मुसाफ़िर बैठा की कविताएँ
आत्मवृत्त / मुसाफ़िर बैठा
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जन्म तिथि - 05 जून, 1968 (शैक्षिक प्रमाण-पत्रों में दर्ज, यकीनी बिल्कुल नहीं)
पारिवारिक पृष्ठभूमि - बिहार प्रांत के सीतामढ़ी जिले के गांव, बंगराहा में एक कबीरपंथी दलित भूमिहीन परिवार में जन्म। अक्षरवंचित माता पिता के जीविकोपार्जन का एकमात्र जरिया पुश्तैनी कपड़ा धुलाई रहा।
पढ़ाई लिखाई - पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी दलित आत्मकथा विषय में पी-एच. डी.
हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य एवं लोकप्रशासन में स्नातकोत्तर-
समाजशास्त्रा में स्नातक (प्रतिष्ठा)
अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा-
पत्राकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा-
सिविल इंजीनियरी में त्रिवर्षीय डिप्लोमा-
उर्दू में सर्टिफिकेट एवं डिप्लोमा
नौकरी - अभी गृह सूबे की राजधानी स्थित एक सरकारी संस्था की प्रकाशन शाखा में-
पूर्व में इसी प्रांत के बैंक तथा शिक्षा एवं सहकारिता विभाग में
रचनाकर्म -तकरीबन एक दशक से रचना सक्रियता, वैसे बीजवपन स्कूली दिनों ही, कोई दो दर्जन कविताएं इस बालमन के बटुए से
- कविताएं, लघुकथाएं, कहानियां, आलेख, निबंध, समीक्षा, अनुवाद, रपट, सामयिक टिप्पणियां इत्यादि हंस, कथादेश, आलोचना, नया ज्ञानोदय, कादंबिनी, वर्तमान साहित्य, समकालीन जनमत, जनविकल्प, युद्धरत आम आदमी, अपेक्षा, दलित साहित्य, बयान, संवेद, साक्ष्य, आज, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, प्रतियोगिता दर्पण जैसे प्रमुख पत्रा पत्रिकाओं में प्रकाशित
-‘आद्री’ एवं ‘दीपायतन’ जैसी स्वायत्त-स्वयंसेवी संस्थाओं की कार्यशालाओं में सहभागिता, शैक्षिक- शिक्षेतर पुस्तकों का लेखन
-पूर्व आई.ए.एस. डा. ए. के. विश्वास की अंग्रजी पुस्तक 'अंडरस्टैंडिंग बिहार' का हिन्दी अनुवाद, एक आलोचना पुस्तक दलित साहित्य और हिन्दी दलित आत्मकथाएं एवं बाल काव्य-संग्रह मेरे साथी ऐसे हैं प्रकाशनाधीन
सम्मान/पुरस्कार - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का नवोदित साहित्यकार पुरस्कार-1998-99
कादंबिनी एवं प्रतियोगिता दर्पण द्वारा आयोजित अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं में कतिपय आलेखों -निबंधों को प्रथम व उल्लेखनीय स्थान प्राप्त
संपर्क - बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे, दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा
डाकघर - वेटेरिनरी कालेज, शेखपुरा, पटना, बिहार, पिन-800014
1) बिटिया की जन्मकथा
जबकि
जिस साल मेरी नई नई नौकरी लगी थी
उसी साल नौकरी बाद
आई थी मेरे घर पहली मनचाही संतान भी
यानी दो दो खुशियाँ अमूमन इकट्ठे ही मेरे हाथ लगी थीं
तिस पर भी
इस कन्या जनम पर
कम दुखीमन नहीं था मैं
उसके इस दुनिया में कदम रखने के दिन
अपनी सरकारी नौकरी पर था
घर से कोसों दूर
इस खुश आमद से बिलकुल बेगाना
मुझे इत्तिला करने की घरवालों ने
जरूरत भी महसूस न की थी
और पूरे माह भर बाद
घर जा पाया था मैं
घर पहुंचने से ठीक पहले
बाट में ही
अपने को मेरा हमदर्द मान
एक पुत्रधनी सज्जन ने मुझे बताया था
कि महाजन का आना हुआ है तेरे घर
उसके स्वर में
सहानुभूति और चेताने के द्वैध संकेत
सहज साफ अंकित थे
इध र मैं बाप बनने का संवाद मात्र पाकर
पुलकित हुआ जा रहा था
मैं तो बाल नामकरण पर
एक किताब भी खरीद लाया था
कि मेरे मन की मुराद पूरी हुई थी
चाहता था
कि यह अपूर्व हर्ष
उस खबरची मित्र से भी हमराज करूँ
पर चाहकर भी बांट नहीं पा रहा था
बेशक इसमें वह मेरा छद्म टटोलता
घर पहुंचकर पत्नी से जाना
कि कैसी ललक होती है प्रसूतिका की
अपने साझे प्यार की सौगात को
उसके जनक के संग इकट्ठे ही
निहारने सहेजने की
कि दूसरा जन्म ही होता है औरत का
प्रसूति से उबरकर
और इन बेहद असहज अमोल पलों में
जातक के सहसर्जक को
खुद के पास ही पाने की
हर औरत की उत्कट चाह होती है
कि मेरा इन नाजुक पलों में
उसके पास न रहना....
