Ulajhau Choudary in Hindi Short Stories by Sandeep Meel books and stories PDF | Ulajhau Choudary

Featured Books
Categories
Share

Ulajhau Choudary

उलझाऊ चौधरी

संदीप मील

बाजरे से भरे खेत में पड़ौसी का भैंसा घुस जाना यूं तो किसी को भी बर्दाशत नहीं होता मगर यह भी कोई बात है कि चार दिन से हरीबक्स घर से गायब है और रामनाथ उसको खोजने के लिये तकरीबन गांव के सभी घरों के अधिकांश कमरों की तलाशी ले चुका है। हालांकि कई लोगों का यह भी कहना है कि हरीबक्स गांव से बाहर छुपा हुआ है लेकिन रामनाथ का दावा है कि गांव से बाहर उसका कोई विश्वासी आदमी ही नहीं है जिसके यहां छुप सके। हर खेत में यही चर्चा थी कि हरीबक्स आते ही रामनाथ उसकी लुगदी बना देगा। गांव से बाहर कितने दिन रहे आदमी!

और हुआ भी तो इतना ही था कि हरीबक्स का भैंसा खूंटा तुड़ाकर रामनाथ के बाजरे में घुस गया। अब इसमें न तो हरीबक्स की गलती है और न ही भैंसे की क्योंकि हरीबक्स ने रैवासा से मजबूत पत्थर भी इसलिये मंगवाया था कि खूंटा ना टूटे और वह झंझट से बच जाये। गलती भैंसे की भी नहीं मानी जा सकती है क्योंकि खूंटे से मुक्ति तो इंसान और जानवर दोनों को चाहिये। आप कह सकते हैं कि रामनाथ की गलती थी, उसे इतनी छोटी—सी बात पर लफड़ा नहीं करना चाहिये लेकिन गलती उसकी भी नहीं थी क्योंकि वह दूसरे के भैंसे की बात छोड़िये, अपनी बकरी भी खुलकर फसल में घुस गई तो कम से कम दो घंटे उसकी पिटाई पक्की और गाली तो कई महीनों तक मिलनी तय थी। ऐसे में भाई का भैंसा होने से क्या हुआ, सजा तो उसे भी मिलनी ही थी। सो, भैंसे की ठीक से धुनाई हुई और आस—पड़ौस के लोगों के लिये तमाशे का माहौल बन गया। हरीबक्स गांव में था। किसी छोरे ने जब उसे यह खबर सुनाई, तब से वह गायब है।

अब फैसला कौन करे ? कौन हरीबक्स को वापस घर आने की इजाजत दिलाये ?

फैसला तो रामकुमार चौधरी ही कर सकता था क्योंकि वही गांव का एकमात्र पटेल था। उसके रहते दूसरा कोई फैसला करने की सोच भी नहीं सकता। जिस दिन भैंसा खुला उसी दिन रामनाथ ने चौधरी के पास जाकर मामला दर्ज कराया, ‘‘साब, यह तो रोज—रोज का काम हो गया। हरीबक्स का कभी भैंसा खुलता है तो कभी बछड़ा। मेरी तो फसल चौपट हो जायेगी। कब तक चलेगा यह सब! फिर मत कहना पटेल कि बताया नहीं था। मुझे दिखते ही उसका सर फोड़ुंगा।''

‘‘सही बात है। फसल लाटना इतना आसान थोड़े ही है। अपने जानवरों को कसकर बांधणा चाहे भाई। मेरी बांधी हुई तो बकरी भी नहीं खुली आज तक। सीधी बात है कि उसने पोल देख रखी है। लेकिन तू यार सर मत फोड़णा, पंचायत में करेंगे फैसला और इस बार देखणा.......।'' चौधरी ने सुलगती को हवा दे दी।

‘‘भोत हो गया पटेल। सर न फोड़ुंगा तो टांग जरूर तोड़ुंगा। मेरे को दोष मत देणा।'' रामनाथ ने सीना फुलाकर कहा।

‘‘देख यार, टांग तोड़ेगा तो गांव तुझे ही बुरा कहेगा। पंचायत पर बिसवास रख।''

‘‘ठीक है, मैं जा रहा हूं और उसको समाचार पहुंचवा देणा, जहां भी हो पंचायत में आ जाये।'' रामनाथ चौधरी के कमरे से बाहर निकलने लगा।

‘‘पंचायत में नहीं आया तो गांव बाहर कर देंगे, तू आराम से जाकर सो।'' चौधरी ने पूरा विश्वास देकर रामनाथ को विदा किया।

