किस्तों की मौत
‘‘इंसान रोज ही नहीं हर पल मरता है, जब वह अंतिम रूप से मरता है तो दुनियां को लगता है कि फलां मर गया। लेकिन रोजाना जो किस्तों में मरता है उसका क्या ?''
राजस्थान के मरुस्थल में टीलों के पीछे इतने गांव और ढाणियां (गांव का छोटा रूप) बिखरे पडे हैं कि अगर समेटने लगो तो एक समानान्तर दुनिया तैयार हो जाएगी।
इन टीलों के बीच एक ऐसा ही गांव करमलिका था। एक तरफ सड़क और तीन तरफ रेत के पहाड़, जिन पर कहीं कहीं खेजड़ी के पुराने पेड़ अपने अस्तित्व की आखिर लड़ाई लड़ रहे थे। इसी पेड के नीचे बैठकर पेमा पटेल ने अपना फैसला दिया था या इसी खेजड़ी के पेड़ की अंतिम टहनी तक कोई चढ़ जाता तो उसके साथ गांव की किसी लड़की का विवाह कर देते लेकिन आज तक कोई भी चढ नहीं पाया। ऐसी अनेक कहानियां हर पेड़ के साथ जुड़ी थी। आज उन कहानियों के पात्रों को कोई नहीं जानता मगर लोगों की स्मृतियों में वे इस कदर पैठे हुए हैं कि रोज एक नई कहानी का जन्म हो जाता है।
यह गांव बस कहने भर को ही गांव नहीं, असल में गांव है। गलियाें में कोलतार की सड़कों की जगह कच्ची इंटों का रास्ता देखकर सिंधुघाटी सभ्यता की याद आ जाती है।
बीरसिंह और उसका बाप हीरसिंह दोनों मर गए। जब हीरसिंह मरा तो 150 बीघा जमीन का अकेला वारिस बीरसिंह को छोड़कर गया था। कभी कभी ज्यादा जायदाद भी इंसान को काम चोर और निकमा बना देती है फिर बीरसिंह किस खेत की मूली था। उसने होष संभालते ही तय कर लिया था कि हाथ पांव हिलाना गधों का काम है और वह गधा नहीं है। बस, इसी सोच के कारण वह जल्दी ही अपने पैरों पर खड़ा हो गया, यानी जमीन बेचकर गुजारा करना षुरू कर दिया। जब जरूरत होती एक दो बिघा जमीन बेच देता, ताजुब तो यह है कि उसे लगातार जरूरत भी होती रही।
वह सुबह उठते ही खेत की तरफ सोच के लिए जाता, वापस आते वक्त रास्ते में एक दो पवा देषी ठरका लेता। बीरसिंह इतना ही काम करता, बाकि दिनभर जो करना होता दारू कर देती।
लोग षराब को बूरी बताते हैं मगर सच तो यह है कि षराब बूरी नहीं है, बूरा है पीने वाले का इरादा। वह किस इरादे से पी रहा है ? पीने वाला षराब को बहाना बनाकर किसी को गाली देना चाहता है या फिर अपना हाजमा ठीक करना चाहता है।
उसने 50 साल की उम्र में 50 बीघा जमीन खत्म कर ली और खुद को भी। उसके मरने से करमलिका गांव में कोई खास बदलाव नहीं आया सिवाय बीरसिंह के खेत में तीन मूर्तीयों की स्थापना के। उसके पाचं बेटे हैं जिनके नाम गिनाने से बेहतर है कि उन्हें नम्बर से ही पहचाना जाए क्योंकि फिर कहानी में इतने ‘सिंह‘ हो जाएंगे कि पाठक समझ न पाएं। 1 नम्बर बड़े वाला, 2 नम्बर उससे छोटे वाला .........बाकि भी इसी क्रम में।
गांव के उत्तर में एक तरफ सड़क थी और दूसरी ओर नहर, इन दोनों के बीच वो खेत था जिसे बीरसिंह अपनी तमाम कोषिषों बाद भी बेच नहीं पाया और उसी में उसके बेटों ने तीन मूर्तीयां बना दी। एक मूर्ती हीरसिंह की, दूसरी बीरसिंह की और तीसरा खाली चबूतरा.....।
पास जाने पर पत्ता चलता है कि मूर्तीयां सफेद संगमरमर की बनी हुई हैं, दो चबूतरों पर दो मर्द मूछों पर ताव दे रहे हैं और तीसरा फकत चबूतरा।
इसी खाली चबूतरे को देखकर उचित का दिमाग चकरा गया था कि ये क्या ? वह 22 साल का नौजवान था लेकिन अजीब आदतों का धनी। फितरत से घूमकड़, खाली जेब, न कमाने फिक्र और न ही कुछ खोने का डर। नतीजा यह था कि कब किसके यहां टपक जाए तय नहीं था।
स्टेषन पर पहुंचकर फोन करेगा कि मैं तेरे षहर में हूं आ जाओ। ऐसे ही इस गांव का भी नम्बर आ गया। लेकिन उस खाली चबूतरे को देखकर तो उसका दिमाग चकरा गया कि यह क्या ? जब नजदीक गया तो तीनों चबूतरों पर कुछ लिखा हुआ था। एक पर हीरसिंह की जन्मतिथी और मौत की तारीख, दूसरे पर बीरसिंह की जन्मतिथी और मौत की तारीख। मूर्ती को देखकर कहीं से भी जाहिर नहीं होता कि बीरसिंह दारू पी कर मरा है। पत्थर कितना कुछ छुपा लेते हैं और कितनी चीजें बयां भी कर देते हैं। अब तीसरा चबूतरा था जिस पर बीरसिंह की पत्नि रूकमा का नाम, जन्मतिथी और मौत की तारिख....।
यह क्या !
