँ। समीर तुम आना चाहो तो आओ मेरे साथ.....आओगे तो अच्छा लगेगा मुझे।’’
‘‘कहाँ?’’ समीर पतलून झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ।
‘‘किसी रेस्तराँ में चलते हैं जहाँ कॉफी पीते हुए हम कृष्ण चर्चा करेंगे।’’
रागिनी तेजी से कार की ओर बढ़ी, समीर संग हो लिया। सैम चिल्लाता रह गया-‘‘अरे रोज, रुको तो......।’’
‘‘क्या हुआ रोज को?’’
‘‘उसके कृष्ण का मजाक जो उड़ाया है जोजेफ और सैम ने’’ वह बुरा मान गई।
सब तितर-बितर हो गए। बस, सैम बैठा रहा। उसने दूसरी सिगरेट सुलगा ली थी।
‘‘मैं तुम्हें हिन्दू समझती थी। तुम्हारा नाम कन्फ्यूजन पैदा करता है। हिन्दी में समीर हवा को कहते है।’’ रागिनी ने कॉफी की घूँट भरते हुए कहा।
‘‘लेकिन इस्लाम में काबे के पानी भरे रास्ते को समीरा कहते हैं। मेरा नाम समीरा खान है, लोग मुझे समीर कहते हैं। तुम्हारे दो नाम क्यों हैं......ब्रिटेन और इंडिया के।’’
यह प्रश्न तो रागिनी को भी कुरेदता है। रागिनी हिन्दुस्तानी नाम है और रोज विलायती। दीना ने बताया था।
‘‘मैडम डायना गायिका थीं न, इसलिए तुम्हारा नाम रागिनी रखा उन्होंने और टॉम सर ने रोज।’’
‘‘तुम्हारा नाम खुद एक गीत की पंक्ति है।’’ समीर ने रागिनी के चेहरे की ओर बहुत स्नेह से देखा। जिन्दगी में पहली बार रागिनी शरमा गई। बहुत अनछुए एहसास से गुजरी वह।
‘‘तुमने रिसर्च के लिए कृष्ण को ही क्यों चुना?’’
रागिनी की आँखें चमकने लगीं-‘‘कृष्ण एक अद्भुत व्यक्तित्व है। मेरी ममा कृष्ण दीवानी थी। कृष्ण का हर पल होठों पर विराजमान करने के लिए ममा ने संगीत सीखा। कृष्ण के भजन सीखे। कृष्ण पर लिखा गया तमाम साहित्य पढ़ा। मैंने ममा को कभी नहीं देखा लेकिन वे हर रात मुझसे यही आग्रह करती हैं कि मैं कृष्ण पर रिसर्च करूँ। मैं भारत जाऊँ। भारत में मंत्रों की अपार शक्ति है। वहाँ जन्म से लेकर मृत्यु तक वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है, हर रीति-रिवाज का पालन करते हुए। मैं जब वैदिक मंत्रों को पढ़ने की कोशिश करती हूँ तो मेरा मन अंदर तक अनुभूतियों की हलचल से भर जाता है।’’
समीर अवाक था-‘‘तुम तो अंग्रेज हो रागिनी?’’
‘‘पर मेरा जन्म तो भारत में हुआ। मेरी ममा की मृत्यु भी भारत में हुई। मुझे जिन्होंने अपनी ममता, स्नेह, देकर पाला वो दीना आंटी और जॉर्ज अंकल भी हिन्दुस्तानी हैं। मेरी बुआ मुनमुन भी हिन्दुस्तानी है। हिन्दुस्तान मेरे लिए किसी तीर्थ से कम नहीं।’’
समीर गंभीर हो गया-‘‘मैं भी हिन्दुस्तान में पैदा हुआ क्योंकि तब मेरा गाँव हिन्दुस्तान में था।’’
अचानक उसकी आवाज बुझ-सी गई। यह एक बहुत पीड़ादायक बात थी उसके लिए......उसके अपने तर्क थे जिसमें भारत विभाजन गलत था। रागिनी ने भी ठंडी साँस भरी।
‘‘समीर......राजनीतिक बुद्धि नहीं है मुझमें......शायद इसीलिए समझ नहीं पा रही हूँ। कौन से कारण हैं जो भारत विभाजन हुआ? और जमीन बंटी तो लोग भी क्यों बंटे। क्यों उन्हें साम्प्रदायिकता की आग में झोंका गया। इतनी तबाही, इतनी मौतें?’’ थोड़ी देर दोनों खामोश रहे। खामोशी से कॉफी खत्म की।
कुर्सी से उठते हुए दोनों ने देखा बाहर अंधेरा घिरने लगा था। सड़क पर शाम के घुमक्कड़ों का सैलाब था। जिनके बीच से रागिनी की कार ने समीर को ब्यूटी पार्लर के सामने उतारा-‘‘तुम यहाँ क्यों उतर रहे हो समीर?’’
रागिनी का इशारा समझ समीर ठहाका लगाकर हँसा। पार्किंग प्लेस न होने के कारण कार रेंग रही थी। खिड़की को पकड़े समीर कदम दर कदम चलता हुआ बोला-‘‘वो जो बाईं ओर सड़क से नीचे की ओर उतरती सीढ़ियाँ हैं न, उसी गली में मेरा कमरा है। गली के नुक्कड़ के ढाबेनुमा रेस्तराँ में नॉनवेज बहुत स्वादिष्ट मिलता है। हमारे कश्मीर जैसा भेड़ का गोश्त।’’ कार ने रफ्तार पकड़ ली थी। समीर पीछे छूट गया था।
सैमुअल पढ़ाई को तिलांजलि दे रुपयों के जुगाड़ में जुट गया था। एक प्राइवेट कम्पनी से भारी ब्याज दरों पर उसने लोन लिया और विशाल ओक वृक्षों से घिरी बहुमंजिली इमारत में बीसवीं मंजिल पर अपना ऑफिस खोल लिया था। उसे कुछ नए विज्ञापनों के अनुबंध भी मिल गए थे जिन्हें नए से नए रूप में फिल्माने मैं उसने जी-जान लगा दी थी अपनी। इन विज्ञापन फिल्मों के कैसेट्स दिखाने, प्लाईवुड की बेहतरीन कारीगरी से सुसज्जित अपना ऑफिस दिखाने को बेताब सैम मौका तलाश रहा था कि कब वह रागिनी को यहाँ लाए।
दीना और जॉर्ज ने रागिनी रोज की बाईसवीं सालगिरह पर ‘‘डायना विला’’ को दुल्हन-सा सजाया था और रागिनी की तमाम मित्र मंडली को बुलाया था.....सभी की पढ़ाई लगभग पूरी होने वाली थी और सभी भविष्य के सपनों को गढ़ने में जुटे थे। कुछ लड़कियाँ शादीशुदा होने वाली थीं जिनके लिए विवाहित जिन्दगी एक सुनहला संसार थी। ये भोली-भाली मासूम लड़कियाँ यह नही जानती थीं कि चाँद, तारे, फूलों, खुशबू और प्यार की कल्पना से सजा उनका यह जादुई संसार मात्र एक भुलावा था.....रणभूमि में शहीद हुए सैनिक का नाम शहीद स्तंभ पर तो लिखा होता है, इतिहास की किताबों में तो लिखा होता है, उसके नाम की मशाल तो जलती है पर विवाह की वेदी पर तिल-तिल मरती इन लड़कियों के त्याग, बलिदान का कभी कोई मूल्य नहीं आँका जाएगा।
शाहरा को एक इटैलियन लड़के से इश्क हो गया था वह उसके हाथ में हाथ डाले पार्टी में थिरक रही थी। डोरा उदास थी। उसका बस चलता तो वह कोई उदासी भरा गीत छेड़ देती पर सबा ने सख्त मनाही कर दी थी कि ‘‘कम से कम आज के दिन तो किसी को मत बताना कि जिस संगीत संध्या की तुम पिछले दो महीनों से तैयारी कर रही हो वह स्पांसर्स के आपसी झगड़ों के कारण कैन्सिल हो गई है।’’ सबा अधिक से अधिक समय डोरा के साथ ही थी। रागिनी का हुस्न फूटा पड़ रहा था। उसने सफेद मिंक गाउन पहना था। जिसमें हीरे ही हीरे जड़े थे। सिर पर सफेद हैट, कुहनियों तक सफेद दस्ताने, गले में हीरे का नैकलेस, ऊँची एड़ी की नाजुक-सी सफेद सैंडिलों में जड़ा एक एक नायाब हीरा.....कुछ यूँ हुआ कि रागिनी जब केक पर जलती मोमबत्तियाँ बुझाने को झुकी तो मोमबत्तियों की लौ उसके जगमगाते हीरों को सौ गुना जगमगाने लगीं और तभी एक बड़े से लाल गुलाब के बुके के साथ सैमुअल ने प्रवेश किया। वह पलक झपकाना भूल गया। चाँदनी-सी शुभ्र जगमग......उसकी प्रेमिका दिव्य परी-सी उसके सामने खड़ी थी। वह जहाँ का तहाँ ठिठक गया और उसके मन में ख्याल आया कि वह जो मॉडल की तलाश में भटक रहा है.....वह रोज से बेहतर और कौन हो सकती है।
पार्टी देर रात तक चलती रही। संगीत, ठहाके, मौज मस्ती.....धमाल मची रही डायना विला में। उस रात सैम ने मौका पाकर अपनी रोज से वादा ले लिया कि वह शानिवार को उसे लेने आएगा और अपना ऑफिस दिखाने ले जाएगा। रोज भी तो देखे कि उसने कितनी मेहनत की है अपना लक्ष्य हासिल करने में। वह जी जान से लगा है। उसकी कोई दिनचर्या नहीं रह गई है। सिर्फ लगन है और बस लगन। उसके सपनों का समंदर जब अँगड़ाई भरता है तो लहरें उसके संकल्प की चट्टानों से टकराती हैं। उसे देखना है कि लहरों में टकराने की ताकत ज्यादा है या चट्टानों में बर्दाश्त करने की।
सड़कों के किनारे हेमंत की बयार में पेड़ों से टूटे लाल रंग के पत्तों के ढेर से अटे थे। लाल रंग अनुराग का रंग भी है और विध्वंस का भी। विध्वंस का सोच रागिनी का दिल कबूतरी-सा धड़क उठा। उसने बाजू में बैठे सैम का हाथ जोरों से पकड़ लिया। यह शानिवार का दिन था और वादे के मुताबिक सैम उसे अपने ऑफिस ले जा रहा था।
लिफ्ट से बाहर आकर दरवाजा खुलते ही नए प्लाईवुड की गंध नथुनों में समा गई। सैम ने कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रागिनी को कुर्सी पर बैठाया और थर्मस में रखा पानी गिलास में उड़ेलने लगा-‘‘ये है इस नाचीज की कर्मभूमि। पहले कॉफी पीते हैं फिर मैं तुम्हें अपना प्रोजेक्ट दिखाऊँगा।’’
कॉफी अच्छी बनी थी। साथ में बिस्किट थे जिन्हें कुतरते हुए सैम ने टीवी ऑन किया और अपनी बनाई विज्ञापन फिल्म का कैसेट लगा दिया। एक ठंडे पेय की फिल्म थी जिसमें बहुत ही साधरण-सी दिखने वाली मॉडल के दरिया किनारे स्विमिंग कॉस्टयूम में खींचें कुछ शॉट्स थे। रागिनी ने फिल्म की तारीफ की तो सैम हँस दिया।
‘‘नहीं डियर......झूठी तारीफ नहीं......इस तरह तो तुम मेरे अंदर के कलाकार को मार दोगी....कमियाँ गिनाओ मेरी जान.....कमियाँ....वही तो माँजेगा मुझे। क्या तुम्हें पता है मैं गिटार भी अच्छा बजा लेता हूँ।’’
उसने गिटार उठाकर उस पर प्यारी-सी धुन छेड़ दी। रागिनी खोई-सी दूसरी ही दुनिया में विचरती रही। अक्सर ऐसा होता है। जब भी वह संगीत सुनती है उसके सामने ममा की दुनिया खुलने लगती है। चंडीदास की दुनिया खुलने लगती है। फिर रागिनी, रागिनी नही रह जाती.....ममा और चंडीदास में लीन हो स्वयं को मिटा देती है वह।
‘‘क्या हुआ.....क्या सोचने लगी?’’ सैम ने उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया न देख पूछा। रागिनी ने खुद को सँभाला। ‘‘मैं तुम्हारे बजाए गिटार की धुन में डूबी जा रही थी।’’ सैम ने रागिनी को चूम लिया।
अब रोज ही सैम को रागिनी का इंतजार रहता। वह खुद ही बिला नागा ‘‘डायना विला’ जाने लगा। परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थीं और सभी को रिजल्ट का इंतजार था। रागिनी की मित्र मंडली तितर-बितर हो चुकी थी, एक खुशनुमा फेयरवेल पार्टी के बाद। कॉलेज का विदाई समारोह सबको रुला गया। कॉलेज परिसर का हर कोना मानो आवाज देकर कह रहा था।-‘‘जाओ मेरे विद्यार्थियों, जिन्दगी के समर में प्राणपण से कूदो। इस लड़ाई से कभी पीछे नहीं हटना क्योंकि यह तुम्हारी अपनी लड़ाई है।’’ फेयरवेल के बाद रागिनी की कार में सभी आ बैठे। सभी एक-दूसरे से फोन और पत्र से संपर्क रखने के वादे कर रहे थे। पतों और फोन नंबरों को आदान प्रदान कर रहे थे। भरे गले से एक-दूसरे को दिलासा दे रहे थे कि हम मिलते रहेंगे।
सबा को छोड़कर सभी टयूब स्टेशन पर उतर गए। सबा को पूरी शाम रागिनी के साथ गुजारनी थी और सैम उकता रहा था कि उसकी एक कीमती शाम इस तरह जाया हो रही है। वह बार-बार रागिनी की ओर देख आँखों ही आँखों में इशारे करता पर हर बार रागिनी को सबा के साथ बातों में तल्लीन पाता।
‘‘रागिनी, आज लांगड्राइव पर चलो न, आज मैं हवा के साथ उड़ना चाहती हूँ। तितलियों के संग नाचना चाहती हूँ, भौरों के संग गाना चाहती हूँ.....क्या पता कल क्या हो?’’
‘‘सबा, कल बहुत कुछ होगा....देखो, यह तुम्हारा आज गुजरा वक्त ही रद्दी की टोकरी में फिंक जाएगा और आने वाली सुबह......जैसे बासी अखबार.....’’
‘‘नहीं रागिनी....यह आज अनुभवों की नींव मजबूत करेगा.....सुनहला अतीत बन हमारी जिन्दगी की किताब में दर्ज हो जाएगा।’’
दोनों साखियो के आज और कल के फलसफे में सैम धँसा जा रहा था। उबरने का उपाय न था। कार सुनसान लम्बी सड़क पर दरख्तों के साए में दौड़ने लगी। बहुत देर बाद रागिनी ने एक जगह कार रुकवायी। वह अंग्रेज लेखक एलियट की कब्र थी। जंगली घास पथरीली हिस्सों में भी उग आई थी। घास के झुरमुट को छेड़ो तो मच्छर भिनभिनाने लगते थे। कब्र पर लिखा था-‘‘इन माई एंड इज माई बिगनिंग.....मेरा अंतर ही मेरी शुरूआत है, यही तो गीता की भी फिलॉसफी है कि आत्मा कभी नहीं मरती, वह केवल नया शरीर धारण करती है जैसे नदी में नहाकर मनुष्य भीगे पुराने कपड़े उतारकर नए धारण करता है। तीनों कुछ देर मौन खड़े रहे। कब्र पर आगे लिखा था- प्लीज, प्रे फॉर मी...’’ यह लालसा क्यों? मृत्यु के बाद नश्वर जग से आखिर नाता ही क्या रह जाता है? न जगत से, न सगे-सम्बंधियों से। फिर कोई प्रार्थना करे न करे, क्या फर्क पड़ता है?
भारी मन से वे आकर कार में बैठ गए। ‘‘हाऊ सैड सबा.....ऐसी ड्राइविंग चाहती थीं तुम?’’ सैम ने रूखेपन से कहा।
‘‘यह भी तो जिन्दगी का एक हिस्सा है, हमें नहीं भूलना चाहिए कि एक दिन हमारा भी अंत होना तय है।’’
‘‘हुंह.....जिन्दगी तो जी लो पहले।’’ सैम ने आहिस्ते से कहा पर रागिनी ने सुन लिया। उसे सैम का इस तरह बोलना अच्छा नहीं लगा। हर वक्त जिन्दगी जीने के बहाने खोजना ही तो जिन्दगी नहीं है पर यह बात वह क्यों समझेगा।
दोस्त विदा हो चुके थे। रागिनी के पास वक्त ही वक्त था जिसे वह लाइब्रेरी से लाई किताबों को पढ़ने में जाया करती। ममा का कृष्ण साहित्य संग्रह वह गौर से पढ़ रही थी। सारे काव्य, सारे ग्रंथ पढ़ डालने की उद्दाम लालसा संस्कृत न आने की वजह से अटक जाती थी। दीना ने उसके लिए एक भारतीय टयूटर का प्रबंध कर दिया था और जब भारतीय टयूटर उमाशंकर ने बताया कि उसने छह साल तक जर्मनी में यूनिवर्सिटी में संस्कृत पढ़ाई है वह भी जर्मन विद्यार्थियों को तो रागिनी चकित रह गई। यह तो तय है कि भारतीय भाषाओं को विश्व मंच पर लाने का अधिकतर श्रेय जर्मनी को ही जाता है। वहाँ जर्मन प्रोफेसर हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते हैं और वहाँ की लाइब्रेरी में सारे भारतीय ग्रंथ मौजूद हैं। ग्रंथ तो लंदन में भी मौजूद हैं। लंदन में भारतीय अधिक हैं बल्कि यह शहर तो एक तरह से भारत के बम्बई जैसा ही नजर आता है। रागिनी की कृष्ण में अटूट रुचि देखकर उमाशंकर ने बताया-‘‘रागिनी यहाँ पर कई वेदान्त भक्त फेमिलीज हैं जो लॉर्ड कृष्ण की भक्त हैं। वे मानती हैं कि कृष्ण तो हमारे नजदीक हमेशा से ही है। बस, उन्हें देखने के लिए एक तीसरी आँख भर चाहिए।’’
‘‘वह आँख मेरी ममा के पास थी। उन्होंने कृष्ण के साक्षात दर्शन किए हैं।’’ रागिनी ने भावविभोर होकर कहा।
‘‘हाँ, मुझे दीनाजी ने उनके बारे में सब कुछ बताया है। वे महान थीं.....उन्होंने कृष्ण को प्रेम करके हमारी सदियों पुरानी ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की परम्परा को सार्थक कर दिया।’’ और उमाशंकर ने आँखें बंद कर डायना को नमस्कर किया।
‘‘क्या आप मुझे वेदान्त भक्तों से मिलवायेंगे।’’
‘‘हाँ...हाँ....यह तो बहुत आसान है। यहाँ कृष्णजी के मंदिर में वे आसानी से हमें मिल जाएँगे। उनका सत्संग तुम्हारी थीसिस के बहुत काम आएगा।’’
हाँ, मुझे कृष्ण पर ही अपनी थीसिस लिखनी है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में नाम लिखना है। पहले पोस्टग्रेजुएट फिर थीसिस वर्क शुरू। रागिनी ने सोचा।
कमरे की खिड़कियों के पल्ले झूल-झूलकर तूफान का संकेत दे रहे थे। उमाशंकर को बीबीसी जाना था। वहाँ उनका प्रोग्राम था। लेकिन यह बर्फानी तूफान.....थोड़ी ही देर में बर्फ से सड़कों के किनारे अँटने लगे।
‘‘मुझे चलना चाहिए वरना यह तूफान।’’ उमाशंकर ने व्याकुलता से कहा।
‘‘इस तूफान में आपका जाना ठीक नहीं। बीबीसी वाले भी समझते हैं।’’
घंटे भर बर्फ गिरती रही। थमने के बाद उमाशंकर की उतावली देख दीना ने कार से उन्हें जाने की सलाह दी। बाहर थोड़ी-थोड़ी बर्फ पिघलती जाती और मिट्टी के संग मिलकर कीचड़ बनती जाती। पोर्च की सीढ़ियाँ पर लाल पत्तियाँ बर्फ के नीचे दबी थरथरा रही थीं।
यूँ तो रागिनी ने ऑक्सफोर्ड में पोस्टग्रेजुएशन के लिए दाखिला ले लिया था और बाकायदा पढ़ाई शुरू कर दी पर नए माहौल में वह अपने को खपा नहीं पा रही थी। उमाशंकर ने भी आना बंद कर दिया था क्योंकि संस्कृत बहुत जल्दी और बहुत अच्छी तरह सीख चुकी थी रागिनी। उमांशकर को ताज्जुब था रागिनी की पकड़ पर। ऐसे विद्यार्थी विरले ही मिलते हैं। संस्कृत सीखते हुए ही उसने उमाशंकर के दिए तमाम ग्रंथों को पढ़ लिया था जिसमें सबसे अधिक प्रभावित किया था कालिदास ने। यूँ तो संस्कृत साहित्य में श्रृंगार रस ही प्रधान रहा है और सभी कवियों और लेखकों ने इसी रस पर आधारित रचनाएँ लिखी हैं पर कालिदास ने तो कमाल कर दिया। खासकर मेघदूत और अभिज्ञान शाकुन्तलम् ऐसी रचनाएँ हैं जिनका कोई मुकाबला नहीं। मेघदूत में यक्ष-यक्षिणी के दिव्य प्रेम का एकमात्र गवाह वह बादल जो हिमालय के शिखरों पर ठिठका खड़ा बड़ी तल्लीनता से यक्ष का संदेश सुनता था। अद्भुत है यह रचना। रागिनी कई बार इसे पढ़कर भी अघाई नहीं है। अपनी पढ़ाई के अंतिम दिन वह खुद उमाशंकर को छोड़ने उसके घर गई। उमाशंकर को बीबीसी रेडियो स्टेशन जाने का नशा-सा था। वहाँ हिन्दी विभाग में उसकी काफी जान पहचान बढ़ गई थी। नजदीक ही एक कमरा किराए पर लेकर वह रहता था। अक्सर बीबीसी के कैंटीन में खा पी लेता या फिर घर में खिचड़ी, आलू का भरता पका लेता।
‘‘आज मेरे घर में खिचड़ी भरते की दावत हो जाए।’’
‘‘अरे नहीं......आप हाथ से पकाते हैं... मेरा मतलब है खुद पकाते हैं। दावत तो मुझे देनी चाहिए गुरु दक्षिणा में। मेरी संस्कृत की पढ़ाई पूरी हुई.....आपने मुझे संस्कृत विशारद बना दिया।’’
‘‘तुम विदुषी हो रागिनी......खूब तरक्की करोगी। एक बार भारत जरूर जाना। मैं तो अब शायद ही जा पाऊँ।’’
‘‘क्यों आप क्यों नहीं जाना चाहते वहाँ?’’
‘‘वहाँ कौन है मेरा? अनाथ के लिए क्या देस क्या परदेस? अब यही मेरा देस है.....यहीं अंत होना है जिन्दगी का।’’
मैं भी तो अनाथ हूँ कहना चाहा रागिनी ने पर नहीं कह पाई।
उमाशंकर के दुख को वह अपने दुख से दुगना नहीं करना चाहती थी। भारी मन से उसने उमाशंकर से विदा ली-‘‘पढ़ाई समाप्त का मतलब यह नहीं कि आप अपनी इस शिष्या से मिलना ही छोड़ दें।’’
उमाशंकर हलके से हँस दिया। चलती कार की खिड़की से ओझल होने तक हाथ हिलाती रही रागिनी।
संस्कृत की पढ़ाई बंद हो जाने के बाद से उसकी अधिकतर शामें सैम के साथ गुजरने लगीं। पुराने दोस्तों में बस सैम ही था। लंदन की सड़कों, पार्कों, दर्शनीय जगहों पर दोनों सैर सपाटा करते रहते। एक कप कॉफी के बहाने रेस्तरां में देर तक बैठे रहते। धीरे-धीरे यह नजदीकी, यह लगाव खुद-बखुद एक समझौते में तब्दील हो गया। रागिनी ने सैम की विज्ञापन फिल्मों में बतौर मॉडल काम करना स्वीकार कर लिया। यही तो सैम चाहता था। उसकी विज्ञापन फिल्मों के लिए शाहरा का लाजवाब हुस्न कामयाबी की खुलती सीढ़ियाँ था। दीना ने सुना तो सिर पीट लिया। एक प्रतिष्ठित घराने की इकलौती वारिस क्या मॉडलिंग करेगी? इतने सालों से खुद को भूलकर जो वह रागिनी को रच रही है, एक बेमिसाल व्यक्तित्व में ढाल रही है, उसका ये अंजाम? उसने फौरन मुनमुन को फोन लगाया-‘‘दीदी....मेरी परवरिश ठीक नहीं थी। रागिनी तो हाथ से निकल गई।’’
मुनमुन का स्वर काँपा-‘‘अब?’’
‘‘कुछ समझ में नहीं आता। वह उस अमेरिकन लड़के के प्रेमजाल में फँस चुकी है। उसे सही गलत की समझ नहीं है। जब उसकी फिल्में मार्केट में आएँगी तो हमारी तो नाक कट जाएगी।’’
‘‘हमें धैर्य से काम लेना होगा दीना.....यह उमर जोर-जबरदस्ती की नहीं है। वरना एक बार उठा गलत कदम जिन्दगी भर का अभिशाप बन जाएगा। मैं सत्यजित से सलाह करती हूँ.....सोचती हूँ कुछ।’’
सत्यजित बिना किसी मानवीय रिश्ते के वैवाहिक बंधन के सब कुछ था मुनमुन का। उसके सारे रिश्ते सत्यजित से शुरू होते और सत्यजित पर ही जाकर समाप्त होते। वह उसका आदि और अंत था। दीना बहुत प्रभावित थी दोनों से।
बसन्त में लंदन गमक रहा था। ओस्टरली के हर पार्क, हर बगीचे में फूल ही फूल थे। इन फूलों में सैम के साथ डूब जाना चाहती थी रागिनी। उसे सैम की हर हरकत लाजवाब लगती। शूटिंग पर वह वक्त से पहले पहुँच जाती। सैम सचमुच मेहनती था। फिल्मांकन के पहले सिचुएशन तैयार करके उसे बेहतरीन और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश करता था। उसे शूटिंग की तकनीक से लेकर कलाकारों के मूड, सोच, प्रयास, लगन और कोशिश में कोई कमी नहीं थी। पैकअप के बाद का पूरा समय वह रागिनी को देता। जब रागिनी पर फिल्माई पहली विज्ञापन फिल्म बनकर तैयार हुई, सैम बहुत खुश था। उसने सभी कलाकारों को विदा कर वह शाम रागिनी के साथ सेलिब्रेट की। शैम्पेन की बोतल खुली और उसने रागिनी को आलिंगन में भरते हुए उसके होठ चूम लिए-‘‘इस कामयाबी का पूरा श्रेय तुम्हें जाता है मेरी रोज......जानती हो मेरे मन में क्या है। पूरा आसमान बाहों में भर लेना चाहता है यह सैमुअल द ग्रेट.....सैमुअल हॉलिवुड में व्यावसायिक और कलात्मक फिल्में बनाने का इच्छुक है। क्या मेरा साथ दोगी मेरी जान?’’
रागिनी ने सैम के सीने में मुँह छुपा लिया-‘‘रागिनी तुम्हारी है डार्लिंग, तुम जो चाहे करा लो उससे।’’
रागिनी प्रेम के सागर में डूबना चाहती थी। सैम के साथ मझधार का रुख मोडना चाहती थी.....धरती की बनावट पर पानी-सा बहना उसे पसंद न था। वह अपने हिसाब से धारा को मोड़ना चाहती थी और सैम था कि.......
‘‘रागिनी नहीं रोज......मेरी रोज......तुम्हारी संगत में मैं गुलाबों के साए में खो गया हूँ। रोज......हिचकॉक, फ्रैंक कोपरा, विलियम वाइलर, बिली वाइलर जैसे फिल्मकार इसी धरती पर तो हुए हैं न अलग हटकर तो नहीं.....तो फिर मैं भी उन जैसा क्यों नहीं हो सकता।’’
महत्वाकांक्षा की चिंगारी और इश्क के शोले एक साथ भड़के.....रागिनी की आँखों में नशीला सागर ठाठें मार रहा था। सैम उसे भी दो पैग पिला चुका था और वह अपने आपे में नहीं रही थी। सैम ने उसकी आँखों पर अपने होठ फिराए, पलकें अपने आप मुँद गईं रागिनी की और उसकी पोशाक के बंधन खुलते गए। अनछुआ, गदराया, नाजुक जिस्म सैम के जोश उत्तेजना की आँच से धीरे-धीरे पिघलने लगा। शाम के विदा होते कपाटों पर ठिठुरती रात धीरे-धीरे दस्तक दे रही थी और उस ठिठुरन में, ठंडे एकाकी कमरे में दोनों ने एक-दूसरे के सुलगते जिस्म तापे। घंटों बाद जब नशा उतरा तो सैम का फोन घनघना उठा-‘‘हलो, सैमुअल.....क्या शूटिंग खतम नहीं हुई? रागिनी कहाँ है?’’
सैम ने फोन रागिनी की ओर बढ़ाया। न जाने क्यों रागिनी काँप उठी। अपनी ममा समान दीना का वह क्या जवाब दे? जिसके हर सुख-दुख में दीना साए की तरह उसके साथ थी......जिसकी हर मुस्कान पर दीना सौ-सौ जान से निछावर होती है और एक बूँद आँसू पर खून के आँसू रोती है उस दीना से वह कैसे कहे कि उससे क्या अनर्थ हुआ है?
‘‘आयम वेरी सॉरी आंटी.....मैं बस निकल ही रही हूँ।’’ रागिनी ने कपड़े पहने। पूरा बदन मीठी चुभन से भरा था, आँखें मुँदी जा रही थीं। उसी नीम मदहोश हालत में सैम ने रागिनी को डायना विला लाकर छोड़ा। दीना दरवाजे पर ही सिगरेट फूँकती खड़ी थी। यह लत उसे अभी-अभी लगी थी जब से उसे सैम और रागिनी के सम्बन्धों का पता चला था। रागिनी उससे आँख नहीं मिला पाई। सैम ने बात सँभाली-‘‘सॉरी आंटी......आज काम ज्यादा था इसीलिए।’’
दीना ने कुछ जवाब नहीं दिया। प्यार दीना ने भी किया था अपने जॉर्ज से पर इस तरह नहीं। कितने दिन टिकेगा यह बरसाती नदी-सा प्यार जो आज मर्यादा की चट्टाने तोड़ बहा जा रहा है, भूल गया है अपने किनारे।
उसकी खामोशी रागिनी के दिल पर हथौड़े-सी चोट करती रही। वह सीधी अपने कमरे में गई और बिना कपड़े बदले कम्बल में घुस गई। रात के किसी वक्त जब रागिनी की नींद खुली तो उसने देखा रूम हीटर ऑन था। न जाने किस वक्त दीना ने आकर हीटर ऑन किया होगा। दीना के कमरे की बत्ती भी जल रही थी। शर्म से सिर झुक गया रागिनी का।
कई हफ्ते गुजर गए। क्रिसमस के दस दिन बचे थे। रागिनी इस बार अकेली ही क्रिसमस की खरीदारी के लिए निकली थी। सीढ़ियों पर गिर जाने से दीना के घुटनों में चोट लगी थी और जॉर्ज मेनचेस्टर गया था। कार में अकेली बैठी रागिनी देख रही थी बर्फ की सफेद चादर में लिपटी सड़कों को जिनके किनारे खड़े पेड़-काले रंग के दिखाई दे रहे थे। सड़क की धुँधलाई रोशनी में उनके बड़े-बड़े साए भूत से लग रहे थे। अंधेरे से कहवाघरों में अलबत्ता चहल-पहल थी। पेड़ों के पीछे मकानों से छनते हुए रोशनी के धब्बे चारों ओर फैले थे। मकानों में शोर था और फिजाओं में क्रिसमस के गीत।
रागिनी और सैम के पसंदीदा रेस्तरां के सामने रागिनी ने आदतन कार रुकवाई। दरवाजे पर ही सैम था जबकि दोनों में यहाँ मिलने की कोई बात तय नहीं थी-‘‘इसे कहते हैं रूह की रूह को पुकार। हमारा प्यार अंतरात्मा की आवाज है।’’
सैम ने रागिनी की कमर में बाहें डाल दीं। वेट्रेस ने आँखों ही आँखों में दूसरी वेट्रेस को अश्लील इशारा किया, दोनों मजे लेकर मुस्कुराई......अजब इत्तफाक......उनकी पसंदीदा कोने वाली मेज भी खाली थी......हॉल के अंतिम छोर पर वही इटैलियन चित्रकार बैठा था जो बैठे हुए लोगों के स्कैच इस उम्मीद से बनाता था कि कोई हुनर पसंद उसे खरीद लेगा और उसके दो वक्त के भोजन और शराब का इंतजाम हो जाएगा। सैम ने जेब से सेब की कलियाँ निकालकर रागिनी की हथेलियों में भर दीं। मीठी गमक रागिनी की साँस में समा गई। वह एकटक उस चित्रकार को देख रही थी। शायद वह उसी का स्केच बना रहा था। अगर यह सच है तो वह उस स्केच को जरूर खरीदेगी और उससे कहेगी कि यह उसकी ओर से बतौर क्रिसमस के तोहफे के रूप में वह ले रही है ओर उसकी जेब वह कई पौंड से भर देगी। रागिनी ने सेब की कलियाँ सूँघी और आँखें मूंद लीं।
सैम उसके कलाई में पहने सोने के कड़े से खेल रहा था।
‘‘यह कड़ा ममा का है....यह उन्होंने कलकत्ते के सुनार से बनवाया था, बंगाली कड़ा।’’
‘‘तुम इंडिया को बहुत याद करती हो.....वह हमारा गुलाम था....हम उससे सुपीरियर हैं। हमें गुलामों की बातें नहीं सोचनी चाहिए।’’ सैम ने घमंड में भर कर कहा।
रागिनी तड़प उठी। उसे सैम की यही सोच बहुत बुरी लगती है। वह मानती है कि युद्ध में हार-जीत के अपने कारण होते हैं। न कोई किसी से सुपीरियर होता है, न कोई गुलाम। यह हमारी सोच का दिवालियापन सिद्ध करता है। वह चुपचाप कॉफी पीती रही......हर गलत बात पर आज की युवा पीढ़ी की तरह भड़क उठना रागिनी के स्वभाव में न था। उसकी खामोशी उसका सबसे बड़ा हथियार था। सैम क्रिसमस की प्लेंनिंग करता रहा। किसको क्या उपहार देना है, कितने ग्रीटिंग कार्ड खरीदना है। इस बार वह रागिनी को सरप्राइज देने वाला है। वह दीना आँटी और जॉर्ज अंकल को भी सरप्राइज देगा.....ओह, लगातार बोलते हुए थकता नहीं सैम?
कॉफी खत्म कर जब दोनों चलने के लिए खड़े हुए तब चित्रकार सिगरेट का आखिरी कश भर रहा था। उसने सिगरेट राखदानी में दबाई और पेंसिल सँभाली, रागिनी उसके नजदीक गई पर उसके पेपर कोरे थे। आज उसने कोई स्केच नहीं बनाया था। रागिनी का मन बुझ गया।
वक्त धीरे-धीरे अतीत गढ़ता, उस पर अपने निशान छोड़ता सरकता गया। सैम और रागिनी एक-दूसरे की जरूरत बन गए, आदत बन गए। प्रेम तो रागिनी को विरासत में मिला था अपनी ममा से.....लेकिन सैम से प्रेम की दीवानगी उसे दीमक की तरह चाटने लगी। सैम विज्ञापन जगत में अपने पैर दृढ़ता से जमाता गया। फिल्म बाजार में उसकी मांग बढ़ती गई। रागिनी ने जिन भारतीय काव्यग्रंथों से प्रेम की गहराइयों को नापा था अब उसके पन्ने पलटने तक का समय उसे नहीं मिलता। अब कीट्स की पंक्ति ‘‘एंड नो बडर्स सिंग’ चरितार्थ होने लगी थी। न चिड़ियों की चहक सुनने का वक्त था, न आसमान की विशालता में खुद को डुबा लेने का। अब तो वह थी और सैम था। सैम के शूट में नीली दीवारों वाला कमरा, मद्धिम रोशनियों के भँवर में उलझा किसी परीलोक-सा लगता, जिसमें वह खुद एक परी। शूटिंग से निपटकर वह सैम की बाहों में खो जाती। सैम ने अपनी फिल्मों में बतौर मॉडल उसे अर्धनग्न प्रस्तुत किया। उसके संगमरमरी बदन की इस जादुई प्रस्तुति से दीवाना हो गया लंदन......बल्कि पूरा इंग्लैण्ड और अपनी धाक जमाने अमेरिका के विज्ञापन जगत और हॉलीवुड में प्रवेश के इच्छुक सैम ने अमेरिका में भी उसे चर्चित कर दिया। दीना कसमसाकर कर रह गई, जॉर्ज तड़प उठा। कहाँ कसर रह गई उनकी परवरिश में? उन्होंने तो बेटी की तरह पाला था रागिनी को। चूक आखिर हुई कहाँ? अब वे मुनमुन को क्या मुँह दिखाएँगे?
रविवार की दोपहर उन्होंने सैमुअल को घर बुलाया। रागिनी और सैमुअल को सामने बिठाकर अपने कदम वापिस ले लेने का आग्रह किया। जॉर्ज ने बहुत नरमी से कहा-‘‘तुम जानते हो सैम रागिनी एक प्रतिष्ठित व्यापारी घराने की अकेली वारिस है जिसके पिता अंग्रेजी हुकूमत के हिन्दुस्तान में एक उच्च पदाधिकारी थे और जिसकी माँ एक महान गायिका थीं......यह घराना कला के क्षेत्र से जुड़ा है।’’
‘‘यह भी तो कला है अंकल......आर्ट.....क्या आप इसे आर्ट नहीं मानते?’’
‘‘तुम जो कर रहे हो वह आर्ट है, पर रागिनी जो कर रही है वह आर्ट नहीं है, वह अंग प्रदर्शन है, बाजारू है।’’
‘‘जमाना तेजी से बदल रहा है अंकल....मॉडलिंग अब कला मानी जाने लगी है।’’ सैमुअल का तर्क था पर वह जानता था यह तर्क नहीं बल्कि अपनी दयनीय हालत का एक ढका-मुंदा आग्रह था कि वे समझ लें कि यह कला है और यह बात न ताड़ें कि अच्छी और प्रतिष्ठित मॉडलों की मांग इतनी अधिक है कि उसे देने की सैम की औकात नहीं, पर जॉर्ज और दीना कमर कसे बैठे थे।
‘‘तुम क्या समझते हो सैम कि हमें कला की जानकारी नहीं? अंग प्रदर्शन के जरिए बाजार के उत्पादन को पेश कर जनता को लुभाना अगर कला है तो मुझे तुम्हारी कला की जानकारी पर खेद है।’
‘‘जॉर्ज अंकल....मुझे अच्छा लगता है मॉडलिंग करना। आखिर हर व्यक्ति को अपनी तरह जिन्दगी जीने का हक तो मिलना ही चाहिए।’’
‘‘रागिनी.....हम तो तुम्हारे भले के लिए कह रहे हैं बेटा।’’ दीना का स्वर रूआँसा हो गया।
‘‘मैं अपना भला-बुरा समझ सकती हूँ आंटी। अब मैं बड़ी हो गई हूँ। आप कब तक मुझे उँगली पकड़कर चलना सिखाते रहेंगे।’’
जॉर्ज और दीना आहत थे। यह किस लहजे में किस भाषा में बात कर रही है रागिनी?
रात मुनमुन से फोन पर बात करते हुए दीना रो पड़ी-‘‘मैं इंडिया लौट रही हूँ दीदी......अब मेरा और जॉर्ज का यहाँ क्या काम? रागिनी बड़ी हो गई हैं, अपने ढंग से जीना चाहती है.....।’’
‘‘उसे जिन्दगी की सच्चाई का ज्ञान होने दो दीना। तुम लौटना चाहती हो तो लौट आओ पर मन में यह गाँठ लेकर नहीं कि रागिनी की परवरिश में तुमसे कोई चूक हुई है। कभी-कभी इंसान वक्त के हाथों बहुत मजबूर हो जाता है और तब सारी कोशिशें नाकाम हो जाती हैं।’’
दीना के जख्मों पर यह राहत भरा मलहम था। अगर आज मुनमुन सामने होती तो वह उसके चरण छू लेती जैसे मझधार में फँसी नैया को किनारा मिल गया हो।
दीना को सामान पैक करते देख रागिनी ने पूछा-‘‘कहीं जा रही हैं आंटी?’’