फिर अंधेरी रात में चौधरी को वही पुराने सपने आने लगे कि हरीबक्स आयेगा और वह भी इसी तरह गिड़गिड़ायेगा। उसके घर पर पूछने वालों का तांता लग जायेगा। इन दोनों भाईयों को तो हर रोज चक्कर लगाने पड़ेंगे। फिर पंचायत बैठेगी और पटेल तो गांव में चौधरी अकेला ही है। सारा गांव उसका ही मुंह निहारेगा और उसकी अकड़ काबिले ग़ौर होगी। यह ख्याल आते ही चौधरी के तन में गुदगुदी होने लगी और मन में मुंछें आने का अहसास हुआ। कामभर की गर्मी होने के बावजूद उसने चादर खींची और सोने का नाटक किया। झूठे खर्राटे मारने लगा जी क्योंकि वह जानता था कि रात को हरीबक्स आयेगा अंधेरे में और पैर पकड़कर मामले को सुलझाने की गुजारिश करेगा। दिन में तो रामनाथ के डर से आ नहीं सकता। अब उसका घर में घुसने का दरवाजा चौधरी की हवेली से होकर गुजरना था।

रात के तकरीबन तीन बज गये और चौधरी बार—बार करवटें बदल रहा है। गर्मी भी लग रही है, पसीना आ गया है। कई बार मुंह की चादर हटाकर भी देख चुका है लेकिन हरीबक्स नहीं आया। आधे घंटे पहले कमरे के बगल से एक कुत्ता गुजरा था और उसकी आहट सुनकर चौधरी ने दुबकी मार ली थी। लम्बे इंतजार के बाद भी उसकी आशा सफल नहीं हुई तो कुत्ते—बिल्लियों को मन ही मन में जमकर गालियां दी। पूरी रात जाग में गुजार दी लेकिन हरीबक्स नहीं आया। ऐसा तो उसके जीवन में कभी नहीं हुआ था कि लड़ाई के चौबीस घंटे गुजर गये हों और दोनों पक्ष उसके सामने हाजिर नहीं हुये हों। तीस साल से पटेलाई कर रहा है। लेकिन आज ऐसा हो गया तो चौधरी को नींद आने का सवाल ही नहीं था।

पांच बजे उसके पेट में हल्का—सा मरोड़ा आया और वह पानी का लौटा लेकर खेत की तरफ चला। वह इतना तनाव में आ चुका था कि दिमाग ने कुछ भी सोचने से इंकार कर दिया। खेत की तरफ चला जा रहा था।

खेत में पहुंचने से पहले उसका अतीत तो जान लीजीये। रामकुमार चौधरी के चार और भाई हैं और वह कभी फौज में हुआ करता था। जंग के दौरान एक टांग में गोली लगने के कारण उसे घर भेज दिया गया था। सारा गांव उसे समझदार मानता था और सबसे ज्यादा उसके भाई। चारों भाइयों के घरों में उसकी मर्जी के बीना पत्ता भी नहीं हिलता। खाने के सामान की खरीददारी से लेकर तरकारी तक उसकी राय अमूमन फैसला ही मानी जाती थी। किसी भी भाई के घर पकवान बनता तो चौधरी के लिये एक कटोरी जरूर आती। कुछ दिनों तक तो वह शांत रहा लेकिन फिर अपने ही भाइयों को भिड़ाना शुरु कर दिया। बेवजह ही। जैसे एक बार बड़े भाई करणाराम के घर से चोरी हो गई थी तब रामकुमार ने सफेद झूठ बोला कि छोटे वाले बिड़दाराम को चोरी करते उसने देखा है। इसी बात पर ठन गई और बिड़दाराम ने अपने उस बड़े भाई के सर पर लाठी उठाई जिसके सर की तरफ कभी नजरें भी नहीं उठाई थी। पांच टांके आये थे और दिलों में दरारें आयीं वे अलग से।