बीरसिंह और रूकमा की मौत की तारीख एक ही, क्या दोनों एक ही दिन मरे थे ? अगर ऐसा था तो रूकमा की मूर्ती कहां या फिर मूर्ती नहीं रखनी थी तो चबूतरा क्यों बनवाया ?
ऐसे कई सवाल उचित को घेर लिए। झोले में से पानी की बोतल निकालकर पानी पीया। सोचा एक फोटू ले लूं। तभी ख्याल आया कि अभी असली कहानी तो जान ले। कैमरा वापस झोले में रखा और आकर नहर के किनारे बैठ गया।
षाम ढ़ल रही थी, लोग खेतों से लौट रहे थे। उचित के दिमाग में वो अनसुलझे सवालात मोम की तरह जमे थे, जिन्हें एक आंच की जरूरत थी जो पिघालकर बहा सके।
रास्ते से ऊंट गाड़ीयों का रेला आ रहा था जिन पर बैठे रंग बिरंगे कपड़े पहने स्त्री पुरूश इंद्रधनुश बनाते हुए पसीने की बू बखेर रहे थे। एक, दो, तीन............लम्बी लाईन थी। लाईन के आखर वाली ऊंटगाड़ी जब नहर के ऊपरी पुल से गुजरी तो उचित उसके पीछे हो लिया। ये सब किसान थे जो खेतों से लौट रहे थे। उसे यह रसभरी जिंदगी पसंद थी जो रातभर सींचे रस को सुबह खेत में बिखेरती हो और दिनभर इक्कटी की रस की ऊश्मा को षाम को घर लाती हो। धरती और किसान — एक दूजै के लिए।
बीरसिंह की हवेली गांव के मुख्य चौक में पूर्व की तरफ थी। हवेली इतनी बड़ी थी कि पांचों बेटों के लिए पर्याप्त। पांचों उसी में रहते थे, रहते क्या थे वो एक तरह से अखाड़ा थी जिसमें आए दिन कोई न कोई दंगल चलता रहता था। गांव वालाें के पास यह एक स्थायी मनोरंजन का साधन था, जिनकी छत पास में थी वो बालकनी का लुत्फ उठाते थे। बाकि दिवारों पर टंग कर काम चलाते। उचित कुछ दिन यहीं रूकने की ठान चुका था, रहने के लिए उसके गांव का वो पोस्टमैन (बजरंग) था ही। बजरंग पोस्ट ऑफिस के पास एक किराए के कमरे में रहता था, जिसमें उचित भी दो दिन से रह रहा है और अब तो यह भी तय हो गया है कि वो आगे सात महिने यहीं रहेगा। यह उसने खुद तय किया था, होषो हवास में।
पोस्टमैन के कमरे में एक चारपाई थी, किसी से उधर ली हुई। कुछ खाने पीने के बर्तन थे, उचित के हिसाब से कामभर का सामान था। चीजें सब अस्त व्यस्त थी जैसे आम कुंवारों के कमरों की होती हैं। उस कमरे की एक खूबी उसके बहुत काम आयी कि पीछे एक खिड़की थी जो बीरसिंह की हवेली के पिछवाड़े की तरफ खुलती थी। यानी वो अखाड़ा तो नहीं लेकिन नेपथ्य देख सकता था, उसके लिए नेपथ्य ही जरूरी था। वह वहीं से बीरसिंह की पत्नि रूकमा के हर क्रियाकलाप को देख सकता था। पांचों बेटों ने मिलकर पीछे पषुओं को बांधने की जगह रूकमा के रहने की व्यवस्था कर दी थी। व्यवस्था क्या थी, 6 ईंटों से एक चुल्हा बना दिया, एक टूटी हुई चारपाई और ढ़क्कन वाले पीपे में आटा, नमक और मीर्च। एक तवा और चिमटा भी रूकमा को नसीब हुआ।
हां, एक चीज और थी— मूर्ती।
