आज के तुलसीगण
प्रमोद रंजन
किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिकशक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अंग है? दूसरे यह कि उसका अंत:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आंतरिक तत्व रूपायित किए हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उनका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है? -मुक्तिबोध
आलोचना की इस ठोस कसौटी को उपेक्षित किए जाने के निहित कारण रहे हैं। प्रखर आलोचक मुक्तिबोध ने आलोचना का प्रतिमान गढ़ते हुए 'राजनैतिक दृष्टिकोण ` की चर्चा नहीं की है! लेकिन क्या मुक्तिबाध के आलोचक रूप की उपेक्षा का यही कारण है? या इस उपेक्षा के पीछे वे शक्तियां हैं जो राजनैतिक रूप से परिवर्तनकामी दिखती हैं किन्तु'सामजिक और सांस्कृतिक` रूप से प्रतिगामी हैं। मुक्तिबोध इन्हीं शक्तियों की पहचान का आह्वान करते हैं। वह प्रकट राजनीतिक दृष्टिकोण को गौण रखते हुए उन 'प्रेरणाओं और भावनाओं` पर बल देते हैं, जिससे साहित्य के आंतरिक तत्व रूपायित हुए हैं। उनकी यह कसौटी राजनीति से पलायन नहीं करती बल्कि बौद्धिक छद्मों को विखंडित करने का सूत़्र देती है। समकालीन हिन्दी साहित्य पर विचार करने के लिए मुक्तिबोध की इस कसौटी को निरंतर ध्यान में रखना चाहिए। बानगी के तौर पर इस कसौटी के आधार पर यहां हम समकालीन हिन्दी कविता पर विचार कर सकते हैं। बेहतर होगा कि आरंभिक तौर पर, सुविधा के लिए इसे एक क्षेत्र विशेष के संदर्भ में ही देखा जाए। मसलन, हम बिहार के समकालीन कवियों की राजनीतिक प्रवृतियों के उत्स की तलाश इस सूत्र के आधार पर करें।
बिहार की समकालीन हिन्दी कविता की राजनीतिक प्रवृतियों की पहचान से पहले यह सहज प्रश्न आएगा कि क्या बिहार की अपनी कोई अलग 'हिंदी कविता` संभव है? क्या बिहार की हिन्दी कविता को भौगोलिक आधार पर अन्य प्रांतों की कविता से अलगाया जा सकता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर-'नहीं` होगा। जैसा कि मैंने ऊपर कहा यह सुविधा के लिए किया गया वर्गीकरण है। 'बिहार के कवि` अर्थात् वे, जिनकी काव्य संवेदना के निर्माण में बिहार की 'आंचलिकता` का योगदान है। वय और 'चर्चा` के अनुरूप इनमें से चार को प्रतिनिधि के तौर पर चुना जा सकता है-नागार्जुन, अरुण कमल, मदन कश्यप और संजय कुंदन। संभवत: इस बात को स्वीकार करने वाले अनेक होंगे कि इनमें सबसे गहरी और प्रगतिशील काव्य-संवेदना नागार्जुन की थी। उन्होंने ढेर सारी राजनीतिक कविताएं लिखीं। १९७४ में जेपी आंदोलन के समय नागार्जुन ने लिखा 'इन्दु जी, इन्दु जी/क्या हुआ आपको/सत्ता के मद में/भूल गइंर् बाप को` बहुसंख्यक जनता है। कवि यहां बाबा नागार्जुन की तरह सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा; वह जनता को गल़ीज़ बता रहा है। नागार्जुन जिसके पक्ष में सत्ता को चुनौती दे रहे थे अरुण यहां उसे ही गाली तक देने से नहीं चूकते। कविता की अंतिम पंक्तियों में वह रण दुदुंभी बजाते हैं । यह उस सत्ता को खुली चुनौती थी, जो जनता की स्वतंत्रता बाधित करने पर तुली थी। कवि जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इंदिरा को ललकार रहा था। आपातकाल के बाद बिहार में भी इंदिरा गांधी के वैचारिक विरोधियों की सरकार बनी। नई सरकार ने १९७८ में यहां उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की। तब अरुण कमल ने लिखा 'फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते`। इस कविता में 'एक दूसरे की गर्दनों पर दांत पजाते` 'लाखों भुक्खड़`'मारे गए दस जन/मरेंगे और भी../बज रहा जोरों से ढोल/बज रहा जोरों से ढोल/ढोल`। कौन हैं ये 'दस जन`? 