अंत में तंग आकर चौधरी के चारों भाइयों ने उससे सलाह लेना तो दूर, बात करना भी बंद कर दिया। तब बारी आयी गांव की। जहां उसका मौका लगता, उसे ही उलझा देता। ऐसा उलझाता की सालों तक लोग सुलझ नहीं पाते और जब सुलझ भी जाते तो रिश्ते जुड़ने से रहे। हालांकि सीधे तौर पर इन मामलों में उसका कोई स्वार्थ नहीं होता था लेकिन एक बड़ा स्वार्थ यह था कि लोग उसको पूछने लगते, घर पर चक्कर लगाते और बेवजह ही सेवा भी करते। इन सबसे भी जुदा मसला यह था कि लड़ाई के कारण लोग कोर्ट—कचहरी के लिये चौधरी से उधार लेते और फिर ब्याज का चक्कर ऐसा चलता कि सालों तक कर्ज उतरने का नाम ही नहीं लेता। सुरक्षा भी एक मसला था। लड़ाई के बाद पुलिस तो हरदम गांव में रहती नहीं। हर पक्ष को अपनी सुरक्षा ‘स्वयं' करनी पड़ती जिसके लिये छोटे—मोटे हथियार भी खरीदने पड़ते और आप तो जानते ही हैं कि उधार कौन देता........हां....चौधरी ही। इस तरह कोर्ट में खड़े वकील की जेब में था चौधरी, पुरानी बहियों में दर्ज कर्ज में था चौधरी और यहां तक कि लोगों के घरों की खूंटियों में टंगी बंदूकों की नाल में था चौधरी। इसी वजह से तो गांव के आखिरी छोर पर रहने वाला मंगू ढ़ाडी उसे ‘अमरिका' कहता है। लेकिन बेचारे मंगू की बात कौन माने, सब पागल ही तो कहते हैं उसे। हरदम गाता रहता है।

कई दिनों से चौधरी सोच रहा था कि यह रामनाथ और हरीबक्स कब फंसे लेकिन ऐसा हो नहीं रहा था। वे दोनों आपस में लड़कर घर पर ही राजीनामा कर लेते। आज जब उसका मौका लगा तब ससुरा हरीबक्स गायब हो गया।

यह लो, चौधरी पहुंच गये खेत में। दिन उगने को है और जैसे फसलों की आंखें खुल रही हैं। नींद से जगकर अंगड़ाई लेती फसल देखने में समंदर की लहरों जैसी दिखती हैं और खुश्बू पता नहीं गंवार से गुलाब की आती है और बाजरे से शराब की। मगर चौधरी को यह सब देखने की फुर्सत कहां थी। वह जल्दी से फारिग होकर घर जाने की सोच रहा था, कहीं हरीबक्स आ गया और वह घर पर न मिला तो! वैसे वह जीवन में हर काम तयशुदा तरीके से करता था। एक निश्चित खाट पर सोना, निश्चित लौटे में पानी पीना और अलग थाली में खाना। इसी के साथ, खेत में पाखाना करने की जगह भी निश्चित थी। बड़ी खेजड़ी के बगल में और यह बात वह बड़े फर्क के साथ लोगों को बताया भी करता था। प्रेशर तेज होने के कारण जल्दी से पाजामा का नाड़ा खोलकर बैठने के लिये झुका ही था कि पीछे से आवाज आयी —

‘‘दादा....ओ....दादा।''

अचानक इस वक्त में चौधरी ने यह आवाज सुनी तो डर के मारे पाखाना कपाल में चढ़ गया। पीछे मुड़कर देखा तो खेजड़ी की ओट में हरीबक्स। कुर्ते से अपने गुप्तांगों को ढ़कते हुये चौधरी बोला, ‘‘आराम से हग तो लेने दे। तेरा झंझट भी सुलझायेंगे।''

‘‘ठीक है दादा, मैं इंतजार कर रहा हूं। जल्दी करना।'' हरीबक्स दूर जाते हुये दबी आवाज में बोला।

‘‘जल्दी करना....। मैं पकोड़ी उतारुंगा क्या यहां!'' चौधरी झुंझलाकर फारिग होने बैठ गया।

हमेशा वह फारिग होने में पांच—दस मिनट लगाता है लेकिन आज पूरा आधा घंटा लगाया। एक तो उसे योजना को ओर दुरुस्त करना था जिसके तहत हरीबक्स के मामले को सुलझाना था क्योंकि उसने इस विकल्प पर तो विचार ही नहीं किया था कि हरीबक्स पाखाना करने वाली खेजड़ी के पास मिलेगा। दूसरा कारण यह भी था कि उसे हरीबक्स पर झुंझलाहट भी थी कि एक तो रातभर आया नहीं और आया तो डरा दिया। ऐसे आदमी से आधा घंटा इंतजार करवाना तो बनता ही है।

बड़ी फुर्सत से फारिग होकर चौधरी ने लौटे में बचाये हुये आधे पानी से हाथ धोये। हरीबक्स बड़ा उतावला हो रहा था, ‘‘दादा, जल्दी करो, दिन निकल जायेगा। रामनाथ लट्‌ठ लेकर मेरे पीछे पड़ा है।''

