Dewarein in Hindi Poems by Pawnesh Dixit books and stories PDF | Dewarein

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Dewarein

विषय-सूची

सब कुछ कूड़ा है.........................................................................................3

माँ का दर्द ................................................................................................५

दासता जिंदा है ...........................................................................................८

मैंने उनको बदलते देखा है .............................................................................११

तुम जियो या मरो हमे क्या? .........................................................................१३

रास्ता”किधर है ...........................................................................................१५

क्या वो लौटेंगे ............................................................................................१७

दुनिया एक नज़र में .....................................................................................१९

मैं क्या समय बताऊं......................................................................................२०


सब कुछ कूड़ा है ”

सब कुछ कूड़ा है

कुछ जादा या कुछ थोड़ा है

हों नदी – पर्वत, झरने ,

देकर मानवता को नायाब तोहफा

भूल इसे अब मानव ! , प्रकर्ति-प्रदत वस्तुओं

का कर अति दोहन , नदी नालों में जा-जा के फेंक रहा है

सब कुछ कूड़ा है ,

कुछ जादा या कुछ थोड़ा है ||

मर रही प्रकर्ति,

पल-पल मारा नस पर उसके “आधुनिकता का हथौड़ा है,

उसे बचाने को अब संत महात्मा “ चेतक बन- बन दौड़ा है “

साँसों को आत्मसात कर इन्होने ये ठाना है

केवल दाना खाते रह गए तो ,बेवक्त ही यहाँ से जाना है ! !

क्या करें बेचारे ! !मानव होकर मानव ही इनकी राहों का रोड़ा है

सब कुछ कूड़ा है,

कुछ जादा या कुछ थोड़ा है ||

कैसी ये राहें ! अनूठे ढंग की , मानव अब बना दानव है

संत महात्मा जान दे रहे, धरती के जीवन की खातिर

लाद कंधे पर ले जाते उठा उनको ये मानव

छोड़ शमशान में , अपमान सह,

चुपके से गड्ढे में वे समाये हैं, खुश हो रहा मानव

इधर , बांच रहा उपदेश –

मानव- दानव या संत सबको

संचालक ने एक दूसरे से जोड़ा है ,

‘ आवश्यकता ’ ने ही सब कुछ मरोड़ा है ||

सब कुछ कूड़ा है,

कुछ जादा या कुछ थोड़ा है ||

नहीं जानते निपट मूर्ख ! !! लोलुपता ही के चलते

तुम्हीं ने प्रकर्ति को खूब निचोड़ा है ||

संबंधों को भी ताक़ पे रख हर नियम को तोड़ा है ||

सब कुछ कूड़ा है ,

कुछ जादा या कुछ थोड़ा है ||

माँ का दर्द “

खुशियों के संसार में मैंने मारी छलांग

मन ही मन गुनगुना रहा था गज़ब सोंग

कैसा प्रसन्न हो चला था चित्त , जब देखा वित्त मंत्री कर रहे

एक एक पाई का हिसाब , जज से लेकर संसद तक न मांग सकी जवाब,

कानून का देखो ये कैसा सुंदर नज़ारा है !!

काले हैं हाथ जरा भी अगर!! जनता ने उसके मुहं पर गोबर फ़ेंक के मारा है,

नेताओं की गलती हो या अपराधियों का जघन्य! अपराध

पता लग जाता सब यहाँ

बेचारे हर पल यही ताकते रहे कि कौन जासूस है कहाँ ?

जो सारी खबर बताता है भूखी बदहाल जनता के पारे को सुलगता है

नहीं पता उसे क्या !! !

नेता ही तो उड़नतस्तरी बन पल में ,धरती क्या मंगल तक की सैर करता है!!!!

उस रक्षक को क्या मालूम ! ! बेचारों ने गोबर छोड़ धूल तक नहीं कभी चाटी है,

केवल जनता को लूटना ही इनके सफल जीवन की परिपाटी है ||

लगता है अब वो जान गया है दिल उसका ये मान गया है

तभी तो गोबर के लड्डूओं की फैक्ट्री में सबको बिना डोनेशन काम दिया है

कि जित्ता जिसके जी में आये फेंक फ़ेंक के मारो

कबूलें न जब तक अफसर नेता मंत्री और दलाल कि हमी फंसे हैं चारों !!