'मरेंगे और भी` पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह 'दस जन` नब्बे जनों के विरूद्ध एक रूपक है। कविता की पृष्ठभूमि में आरक्षण लागू होने के बाद बिहार में हुई हिंसा की एक घटना है, जिसमें उच्च सामाजिक समुदाय के लोग मारे गए थे। कवि अपने उच्च समाजिक समूह के ठंडेपन से व्यथित है 'खड़े रहो यूं ही कतारबद्ध/अपने घरों को ओटों पर/अभी और भी गुजरेंगी लाशें/इस रास्ते होकर..।` उन्हीं की युयुत्सा जगाने के लिए 'जोरों से ढोल` पीटा जा रहा है। बाद के संग्रहों में संकलित हिंसा के कथित विभिन्न रूपों को चित्रित करने वाली अरुण जी की कुछ अन्य कविताओं की ही तरह यहां भी सिर्फ उच्च सामाजिक समूहों के विरूद्ध'बढ़ती हिंसा` कवि की चिंता और आक्रोश का विषय है। कवि का पूरा जोर की फौज के विरूद्ध युद्ध की मुनादी (ढोल) करवाने पर है। यह अकारण नहीं है कि कविता का शीर्षक 'भूखे कुत्तों`'युद्ध क्षेत्र` रखा गया है और वह एक अतिरिक्त'ढोल` शब्द के साथ खत्म होती है: 'बज रहा जोरों से ढोल /ढोल`। विडंबना ही है कि यह ढोल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ-साथ उच्च समाजिक समूहों से आने वाले अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी भी बजाते हैं। 'युद्ध क्षेत्र` १९८० में आए अरुण कमल के 'बहुचर्चित` प्रथम कविता संग्रह 'अपनी केवल धार` में संकलित है। उस संग्रह में कुछ और कविताएं इसी आशय और मिजाज की हैं।
१९९० के बाद देश भर में वर्ण व्यवस्था में शोषित रही जनता की राजनैतिक ताकत बढ़ने लगी। नागार्जुन ने 'जय-जय हे दलितेंद्र/आपसे दहशत खाता केंद्र/मायावती आपकी शिष्या ...गुरु-गुन मायावती` लिखकर इस ऐतिहासिक घटना का प्रकारांतर से 'इतिहास के अचेतन उपकरण` (अनकंशेस टूल ऑफ हिस्ट्री) के रूप में स्वागत किया। तस्वीर उस समय भी इतनी साफ थी कि ऐसा नहीं माना जा सकता कि बाबा नागार्जुन कांशीराम की अवसरवादिता, सामाजिक न्याय की व्यक्ति केंद्रित राजनीति के विरोधाभासों को नहीं समझ रहे थे। लेकिन उन्होंने इन परिवर्तनों को बहुसंख्यक जनता की नजर से भी देखा। इसी समय अरुण कमल ने बिहार के संदर्भ में लिखा 'बिना मुंडेर वाली छत से वह दिन भर मूतता रहा/आते जाते किसी भी आदमी के सिर पर खल खल`। यह साफ तौर पर एक अभिजात भवि य-दृष्टि ही थी जिसके प्रभाव में उन्होंने इस कविता में घोषणा की कि 'बीसवीं शताब्दी के एक और अजूबा` की मौत 'अपने ही खून और पेशाब` में डूब कर होगी।
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नए इलाके में` (१९९५) में संकलित 'असत्य के प्रयोग` शीर्षक इस कविता की ओर यात्री बाबा पर लिखते हुए (तुमि चिर सारथी, पहल द्वारा जारी पुस्तिका) मैथिली कथाकार तारानंद वियोगी का भी ध्यान गया था। 'साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत` इस संग्रह में अनेक कविताएं इसी भाव-भंगिमा की हैं!