कितना कुछ बीता था उसपर
जबकि
ऐन दूसरे प्रसव के दिनों
एकबार फिर जीवनसंगिनी से दूर रहकर
बदहवास लिख रहा हू मैं
यह अनगढ़ संगदिल कविता --------
2) मैं उनके मंदिर गया था
उस दिन मैं उनके मंदिर गया था
चाहा था अपने ईश की पूजा-अभ्यर्थना करना
मंदिर द्वार पर ही मुझे धो दिया उन्होंने
लत्तम-जुत्तम कर अधमरा कर दिया
मेरी धुलाई का प्रसंग स्पष्ट किया-
चूहड़े चमार कहीं के
गंदे नाली के कीड़े
गांधी ने हरिजन क्या कह दिया
दौड़े चले आये हमारी देवी माँ के यहाँ
अपनी गंदगी फैलाने
किसी के कह देने भर से
लगे हमारी तरह के
हरिजन बनने का स्वप्न देखने
मुझे क्या था मालूम
कि हरि पर तो
कुछेक प्रभुजन का ही अधिकार है
और इस देवी मंदिर को
ऐसे ही प्रभुजनों ने
अपनी खातिर
सुरक्षित कर कब्जा रखा था
मेरे अंतर्मन ने
ईश्वर के बौनेपन का साक्षात्कार किया
और आप-ही-आप सवाल किया
फ्लैश बैक में कुछ टोहने टटोलने लगा
विद्या की देवी सरस्वती
धन की लक्ष्मी
हमारे तैंतीस करोड़ देव-देवियों का हुजूम
अब सौ करोड़ भारतीयों में एक देव के हिस्से
अमूमन तीन आदमी का सुरक्षा दायित्व
बल्कि विधर्मियों, ईश-उदासीनों की संख्या को घटाकर और भी कम लोगों का
फिर भी हम रहे सदियों
विद्या वंचित अकिंचन धनहीन
क्योंकर पाता कोई हमारा
हक, हिस्सा और स्वत्व ले छीन
क्या यह एक सवाल हो सकता है
कि औरों से मुंह फेरे जो ईश्वर
समाज-सत्ता संचालकों के घर जा बैठता है
ईश्वर उनका ही परिकल्पित-मनोकामित
उनके ही गुणसूत्रों का धारक
कोई अनगढ़ अन्यमनस्क पैदावार तो नहीं
हमीं में से जो लोग
ईश्वर की सत्ता शक्ति लौट आने के इंतजार में हैं
इंतजार की अनगिन घड़िया गिनते रहें
फिर जाएं मंदिर
पाते रहें प्रसाद ईश-प्रीत के
मैं तो अब महसूस गया हूं
कि दरहकीकत
यह कमबख्त ईश्वरीय सत्ता ही
प्रभुवर्ग की प्रभुता का सबब है
और हमारी अशक्यता
हमारे पराभव का कारक भी
अब हमें किसी गैरदुनियावी, अलौकिक
शक्ति सहायता की दरकार नहीं
किसी का इंतजार नहीं करना
अपने बाजुओं का ही अहरह भरोसा है -------
3) खल साहित्यिकों का छल वृत्तांत
अपने गिरोह के मुट्ठी भर खल साहित्यिकों के साथ
मिल बैठ कर खड़ा किया उन्होंने
किसी कद्दावर कवि के नाम पर एक ‘सम्मान’
और वे सम्मान-पुरस्कर्ता बन कर तन गए
इस तिकड़म में महज कुछ सौ रुपयों में
अपने लिए पूर्व में खरीदे गए
दिवंगत साहित्यकारों के नाम के
कुछ क्षुद्र सम्मानों का नजीर उनके काम आया
अपने नवसृजित सम्मान के कुछ शुरुआती अंकों को
उन्होंने उन पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों पर वारा
जो उनकी घासलेटी रचनाओं को
घास तक नहीं डालते थे
फिर तो उनकी और उनकी थैली के चट्टों-बट्टों की
कूड़ा-रचनाएं भी हाथों हाथ ली जाने लगीं यकायक
अपनी जुगाड़ी कल के बल सरकारी नौकरी हथियाए
इस गिरोह के सिरमौर कवि ने लगे हाथ एक सम्मान
अपने कार्यालय बॉस पर भी चस्पां करवा डाला
ताकि फूल फूल कर बॉस और अधिक फलदायी बन सके
अब यकीनन इस फिराक में था यह दूरंदेशी कवि
कि अपने कुल-खानदान के चंद और नक्कारों को भी
बरास्ते बॉस-कृपा वहीं कहीं अटका-लटका सके वह
महज अपने कवि-कल व छल-बल के बलबूते ही
कविता के प्रदेश में गुंडई कर्म की
बखूबी शिनाख्त करने में लगा यह कवि
और उसके कुनबे के इतर जन भी
दरअसल स्वयं क्या साहित्य में
एक और गुंडा-प्रदेश नहीं रच रहे थे !
4) मेरी देह बीमार मानस का गेह है
मेरी देह बीमार मानस का गेह है !
मैं कहीं घूम भर आने का हामी नहीं
यहां तक कि अपनी जन्मभूमि बंगराहा
घर के पास ही स्थित
कथित सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी भी(
थोथी वंदना श्रद्धा नहीं होती
सम्यक् कर्म की दरकार है)
मैं विकलांग श्रद्धा में विश्वास नहीं रखता
मेरे दोनों हाथ सलामत हैं साबुत हैं
मगर ये बेजान-से हैं
जड़ हैं इस कदर कि उठते नहीं कभी
किसी ईश-मसीह की वंदना तक में
माना
ये कमबख्त हाथ एक नास्तिक के हैं
फिर भी क्या फर्क पड़ता है
भक्तजनों के बीच
झूठे-छद्म संकेत तो भर सकते थे ये
वंदना की संकेत-मुद्रा में उठकर !