मारते रहना दनादन लेके दिल में सोच यहीं हैं देश के दुश्मन चारों | |

इमानदारी भी जिनसे भ्रष्ट हो गयी, बेईमानी के पाँव पकड़-पकड़ के,

रोते रह गए इमानदार हक मांग के तड़प तड़प के,

मारा एक तमाचा अम्मा ने रह गयी आँख फड़क फड़क के ,

बोली – कित्ती बार कहा है जगती आँखों से भ्रष्टाचार को भगाओ!!

धरती माँ के सीने को छलनी होने से बचाओ ,

सोने की चिड़िया जो ले गए विदेशी

अब कम से कम पिंजरा तो बचाओ ,

बची खुची कीमत ही सही उसकी ;

धरती माँ को अब न रुलाओ!!

टूटे अगर जरा भी मनोबल तेरा ! मार छुरा सीने में मेरे !

मुझे इस नरक से मुक्ति दिलाओ |||

माँ होकर ऐसी बातें करती हो !

मेरा दिल फट गया !!!!!!!!!!

आज पता चल गया माँ का दिल माँ के लिए रो गया ||

अंतर्मन से इस धरती माँ की चीख सुनो पुत्र !

होगा तुम्हे अहसास टूट रही धरती माँ की आस,

आओ! बैठो मेरे पास

माथे पर रगड़ रज इसकी

हो भीष्म सदृश दृढ संकल्पित ,

करना होगा तुम्हे दुष्टता का सर्वनाश !! !!!

दर्द सहन कर मिटा रही ये देवी! सदियों से हमारी भूख और प्यास ,

न करना इसे निराश !! न करना इसे निराश !!

है बचा!! पुत्र बस यही एकमात्र प्रयास!!!

“ दासता जिंदा है “

आज भी दंगे फसाद हैं

कहने को नर नारी सब आज़ाद हैं|

पल में घबराते पल में नींदे उड़ती

हैं लोगों की,

खुश हो जाते वो

आने वाले पल में सब कुछ है

जिंदा बचा हो उनका एक सहारा

नहीं मार सकी भूखी ताकत

खड़ा मुस्कुरा रहा उनका आँखों का तारा ,

हर जगह अजब सा उन्माद है,

आज भी दंगे फसाद हैं

कहने को नर नारी सब आज़ाद हैं|

निकलते हैं घर से सोचकर सभी ,

लौटकर आना है अभी ,

भूल जाते लगा उन पर हर वक़्त

एक साए का अँधेरा है ,

अभी वे मुक्त नहीं है,

कहीं पर जरूर

उनपर पहरा है,

कुछ ये भूले,

कुछ को ये याद है

आज भी दंगे फसाद हैं

कहने को नर नारी सब आज़ाद हैं|

हो जाता कोई धमाका

कहीं रो जाते एक पल को सब,

शुक्र !! है जिंदा बचे हम ,

ये हमको भी होश नहीं है

कौन याद करेगा उनको

जो अब बेहोश भी नहीं है!!!

कैसे यकीं दिलाएं फोड़े

में भी अब बचा मवाद नहीं है,

सूखे हैं पेड़ वसंत में पतझड़ आ रही आज

खड़े हैं जिस मिट्टी पर हम

ढकने को खाद नहीं है,

उठती आवाज़ हमेशा हर ओर खुल के जी लो ,

स्वतंत्र हैं हम सुंदर स्व गणराज्य है ,

हांथों की कटी बेडियाँ ,तल रही पूरियां,

विलुप्त हैं !!!! दुर्गम झाड़ियाँ ,

नव पल्लव आये,

सब कुछ पास है;

मन से अभी भी उदास हैं,

गुलामी छोड़ दहशत के दास हैं,

आज भी दंगे फसाद हैं

कहने को नर नारी सब आज़ाद हैं|||

“मैंने उनको बदलते देखा है “

मैंने उनको बदलते देखा है |

उनसे ही सब कुछ सीखा है |

गिरते –गिरते वे जब खड़े हुए

संभल वो अब पथ पर अड़े हुए;

आंधी तूफानों में चीखते उनको देखा है!!!

