Rangee baabuu ka riksha in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | रंगी बाबू का रिक्शा

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रंगी बाबू का रिक्शा

15.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 54, शब्द-संख्या 17,788)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

रंगी बाबू का रिक्शा

प्रकाश मनु

*

545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

**

प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

*

जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

*

‘रंगी बाबू का रिक्शा’...! ई-बुक के रूप में सामने आई इस पुस्तक में मेरी चार बहुत संवेदनशील कहानियाँ शामिल हैं—‘रंगी बाबू का रिक्शा’, ‘एक उदास पेंटिंग की कहानी’, ‘धन्य-धन्य धंधा’ और ‘एक बूढ़े आदमी के खिलौने’।

इनमें हर कहानी पर, समय-समय पर पाठकों की इतनी सकारात्मक और आवेगपूर्ण प्रतिक्रियाएँ मिलती रही हैं कि उन्हें याद करके आज भी रोमांचित हो उठता हूँ। खासकर अभी कुछ अरसा पहले ही ‘संप्रेषण’ पत्रिका में छपी ‘एक बूढ़े आदमी के खिलौने’ कहानी को पढ़कर सिर्फ पाठकों ने ही नहीं, हर पीढ़ी के लेखकों ने इतनी सुंदर और आत्मीय प्रतिक्रियाएँ दीं कि मुझे लगा, कहानी लिखना सार्थक हो गया। ‘संप्रेषण’ के संपादक भाई चंद्रभानु भारद्वाजजी ने फोन करके बहुत उत्साहित स्वर में कहा कि “मनु जी, मैं तो हैरान हूँ। आपके प्रशंसक तो देश के हर कोने में मौजूद हैं। कहानी पर बहुत प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। सभी को कहानी बहुत अच्छी लगी है।”

सुनकर बड़े संकोच के साथ मैंने कहा, “कह नहीं सकता भारद्वाज जी। पर शायद कहानी में कुछ था, जो बहुतों को अपना-सा लगा होगा। हमारे समाज में बूढ़ा होते ही आदमी निरर्थक और एक फालतू बोझ मान लिया जाता है। यही दर्द था, जिसने कहानी लिखवा ली और शायद यही पाठकों के दिल में भी उतर गया।”

इस पुस्तक में शामिल बाकी कहानियों में ‘रंगी बाबू का रिक्शा’ एक स्वाभिमानी रिक्शा चालक की कहानी है, जिसने किशोरावस्था और तरुणाई में देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहा और अब बुढ़ापे में उसे रिक्शा चलाकर गुजर-बसर करना पड़ रहा है। पर उसकी ठसक और स्वाभिमान में जरा भी कमी नहीं आई। ‘एक उदास पेंटिंग की कहानी’ में एक ऐसी स्त्री की तसवीर है, जिसे जीवन अपनी शर्तों पर जीना पसंद है। अपना अकेलापन और जिदें पसंद हैं। साथ ही अपनी काली बिल्ली और पेंटिग्स का शौक भी कम पसंद नहीं है, जो उसकी जिंदगी को एक अलहदा रंगत और आनंद भी देता है। ‘धन्य-धन्य धंधा’ में एक कसबे के कालेज के प्राध्यापकों का किस्सा है, जिनके लिए ट्यूशन का सीजन एक उत्सव की तरह आता है। इस धंधे के लालच में वे इस कदर खो जाते हैं कि प्राध्यापक कम, धंधेबाज अखाड़िए ज्यादा लगते हैं।

यों इन कहानियों में जीवन के विविध रंग और परिदृश्य हैं, पर बड़े संवेदनात्मक ढंग से ये हमें आदमी की अच्छाई और इनसानियत की उस सुवास से जोड़ देती हैं, जिसे दुनिया की तमाम तरह की आपाधापी में धँसकर हम भूल जाते हैं। यहाँ तक कि हम अपने आप से परचना और भीतर अपनी आत्मा से संवाद करना तक भूल जाते हैं, जिससे जुड़े बगैर हम एक देह तो हैं, मनुष्य नहीं।...और दूसरे पहलू से देखें, तो मनुष्यता हमारे आसपास हर जगह है, हर किसी में है। अगर हमारे पास देखने वाली आँख है तो हम जान सकते हैं कि ‘एक बूढ़े आदमी के खिलौने’ का बहुत मामूली लगने वाला बूढ़ा शख्स या ‘रंगी बाबू का रिक्शा’ का गरीब रिक्शा वाला रंगी बाबू भी ऐसे इनसान हैं जिनके भीतर की आत्मा या मनुष्यता मानो कंचन की तरह जगमग-जगमग कर रही हैं। मानो वहाँ एक नहीं, एक साथ हजार दीए जल रहे हैं।

इस मानी में ये चारों कहानियाँ हमारी सोई हुई संवेदना को टहोका देकर जगाने और हमें अपने आप से मिलवाने वाली ऐसी दमदार कहानियाँ हैं, जो आज के पतन के दौर में भी एक बड़ी उम्मीद से आभासित हैं। और इन कहानियों को पढ़ने के बाद हम महसूस करते हैं कि बरसों से बंद पड़े हमारी आत्मा के आले में भी जगमग-जगमग करता एक दीया जल उठा है, जिसके निर्मल प्रकाश में हम खुद भी नहा जाते हैं। हमें भीतर-बाहर बहुत कुछ नया-नया और बदला हुआ-सा दिखाई पड़ने लगता है।

अलबत्ता अलग-अलग दौर में लिखी गई और अलग-अलग शक्लों में सामने आई मेरी ये पसंदीदा कहानियाँ ई-बुक के रूप में पाठकों के बीच पहुँच रही है। इस विस्मय भरे, रोमांचक सुख का वर्णन कैसे करूँ? इन पर पाठक अपनी प्रतिक्रिया देंगे तो मुझे बहुत सुख मिलेगा।

15 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

अनुक्रम

  • रंगी बाबू का रिक्शा
  • एक उदास पेंटिंग की कहानी
  • धन्य-धन्य धंधा
  • एक बूढ़े आदमी के खिलौने
  • 1

    रंगी बाबू का रिक्शा

    प्रकाश मनु

    *

    देख तो मैं पहले भी रहा था और खासी हैरानी से देख रहा था। पर जब मेरे दोस्त उदित अंजुम ने ‘ना-ना’ करके हाथ का इशारा किया, तो मेरा ध्यान एकाएक उधर गया। कुछ ढूँढ़ने, खोजने की नजर से।

    इधर उन टोपीधारी सज्जन, रंगी बाबू उर्फ नेता जी की नाराजगी अपनी जगह, “हमने जब पैले कई, तो पैले ई इधर आनो चाहिए थो ना आपको...!”

    इस पर उदित का मुसकराते हुए अलबेला जवाब, जो मुझे याद रह गया। उसने कहा था, “तुम बोलते बहौत हो नेता जी। पैले जे वादा करौ कि तुम बोलोगे नईं। बस, चुप्पईचाप रिक्शा चलाओगे!...है मंजूर तो बोलो!”