रूकमा की सफेद संगमरमर की मूर्ती जो बीरसिंह के मरते ही दोनों की साथ ही बनवा दी थी। रूकमा का खाली चबूतरा खेत में था और मूर्ती घर में उसके मरने का इंतजार कर रही थी यानी रूकमा आधी खेत में और आधी घर में।
‘‘एक इंसान के सामने उसकी मौत का इंतजार करता हुआ पत्थर हो तो कैसे जीता होगा वह ? ‘‘ उचित उस खिड़की में बैठा हुआ अकसर यही सोचता था।
रूकमा के पास ही भैंस व बकरीयों को बांधा जाता था।
वह सुबह उठते ही उस मूर्ती को देखती, दोपहर को देखती, षाम को देखती और रात को देखती यानी चौबीस घंटे में चार बार देखती।
एक दिन भैंस ने खूंटा तोड़ दिया, बेटा नम्बर 1 बोला, ‘‘दिनभर पड़ी रहती है, एक खूंटा ठीक से नहीं गाड़ सकती।‘‘
अब रूकमा चौबीस घंटे में मूर्ती को दो बार ज्यादा देखने लगी। ऐसे ही देखते देखते रोज कोई परिवारवाला कुछ कह देता और रूकमा का गुस्सा मूर्ती पर उतरता। उचित मूकदर्षक था।
एक दिन सुबह सुबह बेटे नम्बर 5 के पास कोई मेहमान आया हुआ था और रूकमा के पास माचिस खतम हो गई। वह माचिस लेने हवेली में चली गई तो कौन सा जुर्म कर दिया था ?
उसे देखते ही 5 नम्बर बेटे को गुस्सा आ गया, ‘‘हमने तो मरने से पहले मूर्ती भी बनवा दी मगर यह मरकर पीछा छोड़े तब ना, मेहमान आया हुआ है और आ गई अपनी मनहुस सूरत दिखाने‘‘।
रूकमा के पैर वहीं रूक गए, अब माचिस में क्या रखा था।
पिछवाड़े आकर दीवार का सहारा लेकर एकटक उस मूर्ती को देखने लगी। सुबह से षाम तक वैसे ही देखती रही, एक तरफ जिंदा औरत जो मूर्ती जैसी खड़ी थी और एक तरफ मूर्ती जो जिंदा औरत की थी।
उचित को लगा कि अब षायद कहानी खत्म हो जाए मगर कहानी का अंत कुछ और ही था। रूकमा रातभर भी वैसे ही खड़ी रही, बेटों को तो कुछ लेना देना था नहीं, दूसरा क्यूं डिस्ट्रब करता। दूसरे दिन भी वैसे ही। उचित कहानी के खत्म होने का इंतजार कर रहा था मगर खत्म नहीं हो रही थी।
अब नहीं रहा गया, ‘‘एक औरत मेरी आंखों के सामने जुल्म से तंग है और मैं कहानी लिख रहा हूं ?‘‘
‘‘डायरी मैं इतना ही लिखा हुआ है बाकि मैं अपनी यादाष्त के आधार पर लिख रहा हूं।''
उचित जाकर रूकमा को बोला, ‘‘आप दो दिन से खड़े हैं..........।‘‘
कोई उत्तर न मिलने के कारण उसने सोचा कि षायद कम सुनता होगा, जोर से कहा। मगर जवाब कहां था?
उसनेे कान में जोर से कहने के लिए हाथ पकड़ा .............ध....ड़ा...........म।
वह तो कब की मर गई थी, हिलते ही गिर गई।
उचित कुछ समझ पाता इससे पहले ही 1 से 5 नम्बर तक के बेटे आ गए और उसे पकड़ लिया कि उसने उनकी मां को मारा है।
पुलिस आयी, उसे गिरफ्तार कर लिया।
मुकदमा चला तो उचित एक ही बात कह रहा था — ‘‘इंसान खुद नहीं मरता, दूसरे लोग मार देते हैं।''
जज जो भी सवाल पूछता जवाब यही था।
मैंने भी उचित की बात को समझाने के लिए यह कहानी लिखी मगर जज साहब बोले, ‘‘कानून किस्से कहानियों को नहीं मानता, सबूत लाओ।‘‘
डाकिया कहां से सबूत लाता ?