‘‘हाँ, इंडिया वापिस लौट रहीं हूँ। अब यहाँ मेरा काम पूरा हो गया।’’
‘‘मुझे अकेली छोड़कर?’’
‘‘तुम अकेली कहाँ हो रागिनी? तुम्हारे साथ तुम्हारी महत्वाकांक्षाएँ हैं, सपने हैं, सोच है। उसमें हम कहाँ?’’ अटैची पैक हो चुकी थी। दीना ने रागिनी के कंधे पर हाथ रखा-‘‘सोमवार की फ्लाइट है हमारी और बहुत सारा काम निपटाना है।’’
‘‘आंटी आपको पता है न मैं आपके बिना नहीं रह सकती।’’ रागिनी दीना से लगभग लिपट-सी गई। लेकिन दीना रागिनी की लंबे अरसे से चली आ रही हरकतों और मनमानी से पत्थर दिल हो चुकी थी। उचाट हो बस इतना भर कहा कि...‘‘यहाँ तुम्हारी केयर टेकर जूली है, उसका भाई गोर्डन है। मेरे नहीं रहने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।’’ और अपने काम में लग गई।
हताश रागिनी अपने कमरे में लौट आई। वह समझ चुकी थी कि जॉर्ज और दीना उसकी मॉडलिंग से नाराज हैं वरना इतने बरसों से बेइन्तहा प्रेम करने वाले वे इतने पत्थर दिल कैसे हो सकते हैं? कहीं वह सचमुच गलत तो नहीं? कहीं चकाचौंध करने वाली यह मॉडलिंग की दुनिया उससे उसके अपने तो नहीं छीन रही? क्या जॉर्ज और दीना सचमुच चले जाएँगे? पर वह इस दिल का क्या करे जो सैम को प्यार करता है। सैम का कॅरिअर नष्ट हो जाएगा अगर वह मॉडलिंग छोड़ देती है तो। इतने दिनों की मेहनत पानी में मिल जाएगी। रागिनी को लगा वह बीच भँवर में ऐसी फँस चुकी है कि चाहकर भी किनारे पकड़ नहीं पा रही है। क्या हकीकत बयान है-गालिब के इस शेर में-
ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
मेनचेस्टर से लंदन लौटते हुए जॉर्ज गाड़ी रोक-रोक कर आसपास के जंगलों और गाँवों में भटकता रहा। रागिनी के कारण उसका मन व्यथित था। लगातार पच्चीस बरसों से लंदन में रहते हुए अब लंदन छोड़ने की पीड़ा जड़ से उखाड़े जाने की पीड़ा थी। लंदन को वह अपना समझने लगा था। टॉम के व्यापार को उसने बखूबी सँभाला था। डायना और चंडीदास के प्रेम की निशानी रागिनी को उसने फूल-सा सहेजा था पर उसके अस्तित्व को रागिनी ने बालू के घरौंदे-सा ढहा दिया था। हिन्दुस्तान में अब वह कहाँ लौटेगा? अब उसका अपना तो कोई है नहीं वहाँ....गुजरते वक्त की धार में सब बहता गया, बिछुड़ता गया। अचानक उसे अहसास हुआ इतने बड़े संसार में वह तो निपट अकेला ही रह गया और इस उम्र में नए सिरे से सब कुछ सहेजना, बसाना......कितना कठिन है......ओह, कितना कठिन, जानलेवा.....।
गाड़ी गर्म हो चुकी थी। वॉटर केन लिए वह पानी की तलाश में सड़क पार कर सामने दिखते चर्च के फाटक की ओर बढ़ा। बहुत पुराना टूटा फूटा......बदरंग चर्च अपने अतीत की कहानी कह रहा था। टूटी-तिड़की दीवारों पर जंगली घास उग आई थी। चर्च पर झुकती शारबलूत की नंगी शाखें थीं जिन पर पंछी चहचहा रहे थे। दाहिनी ओर कांटेदार झाड़ियाँ थीं। झाड़ियों में अटके शाहबलूत के टूटे लाल पत्ते हवा में खड़खड़ा रहे थे। पैरों के नीचे गज-गज भर ऊँची घास ही घास.......वह घास रौंदता आगे बढ़ा तो पत्थर से पैर टकराया। झाड़ियों के झुरमुट हटाकर उसने देखा वहाँ पत्थर की कई कब्रें थीं। जॉर्ज ने हैट सिर से उतारकर बगल में दबाया और कब्रों पर से घास फूस साफ की। कब्रों पर दफनाए गए व्यक्तियों के नाम खुदे थे जो इन गाँवों में पैदा हुए थे और हिन्दुस्तान में शहीद हुए थे। जॉर्ज ने उनके लिए प्रार्थना की। भले ही इन शहीदों ने हिन्दुस्तान के खिलाफ युद्ध किया पर आखिर हैं तो ये शहीद ही। वह भी तो शहीद हुआ है मानवता की डगर पर, फर्ज की डगर पर स्वामी भक्ति की डगर पर, उसने भी तो अपने इतने सारे सालों का तर्पण कर दिया रागिनी को रचने में......देश को भुलाकर परदेश में पड़ा है......पर उसे मिला क्या?.....वह तो हिन्दुस्तान में गुमनामी की कब्र में दफन होगा। उसके नाम कोई शहदतनामा नहीं लिखा जाएगा। सहसा जॉर्ज घुटनों के बल बैठ गया और कब्र को पकड़कर फूट-फूट कर रो पड़ा।
जब रागिनी शूटिंग से लौटी तो पता चला जॉर्ज की तबीयत बिगड़ गई है और दीना उसे नर्सिंग होम ले गई है। डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर का तो वह पुराना रोगी है। दीना हर भारतीय नुस्खे उस पर आजमाती रही है। कभी करेले का जूस, कभी जामुन की गुठलियों का पावडर और कभी मैथी के भीगे-दाने पानी सहित.......कदम-कदम पर उसने जॉर्ज का ख्याल रखा है, कहीं बदपरहेजी न हो। फिर यह रोग कैसे बढ़ता ही जा रहा है? रागिनी शायद नहीं जानती कि उसने गुजरे और मौजूदा महीनों में कितना तनाव दिया है जॉर्ज को। दीना तो फिर भी कह सुनकर दुख हलका कर लेती है पर जॉर्ज अंदर ही अंदर घुटता रहता है। जूली कहती है कि-‘‘साब कहीं डायबिटिक कोमा में न चले जाएँ’’
‘‘इतनी हालत खराब है जूली? हमें तो पता ही नहीं......ये दोनों तो हिन्दुस्तान लौटने की तैयारी कर रहे थे।’’
‘‘साब जब से मेनचेस्टर से लौटे हैं उदास हैं। कॉफी पी-पी कर अपने को मारे डाल रहे हैं। न खाना खाते हैं न किसी से बात करते हैं।’’ जूली एकदम नजदीक आ गई रागिनी के-‘‘एक बात कहूँ बेबी.....बुरा तो नहीं मानोगी?’’
‘‘हाँ, कहो जूली......’’
‘‘बेबी......तुम ये मॉडलिंग छोड़ दो.....डायना विला उजड़ रहा है बेबी......प्लीज।’’
रागिनी झटका खा गई। यह तो सीधे-सीधे आरोप लग गया उस पर जॉर्ज के बीमार पड़ने का। वह सीधी बाथरूम में घुस गई और देर तक गर्म पानी के शावर के नीचे अपने अपराध को बहाती रही पर जितनी वह कोशिश करती, अपराध की पीड़ा उतनी ही गहराई से खुबती जाती।
पाँचवे दिन जॉर्ज नर्सिंग होम से लौट आया। उनका हिन्दुस्तान लौटना टल गया। रागिनी ने चैन की साँस ली।
जूली कोलरी से लकड़ियों के टुकड़े लाकर फायर प्लेस में डाल रही थी। जॉर्ज सामने बैठा था। दीना सलाइयों पर कुछ बुन रही थी। उनके चेहरे जलती लकड़ियों की लपटों की पीली परछाइयों से घिरे थे। डायना विला एक दिल कंपा देने वाली मुर्दा खामोशी में जकड़ा था। इस खामोशी में न तड़प थी, न आध्यात्मिक शांति। इन अनागत क्षणों की पहचल सुनने को वे दोनों बेकाबू थे जबकि उनकी आँखों के सपने मर चुके थे और यह सबसे खतरनाक होता है......सपनों का मर जाना। जॉर्ज और दीना समझ गए थे कि जो अनिवार्य है वह तो घटित होगा ही। उसके विरूद्ध लड़ना पीड़ा को निमंत्रण देने जैसा है।
दिन ब दिन रागिनी के राह भटक जाने की दीमक चाटती गई जॉर्ज को। जॉर्ज खोखला हो गया। एक दिन बेहोश होकर जो गिरा तो फिर उठा ही नहीं। अस्पताल में उसकी साँस, धड़कन और दिमाग को जिन्दा रखने के लिए उसे मशीनों पर रखा गया। मशीन जो उसके दिल के नजदीक थी......लोहार की धौंकनी की तरह चलती। काँच के पार्टीशन के इस पार दीना खड़ी थी......ऐन उसी वक्त......अस्पताल के उन्हीं चंद दिनों में सैम हॉलीवुड चला गया। उसे एक बड़ा ऑफर मिला था और वह उसे हाथ से जाने देना नहीं चाहता था। इन्हीं व्यस्तताओं के कारण वह एक दिन भी जॉर्ज को देखने अस्पताल नहीं जा सका। दीना के दोनों बेटे अमेरिका से आ चुके थे। सैम का वियोग रागिनी को निचोड़े डाल रहा था। वह नादान समझ ही नहीं पा रही थी कि इतने लम्बे अरसे से सैम ने न केवल उसके बदन की नुमाइश कर ढेर सारी दौलत कमाई थी बल्कि एक भौंरे की तरह उसके फूल से बदन से रस की एक-एक बूँद चूस कर उसे खाली झंझर-सा बना डाला था।
आठवें दिन जॉर्ज ने अंतिम साँस ली। वह एक सच्चा स्वामीभक्त था। उसने जिन्दगी भर अपनी मालकिन डायना की खिदमत की थी और डायना की मृत्यु के बाद रागिनी के प्रति अपने फर्ज को बखूबी निभाया था लेकिन अपने ही बनाए दुर्ग की दीवारों में दरार देख वह चल बसा। उसकी अंतिम इच्छा थी कि रागिनी डायना का सम्पूर्ण कारोबार सँभाल ले ताकि इतने वर्षों की साधना व्यर्थ न जाए।
जॉर्ज की मृत्यु पर हिन्दुस्तान से मुनमुन और सत्यजित लंदन आए थे। रागिनी ने पहली बार मुनमुन को देखा। उसे लगा था कि वह बूढ़ी हो चुकी होगी पर मुनमुन की उम्र तो जैसे रिवर्स में चल रही थी। चेहरे पर बढ़ती उम्र का कहीं कोई निशान नहीं था। लावण्यमय सुंदर मुखड़ा सत्यजित के प्रेम की सुनहली आभा में सोने-सा दमक रहा था। रागिनी मृगछौना-सी मुनमुन की बाहों में दुबक गई। मुनमुन को लगा जैसे दादा (चंडीदास) के आलिंगन में है वह......रागिनी फूट-फूटकर रो रही थी। जॉर्ज की मृत्यु का सदमा उसे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। उधर सैम का वियोग......जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
‘‘बुआ.....मैं अकेली हो गई। मेरे पिता दुबारा मर गए।’’
मुनमुन ने उसके बाल सहलाए-‘‘जन्म मृत्यु क्या हमारे हाथ में है? तुम तो बहादुर हो मेरी बेटी.....अब तुम्हें दीना को सँभालना है। तुम पर तो जिम्मेदारी आन पड़ी है।’’
‘‘कैसे बुआ? मुझमें उतनी हिम्मत कहाँ?’’
‘‘जानती हो रागिनी ईश्वर जिन्हें सबल समझता है उन्हें ही आजमाता है और तुम इस इम्तहान में खरी उतरोगी यकीन है मुझे।’’
समय बीतता गया। जॉर्ज की अंतिम इच्छा का मान रखते हुए रागिनी ने सारा कारोबार सँभाल लिया। वह नियमित ऑफिस जाने लगी। उसे लगा जो काम उसे जॉर्ज के रहते शुरू कर देना था वह अब कर रही है तो कहीं यह उसकी भूल तो नहीं? इतने वर्ष उसने यूँ ही तो नहीं गंवा दिए कहीं? क्या वह सैम पर विश्वास करे? उसे हॉलीवुड गए एक साल से ऊपर हो चुका है.....कभी-कभार उसका फोन आ जाता है जिसमें केवल फिल्मों की चर्चा होती है। वह प्रेम कहाँ गया जिसकी खातिर उसने अपने लोगों की नाराजी झेली थी......क्या वह मात्र छलावा था? दीना उसे समझाती रहती है कि ‘‘भूल जाओ सैम को। अब वह नहीं लौटेगा? प्यार ऐसा नहीं होता। प्यार में त्याग और समर्पण चाहिए। बिना किसी चाह के निःस्वार्थ, छलरहित प्रेम ही प्रेम कहलाता है। सैम ने तो प्रेम स्वार्थ की जमीन पर ही बोया था तो फसल भी तो भोग, लिप्सा, छल की ही उगेगी। तुम भोली हो, समझ नहीं पाई और लगातार ठगी जाती रहीं।’’
‘‘नहीं आंटी.....वह लौटेगा। वह मुझे सच्चा प्यार करता है।’’
‘‘यह तुम्हारा भ्रम है रागिनी।’’
न जाने क्यों भ्रम पाले रखना रागिनी की मजबूरी हो गई। जब तक ऑफिस में रहती काम में ही व्यस्त रहती। घर लौटते ही सैम को फोन, सैम के लिए सोचना, ईश्वर से उसके लिए प्रार्थना करना उसकी दिनचर्या में शामिल हो गया। इधर मॉडलिंग के ऑफर भी बहुत आ रहे थे। वह एक कामयाब मॉडल रह चुकी थी। लेकिन रागिनी ने ऐलान कर दिया था कि वह मॉडलिंग की दुनिया से संन्यास ले चुकी है।
न जाने किस विवशता ने रागिनी से सैम का लगातार तीन वर्षों तक इंतजार करवाया। फोन और खतों से वह दो साल तक तो भरमाए रहा उसे। तीसरे साल उस सिलसिले को भी खतम कर दिया सैम ने और खत्म कर दिया रोज को.....। वह रोज जो केवल सैम के लिए रोज थी। बाकी के लिए रागिनी थी। रागिनी रोज.....दो हिस्सों में बंटी.....दो अहसासों में बंटी.....रागिनी झंकार है तो रोज महक.......। रागिनी की नैया हौले-हौले चलती है, रोज पानी में फूल की मानिद आगे-आगे बहकर उसे रास्ता दिखाती है। तब अर्थ बंट जाते हैं और शब्दों की ताकत नया अहसास रचती है। दिल में बहुत कुछ चिर जाता है जिसकी तड़प हर रोएँ में समा जाती है, वह देखती है उन बूढ़ों को जो पेंशनर्स पार्क में पीले फूलों की क्यारी के सामने बेंचों पर बैठे अपनी अंधेरी आँखों में बाहर का उजाला भरने की नाकाम कोशिश करते हैं। वह देखती है फूलों पर उडती तितलियों को जिनको पकडने की कोशिश में युवा जोड़े एक-दूसरे की बाहों में बार-बार समा जाते हैं और हल्की सिहरन में एक दूसरे का मुख चूम लेते हैं। और फिर नजर आती है एक अकेली नौका जो उसकी आँखों की झील में कब से डोल रही है.....यह उसका अपना जल महल है जिसमें उसके आँसुओं का पानी भरा है।
रागिनी बावली-सी सैम को लॉस एंजेल्स तक जाकर ढूँढ आई थी। पर कहीं उसका अता-पता नहीं था। उसका सौंदर्य कांतिहीन होता जा रहा था। सैम ने उसकी दुर्दशा कर डाली थी लेकिन अभी भी उसे सैम का इंतजार था। लॉस एंजेल्स से लौटकर रागिनी को बुखार रहने लगा था। रात डिनर से निपटकर दीना रागिनी का सिर गोद में रखे उसके बालों को सहलाते हुए बोली-‘‘रागिनी, तुमने अपने बारे में क्या सोचा है?’’
वह फीकी हँसी हँस दी। अब उसके पास बचा ही क्या है सोचने को। किशोरपन विदा ले चुका है, वह वयस्क हो चली है और सैम के लिए साँसें कंजूस की तरह संजो कर रखी हैं।
‘‘सैम अब नहीं लौटेगा रागिनी? उसे हॉलीवुड की चकाचौंध ने आकर्षित कर लिया है। उसके लिए धन ही सब कुछ है।’’
दीना ने उसका माथा चूम लिया। वह उसके सीने में समा गई। पूछना चाहा-‘‘मेरी तकदीर धन के लोभियों से क्यों जुड़ी है आंटी......डैड, सैम......दोनों ही जीवन के आधार व्यक्ति, एक बचपन से जुड़ा.....दूसरा जवानी से........’’पर छलक आई आँखों को पूरी कोशिश से रोकती वह खामोश रही। दीना का सवाल उस रात भी लाजवाब ही रहा।
बीमारी लंबी खिंच गई रागिनी की। बुखार के साथ खाँसी ने भी जड़ें जमा लीं। दीना का माथा ठनका......कहीं टीबी तो नहीं। लंदन के तमाम डॉक्टरों से संपर्क साधा गया। जाँच के बाद खाँसी बुखार जनित ही सिद्ध हुई। दीना ने चैन की साँस ली। लेकिन फिर भी रागिनी के पीले, निस्तेज चेहरे और लगातार दुर्बल होते शरीर को देख वह खुद बीमार रहने लगी। वैसे भी जॉर्ज की गैरमौजूदगी ने उससे जिन्दगी तो छीन ही ली थी।
रागिनी को अब भी सैम का इंतजार था। अकेले में वह जार-जार रोती। क्यों किया सैम ने ऐसा? उसने तो सैम के प्रेम में शरीर को शरीर नहीं समझा। अपनों को पीड़ित कर, जॉर्ज को गहराई तक चोट पहुँचाकर भी वह सैम के प्रति वफादार रही। नहीं, सैम बेवफा नहीं हो सकता.....कि एक दिन झटके से भ्रम टूटा......सैम ने हॉलीवुड में अपनी जिस फिल्म का पिछले महीने मुहूर्त शूट किया था उसी की खलनायिका से सगाई कर ली। शादी दो महीने बाद की तारीख में तय हुई। रागिनी विक्षिप्त-सी हो गई। टूट कर तिनका-तिनका बिखर गई......रात मुनमुन का फोन आया......आवाज जैसे मरूस्थल से आ रही हो। रेती-सी सूखी, रूखी.....रागिनी हिली.....उस रेतीले तूफान से या दीना...दोनों में से कोई समझ नहीं पाया। सुबह जब जूली दीना के कमरे में बेड टी लेकर गई तो उसे अपने बिस्तर पर मृत पाया। रात के किसी वक्त उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया। वह अपने जॉर्ज के पास उसी दिन चली जाती जब जॉर्ज ने मशीनों से साँस उधार लेते वक्त लाचारी से उसे देखा था पर रागिनी के प्रति फर्ज की जंजीरों ने उसे जकड़ लिया था। आज वे जंजीरें टूट गईं। वह समझ गई थी कि रागिनी का अब कोई भविष्य नहीं है। वह सैम के लिए कुर्बान हो चुकी है और जब तक उसके बहते आँसुओं को थामने के लिए दीना का कंधा है वह सँभलेगी भी नहीं। शायद इसीलिए दीना बिना किसी शोरगुल के बिना किसी को तकलीफ दिए चुपचाप इस संसार से चली गई। रागिनी एक बार फिर अनाथ हो गई।
मुनमुन नहीं आ पाई, दीना के दोनों बेटे अपनी पत्नियों सहित आए। दीना का बस इतना ही संसार था सो जुड़ गया। रागिनी को अब कंपकंपी देकर बुखार आने लगा था। डॉक्टर दोनों वक्त आता। दवा, परहेज नियम से लेने करने की हिदायत देता था। जूली बुखार के चार्ट के पिछले हिस्से में सब नोट कर लेती। उसने पूरी ईमानदारी से सारा जिम्मा अपने सिर उठा लिया था। गोर्डन बाहर का सँभालता। दीना के बेटे, बहुएँ, पोते, पोतियाँ दीना का अंतिम कर्म कर वापस लौट गए थे। अब उनका वहाँ बचा ही क्या था? रागिनी को कभी वे वह स्नेह नहीं दे पाए जो जॉर्ज और दीना ने चाहा। शायद इसकी वजह यह थी कि रागिनी के कारण ही दीना और जॉर्ज उन दोनों की तरफ खास ध्यान नहीं दे पाए थे।
लगभग तीन महीने बाद रागिनी पूर्णतः स्वस्थ हुई। उसने मुनमुन को एक लम्बा फोन किया कि वह लंदन में रहकर कारोबार सँभालेगी। वह सैम की दगाबाजी को अकेले रहकर महसूस करना चाहती थी। या शायद ऐसा करके वह खुद को सजा देना चाहती थी। शादी का तो वह सोच भी नहीं सकती। शादी करके वह अपने पति को देगी क्या? न उसके पास प्यार बचा है, न शरीर, न साबुत मन। अब वह इन भ्रमों में पड़ना भी नहीं चाहती.....थक चुकी है वह.....बहुत विश्वास किया था उसने सैम पर....लेकिन एक कुचले-मसले अतीत के सिवा और कुछ नहीं दिया सैम ने उसे......बल्कि सैम के ही कारण उसके माता-पिता जैसे जॉर्ज और दीना असमय ही दुनिया से चल दिए।
मुनमुन घबरा गई थी-‘‘पगली....बेकार की जिद्द में अपने को क्यों तबाह करने पर तुली हो।’’
‘‘आप इसे जिद्द कहती हैं बुआ? यह हकीकत है। प्यार करने वालों के शरीर मर जाते हैं लेकिन आत्मा जिन्दा रहती है और नफरत करने वाले उसी दिन.....जिन्दा होते हुए भी मर जाते हैं जिस दिन उनके दिल में नफरत जन्म लेती है। इसीलिए तो मैं डैड को याद करना नहीं चाहती लेकिन ममा और पापा मेरी स्मृतियों में हमेशा मौजूद हैं।’’
मुनमुन ने पहली बार चंडीदास के लिए रागिनी के मुँह से पापा संबोधन सुना था। उसका सारा शरीर सिहर उठा, वह जोर से चिल्लाई-‘‘सत्य, अरे.....इधर तो आओ......देखो, मेरी रागिनी बिटिया क्या कह रही है।’’
रागिनी ने फोन पर सारी आवाजें सुनी.....उसकी आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे.....हाँ, वह जान गई है कि वह ममा और चंडीदास के प्रेम की निशानी है। यह बात उसे दीना ने जॉर्ज की मृत्यु के बाद एक रात वाईन पीते हुए नशे की झोंक में बता दी थी। तब रागिनी इतनी खुश हुई थी कि वह दीना के गले में बाहें डाल खुशी से रो पड़ी थी-‘‘आंटी......यह बताकर अपने मेरे मन पर रखा टनों वजन का पत्थर हटा दिया। टॉम ब्लेयर की संतान कहलाने से अच्छा तो मर जाना था। मैं इसी सोच को लेकर आज तक घुटती रही.....आँटी, आज मेरा मन कर रहा है आसमाँ नीचे हो और मैं उस पर नाचूँ, इतराऊँ.....ओह आँटी.....यू आर ग्रेट।’’ और उसने दीना के गालों को चूम-चूम कर लाल कर दिया था।
‘‘मेरी रागिनी गुड़िया......तुम्हारे पापा के पास इतना प्रेम था कि उसके लिए एक जन्म छोटा था। और तुम्हारी ममा.....वे तो कृष्णमय थीं और कृष्ण तो हैं ही प्रेम का सागर.......।’’
‘‘बुआ, ममा की इच्छा थी न, कि मैं कृष्ण पर रिसर्च करूँ तो मैं जरूर करूँगी, लेकिन पहले मैं एक सफल बिजनेसमैन बनूँगी। जॉर्ज अंकल यही चाहते थे।’’
‘‘ऐसा ही होगा। ईश्वर तुम्हारे साथ है, कृष्ण तुम्हारे साथ हैं।’’
‘‘और ममा भी तो! बुआ, इंसान तभी मरता है जब उसकी स्मृतियों को बुहार दिया जाए। ममा मेरे आसपास हैं, मेरी स्मृतियों में, मेरे संकल्पों में, जहाँ उनकी चाह धीरे-धीरे अंकुरित होनी शुरू हो चुकी है।’’
बर्फीली बारिश में जमा देने वाली ठंड को झेलती जूली ने सब्जियों से भरा बैग उठाने के लिए दरवाजा खोला ही था कि बर्फीला अंधड़ तेजी से अंदर घुस आया पर रागिनी पर इसका कोई असर नहीं था। वह तमाम असर के परे जा चुकी थी। खुद को भूलकर उसने अपनी सोच को विराट कर लिया था। उसका अकेलापन एक ऐसा अभेद्य कवच बन गया था कि अब जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर जिन्दगी के हर वार को वह झेल सकती थी बिना किसी भावुकता भरे सहारे के। सहारे के लिए उसके साथ जूली है न। जिसकी मौजूदगी रागिनी की हिम्मत बन गई है। और जिसने अपने स्नेहिल परों को फैलाकर उसकी छाँव में रागिनी को चिड़िया-सा दुबका लिया है और यह गोर्डन.....जिसने रागिनी को बाहरी संरक्षण दिया। डायना विला में तैनात इन दोनों खिदमतगारों के रहते क्या अकेली कहला सकती है रागिनी? बेसहारा कहला सकती है?
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दो दशकों का गुजर जाना, बीत चुके लम्हों के मलबे पर एक नए वक्त की शुरूआत शायद यही कहलाती हो। बीस वर्षों के लम्बे समय में रागिनी ने बिजनेस की जिन ऊँचाइयों को छुआ वह विस्मय में डाल देती है। वह एक सफल व्यापारी की श्रेणी में अपनी धाक जमा चुकी थी। बीच के दिनों में जूली एक हंगेरियन से शादी कर ऑस्ट्रेलिया जा बसी थी। गोर्डन को लकवा मार गया था और उसे एक बेहतरीन अस्पताल में भरती कराके रागिनी ने उसके लिए एक नर्स मुकर्रर कर दी थी। जूली की जगह अब ट्वायला थी और गोर्डन की जगह ट्वायला का पति रिचर्ड लेकिन ट्वायला में वो बात नहीं थी जो जूली में थी। जूली निःस्वार्थ भाव से रागिनी की सेवा करती थी जबकि ट्वायला हर तरह की सेवा का मूल्य चाहती थी। अलबत्ता रिचर्ड गोर्डन से अधिक मेहनती और रागिनी का शुभचिन्तक था। उसी की सलाह पर रागिनी ने एक अनाथ लड़की गोद ले ली थी। चालीस वर्षीय रागिनी के लिए यह बड़ा उत्तेजक अनुभव था जब वह चार वर्षीय शिशु की माँ बनी थी। एक भव्य आयोजन कर उसने शिशु का नाम रखा रति......रति रागिनी ब्लेयर। यूँ बेटी के नाम के साथ पिता के नाम की जगह अपना नाम जोड़कर रागिनी नए कर्त्तव्यबोध से भर उठी।
‘‘डायना विला के मेन गेट पर मुनमुन के कहे अनुसार फूलों और पत्तों की तोरन बाँधी गई। बरामदे के संगमरमरी फर्श पर ट्वायला ने रंग-बिरंगी चॉक से बहुत खूबसूरत हिन्दुस्तानी तरीके की अल्पना काढ़ी। अल्पना के चारों ओर दीपक जलाकर रखे और इस तरह रति का नए जीवन में पर्दापण कराया गया.....देर रात तक ऑरकेस्ट्रा बजा......उस रात रागिनी ने आमंत्रित मेहमानों के सामने यह घोषणा की कि वह अपनी ममा डायना ब्लेयर के नाम डायना वेलफेयर ट्रस्ट की स्थापना करने जा रही है जिसका उद्देश्य होगा-शिक्षा और प्रकाशन के क्षेत्र में जरूरतमंदों की मदद करना तथा योग्य विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप देना। इसके अलावा वाइल्ड लाइफ फंड और कलकत्ते के मदर टेरेसा आश्रम में नियमित दान देना भी उद्देश्यों में शामिल होगा।
अब रागिनी नियमित चर्च जाती है और अपनी बेटी के लिए प्रार्थना करती है। वह मानती है कि ईश्वर बड़ा दयालु है। ममा पापा के बाद उसने दीना और जॉर्ज जैसे अभिभावक दिए.....फिर जूली और गोर्डन और अब ट्वायला और रिचर्ड........जिन्दगी का अकेलापन दूर करने के लिए रति जैसी बिटिया और जीने को सार्थक करने के लिए कृष्ण पर रिसर्च की प्रेरणा.....क्या वह प्रभु के इन उपकारों को भुला पाएगी? उसका रिसर्च वर्क भले ही कछुए की चाल से पूरा हुआ हो पर इस दौरान उसे जो आनन्द और तृप्ति मिली है वह बखान से बाहर है। पर अब उससे इन्तजार नहीं होता। अब उसे भारत जाना है और कृष्ण की जन्मभूमि देखना है।
मुंबई के सहारा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मिस रागिनी रोज को रिसीव करने हिन्दुस्तान में उसकी कम्पनी के डायरेक्टर मिस्टर स्मिथ अपनी पूरी टीम के साथ आए थे, फूलों का शानदार बुके लिए। रागिनी के रुकने का इंतजाम ताजमहल होटल में किया गया था। दिसम्बर के खुशगवार मौसम में ममा पापा के परवान चढ़े प्रेम की नगरी रागिनी को इस कदर भायी कि वह कम से कम हफ्ता भर तो यहाँ गुजार ही सकती थी लेकिन मुनमुन का आग्रह था कि वह शीघ्र कलकत्ता आए। वे लोग बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे हैं।
रात की फ्लाइट से रागिनी कलकत्ता आ गई। मुनमुन और सत्यजित को देख वह अपने को रोक नहीं पाई और मुनमुन की वात्सल्यमयी बाहों में समा गईं। चेहरे पर अनवरत बहते आँसुओं की धार दिल की हालत बयाँ कर रही थी। मुनमुन ने भी अपनी छलक आई आँखों को रागिनी के कंधों पर बह जाने दिया। सत्यजित व्याकुल हो उठा-
‘‘अरे.....इतना क्यों रो रही हैं आप दोनों?’’
‘‘यह पिता के घर आने के आँसू हैं सत्य, जिसे सिर्फ लड़कियाँ ही समझ सकती हैं।’’
‘‘हाँ बुआ.....मैं उस आनन्दलोक में हूँ जिसका अनुभव सिर्फ मैं ही कर पा रही हूँ।’’
कार में बैठते-बैठते जैसे रागिनी ने अपने आनंदलोक की आँखों-आँखों में ही सैर कर ली। जब सूरज अपने जादुई रंगों से पूर्व दिशा को पहले सिलेटी फिर सिंदूरी करने लगा तब सत्यजित और मुनमुन के बहुत ही कलात्मक बंगले में रागिनी ने प्रवेश किया। दरवाजे पर अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार नेम प्लेट पर लिखा था.....मुनमुन और सत्यतिज का घर.....पिछले पचास वर्षों से दोनों बिना किसी सामाजिक रिश्ते के एक साथ रहते हैं लेकिन जिनके नजदीक आकर तमाम सामाजिक रिश्ते खोखले सिद्ध हुए हैं......मुनमुन और सत्यजित उम्र के चौरासी वसंत देख चुके हैं लेकिन अब भी दोनों में जिन्दादिली भरपूर है। तड़के सुबह उठकर सत्यजित चाय बनाता है और सोई हुई मुनमुन को आहिस्ता से जगाता है-‘‘उठिए, सुर साम्राज्ञी, चाय लिए बंदा हाजिर है।’’
मुनमुन अंगड़ाई लेते हुए कहती है-‘‘बंदे से कहिए, सुर सम्राज्ञी उसी के हाथों से चाय पिएँगी।’’
‘‘तो फिर पिलानी भी पड़ेगी।’’
‘‘हमें मंजूर है।’’
चाय पीकर दोनों सुबह की सैर के लिए निकल जाते। आठ बजते-बजते काम वाली आ जाती। यही वक्त होता है दोनों के सैर से लौटने का। गरमागरम चाय-नाश्ते के साथ अखबार के समाचारों को लेकर दोनों में उतनी ही गरम बहस छिड़ जाती। कब बारह बज जाते पता ही नहीं चलता। कामवाली हाँक लगाती-‘‘अब नहा लो, नहीं तो कपड़े कब धुलेंगे?’’
मुनमुन ने सलवार कुरता पहनना शुरू कर दिया है। ओढ़नी हमेशा सिर पर रहती है उसके खुले बालों को ढके। पूरे शरीर पर एक भी जेवर नहीं.....बस माथे पर बड़ी-सी बिंदी और दाहिनी कलाई पर घड़ी। हाँ, मुनमुन घड़ी दाहिने हाथ में ही बांधती है।
‘‘जानती हो रागिनी.....मुनमुन को हीरे, माणिक, पन्ना, मोती का बहुत शौक है। जूनून इस हद तक है कि ज्वेलर्स की दुकान के आगे गाड़ी रुकवा कर शोकेस में से निकलवा निकलवा कर हीरे-मोती देखती है, पर न खरीदती है न पहनती।’’
‘‘सत्य, वो सब मेरे लिए नहीं बने हैं तो कैसे पहनूँ? देखने में तो कोई बुराई नहीं।’’ कहते हुए मुनमुन की आँखें हीरे-सी चमकने लगीं। कोई यकीन करेगा कि मुनमुन अभी भी गाती है। आवाज में कंपन जरूर आ गया है पर सुर ताल में कोई गड़बडी नहीं।
‘‘बुआ आपकी उम्र तक आते-आते हमारी तो आवाज ही गायब हो जाएगी।’’
‘‘लो सुनो सत्य.....चौवन की उम्र में जो पैंतीस-चालीस की दिखती है वह हमारी बिटिया देखो हमें कितना बना रही है।’’
‘‘नहीं.....सच बुआ। जवान दिखने के लिए प्यार करने वाला साथी चाहिए जो मुझे मिला ही नहीं। आधी सेंचुरी तो पार कर ली।’’ रागिनी का स्वर मुनमुन को भिगो गया। इस लड़की का जीवन ईश्वर ने इतना एकाकी क्यों बनाया? वरना औरतें माँ, बाप, भाई, बहन और फिर सास, ससुर, पति, बच्चे, नाती, पोतों में ही खुद को भूलकर कब बूढ़ी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता। रागिनी को वह सब नहीं मिला......मुनमुन को भी नहीं मिला पर सत्यजित ने उसके जीवन की सारी कमियाँ पूरी कर दीं। रागिनी को तो उतना भी नहीं मिला। ईश्वर की ओर से इस अन्याय की वजह?
सत्यतिज का मुनमुन के प्रति समर्पित जीवन देख अभिभूत थी रागिनी......उसके पापा ने भी ऐसा ही प्रेम किया था ममा से.......वह पापा ममा की स्मृतियों को उनकी प्रेम नगरी कलकत्ता में साकार करना चाहती है-‘‘बुआ में पापा की संगीत अकादमी को फिर से शुरू करना चाहती हूँ।’’
‘‘लो सत्य, बताओ इसे (रागिनी इस बात से भी गहरे अभिभूत है कि मुनमुन की हर बात सत्यजित से शुरू होती है) हम तो पूरी प्लानिंग करे बैठे हैं, बस तुम्हारा ही इंतजार था रागिनी।’’ और मुनमुन ने कामवाली को टेबल पर रखी नीली फाइल उठा लाने को कहा। फाइल में अकादमी की इमारत का नमूना तक तैयार था।
‘‘यह दो मंजिली इमारत एक मारवाड़ी सेठ की है। वह इसे बेचना चाहता है। बेहद शानदार इमारत है। भव्य कमरे, हॉल......चारों तरफ चहारदीवारी.......बगीचा......बड़ा-सा फाटक।’’ शाम को तीनों इमारत देखने गए। सौदा पक्का हो गया, कागजातों पर हस्ताक्षर हो गए। रागिनी ने चैक काटकर दे दिया.....रजिस्ट्रेशन वगैरह वकील के जिम्मे सौंप रागिनी ने भर नजर इमारत को देखा और संतुष्टि की साँस ली। उस रात फाइव स्टार होटल में तीनों ने मुनमुन की ओर से डिनर लिया। वह रात अविस्मृत रात थी जब एक साथ रागिनी और मुनमुन का स्वप्न साकार हुआ था।
‘‘बुआ......पापा ने तो संगीत चित्रकला अकादमी नाम रखा था?’’
‘‘हाँ.....लेकिन यह शुद्ध संगीत की अकादमी होगी। चित्रकला शब्द हटाना पड़ेगा।
‘‘मैंने सोचा है कि इसका नाम हो ‘‘चंडीदास संगीत केन्द्र’’
‘‘वाह, अद्भुत.......यह नाम तुम्हें सूझा कैसे?’’ मुनमुन गद्गद् थी, सत्यजित अभिभूत।
मुहूर्त पंडित से अगले महीने की किसी तारीख का निकलवाना है। तब तक कितनी खरीदारी करनी थी अकादमी के लिए। डायना और चंडीदास की तस्वीरों की पेंटिंग बनवानी थी जो हॉल की दीवार पर टंगेंगी। प्रवेश द्वार पर सरस्वती की संगमरमर की मूर्ति का मंदिर........चार फुट लम्बा पीतल का दीपदान.....हर कमरे के लिए गलीचे, तबले, तानपूरा, हारमोनियम......खिड़कियों पर परदे......बड़ा-सा रिसेप्शन टेबल, फोन, अलमारियाँ, किताबें, साइनबोर्ड.......अखबारों में विज्ञापन छपेगा, क्लासेस शुरू होने के परचे अखबारों में रखकर बंटवाए जाएँगे। उफ, कैसे होगा सारा काम? कौन करेगा? रागिनी के पास इतना समय कहाँ? उसे इलाहाबाद का महाकुंभ मेला देखना है, कुछ दिन बिताने हैं वहाँ इसीलिए तो उसने इन दिनों भारत यात्रा का अपना टूर निकाला है। कृष्ण से जुड़े तमाम शहर, गांव मथुरा, वृंदावन, द्वारका, जयदेव का गाँव, शांतिनिकेतन लिस्ट लम्बी है। समय कम......थीसिस पर छपी किताब को भी भारत के प्रमुख पुस्तकालयों में भिजवाना है।
‘‘तुम्हारी इलाहाबाद की कल की टिकिट है। वहाँ तुम्हारी सारी व्यवस्था चौमाल जी को सौंप दी है। कलकत्ते के बड़े व्यापारी है। चौमाल जी और इनकी टीम ने कुंभ मेले में विदेशी सैलानियों के रहने-खाने की व्यवस्था का जिम्मा लिया है।’’
‘‘और इधर अकादमी का जिम्मा?’’
‘‘उसकी चिंता मत करो। हैं न कुछ संगीत के मतवाले मेरे विद्यार्थी....वो सारी खरीदारी, सजावट सब कर देंगे। तुम मुहूर्त की तारीख याद रखना बस......।’’
अब रागिनी के पास कहने को रह ही क्या गया था। बुआ ने तो जादू की तरह आनन-फानन सब इन्तजाम कर लिया था।
‘‘आप नहीं चलेंगी इलाहाबाद?’’
‘‘मेरे जाने से यहाँ सब चौपट हो जाएगा.....देखरेख तो मुझे ही करनी है।’’
रात बिस्तर पर जाने से पहले रागिनी को याद आया वह कितनी महत्वपूर्ण चीज तो भूल ही गई थी बुआ को दिखाना.....उसने अटैची में से काली जिल्द पर सुनहले अक्षरों में छपी अपनी थीसिस मुनमुन के सामने ला रखी। मुनमुन ने थीसिस उठाकर जो जिल्द पर छपे अक्षरों पर नजर डाली तो पन्ने पलटती चली गई। रागिनी ने यह किताब समर्पित तो डायना और चंडीदास को की थी पर आभार सबका माना था। दीना, जार्ज, मुनमुन, सत्यजित, जूली, गोर्डन का भी। गद्गद् हो मुनमुन चिल्लाई-‘‘अरे, आओ तो सत्य, देखो तो.....ओ माँ......कमाल हो गया ये तो। तुमने ये काम भी कर लिया?’’