    “अरे भैया, हम ना बोलिंगे, अगर हमाओ बोल तुम्हें इत्तोई बुरौ लगत है तौ!” रंगी बाबू गस्सा गए।

    मैं डरा, अब वे कुछ कहेंगे। पर नहीं, चुप। एकदम चुप्प!...उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती थी। और हाँ, इस बीच उनके चेहरे पर एक ललछौंही परछाईं-सी आ पड़ी, जो चेहरे के रोब को कुछ और बढ़ा देती है।

    अब के मैंने गौर से देखा, आबनूसी रंग की कैसी विशाल ठाटदार काया! खासी लहीम-शहीम। तिस पर खादी का मोटा, सफेद कुरता, सफेद धोती। कुछ-कुछ मटमैलापन लिए हुए। मगर साहब, मटमैला ही यहाँ है, दीनता हरगिज नहीं! और यह सब धारण करके अगला रिक्शे पर किस अदा से जमा है, भई वाह! रिक्शा अगर बोल सकता होता तो जरूर बोलता, “भई, मुझे बख्शो, मैं तुम्हारे लायक नहीं!”

    पर रंगी बाबू रिक्शे पर ऐसे जमे थे—कुछ-कुछ डिक्टेटराना तरीके से, कि जैसे उसके कान उनके हाथ में हों...कि बच्चू, जरा भी चूँ-चपड़ की तो देख लीजौ, खैर नहीं!

    तहसील चौक से स्टेशन पर ले जाने का रंगी बाबू का तयशुदा रेट था दस रुपए, चाहे अकेले बैठो या दो। यही सर्वाधिक प्रिय जगह थी नेता जी की। कहिए कि पसंदीदा ठिकाना, जहाँ से सवारी बैठाकर यात्रा प्रारंभ करना उन्हें प्रिय था। शहर का यह बाहरी इलाका था, पर जब से शहर का विकास हुआ है, यह इलाका खासी रौनक लिए था। तीन-तीन इंटर कालेज और एक लड़कियों का डिग्री कॉलेज इसी चौक से आकर जुड़ता था। लिहाजा सुबह से रात तक चहल-पहल, रंगों की...खुशियों की बहार।

    अलबत्ता हम बैठे और रिक्शा चल पड़ा। वाकई चल पड़ा। आश्चर्य!

    मुझे अपने गलत होने पर तीखी झुँझलाहट महसूस हुई। मैं सचमुच गलत था। रिक्शा तो उनका गुलाम नहीं, परिवार का सदस्य था। एकदम आत्मीय। कहाँ तो मैं सोच रहा था कि कोई सत्तर साल का यह बंदा रिक्शा चलाता कैसे होगा और कहाँ अब यह लग रहा था कि रिक्शा तो बस उनके पैरों के छूने से चल रहा है। या शायद मन की सोच से। जोर कहाँ लग रहा है? लग भी रहा है कि नहीं, पता नहीं।

    मानो यह सब रंगी बाबू के लिए इतना सहज हो कि वे साँस ले रहे हैं और रिक्शा खुद-ब-खुद दौड़ा जा रहा है!

    मेरे होंठों से मानो निकलना ही चाहता था—‘वाह, नेता जी, वाह!’ कुछ-कुछ तबले वाले ‘वाह उस्ताद!’ की तर्ज पर। पर उदित जाने क्या समझ बैठे, सोचकर रुक गया। और रिक्शा उसी तरह सर्राटे से दौड़ा जा रहा है, जैसे रिक्शा नहीं, भगवान कृष्ण का रथ हो!

    2

    अब तक इस प्राचीन शहर के उन ‘महान’ नेता जी में मेरी गहरी दिलचस्पी जाग गई थी। मानो वे आदमी से ज्यादा इस शहर की प्राचीनता या कहिए ‘पुरातत्व’ से जुड़ी कोई शैै हों! कोई ऐतिहासिक भग्नवाशेष।

    “यह...रिक्शा कब से चला रहे हैं आप?” यही सवाल पूछा जा सकता था बात शुरू करने के लिए। मैंने पूछा।

    चुप्पी—एक क्षण के लिए चुप्पी। बड़ी ठोस।

    इन्होंने सुना भी कि नहीं? लगता है, उम्र का असर...? इस मूक सवाल के साथ मैंने उदित की और देखा। वह मेरी बात को शायद कुछ और गुंजार के साथ नेता जी तक पहुँचाना चाहता था कि इतने में टूटी, चुप्पी टूटी।

    और एक क्षण के लिए मुझे यकीन नहीं आया कि यह खनकदार गूँज इसी पर्वताकार जिस्म से निकल रही है!

    “...जिंदगी गुजर गई बाबू जी, अब तो! इसी में गला दी बाबू जी, हमन्ने तो अपनी पूरी जिंदगी!” नेता जी की भारी और कुछ-कुछ खरखरी आवाज। पता नहीं उसमें कितना पछतावा था और कितना पूरे संतोष से जिंदगी जी लेने का भाव?

    फिर बोले, “बस्स, समझो कि अंगरेजन के जमाने से चलता चला आ रहा है अपना रिक्शा। राजा की सवारी है साब! इसी से पाल लिया इतना बड़ा कुनबा। तीन बेटे, चार बेटियाँ। यानी सात बेटे-बेटियाँ, दो हम।...नौ जने हुए कि नहीं! कोई मामूली बात है नौ जनों का टब्बर पालना आज के टेम में! पर अब ईश्वर की दया से सब अपने-अपने घर में हैं, सुख से हैं। अब यहाँ शहानाबाद में तो हम बूढ़ा-बुढ़िया दो ही हैं! तो देख लो आप, बड़ा साथ दिया इसने...और अब भी बुढ़ापे की लाठी ही समझो बाबू जी।”

    बात अंग्रेजों की चली तो गाँधी बाबा की भी चलनी ही हुई। पता चला कि नेता जी को न सिर्फ कई दफा गाँधी बाबा को सुनने का सुयोग मिला, बल्कि गाँधी जी ने ही उनके भीतर देश के लिए कुछ करने की चिनगारी भरी। और अपने ये नौरंगीलाल यादव तब स्वाधीनता संग्राम के दिनों में, बचपन के खेलने-खाने की बाली उमर में ही नेता हुए तो फिर जिंदगी भर के लिए ‘नेता जी’ होकर रह गए।

    और सन बयालीस के दिनों में तो—खुद रंगी बाबू की बातों से ही पता चला कि गाँधी जी ने खुद बुलवाया था उन्हें और कहा था कि नेता जी, बस यह समझो कि शहर शहानाबाद की जिम्मेदारी तुम्हारे कंधों पर है! देखना, तुम्हारे शहर में कहीं हमारा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ फेल न होने पाए!

    तब हमारे रंगी बाबू की उमर जानते हैं, कितनी थी? कुल ग्यारह साल! मगर ग्यारह साल के नेता जी ग्यारह साल के किशोर नहीं, बल्कि पूरे एक भूचाल थे। पूरी एक संघर्ष-वाहिनी थी उनकी, जिसमें उनसे दुगनी-तिगुनी उमर के उनके अनुयायी और प्रशंसकों की कतार थी।...

    सो गाँधी बाबा की इत्ती-सी बात सुनते ही रंगी बाबू ने छाती ठोंककर कहा था, “गाँधी बाबा, आपने कह दी अपने जी की बात जो कहनी थी। अब हमारी सुनो! कल सबेरे ठीक सात बजे जिला कलेक्टरेट और तहसील पर हमारा तिरंगा फहरेगा। किसी अंगरेज माई के लाल की हिम्मत नहीं कि रोक ले।...जब तक आपके नेता जी की देह में एक बूँद भी रक्त है, लड़ाई थमेगी नहीं। तुम्हारे नेता जी की बात एकदम पत्थर की लकीर है, समझ लो!”