क्या कारण है कि वंचितों के प्रति पक्षधरता की हर संभव कोशिश करने वाला हमारे समय का एक महत्वपूर्ण कवि इन ऐतिहासिक घटनाओं की प्रगतिशीलता को पकड़ने में चूका ही नहीं बल्कि अभद्रता की हदों तक प्रतिगामी हो चला? फिलहाल इसके कारणों को अनुत्तरित छोड उन लक्षणों पर गौर करें जो अरुण जी के साथ-साथ उनके अन्य परवर्ती कवियों में मौजूद हैं। अरुण कमल सामाजिक न्याय की परिघटना को बीसवीं शताब्दी का 'अजूबा` के रूप में देखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के मदन कश्यप को लगता है कि 'सिंहासन पर जा बैठा जोकर` (जोकर), 'सामाजिक न्याय की खिचड़ी पक रही` है और 'नए युग के कृष्णावतार /माखन की जगह चारा चुरा रहे` हैं (छवि की चिंता)। इसी तरह संजय कुंदन अचानक पाते हैं कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जहां 'गद्देदार कुर्सी पर बैठा एक विदूषक /अपने अज्ञान पर कतई शर्मिंदा नहीं है`। उन्हें हर तरफ मूर्खों की 'दीमकों की तरह बजबजाती हुई भीड़` नजर आती है।
इन कविताओं में आने वाले अजूबा, जोकर, खिचड़ी, भीड़ आदि शब्द एक खास मन:स्थिति का पता देते हैं । इनमें बौखलाहट और हताशा है जिसका मूल स्वर दुर्वाशा के शाप की तरह का है। धमकी भरा और महानता की घृणा से बजबजाता। क्या यह अनायास है कि इन 'प्रतिनिधि` कवियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठित अरुण कमल में घृणा की यह बजबजहाट सबसे ज्यादा है? (प्रसंगवश, यह भी कि इस मामले में अन्य 'प्रतिनिधियों` से मदन कश्यप की कविता जरा पीछे है) इस घृणा का उत्स ढ़ूंढ़ने से पहले यह देख लेना प्रासंगिक होगा कि ऐसी कविताओं को कौन सी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शक्तियां प्रतिष्ठा देती रही हैं।
अरुण कमल की ज्यादातर कविताओं को 'निस्सार` बताने वाले तथा उन्हें 'नए इलाके में` पर मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९९८) को, खराब कृति पर 'अवांतर` कारणों से प्रदत्त, बताने वाले आलोचक नंदकिशोर नवल का उसी लेख में 'असत्य के प्रयोग` पर आह्लादित मत दृष्टव्य है : ('शताब्दी के अंत में कविता` शीर्षक लेख, कसौटी, अंक-१, अप्रैल-जून,१९९९) क्या यह बताने की आवश्यकता है कि "पाठकों से अपेक्षा है कि वे इस कविता को पूरा पढ़ें और बिहार के वर्तमान तानाशाह की भावी स्थिति का आनंद लें-अपने ही खून और पेशाब में डूबा /पड़ा है बीसवीं सदी का अजूबा। जैसी घृणा का पात्र वह तानाशाह है, उसके लिए वैसे ही घृणित शब्दों का अरुण कमल ने प्रयोग किया है। इस तरह यह कविता अर्थ और शब्द की एकता से होने वाले विस्फोट का एक सटीक उदाहरण है।"'खून और पेशाब` में लिथड़े किसी भी आदमजात को देखकर आनंद लेने की सलाह देना किस मानसिकता का परिचायक है। इस घृणित कविता पर आनंदित श्री नंदकिशोर नवल की कल्पना में भी शायद यह बात नहीं आती कि निकट भविष्य में ही वंचित सामाजिक समूहों से आने वाला विवेकवान पाठक उनका जिक्र आने पर चाह कर भी सभ्य भाषा का प्रयोग नहीं कर सकेगा। यहां एक रोचक बात यह भी जाननी चाहिए कि 'नए इलाके में` के बाद आए संग्रह 'पुतली में संसार` (२००६) को अरुण जी ने इन्हीं 'आदरणीय डॉ. नंदकिशोर नवल जी को कृतज्ञतापूर्वक` समर्पित किया है।(क्यों? सुधी पाठक स्वयं बूझें !)
इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि नामवर सिंह जैसे प्रखर आलोचक, इन मुद्दों पर चिंतन करने बावजूद आजीवन समझौतापरस्त रूख अपनाए रहे हैं। सवर्णवादी साहित्य और आलोचना के सवाल पर उनकी दलील होती है कि'हमारे समाज पर एक हजार वर्षों के जो बद्धमूल संस्कार हैं उसे खत्म करने के लिए एक हजार बरस का समय अगर न भी लगे तो कम से कम सौ-दो सौ साल का समय तो लगेगा ही।..उनसे कोई साहित्यकार अपनी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद बचा नहीं रह सकता। ऐसे में आलोचक बचा रहेगा इसकी कल्पना कैसे की जा सकती है?` (लीलाधर मंडलोई के सवाल पर नामवर सिंह, वर्तमान साहित्य का अलोचना अंक-३, जुलाई, २००२) इस यथास्थितवादी वक्तव्य को न तो व्याख्या की आवश्कता है, न ही यह सवाल खड़ा करने की कि १९३६ से चले जिस प्रगतिशील आंदोलन की प्रशंसा करते नामवर जी नहीं अघाते, उसका हासिल अखिर क्या है! इस 'सौ-दो सौ` साल का प्रस्थान बिंदु कब से माना जाए? और यह कि भारतीय समाज में वे 'अवांतर` कारक क्या हैं , जिनके आधार पर साहित्यिक समाज, संस्थाएं भी फैसले देती हैं?
उपरोक्त 'प्रतिनिधि` कवियों के अलावा एकदम नए कवियों का जिक्र भी यहां प्रासंगिक होगा, जिनका काव्य व्यक्तित्व अभी निर्मित ही होने की प्रक्रिया में है। वर्ष २००० के बाद परिदृश्य में आए बिहार के इन नए कवियों का रूख थोड़ा अलग है। उनमें तुर्शी तो है लेकिन वैसी बौखलाहट नहीं है जैसी उनके पूर्ववर्तियों में रही है। वे इन राजनैतिक परिवर्तनों के प्रति उपहास का रूख नहीं रखते, उन्हें मूर्ख नहीं कहते-लेकिन उन्हें स्वीकार भी नहीं करते। वास्तव में इन नयों में पूर्ववर्तियों के ही दृष्टिकोण का एक किस्म का रूपांतरण है। मसलन, हरेप्रकाश उपाध्याय 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में कहते हैं :'हम शिकायत नहीं करते/माथे के दर्द को दर्द नहीं कहते /हमें दो कौड़ी का बनिया गलिया देता है` (नया ज्ञानोदय, मई २००७ )। यहां सीधे तौर पर कोई राजनैतिक आग्रह नहीं है लेकिन मदन कश्यप के 'कृष्णावतार ` की तुलना में 'दो कौड़ी का बनिया` एकदम स्पष्ट शब्दावली है जो एक निश्चित सामाजिक समूह को अवहेलना की दृष्टि से देखती है। यह शब्दावली बताती है कि एक सामजिक समूह के रूप में बनिए की श्रेणीबद्धता निचली है-दो कौड़ी की है। कोई और सामाजिक समूह है, जिसे कौड़ियों में नहीं तौला जा सकता, वह अमूल्य है। नया कवि उसी के पक्ष में है, उसी के मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है।
बहरहाल, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो यह कुछ आंतरिक तत्व हैं जो इन 'प्रतिनिधि` कवियों की कविताओं में रूपायित हुए हैं। अब उस प्रश्न की ओर लौटें कि अनेक अच्छी कविताएं देने वाले संवेदनशील कवियों की ऐसी प्रतिक्रियावादी, इतिहास-विमुख, एकांगी मनोदशा का उत्स कहां है? मुक्तिबोध साहित्य के आंतरिक तत्व की 'प्रेरणाओं और भावनाओं`की पहचान के साथ-साथ इस बात पर बल देते हैं कि उसके पीछे की 'सामाजिक और मनोवैज्ञानिक` शक्तियों की भी पहचान की जाए।