मेरे आंख-कान विकलांग-से हो चले हैं
इस विकलांग विचार के दौर में
मेरी श्रवण-शक्ति का चिर लोप हो गया है शायद
मेरे कान और मेरी आंखें
गोपन गोलबंदियों-विमर्शों का
न चाहकर भी
आयोजन-प्रायोजन विलोकने को विवश हैं
क्या हमारा साहित्य हमारी संस्कृति
और फिर यह समूचा समाज ही
ऐसे ही गुह्य-गोपन संवादों से अंटा पड़ा नहीं है!
किसी के पास कई-कई अल्फाज हैं
और चेहरे भी(
चोली दामन का साथ!)
जिससे हासिल की जा सके
शब्दों की निरी बाजीगरी करने की
कला में महारत
होगा दिल उसके पास और दिमाग भी
और और बहुत कुछ उसमें
गढ़ने की खातिर
महज खुदगर्जी अपनापा
साहित्य के सोहन दरख्तों के बीच
उग आया यह कैक्टस
चुभने-खरोंचने का अपना जातिगत भाव-स्वभाव
कैसे छोड़ सकता है भला !
इन चेहरों की चमक और चहक की मात्राा
इनके भीतर कुल जमा खोखलेपन का समानुपातिक है
बेशक
अच्छे-बुरे की पहचान रखना
सबके बस का रोग नहीं
पर कुछ में यह काबीलियत है(
ये क्योंकर मानने लगे
कि ‘परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्’ ही
अच्छे-बुरे का मानदंड है)
मैं नहीं जानता
अच्छे-बुरे की पहचान रखने के ये उद्घोषक
खुद कितने पानी में हैं !
फरवरी 2001
5) बुद्ध फिर मुस्कुराए
अपने जीवनकाल में किसी सामाजिक प्रसंग पर
कभी मुस्कुराए भी थे बुद्ध
यह आमद प्रश्न इतिहास सच के करीब कम
कल्पना सृजित ज्यादा है
यदि कभी मुस्कुराए होंगे बुद्ध
तो इस बात पर भी जरूर
कि धन वैभव राग विलास जैसा भंगुर सुख भी
हमारी जरा मृत्यु की अनिवार गति को
नहीं सकता लांघ
और इसी निकष पर पहुंच
इस महामानव ने किया होगा
इतिहास प्रसिद्ध महाभिनिष्क्रमण
बुद्ध फिर मुस्कुराए-
अव्वल तो यह कथन ही मिथ्या लगता है
बुद्ध की हेठी करता दिखता है यह
अबके समय में
मनुष्य जन्म की बारंबारता को
इंगित करता है यह कथन
जबकि एक ही नश्वर जीवन के
यकीनी थे बुद्ध
अहिंसक अईश्वरीय जीवन के
पुरजोर हिमायती थे वे
अगर होते तो
अपने विचारों के प्रति
जग के नकार भाव पर ही
सबसे पहले मुस्कुराते बुद्ध
पोखरन के परमाणु विस्फोट पर
बुद्ध के मुस्कुराने का
बिम्ब गढ़नेवालों की सयानी राजबुद्धि पर भी
कम नहीं मुस्कुराते बुद्ध
बामियान की बुद्धमूर्ति श्रृंखला की बुद्धमूर्ति को
हत आहत करनेवाली शासकबुद्धि की
शुतुरमुर्ग भयातुरता पर भी जरूर
मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते बुद्ध
और तो और
होते अगर अभी बुद्ध
तो देखने वाली बात यह होती
कि अपने नाम पर पलने वाले
तमाम अबौद्ध विचार धर्म को देख ही कदाचित
सबसे अधिक मुस्कुरा रहे होते बुद्ध ।
बुद्धजयंती 2008
6) सुनो द्रोणाचार्य
सुनो द्रोणाचार्य
सुनो
अब लदने को हैं
दिन तुम्हारे
छल के
बल के
छल बल के
लंगड़ा ही सही
लोकतंत्रा आ गया है अब
जिसमें एकलव्यों के लिए भी
पर्याप्त ‘स्पेस’ होगा
मिल सकेगा अब जैसा को तैसा
अंगूठा के बदले अंगूठा
और
हनुमानकूद लगाना लगवाना अर्जुनों का
न कदापि अब आसान होगा
तब के दैव राज में
पाखंडी लंगड़ा था न्याय तुम्हारा
जो बेशक तुम्हारे राग दरबारी से उपजा होगा
था छल स्वार्थ सना तुम्हरा गुरु धर्म
पर अब गया लद दिनदहाड़े हकमारी का
वो पुरा ख्याल वो पुरा जमाना
अब के लोकतंत्र में तर्कयुग में
उघड़ रहा है तेरा
छलत्कारों हत्कर्मों हरमजदगियों का
वो कच्चा चिट्ठा
जो साफ शफ्फाफ बेदाग बनकर
अब तक अक्षुण्ण खड़ा था
तुम्हारे द्वारा सताए गयों के
अधिकार अचेतन होने की बाबत
डरो चेतो या कुछ करो द्रोण
कि बाबा साहेब के सूत्रा संदेश-
पढ़ो संगठित बनो संघर्ष करो
की अधिकार पट्टी पढ़ गुन कर
तुम्हारे सामने
इनक्लाबी प्रत्याक्रमण युयुत्सु
भीमकाय जत्था खड़ा है ।
2007
7) ईश्वर के रहते भी
ईश्वर के रहते भी
क्यों मंदिर आती जाती
किसी श्रद्धासिक्त महिला की
राह बीच लुट जाती है इज्जत