    सुनकर गाँधी बाबा आश्वस्ति के भाव से कैसे मंद-मंद, मीठी हँसी हँसे थे, रंगी बाबू क्या आज तक भूल पाए? फिर गाँधी जी ने विनोद भाव से कहा था, “अरे, क्या मैं जानता नहीं हूँ इस बात को? यह तो सिर्फ इसलिए कह दिया कि देखें नौरंगीलाल, तुम जवाब क्या देते हो!”

    “तो क्या जवाब सही है गाँधी बाबा...! मैं पास हो गया?” ग्यारह साल के नौरंगीलाल यादव उर्फ नेता जी की विनम्र जिज्ञासा।

    “बिलकुल...! बिलकुल सही जवाब! जवाहरलाल जब कभी मिलेगा—अब तो शायद जेल में ही हो हमारी मुलाकात, तो मैं उससे कहूँगा कि जवाहरलाल, जरा सुनो मेरी बात। ये शहर शहानाबाद के हमारे छोटे-से नेता जी क्या कहते हैं, इससे जरा सीख लो! तुम्हें बड़ी प्रेरणा मिलेगी।” गाँधी बाबा ने प्यार से रंगी बाबू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था।

    और उनकी मुद्रा तब कैसी थी, इसे भला रंगी बाबू कैसे कहें? बस मुग्ध होकर इतना ही कहते हैं, “बाबू जी, वो तो कोई आदमी नहीं थे, देवता थे। और देवताओं के बारे में तो हमने सुनोई है। पर ये तो ऐसे देवता थे कि हमने खुद अपनी आँखन सौं देखौ है!”

    फिर जाने क्या रंगी बाबू के मन में आया कि उन्होंने बाबा तुलसीदास की ‘विनय पत्रिका’ वाली शैली अपना ली।

    “लोग कहते है कि किसी सच्चे, भले आदमी का वर्णन तो कवि भी नहीं कर सकता! तो बाबू जी, हम तो अनपढ़ ठहरे। हम कहाँ तक वर्णन करेंगे...?”

    रंगी बाबू ने भावना में छल-छल-छल करता सवाल मेरी तरफ उछाल दिया है! मैं क्या कहूँ भला?

    3

    कुछ देर मौन सन्नाटा। स्वाधीनता आंदोलन की जिस उथल-पुथल भरी चरम वेला में हम जा पहुँचे थे—मैं, रंगी बाबू और उदित अंजुम, वहाँ से उतरकर नीचे आना आसान नहीं।

    कहने की जरूरत नहीं कि उस भीषण गहमागहमी वाले दौर में रंगी बाबू ने वाकई झंडा फहराया था। और हुआ यह था कि जो शहर का दरोगा था दुर्मुखसिंह और बड़ा ‘सख्त करेज’ माना जाता था—एकदम पत्थर, वह कुछ तो हमारे किशोर-वय नेता जी के त्याग और कुछ अपनी आन-बान वाली देशभक्त पत्नी की फटकार से खुद-ब-खुद नेता जी के साथ आ मिला। और फिर तो वो चमत्कार हुआ जो शहर शहानाबाद में ही हो सकता था। जिस-जिस ने भी सुना, दाँतों तले उँगली दबा ली।

    एक ऐसी कथा जिसे एक कान को सौ कान बनाकर सुनिए, तो भी तृप्ति नहीं। गोलियों की सनसनाहट के बीच बहादुरी की अजब दास्तान...!

    लेकिन...?

    लेकिन फिर वर्तमान सामने आ गया। रंगी बाबू बातों के साथ-साथ रिक्शा सरपट दौड़ाए लिए जा रहे थे।

    “...लेकिन इस उम्र में रिक्शा चलाना! कोई सत्तर साल की उम्र में? यह तो ज्यादती है, बहुत ज्यादती!” मैं गहरे सीझ गया। और शायद अपने आपसे ही कहा है मैंने।

    मगर ज्यादती किसकी?...जरूर कोई न कोई मजबूरी रही होगी, जरूर! मैं सोचता हूँ।

    हर किसी के मन में छिपी हर बात कोई कहाँ जान पाता है! फिर मजबूरियाँ भी तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि...जाने कहाँ-कहाँ की कहनी-अनकहनी!

    “आपके बाल-बच्चे! वे नहीं परवाह करते आपकी? इस उम्र में आपको ये...रिक्शा चलाना पड़ता है!” आखिर मैंने सीधे-सीधे कह ही दिया।

    “सब हैं बाबू जी, सबन की अपनी-अपनी न्यारी दुनिया!” रंगी बाबू मानो परम वैराग्य भाव से कहते हैं। “हम तो काऊ में दखलंदाजी करते नईं हैं। ना हमको जे अच्छौ लगे कि कोई हमसे आकर कहे कि बाबू जी, जे तुम करो, जे नईं। हमने कबऊ काऊ की नायँ सुनी, अब का सुनिंगे...?”

    वाह, यह ठसक! जी खुश हो गया। यानी कि अब भी दुनिया में इतना पानी बाकी है!

    ‘पानीदार लोग’—कैसा रहेगा रंगी बाबू पर लिखे गए किसी रेखाचित्र या संस्मरण का यह शीर्षक? मैं अपने आपसे पूछता हूँ।

    तब तक उनकी उद्बुद्ध वाणी सुनाई दे गई, “अब बाबू जी, बेटे तो अच्छे हैं, पर हम तो गाँधी बाबा से सीख लिए स्वावलंबन। बाँकूहै गए कोई पचपन-साठ बरस। तब से आज तलक तो भूले नईं!”

    “अरे, बेटे बहुत अच्छी-अचछी जगह हैं रंगी बाबू के!” अब के उदित अंजुम ने हस्तक्षेप करते हुए मेरे ज्ञान में इजाफा किया, “कोई इन्हें देख के अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि इनके बेटे ऐसी बड़ी-बड़ी पोस्टों पर हैं। एक तो फूड कारपोरेशन में बड़ा अफसर है, दूसरा रेलवे में गार्ड। तीसरा साइंस टीचर है पास के मक्खनपुर कस्बे में। लड़कियाँ भी अच्छे घरों में गई हैं।”

    फिर उसने उसी रौ में आगे कहा, “यार शीलू, इनके एक समधी तो मंत्री रहे हैं यू.पी. गौरमैंट में! कोई पाँच-सात साल पहले की ही बात होगी। एक दिन मुख्यमंत्री का परवाना लेकर आए कि नेता जी, इलेक्शन लड़ लो! इस बार का टिकट तुम्हारे नाम का पक्का रहा! पर भाई, नहीं लड़ा तो नहीं ही लड़ा। यों भी नेता जी अपने आगे सुनते हैं काहू की? बस, हर बात का एक ही जवाब कि ना-ना, मेरे भीतर जो गाँधी बाबा बैठा है, सो वो इनकार कर रहा है...!”

    अब के उदित ने मेरी जानकारी में खासा इजाफा किया है। एक साँस में बहुत कुछ आगे-पीछे का खुलता चला आया है। लेकिन मेरी चिंता अपनी जगह।

    “तो फिर जितना रखना चाहिए, लड़के-बच्चे उतना ख्याल रखते नहीं होंगे। आखिर बूढ़े आदमी का भी तो एक स्वाभिमान होता है। जिन बच्चों को इतनी मुश्किल से पाल-पोस के बड़ा किया, अब उनसे भीख तो माँगेंगे नहीं!”