और अपने कोमल हाथों में भारी भरकम थीसिस लिए वह कॉर्निस तक आई जहाँ चंडीदास और डायना की तस्वीरें रखी थीं। थीसिस उनके सामने रखकर उसने अगरबत्ती जलाई। तब तक सज्यजित और रागिनी भी वहाँ आ पहुँचे थे। सबने हाथ जोड़े। मुनमुन बुदबुदाई-‘‘दीदी......तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। इसे आशीर्वाद दो कि अब कोई दुख इसे छू तक न पाए।’’ रागिनी, मुनमुन और सत्यजित तीनों आपस में लिपटे देर तक खड़े रहे। रात फिर कोई नहीं सोया।
कड़कड़ाती ठंड और चारों तरफ छाई धुंध में इलाहाबाद के मीलों फैले संगम तट पर संन्यासी अखाड़े के शाही जुलूस में भारी संख्या में नागाओं को देखकर अचंभित और चमत्कृत थी रागिनी। लगता था मानो धरती के विलक्षण प्राणी हैं वे। ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था। इतने देश घूमी है वह पर ऐसा अद्भुत लोक पहले कहीं देखा ही नहीं। उसके साथ चौमाल जी की पत्नी पद्माजी, पद्माजी के भाई कुसुमाकर जी और उनकी दो बेटियाँ सौदामिनी और सुलेखा भी थीं। असल में चौमाल जी ने इन चारो को रागिनी की देखरेख के लिए ही भेजा था। पर वे कहते थे कि वे चारों कुंभ स्नान के लिए आए हैं। थोड़े ही अंतराल में सब घुलमिल गए थे रागिनी से।
‘‘बाबाजी.....ये कौन हैं?’’ रागिनी ने महन्त जैसे दिखते एक त्रिपुण्डधारी बाबा के पास जाकर पूछा।
महन्त ने पल भर रागिनी के कंधों को ढँके सुनहले रेशमी बालों को बड़ी-बड़ी काली आँखों को और तीखे नाक-नक्श वाले रूप को देखा। वह जीन्स पर ढीली-ढाली जर्सी पहने थी और कानों पर ऊनी टोपा.....गले में दूरबीन लटक रही थी और हाथों में कैमरा। देशी-विदेशी संस्कृति के मिले जुले रूप को देख बाबा मुस्कुराए-‘‘ये नागा हैं।’’
‘‘नागा।’’ रागिनी ने उसी तर्ज पर दोहराया।
‘‘हाँ, ये विदेह हैं। अपनी देह की अनुभूतियों से परे जा चुके हैं। अपनी समस्त सांसारिक इच्छाओं से मुक्ति पा ली है इन्होंने।’’
महन्त ने हाथ में पकड़ी रूद्राक्ष की माला के दानों को आँखों से छुआया और गले में पहन लिया। रागिनी की निगाहें रूद्राक्ष के दानों पर टिक गईं। महन्त ने माला के दानों को छुआ-‘‘ये रूद्राक्ष पंचमुखी हैं। पाँचों इन्द्रियों के दमन का प्रतीक, शांति पाने का सहज मार्ग.....आप भारतीय आध्यात्म को जानती हैं?’’
‘‘मैंने पढ़ा है.....महाभारत, रामायण, गीता, भागवत महापुराण....। मैंने हिन्दी और संस्कृत सीखने, लिखने और पढ़ने के लिए वर्षों मेहनत की है।’’ रागिनी ने फख्र से कहा। उसके होठों से हिन्दी के वाक्य पहाड़ी झरने की तरह बहते देखकर भी महन्त को आश्चर्य नहीं हुआ बल्कि गर्व हुआ-
‘‘तब तो आप महर्षि विश्वामित्र को भी जानती होंगी? उनकी तपस्या को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने खण्डित करके उनके अन्दर कामेच्छा जगा दी थी। न वे बच पाए इस इच्छा से, न इन्द्रदेव लेकिन ये नागा साधु........इन्होंने अपनी कामेच्छा पर विजय पा ली है।’’
रागिनी के मुँह से निकला-‘‘ओह’’ और उसका मुँह खुला का खुला रह गया। मानो वह उन पुराणों के ऋषियों को साकार देख रही थी बल्कि उससे भी अधिक सत्य......विलक्षण....अद्भुत, आह! इतने वर्षों से अपने प्रेम के जिन स्याह पृष्ठों को उसने अपने मन के तलघर में डाल दिया था, वह सहसा फड़फड़ाने लगे। सैम ने उसे वासनापूर्ति का साधन समझ जिस नारकीय पंक में गले-गले डुबोया था, उसमें एक भी प्रेम कमल न था। उसका दिल पँखुड़ी-पँखुड़ी टूटा था।
कड़ाके की सर्दी में पूरे इलाहाबाद सहित कुंभनगर जकड़ा हुआ था।
‘‘डुबकी नहीं लगाएँगी मैडम?’’ कुसुमाकरजी ने चुटकी ली।
‘‘भाई-सा......आप भी हद करते हो। इनके लिए ये ठंड कोई ठंड है? ये तो लंदन की रहने वाली हैं।’’ पद्माजी ने शॉल अच्छी तरह ओढ़कर हवा के रूख में पीठ कर ली। सर्दीली हवा ने रागिनी के गाल नाक ठंडे कर दिए थे। ऊनी टोपे से कुछ जिद्दी लटें कान के पास उड़ रही थीं। सामने गंगा का ठंडा बर्फीला पानी ओर-छोर फैला था जिसमें संन्यासी अखाड़े के नंग-धड़ंग नागा साधु ईश्वर के नाम को बुदबुदाते हुए डुबकियाँ ले रहे थे। रागिनी सिहर उठी। कुंभनगर की पवित्र फिजा में महात्माओं के श्लोक गूँज रहे थे। एक भव्य दृश्य......अखाड़ों का ऐसा जुलूस जैसा एक जमाने में राजा-महाराजाओं का निकलता था। इस जुलूस की भव्य शोभा यात्रा में शामिल नागाओं और महात्माओं की एक झलक पाने को लोग घंटों से प्रतीक्षारत थे। करोड़ों की भीड़, देश-विदेश के इतने यात्री.....मॉरीशस, फीजी, सूरीनाम, हॉलैड आदि देशों में फैले हजारों लाखों अप्रवासी भारतीय के लिए यह महाकुंभ मानो उन्हें अतीत में विचरण करा रहा था। इसी भारत से उनके पूर्वज सौ डेढ़ सौ साल पहले इन देशों में मजदूरी के लिए ले जाए गए थे। ब्रिटिश सरकार के गिरमिटिया या मजदूर इन अनजान वीरान द्वीपों पर लम्बी समुद्र यात्रा और शारीरिक यंत्रणा के बाद लाए गए थे जिसे अपने श्रम से सींचकर उन्होंने हरा-भरा बनाया था। फिर उन्हें वहीं बस जाना पड़ा था। उनकी संतानों में भी भारत की धार्मिक आस्था कूट-कूट कर भरी है। लेकिन आज उन्हें कहीं और के नागरिक हो जाना पड़ा था। वहाँ रहकर भी धर्म, संस्कृति ओर आध्यात्म की गंगा बहाए हुए हैं लेकिन रागिनी जिस संस्कृति से आई है वहाँ इन आस्थाओं का कोई मूल्य नहीं। वहाँ किसी भी नदी का ऐसा कोई संगम नहीं जहाँ नियत समय, तिथि पर मौसम के तेवर को नजरअंदाज कर डुबकी लगाई जाती हो। वहाँ कोई नागा साधु नहीं जिसने कामेच्छा पर विजय पा ली हो। बल्कि उनके लिए एक-दूसरे में लिप्त होने का सबसे शर्तिया साधन कामवासना ही है। उपभोक्तावादी, बहुउद्देशीय, शक्तिशाली देश इंग्लैंड, लेकिन इस इच्छा से अछूता नहीं.....।
हालाँकि रागिनी के लिए बेहद आलीशान तम्बू की व्यवस्था की थी चौमालजी ने कुछ दूरी पर हटकर पद्माजी और उनकी दोनों बेटियों का तम्बू था और उसी तम्बू से सटा कुसुमाकरजी का आकार में छोटा तम्बू। अगली पंक्ति अन्य विदेशी सैलानियो के तम्बुओं की थी। इन तम्बुओं में मॉरीशस से आई सुचेता थी, हॉलैंड से आई दीपा थी, सूरीनाम से आयी विशाखा थी। सुचेता के पूर्वज बिहार के रहने वाले थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार गिरमिटिया बनाकर मॉरीशस ले गई थी। तब से सुचेता का परिवार भाई, भाभी और अविवाहित सुचेता वहीं के बाशिंदे हो गए थे। सुचेता, दीपा और विशाखा के साथ रागिनी अपनी रईसी शान बान भूल बिल्कुल आम नागरिकों की तरह घुल-मिल गई थी।
‘‘अब तो तुम सब अपने-अपने देश की वासी हो....भारत तुम्हारे लिए विदेश है। है न?’’ रागिनी ने तम्बू में बिछी खाट पर बैठते हुए कहा। यह तम्बू सुचेता का था।
‘‘क्यों? भारत विदेश क्यों? इससे क्या कि हम मॉरीशस में रहते हैं? हम हैं तो भारत के ही। कभी मॉरीशस आओ रागिनी। तुम्हें लगेगा जैसे तुम भारत में ही हो। वहाँ गंगा तालाब है जिसे परी तालाब भी कहते हैं। किंवदंती है कि इस तालाब की टेकरी पर रात को परियाँ आकर बैठती हैं। वैसे गंगा तालाब ज्वालामुखी के फटने से प्रगट हुआ है। हमारे पूर्वजों द्वारा लाया इसी इलाहाबाद की गंगा का जल उस पर छिड़ककर उस तालाब का नाम गंगा माँ की स्मृति में गंगा तालाब रखा गया। शिवरात्रि के दिन गंगा तालाब से काँवरों में जल भर कर मॉरीशस के शिव मंदिरों में अभिषेक के लिए ले जाया जाता है। तालाब के किनारे तेरहवें ज्योतिर्लिंग का विशाल शिव मंदिर है लेकिन द्वार के नंदी पर अगूंठे और उँगली से गोल घेरा बनाओ तो उस नन्हें से गोल से भी विशाल शिवलिंग के दर्शन होते हैं।’’
‘‘चमत्कार.....और उससे भी बढ़कर अद्भुत यह कि हजारों मील दूर रहते हुए और डेढ़ सौ वर्षों से छूटे अपने देश के प्रति तुम्हारी ऐसी आस्था सुचेता।’’
सर्द हवाओं संग कहीं दूर बजते ट्रांजिस्टर के गीत बिल्कुल नजदीक लग रहे थे.......‘‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ईबूँ......सैंया से कर दे मिलनवा...।’’
दीपा उत्तेजित हो रही थी अपने हॉलैंड की बातें बताने को-‘‘रागिनी, तुम हॉलैंड गई हो कभी?’’
रागिनी को एम्स्टरडम याद आया। समुद्र के स्तर से नीचे बसा देश जहाँ टयूलिप के फूलों और पवनचक्कियों की भरमार है और जहाँ की सड़कों पर उसने और दीना ने साईकिल चलाई थी।
‘‘हॉलैंड में हर एक हिन्दू घर में हनुमानजी की मूर्ति अवश्य मिलेगी। वहाँ काफी संख्या में भारतीय हैं, साठ से अधिक तो मंदिर हैं वहाँ। मैं अपने पति सुरेन्द्र के साथ पहली बार भारत आई हूँ जबकि हमारे पूर्वज कश्मीर के निवासी थे।’’
आसमान तारों से खचाखच भरा था और दीपा और सुचेता का दिल धार्मिक आस्था से......। विशाखा चुप थी उसके दिल में गंगा उमड़ रही थी। रागिनी अपने दिल को टटोलने लगी....। अकेलापन जिसे उसने सारी उम्र झेला है और जिसमें कभी-कभी प्यार से मिले धोखे की टीस जागती है आज कुंभ नगर में भी वह उस संताप से मुक्त क्यों नहीं हो पा रही है जबकि दूर-दूर तक फैले संगम तट पर तिल रखने को भी जगह नहीं है? रात गहरा रही थी लेकिन संगम तट का नजारा ऐसा था कि मानों रात ने आने से इंकार कर दिया हो। भक्ति, संगीत और साधना का संगम सँजोए बहुरंगी रोशनी से नहाए तम्बू......खुले रेतीले तट......जलते अलाव एक दूसरी ही दुनिया की सैर करा रहे थे। तभी दीपा के पति सुरेन्द्र माचिस की डिब्बी पर सिगरेट ठोकते हुए आए.....कुरते, पायजामे में बेहद खूबसूरत.......कश्मीरी टच देते सुरेन्द्र ने आते ही बताया-‘‘दीपा, कल यहाँ एक संगोष्ठी होने वाली है। ‘’भारतीय मूल के अप्रवासी भारतवंशी’ नाम है उस संगोष्ठी का। उसमें सभी विदेशों में बसे भारतीय भाग लेंगे।’’
‘‘तुम चलोगी रागिनी?’’ दीपा ने चंचलता से पूछा।
‘‘रागिनी लंदन से आई है, अंग्रेज हैं। बाइ द वे आपका नाम शुद्ध भारतीय नाम है, कैसे?’’ सुरेन्द्र ने मन में उठे संशय का समाधान करना चाहा।
गंगा माँ के सामने जब जीवन खुली किताब है तो इन सबसे क्या छुपाना?
‘‘मैं भारतीय ही हूं। मेरे पिता बंगाली हिन्दू थे और माँ अंग्रेज।’’ रागिनी ने निर्द्वन्दता से कहा और फिर ठंडी साँस ली।
‘‘आज हमारे साथ डिनर लोगी?’’ विशाखा भावविभोर थी। डिनर का इंतजाम उसी के तम्बू में किया गया था। सब गोल घेरा बनाकर बैठ गए। पत्तलों के ढेर से सबने अपने-अपने लिए दोने और पत्तलें चुन लीं। रागिनी के सामने जब विशाखा ने पत्तल बिछाई तो वह आश्चर्य से उसे उलट-पलट कर देखने लगी। सुचेता ने पत्तल पर पानी छिड़ककर रूमाल से पोछा-‘‘ये पत्तलें पलाश के पत्तों को जोड़कर बनाई गई हैं। पलाश होली के त्यौहार के समय फूलता है। चटख लाल रंग के काली डंडीवाले पलाश के फूल जब खिलते हैं तब इसके पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं रहता। हर शाख फूलों से लदी जैसे जंगल में आग लग गई हो।’’
पत्तलों पर गरम-गरम सुनहरी सिंकी पूड़ियाँ, आलू-मटर की भुनी हुई सब्जी, आम का अचार और दोने में खीर परोसी गई। रागिनी को ऐसा खाना खाए जमाना गुजर गया। जब दीना थी तो अक्सर ब्रेकफास्ट में यह सब बनवाती थी। उसे दीना की शिद्दत से याद आई जिसने सिर्फ उसकी खातिर इस भारत की धरती पर दुबारा कदम नहीं रखा।
रागिनी कुछ विदेशी छायाकारों के साथ संगम के शाही स्नान का नजारा अपने कैमरे में कैद कर रही थी। गंगा की लहरों पर सिर ही सिर दिखाई देते थे या फिर उथले पानी में कमर-कमर तक डूबे नागा साधु जो जुलूस की शक्ल में हाथी, घोड़ों, रथों, पालकियों सहित पधारे थे। कैसे-कैसे तो नाम हैं इन साधु संन्यासियों, बैरागियों और इनके मतों के। महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना निर्वाणी, दिगम्बर, निर्मोही, नया पंचायती, बड़ा पंचायती......ओह, बहुत उलझा हुआ.....विस्तृत है सब कुछ। अपार और रोमांचक। रागिनी अभिभूत-सी तट के पश्चिमी घाट पर खड़ी थी। उसने देखा एक नागा साधू अपना त्रिशूल लेकर उस जापानी छायाकार के ऊपर झपटा जो सुबह से उसके साथ ही है। वह बचाने को दौड़ी। तभी और भी कई लोगों ने उनका त्रिशूल पकड़ लिया-‘‘बाबा, क्षमा करें।’’ नागा लाल-लाल आंखों से घूरने लगा-‘‘हमने मना किया न, कि हमारी फोटो मत लो......धर्म-कर्म में रूकावट डालते हो?’’
जापानी थर-थर काँप रहा था। लोगों की क्षमा प्रार्थना से वह नागा लौट तो गया गंगा की ओर लेकिन क्रोध से उसके नथुने फड़कने लगे थे। रागिनी जापानी युवक के साथ कुंभनगर में टहल रही थी जो कुछ ही घंटों में अपने मोहक स्वभाव के कारण उसका दोस्त बन गया था। रागिनी की तरह वह भी आश्चर्यचकित था कुंभनगर के अलौकिक परिवेश से। करोड़ों की भीड़ ने दोनों को ही आश्चर्य में डाल दिया था। रागिनी जहाँ का भी रुख करती कुसुमाकरजी वहीं प्रगट हो जाते.....इतनी निष्ठा से वे रागिनी के अंगरक्षक की भूमिका निभा रहे थे कि रागिनी इस बात से भी चकित थी। यहाँ तो सारी घटनाएँ ही चकित कर डालने वाली थीं। कड़ाके की सर्दीं को अंगूठा दिखाते श्रद्धालुओं के लिए गंगा का पवित्र जल मानो गरम पानी का कुंड बन गया था। आखिर क्यों ये सब मौनी अमावस्या के ही दिन डुबकी लगाने को बेताब हैं। क्या कोई वैज्ञानिक तर्क है इसका? कुसुमाकरजी ने बताया-
‘‘मैडम, ऐसी मान्यता है कि मौनी अमावस्या के दिन का यह महास्नान उनके लिए स्वर्ग के दरवाजे खोल देता है, वे मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।’’
‘‘क्या आप भी पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं?’’
‘‘करना न करना हमारे वश में कहाँ, धर्म तो यही कहता है न।’’
‘‘पर आपका अपना कोई तर्क नहीं?’’
‘‘मैडम, मर कर ही पता पड़ेगा यह रहस्य? इस पर तर्क करना बेकार है....अगर हम धार्मिक हैं तो हमें आँख मूँदकर विश्वास कर लेना चाहिए।’’
कुसुमाकरजी ठीक कहते हैं। धर्म पर आस्था है तभी तो करोड़ों लोगों को चुम्बक की तरह खींच लाई है यहाँ....। वह भी तो आई है इसी विश्वास के बल पर सब कुछ अपनी आँखों से साक्षात देखने....। समुद्रों, पर्वतों को लाँघकर आया विदेशी सैलानियों का हुजूम भी हूबहू भारतीयों जैसा ही माथे पर तिलक भभूत लगाए, रूद्राक्ष की माला पहने इस भीड़ में शामिल है तो क्या मात्र दिखावे के लिए? नामुमकिन। यह दिखावा नहीं है........यह सदियों से पल रही आस्था है। सरस्वती इतने वर्ष पहले गायब हो गई कि भूगर्भ वैज्ञानिकों को उसके मार्ग की खोज करने के लिए जीवाश्म और सेटेलाइट इमेजरी का अध्ययन करना पड़ा। न ही उसका विलोप होना इतना निकट है कि उसके अस्तित्व को तलाशा जा सके। लेकिन वैदिक ऋचाओं में देवलोक की इन तीनों नदियों के स्वर्गिक संगम का महिमागान मौजूद है। गंगा अपनी सुनहरी लहरों के रूप में, यमुना काली लहरों के रूप में और सरस्वती धवल क्षीर धार सहित जब एक-दूसरे के आलिंगन में समाती हैं तो मानों स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। यह विश्वास ईसा से तीन हजार साल पहले से मौजूद है। विद्यार्थी जीवन में रागिनी ने हर तर्क को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखा और उत्तर पाया है लेकिन इस महान आस्था का कोई उत्तर नहीं है उसके पास। माइकेल जैक्सन और मेडोना के शो में लाइट और साउंड के आधुनिकतम उपकरण सजाकर भी कभी इतनी भीड़ नहीं बटोर पाए प्रायोजक।......गाँव, देहात से सिर पर गठरी रखे लोग उमड़े पड़ रहे हैं...। हर वर्ग का आदमी बस एक बार गंगा में डुबकी लगाने की इच्छा के लिए चला आ रहा है। दो-दो, तीन-तीन महीने के शिशुओं तक को सर्द पानी में डुबकियाँ लगवा रहे हैं ये लोग। ओह! रागिनी के रोंगटे खड़े हो गए। जापानी खटाखट हर क्रियाकलाप की तस्वीर खींच रहा था।
‘‘देखिए मैडम, कितना शानदार दृश्य है......साथ ही इस मघई पान के बीड़े का भी आनंद उठाइए।’’ कुसुमाकरजी ने अपनी चाँदी की डिब्बी में से दो बीड़े निकालकर दोनों की ओर बढ़ाए।
पान चबाते हुए रागिनी ने संगम के पूर्वी घाट पर मौजूद साधु, संन्यासियों और नागा बाबाओं के अखाड़े देखे। चमक-दमक, साज-सज्जा और दिखावे में एक-दूसरे से होड़ लेते इन अखाड़ों के गेट किले या महल के गेट जैसे शानदार थे। नामी गिरामी अखाड़ों के आगे तो कारों, जीपों की लाइन लगी थी। कार में भगवा केसरिया परदे लगे थे और यह सारी व्यवस्था उन निरासक्त, बैरागी, नंग-धड़ंग साधुओं के लिए उनके चेले-चपाड़ों द्वारा की गई थी जिन्होंने अपनी कामेच्छा पर विजय पा ली थी। रागिनी और जापानी युवक अखाड़े का नजारा देखकर ठिठक से गए। कुछ नागा साधु अधलेटे चिलम फूँक रहे थे। उन्होंने दोनों को इशारे से बुलाया-‘‘कहाँ से आए हो?’’
‘‘मैडम लंदन से आई हैं, रागिनी नाम है इनका।’’ कुसुमाकरजी ने बताया तो साधु ने आँखों ही आँखों में उन्हें इस अंदाज में झड़पा कि हम आपसे पूछ रहे हैं क्या? कुसुमाकरजी झेंपते हुए एक ओर चले गए। जापानी आगे बढ़ा-‘‘बाबा, मैं जापान से आया हूँ।’’
दोनों के पैर छूकर वहीं पास में बैठ गए। साधु ने रागिनी से कहा-‘‘चिलम पियोगी? लो, एक सुट्टा मारो और हमारे पैर दबाओ।’’
रागिनी ने साधु की ही चिलम से सुट्टा मारा। पैर छूने और पैर दबाने की यह परम्परा जब से वह कुंभनगर आई है देख रही है। उसे अटपटा नहीं लगा और वह साधु के पैर दबाने लगी। काले आबनूस से चमकते पैर......शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं...। रागिनी के कोमल हाथों के जिस स्पर्श से सैम बेकाबू हो उठता था और उसे दबोच लेता था वही स्पर्श साधु में कोई उत्तेजना न जगा सका। सचमुच ये विदेह हैं......इन्हें देह का ज्ञान नहीं।
साधु उठकर बैठ गया। पीठ पर बिखरी अपनी जटाओं को समेट कर सिर पर बांधते हुए बोला-‘‘लो, पीठ भी मल दो।’’
मौका देखकर जापानी ने हिम्मत की-‘‘बाबा, मैडम के साथ आपका एक फोटो खींच लेने दीजिए न।’’
साधु ने अलमस्त हो आसमान की ओर निगाहें उठाईं-‘‘खींच लो, खींच लो।’’ यह शरीर तो मिट्टी में मिलना ही है। तुम्हारा कैमरा हमारी आत्मा की फोटो तो खींच नहीं सकता और आत्मा का उद्धार होता है इच्छाओं के त्याग से-
गंगा के नहाए से कौन नर तर गए,
मीनहु न तरी जाको, जल ही में वास है।
रागिनी भावविहवल हो साधु के चरणों पर गिर पड़ी। मन ही मन कहने लगी-‘‘मुझे शांति चाहिए बाबा।’’
नागा साधु ने उसके सिर पर हाथ फेरा-‘‘उठो, अपनी इच्छाओं का त्याग करो पहले।’’
रागिनी देर तक उनके पास बैठी रही। क्या बाबा मन की बात ताड़ गए? क्या ये संभव है? लेकिन कैसे? कैसे ये निरासक्त साधु मेरे मन की गहराइयों में उतर गया? रागिनी नतमस्तक थी।
तड़के ही रागिनी की आँख खुल गई। तम्बू के गेट से बाहर झाँकते ही वह विस्मित रह गई। त्रिवेणी की लहरों पर हजारों की तादाद में पक्षी अपने पंख फड़फड़ाकर विचरण कर रहे थे। कोहरे की चादर जमीन-आसमान एक किए थी लेकिन कुंभनगर की रोशनियों ने कोहरे की धुँधलाहट कम कर दी थी। रागिनी त्रिवेणी की ओर अपना कैमरा लेकर तेजी से चल दी। मेलार्ड और सुर्खाब पक्षियों के झुंड उसके कैमरे में कैद होते चले गए। सामने ही सुचेता थी-‘‘गुडमॉर्निंग रागिनी, तुम भी जल्दी उठ जाती हो?’’
‘‘नहीं, ये तो कुंभनगर में हूं, इसलिए, यहां कोई देर तक सो सकता है?’’
‘‘कितनी ठंडी हवा है? तुम्हें ठंड नहीं लग रही?’’
रागिनी मुस्कुराई और पुलोवर, शॉल, कानटोपा से गरमाए अपने बदन को अंदर ही अंदर महसूस करते हुए उसने पूर्व दिशा की ओर देखा। सूर्य की किरणें कोहरे को चीरने की कोशिश कर रही थीं। वह हिमपात और बारिश की आदी थी। लंदन में हफ्तों सूर्य के दर्शन नहीं होते हैं। लेकिन यहाँ भोर का मतलब की सूर्य दर्शन है। तभी उसकी निगाह त्रिवेणी जल में कमर-कमर तक डूबी औरतों, मर्दों पर गई। वे हाथों की अंजली बना सूर्य को अर्घ्य चढ़ा रहे थे। रागिनी मंत्रमुग्ध-सी देखती रही। इस विहंगम दृश्य ने उसकी नस-नस को झंकृत कर नशा-सा बहा दिया उनमें। कोहरीली हवा ने उसकी सांस के साथ दिल में प्रवेश कर एक संगीत-सा उत्पन्न कर दिया। वह एकदम सन्न रह गई। यह किस रस में डूबा जा रहा है उसका दिल? यही है क्या आध्यात्म का रस? यही है उस कुंभ से छलका अमृत जो समुद्र-मंथन से निकला था? सहसा हवा की लहरियों में बांसुरी की लय ने मिश्री घोल दी। गंगा के तट के रेत पर अलाव जलाए तीन चार ग्रामवासी बाँसुरी की धुन पर कोई भजन गा रहे थे। वह खिंची हुई सी उनके नजदीक जाकर बैठ गई। सुचेता भी आ बैठी। वे धोती, कुरता, स्वेटर, कम्बल, मफलर से लैस आंखें बंद किए अपूर्व सुख में बैठे थे। रागिनी ने जयदेव के गीत-गोविंद को पढ़ा था और उसके बाद उसकी आंखों की नींद उड़ गई थी। उसका अंतःकरण प्रेम के वशीभूत हो अपने सैम के प्रति उलचा पड़ रहा था। वह कॉलेज का जमाना था जब वह सैम के प्रेम में डूबी हुई थी। जयदेव ने इस प्रेम को परवान पर चढ़ाया था। शब्दों की कैसी अपार महिमा थी....राधा के विरह में, कृष्ण उसकी सखी से कहते हैं..... ‘‘जाओ, राधेरानी से कहो कि मैं कब तक उनके विरह की पीड़ा सहूं?’’
मंत्रमुग्ध हो सखी राधा के नजदीक जाकर रो पड़ी थी- ‘‘राधेरानी, कृष्ण तुम्हारे लिए व्याकुल हैं। चंदन की सुगंध लिपटी हवाएं उन्हें विवश किए डाल रही हैं। जब कलियाँ हँसती हैं तो वनमाली का हृदय तड़प उठता है। जब चाँद की किरणें धरती को रजत बनाती हैं तब वे प्रेमबाणों से घायल हो मछली-सा तड़पते हैं। भौरों की गुनगुन सुन वे घबराकर कानों को मूंद लेते हैं। वे राधे-राधे का जाप करते जंगल में तपस्वी के समान आसन जमाए बैठे हैं...जाओ राधेरानी, हरि के विरही मन पर कोमल करों से प्रेम का मलहम लगाओ।’’
हफ्तों जयदेव की कलम का नशा चढ़ा रहा था रागिनी पर। उसे लगता जैसे वह बस कृष्ण को ही देख रही है और कुछ दिखाई नहीं देता। ममा ने भी पापा को जयदेव के गीत गाकर सुनाए होंगे....। दोनों ने मिलकर बाँसुरी बजाई होगी। ऐसी ही बांसुरी...मंत्रमुग्ध करती-सी....। भजन खत्म हो चुका था। ग्रामीण उसे अपने पास बैठा पा दंग थे। वह हँसने लगी। उसने उनके हाथ से बांसुरी ले उलट पुलट कर देखा- ‘‘मैं बजाऊं?’’
ग्रामीणों ने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसने बहुत कोशिश की लेकिन बाँसुरी नहीं बजी। फूँक-फूँक कर वह थक गई। ग्रामीण उसे मुँह फाड़े देखते रह गए। तभी कुसुमाकर जी उसे ढूँढ़ते हुए आए-‘‘अरे मैडम आप इधर बैठी हैं? चलिए गंगा की सैर के लिए नौका तैयार है।’’
रागिनी ने सुचेता की ओर देखा। सुचेता समझ गई-‘‘नहीं तुम सैर कर आओ रागिनी.....मैं तो अभी तैयार भी नहीं हूँ। तम्बू में भी सब सो रहे होंगे।’’
नौका पर पहले से ही पद्माजी, सुलेखा और सौदामिनी बैठी थीं। बाँस की दो टोकरियों में गरमागरम जलेबियाँ और कचौड़ी पत्तलों से ढँकी रखी थीं। थरमस में कॉफी। रागिनी देख रही थी कि कुसुमाकरजी शिकायत का मौका ही नहीं देते।
जब रागिनी की नौका तट से आ लगी तब दूर आम-जामुनों के पीछे सूरज अस्त हो रहा था। पद्माजी लम्बी उबासी लेते हुए डगमगाती नौका से तट पर उतरीं-‘‘मैं तो आराम करूँगी अब।’’
‘‘हाँ थक गई हो तुम पद्मा.....आराम ही करो जाकर। सुलेखा.....मम्मी को दवाइयाँ खिलाकर चाय पिला देना।’’ कुसुमाकरजी ने हिदायत दी और अपनी हर बात की सफाई देते हुए रागिनी से बोले ‘‘आराम में पली बढ़ी हैं इसीलिए हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज के तोते पाल रखे हैं.....इतना घूम लीं तो समझो बहुत हुआ.....अब कल तो ये हिलेंगी ही नहीं बिस्तर से।’’
रागिनी भी अपने तम्बू की ओर फ्रेश होने के लिए लौट गई।
विशाखा, दीपा, सुरेन्द्र, सुचेता और कुसुमाकरजी का दल शाम ढलते ही रागिनी को लेकर ‘‘चलो रे मन गंगा यमुना तीरे’ बैनर तले होने वाले संगीत के भव्य कार्यक्रम को देखने के लिए चल पड़ा। लाखों की भीड़ में रास्ता बनाती सुचेता रागिनी का हाथ पकड़े थी जो बर्फ-सा ठंडा था। सुचेता के हाथों की गर्मी ने रागिनी की हथेलियों की बर्फ पिघला दी। पिघला हुआ बर्फ प्रेम और नजदीकी के एहसास को लिए धार बन बह चला और उस धार में संगीत की धारा ऐसी तिरोहित हो बह चली मानो आकाश से एक और गंगा उतर आई हो। शहनाई की धुन पर खड़ा हुआ जनसमूह आँखें मूँदे झूम रहा था। ‘‘ये उस्ताद फतह अली खाँ हैं......मशहूर शहनाई वादक।’’ कुसुमाकरजी ने रागिनी के नजदीक आकर कहा।
रागिनी को इंतजार था अनूप जलोटा की गज़लों का.....पर उसने भजन सुनाए जो रागिनी के दिल में उतर गए। वह भी दाएँ-बाएँ झूम झूम कर भजन के सुर में सुर मिलाने लगी। एक से बढ़कर एक कलाकार हुसैन बंधु, हरिप्रसाद चौरसिया, तिज्जन बाई द्वारा प्रस्तुत कला की बानगियों ने कुंभनगर को संगीत सरिता में आकंठ डुबो दिया। फिर आए लोककलाकार जिनके लोकनृत्यों से रागिनी को भारत की लोककला की जानकारी मिली। वैसे इन सब कलाओं का ज्ञान उसे दीना और मुनमुन बुआ से पहले ही मिल चुका था। वह भारत की हर कला से इतनी परिचित हो चुकी थी कि किसी से पूछने के लिए कुछ बचा ही नहीं था इसीलिए तो जब वह संगीत की धार में बही जा रही थी तब इकतारा बजाते अपने पापा चंडीदस को वह साक्षात देख रही थी, हारमोनियम बजाती अपनी ममा को साक्षात देख रही थी। उसे लग रहा था जैसे दोनों उसके आसपास ही हों। यह खड़ा हुआ जनसमूह क्या जाने कि इस संगीत से रागिनी का क्या नाता है....कि वह ममा के गीतों की राग है तभी तो पापा ने उसके जन्म के पहले ही उनका नाम रख दिया था ‘‘रागिनी’।
संगीत-संध्या की समाप्ति के बाद रागिनी ने अपने दल सहित डिनर लिया और तम्बू में आकर बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर ढेर हो गई। सुबह की जागी रागिनी की बोझिल पलकों को जब गहरी नींद ने चूमा, तम्बू घने कोहरे में गुम हो गया था।
सुबह कुल्हड़ में चाय पीते हुए रागिनी ने सुचेता और दीपा से कहा-‘‘मुझे कुंभ की जानकारी के लिए कुछ पुस्तकें खरीदनी हैं....चलोगी मेरे साथ?’’
‘‘आज तो पूर्णिमा है, विशेष स्नान है आज तो हम लोग बस निकल ही रहे हैं संगम के लिए तुम चली जाओ स्टॉल तक। वहाँ सब तरह की किताबें मिलेंगी तुम्हें।’’
‘‘मैडम चिन्ता क्यों करती हैं.....आप आराम कीजिए, किताबें हम ला देते हैं।’’ कुसुमाकरजी अपने अंगरक्षक की भूमिका में मौजूद थे। उन्हें जैसे रागिनी के हर पल का हिसाब देना हो चौमालजी को।
‘‘नहीं कुसुमाकरजी, मैं यहाँ आराम करने नहीं आई हूँ। आप चाहें तो बुक स्टॉल तक मेरे साथ चलें।’’
कुसुमाकरजी ने रागिनी को पान के बीड़े पेश किए।
‘‘सुबह, सुबह?’’
‘‘खाइए न.....ये तो मगही पान है, मुंह में जाते ही घुल जाता है।’’
स्टॉल पर अधिकतर विदेशी पर्यटकों की भीड़ थी। जो रागिनी की तरह ही भारत दर्शन की इच्छा से यहाँ आए थे। ऐसे ही डेनिश से आए पर्यटक एन्टर्स से रागिनी की मुलाकात पुस्तकें खरीदने के दौरान हुई। एन्टर्स साइकिल से विश्व भ्रमण करने निकला था और मकर संक्रांति का शाही स्नान देखने प्रयाग आया था। शाही स्नान से भी बढ़कर आकर्षण था एक सौ चवालीस वर्ष के बाद हो रहे इस महाकुंभ का जो पूरे चवालीस दिन में सम्पन्न होने वाला था और जिसके विशेष शाही स्नान के दिन थे पौष पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा का कल्पवास जिसमें व्रत और ध्यान किया जाता है, मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी और शिवरात्रि। आज पूर्णिमा का विशेष स्नान था जिसमें सुचेता, सुरेन्द्र, दीपा, विशाखा विशेष रूप से हिस्सा ले रहे थे। गंगा में डुबकी लगाने से पहले वे चाय तक नहीं पिएँगे। सोचते हुए रागिनी का हाथ जिस किताब की ओर बढ़ा उसी ओर एन्टर्स का हाथ भी बढ़ा। दोनों ने एक साथ ही किताब पकड़ी और चौंक कर एक-दूसरे को देखा और फिर हँस पड़े।
‘‘मैं लंदन से.....रागिनी रोज ब्लेयर।’’
एन्टर्स ने जिन्दादिली से हाथ मिलाया।
‘‘आप भी भारतीय आध्यात्म में इंटरेस्ट रखती हैं?’’
‘‘ऑफकोर्स.....भारतीय आध्यात्म जितना रोचक है उतना किसी भी देश का आध्यात्म नहीं..। इसी को जानने परखने मैं भारत आया हूँ। मैं पैंतीस हजार किलोमीटर की यात्रा साईकिल से कर चुका हूँ। वृंदावन, मथुरा, सोमनाथ, द्वारिका, सारनाथ, बनारस के दर्शन कर अभिभूत हूँ। चमत्कार है यहाँ, यहाँ की हवाओं में मिट्टी के कण-कण में। आप जानती हैं जो गाय हमारा भोजन है वह गाय यहाँ पूजी जाती है।’’
‘‘हाँ, मैं जानती हूँ। मैंने गहन अध्ययन किया अपने रिसर्च वर्क के लिए...। कृष्ण पर रिसर्च की है मैंने जो आसान काम नहीं है। मैं कृष्ण से जुड़े स्थानों को भी देखना चाहती हूँ......खासकर वृंदावन.....जो गाय और गोपालों की नगरी है। वहाँ राधाकृष्ण अभी भी महसूस किए जा सकते हैं। जयदेव, सूर ओर मीरा के कृष्ण।’’
एन्टर्स ने थकान और सर्द हवा से निपटने के लिए कॉफी मंगवाई। रागिनी की निगाहें कुसुमाकरजी को तलाशने लगीं पर वे अदृश्य थे। कॉफी का कुल्हड़ रागिनी की ओर बढ़ाते हुए एन्टर्स बोला-‘‘मैं पूरे भारत की साइकल से सैर करूँगा। मुझे भारत की इस विलक्षण, आध्यात्मिक एकता और सहिष्णुता का संदेश अपने देश भी ले जाना है।’’
कॉफी खत्म कर उन्होंने कुल्हड़ टोकरी में डाला और स्टॉल से निकलकर रेतीले तट पर चहलकदमी करने लगे।
‘‘आप बौद्ध धर्म से तो परिचित होंगी?’’
‘‘प्रभावित भी हूँ। मुझे मालूम है कल दलाई लामा आ रहे हैं। मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।’’
‘‘तब तो आप दार्जिलिंग, सिक्किम, मेघालय की सैर भी कर आइए। बौद्ध धर्म वहाँ के मठों में अच्छे से समझने को मिलेगा।’’
‘‘यहाँ के दलित अपने को बौद्ध धर्मावलम्बी कहते हैं।’’ कुसुमाकरजी अचानक दोनों के पीछे से बोले।
‘‘अरे, आप तो चौंका देते हैं। पल में दृश्य, पल में अदृश्य।’’
‘‘यही तो हमारी खूबी है मैडम।’’
तीनों साथ-साथ सारा दिन घूमते खाते-पीते.....एक यादगार दिन को स्मृति में संजोए जब अपने अपने तम्बू में लौटे तो शाम का झुटपुटा शुरू हो चुका था। रागिनी के तम्बू के सामने विशाखा तेजी से टहल रही थी-‘‘कहाँ थी रागिनी तुम.....आज की रात तुम्हारे खाने, सोने की व्यवस्था सुचेता के तम्बू में की गई है। पद्माजी को बता दिया है हमने। चलो, फ्रेश हो लो फटाफट।’’
‘‘अरे....हमें तो इस प्रोग्राम की जानकारी ही नहीं थी।’’
‘‘हाँ तो क्या हुआ, यह तो सरप्राइज प्रोग्राम है।’’
रागिनी को विशाखा ने साड़ी पहनाई, माथे पर बड़ी-सी बिन्दी लगाई-‘‘कोई कहेगा तुम अंग्रेज हो? बिल्कुल बंगालिन दिख रही हो।’’
मैं बंगालिन ही तो हूँ कहना चाहा रागिनी ने, पर कुछ बातें अनकही ही रहती हैं।
तम्बू में सुचेता और दीपा माथे पर तिलक लगाए तपस्विनी-सी दिख रही थी। उनके चेहरे पर गंगास्नान का तेज छिटका पड़ा था। उन्होंने सामान सहेज लिया था और रागिनी को देखते ही चहकी थीं-‘‘ओ माई गॉड, कितनी सुंदर लग रही हो रागिनी।’’
क्यों इतनी आत्मीय हो तुम सब? क्या तुम जरा भी नहीं सोचतीं कि अंग्रेजों ने भारत को कितना तबाह किया है। तुम तीनों से तुम्हारा देश छुड़ा कर उन अनजान टापुओं में गिरमिटिया बनाकर भेजने वाले भी अंग्रेज ही थे। फिर भी तुम्हारे दिलों में उनके लिए दुश्मनी नहीं? आखिर किस मिट्टी की बनी हो तुम सब?