यहां तक कि जब-तब
मंदिर के प्रांगण के भीतर भी
क्यों कुचलकर हो जाती है
भक्तों की असमय दर्दनाक मौत अंग-भंग
बदहवास भगदड़ की जद में आकर
मंदिर की भगवत रक्षित देहरी पर ही
ईश्वर के रहते भी
क्यों जनम जनम का अपराधी
और कुकर्मी भी बना जाता है
ईश्वर के नाम
कोई भव्य दिव्य सार्वजनिक पूजनगृह
और मनचाहा ईश्वर को
बरजोरी बिठा आता है वहां
अपनी मनमर्जी
और उसके कुकर्मों-चाटुकर्मां का भरा घड़ा भी
इसमें कतई नहीं आता आड़े
ईश्वर के रहते भी
क्यों चमरटोली का धर्मभीरू इसबरबा चमार
बामनटोली के भव्य मंदिर को
पास से निरखने तक की अपने मन की साध
पूरी करने की नहीं जुटा पाता है हिम्मत
और अतृप्त ही रह जाती है
उसकी यह साधारण चाह
असाधारण अलभ्य बनकर
ईश्वर के रहते भी
क्यों शैतान को पत्थर मारते मची भगदड़ में
मक्का में बार बार कई अल्लाह के बंदे
हो जाते है अल्लाह को प्यारे
और उस शैतान का बाल भी बांका नहीं होता
और चढ़ा रह जाता है शैतानी खंभे पर वह
ईश्वर और उसके भक्तों के मुंह चिढ़ाता
ईश्वर के रहते भी
क्यों सब कुछ तो बन जाता है इंसान
पर इंसान बने रहने के लिए उसे
पड़ता है नाकों चने चबाना ।
2004
8) खल साहित्यिकों का छल वृत्तांत
अपने गिरोह के मुट्ठी भर खल साहित्यिकों के साथ
मिल बैठ कर खड़ा किया उन्होंने
किसी कद्दावर कवि के नाम पर एक ‘सम्मान’
और वे सम्मान-पुरस्कर्ता बन कर तन गए
इस तिकड़म में महज कुछ सौ रुपयों में
अपने लिए पूर्व में खरीदे गए
दिवंगत साहित्यकारों के नाम के
कुछ क्षुद्र सम्मानों का नजीर उनके काम आया
अपने नवसृजित सम्मान के कुछ शुरुआती अंकों को
उन्होंने उन पत्रा-पत्रिकाओं के संपादकों पर वारा
जो उनकी घासलेटी रचनाओं को
घास तक नहीं डालते थे
पिफर तो उनकी और उनकी थैली के चट्टों-बट्टों की
कूड़ा-रचनाएं भी हाथों हाथ ली जाने लगीं यकायक
अपने जुगाड़ी कल के बल सरकारी नौकरी हथियाए
इस गिरोह के सिरमौर कवि ने लगे हाथ एक सम्मान
अपने कार्यालय बॉस पर भी चस्पां करवा डाला
ताकि फूल फूल कर बॉस और अधिक फलदायी बन सके
अब यकीनन इस फिराक में था यह दूरंदेशी कवि
कि अपने कुल-खानदान के चंद और नक्कारों को भी
बरास्ते बॉस-कृपा वहीं कहीं अटका-लटका सके वह
महज अपने कवि-कल व छल-बल के बलबूते ही
कविताई के प्रदेश में गुंडई कर्म की
बखूबी शिनाख्त करने में लगा यह कवि
और उसके कुनबे के इतर जन भी
दरअसल स्वयं क्या साहित्य में
एक और गुंडा-प्रदेश नहीं रच रहे थे !
2005
9) दादा का लगाया नींबू पेड़
कहीं दूर से किसी गांव के अपने एक आत्मीय से
मांग लाए थे दादा नींबू पौध
और लगाया था उसे अपनी बाड़ी में
दुख की घड़ी में एक टुकड़ा साथ क्या मांगा
इस नींबू मांगकर बीमार दादी के लिए
पड़ोसी नकछेदी साव को लगा था कि
दादा ने जान ही मांग ली उसकी
जबकि नकछेदी के सांवरे बदन पर
लकदक साफ शफ्फाफ धोती कुर्ता
जो शोभायमान देख रहे हैं आप
उसकी बरबस आंख खींचती सफाई
दादा के कारीगर हाथों की
करामात ही तो है
गांव-जवार सभा-समाज दोस-कुटुम भोज-भात
हर कहीं नकछेदी के धोती-कुर्ते पर
सम्मोहित आंखें जो टंगी होती हैं
पूछने पर दादा के हुनरमंद हाथों का बखान
झख मारकर उसे करना पड़ता ही है
दादा ने यह नींबू पौध नहीं लगाया
गोया लगाया अपने ठेस लगे दिल को
सहलाता एक अहं अवलंब
अपने खट्टे अनुभवों को देता एक प्रतीक
अब दादा की दुनियावी गैरमौजूदगी में
उनका यह अवलंब तब्दील हो गया है
एक अस्मिता स्मृति वृक्ष में
और नया अवलंब नये घर की नींव डालने के क्रम में
है अभिशप्त यह समूल अस्तित्वविहीन हो जाने को
अगर दादा मौजूद होते इस दुनिया में
तो अपने उत्तराधिकारियों से जरूर पूछते
कि किसी पुरा प्रतिगामी थाती की
छाती पर चढ़
नव सोच नई विरासत रचने करने का माद्दा
तुममें क्यों नहीं आया ?