नए कवि हरेप्रकाश उपाध्याय तो इन शक्तियों का पता उपरोक्त 'दुखी दिनों में` शीर्षक कविता में ही दे देते हैं 'हम उन घरों से आए हैं/जहां भूखे रहकर मली जाती है मूंछ पर घी/जहां चार पैसे के लिए घर के भीतर टन्न-पुन्न हो जाती है/और दरवाजे पर बंधी रहती है हाथी की जंजीर`। 'दो कौड़ी का बनिया` जैसी हिंसक अभिव्यक्ति उसी सामंती परिवेश से आती है जहां भूखे रहकर मूंछों पर घी मलने का चलन रहा हो। सामाजिक न्याय का अचार बांधे कृष्णावतारों को देखने वाले मदन कश्यप जब अपने अतीत में झांकते हैं तो पाते हैं कि "मां के बक्से में 'कल्याण` की कुछ प्रतियां और नानी की चिट्ठयां थीं/पिता के संदूक में सन् ४८-४९ की कुछ फिल्मी पत्रिकाएं"। (शायद वे 'फिल्मी पत्रिकाएं` ही हैं, जो मदन जी को जरा कम प्रतिगामी बनाती हैं) वंचित तबकों के पक्ष में जाने वाले राजनैतिक माहौल के निकट से गुजरते हुए संजय कुंदन को लगता है कि वह 'मूर्खों की दुनिया` में आ गए हैं जबकि उन्हें पिता को 'जनेऊ पर गंगाजल छिड़कते हुए (देखते)/लगता है/जैसे पूरी दुनिया को ही स्वच्छ बनाने में जुटे हों पिता` (पिता की बेचैनी)। बहुसंख्यक जनता को रोटी के एक टुकड़े के लिए कुत्ता का संबोधन देते हुए 'भुक्खड़` बताने वाले अरुण कमल के अब तक आए चारो कविता संग्रह उस विनयपत्रिका से शुरू होते हैं जहां तुलसीदास भीख मांगने की मुद्रा में हैं 'विनयपत्रिका दीन की, बापू! आपु ही बांचो..`। अरुण जी की अंतिम इच्छा भी उसी कर्मकांडी परिवेश का पता देती है 'ओ विराट गंगा पहला स्नान यहीं ,अंतिम स्नान भी यहीं`। (गंगा को प्यार)
मुक्तिबोध की कसौटी यह भी चाहती है कि इस साहित्य के प्रभावों, सामाजिक शक्तियों द्वारा इसके उपयोग-दुरूपयोग तथा सामान्य जन पर इसके प्रभावों की भी गहनता से पहचान की जाए। किन्तु विस्तार संकोच के कारण यहां सिर्फ इतना कि यदि उच्च सामाजिक समूह से आए साहित्यिक की प्रतिबद्धता नागार्जुन की तरह 'बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त` जैसी भी न हो, मुक्तिबोध की भांति मस्तककुंड में जलती ज्वाला; सत्-चित-वेदना न हो तो स्वभावत: कच्चे माल के रूप में आंचलिकता के पुनसृजित रूप को किसी भौगोलिक भूखंड से अधिक रचनाकार का संस्कारगत परिवेश तय करने लगता है। जैसा कि हम बिहार के उन 'प्रतिनिधि` कवियों को पढ़ते हुए पाते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में सामंती-कर्मकांडी संस्कार रहे हैं। इसका प्रमाण कर्मकांडी पृष्ठभूमि के उच्च सामाजिक समूहों से आने वाले कवियों और वंचित समुदाय से आने वाले कवियों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए भी पाया जा सकता है। कर्मकांडी-अभिजात पृष्ठभूमि वाले कवि जिसे मसखरा, जोकर और माथा पर मूतने वाला कहते हैं उसी राजनीतिक परिदृश्य के बारे में शोषित समुदाय से आने वाले कवि मुसाफिर बैठा की कविता देखें-लंगड़ा ही सही /अब लोकतंत्र आ गया है /जिसमें एकलव्यों के लिए भी पर्याप्त स्पेस होगा /चेतो डरो या कि कुछ करो द्रोण!!
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(15 वर्षो से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय प्रमोद रंजन विचारों की त्वरा और मौलिक विश्लेषण के लिए जाने जाते हैं। रंजन ने उत्तर भारत के समाज, राजनीति, मीडिया के आंतरिक जनतंत्र आदि विषयों पर अपने शोधपूर्ण लेखन के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध बनाया है तथा हिंदी पत्रकारिता में हाशिए पर रहे दलित-ओबीसी मुद्दों को विमर्श के केंद्र लाने में योगदान किया है। पत्रकारिता के अलावा, हिंदी आलोचना में भी उन्होंने सशक्त हस्क्षेप किया है। उनका यह बहुचर्चित आलेख ‘जन विकल्प’ के अगस्त, 2007 अंक में प्रकाशित हुआ था)