    मेरे भीतर एक तीव्र शंका ने करवट ली। मगर उसे तत्काल काट दिया गया, “नहीं-नहीं, ऐसा नहीं। ऐसा तो बिलकुल नहीं बाबू जी!”

    नेता जी बड़ी सहजता से मेरी शंका का समाधान-सा करते हैं। एकदम अकुंठ भाव! और फिर मजेदार प्रसंग चल पड़ता है पाँच किलो देसी घी का। सचमुच दिलचस्प!... हुआ यह कि नेता जी बड़े बाजार के मशहूर पुन्ना शाह घी वालों से घर में पाँच किलो देसी घी लेकर आए। एक तो वे देसी घी खाने के शौकीन हैं, खासकर सर्दियों में। फिर यह उनकी जरूरत भी है...कि देह में बल ही न होगा तो रिक्शा क्या खाक चलाएँगे? तो घर में घी लाए अभी हफ्ता भर भी नहीं हुआ होगा कि वे एक दफा यों ही किसी काम से रसोई में गए तो देखते क्या हैं कि आधे से ज्यादा पीपी खाली। अब तो नेता जी सन्नाटे में आ गए कि यह क्या! देसी घी कहाँ गया? घर में कोई चोर तो घुसा नहीं! तो फिर...?

    हारकर घरवाली से पूछा तो असली कहानी खुलकर आई बाहर...कि उस दिन घर में छोटा बेटा और उसकी बहू-बच्चे आए हुए थे। बहू किसी काम से रसोई में गई तो घी की भरी पीपी देखकर उसकी तबीयत डोल गई। बोली, “माँ जी, घी तो बहुत अच्छा है! पापा जी को सचमुच घी की अच्छी पहचान है, वरना ये तो जब भी लाते हैं, लुट-पिटकर चले आते हैं। इन्हें तो बिलकुल पहचान ही नहीं है असली घी की। हम तो सचमुच घी खाने को तरस गए।”

    और इस पर अम्माँ जी ने वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था। उन्होंने झट पीपी खोली और आधे से ज्यादा घी बहू को एक दूसरी पीपी में डालकर दे दिया कि लो बहू, ले जाओ। अभी तुम्हारे खाने-खेलने के दिन हैं, हम तो बहुत खा चुके!

    “...तो, अब समझ गए न आप बाबू जी, कि तीनों बेटे हालाँकि टोकते हैं कि बाबू, अब आप रिक्शा न चलाया करो, अच्छा नहीं लगता! पर नजर सबकी बाप की इसी रिक्शे की कमाई पर ही रहती है! खुद कमाता हूँ तो चाहे देसी घी खाऊँ, चाहे सूखी रोटी, कोई टोकने वाला तो नहीं है। पर जिस दिन से बेटों पर आ पड़ूँगा, तीनों बहुओं की नजर इस पर रहेगी कि बुड्ढा काम न धाम का, मगर खाता कितना है।...मैं कुछ गलत तो नहीं कह रहा बाबू जी?”

    मुझे लगा, इस एक छोटी-सी बात से ही नेता जी के मनमौजी जीवन-दर्शन का पूरा मर्म मानो खुल पड़ा है।

    और फिर कई और किस्से! एक दफा बेटे-बहू के बहुत इसरार करने पर नेता जी उनके घर गए, तो इरादा तो हफ्ते-दस दिन रुकने का था, मगर तीसरे दिन ही वापस आ गए। घर आकर बताया कि ना जी ना, वहाँ मेरा क्या काम? ...कि बहू तो हर बार माँगने पर चाय देती है और सो भी इतनी काली कि राम दुहाई! सो वे साफ-साफ कहकर चले आए कि जहाँ मन की चाय तक नहीं, तो वहाँ रहने का क्या फायदा?

    फिर सुना गया, बहू बार-बार टेलीफोन करके सास से पूछती रही कि सासू जी, जरा बताइए तो, आपकी स्पेशल चाय कैसे बनती है जो हमारे ससुर जी को खासी प्रिय है? अबके आएँगे तो मैं वैसी ही बनाकर पिलाऊँगी! सो दूसरी दफे साल-दो साल पीछे फिर गए, मगर थूक से बड़े तलने वाली इस चतुर, मिठबोली बहू के यहाँ कुछ खास तसल्ली न हुई और लौट आए।

    और दूसरे बेटे के यहाँ तो और भी अजब किस्सा हुआ। उसे सरकारी फ्लैट मिला हुआ था, जहाँ किराया मुफ्त, बिजली-पानी मुफ्त। उसने बुलाया कि बाबू जी, आइए, इस बुढ़ापे में कुछ दिन हमारे यहाँ भी रहकर थोड़ी सुख की साँस लीजिए। मगर बेटे के घर का सुख जहर हो जाएगा, यह न नेता जी जानते थे और न उनका बेटा। हुआ यह कि वहाँ सब कुछ मुफ्ती का था। सो रात-दिन बिजली-पानी की बर्बादी होती थी। नल चलता था, मगर कोई उसे बंद करने वाला नहीं! सारे कमरों में खामखा बल्ब जल रहे हैं, पंखे चल रहे हैं। जरूरत हो या बेजरूरत, कोई बटन बंद करने वाला नहीं। नेता जी सारे दिन पानी की टोंटी बंद करते और स्विच ऑफ करते-करते परेशान कि भई, अपने गरीब देश में बिजली-पानी की ऐसी फिजूलखर्ची किसलिए? मगर बेटे-बहू का तर्क था कि “अरे बाबू जी, आप परेशान काहे होते हैं? कौन इस पर हमारा खर्च आता है! बिल तो सरकार चुकाएगी, कोई हम थोड़े ही!”

    इस पर नेता जी ने टोका और तैश में आकर गाँधी बाबा और स्वदेशी के विचार का बखान करने लगे कि “भई, ये गरीब देश है। हम सभी को गरीब जनता के बारे में सोचना चाहिए। बिजली-पानी फिजूल खर्च करना महज बर्बादी ही नहीं, इस गरीब देश में पाप है, घोर पाप!”

    मगर नेता जी जब यह उच्चार रहे थे तो बेटा-बहू ही नहीं, पोते-पोतियाँ भी मुँह बिचकाकर उनका मजाक उड़ा रहे थे।

    नेता जी सीधे-सरल चाहे जितने ही हों, पर अपनी इज्जत और स्वाभिमान के मामले में खरे हैं। बेटा-बहू भी अगर उसके आड़े आए, तो वे उनका क्या करते! सो साफ-साफ कहकर चले आए कि “भई, तुम्हीं सँभालो अपनी यह पाप की लंका, मैं तो चला!” और उसके बाद सुनते हैं कि उस बेटे के घर कभी उन्होंने अपना पैर तक नहीं रखा।

    4

    बातों-बातों में उदित के मुँह से निकलता है, “नेता जी, ये हमारे खास दोस्त है। बालापने के! इनके बड़े भाईसाहब बल्बों वाली जो बड़ी फैक्टरी है ना, उसमें अफसर हैं। आप तो जानते होंगे उनको—विनोद साब! ये विनोद साब के सगे भाई हैं!...पहचाना नहीं नेता जी आपने इन्हें!”

    “अरे, विनोद साब तो खूब अच्छी तरियाँ जानते हैं हमें। तो भैया उदित, तुमने पैले चौं नायँ बताई जे बात? इनके और भाइयन को तो जानत हैं हम, पर ये तो देखे नहीं। कऊँ बाहर रहत हैं का?”