2007
10) अछूत का इनार
जब धनुखी हलवाई का इनार था
केवल टोले में और
सिर्फ और सिर्फ इनार था
पीने के पानी का इकलौता स्रोत
तो दादी उसी इनार से
पानी लाया करती थी
और धोबी घर की बाकी औरतें भी
और घरों की जनानियां भी
पानी भरती थीं वहां
पर धोबनियों से सुविधाजनक छूत
बरता करती थीं
ये गैर धोबी गैर दलित शूद्र स्त्रियां
जबकि खुद भी अस्पृश्य जात थीं ये
सवर्णों के चैखटे में
अलबत्ता उनके बदन पर
जो धवल साड़ी लिपटी होती थीं
उनमें धोबीघर से धुलकर भी
रत्तीभर छूत नहीं चिपकती थी
पर इन गैर सवर्ण स्पृश्यों की
बाल्टी की उगहन के साथ
नहीं गिर सकती थी
धोबनियों की बाल्टी की डोर
साथ भरे पानी को
छूत जो लग जाती
जाने कैसे
संग साथ रहे पानी का
अलग अलग डोर से
बंधकर खिंच आने पर
जात स्वभाव बदल जाता था
2
अभावों से ताजिन्दगी जंग लड़ती
आई दादी के अहं को
गहरे छुआ था कहीं
बस इत्ती सी बात ने
इसी सब बात ने
दादा को अपनी भरी जवानी में खो देने वाली
दादा के संग साथ के बहुतेरे सपनों को
दूर तलक न सहला पाने वाली दादी ने
धोबी घाट पर घंटों
अपने पसीने बहा बहा कर
कपड़ा धोने के पुश्तैनी धंधे से(
जो कि जीवनयापन का एकमात्र
पारिवारिक कामचलाऊ जरिया था)
कुछ कुछ करके पाई पाई जोड़कर
बड़े जतन से अलग कर रखा था
अपने दरवाजे पर
एक इनार बनवाने की खातिर
और इस पेटकाट धन से
लगवाया था अपना ईंटभट्ठा
क्योंकि बाजू के गांव के सोनफी मिसिर ने
अपनी चिमनी से ईंट देने से
साफ इंकार कर दिया था
ताकि एक अछूत का
आत्मसम्मान समृद्ध न हो सके कभी
और हत सम्मान करने की
सामंती परंपरा बनी रहे अक्षुण्ण
3
यह इनार ऐसा वैसा नहीं था
दलित आत्मसम्मान आत्माभिमान का
एक अछूता रूपक बन गया था यह
इनार की जगत पर हमारे दादा का नाम
नागा बैठा खुदवाया और
खुद रह गयीं नेपथ्य में
कि औरत होकर अपना नाम
सरेआम कैसे करतीं दादी
कि कितनी परंपराएं अकेले तोड़तीं दादी
4
अभी दादी की परिपक्व उम्र में पहुंची मां
कहा करतीं हैं कि
दादी के इनार की बरकत के कल्पित किस्से
इस कदर फैले गांव जवार में
कि इस पानी के
रोगहर प्रताप के लाभ लोभ में
गांव के दूर दराज टोले
यहां तक कि
आस परोस के गांव कस्बों से भी
खिंचे चले आते थे लोगबाग
घेघा रोग चर्मरोग और
और बहुत सी उदर व्याधियों का
सहज चामत्कारिक इलाज पाने को
संभव है
वह आज की तरह का
सर्वभक्षी मीडिया संक्रामक युग होता
तो दादी के इस प्रतापी इनार के
सच और दादी के यश से बेसी
जनकल्पित गढ़त किस्से ही
अंधप्रसाद भोगियों के दिल दिमाग पर
खूब खूब मादकतापूर्वक
दिनों तक राज करते होते
5
सोचता हूं बरबस यह
कि इस इनार से
अपने उद्घाटक हाथों से
पूरे समाज की गवाही-बीच
जब भरा होगा पहली दफा
दादी ने सर्जक उत्साह से पानी
और चखा होगा उसका विजयोन्मादी स्वाद
तो कितना अनिर्वचनीय सुख तोष मिला होगा
दादी की जिह्वा की उन स्वादग्रंथियों को
जो बारंबार जले थे
धनुखी हलवाई के इनार का
पी मजबूर पानी
और अब आत्मसम्मान खुदवजूद की
मिठास के परिपाक की कैसी महक
तुरत तुरत मिल रही होगी इसमें दादी को
6
इस अनूठे इनार के पानी का स्वाद
उस वक्त कितना गुनित फलित हो गया होगा
जब शूद्र हलवाइयों का सवर्णी अहं
दादी के अछूत पानी का
पहला घूंट निगलते ही
भरभरा कर गिर गया होगा
7
अब इस इनार के
रोगहर प्रताप की बाबत जब
पुरा मन हलवाइयों को
अपना अहं इनार छोड़
दादी के अछूत इनार में
दलितों के संग संग
अपनी बाल्टी की डोर
उतारनी खींचनी पड़ती होगी
तो इससे बंधकर आए जल का आस्वाद
कितना अलग अलग होता होगा
दादी जैसों के लिए
और उन पानी पानी हुए
हलवाइयों के लिए
8
चापाकल के इस जमाने में
अब अवशेष भर रह गया है इनार
दादी के इस आत्मरक्षक इनार का भी
न कोई रहा पूछनहार देखनहार
कब से सूखा पेट इसका
भर गया है अब