‘‘देखो तो बेटा चौधराई कितनी कठिन है। लोग हगनें भी नहीं देते। बोलो क्या हुआ ?'' चौधरी हरीबक्स के सामने ही आकर बैठ गया।

‘‘हुआ कुछ नहीं। भैंसा था, खूंटा तुड़ा लिया और उसके बाजरे में चला गया। इसी बात पर लट्‌ठ लिये घूम रहा है। बोल रहा है कि मारुंगा। यह जायज है ?'' हरीबक्स ने सोर्टकट में बताया।

‘‘बिल्कुल नाजायज बात है। जानवर तो जानवर होता है। उसके गाय—भैंस कौन—से खुलते नहीं है, तुम्हारी फसल में भी घुसे होंगे ?''

‘‘हां, कई बार।''

‘‘तब तू लट्‌ठ लेता तो रामनाथ कब का ही पुराना हो जाता।''

‘‘मैंने तो नीची खींच रखी है दादा। फिर भी नहीं मानता।''

‘‘देख बेटा, भले का जमाना लद गया। लाठी का जवाब लाठी से ही देना पड़ेगा।''

‘‘भाई पर मेरे से लाठी नहीं उठाई जायेगी।''

‘‘तू कौन—सा दुश्मन है ? वह तो उठा रहा है। बाकि तेरी मर्जी।''

‘‘ओर कोई उपाय है क्या ?''

‘‘रामनाथ के बच्चे का तो लाठी के अलावा धरती पर कोई उपाय नहीं है।''

‘‘फिर उलाहना मत देना।''

‘‘उलाहना किस बात का ? पहल तो उसने करी है। और अकेला मत समझना अपने आप को। पैसा चाहिये तो पैसा ले जा। सात बंदूकें पड़ी हैं घर में। तेरे को कभी मना थोड़े ही किया है।''

‘‘ठीक है दादा।'' हरीबक्स उठा और इधर—उधर मुआयना करके जाने लगा।

‘‘और सुन! जान से मत मार देना।'' चौधरी ने अंतिम सीख दी क्योंकि जान से मारने से मामले का एक पक्ष खत्म हो जायेगा और मामला सुलझ जायेगा और अगर मामला सुलझ गया तो चौधरी......।

खैर, हुआ यह कि हरीबक्स ने रामनाथ का सर फोड़ा और रामनाथ ने हरीबक्स की टांग तोड़ी। अंततः पंचायत बैठी और चौधरी रामकुमार ने फैसला सुनाया कि दोनों अपने पशुओं को मजबूत रस्सी से बांधें और अपने हक की ‘स्वयं रक्षा' करें।

बस, इस ‘स्वयं रक्षा' के चक्कर में दोनों दूसरे ही दिन फिर उलझ पड़े और कोर्ट कचहरी हो गया। फिर गड़े मुर्दे उखाड़े गये कि अकाल वाली साल मैंने तुम्हें दो बोरी गेंहू दिया था, ब्याज सहित वापस करो। उधर से जवाब आया कि तूने जब मकान बनवाया था तो मैंने बिना मजदूरी लिये काम किया था, ब्याज सहित वापस करो। ऐसे मामलों का कभी निपटारा हुआ है। कभी थाने में जूती घिसते रहे तो कभी चौधरी की हवेली पर। इस केस से यह हुआ कि गांव वालों ने भी चौधरी की बात सुनना बंद कर दिया। कोई न्याय कराने जाता ही नहीं। हवेली के चबूतरे पर अकेला बैठा रहे लेकिन कुत्ता तक न पूछे।

कैसे जीये रामकुमार चौधरी ? खाना, सोना और कुछ जरुरी काम करने से उसका जीवन चल ही नहीं सकता। भूख भी ठीक से नहीं लगती है। पहले दोनों वक्तों की आठ रोटियां खा लिया करता था। अब चार में आ गया।

दो बेटे हैं ना!

बेटों से मतलब ?