‘‘बैठो न रागिनी, खड़ी क्यों हो?’’ सुचेता के कथन ने रागिनी को चौंका दिया......मन ही मन जिस सच्चाई को वह जी रही थी गनीमत है वह जुबां नहीं बनी वरना...।
वह साड़ी में असुविधा-सी महसूस करते हुए खाट पर बैठ गई।
‘‘रागिनी......कल हम सब अपने-अपने ठिकानों की ओर लौट जाएँगे.......पता नहीं दुबाहरा मिलेंगे या नहीं......इसलिए आज की रात तुम्हारे साथ भरपूर जी लेना चाहते हैं।’’ सुचेता ने उसके नजदीक बैठते हुए कहा।
‘‘हाँ......तुमने बताया था कि कल तुम जा रही हो।’’
‘‘ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब उस मंच पर अभिनय करने वाले चरित्र। नाटक खतम, चरित्र खतम।’’ सब हो-हो करके हँस पड़े दीपा के इस संवाद पर...।
‘‘यह संवाद यहाँ मौजू नहीं बैठता दीपा.....जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना.....।’’ विशाखा ने गीत की पंक्ति गाकर सुनाई।
‘‘मैंने कल क्या होगा इसकी परवाह नहीं की पर किसी भी चीज के बिछुड़ जाने से डरती हूँ।’’
‘‘ए रागिनी......प्लीज, इतनी इमोशनल मत हो। हमें भी तो तुमसे लगाव हो गया है.....पर इतने भर से जिन्दगी कहाँ गुजरती है डार्लिंग। तुम मॉरीशस जरूर आना। भारत जैसा ही है मॉरीशस भी।’’
‘‘क्यों नहीं उसे भारतीयों ने ही तो बसाया है।’’ कहते हुए दीपा गर्व से भर उठी।
आसमान पूर्णमासी के चाँद से निखर उठा था। गंगा के रेतीले तट का कण-कण चाँदनी में हीरे की कनी-सा चमक रहा था। तम्बू का परदा हटाकर रागिनी बाहर निकल आई। बाकी की औरतें खाने-पीने की व्यवस्था में जुट गई। सर्द हवा ने रागिनी के शरीर में झुरझुरी-सी पैदा कर दी। तम्बू के बाहर कम्बल बिछाकर सुरेन्द्र बैठा था। वह रागिनी की पहले ही कई तस्वीरें ले चुका था लेकिन अब उसका मन था कि रोल की बची खुची तस्वीरों में भी वह रागिनी को ही कैद कर ले....। अंदर से आवाज आई कि ‘‘आओ रागिनी, सुरेन्द्र खाना तैयार है।’’
भुने हुए आलुओं पर काली मिर्च और नमक छिड़ककर सुरेन्द्र ने रम निकाली.....’’आप लोग पिएँगी?’’
‘‘हम धर्म-कर्म करने आए हैं। संगम तट पर इसका निषेध है।’’
‘‘यह तो ठंड से बचने की दवा है....देखो, साधू लोग कैसे भाँग, चिलम में डूबे रहते हैं।’’ कहते हुए सुरेन्द्र ने सबको एक-एक पैग रम का दिया और चीयर्स करते हुए बोला ‘‘भविष्य में हम फिर रागिनी, दीपा और विशाखा से मिलें इसी कामना के साथ।’’
सबके ग्लास उस सर्द रात में जब आपस में टकराए तो आत्मीयता और प्रगाढ़ हो गई।
सुबह चाय नाश्ते से निपटकर तीनों ने दिल्ली के लिए प्रस्थान किया....। वहीं से वे मॉरीशस और हॉलैंड के लिए फ्लाइट लेंगी। विशाखा बम्बई से सूरीनाम........उसकी गाड़ी शाम को किसी वक्त है। तब तक वह इलाहाबाद घूमेगी। जाने से पहले सब एक-दूसरे के गले लगकर रो पड़ीं। ये आँसू इतने दिन साथ-साथ गुजारने से बढ़कर उस लगाव और आत्मीयता के थे जो केवल भारत की पावन धरती पर ही संभव है। वरना आज की चकाचौंध भरी दुनिया में कौन किसे पूछता है? कहाँ लंदन जैसा समृद्ध देश जो धनलिप्सा, साम्राज्य विस्तार, व्यापार, कल-कारखाने, मशीनें, उद्योग और तमाम भौतिक चीजों की चमक-दमक में खोया जिन्दगी के सुखों को तलाशने की मृगमरीचिका में रेस का घोड़ा बना है और कहाँ गले-गले तक प्रेम सुख में डूबा भारत...।
वे चली गईं और संगम की रेत पर अकेली खड़ी रह गई रागिनी।
तड़के सुबह रागिनी की आँख खुल गई। उसे अपने पर ताज्जुब हुआ कि इतनी सुबह उसकी आँख कैसे खुल जाती है यहाँ। यह क्या उन दिव्य मंत्रों का का प्रताप है जो कुंभनगर की हवाओं में रचे-बसे हैं और जिन्हें सुनकर आत्मा के अंदर हलचल मच जाती है वरना लंदन में तो ट्वायला की लाई बेड टी के बिना उसकी आँख ही नहीं खुलती है। लेकिन इसके लिए भी उसके पास तर्क थे। वह रात डेढ़ बजे तक अपनी रिसर्च पर ही काम करती रहती थी। कभी-कभी बरसती बूँदों की समरस लय में वह अपनी रिसर्च के महानायक कृष्ण की नगरी वृंदावन पहुँच जाती थी जहाँ के सघन वनों में एक लय से लगातार बरसता पानी फूल, पत्तों, वन-वीथिकाओ, पगडंडियों सहित इन्सान के लिबास के साथ-साथ मन को भी भिगो देता है। और तब उसे कृष्ण की बाँसुरी की मोहक आवाज सुनाई देती थी। बेबस, निरुपाय वह आहिस्ता से टेबल-लैंप बुझाकर नरम गुदगुदे बिस्तर में दुबक जाती थी। कृष्ण की बाँसुरी के क्या कहने, हृदय तक बिंधकर बेबस कर डालती है और ऐसा कई-कई बार महसूस किया है उसने। रागिनी तम्बू से बाहर निकलकर नजारा दो-चार करने लगी। सँवलाई सुबह में चिड़ियों की चहचहाहट ने उसके अंदर ऊर्जा भर दी। आज तो दलाई लामा आने वाले हैं। वह झटपट तैयार हो त्रिवेणी संगम पर टहलने लगी। लोगों के हुजूम गंगा की लहरों में डुबकी लेने उमड़े पड़ रहे थे। दलाई लामा बौद्ध गुरुओं के साथ काँची कामकोटि के शंकराचार्य से मिलने आए हैं। पवित्र स्नान के बाद वे अन्य कई जगहों पर घूमते रहे। कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। रागिनी उनके पीछे-पीछे रही लेकिन लोगों की भीड़ के बीच वह एक झलक ही देख पाई उन्हें। संध्या होते ही त्रिवेणी की भव्य आरती के दौरान दलाई लामा को ऐन अपनी आँखों के सन्मुख पाकर वह मानो पलक झपकाना भूल गई।
भव्य व्यक्तित्व.....चमत्कारिक दृष्टि.....विश्व के कोने-कोने में बौद्ध धर्म से विश्व शांति स्थापित करने के अभियान में निकले दलाई लामा को उसने हाथ जोड़कर नमन किया। कितना विशाल है ये विश्व और उसमें बूंद-सी वह....। यह बूंद का एहसास ही चरम ज्ञान की प्राप्ति है। जिसने बूंद का महत्व समझ लिया उसे फिर सागर की गहराइयो को समझने की क्या जरूरत.....बूंद बूंद सहेजकर ही तो सागर की जलराशि अथाह हुई है।
‘‘हो गए दर्शन?’’ कुसुमाकरजी मुँह में पान दबाए मुस्कुराते खड़े थे-‘‘कलकत्ते से मुनमुन मैडम का फोन था कि वे आपको कई बार ट्राई कर चुकी हैं पर आपके फोन का स्विच ऑफ ही रहता है।’’
हाँ...वह फोन का स्विच ऑफ ही रखती है क्योंकि वह नहीं चाहती कि महाकुंभ के दौरान वह जिन अनुभवों को बटोर रही है उसमें किसी भी प्रकार की रुकावट आए। उसे तो बार-बार कुसुमाकरजी का उसके पास बने रहना भी अच्छा नहीं लगता। इस वक्त भी वह एन्टर्स का इंतजार कर रही है जो अपनी साईकल के ब्रेक आदि चैक करवाने बड़ी देर से गया हुआ था।
‘‘मैं कर लूँगी बुआ को फोन......अभी तो मैं हनुमान मंदिर जाना चाहती हूँ।’’
‘‘पद्मा भी चलेंगी......वे स्टॉल के पास हमारे इंतज़ार में खड़ी हैं। चलिए।’’
‘‘एन्टर्स को आ जाने दीजिए।’’
अभी भीड़ में जगह बनाता एन्टर्स जब रागिनी के करीब आया तो उसके हाथों में आलू, प्याज की भजिया का बड़ा-सा दोना था। रागिनी हँसने लगी- ‘‘आप तो गोपाल दिख रहे हैं।’’
‘‘तुम वृंदावन जाने वाली हो न रागिनी इसीलिए तुम्हें सब ओर गोपाल दिख रहे हैं। अब तुम्हें चले ही जाना चाहिए वहाँ। वृंदावन की कुंज गलियों में, कुसुम सरोवर में, सूरदास की पारसौली, दानघाटी और गोवरधन पर्वत में यमुना किनारे कदम्ब वृक्षों पर बस कृष्ण ही कृष्ण बसे हैं.....प्रेम ही प्रेम बसा है.....अद्भुत......कल्पना से परे।’’
रागिनी की आँखें दूर क्षितिज पर टिक गईं......काश! उसे भी इतना अधिक प्रेम मिल पाता, सच्चा और समर्पित...। लेकिन वह जिन्दगी के मेले में ठगी गई, प्रेम करके भी प्रेम न पा सकी। उसका भोला, मासूम और दूसरों पर सहज विश्वास कर लेने वाला कोमल हृदय लहूलुहान है। स्वार्थ और लालच की भट्टी में धँसे सैम को वह अपना प्रेमी समझ लेने की भूल कर बैठी थी। वह हत्यारा निकला, प्रेम का हत्यारा।
‘‘आपको तो हम मार्गदर्शिका देंगे मैडम। अकेले वृंदावन ही नहीं ब्रज संस्कृति में गुंथे कई गाँव है.....आप वहाँ भी जाइएगा। दिल्ली हाइवे से मथुरा रोड पर कोसी गाँव है जहाँ से कृष्ण के गाँव नन्दगाँव और राधाजी के गाँव बरसाने के लिए जाया जा सकता है। एक गाँव है बनचारी, जो कृष्णजी के बड़े भाई बनचारी यानी बलराम का गाँव है। यह ब्रजमण्डल के विश्वप्रसिद्ध हरियाणवी लोक गायकों का गाँव है।’’
‘‘वाह कुसुमाकरजी.......आप तो अच्छी खासी जानकारी रखते हैं।’’
कुसुमाकरजी मुस्कुराए। साँझ की अंगड़ाई पश्चिम दिशा को नशीला किए दे रही थी। पद्माजी बेचैनी से इंतजार कर रही थीं।
‘‘भाई-सा......कितनी देर कर दी?’’
‘‘सॉरी पद्माजी, आपको इंतजार करना पड़ा।’’ रागिनी ने पद्माजी के दोनों हाथ पकड़कर कहा-‘‘और वो दोनों कहाँ है?’’
‘‘दोनों लड़कियाँ दोपहर से ही गायब हैं।’’
पद्माजी के कहने पर सब हँस पड़े। जाड़ों की सर्द रात चुपके-चुपके पाँव बढ़ा रही थी। संगम तट से किले तक की दूरी तय करते हुए वे मंदिर के द्वार तक पहुँचे। भीड़ थी पर रागिनी के लिए खास इंतजाम था। मंदिर में प्रवेश करते ही हनुमानजी की शयनावस्था में मूर्ति देख रागिनी चकित रह गई। साथ ही उसके मन में यह सवाल उठा कि इस तरह की मूर्ति क्यों बनाई गई? लेकिन इतनी भीड़ में उसकी शंका का समाधान करे कौन? एन्टर्स और रागिनी दो विदेशियों से दक्षिणा ऐंठने के चक्कर में एक पंडित-सा दिखता व्यक्ति उनके पीछे लग गया......‘‘आप तो विदेशी लगते हैं?’’
‘‘क्या आप बता सकते हैं हनुमानजी को लेटाया क्यों गया है?’’
‘‘हाँ......हाँ.....हम अभी कथा सुनाए देते हैं.....बहुत पुरानी बात है बाबर......अकबर के जमाने की। जहाँ अभी ये मंदिर है न, वहाँ बाघम्बरी बाबा रहते थे। उनके साथ एक जिन्दा चलता.....फिरता.....जंगल का भयानक बाघ एकदम पालतू कुत्ते की तरह रहता था। बाबा हमेशा बाघ की खाल ओढ़ते और बाघ की खाल को ही बिछाते थे। एक दिन वे समाधि में बैठे थे। तभी उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि यहाँ जमीन के अंदर हनुमानजी हैं। दूसरे दिन उस जगह की खुदाई शुरू हो गई। लेकिन जैसे-जैसे मजदूर खोदते जाते थे हनुमानजी की मूर्ति नीचे धँसती जाती थी। उन्होंने मूर्ति को खड़ा करने की बहुत कोशिश की पर सब बेकार। विश्राम जो करना था उन्हें.....बाबा ने खुदाई बंद कराके उनकी लेटी हुई अवस्था में ही प्राण प्रतिष्ठा कराके पूजा-अर्चना शुरू कर दी।’’
‘‘प्राणप्रतिष्ठा? मतलब?’’
‘‘मूर्ति में श्लोकों से प्राण डाले जाते हैं। जाग्रत किया जाता है उसे...। जाग्रत हनुमानजी हैं ये। माँग लो जो माँगना हो, सब इच्छा पूरी हो जाती है।’’
एन्टर्स और रागिनी हक्का-बक्का थे.....मूर्ति में प्राण....। भगवान की मूर्ति में भी प्राण डालने की कला आती है भारतीयों को.....अविश्वसनीय......विश्वास नहीं होता। रागिनी धीरे-धीरे मूर्ति की ओर गई......झुकी......मूर्ति को छुआ उसने......एक सर्द भीगी हवा की लहर ने उसके कानों के पीछे दबी बालों की लट को हटाकर गालों पर लहरा दिया......लहर गई रागिनी......पुजारी ने उसके सिर पर हाथ रखा-‘‘आयुष्मती भव! उठो बेटी....हमारी दक्षिणा जो श्रद्धा हो उतनी दे दो। हनुमानजी सब विध्न बाधाओं को हर लेंगे।’’
रागिनी की आँखें मुँद गईं। विध्न बाधा कैसी? वह तो समस्त विघ्न बाधाओं को कब का पार कर चुकी है। अब तो बस उसे खोजना है.....प्रेम तलाशना है। सृष्टि के जर्रे-जर्रे से और उसका पहला सोपान है भारत। यहाँ की मिट्टी प्रेम से ही निर्मित है। प्रेम और करिश्में। जैसे मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा, जैसे अगस्त के आसपास जंगलों से भयानक नागों को पकड़ कर पिटारी में बंद कर घर-घर घूमते और बीन बजाकर नागों के फनों की पूजा कराते, दूध पिलाते संपेरे...। जैसे इंसान पर आती देवी या भूत प्रेत...। सब कुछ कितना अद्भुत.....कितना कौतूहलपूर्ण। मुनमुन बुआ कहती हैं कि बंगाल का काला जादू प्रसिद्ध है। बंगालिनों के लम्बे केश और कमल पँखुड़ी-सी लम्बी-लम्बी पलकों में कुछ ऐसा जादू है कि आदमी बँधकर रह जाता है।
मंदिर से बाहर निकलते ही पद्माजी ने रागिनी का मिंक कोट उसकी ओर बढ़ाया-‘‘पहन लीजिए मैडम, ठंड बढ़ गई है।’’
रागिनी इस बात से भी अभिभूत है.....बिना किसी रिश्ते नाते के एक अजनबी की इतनी देखभाल?
त्रिवेणी के तट पर भगदड़ मची थी। पुलिस किसी विदेशी लड़की को घेर कर ले जा रही थी। रागिनी एन्टर्स के साथ संगम तट पर चहलकदमी कर रही थी। पद्माजी और कुसुमाकरजी कल रागिनी के कलकत्ता लौट जाने की टिकट कन्फर्म करने और इलाहाबाद से खरीदारी करके लाने वाली चीजों की मुनमुन द्वारा दी गई लिस्ट लेकर बाजार गए थे। कल रात ही मुनमुन ने याद दिलाया था कि अकादमी के उद्घाटन की तारीख निकट है और वह दो दिन बाद कलकत्ता पहुँच जाए।
‘‘याद है मुझे बुआ.....आप चिन्ता न करें.....मैं उद्घाटन के समय से पहले ही पहुँच जाऊँगी।’’
‘‘इतने दिन से कुंभ मेले में हो। बोर हो गई होगी तुम तो?’’
‘‘बोर? यहाँ तो बुआ एक-एक दिन स्मरणीय दिन होता जा रहा है।’’
‘‘स्मरणीय नहीं अविस्मरणीय.....यानी न भुलाया जा सकने वाला। मैंने तो सोचा था तुम दो दिन में ही ऊब कर लौट आओगी।’’
‘‘आकर बताऊँगी बुआ सब कुछ...। तुम भी ताज्जुब करोगी।’’ मुनमुन हँसने लगी थी।
एन्टर्स का आज आखिरी दिन है कुंभनगर में। सुबह तड़के वह अपनी साईकल से बंगलोर चला जाएगा। तभी एक देहाती जोर से चिल्लाता हुआ भागा-‘‘अरे, वो पूरी नंगी है।’’
भीड़ में सरगरमी फैल चुकी थी। भगदड़, उत्तेजना और नंगी लड़की के दर्शन के लिए लोग टूटे पड़ रहे थे। वह विदेशी थी। सुन्दर शरीर की मालिक, छरहरे गोरे बदन पर एक भी वस्त्र न था। उसने रेत मिट्टी से बालों को सानकर नागा साधुओं की तरह जटाएँ बना ली थीं। गले में शंख और कौड़ियों की ढेर सारी मालाएँ थीं। उसे नग्न देख भीड़ इकट्ठी हो गई थी और वह आश्चर्यचकित थी कि उसने ऐसा क्या कर दिया जो इतने लोग जमा हो गए। जब नागा साधु नग्न रह सकते हैं तो वह क्यों नहीं? लेकिन भीड़ को अपनी ओर आकर्षित पा वह जल्दी-जल्दी संगम तट की रेत उठा-उठाकर अपने उघड़े बदन को ढकने की कोशिश करने लगी। तभी पुलिस आ गई और उसे घेरकर ले गई। रागिनी ने लंबी साँस भर कर एन्टर्स की ओर देखा, वह सिगरेट सुलगा रहा था-‘‘यह कल्चर का अंतर है। विदेशी और भारतीय कल्चर में बेचारी लड़की अपमानित हो गई।’’
‘‘लेकिन इसमें उसका क्या दोष? जब ये नागा साधु...।’’
रागिनी की बात अधूरी रह गई। एन्टर्स बीच में ही बोल पड़ा-‘‘नागा साधु ही न.....आम इंसान तो नंगा नहीं घूम रहा है। साधु होने के लिए कठोर जीवन जीते हैं ये, विषय वासना का त्याग करते हैं ये...।’’
‘‘लेकिन इससे हासिल क्या होता है?’’
चाँद आकाश में बिल्कुल निश्चल था। गंगा की लहरों पर उसका अक्स डूब उतरा रहा था।
‘‘हम विषय वासना में लिप्त रहकर क्या हासिल करते हैं? जिंदगी में एक वक्त ऐसा आता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है। हम छूँछ के छूँछ रह जाते हैं।’’
एन्टर्स कहीं गहरे डूब गया। शायद कुछ याद करने की केशिश में बहुत कुछ कुरेदता चला जा रहा है अपने आप।
‘‘तुम्हें जिन्दगी मासूम और सीधी-सादी नहीं लगती? अगर तरीके से जी जाए।’’
‘‘तुम्हें तरीका आता है रागिनी? क्या तुम बता सकती हो तुमने कौन से तरीके से जिन्दगी जी? क्या सब कुछ आसान ही रहा तुम्हारी जिन्दगी में?’’
चलते-चलते वे चाय के स्टॉल तक आ गए। खूब मीठी गाढ़ी चाय के कुल्हड़ से चाय की घूँट भरते हुए रागिनी ने उदासी से कहा-‘‘मेरी जिन्दगी बहुत एब्नॉर्मल रही, क्योंकि मेरे साथ वाकए ऐसे घटे।’’
‘‘सभी के साथ घटते हैं पर हमें अपने दुख-दर्द ही बड़े लगते हैं। हम इतने स्वार्थीं हैं कि दूसरों के दुख-दर्द सोचते ही नहीं।’’
हो बोलो राम राम राम राम राम राम हरे हरे.......हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे.......हो जपो राम.....राम.....। कीर्तन मंडली नाम उच्चारण करती पास से गुजरी।
‘‘चलें अब? तुम्हारे कुसुमाकरजी नहीं लौटे अभी तक। बेहद रोचक इंसान हैं वे।’’ कहते हुए एन्टर्स ने होठों के बीच दबी सिगरेट को होठों में दबाए हुए ही कहा-‘‘गुडबाय रागिनी.....फिर मिलेंगे गर खुदा लाया।’’
‘‘आई विश.....दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं।’’ रागिनी ने धीमे से कहा।
‘‘बड़ी तो है।’’ गहरी साँस भरते हुए एन्टर्स ने रागिनी को भर नजर देखा और अंतिम कश लेते हुए सिगरेट जूते से रेत पर रगड़ दी। बुझती तम्बाखू से कुछ चिंगारियाँ निकलीं और शून्य में विलीन हो गईं।
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रागिनी कलकत्ते लौटी तो मुनमुन को बीमार पाया।
‘‘यही सिलसिला चल रहा है तीन चार सालों से। जाड़ों में इनकी तकलीफ बढ़ जाती है।’’ सत्यजित मुनमुन के सिरहाने बैठा उसे चम्मच से काढ़ा पिला रहा था।
‘‘फोन पर मुझे बताया तक नहीं बुआ आपने, मैं थोड़ा जल्दी आ जाती।’’
‘‘क्या करतीं आकर? अरे सत्य, बताओ इसे......ये तो हर जाड़ों की बीमारी है।’’
‘‘आखिर है कौन-सी बीमारी?’’
‘‘वही सीने की जकड़न ब्रोंकाइटिस......फेफड़े वीक हैं इनके।’’
‘‘सत्य........फेफड़े भर न, दिल तो नहीं?’’ मुनमुन ने बात काटी।
‘‘दिल है तुम्हारे पास मुनमुन?’’ सत्यतिज तपाक से बोला तो तीनों हँस पड़े। खिड़की, किवाड़ सब बंद थे फिर भी सरसराती, कंटीली, जिद्दी हवा किसी रंध्र से घुस खड़खड़ का राग अलाप जाती।
‘‘परसों पूजा है बुआ और आप....।’’
‘‘मैं ठीक हो जाऊँगी रे बाबा...। इंतजाम भी सारा हो गया है.....पूजा के दूसरे दिन तो तुम मथुरा जा रही हो न रागिनी?’’
‘‘हाँ बुआ।’’
‘‘कैसा लगा कुंभनगर?’’
‘‘अरे बुआ........अद्भुत...। मेरे पास शब्द नहीं हैं बताने को। हर दिन, हर घड़ी का एहसास ऐसा समा गया है मन में कि बस अब तो मथुरा पुकार रही है।’’ रागिनी की आवाज में बीते लम्हों का आह्नलाद था। कुंभनगर उसके लिए जिंदगी का एक ऐसा अहसास था जिसकी मीठी अनुभूति शायद कभी न मिटे उसके दिल से।
नौकरानी चाय ले आई और यह खबर भी कि पंडितजी आ गए हैं और पूजा की तैयारी के लिए कुछ बताना चाहते हैं सत्यजित को।
‘‘अंकल, पूजा धूमधाम से होगी बल्कि मेरी इच्छा है कुछ होर्डिंग्ज मेन जगहों पर टाँग दिए जाएँ जिससे पूरा कलकत्ता इस अकादमी के खुलने की खबर पढ़-सुन ले।’’
कड़वे काढ़े से बुरा मुँह बनाए.....होठ आँख सिकोड़ती मुनमुन बड़ी रूआबदार आवाज में बोली-‘‘ठीक कहती है लड़की.....हम खूब हंगामा करेंगे...। हम उन दिनों को फिर से जिएँगे जब दादा अपनी अकादमी के लिए कड़ी मेहनत करते थे और दीदी तानपूरे पर सुरों को साधती थीं।’’
मुहूर्त पूजा क्या थी उन दिनों की पुनर्वापसी थी जो मुनमुन और सत्यजित ने चंडीदास और डायना के संग-संग जिए थे। पूजा के श्लोकों के साथ मुनमुन के आँसू अनवरत बह रहे थे। वह उन दिनों को याद कर खुद को काबू में नहीं रख पा रही थी। चंडीदास के अधिकतर दोस्त तो अब इस दुनिया में नहीं रहे थे। एक दो बचे थे जिन्होंने जैसे तैसे शामिल होकर अपनी खुशी प्रगट की थी। रागिनी की तारीफों के पुल बाँधे थे-‘‘बेटी हो तो ऐसी माँ बाप का नाम अमर कर दिया।’’
हॉल में लगी चंडीदास और डायना की बेहद कलात्मक एकदम जीवंत पेंटिंग के सामने नतमस्तक थी रागिनी....। चंदन की मालाएँ आई थीं पर मुनमुन ने पहनाने नहीं दी-‘‘हम उनके नाम को अमर कर रहे हैं तो ये मुर्दामाला क्यों पहनाएँ उनकी तस्वीरों पर।’’ वे दिवंगत हुए लोगों की तस्वीर पर पहनाई गई माला को मुर्दामाला कहती थीं।
शाम घिरने लगी थी। अकादमी के लॉन पर इमारत की छाया के संग किनारे लगे पेड़ों की छायाएँ थरथरा रही थीं। अभी थोड़ी ही देर में अंधेरा हो जाएगा। जाड़े का दिन वैसे भी लुप्प से गायब हो जाता है। ठंडी हवाओं की दस्तक से पेड़ उतावले हो झूमने लगे। इन्हीं हवाओं से तो मुनमुन को बचाना है। सत्यजित ने स्वेटर, कोट, शॉल से तोप-सा दिया मुनमुन को। सहारा देकर कार तक ले आया.....रागिनी ने बड़ी शिद्दत से इस जोड़े को देखा, उसकी आँखें सजदे में झुक गई।
अकादमी के खुल जाने से एक बड़ा बोझ दिल पर से उतर गया जो बरसों से रागिनी को बेचैन किए हुए था। उसे लगा आज उसने अपनी ममा, पापा को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। मुनमुन और सत्यजित इस बात की भी कोशिश करेंगे कि अकादमी को सरकारी मान्यता मिल जाए ताकि महाविद्यालय स्तर पर परीक्षाएँ हो सकें।
रागिनी को कल मथुरा चल देना है। एक लम्बी खाँसी के बाद आँखों में तैर आए आँसुओं को दुपट्टे से पोंछती मुनमुन ने खरखराती आवाज में कहा था-‘‘मेरे लिए खुरचन और पेड़े जरूर लाना।’’
सुनकर सत्यतिज हो-हो कर हँस पड़ा था।
वृंदावन और मथुरा घूमने की ललक कुछ इस कदर मन में समा गई थी कि रागिनी चाहकर भी शांतिनिकेतन नहीं जा पाई। उसे शान्तिनिकेतन के साथ-साथ जयदेव का गाँव भी घूमना था। गाँव में घूमते हुए वह महसूस करना चाहती थी कि कैसे होंगे जयदेव, जिनकी झोपड़ी का छप्पर खुद कृष्ण ने अपने हाथों से छाया था। कितनी अद्भुत बात थी कि छप्पर टूटा-फूटा था और सुबह जब वह साबुत मिला तो जिस मूँज की रस्सी से छप्पर दुरुस्त किया गया था उसका एक रेशा जयदेव के घर के मंदिर में विराजमान कृष्ण की मूर्ति के हाथों में पाया गया। कृष्ण जयदेव से प्रेम करते थे।अपने इस गरीब भोले भक्त का वे बहुत खयाल रखते थे। जब जयदेव गीतगोविंद की रचना कर रहे थे तब लिखते-लिखते एक जगह वे अटक गए। आगे लिखना असंभव हो गया। कविता रुक गई, कल्पना के आकाश में कोई शब्द नहीं बचा। बस शून्य.....चारों ओर शून्य....। कई दिन बीत गए, कई सप्ताह बीत गए, कई मास बीत गए। जयदेव बेचैन.... यह उनको क्या हो गया? क्या गीतगोविंद अधूरा रह जाएगा? क्या उनके कृष्ण उनसे रूठ गए? आकाश बादलों से घिरा था। बादलों के बीच बिजली उनके मन के समान ही तड़प रही थी। टप-टप बूँदों ने अपना इकतारा छेड़ा, जयदेव अपनी पांडुलिपि के पन्ने पलटते हुए उस पृष्ठ पर आए जहाँ उनकी लेखनी रुकी थी...। उन्होंने देखा कि अधूरी कविता के आगे एक अनगढ़...अनपहचानी लेखनी में आगे का पद लिखा हुआ है। जयदेव की आँखें उस पद पर अनझिप टिकी रहीं। ओह, यही पद था जो वे खोज नहीं पा रहे थे और जब वे उस पद को रटते हुए कृष्ण की मूर्ति के सामने शीश नवाने पहुँचे तो देखा कि मूर्ति के दाहिने हाथ की ऊँगली में स्याही लगी थी। जयदेव मुस्कुराए-‘‘ओह, तो ये पद तुमने लिखा था गोपाल।’’ और वे भावविभोर हो रोने लगे थे और रोने लगी थी रागिनी....। उस रात उसे नींद नहीं आई थी। लंदन की सड़कों की तरह भरपूर सन्नाटे भरी रात में जाने कहाँ से एक लहर रुनझुन करती आई थी और रागिनी को भिगो कर चली गई थी।
मथुरा की धरती पर कदम रखते ही रागिनी के कानों में बाँसुरी गूँजने लगी थी। हर जगह घूमती-विचरती गौएँ, उन्हें हरी-हरी घास खिलाते और उनके माथे को छूकर हाथ को अपने सीने और माथे से छुआते मथुरावासी...। शांत, पगुराती गौओं को देख रागिनी विचलित हो गई। कितनी जीवन्त हैं ये गौएँ और कितनी करूणा से भरी हैं इनकी आँखें। डबडबाई हुई-सी जैसे बर्फ ढके पर्वत पर गहरे जल से भरे दो कुंड....। रागिनी ने द्वारकाधीश मंदिर के सामने खड़ी गौओं को अपने बछड़ों को दूध पिलाते देखा। उनके थनों से दूध की धारा और आँखों से वात्सल्य के अश्रु साथ-साथ बहे जा रहे थे। बछड़ों का रँभाना सुन वे अपने दोने जैसे कानों को खड़ा कर लेतीं और प्रेम, वात्सल्य की मूर्ति-सी जान पड़तीं। इतने जीवन्त पशु के माँस को रागिनी कितने चाव से खाती है। गाय का मांस खाना पाप है और यह पाप वह बरसों से करती आ रही है। रागिनी पीड़ा से भर उठी। वह गाय के पास गई। उसकी पीठ को जब उसने छुआ तो स्पर्श की लहरियाँ गाय की चितकबरी चमड़ी पर साफ देखी उसने। उसके हाथ अपने आप जुड़ गए और उसने गाय को प्रणाम कर ठीक उसी तरह उसे छुआ जैसे हिन्दू छूते हैं। फिर पास खड़े लड़के से घास का गट्ठर खरीदकर वह गाय को खिलाने लगी। गाय मजे से रागिनी के हाथ से घास खाने लगी। उसका गेरू रंग का बछड़ा उसके थनों को उचक-उचक कर मुँह में भरे ले रहा था। घास वाला लड़का अपने छोटे भाई के साथ रागिनी के पास ही खड़ा था।
‘‘इसका नाम कबरी है।’’
‘‘गाय का?’’
‘‘हाँ......ये चितकबरी है न, तो सब इसे कबरी बुलाते हैं और ये बछड़ा मटरू है.....खूब शरारत करता है। आप रबड़ी खाएँगी.....वो सामने गुलाबजल डालकर रबड़ी बनाते हैं, खूब स्वाद देती है।’’
रागिनी लड़के की बातें सुन हँस पड़ी। उसने पचास का नोट लड़के की ओर बढ़ाया-‘‘लो, आज तुम हमारी तरफ से रबड़ी खा लो।’’
लड़के की आँखें चमकने लगीं। रोज ही विदेशी आते हैं यहाँ पर कोई-कोई ही रागिनी जैसे दिलदार होते हैं। उसने रागिनी को सेल्यूट किया और छोटे भाई के साथ रबड़ी की दुकान की ओर दौड़ गया।
रागिनी आत्मविभोर-सी उन गलियों में घूमने लगी जहाँ कभी कृष्ण घूमते होंगे। दूध, दही, रबड़ी, खुरचन और पेड़ों की दुकानों से पटी पड़ी है मथुरा की गलियाँ। बड़े-बड़े कड़ाहों में उबलता दूध...। कुल्हड़ और दोने के ढेर...। मीठी-मीठी-सी तैरती खुशबू....। हवा चलती है मानो बाँसुरी की तान हो...। पेड़, पौधे, पत्ते, फूल सिहर-सिहर जाते हैं। कैसी अद्भुत है ये नगरी। हर जगह त्रिपुंडधारी, पीतांबर पहने स्त्री-पुरूष कृष्ण-कृष्ण जपते चले जाते हैं। तो ये है जयदेव के कृष्ण की नगरी। इसी नगरी की खोज चैतन्य महाप्रभु ने की थी। बंगाल से बही कृष्ण रसधारा ने पूरे भारत को भिगो डाला था।
रागिनी के ठहरने का इंतजाम इस्कॉन में किया गया था। मथुरा में उसने कोई सुरक्षा नहीं ली थी। वह नहीं चाहती थी कि कोई भी व्यक्ति उसकी देखभाल के लिए उसके साथ हो। वह पूरी आजादी से चप्पे-चप्पे को घूमना चाहती थी। विश्वस्तर पर इस्कॉन की मान्यता को लेकर उसके मन में उठे प्रश्नों का समाधान यहीं मिल सकता था। उसके बाजू वाले कमरे में जम्मू से आई यशोधरा ठहरी थी। यशोधरा के पति कारगिल युद्ध में शहीद हो गए थे और वह मन की शांति के लिए यहाँ आई थी। रात होटल में डिनर के दौरान दोनों में परिचय हुआ और आवश्यक मालूमात भी। अपनत्व के धागे की डोर सहसा ही खुलने लगी थी।
‘‘कितने दिन का कार्यक्रम है तुम्हारा यशोधरा?’’
‘‘अच्छे से वृंदावन, मथुरा घूम लूँ......मन में उठे अँधड़ को थम जाने दूँ तब लौटूंगी। और तुम?
रागिनी मुस्कुरा भर दी। फोन की घंटी बज उठी थी। रति थी.....फोन कान से लगाए हुए ही कमरे में लौटी रागिनी। रति फोन पर लढ़िया रही थी-‘‘कब लौटोगी मॉम.....तुम तो वहीं की होकर रह गईं।’’
यहीं की तो हूँ.......कहना चाहा रागिनी ने।
बहुत कोशिशें के बाद कनाडा से आए पंडित दामोदर रागिनी को इस्कॉन की जानकारी देने को तैयार हुए। वे कृष्ण के आकर्षण में बंधे बारह साल पहले मथुरा आए थे। और फिर यहीं के होकर रह गए। संगमरमर के शतरंज की बिसात जैसे फर्श वाले कमरे में पूरा भारतीय माहौल था। ऊँचे गद्दे पर गाव तकिए के सहारे तीनों बैठ गए। दामोदर पंडित, यशोधरा और रागिनी..। रागिनी ने गौर से दामोदर के चेहरे को देखा। अमेरिकन होने का अब आभास तक न था।
‘‘क्या मैं आपका अमेरिकन नाम जान सकती हूँ।’’ रागिनी ने अंग्रेजी में पूछा। पंडित दामोदर ने जवाब हिन्दी में दिया-
‘‘वो भूल जाइए आप। मैं भी भूल गया हूँ। अब मैं कृष्ण भक्त दामोदार हूँ। हमारी पहचान कृष्ण भक्ति से है।’’
यशोधरा एक विदेशी के मुख से इतनी शुद्ध, स्पष्ट हिन्दी सुन चकित रह गई। पंडित दामोदर इस्कॉन के बारे में बता रहे थे जिसमें से बहुत कुछ तो अपनी थीसिस के दौरान रागिनी को लंदन में ही पता चल गया था। रागिनी ने इतनी देर से थीसिस वर्क शुरू किया था कि तब तक तो इस संस्था की स्थापना हो चुकी थी।
‘‘सन् 1972 में इस संस्था की स्थापना हुई। हमारे गुरु आचार्य भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपादजी ने 14 नवम्बर, 1977 को वृन्दावन में अपना शरीर त्यागा था और गोलोक गमन किया था। मुम्बई, लॉसएंजेल्स, न्यूयॉर्क, लन्दन और अन्य सभी स्थानों पर पूरी दुनिया में हमारे 250 मंदिर और 200 केन्द्र हैं। वेस्ट वर्जिनिया में एक पूरी की पूरी वृन्दावन नगरी है। वहाँ भगवान कृष्ण के सोने से बने मंदिर में बत्तीस प्रकार के संगमरमर का उपयोग किया गया है। खूबसूरत पहाड़ियों और हरे-भरे खेतों से घिरे इस मंदिर के मुख्य द्वार पर हाथी के सिर की मूर्ति बनी है और चारों तरफ मोर की शक्ल की खिड़कियाँ हैं। इस मंदिर की विशेषता इसकी इटैलियन संगमरमर से बनी दीवारें और छत है। लाखों भक्त हर साल मोक्ष और भक्ति की कामना से यहाँ आते हैं। आपके लंदन के स्वामी नारायण मंदिर के विषय में तो आप जानती ही होंगी लेकिन वह मंदिर इस्कॉन ने नहीं, स्वामी नारायण ट्रस्ट ने बनवाया है। फिर भी है तो वह श्रीकृष्ण का ही मंदिर। उस मंदिर का निर्माण भारत में ही किया गया था।’’
‘‘भारत में? यानी कि भारत में मंदिर बना और लंदन में स्थापित किया गया, मिरेकिल......’’ यशोधरा तपाक से बोली।
‘‘नहीं देवी.....कृष्ण की शक्ति, कृपा हर भक्त को मिलती है। भारत में राजस्थान के पन्द्रह सौ कारीगरों ने मंदिर के छब्बीस सौ टुकड़ों पर बेहतरीन कला का नमूना उकेरा। ये टुकड़े इटैलियन करारा मार्बल के थे। फिर शिप से टुकड़ों समेत वे कारीगर लंदन गए और उन टुकड़ों को जोड़कर वास्तु शिल्प के आधार पर यूके का सबसे बड़ा मंदिर बनाया।’’
रागिनी की आँखों के आगे स्वामी नारायण मंदिर साकार होने लगा। जब वह पहली बार उस मंदिर को देखने गई थी तो उसकी भव्यता मंदिर की गैलरी, सीढ़ियों पर बिछा नीला गलीचा उसके मन में बस गया था। ऊपर राधाकृष्ण, गौरा-शिव और हनुमानजी की मूर्ति के आगे वह देर तक आँखें मूँदे खड़ी रही थी। दुबारा मुनमुन के साथ गई थी वह। मुनमुन कालीन पर बैठकर ध्यानमग्न हो गई थी। लेकिन रागिनी मँदिर की भव्य सीलिंग पर रँगीन पच्चीकारी में प्रदर्शित श्रीकृष्ण की लीलाओं में खो गई थी। पाँच मेहराबों से घिरे मंदिर में समय आंकना मुश्किल था। मन ही नहीं होता था कि हटे वहाँ से। मुनमुन जब ध्यान से जागी तो उसने रागिनी को विस्मय से खड़े पाया।
‘‘पल भर को मैं भूल गई थी कि मैं लंदन में हूँ। देखो कृष्ण मेरे संग-संग लंदन तक आ गए।’’
‘‘आप तो कहती हैं बुआ कि वे कण-कण वासी हैं?’’