अनुपयोगी खर पतवार झाड़न बुहारन से
कुछ भी रहा नहीं अब शेष
दादा दादी की काया समेत
निःशेष है तो बस
इनार की जगत पर खुदा दादा का नाम
और उसके जरिए याद आता
दादी का पूंजीभूत क्रांतिदर्शी यश काम ।
2007
11) ऐंग्री यंग मैन हंग्री ओल्ड मैन
आप स्क्रिन अभिनय में ऊंचे
एक अलग मुकाम पर हैं जरूर
धरातल पर भी मगर
कम दमदार नहीं आपका दागदार अभिनय
आप बिग बी हैं अभी भी
स्मृतिभ्रष्ट सम्मोहित पीलियाई नजरों में
आपके फिल्मी ऐंग्री तेवर के व्यामोह में
पूरी जकड़ी रही तब की युवा पीढ़ी
लेकिन आपके ही नक्शेकदम पर
कथनी करनी में रख आकाश पाताल का फर्क
अपने को अदम्य क्षुधा आकुल कर
कुछ भी हजम करने को आतुर
रही जीभ लपलपाती भुक्खड़ से
अब बुढ़ा आई वह युवपीढ़ी
क्या खूब आपकी ढिठाई है
कर्तव्य अकर्तव्य को कर नजरअंदाज
किसान बने हैं आप
आपके फिल्मी बहु बेटे भी
निर्लज्जता आपकी
नित हो रही जवान है
करवंचना कालाधन अर्जन की खातिर
इस या किसी हद को लांघ सकते हैं आप
लोगबाग अब जो कहे
मैं तो भई यही कहूंगा--
आप ऐंग्री यंग मैन थे कभी
मगर महज रूपहले पर्दे पर
अभी तो पकिया हंग्री भुक्खड़ ओल्डमैन हैं
पूरे बेपर्द हुए असल जीवन में!
2008
12) राम और सलमान खान
अपने को राम भक्त कहने वाले
कुछ लोग कहते हैं
कि राम हिन्दुओं के हैं एकमात्रा समग्र
विधर्मी सलमान खान नहीं कर सकते सिनेमा
राम के वेश में
यही क्या कम है कि
वे रह पा रहे हैं राम के देश में
हे मर्यादा पुरुषोत्तम
शंबूक वध मार्का यश वाले
बेशक आज फिर किसी ने
आप-रचित मर्यादा को
चाहे अचाहे हाथ लगाया है
तब था दलित आज विधर्मी आया है
लेकिन आ गया है अब
इक्कीसवीं सदी का विज्ञान समय
जहां अंधधर्म भावना नहीं
तर्कबलित मानववाद ही काम करेगा
क्या इसीलिए इस हादसे पर
पड़ पशोपेश में
आपने साध लिया मौन है !
2007
13) कुत्तजन्दगी
एक छोटे से मंदिर के अहाते में
रोज आती थी एक भिखारन
भक्तों के दान पुण्य की रहम पर
पलता था उसका पेट
एक कुत्ता भी हर रोज बिन नागा किए
आता था वहां एक खास समय
आरती की घंटी बजते ही
पुजारी को कोई दैव शक्ति
दिखी गई उस महादेववाहन वंशज में
और कुछ भक्तों को भी
मंदिर में होने लगी
अब उस कुत्ते की पूजा
उस कुक्कुर की जिन्दगी दैव योग से
हो गयी सामान्य व्यक्ति से अधिक सम्मानित
और उस भिखारन का अस्मिताविहीन जीवन
रहा वैसे ही दैव और भगत भरोसे
जैसे हो कोई अदना कुत्ते की जिन्दगी ।
महाशिवरात्रि 2008
14) मति का फेर
घटना :
साहित्यिक राजेन्द्र यादव ने
सांस्कृतिक मुहावरे में लपेट
हनुमान को रावण की लंका में
घुस आया एक आतंकवादी बताया
गृहीत धर्म अर्थ :
और प्रकारांतर से राम को
आतंकी सरगना
फौरी प्रतिक्रिया :
राम! राम !
साहित्यिकों का
बुद्धिजीवियों का ऐसा धृष्ट कर्म
प्रतिक्रिया विशेष :
हे महावीर राम (भक्त) !
उन्हें बख्शना (मत) !
15) गिरवी दर गिरवी
जिस मां के कुपोषित स्तन में
न उतर सका ममता भर दूध भी
जिससे लगकर चुभका मारकर
दूध पी अघा सका न कभी उसका बच्चा
जो मां अपनी छाती के दूध के सिवा
अपने जिगर के टुकड़े को दे न सकी
किसी दूसरे पोषाहार का पूरक संबल
और बीत गया उसके लाल का अदूध ही
दूधपीता बचपन
उसकी जननी छाती को मन भर जुराए बिना ही
वह मां आज
हो गई है और कमजोर
किसी कानों सुनी बात पर
इतनी आतुर यकीनी हो गई है वह
कि दो निवाले रोटी की जुगत कराते
अपने तवे तक को लगा आई है बंधक
और बदले में मिले धन से खरीद लाई है
सवा सेर गाय का कथित पवित्रा दूध
दुर्गा मां को पिलाने की जिद्द पालकर
क्या यह सवाल हो सकता है
कि क्यों हम हुए हैं ऐसे
कि जो जिद्द ममत्व को नहीं नसीब
वह जिद्द विवेक बुद्धि
रोटी तक को रख गिरवी
जा सकती है किसी हद तक
किसी अमूर्त अलख को पाने को
यह जिद्द क्यों इतना है भारी
यह जिद्द क्यों हम पर है तारी ?