मतलब, बेटों को उलझाना शुरु कर दिया। अपने धंधों में लगे हुये थे दोनों। एक की प्राइवेट स्कूल थी तो दूसरे ने होटल कर रखी थी। किसी तरह का झगड़ा होने का सवाल ही नहीं था। चौधरी ने यह किया कि छोटे बेटे को नजदीक लेना शुरु किया। जब रात को वह होटल से आता तो उससे बातें करता लेकिन जयराम उसे ज्यादा तव्वजो नहीं देता। फिर चौधरी ने अपनी पेंशन के पैसे भी उसे देने लग गया। पैसा तो तव्वजो ले लेता है। जयराम का चौधरी के प्रति रवैया ही बदल गया। रोज सीकर से सेव आने लगे और सेवा अलग से। सेव खाकर चौधरी जयराम को बड़े बेटे रामतीर्थ के प्रति भड़काता रहा। जब उसे लगा कि अब मामला पक गया है तो एक दिन शाम को जयराम को बड़े प्यार से कहा —

‘‘मैं तेरी सेवा से खुश होकर तुझे कुछ देना चाहता हूं।‘‘

‘‘दे दो बापूजी।'' जयराम बात पकड़ नहीं पाया।

‘‘सारी जायदाद तेरे नाम करवाना चाहता हूं।'' चौधरी ने मारा तीर।

‘‘लेकिन रामतीर्थ का क्या करेंगे ? वह भी बेटा है।''

‘‘वह किस काम का। मेरे नाम पर कलंक है।''

फिर क्या था, दूसरे ही दिन तहसील जाकर सारी जायदाद जयराम के नाम कर दी। चौधरी की सेवा और ज्यादा होने लगी। सेव के साथ अंगूर भी आने लगे। लेकिन उसकी सेहत को सेव नहीं कुछ ओर चाहिये था। अब भी मायूस था। रामतीर्थ सीकर रहता है। उससे कैसे मिले ? एक दिन किसी सीकर जाने वाले एक बंदे के साथ रामतीर्थ को संदेशा भिजवाया कि तेरे बापूजी बहुत बीमार हैं, मिलने आओ। रामतीर्थ सारे काम छोड़कर आ गया। चौधरी के पास बैठा, सेहत की खबर ली। कुछ देर बाद चौधरी ने मन की कह डाली —

‘‘तू मेरी सेवा कर सके है। जयराम तो पूछता भी नहीं। सारी जायदाद अपने नाम लिखवा ली। लट्‌ठ लेकर मेरे से भी साइन करा लिये।''

चौधरी ने दिखाने के कुछ आंसू भी बहाये। रामतीर्थ ने तहसील जाकर पता किया तो बात सच। दोनों भाईयों में बजे लट्‌ठ और फिर कोर्ट—कचहरी। चौधरी की तबीयत चंगी। गांव वाले कहने लगे, ‘‘अब बेटों का नम्बर लिया है उलझाऊ चौधरी ने।''

कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद करीब पांच सालों बाद दोंनों भाई में राजीनामा हुआ और चौधरी को घर से अलग एक मकान बना दिया। वहीं अकेला रहता है। कोई नहीं पूछता।

कैसे जीये रामकुमार चौधरी ? परेशान है।

एक दिन शाम खेत की तरफ पाखाना करने गया था। जोहड़ी में गांव के गंदे पानी के लिये कुआ खुद रहा था। देखते ही उसे एक ख्याल आया। खेत से एक रस्सी लेकर आया। अंधेरा हो गया था किसी ने देखा भी नहीं। एक पत्थर के रस्सी बांधकर कुएं में उतर गया। कुआ करीब चालीस फिट गहरा था। वह अंदर बैठा सोच रहा था कि अब तो कम से कम उसके बेटे तो उलझ ही जायेंगे की आखिर बुड्‌ढ़ा गया कहां ?

हुआ भी यही कि जयराम रोटी देने गया तो चौधरी कमरे पर नहीं मिला। इधर—उधर देखा तो भी पता नहीं चला। रामतीर्थ को फोन किया तो वह तुरंत सीकर से गाड़ी लेकर आ गया। दोनों भाई खोजने निकले, दूर टीलों में उलझे पड़े हैं। चौधरी ने कुएं से अजीब आवाजें देना शुरु कीं तो गांव वाले डर गये। रात को पास जाने की किसी की हिम्मत नहीं, वे इस उलझन में हैं कि यह बला क्या है ?

चौधरी के दिल को अब तस्सली मिली है और वह खुश होकर कुएं में ही उछलने लगा। आधी रात को हर तरफ सन्नाटा है और दूर से मंगू के किसी गाने के बोलों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सुन रहा है। अचानक उसके पैरों का किसी रस्सी में उलझने का अहसास हुआ। छूकर देखा तो वही रस्सी थी जिसके सहारे कुएं में कूदा था।

‘इती मजबूत बांधी थी पत्थर से। कैसे खुल गई! अब बाहर........।'' कुएं में उल्झे हुये चौधरी के दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था।