    फिर पता चला कि मैं दिल्ली में रहता हूँ, तो बोले, “तो आप क्या विनोद साब के छोटे वाले लड़का गुड्डन की शादी में आए हो बाबू जी?”

    “हाँ-हाँ, शादी में...! पर भाई तुम्हें शादी का क्या पता?”

    “अरे, येल्लो, हमें क्या पता! अरे, हमें क्या नहीं पता? आपके भाईसाहब जब पैंतीस साल पहले फैक्टरी में मामूली ओवरसियर बनकर आए थे, तब से जानते हैं हम इन्हें।” नेता जी हँसे और फिर भाईसाहब के बारे में ही नहीं, बल्कि शादी में कहाँ से कौन-कौन आया, क्या-क्या इंतजाम हुए और क्या-क्या खाने बन रहे हैं, आदि-आदि का पूरा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया उन्होंने।

    “मेहमान तो कई रोज से आ रहे हैं न आपके।” उन्होंने कहा, “और दावत भी खूब चल रही है। कल शाही पनीर और मशरूम की सब्जी बनी थी। उससे पहले छोले-पूरी...शाम को डोसा-इडली, साथ में गुलाब जामुन और छैने की मिठाई। अरे, हलवाई हमने ही तो भिजवाया है विनोद साब के घर। और सुन लो। कोई साठ-सत्तर रिश्तेदार तो आ चुके...और कानपुर वाले रिश्तेदार तो पिछले तीन दिनों से घर में आए बैठे हैं। क्यों, मैं कुछ गलत तो नहीं कह रहा?”

    सचमुच वे कुछ भी गलत नहीं कह रहे थे। सब कुछ सही, एकदम सही!

    मन में कुछ अजीब-सा लग रहा था। यह आदमी कहीं कोई जासूस तो नहीं? रिक्शा चलाने की आड़ में जासूसी का धंधा, वरना इतने छोटे-छोटे डिटेल्स!

    आजकल आदमी का कुछ पता-ठिकाना नहीं। न जाने किस भेस में कौन भेड़िया निकल आए! कुछ और नहीं तो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट का ही कोई जासूस हो, तब...? सुना है, ये आजकल भिखारी-विखारी की शक्ल में भी खड़े रहते हैं शहर के चौराहे पर। तो उनके लिए रिक्शा चलाना और रिक्शा चलाते-चलाते ‘भेद’ ले लेना कौन मुश्किल है! शायद इसीलिए उदित अंजुम इशारा कर रहा था चुप रहने का। मुझे क्या जरूरत थी खामखा इतनी खुदाई करने की! अरे, बंदा है, रिक्शा चला रहा है, पैसे दो और फुटाओ! वही ठीक रहता है, वरना तो...

    आदमी गड़बड़ है, सचमुच गड़बड़! खैर, अब तो क्या हो सकता है!

    स्टेशन आया, तो हम उतरे। जेब में हाथ डाला। टूटे पैसे न थे, पाँच सौ का नोट!

    “अरे, क्या पाँच सौ? इतना बड़ा नोट!...टूटे पैसे तो हैं नहीं हमारे पास!” नेता जी ने अपनी मुश्किल बताई।

    एक क्षण संकोच में खड़े रहे, कुछ सोचते से। वे भी, हम भी।

    आखिर वे कुछ सोचकर रिक्शा वहीं छोड़कर गए, नोट तुड़ाकर लाए। और सचमुच झटपट तुड़ाकर ले आए।...

    चमत्कार...सचमुच चमत्कार! वरना शहर शहानाबाद में आजकल किसी का सिर तो फटाफट फूट सकता है, पर नोट वह भी खासकर पाँच सौ का नोट तुड़ाना आसान नहीं। अगर आप जान-पहचान के नहीं हैं तो पहला शक तो इसी चीज का होगा कि जरूर साला ठग है, हमें नकली नोट भेड़ रहा है।...मारो स्साले को!

    और इससे भी बड़ा अचरज यह कि जिस पान के खोखे से वे नोट तुड़ाकर लाए थे, वहाँ बैठे लड़के ने नीचे उतरकर उनके पाँव छुए और फिर बड़े आदर से फटाफट खुदरा नोट गिनकर दे दिए।

    मैं दूर से ही देख रहा था नजारा—बड़े ही आदर से और आश्चर्य से। मन ही मन बुदबुदाते हुए, “अर्रे, वाह रे नेता जी!”

    फिर मालूम पड़ा कि पान के जिस खोखे से, वे नोट तुड़ाकर लाए थे, वह नेता जी की मेहरबानी से ही अस्तित्व में आया था।

    एक कथा में से निकलती एक और कथा।

    “सचमुच हो सकता है ऐसा...?” मैं पसोपेश में। पर उदित अंजुम ने ताईद की कि सचमुच हुआ था ऐसा किस्सा कि “एक जरा दिलफेंक तबीयत के लाला जी थे। लाला बेलाराम। वो अपने बाल-बच्चों को छोड़, किसी ऐसी-वैसी छम्मक-छल्लो औरत के चक्कर में आ गए थे। वो औरत थी तो बला की खूबसूरत और सच पूछो तो तवायफ थी। और असल में तो उनके पैसे के पीछे थी वो।...फिर हुआ ये जो कि होना ही था कि एक रात लाला रेलवे स्टेशन की पटरियों पर मरे हुए पाए गए। सिर अलग, धड़ अलग। उस औरत का तो उस दिन के बाद से कुछ पता-ठिकाना नहीं। पर उनके बाल-बच्चों को खड़ा करने की जिम्मेदारी ले ली हमारे इन नेता जी ने। बड़ा लड़का जो पढ़ा-लिखा था, वो तो बल्बों की इसी फैक्टरी में लग गया और ये छोटा वाला है...”

    “तो दावत तो कल है, रात साढ़े आठ बजे! मैं आऊँगा। मुझे तो खास तौर से बुलाया है विनोद साब ने!”

    नेता जी फड़कती हुई मूँछों के साथ मुसकराते हुए कह रहे हैं। फिर चलते-चलते उन्होंने पूरी आश्वस्ति के साथ जोड़ा, “कल जरूर मुलाकात होगी बाबू जी!”

    5

    अगले दिन सचमुच रात की दावत में नेता जी मौजूद थे। मैं तो बहुत अरसे बाद मिले मित्रों से मिलने और उनका हालचाल जानने में व्यस्त था और लगभग उन्हें भूल ही चुका था। पर...अचानक वे दिखाई पड़े तो मैं चौंका।

    साफ धुला कलफदार खद्दर का कुरता, खद्दर की धोती...और खद्दर की ही एकदम साफ चमकदार जवाहरलाल नेहरू स्टाइल की टोपी। नेता जी अपनी सदाबहार पोशाक में खासे जँच रहे थे। बल्कि लाइट मार रहे थे।

    यों तो दावत में शहर के तमाम वी.आई.पी. थे, यानी धनपतियों से लेकर नौकरशाहों तक बड़े-बड़ों की बड़ी बहार! मगर उनमें सचमुच कोई नहीं था जो नेता जी की टक्कर का हो!