‘‘हाँ.....हैं न, पर मन ऐसा सोचता है तो अच्छा लगता है।’’
सीढ़ियाँ उतरकर बाहर लॉन से गुजरते हुए मुनमुन और रागिनी हल्कापन महसूस कर रही थीं। मंदिर के बाहर कॉफी शॉप, समोसे, भजिए के स्टॉल थे पर उन दोनों की हथेलियों में तो कृष्ण प्रसाद था जिसे पाने के बाद फिर किसी व्यंजन की चाह नहीं रह जाती। रागिनी को कहीं और खोया देख यशोधरा ने उसका हाथ हौले से दबाया। रागिनी ने चौंककर यशोधरा को देखा। दामोदर कहे जा रहे थे-
‘‘इस्कॉन का मकसद एकता और भाईचारे की भावना को जन-जन तक पहुँचाना है। कलियुग में मोक्ष का रास्ता नाम संकीर्तन और कृष्ण प्रसाद पाना है। यही महामंत्र है।’’
‘‘पंडितजी, एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ। इस्कॉन ने राम, अल्लाह, ईसा मसीह में से कृष्ण को ही क्यों चुना?’’ यशोधरा ने पूछा तो दामोदर परमानन्द में डूब गए।
‘‘आहा......कृष्ण तो पूर्णपुरूष हैं। वे सबसे ज्यादा शक्ति-सम्पन्न, खूबसूरत, विद्वान, दार्शनिक, योद्धा और एक अच्छे राजा और एक महान प्रेमी थे। वे चौंसठ कलाओं से पूर्णपुरूष थे, फिर भी संसार से विरक्त थे। इसलिए हम कृष्ण नाम को ही मोक्ष का मार्ग मानते हैं। कृष्ण मंत्र अच्छा...कृष्ण नाम अच्छा.....जाति-पाँति का भेदभाव त्यागकर हम सब प्रभु के सेवक हैं।’’
‘‘यानी इस्कॉन में हर कोई प्रवेश कर सकता है.....चाहे वो ब्राह्मण हो, शूद्र हो, क्षत्रिय हो या वैश्य....।’’ यशोधरा की जिज्ञासा पूर्ववत थी। रागिनी के मन की जिज्ञासाओं का शमन, खुद-ब-खुद होता चला जा रहा था। यशोधरा के प्रश्न पर पंडित दामोदर हँस पड़े-‘‘आज कल शुद्ध ब्राह्मण हैं कहाँ? शुद्ध घी तक तो मिलता नहीं जिससे हवन किया जाता है...। घी तो क्या वनस्पति तेल तक शुद्ध नहीं।’’
‘‘हाँ... सो तो है।’’
‘‘यह युग तो डिस्को, फास्टफूड, हुल्लड़बाजी, हंगामेदार पार्टियों और फिल्मों का है। अगर हम कृष्ण प्रसाद के रूप में टोकरी भर आम घर-घर बाँटते हैं तो लोग शंका करते हैं कि इतने महँगे आम मुफ्त में क्यों बांटे जा रहे हैं? कहीं इसमें जहर तो नहीं? यहाँ तक कि हमारी संस्था को लेकर भी लोगों में अफवाह उड़ चुकी है कि हम भटके हुए हैं, हिप्पी हैं या फिर स्मगलर्स। पर यह तो उनका दुर्भाग्य है जो वे ऐसा सोचते हैं। हम तो भारतीय पुरातन संस्कृति को पूरी दुनिया में फैलाना चाहते हैं। यही एकमात्र संस्कृति है जो हमें सुख-शान्ति, प्रसन्नता और मोक्ष का मार्ग दिखाती है।’’ ‘‘इस्कॉन में आपका रूटीन, दिनचर्या क्या रहती है। मैंने देखा कि पुरूष, स्त्री और बच्चे जो आपकी संस्था से जुड़े हुए हैं सभी भारतीय रहन-सहन अपनाए हुए हैं।’’
‘‘हाँ......हम भारतीय कृष्ण भक्त ही तो हैं। ब्रह्ममुहूर्त में हम उठ जाते हैं। स्नान करके साढ़े चार बजे मंगल आरती करते हैं। ये हमारे दिन भर के कार्यक्रम, दिनचर्या का कार्ड है।’’
पंडित दामोदर ने दोनों को एक-एक कार्ड दिया-‘‘नौ बजे हम कृष्ण प्रसाद लेते हैं।’’
‘‘कृष्ण प्रसाद?’’
‘‘हाँ.....हरे कृष्ण फूड फॉर लाइफ इन्टरनेशनल से सम्बन्धित हमारी एक अलग संस्था है जहाँ से करोड़ों व्यक्तियों को पौष्टिक भोजन ‘‘हरे कृष्ण प्रसाद’ के रूप में पूरे विश्व में वितरित किया जाता है। यह पूर्ण शाकाहारी भोजन है जो पौष्टिक सब्जियों, अनाज, घी और मक्खन से तैयार किया जाता है।’’
दामोदर पंडित ने पल भर रुक कर आसन बदला फिर रागिनी के चेहरे को गौर से देखते हुए कहा-‘‘यह तो आप भी समझती हैं कि भूख वह हाथी है जिसे काबू में करने के लिए हम कृष्ण प्रसाद रूपी हथिनी की सुगन्ध उस तक पहुँचाते हैं तब हम भक्ति के योग्य हो पाते हैं। भक्ति के साथ कुछ नियमों का भी पालन होता है यहाँ। शाम सात बजे भगवान की आरती होती है। दोपहर एक से चार बजे तक भगवान की निद्रा का समय होता है, तब मंदिर के द्वार बन्द रहते हैं। मंदिर के पीछे हमारा आश्रम है, जहाँ कमरों में गृहस्थ रहते हैं।’’
‘‘गृहस्थ? हम तो आपको संन्यासी समझ रहे थे।’’ यशोधरा ने पूछा।
‘‘हम संन्यासी ही तो हैं। आश्रम के चार रूपों में एक रूप गृहस्थ भी होता है। विद्या प्राप्ति के बाद कोई भी गृहस्थाश्रम ग्रहण कर सकता है। लेकिन इस आश्रम के गृहस्थों के लिए इस्कॉन के नियम पालन करना अनिवार्य है। टीवी, फ्रिज या कोई भी सुख-ऐश्वर्य की चीजों से परे रहकर भक्ति-भावना सहित उन्हें गृहस्थ धर्म का पालन करना पड़ता है। पत्नी के साथ उनके शारीरिक सम्बन्ध भी केवल संतान प्राप्ति के उद्देश्य से होते हैं ताकि छोटे-छोटे हरिभक्तों से यह संसार हरिमय हो जाए। पत्नी तो आत्मा है, वासना पूर्ति की मशीन नहीं। प्रभुनाम में ही कितना सुख, कितनी संतुष्टि है।’’
रागिनी ने देखा दामोदर केशरी धोती-कुरता पहने हैं। माथे पर त्रिपुण्ड....घुटे हुए सिर पर उगे छोटे-छोटे बाल.....लम्बी चुटिया में पड़ी गांठ, गले में रूद्राक्ष की माला और केशरी दुशाला। इस्कॉन में कइयों के गले में दुशाला नहीं था, कइयों के में था।
‘‘ऐसा क्यों?’’ पूछा रागिनी ने।
‘‘इसे यक्री कहते हैं। बंगाली नाम है यह और इसे केवल संन्यासी ही ओढ़ते हैं। गृहस्थ, ब्रह्मचारी या वानप्रस्थी नहीं।’’
‘‘पंडितजी, मंदिर का नाम इस्कॉन क्यों है? कुछ विदेशीपन का आभास होता है। है न रागिनी?’’
‘‘नहीं......मुझे नहीं होता। दामोदारजी.....जहाँ तक मुझे पता है इस्कॉन, शॉर्ट फॉर्म है ‘‘इन्टरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कांशसनेस’ का।
‘आपको जानकारी है रागिनी देवी, तब तो आप रथयात्रा के बारे में भी जानती होंगी?’’
‘‘जानती हूँ......लंदन में खूब धूमधाम से रथयात्रा निकलती है। बड़ा ही आनन्द आता है रथयात्रा में। सबसे आगे श्रीकृष्ण का रथ, उनके पीछे सुभद्रा जी का, फिर बलरामजी का रथ होता है।’’ रागिनी आनन्दविभोर हो बोली तो दामोदर पंडित उसका चेहरा मुग्ध हो निहारने गले-
‘‘आप तो कृष्णमय हो गईं देवी......आप पर कृष्ण की कृपा हो गई। हरे कृष्ण.....हरे कृष्ण...। जानती हैं आज से पाँच हजार साल पहले भगवान श्रीकृष्ण जब गोपियों से मिलने गए थे तो तीनों रथों में गए थे। उसी की झाँकी रथयात्रा में निकाली जाती है। आहा.....आनंद ही आनंद। भगवान का हर कार्य आनंददायक। चलिए, आरती का समय हो गया। कृष्ण प्रसाद लेकर जाइएगा।’’
कहते हुए दामोदर पंडित ने लगातार बोलने के कारण शुष्क हुए गले को तांबे के लोटे में रखे जल से तर किया और मंदिर की ओर बढ़ गए। आरती के लिए जनसमूह उमड़ा पड़ रहा था। ढोल, मंजीरा बज रहा था और उसकी लय पर कृष्ण भक्त थिरक रहे थे......‘‘गोविंद बोलो हरि गोपाल बोलो.......राधारमण हरि गोविंद बोलो.....‘। कोई माइक पर कमेंट्री-सी कह रहा था-‘‘हरे-हरे बाँस से बनी बाँसुरी पर हरि की कोमल उँगलियाँ मर्म को छू लेती हैं। गोपी, ग्वाल सब बेसुध हैं...। सारा संसार बाँसुरी की लय में डूब चुका है-
बाजे रे मुरलिया बाजे रे
अधर धरे मुरली
पहन मोतियन माल रे
बाजे रे मुरलिया
मधुर संगीत, भव्य आरती और भावविभोर रागिनी यशोधरा के साथ जब कृष्ण प्रसाद स्वरूप मगद के लड्डू लेकर कमरे में लौटी तो देर तक नींद नहीं आई। बुआ का फोन था.....आवाज डूबी सी...।
‘‘तबीयत कैसी है बुआ?’’ रागिनी ने चिंता प्रगट की।
‘‘लो सत्य.....सुनो इसकी...अरे बाबा...ठंड में तबीयत ढीली रहती ही है। मुझे तो तुम्हारी चिंता सता रही थी। वहाँ कहाँ रहोगी, कैसे घूमोगी? सो आशुतोष बाबू को बता दिया है सब। वो वृंदावन में कत्थे के व्यापारी हैं। कोठी है उनकी वहाँ। कल सुबह गाड़ी लेकर आएँगे तुम्हें लिवाने। ना-नुकुर मत करना। कोठी में आराम से रहना....।’’
‘‘अरे बुआ.....मैं यहाँ आजादी से रहना घूमना चाहती हूँ।’’
‘‘तो हम कौन-सी कैद दे रहे हैं तुम्हें....। अकेली ही घूमना न! उधर कोठी में भी बस आशुतोष बाबू ही रहते हैं। उनकी फेमिली तो यूरोप में गई है।’’
रागिनी मुनमुन की इस चिंता से परेशान हो चुकी है। मेले में चौमाल जी पीछे लगा दिए, इधर आशुतोष जी...। लगता है जैसे साए की गिरफ्त में हो।
सुबह आरती के बाद वह आशुतोष बाबू की भेजी हुई गाड़ी में यशोधरा के साथ मथुरा घूम रही थी। गनीमत थी वृंदावन से वे खुद नहीं आए थे, ड्राइवर भेजा था। फोन पर बात हो गई थी। दिन भर मथुरा घूम कर रात को आएगी वह वृंदावन। मथुरा की गली-गली, चप्पा-चप्पा घूमते हुए कई बार उसने कृष्ण को अपने करीब महसूस किया था। सदियों के दायरे सिमट गए थे जैसे...। लगा ज्यों कृष्ण अभी-अभी पैदा हुए, अभी-अभी ही कारागार के कपाट खुले, साँकलें टूटीं और अभी-अभी ही वासुदेव उन्हें लेकर वृंदावन की ओर कूच कर गए। रागिनी बेचैन हो उठी-‘‘तुम भी चलोगी न यशोधरा वृंदावन....कृष्ण का बुलावा आ गया है।’’
‘‘कृष्ण का बुलावा?’’ यशोधरा चकित हो रागिनी को निहारने लगी। कैसी है ये अंग्रेज लड़की? रहस्यों से भरी। भारतीय संस्कृति और आध्यात्म पर जी-जान से फिदा। और तो और इसके अनुसंधान का विषय भी श्रीकृष्ण हैं। इतने दिनों के साथ ने हर घड़ी यशोधरा को उलझाया है। अपनी समझ से परे जान पड़ता है रागिनी का व्यक्तित्व। यह तो तय है कि यह आम मनुष्यों जैसी नहीं है। अंग्रेज होकर भी इतनी साफ हिन्दी, संस्कृत और ब्रजभाषा बोलती है। असंभव-सा है सब कुछ......फिर भी संभव कर दिखाया है रागिनी ने।
वृंदावन में एक रात यशोधरा सहित आशुतोष बाबू का अतिथ्य ग्रहण उनसे क्षमा माँग रागिनी गीता आश्रम में रहने के लिए आ गई। कोठी में दम घुट रहा था। गीता आश्रम परिसर में प्रवेश करते ही मन हुआ यहाँ की मिट्टी को माथे से लगा लें...। वृंदावन की पवित्र मिट्टी......जहाँ कृष्ण की बाल लीलाएँ हुईं, प्रणय लीलाएँ हुईं, रास रचाया गया उस भूमि की मिट्टी क्या मामूली मिट्टी है? वह गाड़ी से उतर ही रही थी कि पंडित गिरिराज दौड़े हुए आए- ‘‘रागिनी....रागिनी रोज ब्लेयर.....ब्रजभूमि में आपका स्वागत है।’’
‘’हे भगवान.......अब बुआ ने कौन-सा करिश्मा कर दिया जो पंडित गिरिराज पहले से ही उसे जानते हैं। उसे दुविधा में देख पंडित गिरिराज बोले......‘‘आशुतोष बाबू सब बता दिए हैं हमें पहले से ही। बहुत बड़े डोनर हैं वो हमारी ट्रस्ट के....बड़े भले आदमी......आओ कल्याणी यशोधरा...।’’
‘‘प्रणाम पंडितजी।’’ कहते हुए यशोधरा ने उनके पैर छुए। रागिनी ने भी यशोधरा का अनुकरण किया।
आश्रम के छोटे-छोटे बाल गोपाल.....घुटा सिर, केसरिया बाना.....लंदन से पधारी विशेष मेहमान का सामान उठाने में होड़-सी लग गई उनमें। सभी सुबह से रागिनी का इंतजार कर रहे थे। आते-आते दोपहर हो गई थी उसे। आशुतोष बाबू ने प्रबंधक को सब बता दिया था। उनके आराध्य कृष्णमुरारी पर रिसर्च करने वाली इस अंग्रेज महिला को देखने के सभी इच्छुक थे। आश्रम के प्रांगण से ऊपर जाती सीढ़ियों को पार कर पहली मंजिल पर ही रागिनी को कमरा दिया गया था, यशोधरा को उसी की बगल का कमरा मिला था।
नहा-धोकर रागिनी ने सलवार कुरता पहना और कमरे के बाहर बालकनी में आ खड़ी हुई। यशोधरा का कमरा अंदर से बंद था। आश्रम में अद्भुत शांति थी...। इतने सारे कृष्ण भक्त, कोई भी कोना ऐसा न था जहाँ कोई भक्त बैठा जाप न कर रहा हो। इन भक्तों में नेपाल, बर्मा, इंडोनेशिया आदि देशों से आए युवक भी थे जो पृर्णतया कृष्णभक्ति में डूबे अपने जीवन का सार खोज रहे थे। जहाँ तक वह जानती है विश्व का लगभग एक तिहाई हिस्सा कृष्ण जीवन से प्रभावित है। रूस, अमेरिका, यूरोप सभी जगह कृष्ण के मतवाले भक्त कृष्ण नाम संकीर्तन जपते घूम रहे हैं। वह भी तो इसी नाम से जुड़ी सागर, पर्वत, नदियाँ पार कर यहाँ तक चली आई है।
सीढ़ियों पर खड़ाऊँ की आहट हुई-‘‘जय श्रीकृष्ण......बुलाया है आपको ऑफिस में।’’
रागिनी ने भी आगंतुक को उत्तर में जय श्रीकृष्ण कहा और सीढ़ियाँ उतर गई। ऑफिस में तख्त पर बिछे गद्दे पर गाव तकिए का सहारा लिए पालथी मारे आश्रम के ट्रस्टी बैठे थे। रागिनी को भी बैठने का इशारा कर पंडित गिरिराज ने सबका परिचय कराया। उनमें से बीचों-बीच बैठे मोटे से आचार्य ने रागिनी को आश्रम के नियम समझाए।
‘‘आश्रम में खाने, नाश्ते, प्रार्थना और प्रवचन का समय निश्चित है। यदि आप समय पर उपस्थित नहीं रहीं तो वंचित रह जाएँगी। वृंदावन के मंदिरों की, वन-उपवन की संपूर्ण जानकारी आपको पंडित गिरिराज देंगे। पुस्तकों की जानकारी आपको आचार्य अखंडानंद देंगे। वे संस्कृत के महापंडित हैं और डॉक्टरेट की उपाधि के पश्चात् कई वर्षों तक वे काशी विद्यापीठ में पढ़ाते भी रहे हैं। अब श्रीकृष्ण की शरण में हैं। आप यहाँ जितना चाहें रुकें। कोई असुविधा हो तो सीधे यहीं आकर संपर्क करें ‘‘जय श्रीकृष्ण’।’’
रागिनी मूक बनी सुनती रही। अब कोई प्रश्न उसके पास न था। उसने अभिवादन किया और उठ गई।
दोपहर के भोजन का समय हो चला था। यशोधरा सीढ़ियों से उतरती दिखी। फिर न जाने कहाँ ओझल हो गई। साफ-सुथरा भव्य आश्रम, हरियाली से घिरा...। जामुन और खजूर के वृक्ष सुकून देते से लगे। गुच्छे में खिला चम्पा का पेड़ महक रहा था। सबसे ऊपर डालियों पर तोते बैठे थे। हवा में धूप की गुलाबी गरमाहट समाती जा रही थी।
‘‘चलो....खाना खा लें, फिर वृंदावन दर्शन को निकलेंगे।’’
कंधों के पास यशोधरा की साँसों का गर्म स्पर्श पा रागिनी मुड़ी। पूछना चाहा, इतनी देर कहाँ थी पर उसका मुस्कुराता चेहरा देख रुक गई। आज यशोधरा ने सफेद साड़ी, सफेद ब्लाउज ओर गले में तुलसी की माला पहन रखी थी। माथे पर चंदन की बिंदी मानो कह रही हो- अब मैं पूर्णतया शांत हूँ। मुझे जीने का मार्ग मिल गया है।
खाने का हॉल बहुत बड़ा था। वहाँ जूट से बनी पतली दरियाँ पट्टीनुमा आकार की बिछी थीं। हॉल खचाखच भरा था। उन दोनों को खड़ा देख महिलाएँ थोड़ा-थोड़ा सरककर उनके लिए जगह बनाने लगीं। उन्होंने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा और बैठ गईं। उनके आगे पत्तलें बिछ गईं। पत्तलों में गरमागरम भोजन परोसा जाने लगा। परोसने वाले युवक केशरिया वस्त्र पहने, माथे पर तिलक लगाए राधेकृष्ण का श्लोक बुदबुदाते खाना परोस रहे थे। उनके हाथों में भोजन से भरे बड़े-बडे बर्तन थे। क्या मजाल कि परोसते हुए भोजन इधर-उधर बिखर जाए। सारा काम सधा हुआ। खाना खाकर अपनी पत्तल समेट कर उठाते हुए रागिनी ने इधर-उधर देखा। एक युवक ने दरवाजे के बाहर रखे लकड़ी के बक्से की ओर इशारा किया-‘‘वहाँ फेंक दीजिए।’’
भोजन कक्ष से जब दोनों बाहर निकलीं तो भक्तों के समूह अपनी व्यस्तता में डूबे नजर आए। इतनी व्यस्तता और इतनी शांति......चकित करती-सी, कुछ ऐसा भास कराती सी कि अब तक की जिन्दगी व्यर्थ गंवा दी.. जिन्दगी का सार तो बस यहीं है। खासकर शाम को स्वामीजी के प्रवचन सुनकर तो ऐसा ही लगा, अतीत की व्यर्थता का तेजी से आभास होता रहा।
प्रवचन दो घंटे चला। स्वामीजी ने रागिनी को अपने पास बुलाकर बैठाया। सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया। वह गद्गद थी। प्रेम और अपनत्व से ओतप्रोत था आश्रम....। आश्रम का हर भक्त, स्वामीजी, आचार्य जी, पंडितजी।
रागिनी पंडित गिरिराज से बाँकेबिहारी मंदिर की जानकारी ले ही रही थी कि सूचना मिली....आशुतोष बाबू ने रागिनी के लिए वृंदावन दर्शनार्थ गाड़ी भेजी है। मना न करें अब इतनी सेवा तो स्वीकार करें कम से कम। बाँधकर रख लिया है रागिनी को इन छोटी-छोटी प्रेमभरी घटनाओं ने। अभी तक वह महज जिन्दगी जी रही थी अब उसमें प्रेम आ समाया है तो जैसे उसकी उम्र बरसों पीछे खिसक आई है। यशोधरा भी तो हर पल उसके साथ है, छाया की तरह।
बाँकेबिहारी मंदिर में दर्शनों के पश्चात वे दोनों मंदिर की सीढ़ियाँ उतरकर गेट की ओर वाली सीढ़ियों पर बैठ गईं। सीढ़ियों के नीचे दाहिनी ओर लगे पेड़ के चबूतरे पर एक चनेवाला चने का टोकरा लिए बैठा था। ग्वाला-सा दिखता, कोलतार-सा काला रंग, सिर पर पगड़ी और कानों में मोटी-मोटी चाँदी की बालियाँ। दो पुड़ियों में चने बांधते हुए उसके हाथ का कड़ा रागिनी की आँखों में बस गया-‘‘चने वाले भाई, ये कड़ा कहाँ से खरीदा?’’
वह जल्दी-जल्दी पलकें झपकाने लगा-‘‘यह खरीदा नहीं है, बाँके बिहारी दे गए हैं।’’
‘‘बाँके बिहारी? यानी कृष्ण?’’
‘‘हाँ......पिछले हफ्ते रात के कोई दस बजे हम घर लौटने की तैयारी में थे कि पीतांबर पहने एक आदमी ने हमसे चने खरीदे और पैसे मांगने पर यह कड़ा दे दिया। हमने जब कड़े को हाथ में लेकर उनकी ओर देखा तो वहाँ कोई न था लेकिन ये कनेर के फूलों का पेड़ है न.....ये बिना हवा के भी हिल रहा था। इसी को छूते हुए गए होंगे बाँकेबिहारी। उनकी कमर में बांसुरी और हाथों में मोर का पंख था।’’
चनेवाले के हाथ से कड़ा लेकर उलट-पलट कर देखते हुए रागिनी मानो काठ की हो गई। कड़े पर कंस के राज्य की सील लगी थी। वह एकदम से चीख-सी पड़ी- ‘‘यशोधरा देखो।’’
‘‘ओह माई गॉड! मैं कहती हूँ न रागिनी, वृंदावन रहस्यों से भरी नगरी है।’’
रागिनी की आँखों में अश्रुजल उमड़ आया। सारे संदेह सारी शंकाएँ, सारी पीड़ा आँखों की तलैया में बह गई। मन निर्मल हो आया।
‘‘जो खग हौं तो बसेरो करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन। ‘‘कालिंदी तट के वृक्षों में.....कदम्ब के वृक्षों में कृष्ण ही कृष्ण। कृष्णमय ब्रज...इसी ब्रजभूमि में जन्म लेने की कवि की चाह। पर अगला जन्म किसने देखा? क्या पता पक्षी ही बन जाऊँ। हे प्रभो। मुझे कालिंदी के तट पर लगे कदम्ब के वृक्ष का ही पक्षी बनाना मैं वहीं अपना घोंसला बना कर रहूँगा। कदम्ब का वृक्ष कृष्ण का प्रिय वृक्ष था। वे उस पर बैठकर बाँसुरी बजाते थे......ओह! प्रेम का इतना विशाल स्वरूप कि उसे समाने के लिए पूरा ब्रह्मांड, तीनों लोक भी छोटे, अगर इस प्रेम का एक अणु भी रागिनी को मिल पाता जबकि उसने तो डूबकर प्रेम किया था। पर डूब में वह ऐसी डूबी कि जिन्दगी की राह में दूजे के लिए जगह ही नहीं बची। पूरी उम्र उसने एकाकी रहकर गुजार दी। सैम ने प्रेम तो क्या खाक किया पर अपनी वासना की कीचड़ तपकर, बुझकर राख बन चुकी है। क्या उस राख से फिर कोई फिनिक्स पैदा होगा? क्या प्रेम के आकाश में पंख पसारेगी रागिनी? प्रेम की ऐसी अवशता में वह सन्नाटों में समाने लगी।’’
पंडित गिरिराज गोवर्धन परिक्रमा में स्वयं साथ हैं रागिनी के। रागिनी को जींस, टी-शर्ट और स्पोर्ट्सशूज पहनते देख यशोधरा ने वैसा ही लिबास खुद भी पहन लिया। बिल्कुल कॉलेज की छात्रा लग रही है वह। चेहरे पर कांति और फीकी-सी मुस्कान। कैसे पहाड़-सी उम्र पति के बिना काटेगी यशोधरा...। अभी तो उम्र ही क्या हुई है। रागिनी ने सोचा और लगातार यशोधरा के चेहरे को देखते रहने की यशोधरा द्वारा ही चोरी पकड़ी जाने पर शरमा गई-‘‘अच्छी लग रही हो सखी।’’
इस नए संबोधन से यशोधरा खिलखिलाकर हँस पड़ी। ‘‘देखो...कितना सुख मिला न तुम्हें सखी सम्बोधन से। कृष्ण भी तो गोपियों को सखी बुलाते थे। सखी में प्यार गहराई से महसूस होता है।’’
‘‘इतना प्यार मत करो रागिनी। हफ्ते दस दिन में मैं जम्मू लौट जाऊँगी......फिर न जाने कब मिलना हो।’’
रागिनी मुस्कुराई-‘‘प्यार क्या समय सीमाएँ देखकर किया जाता है? कृष्ण ने राधा से, गोपियों से, ग्वालों से असीमित प्यार किया। बहुत जल्दी वे बिछुड़ भी गए सबसे और जिन्दगी में फिर कभी नहीं मिले, तो क्या प्यार में कमी आ गई? बल्कि गोपियों को समझाने जब कृष्ण ने ऊधव को वृंदावन भेजा और ऊधव ने उन्हें समझाया कि गोपियों.....कृष्ण के विरह में तड़पने से अच्छा है अपना मन कहीं और लगाओ तो गोपियाँ हँसकर उल्टे ऊधव से ही पूछने लगीं.....ऊधव, मन न होय दस बीस... कौन-सा मन लगाएँ हम? मन क्या दस बीस होते हैं। एक ही था जो कृष्ण को दे दिया हमने, अब मन है कहाँ हमारे पास?’’
यशोधरा अवाक थी....कितना कम जानती है वह अपने धर्मग्रंथों को...। जीवन यूँ ही व्यर्थ बीता जा रहा है मृत्यु का शोक मनाते जबकि जन्मते ही मनुष्य की मृत्यु का दिन निश्चित हो जाता है।
रास्ते में पंडित गिरिराज ने बताया-‘‘मेरा जन्म उसी नक्षत्र में हुआ था था जिसमें भगवान कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन धारण किया था।’’
“इसीलिये आपका नाम गिरिराज है।“
‘‘गिरिराजजी की परिक्रमा का अपना अलग महत्व है और परिक्रमा करते हुए रास्ते में पड़ने वाले हर एक स्थल का भी।’’ रास्ते धूप-छाँव से चित्रित थे। परिक्रमा सुबह शुरू हुई थी। ठंड में वैसे भी पैदल चलना अच्छा लगता है। जैसे-जैसे कोहरे को भेदकर धूप सड़क पर बिखरने लगी किनारे पर लगे वृक्षों की हलकी-हलकी छाया भी पड़नी शुरू हो गई। हवाओं में ठंड की ऋतु में खिले फूलों की सुगंध समाई हुई थी। रास्ते में कई श्रद्धालु झुंड के झुंड हरे कृष्ण का जाप करते परिक्रमा कर रहे थे। रागिनी ने कई जगहों की तस्वीरें खींचीं। हरीतिमा में डूबा वृंदावन अद्भुत लग रहा था।
जैसे-जैसे तीनों आगे बढ़ रहे थे.....सड़क पर लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। अब हरे कृष्ण के साथ गिरिराज महाराज की जय-जयकार भी गुंजायमान हो रही थी। बावजूद ठंड के मानसी गंगा में लोग स्नान भी कर रहे थे। पंडित गिरिराज ने डुबकी लगाई और भीगे कपड़ों में ही आकर गंगा मंदिर में जल ढार कर स्तुति की। इच्छा के बावजूद रागिनी और यशोधरा डुबकी नहीं लगा पाईं। दोनों जींस टीशर्ट में थीं और स्नान संभव न था। मंदिर में गंगामैया की काले पत्थर से बनी मूर्ति थी। बड़ी-बड़ी आँखें, सौम्य मुख। मूर्ति के सामने बैठ पंडित ने तीनों को आचमन का जल दिया।
यात्रा फिर आरंभ हुई। पंडित गिरिराज बताने लगे- ‘‘मानसी गंगा को भगवान कृष्ण ने अपने मस्तिष्क की शक्ति से प्रगट किया था इसीलिए यह मानसी गंगा कहलाई। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सनातन गोस्वामी प्रतिदिन गोवर्धन की परिक्रमा किया करते थे। लेकिन वृद्धावस्था में परिक्रमा न कर पाने से वे दुखी रहने लगे। एक दिन स्वयं श्रीकृष्ण उनके सामने प्रकट हुए और उन्होंने अपने हाथों से उन्हें गोवर्धन पर्वत की एक शिला दी। शिला पर बाँसुरी, लकुटिया, गाय के खुर और स्वयं श्रीकृष्ण के चरण चिहन अंकित थे। भगवान ने कहा ‘‘आप दुखी न हों, इस शिला की प्रतिदिन चार बार परिक्रमा कर लेने भर से गोवर्धन परिक्रमा का पुण्य मिल जाएगा।’ वह शिला आज भी वृन्दावन के प्राचीनतम राधा दामोदार मंदिर के गर्भगृह में रखी है और पूजन का अंग हो चुकी है। गिरिराज गोवर्धन तो स्वयं साक्षात श्रीकृष्ण हैं और अपने भक्तों के लिए सब कुछ करने को तत्पर हैं। वृंदावन में यह धारणा प्रचलित है कि गोवर्धन परिक्रमा से सारी समस्याएँ हल होकर मार्ग का हर काँटा फूल बन जाता है। इसी भावना के साथ देश के कोने-कोने से लाखों तीर्थ यात्री हर महीने गोवर्धन की परिक्रमा करने आते हैं। आपके मन में कोई समस्या हो तो उसे मन ही मन प्रभु चरणों में अर्पित कर दें। फिर देखिए चमत्कार।’’
हाँ है...समस्या है। प्रेमविहीन, एकाकी, नीरस जीवन जीने की मजबूरी ही तो सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों की दौलत, ऐशोआराम के बावजूद मन शांत नहीं। तो यह तय हुआ कि धन-दौलत सब कुछ नहीं। सब कुछ है मन की शांति जो किसी भी दौलत से नहीं खरीदी जा सकती......हे श्रीकृष्ण.....यह समस्या तुम्हें अर्पित.......क्या छुटकारा दोगे प्रभु, रागिनी ने सोचा और धड़कते दिल को हथेली से दबा लिया। यशोधरा ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा-‘‘रागिनी, मेरी समस्या जगजाहिर है....मैं मन ही मन कैसे सोचूँ?’’
पंडित गिरिराज ने यशोधरा के कहे वाक्य सुन लिए- ‘‘मन तो पूरा एक संसार है देवी यशोधरा.....वहाँ जो कुछ घटित होता है सब चेहरे पर अक्स होता जाता है। तभी तो भगवान भी मन को काबू में रखने का ही उपदेश देते हैं।’’
कई पलों तक दोनों शांति से चलती रहीं। मुखारविंद आ चुका था। मुखारविंद आकर ही गोवर्धन परिक्रमा पूर्ण होती है। यहीं पर भगवान ने गोवर्धन पर्व धारण किया था और इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों की रक्षा की थी। आज भी राधाजी की कृपा और गोवर्धन के वरदान से ब्रज धनधान्य से, गौओं से पूर्ण है। कृष्ण भक्ति का हर क्षण एक उत्सव के समान है इसलिए हमारे लिए हर दिन एक जैसा है क्योंकि हमारा हर क्षण भक्ति में ही बीतता है। हम उदासी, शोक, बेचैनी आदि विकारों से परे हैं।’’ कहते हुए गिरिराजजी ने उन्हें बहुत अनुरोध करके एक दुकान से जलपान कराया, स्वयं कुछ नहीं लिया। रागिनी आग्रह करती रही।
पंडित गिरिराज आश्रम लौट गए। आशुतोष बाबू की गाड़ी भी लौटा दी रागिनी ने। वह यशोधरा के संग रिक्शे पर घूमती रही।
‘‘कल कुसुम सरोवर चलोगी सखी? राधा-कृष्ण की प्रणय स्थली।’’
‘‘वो कैसी रागिनी?’’
‘‘वहाँ सरोवर के तट पर कृष्ण राधाजी को पुष्प भेंट किया करते थे। कभी मन होता तो तट पर बैठकर पुष्पों से उनका श्रृंगार भी करते थे।’’
‘‘अच्छा? कितनी भाग्यवान थीं राधिकाजी और मैं कितनी अभागिन। जवानी में ही पति खो बैठी।’’
रागिनी ने यशोधरा के कंधे पर हाथ रखा-‘‘नहीं सखी, तुमने पति खोया कहाँ है? वे तो अमर हैं। बलिदानी कभी मरता नहीं....। वो भी ऐसा बलिदानी जो देश के लिए शहीद हुआ हो?’’
यशोधरा की आँखें छलक आईं। पर स्वयं को संयत कर उसने आँसू पोंछ डाले-‘‘तुम्हारे सामने मैं परम अज्ञानी हूँ रागिनी, तुम कितना कुछ जानती हो।’’
‘‘कुछ भी तो नहीं.......अधकचरा ज्ञान है मेरा। मन करता है यहीं बस जाऊँ तो कुछ सीख सकूँ। स्वामीजी के प्रवचन तो ज्ञान का भंडार हैं।’’
‘‘मगर मुझे लौटना होगा। वहाँ जम्मू में मेरे पति का परिवार है। माँ, बहन, भाई.....पति के बाद मेरा भी तो फर्ज बनता है न रागिनी, उनकी देखभाल का।’’
रागिनी का दिल मानो थम-सा गया। सम्बन्धों के इतने प्रगाढ़ बंधन। उसके देश में जो जीते जी कोई किसी को नहीं पूछता, यहाँ मरने के बाद भी? पैसों की चमक और लिप्सा में डूबे अपने देश की समृद्धि पर गर्व होना चाहिए था रागिनी को। साम्राज्य विस्तार इतना तो पूरे विश्व में किसी ने नहीं किया होगा....लेकिन कमी रह गई। प्रेम और साधना के अमूल्य धन की कमी रह गई रागिनी के देश में....। आज सब कुछ होते हुए भी भारत के सामने निर्धन हो गया उसका देश और प्रेमधन कुपात्र पर लुटाकर कंगाल हो गई रागिनी....कौन है उसका वहाँ.....कोई भी तो नहीं सिवाय असीमित धन के? क्या दिया उसके देश ने उसे......कुछ भी तो नहीं.......और विडम्बना तो देखो कि उसे पाल-पोसकर बड़ा करने वाले जॉर्ज और दीना भी भारतीय ही थे, वरना उसने न तो टॉम ब्लेयर का परिवार जाना न डायना का......और इस न मिलने वाले अपनत्व और प्यार की ऊष्मा की ढाल ही उसका अभेद्य कवच बन गई है। अब वह जिन्दगी के हर मोड़ का, हर सदमे का वार झेल सकती है। अकेले, बिना किसी भावुक सहारे के.....सब कुछ कृष्णार्पण।
यमुना किनारे कदंब के वृक्ष से टिकी बैठी है रागिनी। यशोधरा आश्रम में ही है, कह रही थी कि आराम करेगी। स्वामीजी जगन्नाथपुरी गए हैं। जब से वह वृंदावन आई है स्वामीजी के प्रवचनों से उसके मन को अपूर्व शांति मिली है। राधाकृष्ण के नित नए रहस्य खोलते हैं स्वामीजी......मन आनंद की गंगा में डूब-डूब जाता है। ऐसा अनुभव तो कभी नहीं किया रागिनी ने। अब एकाकीपन खलता नहीं बल्कि चिंतन के द्वार खोलता है। यमुना तट पर बैठे हुए यमुना की लहरों को गिनती हुई रागिनी उसी चिन्तन में डूबी है। बरसाने गाँव से आती थीं राधारानी अपने कृष्ण से मिलने। कैसे आती होंगी वे? रागिनी ने हरियाली के महासमुद्र में खपरैल के छप्पर वाले मकान देखे.....तट के उस पार.....तब तो कोई पुल भी न रहा होगा। यमुना का अथाह जल क्या स्वंय मार्ग देता था उन्हें या वे तैरकर आती थीं? यमुना के कपूर से चमकते बालू तट पर तमाल ओर कदम्ब के वृक्षों की घनी छाँव में प्रेमातुर कृष्ण की बाहों में समा गई राधा.....कृष्ण के रस भरे होठों के ऊपर राधा की नथ का मोती थरथरा गया। तमाल वृक्ष हवा के झौंके में लहरा उठे-‘‘रस रंग भिरै अभिरै हैं तमाल दोऊ रस ख्याल चहै लहरैं....’’ कि तभी बाँसुरी राधा की क्षीण कटि में चुभ गई.....राधा ने बाँसुरी छुपा ली। कृष्ण मनुहार करने लगे’-‘‘दे दो न बाँसुरी.....राधे...।’’
हवा में लहराती तमाल वृक्ष की टहनियो में कृष्ण का फहराता पीतांबर और राधा की चुनरी एकमेक हो गई। चोटी में गुँथी कुंद की कलियाँ बिखर गईं। कृष्ण राधा के चरण कमल को गोद में रखकर सहलाने लगे...राधा ने सिहर कर आँखें मूंद लीं।
‘‘अब तो दे दो प्रिय...।’’
राधा मान से भर उठीं-‘‘तय कर लो कन्हैया, तुम्हारे होठों पर बाँसुरी सजेगी या मेरे आतुर होठ।’’
हार गए कृष्ण....हार गया बालू तट......तमाल वृक्ष.....सारा का सार प्रेम ही हार गया। प्रेम का हर कतरा पुकार उठा......राधे.....राधे।
‘‘रागिनी, तुम यहाँ बैठी हो?’’