2005
16) गाली
जब हम किसी को
दे रहे होते हैं गाली
तो केवल और केवल
उसे ही पीड़ा पहुंचाने का
ध्येय रहता है हमारा
और अपना मन हल्का करने का
जबकि हम अपनी गाली
बेशक महज लक्षित पर ही
नहीं रख पाते केन्द्रित
गेहूँ के साथ जैसे
पिस जाता है घुन
उसी तरह
बकी गाली का
आयास अनायास लक्षित के
अगलबगल आसपड़ोस सगेसंबंधी
यहां तक कि कहीं अगम अगोचर
और दूर बहुत दूर तलक भी
पसर जाता है उसका संक्रामक प्रभाव
और करता है कोई भरता है कोई
जबकि औरों ने हमारा
कुछ नहीं बिगाड़ा होता
जैसे
मांबहन बेटाबेटी सालासाली रिश्ते-नातों की
अंतड़ीछेद गालियां देकर हम
कुछ ऐसा ही कर रहे होते हैं
गालिबन
गालियों का स्वभाव ही है ऐसा
कि वे उद्दाम उच्छृंखल होती हैं
अपने प्रभाव की तरह और
अपने को किसी ऊंचनीच सहीगलत के
खांचे में बंधकर देखे जाने में
नहीं रखतीं वे हरगिज यकीन । 2007
17) स्त्री देह का उत्सव
भूमंडलीकरण के इस दौर में
पश्चिम समाज की तमाम उत्सवधर्मिता
हम चाहे अचाहे कर रहे हैं आयातित
अपने बुद्धि विवेक को
ताखे पर रखकर भी
अपने देश की
देह का उत्सव मनातीं उन्मुक्त स्त्रियां
एक ताजादम मिसाल हैं इसका
फैशन शो की रैम्प की
कामुक जिस्म नुमाईश हो या कि
बार गल्र्स और खेल के मैदानों में
चीयर गल्र्स का मद छलकाता इठलाता जलवा
या फिर सिनेतारिकाओं की सम्मोहक देह अदा
इन सब में कामोत्तेजक अवयवों पर
अधिक फ्लैश होता है
यही गणित आयद होता है
झीने छोटे अल्प वस्त्रों में
स्त्राी देह को प्रस्तुत करने में भी
वहीं वहीं वस्त्रों का हरण क्षरण होता है
जिन नार अंगों को निहारते
मर्दों का फन फन से जाग उठता है
स्त्री बसनों की फैशन डिजाइनिंग की
कतर ब्योंत में दरअसल
सेक्स अपील की
भरपूर छौंक नियोजित होती है
देह का यह चरम उत्सव
नारी स्वतंत्रता की पुरुषकामित परिभाषा की
आड़ लेकर ही घटित होता है
मसलन
काम अपील की तन शक्ति को
आम करना बोल्ड नारीत्व का
निदर्शन बन गया है आजकल
काम अंगों का स्त्री देह पर प्रसार
नर की बनिस्बत अधिक मुखर है
बावजूद इसके पुरुष चालित इस समाज में
देह को वस्त्रा से मुक्त करने का चलन
जमाने से ही महिलाओं में अधिक है
दुनिया के किसी आन समाज से कहीं ज्यादा
दकियानूस व उत्सवसेवी रहा है हमारा समाज
नारी रूप ईश्वर भी पूजे जाते रहे हैं यहां खूब
सामंती रचाव वाले पुरुष मन के लिए
अंगना देह का उत्सव
भले ही मनता रहा हो सदियों से
पर अबके आधुनिकाओं का अपनी मनमर्जी
स्त्री देह का उद्दाम उत्सव मनाना
भारत जैसे बंद समाज के देह खुलेपन का
बिलकुल नया प्रसंग है
खुलेपन की देह पर अंटे भी
बेशक अलग अलग मत होंगे
कि जिसे कोई नाजायज कहे उसे ही
कोई करार दे दे जायज
पर स्त्री देह के खुलेपन के
जायज नाजायज होने का मापक
हो सकती है यह कवायद
कि स्वच्छतानंद लेती आधुनिकाएं
अपनी देह का उत्सव मनवाना
कर दे स्थगित और थाहे करके इंतजार कि
स्त्री देह से लगी अपनी यौन उत्कंठा एवं
उत्सवप्रियता की बेकली का
पुरुष किस बेकरारी से इजहार करता है ।
वेलेन्टाइन डे 2008
18) प्रियजन
प्रियजन से इतना अतल तलछटहीन
होता है हमारा राग
कि आपस में हर व्यापार का मान
समलाभ ही आता है
इस व्यापार की हर चीज की तौल
दिल की पासंगहीन जादुई तुले पर
आंकी गई होती है
जिसके हर पलड़े का भार
हर बटखरे की तौल पर
हर हमेशा समान ही आता है
यदि हम बदल लें
यकायक अपना पता ठिकाना
तो भी प्रियजन से
नहीं रहता छुपा रहता अधिक समय तक
हमारा नया घर नया ठिकाना
कारण कि कम से कम इतनी तो नहीं होती
हमारे आपसी संवादों में टूट
कि बात बात में आपसदारी की
कोई नई बात उन्हें न हो सके मालूम
इत्तिफाकन अगर आ धमकना चाहे
हमें बाखबर किए बिना ही हमारे घर
दूरी वश याद आता हमारा कोई आत्मीय
हमारे बीच की याद की बारंबारता को कम करने
तो यकीनन यादों के वद्र्धमान कोटे में
सेंध लगती जाती है
उस आत्मीय का हमसे रूबरू रहने तक
मगर यह सेंधमारी भी