मैंने उनको बदलते देखा है |

उनसे ही सब कुछ सीखा है |

डर-डर कर जब वो थक जाते थे ,

अपनी कुंठाओ में ही घुट जाते थे ,

तब अंतर्मन की दस्तक से ही ,

वो धीरे -धीरे उठ पाते थे

तोड़ दरवाजे मन की बंदिशों के ,

डर को मुट्ठी में कर बंद,

हवा में फैंटम बन उछलते देखा है

चेतक को भी उनसे हर बार पिछड़ते देखा है |

मैंने उनको बदलते देखा है |

उनसे ही सब कुछ सीखा है |

हो अगर इच्छाशक्ति मन में,

पत्थर को भी पिघलते देखा है

इंसान हूँ मैं फिर भी इंसानों को

पत्थर बनते देखा है !!!!!!

फूल से दिल को अंगारे !! बनते देखा है

है जीवन कितना दुर्गम ये मैंने इससे सीखा है

मैंने उनको बदलते देखा है |

उनसे ही सब कुछ सीखा है |

अंगारों को फूलों से बातें करते मैंने देखा है |

है जीवन

कितना मधुर!! ये मैंने इससे सीखा है |

मैंने उनको बदलते देखा है |

उनसे ही सब कुछ सीखा है |

तुम जियो या मरो हमे क्या ?

तुम जियो या मरो हमे क्या?

हम लुटे या लूटें तुम्हे क्या ??

जीते हैं लोग यहाँ कफनों पर !

दो पैसे ज्यादा मिल गए तो खर्च देते अपनों पर !!!

भूले से भी नहीं लगाते मरहम पट्टी जख्मों पर!!!

बिक जाते हैं लोग यहाँ चंद सपनों पर!!!

तुम जियो या मरो हमे क्या?

हम लुटे या लूटें तुम्हे क्या ??

हमारी दुनिया रंगीन है

“ जम के खाओ सब “ यही आज का ताज़ा तरीन है

डूबे रहो भोग में हमेशा इस पर हमें बचपन से पूरा यकीन है,

पलंग पर चौड़े से पैर फैलाते नहीं हमारी कोई अपनी ज़मीन है,

तुम रहो तड़पते हमेशा देख तुम्हे हमारी ज़िन्दगी हुयी और भी हसीं है ,

भाग्य हमारा हैं हम बलवान आप अभी भी दीनहीन हैं

और फिर ज़मानों के ग़मों का ठेका नहीं लेते तो क्यूँ ले तुम्हारा ?

नहीं आये हो इस दुनिया में लेकर किस्मत हमारा ?

तुम जियो या मरो हमे क्या?

हम लुटे या लूटें तुम्हे क्या ??

हम टूटे से कल! बिखरे भी पड़े हैं !!

नहीं पकड़ते हाँथ किसी का

अपनी धुन पर हमेशा अड़े है !!

मर जाएँ गम नहीं, ! जीने-मरने में हम नियम से भी कड़े हैं,

जब तक ज़िन्दगी मिली है अपने सिद्धान्तों पर समूचे खड़े हैं |||

हम लुटे या लूटें तुम्हे क्या ??

तुम जियो या मरो हमे क्या?

“ रास्ता किधर है ”

कोई कहता इधर कोई कहता उधर

आखिर रास्ता है किधर ?

जा रहे हँसते हुए यहाँ सब ,

रोते हैं बिरले कोई,

जनता है जाग उठी,

या युग का माया भ्रम समेट रहा,

हंस-हंस भरा है उसका पेट कहाँ ?

बुला रहा सबको –

समा जाओ खाली है सर्वत्र यहाँ

कर रहा प्रश्न भटका पथिक

भ्रमित हो पूछ बैठता

मन से

करता रह जाता अगर

उत्तर में कुछ कह रुक जाता मगर

कोई कहता यहाँ !! इधर कोई कहता उधर

आखिर रास्ता है किधर ?

वक़्त रुका न था पहले कभी

कोई उसे बचाने आये !!

रुक जाते, जाते लोग पथिक तक ,

भय दूर नहीं होता ,

अँधेरा घात लगाए अभी भी है बैठा

फाँस डालता मन में डरा रहा अब तक

चिंगारी न हो ज्वाला एक दिन,

सब रहे लचर-मचर,

कौन जाने कहाँ है डगर ?