रागिनी चौंक पड़ी.....प्रेम सागर में गोते लगाता उसका मन ज्यों तट पर छिटक गया हो....।
‘‘मिस किया तुमने। आचार्य अखंडानंद के साथ छिड़ी लम्बी बहस को। जड़ को चेतन बना देने की शक्ति है उनके शब्दों में।’’
यशोधरा पास ही बैठ गई। उसके हाथों में खुरचन का दोना और आरती का महाप्रसाद था। उसने दोना रागिनी को दे दिया-‘‘लो खाओ, बहुत सौंधी है खुरचन।’’
‘‘यशोधरा, क्या तुम भी देख रही हो बरसाने से आती राधा को, कृष्णमय राधा को? ब्रज की गोपियों को......जो कृष्ण की बेसुध कर देने वाली बाँसुरी की धुन पर दौड़ी आ रही हैं? क्या तुम भी उन लताओं को देख रही हो जो अपने प्रियतम वृक्ष के आलिंगन में तो हैं लेकिन थरथरा इसलिए रही हैं क्योंकि उनके पत्तों, डालियों को कृष्ण के नखों ने छुआ है। देखो यशोधरा......देखती हो न तुम?’’
यशोधरा चकित हो रागिनी को निहारने लगी- क्या हो गया है रागिनी को......कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही है।
‘‘यशोधरा.....क्या तुमने रसखान को पढ़ा है? अपनी थीसिस के दौरान जब मैं उन्हें पढ़ रही थी तो सच कहती हूँ मेरा मन वृंदावन की गलियों में भटक रहा था। वह बाँसुरी की धुनि कानि परे कुलकानि हियो तजि भाजति है। कृष्ण की बाँसुरी की ध्वनि कानों में पड़ते ही गोपियाँ कुल की मर्यादा का त्याग कर कृष्ण की ओर दौड़ती थीं। देखो, मैं भी तो दौड़ी आई हूँ लंदन से यहाँ तक।’’
यशोधरा समझ नही पाई रागिनी के मन को। उसने उसके हाथ थाम लिए-‘‘चलो रागिनी, चलते हैं.....नहीं तो रिक्शा नहीं मिलेगा।’’
कहते हुए यशोधरा रागिनी को बलपूर्वक सड़क तक खींच लाई। पास ही एक रिक्शा खड़ा था जिस पर बैठा रिक्शेवाला आराम से बीड़ी फूँक रहा था।
‘‘गीता आश्रम चलोगे?’’
वह रिक्शे को दोनों के नजदीक ले आया। पहले रागिनी बैठी फिर यशोधरा। रागिनी को रिक्शे पर बैठना किसी थ्रिल से कम न लगता था। रिक्शा धीरे-धीरे तेजी पकड़ने लगा। रिक्शे के हैंडल पर लगे रुनझुनाते घुँघरूओं में मानो गोपियों के पैर आन बसे।
10
अचानक ही आसमान पर भूरे, लाल, सिलेटी मन में दहशत फैलाने वाले अजीबोगरीब बादल छा गए। तेज हवाएँ चलने लगीं। वृंदावन की गलियों से धूल उड़-उड़ कर आसमान और धरती के बीच शून्य में रेगिस्तान रचने लगीं। आज यशोधरा की बिदाई का दिन था। रागिनी सुबह से उदास थी। प्रकृति भी मानो उसकी उदासी में उसका साथ दे रही थी। यशोधरा सामान सहेजती घबराई आवाज में रागिनी को पुकारती उसके कमरे तक आई। पलंग पर वह सिर पकड़े बैठी थी।
‘‘क्या हुआ रागिनी? ऐसी क्यों बैठी हो? तबीयत तो ठीक है न। एक तो मौसम अनिष्ठ के संकेत दे रहा है, ऊपर से तुम......’’ रागिनी ने चेहरा उठाया। यशोधरा की आँखों का भय उसे भी डरा गया।
‘‘देखती नहीं हो.....कैसे डरावने, बादल घिर आए हैं। धूलभरी हवा अलग.....उधर हमारे जम्मू में कहते हैं कि मौसम अनिष्ट के संकेत पहले से दे देता है। हम समझ नहीं पाते।’’
‘‘कैसा अनिष्ट यशोधरा? तुम कहना क्या चाहती हो?’’ रागिनी ने जिज्ञासावश पूछा।
‘‘यही कि कुछ अनहोनी घटने वाली है। खैर.....आओ, जरा मेरे कमरे में......सूटकेस बंद करवाने में मेरी मदद करो।’’ रागिनी यशोधरा के पीछे-पीछे उसके कमरे में आई। यशोधरा ने अपने परिवार में सबके लिए सौगातें खरीदी थीं इसलिए सूटकेस छोटा पड़ रहा था। मथुरा के पेड़ों के डिब्बे प्लास्टिक बैग में रखे थे......किसी के लिए केसर वाले......किसी के लिए पिस्ता इलायची वाले। जैसे-तैसे दोनों ने मिलकर सूटकेस बंद किया। गाड़ी मथुरा से पकड़नी थी। रागिनी की इच्छा थी यशोधरा को मथुरा तक पहुँचा आने की। पर यशोधरा ने मना कर दिया था-‘‘नहीं रागिनी.....अकेली आई थी, अकेली ही जाने दो। अब तो अकेले ही जीने की आदत डालनी है।’’
‘‘ऐसा क्यों कहती हो सखी.....तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है, तुम अकेली कहाँ?’’
‘‘परिवार तो वो पड़ाव होता है जहाँ इंसान जीवन यात्रा करते करते थककर आराम करता है, वरना यात्रा के मार्ग का साथी तो सिर्फ पति ही होता है।’’
और जिनका पति नहीं होता उनकी यात्रा क्या आरंभ ही नहीं होती? क्या जीवन तालाब के ठहरे जल की तरह अपने में ही सिमट कर रह जाता है? कहना चाहा रागिनी ने पर यशोधरा की डबडबाई आँखों की कैफियत ने कुछ न कहने दिया। वह रागिनी के गले लग रो पड़ी थी। जीप आ चुकी थी। आश्रम के कुछ यात्री और आ जुटे थे यशोधरा के साथ, जिन्हें मथुरा से गाड़ी पकड़नी थी। किसी को दिल्ली जाना था, किसी को फरीदाबाद, मेरठ, देहरादून। सब जीप में सवार हुए।
‘‘प्रेम विरह का दूसरा रूप है, इसे याद रखना........फिर मिलेंगे गर खुदा लाया.....।’’
‘‘आमीन.........सखी।’’ रागिनी की आँखें गली के मोड़ तक यशोधरा के हिलते हाथ को देखती रहीं.......गोपियों का विरह क्या ऐसा ही था.....या इससे अधिक......गोपियाँ जिनमें राधा का अंश समाया था......जो कृष्ण को ऐसे घेरे रहतीं जैसे फूल को तितलियाँ.....वृंदावन रागिनी की हर साँस में बस गया था। अब उसे कुछ सूझता ही नहीं था। जैसे अफीम की पिनक में आदमी को अपना होश नहीं रहता वैसे ही रागिनी वृंदावन के नशे में लिप्त थी। सुबह तड़के ही आँख खुल जाती। धुँधलके में हरिओम का जाप करते भक्तों की टोली सड़क से गुजरती तो वह भी उनके साथ हरिओम कहने लगती। फिर ग्वालों की साईकिलें दूध के बर्तन लादे गुजरतीं। पथरीली सड़क पर साईकिल के उतार-चढ़ाव से बर्तन खनकते, गायों के गले की घंटियाँ टुनटुनातीं.......गौशाला में बाल्टी भर-भर दूध दुहते और दूध के झाग में नापने का बर्तन डुबोते ग्वाले। जंगल की हरियाली हवा के संग सूँघती रागिनी सुख से भर जाती। इतना सुख कहाँ था जीवन में? उसके अन्दर सुख की और शान्ति की पावन गंगा.....गंगा नहीं यमुना लहरें मार रही है......यमुना की लहरों पर पूनम का चाँद थिरक रहा है.......यही है महारास का उत्सव....अलंकार प्रिय कृष्ण.....राधा......बीचोंबीच और उनको घेरे गोपियाँ.स्वर्गिक सँगीत की धुन पर थिरकते कुँज.....कुँजों में पुष्पों से लदी वल्लरियाँ आह, यह कृष्ण से मिलन का असीम सुख वही जान सकता है जो प्रेम की शक्ति पहचानता है....कान्हा.....मोहन.....नटखट कन्हैया......कृष्ण......नन्दलाल.....संगीत तुम्हारा हर नाम पुकार है। इसीलिए क्या तुमने राधा के बाद बाँसुरी से प्रेम किया?
आश्रम की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए रागिनी ने आसमान की ओर देखा, आँधी तो पहले ही थम गई थी.....अब बादल भी छँट गए थे। न जाने किस अनिष्ट की आशंका से चेता गई है यशोधरा। शाम की आरती का वक्त हो चला था। भक्त जुटने शुरू हो गए थे। आरती के बाद प्रवचन होगा तब तक रागिनी अपने बेचैन मन पर काबू पाना चाहती थी। और उसका एकमात्र तरीका था, एकांत कमरे में आँख मूँदकर बैठना। रागिनी ने बाथरूम में जाकर चेहरा धोया, आँखों में पानी के छपाके मारे। चेहरा पोंछ कमरे में आकर बिस्तर के बीचों बीच पालथी मारकर बैठ गई। आँखें मूँदते ही लंदन की उसकी अपनी कोठी याद आई..... बेटी रति.....जिसके भोले मासूम चेहरे और किलकारियों में उसने अपना बचपन खोजना चाहा था....। उसके जवाँ सौंदर्य ने उसे सैम याद दिलाया था और सैम को याद करते ही वह पतझड़ी हवाओं से घिर गई थी। घबराकर उसने आँखें खोलीं फिर ध्यान की कोशिश और फिर मोह के जाल........मुनमुन बुआ, सत्यजित, दीना, जॉर्ज........आह.....इस जाल से कैसे निजात पाए कि यशोधरा कान में फुसफुसाई.....‘‘यही तो भक्ति का चरम है......यह प्रेम ही तो ईश्वर है..... इस ईश्वर को पाना बड़ा कठिन है क्योंकि प्रेम की डगर बहुत संकरी है और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बड़ा टेढ़ा.....दुर्लभ....नहीं, ध्यान नहीं लगा पाई रागिनी.....मन और अधिक बेकाबू हो चला था। नीचे से आरती के घंटे, मंजीरे, ढोलक बज उठे। वह दौड़ती हुई नीचे आई। आरती शुरू हो चुकी थी। उसने हाथ जोड़कर राधाकृष्ण की मूर्ति पर अपनी आँखें टिका दीं। मंदिर आश्रम से पांच मिनट की दूरी पर था लेकिन आश्रम के सभी भक्त समय पर सुबह शाम उपस्थित हो जाते थे। रागिनी भी अब नियमित आने लगी थी। आरती के बाद प्रसाद लेकर वह थोड़ी देर चबूतरे पर बैठी रही तभी एक कृष्णभक्त उसके पास आया। इतने दिनों से रोज एक दूसरे को देखने, आरती भोजन के समय मिलने के कारण सब एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। आने वाला युवक माइक अमेरिकन था।
‘‘आओ माइक...बैठो कुछ देर।’’ रागिनी ने चबूतरे पर जगह होते हुए भी थोड़ा सरककर उसके लिए जगह बनाई।
‘‘आज सुबह का मौसम तुमने देखा रागिनी.......बादल और धूल भरा?’’
रागिनी को लगा माइक कोई अनहोनी घटित होने की आशंका जता रहा है।
‘‘क्यों......ऐसे क्यों पूछ रहे हो माइक......क्या कोई अनहोनी......’’
‘‘अनहोनी?’’ रागिनी की बात अधूरी ही छूट गई। माइक अपनी छोटी-छोटी नीली आँखों को जितना फैला सकता था, फैलाकर बोला ‘‘हाँ.....अनहोनी ही थी.....उस दिन को याद कर आज भी रोमांचित हो जाता हूँ। करिश्मे का देश है इंडिया।’’
रागिनी व्याकुल हो उठी- ‘‘बताओ माइक, क्या हुआ था? किस अनहोनी की बात कर रहे हो तुम?’’
‘‘सन् 1998 में मैं इंडिया में.....इस्कॉन आया था। कृष्ण भक्त होकर.....समस्त सांसारिक भोगविलास, रिश्ते-नाते अमेरिका में ही छोड़कर खाली हाथ इस्कॉन आया था, प्रभु की सेवा करने। भयानक गर्मी थी उस दिन। ऐसे ही डरावने बादल आसमान पर छा गए थे। पश्चिम दिशा से धूल भरी आँधी उठी थी और मथुरा नगरी धूलमय हो गई थी। सुबह की आरती का समय था। हम सब उस दिन द्वारकाधीश मंदिर में थे क्योंकि वहाँ भारत के शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध गायक पंडित जसराज आए थे। आरती आरंभ हो चुकी थी। मंदिर में तिल रखने को जगह नहीं थी, इतनी भीड़ पड़ी थी उस दिन। तभी अचानक पंडित जसराज ने हारमोनियम पर राग धूलिया मल्हार गाया।’’
‘‘मैं जानती हूँ इस राग के बारे में।’’
माइक ने आश्चर्य से रागिनी की ओर देखा।
‘‘मेरी ममा भारतीय संगीत की गायिका थी और पापा शास्त्रीय संगीत के अध्यापक थे।’’
‘‘ओह... वंडरफुल..... तब तो तुम यह भी जानती होगी कि यह राग बहुत अधिक गर्मी होने पर गाया जाता है ताकि बादल इस राग से आकर्षित हो बरसने लगें। पंडित जसराज भजन गा रहे थे और भक्त झर-झर आँसू बहा रहे थे। भजन की तन्मयता के कारण सब अपनी जगह मूर्तिवत खड़े थे। भक्ति भावना और कला का अपूर्व संगम हो रहा था वहाँ। तभी बूंदाबांदी शुरू हो गई और देखते ही देखते बादल रिमझिम बरसने लगे। करिश्मा मैंने खुद अपनी आँखों से देखा।’’
रागिनी जड़वत बैठी रह गई। ऐसी कोई वजह नही थी जिसके कारण वह माइक की बात पर यकीन नहीं करती। कुछ देर की खामोशी ने दोनों को दूसरे ही लोक में पहुँचा दिया था। रागिनी के लिए भारत का कोई भी विषय गर्व का विषय था क्योंकि उसके पिता भारतीय थे। लेकिन माइक! माइक तो परदेशी था.....फिर किस चुम्बकीय शक्ति से खिंचा चला आया वह यहाँ और यहीं का होकर रह गया। यह मथुरा.....यह वृंदावन....जहाँ हवा में चमेली झूलती है और अपनी खुशबू से रच देती है एक सुगंधमय संसार। यहाँ क्यों महसूस होता है जैसे अभी इस गली में चलते-चलते कृष्ण से सामना हो जाएगा...। तभी तो चाँदनी और हरसिंगार के फूलों को चुनते-चुनते कुमारियाँ हरिओम.......हरिओम रटती हैं और कुएँ से पानी खींचती ग्वालिन गोपाल......गोविंद......कहती मटके में पानी उड़ेलती है। कृष्ण ने कहा था.......‘‘उतरो.....उतरो, अपने मन के वृंदावन में उतरो तो पाओगी कि मैं हर जगह हूँ......ऐसी कोई जगह बचती ही नहीं जहाँ मैं नहीं हूँ।’ गोपियाँ इसी वाक्य को ब्रह्मवाक्य मान जिंदगी भर कृष्ण को अपने नजदीक महसूस करती रहीं.....इस वाक्य में समाया है सम्पूर्ण आत्मा का रहस्य......बस मुझे भजो, मुझे देखो, मुझे पाओ, मुझे बाँटो....हे श्रीकृष्ण....सच ही तुम अंतर्यामी हो....
‘‘कहाँ खो गई रागिनी?’’ माइक रागिनी को मानो जगा-सा रहा था।
‘‘मैं अनन्त को पाने की कोशिश में थी।’’
‘‘चलो....ठंड बढ़ रही है। मुझे रात को मथुरा लौटना था लेकिन आज स्वामीजी का खास प्रवचन है जिसे सुने बिना मेरा मन नहीं मानेगा।’’
‘‘ठीक कहते हो माइक.....स्वामीजी के वचनों में जादू है। वे जब बोलते हैं तो पत्ता भी खड़कने से कतराता है।’’
वे तीखी ठंड में आश्रम की ओर लौट रहे थे। गोपाल भक्तों की टोली ‘‘हरिओम.....’ कहती चली जा रही थी। मंदिर को पीछे छोड़ वे पथरीली सड़क पर उतर आए। रागिनी ने हाथ बढ़ाकर किनारे लगी फूलों की डाली को छुआ। एक पत्ता टूट कर रास्ते पर आ गिरा।
‘‘कृष्ण पत्ते के गिरने में भी समाए हैं।’’ रागिनी बोले जा रही थी और माइक को पक्का यकीन हो गया था कि रागिनी अब लंदन नहीं लौटेगी, उस पर वृंदावन का जादू चढ़ गया है।
आश्रम लौटकर रागिनी ने स्वेटर पहना, कानों पर स्कार्फ बांधा और स्वामीजी की गद्दी के पास आ बैठी। स्वामीजी ने उसके सिर पर हाथ रखा-आओ कल्याणी रागिनी.....तुम तो शक्ति हो। प्रभु ने नारी के रूप में शक्ति की ही तो रचना की है। राधा भी श्रीकृष्ण की शक्ति थीं.......आनंद शक्ति। राधा प्रेम का परम तत्व हैं। उनका नाम लेते ही श्यामसुंदर अपने आप चले आते हैं। अलग से श्याम सुंदर को भजने की आवश्यकता नहीं पड़ती। राधा में समाए हैं कृष्ण। राधा को पुकारो.....कृष्ण को पाओ। राधा नहीं होतीं तो क्या कृष्ण गोवर्धन पर्वत धारण करते? वे अपनी हर सफलता का श्रेय राधाजी को देते हैं। राधा का प्रेम, राधा की कृपा उन्हें पग-पग पर सफलता दिलाती है, ऐसा मानते हैं कृष्ण-
कछु माखन ते बल बढ़यो, कछु गोपन करी सहाय,
श्री राधे रानी की कृपा ते, मैंने गिरवर लियो उठाय।
राधा की कृपा से ही आनंद और प्रेम रस की वर्षा हुई, रास लीला रची। रस जब समूह में बरसता है तो रास कहलाता है। राधा शब्द पहली बार उच्चरित होते ही समस्त चराचर जगत अभिभूत हो गया। पवन का वेग थम गया। बछड़ों ने दूध पीना छोड़ दिया। यहाँ तक कि ब्रह्मलोक में वीणावादिनी सरस्वती भी वृन्दावन पधार गईं। राधा शब्द के जादू से बँधी जब सरस्वती वृंदावन आईं तो कृष्ण के आकर्षण में ऐसी रमीं कि उनसे प्रणय निवेदन कर बैठीं। कृष्ण तो राधामय... दूजी सूझती ही नहीं कोई, सरस्वती की तरफ न तो उनका ध्यान गया न प्रेम निवेदन पर । सरस्वती आहत, स्तब्ध वहीं खड़ी खड़ी बाँस का वृक्ष बन गईं। कृष्ण तो अन्तर्यामी थे....प्रेम का साक्षात भंडार। समझ गए देवी सरस्वती को जब तक वे अपने होठों से स्पर्श नहीं करेंगे, उनका उद्धार नहीं होगा। इसी बाँस से कान्हा ने बाँसुरी बनाई, होठों से लगाई और सरस्वती की वीणा के सुर सारे के सारे बाँसुरी में समा गए। क्या जादू था सुरों का......किसी को प्रेम दीवाना बना दे तो किसी को उग्र। उन सुरों को सुनकर वृंदावन की गौएँ इतनी उग्र हो गईं कि उन्होंने कंस के सैनिकों को खदेड़ दिया।
रागिनी आँखें मूँदे स्वामीजी के वचन सागर में डूब उतरा रही थी। मानो आँखों के सामने ही घट रहा हो सब। वृंदावन में राधा भी हैं। कृष्ण भी हैं यह तो तय है। बस उन्हें देखने की दृष्टि चाहिए। रागिनी के तर्क स्वयं से होते रहते हैं। प्रवचन के बाद कमरे में लौटकर वह इन्हीं तर्कों में उलझी रहती है। अब कुछ भी दीगर नहीं सूझता। बनाए हुए रिश्तों के मायाजाल भी नहीं दबोचते......हाँ, वे सांस्कृतिक शामें जरूर याद आती हैं जो विभिन्न राष्ट्रों से आए विद्यार्थी और नौकरीपेशा शौकीन लोगों द्वारा स्थापित की गई थी कि अंग्रेज जान सकें कि उनकी संस्कृतियाँ कितनी अधिक प्राचीन हैं और फिर भी आधुनिक काल में ज्यों की त्यों चली आ रही हैं। ऐसी ही एक सांस्कृतिक शाम बेरियल किथ की स्मृति में आयोजित की गई थी। यह उन दिनों की बात है जब वह उमाशंकर से संस्कृत सीख रही थी और बेरियल किथ की लिखी पुस्तक ‘‘द हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर’ पढ़ रही थी। उस शाम मंच पर उपस्थित वक्ताओं के द्वारा उसने जाना कि बेरियल किथ के पास भारतीय संस्कृति का अद्भुत खजाना था। उनके ड्राइंगरूम की दीवारों पर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद की तस्वीरें फ्रेम की हुई टँगी थीं। फायरप्लेस के ऊपर बुद्ध की सफेद संगमरमर से बनी मूर्ति और काली धातु से बनी नटराज की तांडव करती प्रतिमा थी। एक ओर अजन्ता एलोरा की पेटिंग्स लगी थीं तो दीवार से सटे पथरीले खंभे पर गीता के और अभिज्ञान शाकुंतलम् के श्लोक खुदे हुए थे। सामने बुक रैक पर वेद-वेदान्त, रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति के ग्रंथ रखे रहते थे- जो इस बात के गवाह थे कि उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति का कितनी गहराई से अध्ययन किया था।
रागिनी को आश्चर्य है....उसे तो कुकिंग गैस जलाना तक भी नहीं आता कॉफी बनाना तो दूर की बात है और वह यहाँ अपनी कॉफी स्वयं बनाती है। बाजार से वह कॉफी शक्कर खरीद लाई है। आश्रम के भोजनकक्ष से थरमस में दूध मिला गरम पानी पहले खुद लाती थी अब कोई भी कृष्णभक्त ला देता है। सब उसका काम करने को उतारू रहते हैं। वह बाल्कनी में थर्मस लेकर खड़ी होती ही है कि कोई भी आकर उसके हाथ से थरमस ले लेता है और आनन- फानन मे भरा हुआ थरमस हाजिर। कॉफी पीते हुए वह आश्रम के पुस्तकालय से लाए ग्रंथों को पढ़ती है.....जो रागिनी कभी अपने अकेलेपन की पीड़ा में डूबीं रहती थी, बिसूरती रहती थी अब सिवाय कृष्ण के कुछ सूझता ही नहीं। उसे आश्चर्य है कि वह अपने बनाए हुए घर के किसी भी सदस्य को मिस नहीं करती.......न रति को, न मुनमुन बुआ को, न सत्यजित को.....जब से भारत आई है कितने ही लोगों से महाकुंभ के दौरान मिली, मथुरा में मिली, वृंदावन में मिली....यशोधरा के संग अधिक रही पर कहीं किसी की भी कमी खलती नहीं। माइक अक्सर मथुरा से आ जाता है। दोनों में मित्रता हो गई है। वह चला जाता है तब भी रागिनी कृष्ण ध्यान में निमग्न रहती है। यह क्या होता जा रहा है उसे? इसी को क्या विरक्ति कहते हैं? यह क्या निष्काम योग है जिसका लैक्चर कुरूक्षेत्र में युद्ध के लिए इंकार करते अर्जुन को कृष्ण ने दिया था?
‘‘जो संयोग-वियोग, मान-अपमान, रात-दिन और सुख-दुख में समान दृष्टि रखता है वही मुझे प्रिय है।’’ तो क्या वह भी कृष्ण को प्रिय लगने लगी है? उसे भी तो अब कोई दुनियावी विकार सताता नहीं। दृष्टि में अगर कुछ समाता है तो बस राधा और कृष्ण....राध के पास आकर प्रेम की सारी परिभाषाएँ समाप्त हो जाती हैं। जयदेव, चंडीदास, विद्यापति, सूरदास, रसखान, सभी ने राधा के प्रेम को अपने-अपने नजरिए से लिखा। जयदेव की राधा प्रेम में व्याकुल है। गीतगोविंद में ही सबसे पहले राधिका की पायल के नुपुर बजे, गीत बन कर विकसित हुए। विद्यापति की राधा में रूप लावण्य की दीप्ति है। जैसा रूप, वैसे ही सुंदर मन से उपजी प्रेम-लीलाएँ। चंडीदास ने राधा को विशुद्ध प्रेम की प्रतिमा माना है। वह प्रेमोन्मादिनी है....जैसा कि टैगोर ने लिखा है......
‘‘बंधु तुमी आमार प्राण’
लेकिन व्याकुल होते हुए भी है वह गंभीर ही। राधा के चरित्र और व्यक्तित्व का जो वर्णन सूरदास ने सूरसागर में किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। राधा शैशव से यौवन के द्वार तक आकर ठिठक जाती है। द्वार पर ही कृष्ण की अनुपम छवि देखती है और उनसे बातें करने के मोह में वह उनकी मुरली छुपा देती है। राधा तो बरसाने गाँव के वृषभानु की छबीली कन्या है लेकिन दूध दही बेचने नंद के गाँव मथुरा और वृंदावन तक जाती है। इन्हीं गलियों में मिल गए उसे कृष्ण। प्रथम मिलन में ही कृष्ण ने राधा का इंटरव्यू ले डाला-‘‘तुम कौन हो? किसकी बेटी हो? कहाँ रहती हो?’’
राधा चतुर थी.... कृष्ण के मन में उतर जाने वाले उत्तरों को उसने बड़ी चतुराई से कृष्ण से कहा। मोहित हो गए कृष्ण......अब आते-जाते ठीक उसी स्थान पर खड़े हो उसकी राह तकते......राधा आँख मिचौली खेलने के लिए बहुत बदनाम थी। वह उस राह से ऐसे गुजरती कि कृष्ण को न दिखे। कृष्ण की व्याकुलता देख वह परम आनन्दित होती। राधा के न मिलने पर कृष्ण ने उदास होकर यमुना तट की राह ली और कदम्ब के वृक्ष पर जा बैठे। यमुना के उस पार बरसाने गाँव था। वे उस ओर टकटकी लगाए मुरली बजाने लगे। पेड़ों के पीछे छुपी नटखट राधा अपनी सुध-बुध खो बैठी और कृष्ण की ओर दौड़ी आई। दोनों के हृदय में प्रेम के अंकुर फूट चुके थे। कृष्ण राधा के सौंदर्य और चतुराई के दीवाने हो गए और राधा.....उसने संपूर्ण पुरूष कृष्ण को अपना दीवाना बना लिया।
अब तो कन्हैया जू को चितहु चुराय लीनो
छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।
लिखते हुए कवि ‘‘बेनी बंदीजन’ राधा के विलक्षण सौंदर्य और प्रतिभा का वर्णन करते नहीं अघाते।
वे कृष्ण जो कहते हैं कि मैं ही सृष्टि का आदि हूँ और मैं ही अंत। मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य और चन्द्र का प्रकाश हूँ। मैं वेदों में एक अक्षर ओम हूँ। मैं आकाश की ध्वनि हूँ, मानव मात्र का सामूहिक आत्मबोध हूँ। मैं धरती की पवित्र गंध हूँ। मैं सारे प्राणियों का प्राण हूँ। संन्यासियों का संयम हूँ, अन्तरयामी हूँ। मैं ही औषधि हूँ, यज्ञ की अग्नि हूँ, यज्ञ की क्रिया हूँ। मैं ही सृष्टि की माता और पतिा हूँ। मैं मार्ग हूँ और साक्षी भी और अन्तिम शरण भी। आदि अन्त, विश्रामस्थल, अशेष कोष और आदि बीज भी मैं ही हूँ। मैं गर्मी पैदा करता हूँ, जल बरसाता हूँ, मैं अमरता हूँ, मृत्यु हूँ, परम आत्मबोध हूँ, रूद्रों में शंकर हूँ, पर्वतों में मेरू हूँ, पुरोहितों में बृहस्पति हूँ। सेनापतियों में स्कन्द हूँ, सिद्धों में कपिल हूँ, नागों में अनन्तनाग हूँ, जल में वरुण, शासकों में यम, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरूड, योद्धाओं में राम, नदियों में गंगा, मंत्रों में गायत्री, मुनियों में व्यास, ऋतुओं में वसन्त, अनाजों में जौ हूँ। मैं संसार का आदि, मध्य और अन्त हूँ। मैं रहस्यों की निस्तब्धता हूँ। हे अर्जुन, मेरे दिव्य रूप असीम हैं....। वे ही कृष्ण राधा के सामने अवश हो जाते हैं। जो दूसरों को अपने वश में कर लेते हैं वे ही कृष्ण राधा के सामने कैसे बेबस हो अपना दिल हार बैठते हैं। रागिनी का भी अब अपने ऊपर कोई वश नहीं रहा। अब वह भी वृन्दावन को अपना दिल दे बैठी है और कृष्ण को अपना सर्वस्व मान चुकी है। अफसोस इस बात का है कि इतनी उम्र यूँ ही गंवा दी...।
अचानक धरती डोल उठी। शेषनाग ने अपने थके फन से धरती का भार दूसरे फन पर सरकाया ही था कि धूल चाटने लगा गुजरात.....भुज, कच्छ, अहमदाबाद। एक ओर महाकुंभ का पवित्र स्नान.....दूसरी और वृंदावन मथुरा में गूँजता कृष्ण भजन और ठीक उसी समय ताश के पत्तों से गिरते मकान, बिल्डिंगें। महाविनाश का घोर ताण्डव.....क्या इसी अनिष्ट की ओर संकेत किया था यशोधरा ने? क्या आसमान तक उठती धूल की आँधी और धूसर मटमैले बादलों को देख यशोधरा ने अनुमान लगा दिया था कि विनाश का ताण्डव होने वाला है? उस दिन भोर की आरती के बाद मंदिर से आश्रम लौटते पंडित गिरिराज भी तो डर गए थे। उन्होंने रागिनी का ध्यान धूलि से स्नान करती गौरैया चिड़िया की ओर दिलाया था। वहाँ मौलश्री के पेड़ के नीचे अपने पंखों को धूल में फड़फड़ाती, चोंच को धूल में गड़ाती चिड़ियाँ अजीब-सी चेष्टाएँ कर रही थीं। धरती पर जब कुछ अनिष्ट घटने वाला होता है तो सबसे पहले जानवर और पक्षियों पर ही उसका असर दिखाई देता है। पक्षी चहचहाना बंद कर देते हैं। पृथ्वी मौन हो जाती है। बंदर वृक्षों से नीचे उतर आते हैं और भीड़ लगाकर सुरक्षा का उपाय सोचने लगते हैं। प्रकृति का यह पूर्व परिवर्तित रूप विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती है.....मानव आज भी इस चरम तक नहीं पहुँच पाया वरना हादसों में जानमाल का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। पहले के दिन होते तो इन आशंकाओं, हादसों से रागिनी काँप जाती पर उसने अब सब कुछ श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिया है। एक नई सोच से अभिभूत है वह....। अपना सब कुछ कृष्णार्पण करते चलो। अच्छा, बुरा, लाभ, हानि, शोक, विषयवासना, प्रसन्नता ये सब कृष्ण के ही दिए हैं, उन्हें ही अर्पण करते चलो। इस विचारधारा से चंचल मन को स्थिरता की दिशा मिलती है। कृष्ण कहते हैं-‘‘जब हमें खाली हाथ जाना है तो मोह किसका? आत्मा अमर है.....जिसे हम मोहवश अपना समझ रहे हैं वही कल किसी और का होगा। इसीलिए मात्र कर्म करो। कर्म ही हमारा अपना है।’’
संध्या के प्रवचन को स्थगित कर विशेष बैठक बुलाई गई। स्वामीजी ने कहा-‘‘बड़ा कठिन समय है ये गुजरात के लिए। भीषण तबाही की कगार पर है वो। हमें उनकी मदद के लिए जाना चाहिए। धन से भी और तन से भी, यही वक्त है उनके काम आने का। वहाँ जाने के लिए आप स्वतंत्र हैं। जिन्हें जाना हो आचार्य अखंडानंद को अपना नाम बता दें। कल इस्कॉन से हम सब प्रस्थान करेंगे।’’
रागिनी सबसे पहले उठी। उसने अपने कानों से कीमती हीरे के कर्णफूल उतारे, हाथ से हीरे का ब्रेसलेट, गले से हीरे का लॉकेट और अंगूठियाँ उतारकर उसने स्वामीजी के सामने भूकंप पीड़ितों की सहायतार्थ रख दीं। यह सारी विरासत ममा की थी। ममा की चीजें उनकी प्रेमनगरी को समर्पित....। रागिनी सिर झुकाए खड़ी थी। पल भर को बैठक में सन्नाटा छा गया।
‘‘स्वामीजी, मैं लंदन फोन करना चाहती हूँ। वहाँ से और धन मंगाया जा सकता है।’’
स्वामी ने रागिनी के सिर पर हाथ रखा-‘‘साध्वी, तुम धन्य हो....तुम सही अर्थों में कृष्णप्रिया हो।’’
फिर सभा को संबोधित करते हुए वे बोले-‘‘वृंदावन के बचाव दल का नेतृत्व देवी रागिनी करेंगी। रागिनी तुम आचार्यजी से परामर्श कर लो।’’
रागिनी ने गद्गद् हो स्वामीजी के चरणों में शीश नवाया....। रात दो बजे तक आचार्यजी के साथ रागिनी की मीटिंग चलती रही। नाम इतने अधिक थे कि चार दल बनाए गए। प्रत्येक दल अलग-अलग प्रस्थान करेंगे ऐसा तय हुआ। दान में मिले रूपए, जेवर, गरम कपड़े, कंबलों का ढेर लग गया। आश्रम में ही जौहरी बुलाकर जेवरों का मोल-भाव कराके उन रुपयों से अनाज, दवाएँ और प्राथमिक चिकित्सा की सामग्री खरीदी गई। रागिनी ने रिचर्ड और रति से फोन पर बात की और जल्द से जल्द रुपए भेजने का आदेश दिया।
वह कमरे में लौटकर सोने की तैयार कर ही रही थी कि मोबाइल बज उठा। मोबाइल पर बुआ नाम देख वह चौंकी.....इतनी रात को? सत्यजित की आवाज थी......‘‘तुम्हारी बुआ हॉस्पिटल में एडमिट हैं, उन्हें ब्रोंकाइटिस का अटैक आया है, फेफड़ों में पानी भर गया है। कल पानी निकालकर जाँच के लिए भेजा जाएगा।’’
रागिनी के भीतर कुछ पिघला......हिमखंड-सा कुछ जो यों तो स्पंदनहीन था पर जिसमें भावनाओं की रवानी थी-‘‘सच बताइए अंकल, बुआ को हुआ क्या है?’’
‘‘डॉक्टरों को फेफड़ों के कैंसर का शक है.....अगर जाँच सही निकली तो बस तीन महीने और.....’’ सत्यजित रो पड़ा। रागिनी पुरखिन-सी तसल्ली देती रही-‘‘नहीं, कुछ नहीं होगा बुआ को.....कृष्णजी पर विश्वास रखिए।’’
काफी देर तक सुबकियाँ सुनाई देती रहीं रागिनी को...आँसू रागिनी के भी छलक आए.....हे ईश्वर यह कैसी परीक्षा ले रहे हैं आप क्या रिश्ते और प्रेम की इस नन्हीं-सी डोर को भी तोड़ना होगा.....। क्या नितांत अकेला करके ही अपनाएँगे प्रभु!!
न जाने किसने, कैसे स्वामीजी तक इस बात की खबर पहुंचा दी। स्वामीजी स्वयं रागिनी के कमरे में आए। उसके सिर पर हाथ रखा ही था कि वह उनसे लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ी। आंसू झरने की तरह बह चले। स्वामीजी ने तसल्ली से उसकी पीठ थपथपाई-‘‘यह क्या देवी रागिनी, ईश्वर की शरण में हो और इतनी कमजोर?’’
‘‘इस संसार में बस बुआ ही तो हैं मेरी स्वामीजी।’’
‘‘ऐसा मत कहो....तुम्हारे साथ स्वयं कृष्ण हैं और जिसके साथ कृष्ण होते हैं, सारा संसार उसका होता है। तुम अकेली कहाँ हो देवी?’’ रागिनी धीरे-धीरे स्वस्थ हुई।
‘‘तुम उनके पास जाओगी न अब? इंतजाम करवा दें?’’