    सभी उनके आगे झुक रहे थे और उन्हें लगभग घेरे हुए थे।

    ‘अजीब लोग हैं इस शहर के भाई!’ मुझे हैरानी हुई।

    और तो और खुद भाईसाहब भी बड़े आदर से उनसे बात कर रहे थे। फिर वे बाँह पकड़कर खुद पंगत तक उन्हें ले गए। बैठाया। और सारी व्यस्तताओं के बावजूद थोड़ी देर वहीं खड़े-खड़े उनसे बात भी करते रहे।

    कुछ देर बाद जब नेता जी खाने में व्यस्त हो गए, मैं भाईसाहब को एक ओर ले गया। मेरी गहरी प्रश्नाकुलता शब्दों में छलक आई थी।

    “भाईसाहब, क्या यह सही है कि ये गाँधी जी के साथ रहे हैं और...?” नेता जी के बारे में कही-सुनी जाती तमाम बातों के आधार पर मैंने अपनी जिज्ञासा उनके आगे रखी।

    विनोद भाईसाहब चुप, एकदम चुप।

    क्या हुआ...क्या...? मैंने कुछ गलत पूछ लिया क्या? मैं चक्कर में।

    “पता नहीं सही है कि नहीं! लेकिन यह तो एकदम सही कि इस फैक्टरी में मेरी नौकरी इन्हीं की वजह से टिकी हुई है!” भाईसाहब धीरे-धीरे, एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहते हैं।

    “क्या?” आश्चर्य से मेरा मुँह खुला का खुला रह गया।

    “हाँ, शीलू!” भाईसाहब अपने में डूबे हुए से बोले, “हुआ असल में यह कि यहाँ एक एम.एल.ए. हैं। ठाकुर डी.डी. सिंह। जाने कैसे उनकी दिलचस्पी इस फैक्टरी में जगी। कुछ लोगों को उकसाया, हड़ताल करा दी और लगे मैनेजमैंट से ब्लैकमेलिंग करने कि पाँच लाख पहुँचाओ हमारे घर, वरना...! उन्होंने सोचा, अच्छा खाने-पीने का धंधा है। वो जितना हो सके, हड़ताल को लंबा लटकाना चाहते थे, मगर मजदूर भी तंग, हम लोग भी। तालाबंदी की नौबत आने को थी। उधर मालिक लोग तो वैसे ही पिछले दस सालों से फैक्टरी बंद करने की जुगाड़ में हैं। सोचते हैं, फैक्टरी ज्यादा मुनाफा तो कमा नहीं रही। इससे तो अच्छा है, यहाँ की लंबी-चौड़ी सैकड़ों एकड़ जमीन जो पहले कौडिय़ों के भाव मिली थी, बेचकर करोड़ों रुपए कमा लें। अगर हजार-पाँच सौ प्लाट भी बनाकर बेच लिए, तो भी करोड़ों का खेल है। समझ रहे हो न! तो मालिकों को भी मजा आ रहा था इस खेल में और वो अपना मुनाफा कूत रहे थे।...अच्छा, इस बात को समझ तो मजदूर भी रहे थे, हम भी कि हालत अब यही आने वाली है। इतने में एक मजदूर ने कहा, ‘जी, नेता जी जो कहें, हम लोग मान लेंगे। आप नेता जी से बात कर लो।’ देखते ही देखते सारे मजदूर यही कहने लगे। तो मरता क्या न करता वाली बात थी। हमने कहा, चलो देखते हैं। इस आदमी के बारे में बातें तो बहुत कही-सुनी जाती हैं, एक दफा खुद चेक करके भी देखना चाहिए...!”

    “तो क्या वाकई नेता जी ने सुलझा दिया इत्ता उलझा हुआ मसला?” मेरी जिज्ञासा।

    “यकदम्म!” भाईसाहब के चेहरे पर बड़ी भली और दिव्य किस्म की चमक थी।

    फिर उन्होंने पूरी बात भी बताई।

    “...नेता जी ने बिलकुल युद्ध स्तर पर काम किया। बोले, इस फैक्टरी से शहर के हजारों घरों की रोटी चलती है, तो इसे बंद तो हरगिज नहीं होने दूँगा, भले ही मुझे अपनी जान की बलि देनी पड़े! सुनते तो यह हैं कि तीन दिन तक उनका खाना-पीना, सोना सब बंद रहा। जो कुछ मजदूर चाहते थे और उनकी जो-जो प्रॉब्लम्स थीं, उन पर उन्होंने मजदूरों से खुलकर बात की। कंपनी की जो हालत थी, उसमें हम जितना कर सकते थे, उसका अंदाजा हमारे साथ उठ-बैठकर लगाया और दो दिन के अंदर मसला खत्म। तीसरे दिन तो अफसर और मजदूर गले मिल रहे थे और साहब, कंपनी की मिल-जुलकर काम करने की पुरानी परंपराओं की दुहाई दी जा रही है!”

    “मगर कैसे...?” मैं सकते में।

    “क्या कह सकते हैं! मगर एक बात तय है, कि मजदूर जान छिड़कते हैं इन पर। नेता जी गलत नहीं कर सकते, चाहे जान चली जाए—ये सब कहते हैं और शायद गलत नहीं कहते!”

    भाईसाहब कुछ-कुछ भावुक हो चले थे।

    मैं हैरान! भाईसाहब तो खासे प्रैक्टीकल और बुद्धिवादी आदमी हैं और ये बहे जा रहे हैं महज एक रिक्शा वाले के लिए! अजीब बात है—कितनी अजीब!

    “उन दिनों तो हमारे जी.एम. भी जान छिड़कते थे इन पर। और उन दिनों क्या, अब भी यही हालत है।” भाईसाहब बता रहे थे, “बातचीत जब चल रही थी, तब तो हालत यह थी कि रोजाना बिना नागा कंपनी की कार भेजते थे इनको घर से लाने के लिए। पर...ये एक दफा भी उस कार से नहीं आए। वापस भेज देते थे। अपने रिक्शे पर आते थे, उसी से जाते थे।”

    “समझौता होने के अगले दिन जी.एम. ने पूरे पचास हजार रुपए भिजवाए कि नेता जी ना मत कीजिएगा, ये हमारी ओर से छोटा-सा तोहफा है! इस पर नेता जी तो आगबबूला, बिलकुल जैसे फट पड़े हों। बोले, ‘आप लोगन ने समझ क्या रक्खा है! अरे, क्या नेता जी को खरीदना चाहते हैं? हम गाँधी के असली चेला हैं, नकली वाले नहीं हैं!’

    “इस पर सुना तो यह भी गया कि जी.एम. को दोनों हाथ जोड़कर माफी माँगनी पड़ी थी और वह ‘सर...सर...’ कहता नेता जी के आगे-पीछे चक्कर काट रहा था। अटक-अटककर उसे बोलते सुना गया था कि ‘नेता जी, किसी से कहिएगा नहीं, जरा मेरी इज्जत का सवाल है!’ तो इस पर नेता जी ने तो वाकई किसी से कुछ नहीं कहा, एक शब्द तक नहीं। तो भी पता नहीं कैसे बात फैल गई!”