कोई कहता इधर कोई कहता उधर

आखिर रास्ता है किधर ?

जान समझ रहा अब हर मानव

जागरूकता का आगाज़ है !!

निर्मित विचारों का अब है भूपटल

बढ़ रहे!! गाँव बढ़ रहे !!शहर

चिल्लाता या शांत हर पहर है ||

छुपा है माया का कहर !!

पी रहे लोग जहर

भरें हैं तालाब कभी , कभी सूखी है नहर ;

कौन जाने कहाँ है डगर ?

कोई कहता इधर कोई कहता उधर

आखिर रास्ता है किधर ?

क्या वो लौटेंगे ?

लौट के उनको आना है ,

या मुझे ही अब जाना है

नाम रटते रटते हो गया सवेरा ,

रजनी कब ढलती है याद नहीं

सूरज से अब वैसी मुलाक़ात नहीं ,

चंदा भी मैंने नहीं देखा है ,

लौट के उनको आना है ,

या मुझे ही अब जाना है

प्रक्रति का सब ये लेखा जोखा है

मैं थी मैली-कुचटी

एक अनोखी , नयी तरंग

छाई थीं मन में सपनों की उमंगें- झंकारे-

हलचल हल्की कर देती थीं

सूरज पर जब तब पहली बदली पड़ती थी

पहने ओढ़े कैसे भी मचल-मचल मैं जाती थी

देख टकटकी से अपने प्रिय

को शायद सबमें पाती थी |

रुई-सूत के उलझले में

मगन हमेशा रहती थी

झोंका एक हवा का ऐसा

रचा के मेहँदी पिय के घर एक दिन जाना है,

अब बैठी हूँ श्रंगार पिए

लिपटाए शोभा वस्त्रों की

भरा है पेट क्या अब खाना है ?

लौट के उनको आना है ,

या मुझे ही अब जाना है

वसंत तक जाने वाला है ,

टूट रही मेरे मन की माला

अब धैर्य नहीं मुझमें किससे पूछूं

क्या कर जाऊं

कोई बता दे ! क्यूँ अब

चाह ख़तम है

लौट के उनको आना है ,

या मुझे अब जाना है ||

“दुनिया एक नज़र में “

दुनिया एक समंदर है ,

जो कोई मज़े से खेला इसमें

वही अन्दर है,

पानी का एक बुलबुला

बहती हवा से जैसे टूटता

नहीं कोई टूटे- बिछड़े को पूछता

नष्ट है कोई यहाँ ,

उत्पन्न है प्रतिक्षण एक वहां ,

एक दूसरे को देखते हंस रहे हैं सब

लाये ढूंढ के कौन रो रहा है कहाँ ?

ख़तम नहीं है दूर तक फैला है ये जहाँ !!!

“मैं क्या समय बताऊं”

मैं क्या समय बताऊँ!

क्या मैं उनको समझाउं!

रुकी पड़ी है ज़िन्दगी

किस पर झुन्झ्लाऊ!!

घड़ी लगी है हाथ में,

सबको देख रहा हूँ

अपने साथ में,

उछल कूद रहे हैं बाग़ में ,

मगन हैं सब अपने ही राग में ,

गिरते हैं सब एक साथ में ,

उठते हैं सब एक साथ में

मैं क्यूँ गिरता ,उठता हरदम

न जाने कब कौन पुकार रहा दिन या रात में

दिल ही को ढूंढ रहा जो नहीं है पास में ,

गम को कैसे मैं भुलाऊं?

क्या मैं अब पाऊं?

मैं क्या समय बताऊँ!

क्या मैं उनको समझाउं!

जलती है रौशनी हर मन में,

नहीं बुझा है दिया अभी इस तन में ,

कौंध रही बिजली क्यूँ इस मुक्त गगन में,

डगमगा मैं रहा ,जलने की लगन में

भूला हूँ कुछ क्या मैं याद करूँ ?

भूख लगी है कैसी! क्या मैं खाऊँ ?

मैं क्या समय बताऊँ!

क्या मैं उनको समझाउं!

भूल गया हूँ कैसे इतराऊं

जान रहा अब

मैं ,क्यूँ डर जाऊँ

थका हूँ अभी ;

मैं क्या समय बताऊँ!

क्या मैं उनको समझाउं!! |||||