अचानक जैसे मुनमुन बुआ सामने आ खड़ी हुई हो.....कमजोर, दुर्बल फिर भी शक्ति का पुंज बन....मानो कह रही हों.......‘‘मेरा अंत तो तय है लेकिन जिनका तय नहीं है उनकी सहायता करो।’
‘‘नहीं स्वामीजी...अभी नहीं। पहले मैं गुजरात जाऊँगी। कृष्णजी का अनुरोध है। लौटकर बुआ के पास जाऊँगी।’’
स्वामीजी ने आश्वस्त हो रागिनी की ओर देखा। अब वह सही अर्थों में उनकी शिष्या हो गई है। अब उनका अनुग्रह रागिनी को मिल चुका है। उन्होंने पुनः रागिनी के सिर पर हाथ फेरा...‘‘तुम धन्य हो देवी।’’ और जैसे आए थे वैसे ही चले गए स्वामीजी।
रागिनी बिस्तर पर लेट गई लेकिन मन पंछी अपने डैने फड़फड़ाता उड़ चला बुआ की ओर.....न जाने कैसी होंगी वे.....न जाने कितना कुछ सह रही होंगी। आखिर उसके ही साथ ऐसा क्यों होता है हमेशा......जब भी किनारा नजदीक दिखाई देता है, एक बड़ी लहर नौका को फिर मँझधार की ओर ठेल देती है। वह उबर ही नहीं पा रही है।
यह डूब कब तक? कब शांति को, सहजता को, तल्लीनता को पाएगी वह। मानती है यह संसार मायाजाल है फिर भी.....फिर भी क्यों नहीं इस सत्य को स्वीकराती कि दृष्टि-पथ तक दिखता ये धरती आकाश का मिलन......यह क्षितिज......यही सत्य है.... बाकी सब नष्ट हो जाएगा....अब उस नष्ट हुए को इतिहास कहते रहो। क्या महत्व रह जाता है इतिहास का.... मात्र इतना ही कि वह घटित हो चुका है और हम उसे जान सके हैं। आखिर हर गुजरा क्षण इतिहास ही तो बनता जाता है लेकिन दुनिया से उसका अस्तित्व तो मिट ही चुका होता है।
सोचते-सोचते न जाने कब झपकी लग गई उसकी। सपने में उसने देखा.....मुनमुन बुआ रेत के ढूह पर बैठी चमकते सूरज की कंटीली किरणों से त्रस्त हथेलियों को चुल्लू बना उससे पानी मांग रही हैं....वह दौड़ रही है उनकी ओर, पर पाँव हैं कि रेत में धँस-धँस जाते हैं....। तभी सत्यजित बहुत पीड़ा से कराह उठता है... अरे, कोई है जो मेरी मुनमुन को पानी पिला दे। हाय, मैं इतना असहाय, धिक्कार है मेरे जीने पर।
पक्षियों के चहचहाने से रागिनी की आँख खुली तो गालों पर हाथ फेरते महसूस हुआ कि उन पर आँसुओं की चिपचिपाहट थी। लेकिन मन पर लगभग काबू पा लिया था उसने। वह कृष्ण नाम जपती दैनिक कर्मों को निपटाने लगी। आश्रम में चहल-पहल थी। बचाव दल की पहली खेप ठीक दस बजे रवाना हो जाएगी। सब दैनिक कार्यों से निपटकर नीचे हॉल में इकट्ठे होने लगे थे। कइयों के हाथ में गुजरात की भीषण तबाही से रंगे पड़े अखबार थे। लेकिन इस विषय पर चर्चा कोई नहीं कर रहा था। सबको रागिनी के नीचे उतरने का इंतजार था। शायद स्वामीजी ने रागिनी की बुआ के बारे में बता दिया था। उसके नीचे उतरते ही स्वामीजी ने उसे अपने पास बुलाया-‘‘साध्वी रागिनी, चित्त शांत हुआ? प्रभु की इच्छा के आगे हम सब बेबस हैं, आज मनुष्य ने धरती, आकाश, पाताल पर काबू पा लिया है लेकिन वह काल पर काबू नहीं पा सका। काल मात्र प्रभु के हाथ में है।’’
फिर सारे कृष्णभक्तों को स्वामीजी ने संबोधित किया-‘‘आप जानते हैं तपस्या सिर्फ जंगलों में जाकर तप करने से नहीं होती। तपस्या संसार में रहकर भी होती है। तपस्विनी रागिनी ने समय की मांग के आगे स्वयं के कार्य को दूसरे स्थान पर रखा है। यही तो ईश सेवा है। मानव सेवा के द्वारा ईश सेवा।’’ एक-एक करके सबने मुनमुन के लिए प्रार्थना की। रागिनी ने अपने अंदर और अधिक साहस और शक्ति महसूस की।
रागिनी के नेतृत्व में मथुरा, वृंदावन से आए बचाव दल की जीप गुजरात की सड़कों पर तेजी से दौड़ रही थी। जीप के पीछे वह ट्रक था जिसमें राहत सामग्री दवाइयाँ, खाने-पीने का सामान और तंबू थे। रागिनी का मन चीत्कार कर उठा उस विनाश को देखकर। कहीं-कहीं मलबे को हटाने का काम चल रहा था। रागिनी का काफिला वहीं रुक गया। लाशों के सड़ने की दुर्गंध हवाओं में तारी थी। सभी ने मुँह और नाक पर कपड़ा बाँधा और मलबे के ढेर में साँसें खोजने लगे। किसी भुक्तभोगी ने बताया कि ये बुलडोजर आज चौथे दिन आया है। पहले आ गया होता तो शायद कुछ और जानें बच जातीं।’’
तबाही के तांडव से सबकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। रागिनी का दल जल्दी-जल्दी मलबा हटा रहा था। शायद किसी पत्थर या पलंग के नीचे तड़प-तड़प कर कोई एक-एक पल गिनता मिल जाए। यही हाल भुज, बचाऊ, रापर का भी था। पूरा का पूरा शहर धरती पर गिरकर बिखर गया था। ये लोग अंजार में थे। सारे मकान खंडहर बन चुके थे। सड़क के दोनों ओर छतें ढहकर धरती को छू रही थीं। दीवारें अस्थिपंजर में बदल चुकी थीं। मलबे के ढेर में बिखरी पड़ी हैं जिन्दगी की आवश्यकताएँ.....चूल्हा, बर्तन, टीवी, कपड़े, आलमारी और इनका उपयोग करने वाला आदमी लाश बन चुका है। निर्जीव......महज एक सामान की तरह।
दूसरा बचाव दल भी आ गया था। रागिनी की तबीयत बिगड़ने लगी। माहौल के असर ने उसे बुरी तरह झंझोड़ डाला था। दूसरे दल ने जल्दी-जल्दी तंबू तान कर दरियाँ बिछा दीं। पानी की बोतलें रख दीं। चाय बनाने की तैयारी होने लगी। दस आदमियों को मलबे में से जिन्दा निकाला था इन लोगों ने। जिनमें चार महिलाएँ और एक बच्चा भी था। सबके चेहरे भय से काले पड़े हुए, आँखों में खुद के जिन्दा बच जाने का अविश्वास.....रागिनी ने स्वयं की तबीयत की परवाह न करते हुए इन्हें दवा दी, अन्य कृष्णभक्तों ने चाय और पूड़ी-सब्जी के पैकेट दिए। ठंडी हवाएँ चलने लगी थीं। उन्हें कंबल, स्वेटर, मफलर भी बांटे गए। धीरे-धीरे राहत कार्य ने तेजी पकड़ ली। रागिनी वृंदावन से आई अन्य महिलाओं के साथ तंबू में रहकर, बचे हुए लोगों की तीमारदारी करने लगी। अब उनकी संख्या में इजाफा हो रहा था। दस से बीस.......बीस से पचास तक आदमियों को रात होते बचा लिया गया। परम संतुष्टि से रागिनी गहरी नींद सो गई लेकिन उसका दल सर्चलाइट लिए मलबे में जीवन ढूंढता रहा।
आधी रात को हड़बड़ाकर उठ बैठी रागिनी। मुनमुन के लिए उसका मन छटपटा उठा। अब तक तो रिपोर्ट कब की आ गई होगी। इस वक्त फोन करके पूछना ठीक रहेगा? क्या पता मुनमुन की देखरेख करते-करते अभी ही आँख लगी हो सत्यतिज की? या क्या पता जाग रहा हो....चिंता, तनाव, उदासी में.....अपेक्षा कर रहा हो कि रागिनी फोन करे। उसने कांपते हाथों से नंबर मिलाया। पहली ही घंटी में सत्यजित की आवाज.... ‘‘रागिनी.....देखो न, डॉक्टर क्या कहते हैं। कहते हैं कैंसर है.....पांच छह महीने भी चलना मुश्किल है.....’’
‘‘क्या.....’’ उसे लगा अब वह मलबे के ढेर में है.... जैसे सारा आकाश टुकड़ा-टुकड़ा उसके इर्द-गिर्द उसे दबाए डाल रहा है।
‘‘नहीं अंकल.....ये झूठ है... मेरी बुआ को कुछ नहीं हो सकता।’’ वह सिसकने लगी।
अब तक बिखर चुके सत्यजित में जैसे बड़प्पन लौट आया। अपनी रागिनी को सँभालने के लिए उसके शब्दों में राहत का मलहम लगने लगा.......टूटन दोनों ओर से थी। टूटना तय था बल्कि टूट ही चुका था सब कुछ। सत्यजित की जिन्दगी थी मुनमुन और रागिनी के लिए एकमात्र रिश्ता जो माँ, बाप......सगे-सम्बन्धी सबसे बढ़कर था.....अब कौन किसको समेटे.....दोनो ओर भयावह सन्नाटा लील लेने को आतुर था।
उस निःशब्द रात की जब सुबह हुई तो लग रहा था जैसे रागिनी का सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो। सबका जाना तय है पर यह अहसास कितना जानलेवा है कि अब कोई हमारा अपना हमारे बीच बस चार-पाँच महीनों के लिए ही है। पल-पल होती मौत को ऐसे महसूस करने से बढ़कर शायद ही कोई पीड़ा हो।
बचाव दल की महिलाएँ जल्दी ही उठकर अपने अपने कामों में लग गई थीं। रागिनी को देखकर सभी का यह सुझाव था कि वह अधिक से अधिक आराम करे। उसका सफेद पड़ गया चेहरा सभी के लिए चिन्ताजनक था।
‘‘मैं आपके लिए चाय लाती हूँ देवी रागिनी।’’
एक लड़का तंबू के बाहर चाय की दुकान लगाए खड़ा था। ठंड के कारण चाय बिक भी खूब रही थी। उन लोगों ने भी चाय पी और मलबे के काम में जुटने के लिए आगे बढ़ने लगीं। रागिनी के लिए तंबू में रुकना और भी कष्टप्रद था। वह भी साथ हो ली। एक बहुत बड़ा टावर मानो मुँह के बल जमीन पर गिरा पड़ा था। अचानक रागिनी को लगा कि टावर के मलबे में गाय फंसी हुई है। शायद जाड़े की रात में वह बालकनी के नीचे खड़ी होगी और फिर भूकंप आते ही उस पर मलबा आ गिरा होगा। वे सब जल्दी-जल्दी मलबा हटाने लगीं पर व्यर्थ......वह मर चुकी थी। उसकी आँखें पथरा चुकी थीं। उसी की बगल में एक ऑटो रिक्शा भी दबा पड़ा था। उसके पीछे लिखा था-‘‘टा-टा बाई-बाई, फिर मिलेंगे, गर खुद लाया।’’ थोड़ी दूर मलबे में गुलाबी-सी चीज.....अरे यह क्या.....यह तो किसी बच्ची की फ्रॉक है। मलबा हटाने पर दबी-कुचली नन्ही-सी बच्ची के कलेजे से चिपटी थी एक और गुड़िया.....लेकिन कपड़े की......खिलौना.....गुलाबी फ्रॉक पहने उस बच्ची का विदीर्ण चेहरा देख रागिनी काँप गई।
तंबू में लौटकर उसने दूसरे बचाव दल के नेता माइक से कहा-‘‘अब मैं और अधिक नहीं देख सकती ये तबाही, आज ही लौट जाऊँगी।’’
माइक ने उसके थर-थर काँपते शरीर को देखा। पीठ पर हाथ फेरा-‘‘मैं समझता हूँ। चिन्ता मत करो। इधर का हम सँभाल लेंगे।’’
पीठ पर हाथ रखा तो माइक को महसूस हुआ रागिनी का बदन बुखार से तप रहा है-‘‘अरे, तुम्हें तो बुखार है? चलो, लेट जाओ, मैं दवा देता हूँ।’’
माइक से सहानुभूति पा वह रो पड़ी.......‘‘माइक, इतनी तबाही? यह कैसा ईश्वर का न्याय है.....बेकसूरों को ऐसी सजा?’’ माइक ने दवा खिलाई फिर अपने रूमाल से उसके आँसू पोंछे.......‘‘ईश्वर पर भरोसा है न तुम्हें......उसने बिगाड़ा है तो वही संवारेगा भी। कुछ मत सोचो, आँख बंद करके सोने की कोशिश करो।’’
पर रागिनी दवा खाकर भी सो कहाँ पाई? वह स्वामीजी से बात करना चाहती थी। नंबर डायल कर उसने कान पर मोबाइल रखा पर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था। इस वक्त स्वामीजी के वचन चोट पर मलहम का काम करते.....कितना भयानक है यहाँ का माहौल.....रोते-कराहते लोग.....सड़ती लाशें। जीवन क्षणभर में मरण में तब्दील हो गया था। अब वह अधिक अच्छे से समझ सकती थी मुनमुन बुआ की पीड़ा.....जीवन का महत्व.......अब उसे जाना होगा, बुआ के पास जाना होगा....सत्यजित अंकल को सँभालना होगा। एक वे ही तो हैं इस दुनिया में उसके अपने....वरना उसके ठूँठ जीवन में था ही क्या!!
दोपहर ढली और दबे पांव शाम आ गई। अपने साथ डूबते सूरज संग ढेर सारी परछाइयाँ समेटे....जैसे पेड़ों से उतर-उतरकर भूत और चुड़ैलें इस शमशान में नृत्य करने आ रही हों.....यहाँ गरबा होता है। माँ दुर्गा की नगरी में माँ काली अपना खप्पर लेकर पधार गई हैं। वह किलकारियाँ मारती नाच रही हैं.....और कितनों का खून पियोगी माँ....। क्या तुम्हारा खप्पर अभी नहीं भरा....। क्या मौत की दावत अभी खत्म नहीं हुई? हड़बड़ाकर उठ बैठी रागिनी। यह कैसा दुःस्वप्न था......उसका सारा शरीर शक्ति खो रहा था। कहाँ डूब रही है वह....इस डूब का कोई किनारा है क्या?’’ जगह-जगह मोमबत्तियाँ जल उठी थीं...। हवा में झिलमिलाती उनकी लौ कभी जीवन का संकेत दे रही थी तो कभी मृत्यु का....। अंधेरे-उजाले की इस आंख मिचौली से घबराकर वह बिस्तर से उठी......कम्बल परे फेंका......सारा शरीर पसीने में नहा उठा था। टीशर्ट बदन से चिपक कर निचोड़ने लायक हो गई थी। माइक अभी-अभी घायलों को चाय-नाश्ता देकर लौटा था और थरमस में से अपने और रागिनी के लिए चाय उड़ेल रहा था। उसे लस्त-पस्त देखकर वह तेजी से उसके पास आया। उसका माथा छूकर देखा-‘‘थैंक गॉड, बुखार तो उतरा.....तुम्हारे कपड़े भीग गए हैं। तुम चेंज कर लो फिर चाय पीते हैं।’’ और वह तंबू से बाहर हो लिया। पल भर को माइक की शिष्टता पर रागिनी मुस्कुराई लेकिन माहौल की भयावहता में वह मुस्कुराहट मेघों में बिजली-सी चमक कर गायब हो गई।
चाय पीते हुए माइक दिन भर के कामों का ब्यौरा दे रहा था उसे। बहुत सारी जिन्दगियाँ बचाने की संतुष्टि थी उसके चेहरे पर...। वह चली गई जिन्दगियों के लिए बिसूर रही थी। अपने जीवन में इतना कुछ खो चुकी है वह कि अब किसी का भी दर्द, शोक भीतर तक कुरेद जाता है उसे। समृद्ध गुजरात कुछ ही पलों में धूल धूसरित हो चुका था। गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ.....जिनके हर फ्लैट में वैभव की चमक थी, गुजराती स्त्रियों के शरीर पर सोने, हीरे, मोती के गहनों की लकदक थी.....और थी भविष्य के लिए ढेरों कल्पनाएँ, सपने....धरतीकंप में कुछ न कर पाया वह वैभव, वह समृद्धि। क्या मूल्य है आखिर धन-दौलत का? प्रकृति के आगे सब तुच्छ। ममा की करोड़ों डॉलर की संपत्ति....। डैड की सब कुछ पा लेने की लालसा की दौड़...और घुल-घुल कर मरता उनका शरीर... क्या दे पाया सुख? भोग पाए वे? फिर धन का क्या मूल्य? क्या अर्थ?
कोई लालटेन जलाकर रख गया। तम्बू की कपड़े की दीवारों पर बड़ी-बड़ी छायाएँ डोलने लगीं। जो अकाल मौत मर गए... जो जिन्दगी नहीं जी पाए.... जिनकी तमन्नाएँ मलबे में दफन हो गईं.... वे परछाईं बन अपनी-अपनी साँसों का हिसाब मांग रहे हों जैसे....तंबू के बाहर साँय-साँय हवा बिफर रही थी, पगला रही थी....ढूँढ रही थी उन दरख्तों को, जो डालियों में मुँह छुपा लेते थे....। कितना कुछ मिट जाता है। कितना बेबस है इंसान प्रकृति के हाथों। सल्तनतें मिट जाती हैं, राज्य मिट जाते हैं, सभ्यताएँ नष्ट हो जाती हैं लेकिन इंसान की जिद्द। वह रक्तबीज की तरह फिर गुलजार हो जाता है, हरियालियाँ रोप दी जाती हैं, खेत बो दिए जाते हैं......नहरों में पानी छलछलाने लगता है.....यही तो जीवन हैं......बसकर उजड़ता.... उजड़कर बसता.......जैसे घरौंदा....एक ठोकर में रेत बिखर जाती है.....फिर रेत को समेटकर थोप दो.....घरौंदा बन जाता है।
बाहर लाउडस्पीकर का भोंपू चीख रहा था.....‘‘आइए.....आइए.....हमारी ‘संजीवनी’ संस्था की ओर से आज रात आपके खाने का इंतजाम किया गया है।’
माइक दो प्लेटों में खिचड़ी, पापड़ और अचार लिए तंबू में दाखिल हुआ-‘‘अचार तुम मत खाना रागिनी, बुखार था न तुम्हें.....नुकसान करेगा।’’
‘‘मेरा तो खिचड़ी खाने का भी दिल नहीं है।’’ रागिनी ने खुद को कम्बल में लपेटते हुए सोने का उपक्रम किया।
‘‘थोड़ा खा लो.......फिर दवा की एक खुराक और ले लेना। सुबह तक चंगी हो जाओगी......वृंदावन लौटने का तुम्हारा इंतजाम भी कर दिया है मैंने।’’
वृंदावन के नाम से ही रागिनी के शरीर में जान-सी आ गई। वह पापड़ को खिचड़ी में चूर कर खाने लगी। खिचड़ी काफी स्वादिष्ट लगी। खिचड़ी खत्म कर उसने दवा खाई और फौरन लेट गई। पलकें मूँदी तो भारी-भारी-सी लगीं। माइक सिरहाने आ बैठा-‘‘लाओ, सिर दबा दूँ......अच्छी नींद आएगी।’’
माइक, कितना ख्याल रखते हो तुम मेरा.....उसने कहना चाहा पर तभी तम्बू में रुदन की आवाज भर गई। दो लड़कियाँ बचाव दल ने मलबे में से निकाली थीं जो बेतहाशा जख्मी थीं। माइक सिर दबाना छोड़ कर उनकी ओर भागा और प्राथमिक चिकित्सा का डिब्बा उठा लाया।
रागिनी चाह कर भी नहीं उठ पाई। वह देर तक उनके रुदन से काँपती रही....लगा जैसे बुखार कंपकंपी देकर फिर से चढ़ रहा हो। माइक ने कम्बल के ऊपर उसे रजाई भी ओढ़ा दी थी। अब वह कम्बल, रजाई के बोझ तले बेतहाशा काँप रही थी, जैसे हवा में पीपल का पत्ता....।
वृंदावन लौटकर पता चला कि रति ने पच्चीस हजार डॉलर का चैक भूकंप पीड़ित राहत कोष के लिए भेजा है। आश्रम में बस स्वामीजी और ट्रस्ट के दो कार्यकर्ता थे। पूरा आश्रम तो इस वक्त गुजरात में था। रागिनी की बीमारी ने सबको चिन्ता में डाल दिया था। तुरन्त विशेषज्ञ डॉक्टरों से स्वामीजी ने रागिनी का चेकअप करवाया.....सब तरह के टेस्ट......सभी रिपोर्ट रागिनी को स्वस्थ सिद्ध कर रही थीं। इतनी बड़ी तबाही जिन आँखों ने देखी हो वह भला कैसे खुद को काबू में रखती? जरूरी दवाइयाँ और पथ्य लेकर रागिनी चार-पांच घंटे सोकर जब उठी तो उसके कुम्हलाए चेहरे को देख स्वामीजी ने पूछा-‘‘जा पाओगी कलकत्ते और वहाँ से लंदन.....।’’
‘‘जाना ही होगा स्वामीजी......ईश्वर की यही इच्छा है। लेकिन इतना तय है कि लौटकर यहीं आना है मुझे? यही वह जगह है जहाँ जीवन का असली आनन्द है। धन, नाते-रिश्ते सब मिथ्या है।’’ स्वामीजी ने आँखें मूंदकर आशीर्वाद दिया-‘‘कल्याण-भव।’’
दूसरे दिन रागिनी की दिल्ली से फ्लाइट थी। स्वामीजी ने सारा इंतजाम करवा दिया था। किसी को पता भी नहीं चला कि कब एयरटिकट आई, कब दिल्ली एयरपोर्ट तक पहुँचाने वाली जीप आई और कब रागिनी को स्वामीजी ने पूर्ण आश्वस्ति का प्रवचन दिया। प्रवचन के बाद उन्होंने अपने हाथों से कृष्णचरणामृत रागिनी को पिलाया। तभी से वह तमाम मानसिक विकारों से, दुख और पीड़ा से मुक्ति का अनुभव करने लगी थी। कृष्णचरणामृत पीते ही उसे लगा था मानो कृष्ण साक्षात उसके कमरे में आए हैं.....उनके हाथों में मुरली है, वे मुरली को होठों से लगाते हैं और एक मधुर तान कमरे में गूँजने लगती है। रागिनी को लगता है मानो वह फूल-सी हलकी हो गई.....इतने विनाश के बाद मुनमुन बुआ के जाने की कल्पना। वहाँ परिवार के परिवार नष्ट हो गए....। यहाँ उसकी बस अकेली बची मुनमुन बुआ की सांसारिक विदा बेला.....। यही जीवन का सत्य है यही शाश्वत है....अनंत है। सत्यजित को भी यह सत्य स्वीकार करना होगा। मान लेना होगा कि बुआ के साथ का उनका सफर बस इतना ही था। वैसे भी किसी की भी अगली साँस मुकर्रर नहीं.....सत्यजित ने और बुआ ने तो हर मुकर्रर रिवाजों को ठुकराया है और यह माना है कि इन्सानी रिश्तों की बुनियाद शरीर की उम्र पर नहीं टिकी होती।
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मुनमुन तकियों के सहारे लेटी थी। और नर्स उसका ब्लडप्रेशर चैक कर रही थी। अस्पताल के गलियारे हमेशा भयभीत करते हैं रागिनी को......लम्बे-लम्बे चमकते फर्श वाले गलियारों पर नर्स, वार्डब्वाय, मरीज, मरीजों के रिश्तेदारों की आवाजाही एक बोध-सा कराती है.... जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम...।.
यह चलना किस अंत तक होगा, कौन जाने.....मुनमुन का चेहरा जर्द उतरा हुआ, कमजोर दिखा। जैसे बहारों के मौसम में पीला पत्ता.. इस माहौल में कितनी अनफिट लग रही थी मुनमुन। वह दौड़कर उसके गले से लिपट गई- ‘‘बुआ....यह क्या कर लिया आपने?’’
मुनमुन फीकी हँसी हँसी। सिरहाने खड़े सत्यजित ने अपनी आँखें कमीज की आस्तीनों से रगड़कर पोंछी। नर्स ने ब्लडप्रेशर नापने की मशीन बंद करते हुए रागिनी की ओर देखा-‘‘मैडम समझाइए न साब को, हर वक्त रोते रहते हैं।’’
उसके जाने के बाद रागिनी ने शिकायत भरे लहजे में कहा-‘‘सुना आपने, नर्स क्या कह रही थी?’’
‘‘शायद वह प्यार करना नहीं जानती? शायद उसने कभी किसी से प्यार किया ही न हो?’’ सत्यजित ने आहिस्ते से कहा।
‘‘रागिनी, मेरा सत्य अकेला पड़ जाएगा, उसे सँभालना। मुझे तुम्हारी भी बहुत फिक्र है।’’
‘‘मेरी?......मेरे साथ तो मेरे कृष्ण हैं बुआ। जिसने श्रीकृष्ण के लीलामय स्वरूप में खुद को समर्पित कर दिया उसे फिर किसी के साथ की जरूरत नहीं। बुआ, अब मैं बस एक बार लंदन जाऊँगी अपनी वसीयत लिखने। बस....फिर मथुरा वापिस....।’’
मुनमुन अवाक हो रागिनी का चेहरा देखती रह गई। वह बहुत शांत और तेजस्वी लग रही थी। तमाम हसरतों से परे शांति के चरम पर।
‘‘क्या तुम संन्यासिनी होने जा रही हो रागिनी?’’
‘‘नहीं बुआ....यह विशेषण भ्रम में डालता है। इंसान सन्यासी होकर भी संसार में लिप्त रहता है जबकि ये दुनिया ही छलावा है। हर इंसान मृग मरीचिका के यथार्थ को नकार रहा है जबकि हर एक के मन का कोई कोना उसे ये बताने की कोशिश करता रहता है फिर भी वह मानने को तैयार नहीं।’’ सत्यजित का दिल डूबा जाता था.....रागिनी की बातों में उदासी थी परन्तु तथ्य भी था। वह पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। मुनमुन लेट गई। कम्बल के अन्दर हाथ डाल रागिनी उसके ठंडे तलुओं को अपनी गरम हथेली से रगड़ने लगी। मुनमुन देख रही थी अपनी इस बिटिया को जो सदा से ही उसे असाधारण लगी है। किसी देवात्मा का शापग्रस्त रूप जिसने मनुष्य लोक में जन्म लिया है।
डॉक्टर ने अधिक बोलने को मना किया है। सत्यजित हर रात मुनमुन की पसंदीदा किताब पढ़कर उसे सुनाता है जिसे सुनते हुए वह नींद के आगोश में चली जाती है। इस महँगे अस्पताल का यह कमरा मुनमुन के लिए विशेष रूप से व्यवस्थित किया गया है। मुनमुन की पसंद के परदे.....फूल और जीवन के अंत को नकारती सत्यजित की उपस्थिति। और क्या चाहिए मुनमुन को......इससे ज्यादा तो चाहा ही नहीं जीवन से। आज रागिनी को इस रूप में देखकर, इस बदलाव को देखकर मुनमुन कहीं भीतर हिल गई है..क्या जिन्दगी का एक पक्ष ऐसा भी हो सकता है?
‘‘बुआ, जीवन की कठोरता आपसे क्या कहूँ, छोटे मुँह बड़ी बात.....आप अपने दिल में कोई बोझ न पालें, यही आग्रह है।’
‘‘रागिनी, मेरे दिल पर एक ही बोझ था जिसे मैं अरसे तक जिजीफस की तरह ढोती रही। जिजीफस सारी उम्र एक गोल चट्टान को पहाड़ की चोटी तक ढकेलकर ले जाता रहा था और चाहता था कि वह उस चट्टान को पहाड़ पर रखकर दुनिया को अपनी ताकत दिखा दे। पर वह ऐसा नहीं कर सका। पहाड़ सीधा और ढलवाँ था और वह गोल चट्टान हर बार लुढककर नीचे आ जाती थी। मैं भी बार-बार प्रयास करती रही उस बोझ से मुक्त होने का पर मुझे सफलता नहीं मिली।’’
‘‘कौन-सा बोझ बुआ?’’
‘‘तुम्हारे जन्म की सच्चाई का।’’ कहते-कहते मुनमुन को खाँसी आ गई। उसके फेफड़ों में साँस घरघराने लगी। सत्यजित उसे थपकियाँ देने लगा। रागिनी ने दौड़कर रूम टेम्प्रेचर बढ़ा दिया। कमरा सुखद रूप से गर्म होने लगा। मुनमुन को नींद आ गई थी।
‘‘तुम खाना खा लो रागिनी, मैं यही बैठा हूँ तब तक।’’ रागिनी को सत्यजित बूढ़ा थका और लाचार दिखा। मुनमुन की बीमारी ने उसे भीतर तक खोखला कर दिया था। उम्र के इस पड़ाव पर तो व्यक्ति को अपने साथी की बहुत जरूरत होती है और सत्यजित की आँखों के सामने ही उसकी जीवन संगिनी? वह क्या कर डाले जो मुनमुन की साँसों का खाली होता जा रहा कोष भर जाए..।
रागिनी ने हॉटबॉक्स से गरम सूप निकालकर प्यालों में उड़ेला। एक प्याला सत्यजित को देते हुए कहा- ‘‘पी लीजिए....खुद को कृष्ण को अर्पित कर दीजिए...उसी में जिन्दगी का सार है।’’
सत्यजित ने चकित हो रागिनी को देखा। अब वह रागिनी को समझ चुका था। यह भाव अधिक देर टिका नहीं। उसने सूप का घूँट भरा। घूँट बेस्वाद लगा। वह टकटकी बाँधे मुनमुन के खूबसूरत लेकिन जर्द और कुम्हलाए चेहरे को देखता रहा। इस एहसास से परे कि खिड़की के नीचे रखी आराम कुर्सी पर बैठी रागिनी उन्हीं दोनों को देख रही थी। मुनमुन को देखकर सब कुछ याद आता है.....सड़कों पर सारी शाम टहलना.....दरीबे में से झाँकता अस्ताचल होते सूरज का मद्धिम-मद्धिम पीला उजाला......एक बेफिक्र जीवन जिसमें भविष्य के लिए सपनों की कहीं कोई गुंजाइश न थी। बस था तो वह समय जिसे वे जी रहे थे.... साथ-साथ बिना किसी रुकावट के....शांत बहते जल की तरह। मुनमुन.... तुमने अकेले जाने का फैसला कैसे कर लिया? तुम तो जिन्दगी के उस फलसफे को मानने वाली थीं जिसमें शिद्दत से प्यार करने वाले दो दिलों को दुनिया की कोई ताकत अलग नहीं कर सकती। क्या तुमने सोचा कि जिन्दगी की इस डगमगाती नाव पर मैं अकेले कैसे टिक पाऊँगा?
दिन पहर, सप्ताह बीतते गए। मुनमुन पीड़ा झेल रही थी और अधिक पीड़ा उसका पोर-पोर काट डालती, यह दर्द, असहनीय दर्द..... ‘‘सत्य, मुझे घर ले चलो.....मैं अपने घर को अंतिम पलों में जीना चाहती हूँ।’’
सत्यजित रो पड़ा। रागिनी ने पूरे आत्मबल से मुनमुन का हाथ थामा ‘‘हाँ बुआ, आज ही घर चलेंगे हम। शाम को डॉक्टर राउंड पर आएँगे.....उसके बाद....अब हँसो बुआ, हँसो न....।’’
मुनमुन की आँखों से आँसू चू पड़े। वह कठिनाई से मुस्कुराई-‘‘अरे सत्य, देखो तो ये लड़की हँसने को कहती है। सत्य बताओ इसे, अपने हिस्से की सारी हँसी हँस चुकी हूँ मैं.....है न सत्य?’’ सहसा रागिनी मुनमुन से लिपट गई-‘‘अब बुआ, मुझे भी रुलाओगी क्या?’’
ठंडी हवाएँ पहाड़ों से लौटी हैं। कोल्ड वेव्ज। मुनमुन की बीमारी ने सत्यजित के जीवन में क्रान्ति ला दी है। ठीक वैसी ही बेचैनी, वैसी ही भारी-भारी रातें, भारी-भारी दिन जब भारत क्रान्ति की चपेट में था। तो क्या अन्दर बाहर का युद्ध एक जैसा है। आत्मा का युद्ध....। जब सत्यजित देखता है कि इस युद्ध के लिए भले ही वह कितना भी तैयार क्यों न हो, हार उसकी निश्चित है। अब उसके जीवन में घटाटोप अंधकार है और रेत के अंधड़......आँखें खोल के रख पाना कठिन हो रहा है। मुनमुन की जुदाई की आहट हर वक्त उसे चौंकाती है। आत्मा भीतर तक कचोट उठती है कि अब जो बिछुड़ी मुनमुन तो फिर कभी नहीं मिलेगी....यह कैसी विडम्बना है, कैसी सच्चाई.....एक जर्जर, बस टूटने-टूटने को आतुर पुल पर खड़ी है मुनमुन....वह इस बेबस दिल का क्या करे जो उस पुल को टूटने से रोकने की जद्दोजहद में खुद भी टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा है।
कार के शीशे चढ़ा दिए सत्यजित ने। मुनमुन की क्षीण देह को अपने आलिंगन में समेटे कंबल से ढका-मुंदा बैठा है वह। सामने की सीट पर रागिनी। सड़कों पर चहल-पहल बढ़ रही है। इस वक्त वृंदावन के बाँकेबिहारी मंदिर में आरती हो रही होगी। स्वामीजी प्रवचन के लिए आसन पर बिराजने ही वाले होंगे। डॉक्टर बड़ी मुश्किल से मुनमुन को कुछ दिनों के लिए घर भेजने को रजामंद हुए। उन्हें जो दर्द की दवाएँ दी जाती हैं उसमें जरा भी भूल-चूक संकट पैदा कर सकती है। अचानक रागिनी को लगा उसका मन भटक रहा है, कभी वृंदावन की गलियों में कभी मुनमुन की बीमारी में-‘‘ऐसा क्यों?’ चित्त स्थिर क्यों नहीं? यह कमजोरी कहाँ से व्याप रही है? उसने आँखें मूँदकर सीट से सिर टिका लिया।
मुनमुन ने पूरे घर को, घर के कोने आतड़ को जैसे मन में उतार लिया। सुबह खिड़कियों से धूप आती। सत्यजित खिड़कियाँ खोल देता। किरणें आड़ी-तिरछी हो कमरे में बिखर जातीं। मुनमुन घूँट-घूँट धूप को पीती। कैसा लगता है, तृप्ति के नाम पर और अतृप्त हो जाना। यदि ऐसा न हो तो कल के सूरज का कोई इंतजार क्यों करे?
सत्यजित अपने हाथों मुनमुन को सूप बनाकर पिलाता। उसके पसंद के रवीन्द्र संगीत को दिन में कई-कई बार रिकार्ड प्लेयर पर बजाता। मुनमुन को एकला चलो रे गीत बहुत पसंद था। किसी संगीत संध्या में उसने यह गीत गाया भी था। कितना आसान है यह कहना कि ‘‘एकला चलो रे’.......क्या कोई चल पाया है अकेले? जिन्दगी के तमाम काँटों भरे, आड़े-तिरछे रास्तों को पार कर उस पार पहुँचना.....और पहुँचने की अवधि तक जीवन को बचाए रखना क्या आसान है? फिर भी एक कोशिश.....जाना तो तय है मुनमुन का। उसके इस संघर्ष को सहज बनाने के प्रयास में सत्यजित पुरानी बातों को याद दिलाकर उसका मनोरंजन करता, हँसाता, पर कमजोर शाखें बसंती बयार का अधिक साथ न दे पातीं। मुनमुन निढाल हो जाती। रागिनी उसे आराम से पलंग पर टिका देती-‘‘बुआ, एक बढ़िया-सी तस्वीर खिंचवानी है आपकी?’’
‘‘लो सत्य...अब ये इस पिचासी साल की खूसट बुढ़िया की तस्वीर खिंचवाएगी? मेरे जाने के बाद मेरी जवानी की तस्वीर देखना न तुम।’’
‘‘आप अब भी जवान हैं। साठ, पैंसठ से ज्यादा की नहीं दिखतीं। नहीं, मैं मजाक नहीं कर रही बुआ क्यों अंकल?’’
सत्यजित ने बेहद लाड़ से मुनमुन की ओर देखा जिसका हृदय हमेशा उसके प्रति प्रेम से लबालब रहा है।
राधिका का हृदय जो कृष्ण के समस्त क्रियाकलापों का केन्द्र है। वृंदावन से विदा लेते कृष्ण को फिर कभी नहीं मिली थी राधा। मुनमुन की विदा वेला क्या नजदीक है?
रागिनी ने प्रोफेशनल फोटोग्राफर को घर बुलाया। अत्यधिक दर्द की हालत में जबकि बाँहों पर से ब्लाउज पहनाते हुए छू जाती रागिनी की उँगलियों का स्पर्श भी मुनमुन को पीड़ा से भर देता.....उसने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई। फोटो इतनी खूबसूरत आई थी कि लगता ही नहीं था कि मुनमुन बीमार है। फोटो लेमिनेशन कराके मुनमुन और सत्यजित के बेडरूम में टाँगी गई।
ठंडी हवाएँ अब कुछ कम हो चली थीं। रात के भोजन से निपटकर दवाइयाँ खिलाकर सत्यजित मुनमुन के सिराहने बैठा था। अब यही रूटीन था उसका। अब वह चौबीसों घंटे घर पर ही बिताता है और हर क्षण मुनमुन को मरता देखता है। अकेला, बूढ़ा, लाचार.....रागिनी जब भी उसके सामने होती है उसकी आँखों में आँसुओं को अटका पाती है।
रागिनी आकर मुनमुन के पैरों के पास बैठ गई। उसके तलुए सहलाती हुई बोली-‘‘बुआ, मेरी थीसिस नहीं पढ़ी न तुमने?’’ मुनमुन ने लाचारी से रागिनी की ओर देखा।
‘‘आज मैं अपनी थीसिस के कुछ अंश पढ़कर सुनाऊँगी आपको।’’ मुनमुन ने मुस्कुराते हुए हामी भरी। सत्यजित की आँखों में प्रश्न था-‘‘इस हालत में?’’
पर रागिनी की आँखें पूर्ण विश्वास से चमक रही थीं। शायद उसके कृष्ण कुछ चमत्कार कर दें, शायद ऐसा कुछ हो कि बुआ पीड़ा से छुटकारा पा लें, मुक्ति पा लें। वह थीसिस उठा लाई और वहीं पैरों के पास ही कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगी। इस एंगिल से कि बीच-बीच में मुनमुन के चेहरे के उतार-चढ़ाव भी देख सके-‘‘हाँ बुआ, राधा कृष्ण के प्रेम को अपने मन में बसा लीजिए, कण-कण को स्पंदित कर लीजिए।’’ और थीसिस पढ़ते हुए रागिनी की आवाज जादू बन कर छाने लगी। गुनगुन के लिए रागिनी की आवाज ईश्वरीय अनुभूति थी जैसे एक अलौकिक निर्झर की झर-झर नजदीक ही कहीं हो।
‘‘कृष्ण का अवतार विविधताओं से भरा है। मामा कंस के अत्याचारों से त्रस्त जनता को राहत दिलाने के लिए देवकीनन्दन कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था। कंस से दूर बाबा, नंद और यशोदा ने उनका लालन-पालन किया। वहाँ गोचारण, बाल-लीला, रासलीला आदि के बाद फिर मथुरा, द्वारिका, हस्तिनापुर की राजनीति, युद्ध कौशल और इन सबसे एकदम अलग दार्शनिक कृष्ण जो गीता के उपदेशक हैं, वक्ता हैं। वे अपने इन समस्त रूपों से संसार को मोहित किए हैं। राधा के प्राण, गोपियों के हृदय वल्ल्भ, मीरा के पति प्रभु गिरधर नागर, सुदामा के ऐसे सखा जो अदृश्य हाथों से मित्र को मालामाल कर देते हैं और अर्जुन के सारथी। गीता में वे ऐसे दार्शनिक, चिन्तक और विचारक नजर आते हैं जिसका कोई सानी नहीं। अनेक पटरानियों के बावजूद वे राधा से ऐसे प्रेम करने वाले जो पुरूष और प्रकृति के संयोग को रेखांकित करता है। इसीलिए कृष्ण के पहले राधा नाम लिया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण की पटरानियाँ सूर्यग्रहण के समय समुद्र के किनारे नहाने गईं। सागर तट के एक किनारे ग्वाल बाल भी नहा रहे थे। रानियों ने देखा कि उन ग्वाल बालों के बीच परम रूपवती महातेजस्वी एक नारी भी है। सूर्य-सी तेजस्वी नारी को उन्होंने अपने संग स्नान के लिए आमंत्रित किया। नारी और कोई नहीं कृष्णप्रिया राधा थीं। बोलीं-‘‘हम वहाँ कैसे आएँ? वे मुझे जहाँ छोड़ गए हैं, मेरा स्थान वहीं होना चाहिए।’’ कहते-कहते राधा की आँखें भर आईं। पटरानियाँ भाव हिह्नवल हो गई। स्नान के बाद वे उनसे दूध पीने का आग्रह करने लगीं।’’
‘‘ले लो.....इसे न ठुकराओ।’’
राधा आग्रह टाल नहीं पाईं। चाँदी के पात्र में केसर मिश्रित दूध से भरे ग्लास को पकड़ते हुए उन्होंने मन ही मन कृष्ण को पुकारा-‘‘तुम्हारे बिना जीवन जीने के कारण मैंने आभूषण और कीमती वस्त्रों का त्याग तो कर ही दिया है किन्तु दोबारा ऐसे आग्रह का दिन न दिखाना।’’ कृष्ण की याद में उनके मुँह से जो आह निकली तो दूध बहुत तेज गर्म हो गया। इधर राधा ने दूध पिया उधर कृष्ण के शरीर पर फफोले उभर आए। बड़ी पीड़ा हुई। यह देख उद्धव रोने लगे।
‘‘किसे बुलाऊँ......वैद्यराज को आते-आते एक घड़ी समय तो लग ही जाएगा।’’
‘‘नहीं उद्धव.....राधा की आह, विरह की तपन से पड़े हैं ये फफोले। तुम राधा के पास जाओ और विरह की अश्रुधार जिस पल्लू से राधिके पोछ रही है वह पल्लू ले आओ। वही पल्लू इन फफोलों को ठंडक देगा।’’
आठ पटरानियों के बावजूद कृष्ण की हृदयेश्वरी केवल राधेरानी थीं।
पन्ना पलटते हुए उसने रुककर बुआ के चेहरे की ओर देखा। आश्चर्य से बिल्कुल गद्गद् भाव लिए रागिनी को निहार रही थीं वे। राधा के प्रति कृष्ण के अलौकिक प्यार की गहराई ने उन्हें आलोड़ित कर डाला था। अलबत्ता सत्यजित अपना चेहरा रूमाल से पोंछ रहा था। इतनी ठंड में पसीना तो आ नहीं सकता फिर!!......क्या सत्यजित अपनी मनोदशा अपने आँसू छुपा रहा था जो अब मुनमुन के लिए बस इशारे भर से छलक आते हैं?