    सुनकर मुझे न जाने क्यों एक पुराने लोकगीत की भूली-बिसरी पंक्ति याद आई, “लागी कैसे छूटे हो रामा...!” मानो यह पुराना लोकगीत चोला बदलकर अचानक एक व्यंग्यात्मक सूरत में सामने आ गया। मैं भाईसाहब को भी यह लाइन सुनाना चाहता था। पर वे अपनी रौ में थे और कहे जा रहे थे, “आज भी जी.एम. याद करता है कि सचमुच एक सचमुच के नेता जी से पाला पड़ा था। और इस समझौते से मजदूर तो इतने खुश थे कि आज भी याद करते हैं कि नेता जी ने हमारा बड़ा फायदा कराया था और बड़ा टनाटन समझौता था! इसकी वजह भी सीधे-सीधे यही थी कि बीच में कोई खाने वाला दल्ला तो था नहीं। लिहाजा जो कुछ मजदूरों को मिला, सीधे-सीधे मिला...और खासा मिला। मेरी जानकारी में हमारी फैक्टरी में इतने मजदूरों को पहले कभी नहीं मिला, किसी भी एग्रीमेंट में। इसलिए मजदूरों से पूछो तो वो आज भी नेता जी की जय बोलते हैं। और हमारे जी.एम. का सिर आज तक नहीं उठता इनके आगे!”

    और मुझे याद आया कि नेता जी जब बैठे थे, तो साथ में जी.एम. भी था, मि. सूरी...या पता नहीं, क्या नाम बताया था भाईसाहब ने। और यह भी कि बंदा इंग्लैंड से मैनेजमेंट समेत जाने कौन-कौन से कोर्स करके आया है। पर देखो तो, अपने बढ़िया क्रीजदार सूट, बढ़िया टाई, बढ़िया चमक-चम जूतों के बावजूद नेता जी के आगे कितना निष्प्रभ, पंगु, दयनीय...!

    तभी सूरी साहब की बिल्ली-कट मूँछों पर मेरा ध्यान गया और मेरी हँसी छूटने को हुई, अहा-हा, मिस्टर जी.एम की इन बिल्ली-कट मँूछों के सामने जरा नेता जी की मूछें तो देखो, एकदम शेर की तरह! खुली-खुली, फैली-फैली। नेता जी हँसते हैं तो उनकी मूँछों के सिरे भी क्या खूब फड़कते हैं। और उनके आगे बेचारे बिल्ली-कट सूरी की मूँछें, एकदम चकरघिन्नी की तरह! वे बीच-बीच में घुन्नेपन से हँसते हैं और और फिर अचानक चुप्पी साध लेते हैं, जैसे टायर पंक्चर...सारी हवा निकल गई हो। मगर नेता जी शेर...वाकई शेर! सच्चे सूरमाँ!

    ओह, आज जान पाया गाँधी बाबा की असली ताकत! अहिंसा और नैतिकता की ताकत, जिसे बड़ी-बड़ी शक्तिशाली कुर्सियाँ भी सलाम करती हैं!

    6

    अचानक नेता जी उठ खड़े हुए। एक भीनी मुसकराहट के साथ बोले, “अच्छा विनोद साब, चला जाए! बहुत अच्छा भोजन कराया आपने। बड़ा आनंद आया। गुड्डन बाबू कहाँ है? उसे आशीर्वाद देता चलूँ!”

    फिर गुड्डन आया तो उसके सिर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “अब तुम जवान हो गए हो गुड्डन बाबू। खुद को पहचानो...कि क्या तुम्हें करना है जिंदगानी में! गाँधी जी की आत्मकथा पढ़ो। हम लाकर देंगे तुम्हें।”

    बाईस साल के गोलमटोल गुड्डन ने मंद-मंद मुसकराते हुए सिर झुका लिया है, “अच्छा, नेता जी!”

    रंगी बाबू चलने लगे तो भाईसाहब का विनम्र अनुरोध, “नेता जी, गाड़ी से छुड़वा देते हैं...!”

    “अरे, काहे का कष्ट करते हैं भाई। हमारी सवारी बाहर खड़ी है। कोई राजा की सवारी से कम थोड़े ही ना है हमारी सवारी!” रंगी बाबू अपनी टोपी उतारकर फिर से सिर पर जमाते हैं। बड़े ही आत्मगौरव और इत्मीनान के साथ।

    “और फिर...!” खुदर-खुदर हँसते हुए कहते हैं, “अगर स्टेशन से कोई सवारी मिली तो उठा लेंगे। दो-चार रुपए बन जाएँगेे...और आपके घर जो ढेर सारा पक्का खाना खाया है, सो भी पच जाएगा! यों भी मेहनत में काहे की शर्म! क्यों ठीक कह रहा हूँ न बाबू जी?” इस बार मेरी ओर इशारा करते हुए रंगी बाबू हँसते हैं—एकदम बच्चों जैसी भोली, निष्कलुष हँसी।

    थोड़ी देर में अपने रिक्शे पर सवार वे तेज-तेज पैडल चलाते नजर आते हैं।

    ओर अब वे दृष्टि से ओझल हो गए हैं, पर जाने क्यों मेरी निगाह उस पथ से हटती ही नहीं है। जाने क्यों...?

    **

    2

    एक उदास पेंटिंग की कहानी

    प्रकाश मनु

    *

    उस दिन श्रीराम कला केंद्र के ‘बुक कॉर्नर’ पर किसी ने धीरे से पीठ पर हाथ रखा और मैंने पीछे मुड़कर देखा तो खुशी से भरी चीख सी निकल गई—“अरे, नीरजा!”

    नीरजा हँसी। एक मीठी-मीठी सी हँसी—“हाँ जी, फिलॉसफर।”

    मैं कितनी दफा उससे कह चुका हूँ कि मेरा न फिलॉसफी से कोई लेना-देना है और न उन खास किस्म के अकादमिक विचारों से जिन्हें विमर्श आदि-आदि कहते हैं! मैं तो बस ठेठ और एकसार सा लेखक हूँ जो लिखता है। बस लिख लेता है, क्योंकि लिखे बगैर नहीं रह सकता!

    पर जवाब में नीरजा की वही बिंदास सी हँसी—मेरे धुर्रे उड़ाती हुई!

    झूठ क्यों कहूँ शुरू-शुरू में उसके आभिजात्य से बड़ी चिढ़ सी थी। और उसे मैं प्रकट करने का कोई न कोई बहाना ढूँढता था। फिर जब उसने कविताएँ लिखना बंद करके पेंटिंग्स शुरू कीं और उनमें एक अदद काली बिल्ली अकसर नजर आने लगी तो मैंने बेहद कड़वी हँसी और तंज के साथ उसका मजाक उड़ाया।

    मैंने सोचा नीरजा अब उखड़ेगी पर उसने मुझे अहसास कराया कि मुझमें शायद यही है जो उसे सबसे ज्यादा पसंद है।...कि इसमें अपने आसपास या भीतर-बाहर सब कुछ तोड़ने...सब कुछ तोडफ़ोड़ देने और फिर कुछ बनाकर, फिर सब कुछ तोड़-फोड़ देने की दुर्दांत ध्वंस-इच्छा छिपी हुई है! इसे आप सभ्य, चिकने-चुपड़े लोग अराजकता या सिनिसिज्म कहकर भले ही खिल्ली उड़ाएँ, मगर नीरजा इसे जानती थी, समझती थी बल्कि कहिए कि सिर्फ वही समझती थी। और आज जबकि वह चली गई है, मैं कह सकता हूँ, नीरजा मेरी ‘ध्वंसेच्छा’ को ही सबसे ज्यादा प्यार करती थी। और मैं...सच्ची बताऊँ तो मुझे भी पुरुष-सत्ता या इस पूरे समाज के प्रति उसका तंज या कटूक्तियाँ सुनकर ही मजा आता था, फिर चाहे उनमें कभी-कभी मुझ पर सीधा, एकदम सीधा वार ही क्यों न हो।

    ये चीजें, मैं समझता हूँ, भाषा में...दुनिया की किसी भी भाषा में लिखी नहीं जा सकतीं। तो भी, कोशिश करता हूँ—करनी पड़ेगी, क्योंकि कहानी असल में नीरजा की है! उस नीरजा की जो बस, राह चलते मुझे मिली तो थी, और जब मिली तो...