कोई घाटे का कारक नहीं बल्कि
ज्यों ज्यों बूड़ै स्याम रंग
त्यों त्यों उज्ज्वल होय
की मानिंद
हमारे लिए मुनाफे का सौदा बन आता है
प्रियजन हमें महज सुख सुकून बांटते हैं
और भरसक हमारा दुख दर्द काढ़ते हैं ।
2006
19) सामान्यजन
सामान्यजन की एक पहचान है मेरे पास
यदि हम अनचटके में बदल लें
अपना घर बार ठौर ठिकाना फोन नम्बर आदि
तो उन्हें ढूंढ़ना पड़ता है
हमें हमारा घर हमारा ठौर
अगर वे हमसे संपर्क की चाह करें
सामान्यजन से हम नहीं जुड़े होते इतने गहरे
कि हमारे संपर्कों में
उपस्थित न हो कोई टूट इस हद तक
कि हमारे ठौर के नयेपन का लेखा
अनचाहे ही उन्हें सुलभ हो जाए
यहां बढ़ा होता है बेहद मतलब का हाथ
और इस बेहदी में रिश्तों की चैहद्दी
सिर्फ और सिर्फ हाट बिकाय की होती है
और तिजारती खुदगर्जी की बाड़ी में
उपजा होती है इकहरा छलराग
सामान्यजन के पांव हमारे घर
बहुधा उस वक्त पड़ते हैं
जब सुकून के एकाकी क्षणों में
हमारे रहने का समय होता है
जबकि ऐन वक्त वे अपने लिए
लाभ लोभ के कुछ और कतरे
बटोरने की जुगत में लगे होते हैं
और हमसे मन मुराद पा लेने का अपनी
किंचित उन्हें इमकान होता है
सामान्यजन हमसे प्रायः
हमारा सुख सुकून मांगते हैं
और चेते अनचेते
हमारे लिए दुख दर्द टांगते हैं ।
सन 2006
20) अरर मरर के झोपरा
बचपन की बारिश का यादों में दखल
अब भी जीवन में बचा बसा है इतना
कि भीग जाता है जब तब
उसकी गुदगुदी से सारा तनमन
मेरे समय के नंग धड़ंग बचपन में
बारिश का भीगा मौसम
गांव भर के कमउमरिया या कि
मेरे हमउमरिया बच्चों के लिए
बेहिसाब मस्ती का उपादान बन आता था
उन दिनों टाट मिट्टी और फूस के ही
घर थे अमूमन सबके और
फूस व खपरैल की बनी होती थी छप्पर
गहरी तिरछी ढालों वाली
छप्परों की ओरियानी से फिसल कर
जो मोटी तेज जलधार बहती थी छलछल धड़धड़
उसके नीचे आ बच्चों का नहाना आपादमस्तक
मौजों के नभ को छू लेना बन जाता था जैसे
छुटपन की उस गंवई मस्ती पर
टोक टाक या पहरा भी नहीं होता था कोई
ऐसा निर्बंध आवारा मेघ आस्वाद पाना
उन नागरी बच्चों को कहां नसीब
जिनके बचपन के प्रकृतिभाव को
हिदायतों औ’ मनाहियों की बारिश ही
सोख लेती है काफी हद तक
और कुछ बूंद बारिश से भी संग करने को
ललचता मचलता रह जाता है शहरी बचपन
हमारे बचपन में हमारी गंवई माएं भी
होती थीं हर मां की तरह फिक्रजदा जरूर
मगर हम बच्चों के भीगने पर नहीं
बल्कि तब
जब कई कई दिनों तक
लगातार होती आतंक में तब्दील हो गई बारिश
थमने थकने का नहीं लेती थी नाम
मां की चिन्ता भी तब
चावल के उफनाए अधहन की तरह
बेहद सघन और प्रबल हो आती थी
जब घर का छप्पर बीसियों जगह से रिसने लगता
और सिर छिपाने को बित्ता भर जगह भी
नहीं बचती घर के किसी कोने अन्तरे में
जर जलावन चूल्हे तक की
ऐसी भीगा पटाखा सेहत हो जाती
कि हमारे घर भर की सुलगती जठराग्नि को
बुझाने की इनकी खुद की ज्वलन शक्ति ही
स्थगित हो जाती
मां मेरे जैसा महज खुदयकीनी नहीं थी
दुख एवं सुख की हिसाबदारी में
ऊपरवाले का हाथ होने में
भरठेहुन विश्वास था उनका भी
हर परसोचसेवी इंसान की तरह
बेलगाम आंधी पानी से
बरसती इस आफत की बेला में
मां भी जलदेवता का गुहार लगाती-
अरर मरर के झोपरा
अब न बरसा दम धरा
हे गोसाईं इन्नर देबता
तू बचाबा हम्मरा
और भी न जाने क्या क्या बदहवास
गंवई देसी जुबान में बुदबुदाती
इस आई बला को टालने का
कोई और टोटका भी करती जाती
हम बच्चे बड़े कौतूहल और आशा संचरित निगाहों से
मां के इन संकट निरोधक उपचारों के
बल और फलाफल का
रोमांच आकुल हो बेकल इंतजार करने लगते
तब मुझे कहां मालूम था कि
मौसमविज्ञानी की भविष्यबयानी और
कथित वर्षा देवता की कृपा अकृपा
दोनों ही साबित हो सकते हैं अंततः
सिर्फ मनभरम और छलावा
बारिश से अब भी है साबका
पर बचपन की बारिश में
केवल भींगता था उमगता मन
अबके होती बारिश में
भींगता है अंतर्मन भी
मथती जब बारिश की बाढ़ ।
भादो 2008