पढ़ना बंद कर रागिनी ने देखा बुआ ने धीरे से पलकें मूँद ली हैं। लगता है वे थक चुकी हैं। उसने थीसिस टेबल पर रख दी और बुआ के बाल सहलाने लगी। पलांश में ही वे गहन निद्रा में डूब गई थीं। रागिनी ने बत्ती बुझाकर नाइट बल्ब जला दिया-‘‘अंकल, आप भी सो जाइए.....रात अधिक हो चुकी है।’’
‘‘नहीं.....ग्यारह ही तो बजे हैं।’’
रागिनी मुस्कुराती हुई कमरे से बाहर हो ली।
देर रात तक वह मुनमुन बुआ और सत्यजित के बारे में सोचती रही। ममा और चंडीदास के बारे में सोचती रही। मुनमुन बुआ और सत्यजित ने प्यार भरा लम्बा जीवन जिया। ममा और चंडीदास नहीं जी पाए। उनका लघु जीवन मानो अब वह खुद जी रही है। क्या पता कितना? मुनमुन बुआ जैसा दीर्घ शायद या फिर अभी इसी पल कृष्ण बुला लें अपने पास। रात रागिनी ने सपना देखा। एक बहुत बड़ी बावड़ी से लगा पत्थरों से बना विशाल मंदिर है। जिसकी बुर्जियों पर पीतल के कलश हैं और लकड़ी के जड़ाऊ तख्तों से बने काले विशाल दरवाजे हैं। दरवाजे पर मोटी-मोटी साँकलें हैं। दरवाजों के पास लोहे की छड़ों से बना एक जंगला है। जंगले से अंदर की ओर झाँको तो गाढ़ा अंधेरा नजर आता है। जहाँ देवता की प्रतिमा होनी चाहिए वह स्थान खाली है। मंदिर की छतों में अबाबील लटक रहे हैं जो उलटी तितलियों से लटके नजर आते हैं। वे चिक्-चिक्-चिक् की आवाज करते उड़ते हैं। कमरे का चक्कर काटते हैं और फिर यथावत् लटक जाते हैं। बाहर बावड़ी के पानी में सूखे फूल- पत्ते उतरा रहे हैं और उनके बीच चाँद का प्रतिबिम्ब। अचानक चाँद में ममा नजर आती हैं जो मंदिर की ओर संकेत कर कहती हैं-‘‘वहाँ चंडीदास थे, कहाँ गए?’’ रागिनी उस खंडहरनुमा मंदिर और पंखों के फड़फड़ाने से और अपनी बीट से सड़ाँध फैलाते अबाबीलो को देखती और बदहवास दौड़ती अपने पिता चंडीदास को तलाशती है कि छपाक्... बावड़ी में चाँद के प्रतिबिम्ब में झाँकती ममा पानी में समा गई हैं।.....और घबराकर रागिनी की नींद खुल गई। उसका सारा शरीर बावजूद ठंड के पसीने से चुहचुहा रहा था। उसने मन ही मन कृष्ण को जपा......यह कैसा स्वप्न है मोहन......भयानक और मन को बिखरा देने वाला। यह क्या मुनमुन बुआ के अंत का प्रतीक है? या ममा की अधूरी आकांक्षाएँ जो वे मुझसे, मेरे द्वारा पूरा कराना चाहती हों.....यह गुत्थी जितना सुलझाओ, उलझती ही जाती है।
फिर कई दिनों तक रागिनी बेचैन रही। घुमा-फिराकर वही एक सपना बार-बार देखती। बार-बार भविष्य की दुश्चिंताओं से व्याकुल हो जाती। इस बीच बुआ निस्तेज होती गई। आहिस्ता-आहिस्ता आती मौत की पदचाप उसे साफ सुनाई दे रही थी। जो जिन्दा रह जाने वाले लोगों को बेरहमी से मार रही थी। वे जिन्दा छूट जाते......मौत के दानवी पंजों से लहूलुहान हो और न जाने कितने वर्षों तक जीने के लिए अभिशप्त थे वे।
दोपहर को जब आसमान साफ था और ढलती धूप नंगे ठूँठे पेड़ों पर उग आई कोपलों को ललछौंहा बन रही थी। मुनमुन को साँस लेने में तकलीफ हुई। सरहद पर तैनात हमेशा सतर्क रहने वाले फौजी की तरह सत्यजित ने तुरंत कार निकाली। रागिनी ने जरूरी सामान का बैग उठाया और पंद्रह मिनिट के अंदर कार अस्पताल के गेट पर। स्ट्रेचर......नर्स......डॉक्टर......अस्पताल का गलियारा भागने लगा। मुनमुन बुआ ने नीम बेहोशी में सत्यजित को पुकारा......‘‘सत्य......बहुत दर्द......सत्य’ और वे बेहोश हो गई। सत्यजित की डबडबाई आँखें इंटेंसिव केयर यूनिट के दरवाज़े तक मुनमुन बुआ का पीछा करती रहीं।रागिनी ने आँखें मूँदकर प्रार्थना की....हे ईश्वर....बुआ को राहत दो......एक घंटे का अथक प्रयास कृत्रिम साँस की मशीन हृदय के नजदीक फिट की गई। मुनमुन मशीन पर लिटा दी गईं.....सुबह होते-होते वे कोमा में चली गई।
सत्यतिज बच्चों-सा बिलख पड़ा लेकिन रागिनी शांत बनी रही। काया तो आत्मा का घर है.....चल देगी दूसरे घर में......वह अजर अमर है.....नैनं छिन्दति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।
आत्मा के इस निवास स्थान को जितना हो सके कृष्ण नाम से सजा लो, भर लो लबालब......यह भरण ही तो मुक्ति है।
सत्यजित निढाल, कांतिहीन बैठा था जैसे मेले में उसकी कोई महत्वपूर्ण चीज खो गई है और शाम होने लगी है और मेला उठने वाला है।
अस्पताल के गेस्ट हाउस में सत्यजित और रागिनी रुके.......आई.सी.यू. में किसी को जाने की आज्ञा तो नहीं है फिर भी सत्यतिज बार-बार वहाँ के चक्कर लगाता रहा। सारा दिन, सारी शाम गुजर गई। रात घिर आई। घड़ी ने बारह के घंटे बजाए-‘‘अंकल, थोड़ा आराम कर लें।’’
सत्यजित ने बिस्तर की टेक लेकर भागदौड़ से अकड़े शरीर को ढीला छोड़ दिया-‘‘रागिनी, इस बीमारी में हम एक-दूसरे को बस यही समझाते रहे कि हम दोनों में से किसी एक को अकेला तो होना ही पड़ेगा......जिन्दगी का यही तकाजा है।’’
‘‘कौन अकेला नहीं है अंकल......पर जिसने कृष्णामृत पी लिया वह खुद को भूल जाता है......लेकिन अंकल, इस हकीकत को हम स्वीकारते तब हैं जब सब कुछ खो देते हैं।’’
दीवारों पर कमरे की मद्धिम रोशनी अजीबोगरीब चित्र उकेर रही थी। रागिनी ने बोतल में से पानी उड़ेलकर पिया। घूँट भरते उसके गले को, उसके निर्विकार चेहरे को सत्यजित ठगा-सा देखता रह गया। रागिनी का सर्वांग परिवर्तन के आंदोलन से गुजर रहा था। वह रागिनी जो मथुरा वृंदावन गई थी और यह रागिनी जो सामने खड़ी है, जमीन आसमान का फर्क है दोनों में।
अस्पताल के अहाते में लगे बाँस के झुरमुट पर से हवा साँय-साँस कर गुजरने लगी। कोई कठफोड़वा मौलश्री की डाली पर चोंच से प्रहार कर रहा था... ठक..ठक...ठक...ठक.....एक ओर जिन्दगी जीने की जद्दोजहद दूसरी ओर विदा होती जिन्दगी......सुबह के चार बजे थे। नर्स ने आकर खबर दी कि मुनमुन होश में आई है। दोनों भागे.......वे कृत्रिम जीवनदायिनी मशीन पर नीम बेहोश थीं। रागिनी को देख जैसे उनके होठ काँपे.....‘‘हाँ बुआ..... कहो...... कहो बुआ....।’’ मुनमुन ने असहनीय विवशता से पहले रागिनी फिर सत्य की ओर देखा.....सिर हिलाकर जैसे विदा माँगी.....आँखों की कोरों से दो बूँद आँसू चू पड़े। सत्यजित मुनमुन को कलेजे से लगा फफक पड़ा....पर अब कुछ शेष न था। आत्मा काया का घरौंदा त्याग चुकी थी। मुनमुन की अंतिम साँस ने विदा लेते-लेते उन तमाम साँसों को सहमा दिया था जो इस एक दिन के लिए महीनों से अपने को तैयार कर रही थीं। और जब वह एक दिन आया तो तमाम बाकी के दिन झुलस गए। रागिनी सत्यजित को बच्चे-सा लिपटाए धीरे-धीरे आई.सी.यू. के बाहर आकर सोफे पर बैठ गई। सत्यजित जड़ हो उठा था। न आँसू, न सिसकी.... बस शून्य में तकती आँखें। वह पानी ले आई ‘‘अंकल, सँभालिए खुद को। बुआ तो ईश्वर में समा गईं। सुबह चार बजे..... ठीक ब्रह्ममुहूर्त में उन्होंने संसार से विदा ली है। इस बेला के द्वार सीधे मुक्ति की ओर खुलते हैं।’’
मातमपुरसी के लिए आए लोगों की भीड़ से सत्यजित और मुनमुन का घर भर चुका था। जबकि सत्यजित ने कहा था- ‘‘मातम नहीं मनाएँगे। जब मुनमुन हमारे साथ है तो मातम कैसा? मुनमुन मेरे साथ ही विदा होगी इस संसार से जब तक मैं जिन्दा हूँ, वह भी जिन्दा है।’’ यह कैसा भ्रम पाल रहे हैं अंकल...मृत्यु शाश्वत सत्य है उसे स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? कौन सँभालेगा इन्हें अब....हे कृष्ण.....इनके मन को शांत करो, इन्हें शक्ति दो।
मुनमुन का पार्थिव शरीर उठाकर अर्थी पर लिटाया गया....सत्यजित ने मुनमुन को कफन भी नहीं ओढ़ाने दिया...उसे हीरों के गहनों और सफेद झिलमिलाती, रूपहले बॉर्डर की साड़ी पहनाकर दुल्हन-सा सजाया गया और जो मुनमुन के जीते जी नहीं कर पाया सत्यजित..... वह मुनमुन के मरने के बाद हुआ। सत्यजित ने चुटकी भर सिंदूर लेकर मुनमुन की मांग भर दी। कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं....आसपास खड़ी भीड़ पर कोई असर नहीं.... या शायद ये सोच रहे हों सब कि अब कुछ भी करो क्या फर्क पड़ता है..... माटी शरीर का कैसा विरोध?
चंद दिनों बाद जब रागिनी लंदन के लिए रवाना हुई तो खाली घर में सत्यजित अकेला था।
‘‘अंकल....’’
‘‘मेरे लिए दुख न करो रागिनी..... मैं मुनमुन की यादों के सहारे जी लूँगा।’’ सत्यजित ने बहुत शांति से जवाब दिया। ऐसी शांति जो दिल को दहला दे। जो तेजी से यह एहसास कराए कि अब कहीं कुछ नहीं बचा सिवाय एक बड़े शून्य के। सत्यजित को उस शून्य ने निगल लिया है....अब उसका निकलना मुश्किल है। वक्त मानो थमकर रह गया है।
रागिनी प्लेन में बैठी तो पूर्णतया कृष्ण को अर्पित हो चुकी थी। उसका मन संसार से विरक्त हो चुका था लेकिन कृष्ण कर्म से विरक्त नहीं होने दे रहे थे। यही तो खासियत है इस लीलामय मोहन में। जैसे कीचड़ में खिला कमल जो खिलता तो कीच में है पर उसकी एक बूँद भी अपने फूल पत्तों और डंडियों पर नहीं लगने देता। मोहन यही तो कहते हैं कि संसार में रहकर भी लिप्त मत हो उसमें।
डायना विला रागिनी के वहाँ पहुँचते ही आगंतुकों की भीड़ से रोज-ब-रोज भरने लगा। जो भी सुनता दौड़ा चला आता। मातमपुरसी करने वालों के बीच काले कपड़ों में रागिनी मौन बैठी रहती। उसने हॉल में मुनमुन बुआ की वही अंतिम अवस्था में खिंचवाई फोटो रख दी थी जिसके सामने दीपक जलता रहता। रति ने मोमबत्ती जलाने की बात की थी तो रागिनी ने मना कर दिया था। जिन्दगी भर जिन परम्पराओं में व्यक्ति जीता है मृत्यु के बाद उसे कायम रखना चाहिए। यही उसूल है। यही तो चिरन्तन भूख है इन्सान की। प्रेम और शान्ति...साँसे हैं तो प्रेम.....साँसें शेष तो शांति....दिवंगत हुए व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए किए गए अनुष्ठान से मानो व्यक्ति अपनी खुद की शांति पा लेता है।
धीरे-धीरे जब रात ने दस्तक देनी शुरू की...जब हवाओं ने ठंडे-ठंडे झोंके लुटाने शुरू किए तब रागिनी से विदा ले मेहमान लौट चले। डिनर लेने का मन नहीं था रागिनी का। उसका मन भी रात की तरह भीगता चला जा रहा था पर यह रति के साथ ज्यादती होगी सोचकर उसने मुँह जुठार लिया। डिनर के दौरान रति चहकती रही और रागिनी की अनुपस्थिति की ढेर सारी बातें उसे बताती रही। आज की रात रति अपनी ममा के गले में बाहें डाल बिल्कुल चिड़िया-सी दुबकी सोती रही।
वसीयत लिखी जा चुकी थी। रागिनी ने अपने नाम बस उतना ही धन रखा था जितना हर महीने विभिन्न संस्थाओं को दान में जाता था। इनमें दो संस्थाएँ और जुड़ गई थीं मथुरा में इस्कॉन और वृंदावन में गीता आश्रम ट्रस्ट। वृंदावन में जिन्दगी गुजारने के लिए उसे जितने धन की जरूरत थी उसके नाम के धन में यह जरूरत भी शामिल थी। बाकी उसने डायना वेलफेयर ट्रस्ट के नाम फिक्स कर दिया जिसके ब्याज से ट्रस्ट अपने लक्ष्य को अंजाम देगा। देश-विदेश में स्थापित तमाम कंपनियाँ, फार्महाउस, बंगले, चल-अचल सारी संपत्ति, कीमती जेवरात उसने अपनी अठारह वर्षीय बेटी रति के नाम कर दी थी लेकिन इस पर उसका पूर्ण अधिकार तभी होगा जब वह पढ़-लिख कर कंपनी के मालिक की कुर्सी पर बैठने के काबिल हो जाएगी। तब तक उसे उसकी पढ़ाई और खुद के खर्च का रुपया मासिक मिलता रहेगा। ट्वायला और रिचर्ड उसकी देखभाल करेंगे और हर समय उसके साथ रहेगी उसकी अंगरक्षक मार्था जो पैंतीस वर्षीया निःसंतान विधवा है और जिसके हृदय में ममता का सागर हिलोरें मारता रहता है।
सच हैं इंसान सोचता कुछ है हो कुछ और जाता है। क्या कभी डायना के पिता ने सोचा होगा कि जिस संपत्ति की अकेली वारिस उनकी बेटी डायना है वही संपत्ति उसे टॉम से दूर कर देगी? इसी धन की चाह में टॉम ने डायना के वियोग के डर से चंडीदास के खून से अपने हाथ रंगे और वह सड़-सड़ कर मरा। न यह धन उनके वंशज भोग पाए न वे खुद। सारा का सारा साम्राज्य यूँ दान में समर्पित हुआ। इसीलिए यह सब धन श्रीकृष्ण को अर्पण....श्रीकृष्ण शरणम् मम। मैं कृष्ण की हुई।
न अब दीना है न जॉर्ज जिन्होंने उसे गोद में खिलाया, घुटनों के बल चलते देखा। दूध के दाँत निकलते देखा। उसके किलकारी भरने पर दीना भी हँसी होगी और उसके रोने पर रोई होगी। जॉर्ज को जितनी पीड़ा जितना आघात उससे मिला वह कर्ज तो वह कयामत तक नहीं चुका पाएगी। मुनमुन बुआ ने नेपथ्य में रहकर उसे एक सुदृढ़ व्यक्तित्व दिया, कर्तव्य-बोध कराया, प्यार के मायने सिखाए....इन सबकी कर्जदार है वह। वह तो सत्यजित की भी कर्जदार है जिसने उसकी प्यारी मुनमुन बुआ को बिना किसी रिश्ते के बिना किसी सामाजिक बंधन के असीमित प्यार दिया, साथ निभाया... और अब यह रति.... लगातार चौदह वर्ष तक जिसके सान्निध्य में उसने जीवन के अर्थ समझे। खुद को प्यार करना सीखा और दुनिया को प्यार की नजर से देखा। देह को भूलना सीखा और ये माना कि देह से ज्यादा दुरूह मन के रास्ते हैं। तो इस मन को लगा दिया कृष्ण के चरणों में और उनके चरणों के नूपुरों से उठी रुनझुन साध को मन के भीतर उतार लिया। ‘‘हे गोपियों.... मुझे भी अपने संग रखो ताकि श्रीकृष्ण के लिए मैं भी जीना सीख लूँ।’’
‘‘मॉम..... तो तुमने फाइनली वृंदावन में सैटिल होने का सोच लिया? रति ने पीछे से आकर रागिनी के गले में बाँह डाल दीं। एक दिन इसी तरह दीना के इंडिया वापिस लौट जाने और हमेशा के लिए लंदन छोड़ देने की बात पर उसने सवाल किया था। दीना में उसके प्रति मोह था, वह रुक गई थी लेकिन रागिनी नहीं रुक सकेगी। वह जिन्दगी का सार समझ चुकी है। अब दुनियावी नाते-रिश्ते, माया-मोह आकर्षित नहीं करते। यह सब कुछ बुलबुलों की तरह आकर्षक लेकिन पल में टूट जाने वाला है। सबको खोकर रागिनी ने सीख लिया है कि सच क्या है? उसने दुनिया देख ली है। लुभावनी, आकर्षक, जादूभरी लेकिन उसकी तह में है जीवन का कड़वा सच.... रोग, भुखमरी, आतंक, अपमान, जलालत और इन सबसे छुटकारा सिर्फ कृष्ण दिला सकते हैं। वे तो कहते हैं, खुद को ही कृष्ण समझो। न ये दुनिया है, न धरती, न आकाश, न नाते-रिश्ते, न दीन-धर्म अगर कुछ है तो सिर्फ मैं....मैं ही कृष्ण.... मैं ही राधा।’’
लंदन छूट रहा है..... उसका अपना लंदन, ममा का लंदन और वह जा रही है पिता के देश.... पितृनगरी..... क्या उसके चले जाने से यहाँ कुछ बदल जाएगा? क्या मौसम अपना गणित भूल जाएगा? क्या नदियाँ, समंदर रास्ते बदल देंगे? पर इन सबसे ऊपर कृष्ण हैं...... कृष्ण उसे आवाज दे रहे हैं। वह देख रही है, महसूस कर रही है एक सिहरा देने वाली आवाज.... हाँ, इस आवाज से मौसम का गणित डगमगा सकता है। इस आवाज से तमाम बहते पानियों की लहरें अपना रास्ता भूल सकी हैं। इस आवाज से चिनार और चीड़ के दरख्त टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं। वीराने काँप कर पुकार सकते हैं.... त्राहि माम-त्राहि माम... इस विराटता में समा जाना चाहती है रागिनी। नहीं याद करना चाहती अपना अतीत...याद करने के प्रयत्न में यादों के मनके बिखर जाते हैं और हर मनका कृष्ण हो उठता है। उसके कानों में कोई फुसफुसाता है....हारो मत रागिनी....हर व्यक्ति को अपना-अपना कुरुक्षेत्र स्वयं लड़ना पड़ता है। अपनों के बीच मन के अंदर ही महाभारत होता रहता है। और फिर दुनिया धन, ऐश्वर्य, भौतिक सुखों से ऊबकर बाहरी दिखावा गौण लगने लगता है और अंतर्गमन की अवस्था आती है। यह अवस्था मार्ग सुझा देती है कि अपना सब कुछ कृष्णार्पण करते चलो। अच्छा-बुरा, हँसी-आँसू, हानि-लाभ, शोक-खुशी...... सब कुछ कृष्ण को अर्पण करो।
रागिनी ने आँखें मूँद लीं और विराट सुख में तल्लीन हो गई।
आखिर वह दिन भी आ पहुँचा जब रागिनी हमेशा के लिए लंदन छोड़कर वृंदावन जाने वाली थी। अपनी मॉम के इस फैसले से चकित है रति। उसने कई रातें इसी सोच में जाग कर बिताई कि आखिर मॉम क्यों उससे दूर जाना चाहती हैं। वह क्यों कर अकेली रहे? वह क्यों इस भाँय-भाँय करते डायना विला में बस अपने ही साये को नजदीक पाए? खिड़कियों के पल्ले तेज हवाओं में खड़खड़ाते मानो यही सवाल दोहराए जा रहे हैं। तमाम कमरों के परदे हवा में फड़फड़ाते, डोलते यही सवाल दोहराए जा रहे हैं। मार्था की नजरों से वह बचती फिर रही है। उसकी नजरों में भी तो यही सवाल मंडरा रहा है। कितनी दफे वह चर्च जाकर प्रार्थना कर चुकी है-“हे प्रभु, मेरी मॉम को जाने से रोक लो।“ किंतु वहाँ भी मोमबत्तियों की लौ जैसे मॉम के फैसले की रजामंदी में ही थरथरा रही हैं। सब कुछ मेरे विपरीत क्यों हो रहा है? सोचा था रति ने ‘‘क्योंकि तुम डरपोक हो तुम खुद को मॉम के बिना असुरक्षित महसूस करती हो, तुम्हें लगता है कि उनके जाते ही दुनिया बदल जाएगी....आखिर इस कमजोर सोच की वजह? क्या मॉम का बेतहाशा दुलार, प्यार और अब एकाएक सारे बंधनों को तोड़ डालने की उनकी अपनी जिद्द!!’’
‘डायना विला’ में निस्तब्धता छाई थी जिसे बाहर हो रही बारिश की अनवरत लय और पत्तों की सरसराहट तोड़ रही है। रागिनी का सामान कार में लादने के लिए बरामदे में रखने का क्रम जारी है। कमरे में सब रागिनी को घेरे खड़े हैं तमाम नौकर-चाकर, बहुत करीब मार्था और एकदम करीब रति।
‘‘मेरे लिए दुख न करो क्योंकि ईश्वर का यही आदेश है।’’
रति रागिनी के कंधे पर सिर रखकर बिलख उठी।
‘‘अरे पगली, मैं जा कहाँ रही हूँ। मैं तो तुम सबके बीच हूँ, रहूँगी। जब भी तुमको मेरी जरूरत होगी, मुझको अपने नजदीक ही पाओगी। एक बात याद रखो। सब कुछ समाप्त हो जाता है अगर हम अपनी स्मृतियों से उस सब कुछ को पोछ दें तो....उन स्मृतियों में तो मैं हूँ न।’’
रति की समझ में कुछ नहीं आया। हाँ, यह जरूर हुआ कि रागिनी के कृष्ण ने बारिश रोक दी। रागिनी के लिए एयरपोर्ट जाना आसान हो गया।
अंतिम विदाई में हिलते हाथों को देर तक मन में उतारती रही रागिनी। फ्लाइट की घोषणा के साथ ही उसने काँच का दरवाजा पार किया और फिर मुड़कर नहीं देखा।
रति खुद में सिमटी, अपनी मॉम की विदा होती आकृति को निहारती, अनेक अनुत्तरित सवालों को लिए खड़ी की खड़ी रह गई। रागिनी के लिए अब सब कुछ बेमानी था।
12
मूसलाधार बारिश हो रही थी। वृंदावन की गलियाँ सड़कें, वृक्ष सब पानी के झीने आवरण से ढक गए थे। रागिनी का कमरा बदल गया था। अब उसे एकदम छोर पर बने कमरे में रहना था जहाँ की खिड़की बगीचे की ओर खुलती थी। तेज बारिश और हवा में लहराते परदे ने रागिनी का बिस्तर भिगो डाला। वह एक पल के लिए खुली खिड़की की चौखट पकड़े बौछारों का मजा लेती रही फिर खिड़की बंद कर दी। जब से रागिनी वृंदावन आई है गीता आश्रम का प्रबंधन विभाग स्वामीजी से ये प्रार्थना कर रहा है कि वे रागिनी को प्रबंधन विभाग का सचिव बना दें पर रागिनी लगातार इन्कार कर रही है। वह किसी भी ऐसे झमेले में नहीं पड़ना चाहती जो उसके शांत मन को तनावग्रस्त कर दे। आश्चर्य तो इस बात का है कि उसे अब कुछ भी नहीं सालता। बीती बातें न तो उसे याद आती हैं। न कचोटती हैं। कृष्ण ने सब पर जैसे राहत का मलहम चुपड़ दिया। अब वह अपना सारा समय मोटे-मोटे धर्मग्रंथों, दर्शन की पुस्तकों के अध्ययन-मनन में ही बिता देती है। फिर आश्रम की अपनी तरह की विशेष दिनचर्या है जिसमें वह आश्रमवासियों की तरह ही पग गई है।
लंदन से भारत आकर कुछ दिन वृंदावन में गुजार कर वह लगातार दो महीनों तक भारत भ्रमण करती रही। सारे तीर्थ, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की यात्रा ने उसमें जैसे नवजीवन का संचार कर दिया। भारतीय संस्कृति ने उसे भीतर तक आंदोलित कर डाला जहाँ पहुंचकर यह जीवन मात्र प्रभु का दिया उपहार प्रतीत होता है। इस उपहार के बदले वह क्या देगी? क्या देने का माद्दा रखती है? नहीं, इतना शऊर कहाँ....इतनी हिम्मत कहाँ...तो बस अपने आप को कृष्ण में ही रचा-बसा लो। जीवन में एकाकार कर लो उन्हें। यह बीज मंत्र लिए वह भारत का चप्पा-चप्पा घूम आई।
शाम घिरते ही अक्सर यमुना किनारे चली जाती है वह। कृष्ण का प्रिय कदंब फूला है। पीले-पीले गेंद से लटकते फूल। जिनकी सुगंध दूर-दूर तक हवा में समाई है। मादक सुगंध में बरसाती कीट पतंग तक मतवाले हो उठे हैं फिर मनुष्यों के लिए तो यह ऋतु ही श्रृंगार रस से पूर्ण मानी जाती है। यमुना का जल स्तर बढ़ गया है और बढ़ गई है रागिनी के चिंतन की धार भी। तीखी, प्रखर....वह जितना चिंतन करती है अर्थ उतने ही गूढ़ होते जाते हैं।
नन्हें बच्चों की खिलखिलाहट से यमुना का किनारा भीग गया। छोटे-छोटे ग्वाल बालों का झुंड कदंब के खट्टे-मीठे फलों को बटोरकर मुँह में भरता जा रहा है। कोई किसी से आगे बढ़कर झपटकर फल उठाता है तो दूसरा फल छीनने के चक्कर में अपने हाथ लगे फलों से भी हाथ धो बैठता है। थोड़ी देर तक रागिनी उन्हें देखती रही। उसे उनके इस खेल में बड़ा मजा आया। उनमें से एक नटखट बच्चा उसकी तरफ दौड़ता आया और हथेली में दबा फल उसे देते हुए बोला-‘‘खाएँगी?’’
रागिनी हँस पड़ी। उसने फल लेकर मुँह में रखा और चबाते हुए बोली- ‘‘हूँऽऽ.... मजेदार है।’’
‘‘हमाई अम्मा जा को साग भी पकाती है।’’
‘‘अच्छा.... तुम्हें पसंद है?’’
‘‘भौत।’’ लड़के ने कुलाटी मारते हुए रागिनी को करतब-सा दिखाया तब तक और भी बच्चे आ गए थे। फिर तो होड़ सी लग गई उनमें। पल भर में ही रागिनी के सामने कदंब के फलों का ढेर लग गया। संध्या आरती का वक्त हो चला था। रागिनी ने तमाम फलों को अपने रूमाल में बाँधकर उसी लड़के को थमा दिया जिसने उसे सबसे पहले फल लाकर दिया था।
‘‘लो अपनी अम्मा से मेरे लिए साग बनवाकर लाना। मैं कल यहीं मिलूँगी तुम्हें।’’
दूर से माइक आता दिखा। केशरिया धोती, कुरता, माथे पर त्रिपुंड दाहिना हाथ रेशमी बटुए में कृष्ण-कृष्ण जपता हुआ।
‘‘अरे माइक... तुम मथुरा से कब आए?’’
‘‘आज ही.... हम तो मथुरा वृंदावन दोनों जगह रहते हैं। रागिनी तुमने इस्कॉन अपनाकर बहुत अच्छा किया... यह संसार मिथ्या है। जितनी जल्दी कृष्ण की शरण मिले, उतना अच्छा।’’
बच्चों ने रागिनी सहित माइक को भी घेर लिया था।
‘‘अरे! तुम कहाँ इनके चुंगल में आ गई? ये बड़े नटखट हैं।’’
‘‘नटखट तो होंगे ही, कृष्ण सखा हैं।’’ रागिनी ने बारी-बारी से सभी के गालों को छूकर प्यार किया। वे हँसते खिलखिलाते धमाचौकड़ी मचाते चले गए।
साए सिमटने लगे थे। सूर्यास्त को हौले से धकेलकर दिन को कुछ बड़ा करने की आकांक्षा लिए रागिनी ने यमुना के किनारे पर आँखें टिका दीं। बरसाने गाँव को छूते उस दूसरे किनारे को अनुराग के सुनहले रंग में रंगता हुआ सूरज यमुना में हौले से समा गया। सिहर उठी यमुना....सिहर उठा जल का कण-कण। जल की लहरों पर तैरती पनडुब्बियों ने पँख फड़फड़ाए.... कहाँ हो राधेरानी.... कृष्ण की बाँसुरी टेरने लगी।
रागिनी और माइक आरती में शामिल होने के लिए मंदिर की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहे थे। अचानक क्षितिज पर बिजली-सी कौंधी। एक घना काला बादल न जाने कहाँ से भटककर आ गया था। रह-रह कर उसमें बिजली कौंध रही थी। अचानक हवा तेज चलने लगी। भीगी हवा ने बरसात का एहसास जो कराया तो दोनों के कदमों में भी और अधिक तेजी आ गई। गेट तक पहुँचते-पहुँचते बूँदा-बाँदी शुरू हो गई थी। रागिनी के बालों पर अटकी बूँदें हीरे की कनी सी चमक रही थी।
आरती शुरू हो चुकी थी। ढोल, मजीरे बज रहे थे और केशरिया वस्त्रों में कृष्ण भक्त मतवाले थे। आरती की लौ बादलों में चमकती बिजली को मानो लजा रही थी। फिर घनघोर बारिश शुरू हो गई। ठंडी, तेज हवाओं ने रागिनी के मन को छू-सा लिया। वह मंदिर के खंभे से टिककर बैठ गई और मुठ्ठी में दबा कृष्णप्रसाद खाने लगी।
आश्रम में स्वामीजी का प्रवचन चल रहा था- ‘‘अपने पिता वेदव्यास को जब सदैव के लिए त्यागकर पुत्र शुकदेव चले गए तो व्यासजी हाथ जोड़े उनके पीछे-पीछे दौड़े....लौट आओ पुत्र हमारी व्याकुल पुकार को सुनो, हमें त्यागो मत। लेकिन शुकदेव कहाँ सुनने वाले थे उन्होंने पलटकर देखा तक नहीं। पिता की पुकार सुनना तो दूर की बात है। तब आम के वृक्षों ने वेदव्यास की पीड़ा देख उन्हें समझाया कि आप तो त्रिकालदर्शी हैं, जानते हैं शुकदेव अब कभी नहीं लौटेंगे। पुत्र वियोग से मुक्ति पाने के लिए ही वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत की रचना की। वह कौन-सा ग्रंथ लिखे? क्या लेखन से बिछुड़ गए लोगों की स्मृतियाँ धूमिल हो सकती हैं? क्या उसे भी कलम थामनी पड़ेगी? क्या ये संभव है?... क्यों अपने शून्य हो चुके मन में मोह जगा रही है वह?..... शून्य में कभी कुछ नहीं होता....होने की गुंजाइश भी नहीं।’’
यमुना के किनारे छोड़कर वह घास के मैदानों में घास चरती गायों की ओर आई। गायों के गले की घंटियाँ इतनी मधुर बज रही थीं कि पलांश उसे ठहर जाना पड़ा। अगले ही पल वह पगडंडी में उतर गई। घास की चरी जाती टूटती पत्तियाँ भीनी सुगंध फैला रही थीं। एक बड़ी-सी चट्टान पर वह बैठ गई....मन फिर भटकने लगा। कितना कुछ छोड़ आई है। कृष्ण ने उसे समृद्धि देने में कंजूसी नहीं की। पर जीवनसाथी नहीं दिया। कन्हैया...तुम तो इतनी पटरानियों, रानियों और गोपियों से घिरे रहते हो? तुम कैसे मेरा दर्द समझ सकते हो? तुम सचमुच छलिया हो।
पैरों में पहनी जयपुरी मोजड़ियों पर कुछ रेंगा। उसने देखा दो तीन बीर-बहूटियाँ मोजड़ियों पर टँके मोतियों पर अटकी थी। उसने उन्हें आहिस्ता से झटक दिया। चट्टान ठंडी हो चली थी, अंधकार बढ़ने ही वाला था। उसने बाँहें पसार कर जैसे समस्त सृष्टि को बाँहों में भर लिया। धरती, आकाश, पाताल.... हवाएँ, मौसम ओले, बर्फ, मूसलाधार बारिश, कड़कती बिजलियाँ, घटाटोप अंधकार...सब कुछ को बाँहों में भरा महसूस किया....कि जैसे अचानक हलकी हो उठी रागिनी। हवा में तैरने के लायक हलकी और विकार रहित.... न हार न जीत... न घाव, न चोट, न खून, न वेदना.... मैं हूँ ही नहीं.....तो वेदना कैसी....मैं कृष्ण में समा गई हूँ... अब कुछ नहीं दिखता सिवा कृष्ण के... अब तो बेलि फैल गई कहा करे कोई.....
चट्टान से उठकर वह गीताश्रम की ओर चल पडी। संकरी पगडंडी पर उसके कदम कृष्ण के कदमों के पीछे-पीछे चलने लगे। पगडंडी के दोनों ओर उगी घास के बीच-बीच में पीले, बैंगनी फूल सिर उठाए उसके रास्ते में बिछ-बिछ गए। पेड़ों की डालियाँ झुक-झुक आईं। घोसलों में परिंदे पंख फड़फड़ाते चहचहाने लगे। टिटहरी टि टि ह टि टि ह का राग छेड़ने लगी। प्रकृति ने संकेत दे दिया, अब तुम निर्विकार हो रागिनी। अब तुम ईश्वर में हो, ईश्वर तुममें हैं....डाली-डाली बोल उठी, मुरली संग डोल उठी.... बावरा हुआ जहान.... ऐसी प्रीत जाग उठी।
स्वामीजी ने उसे पास बुलाया। चुम्बकीय सम्मोहन से मानो खिंची जा रही है रागिनी। स्वामीजी की चमकती आँखें, चमकता त्रिपुंडयुक्त ललाट, चौड़े नंगे सीने पर जनेऊ और रुद्राक्ष की मालाएँ....केशरिया धोती, पैरों में खड़ाऊँ। उसने सिर झुकाया... खुद भी झुकी। उसकी गुलाबी लम्बी, कोमल उँगलियाँ स्वामीजी का चरण स्पर्श कर रही हैं। आज उसने भी केशरिया साड़ी, केशरिया ब्लाउज और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी है। बालों की चोटी गूँथी है। संगमरमर-सा गोरा बदन और काली आँखें...उसके रूप से आश्रम चमक उठा है। स्वामीजी ने चंदन की कटोरी उसकी ओर बढ़ाई है- ‘‘माथा चंदन चर्चित कर लो साध्वी....आज से तुम रागिनी नहीं रुक्मिणी हो। साध्वी रुक्मिणी...’’
‘‘रुक्मिणी।’’ रागिनी के होठ काँपे। कहना चाहा... रुक्मिणी तो कृष्ण की पटरानी थी...मैं तो राधा हूँ स्वामीजी... राधा जो कृष्ण की छाया से जन्मी है। मेरा ऐसा कायाकल्प!! रुक्मिणी के रूप में एक नया जन्म, पुनर्जन्म... मिट गई रागिनी....कृष्ण को अर्पित कर दिया स्वामीजी ने उसे। प्रागंण में बैठे, हॉल में बैठे तमाम कृष्णभक्तों ने एक स्वर में उसके रुक्मिणी नाम का अनुमोदन किया। रागिनी के रोम-रोम से लहर उठी....दूर तलक बस कृष्ण ही कृष्ण थे... हर चेहरा कृष्ण का... हर आँख कृष्ण की....हर होठ कृष्ण के, हर चेष्टा कृष्ण की। उसने थरथराती उँगली चंदन से भरी लकड़ी की कटोरी में डुबो दी। डूबी हुई उँगली को माथे पर ले जाकर वह आड़ी तिरछी रेखाएँ बनाने लगी, बना नहीं पाई। स्वामीजी ने स्वयं उसके हाथ से कटोरी लेकर उसके माथे पर चंदन का तिलक लगा दिया। तिलक लगाते हुए उन्होंने श्लोक बोलते हुए उसके सिर पर हाथ रखा। उसके मन की जमुना हिलोरें लेने लगी। नटखट कृष्ण चंद्र की भांति उसके मन की लहरों को अपनी तरफ खींच रहे थे। तभी तो वह लंदन से प्रयाग और प्रयाग से वृंदावन तक खिंची चली आई है। जैसे हजारों किलोमीटर दूर साइबेरिया में अंडों से फूटे पक्षी भरतपुर तक उड़े चले आते हैं। हर साल.... हर बसंत में.... इसी ऋतु में... यह कैसी अंतःप्रेरणा है स्वामीजी?
‘‘लतिका, साध्वी रुक्मिणी का चित्त व्याकुल है, इन्हें विश्राम के लिए ले जाओ।’’
रुक्मिणी के रूप में सचमुच व्याकुल थी रागिनी। उसका अतीत ध्वस्त हो चुका था.... दीवारें ढह गई थीं। वह मलबे में दब चुकी थी कि बचाव दल के रूप में कृष्ण ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। उस हाथ में बांसुरी थी पूरे जगत को मोहित कर लेने वाली लेकिन राधा के आगे बेबस... राधा की जब इच्छा होती बाँसुरी छुपा देती। कन्हैया कितनी चिरौरी करते राधा की बांसुरी पाने के लिए। राधा को मनाते, फूलों से उनका श्रृंगार करते...अपनी गोद में रख उनके तलुओं को सहलाते..... इतनी चाहत के बावजूद एक बार जो बिछड़े वे राधा से, तो फिर कभी नहीं मिले। यह कैसा प्यार था जो मर्यादाओं में सिमटा रहा। तोड़ नहीं पाया कोई दीवार..... जबकि जन-जन जान गया था उनका प्यार। कुछ भी नहीं छिपा था किसी से। फिर किन बंधनों में बंधे रहे वे दोनों जो जिन्दगी भर मिल नहीं पाए और इस वियोग से क्या संदेश दिया उन्होंने संसार को? राधा से बिछुड़कर कृष्ण कर्मयुद्ध में कूद पड़े। फिर बाँसुरी कैसे बजाते? कर्म और प्रेम....जिन्दगी की नदी के दो किनारे....ऐसे किनारे जिनके बिना जिन्दगी की नदी बह भी नहीं सकती लेकिन जो कभी मिल भी नहीं सकते।
रागिनी आठों प्रहर कृष्णचिंतन में लीन है। गीताश्रम का पुस्तकालय गीताप्रेस गोरखपुर और कृष्णसाहित्य से ठसाठस भरा है। उसी में रागिनी की थीसिस भी किताब रूप में मौजूद है। चिन्तन, मनन और पाठ...रागिनी की दिनचर्या इसी में सिमट कर रह गई। उसने बाँसुरी बजानी भी सीख ली है और भजन गाना भी। संध्या होते ही वह मौलश्री के वृक्ष से टिकी बाँसुरी बजाती रहती है। केशरिया साड़ी और रुद्राक्ष की माला अब उसका पहनावा है। स्वामीजी कहते हैं रुक्मणी कृष्णमय हो गई।
यह पटाक्षेप है या अंतिम दृश्य की शुरुआत?