    मुश्किल से छह या आठ महीनों में ही हम इतने ज्यादा एक-दूसरे से परच गए थे कि एक-दूसरे की खूबियाँ और एक-दूसरे की कमजोर नसें भी अच्छी तरह जानने लगे थे। जब चाहते, एक-दूसरे को तिलमिला देते। जब चाहे आसमान पर पहुँचा देते।

    2

    “सुधाकर, तुम्हारे भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा है। मैं उसके धमाके, विस्फोट, गरम लावा हर क्षण महसूस करती हूँ—तुम्हारी बातों में!” ऐसे ही एक दिन बहुत गंभीर और भावविह्वल होकर उसने कहा था।

    वह आरामकुर्सी पर पीठ टिकाकर बैठी थी और उसकी आँखें, उसकी उत्सुक, अधीर लेकिन कुछ-कुछ चौकन्नी आँखें देखते-देखते मेरे माथे पर टँग गईं।

    “वह तो बल्कि तुममें है, गो कि वह एक शांत ज्वालामुखी है। तुम कहती नहीं हो नीरजा, मगर तुममें...तुममें कुछ कर गुजरने का हौसला कहीं ज्यादा है। मैं तो बस जलता ही रहता हूँ। और सिर्फ जलने से, जलते ही चले जाने से क्या होता है अगर...!”

    “अगर...तुम जैसा हौसला और पुख्तगी न हो! मैं तो...बस अधपागल, मूरख, नासपीटा—कहो, कहो न! पूरी करो अपनी बात।”

    नीरजा हँसी, ऐसी हँसी जिसे हम-तुम सिर्फ विज्ञापनों में ही देखते हैं।

    फिर मैंने काँप-काँपकर उखड़े-पुखड़े शब्दों में अपनी बात पूरी करनी चाही तो मेरे होंठ कुछ टेढ़े-मेढे़, अजीब और हास्यास्पद हो गए।

    ऐसे क्षणों में न जाने क्या होता कि नीरजा की आँखों में हलकी-हलकी भाप सी उड़ने लगती। अपने खूबसूरत लंबे केशों को लगभग मेरे कंधों और छाती पर छितराते हुए, वह मेरे कंधे पर सिर रखकर कुछ ऐसा कहती जो ज्यादा समझ में तो न आता, पर इतना जरूर उससे पता चलता कि हम सहयात्री हैं किसी और ही दुनिया के!

    उद्वेगों और मेरे भीतर की छटाक-पटाक पर वह कभी-कभी मीठी चुप की उँगली भी लगा दिया करती थी, जैसे उबलते हुए ज्वालामुखी का लावा सिर्फ एक कौतुकी स्पर्श से थाम लिया गया हो! फिर वह हँस देती, एक ऐसी हँसी, जिसकी उपमा फिलवक्त मैं नहीं बता सकूँगा। हाँ, हँसते-हँसते उसके होंठ ही नहीं, आँखें भी मीठी शहदीली हो जाती थीं और गाल सुर्ख गुड़हल की तरह लाल, सुर्ख लाल। बस, इतना ही याद है!

    ऐसे ही हँसते-हँसते उसने एक बहुत गाढ़े, जुनूनी सपने में, जब मैं कहानी पूरी करने के बाद मस्ती से कुलाँचें भर रहा था, खेल-खेल में मेरे हाथ से पैन छीना और बड़े ‘धीरजवान’ अक्षरों में इस कहानी का शीर्षक बदलकर छोटा कर दिया था—‘एक उदास पेंटिंग की कहानी’। मेरे होंठ प्रतिरोध के लिए खुले ही थे कि मोहतरमा, यह तो मेरी कहानियों के शीर्षकों जैसा शीर्षक नहीं है, तो उसने हँसकर मेरे होंठों पर फिर वही गुपचुप उँगली रख दी थी—“शीs!...चुप! अब यही चलेगा।” और सच्ची-मुच्ची घोड़े की अलमस्त टापें वहीं थम गई थीं!

    ‘एक उदास औरत की कहानी और एक काली बिल्ली’—अपनी समझ से मैंने जो यह खासा लंबा और प्रयोगात्मक नाम सोचा था—उसकी यों पलभर में छुट्टी, एकदम छुट्टी हो गई।

    तो यह तो रही शीर्षक की कहानी।

    अब अगली कहानी, यानी...? जी नहीं, ताजमहल पर गाने वाला जादुई संगीतकार यानी नहीं! मुझे उससे क्या लेना-देना। मेरे भीतर के गरीब ताजमहल के झुलसे हुए पत्थरों ने तो सिर्फ नीरजा का गाना ही सुना है—गो कि वह कभी गाती नहीं। और वह अगर कभी गाए तो मुझे पक्का यकीन है, वह बहुत बेसुरा गाएगी।

    ...मगर वह गाती है। गाती नहीं, कूकती है। बल्कि मेरे मन की डालों को तो उसी ने कूक-कूककर पागल किया है। वह गाती है क्योंकि वह नीरजा है। या शायद सच यह है—क्योंकि वह नीरजा है इसलिए गाती है। मुझ जैसे औघड़ बसंत ने, जो कुछ न होकर भी बहुत कुछ होने के अपने दंभ और दर्प और पागलपन से कभी बाहर निकला ही नहीं, पहलेपहल उसी का गाना सुना था। और सुनते ही लगा था कि हाँ, कुछ है! कुछ न कुछ तो है, जिससे यह दुनिया अपनी सारी कमीनगियों और आपाधापी के बावजूद मुलायम है, मीठी है, दिलकश है। सिर से लेकर पैर के हलके गुलाबी तलुओं तक लयात्मक है, ठीक नीरजा की तरह!

    नीरजा मेरी कौन लगती थी? नीरजा मेरे लिए क्या है? मेहरबानी करके ऐसे सवाल न पूछिए। मुझे इनका जवाब देने में भयानक दिक्कत आती है, बल्कि दिक्कत...? सच तो यह है कि मेरी नसें चटचटाने लगती हैं। फिर भीतर वही टूट-फूट शुरू हो जाती है, वही ‘दगड़-रगड़ दन्न...न!’ और वही सब जिससे मैं बचना चाहता हूँ। मुझे तो सिर्फ इतना ही पता है कि अचानक मेरे जीवन में हवा के झोंके की तरह चली आई नीरजा कोई थी, जिससे मुझे बचाने की भरसक कोशिश उसने की और खुद को मुझ पर पूरी तरह फैलकर छा जाने दिया। मुझे ‘अपनी दुनिया’ में खींचकर ले जाने की हरचंद कोशिश की...असफल हुई और चली गई।

    कई बरसों से उससे मेरी मुलाकात नहीं हुई। इसीलिए मैंने ‘थी’ कहा कि नीरजा मेरी कौन लगती थी? पर वह है, मेरे इर्द-गिर्द...बल्कि मेरे हर तरफ है, मेरी साँस-साँस में। जब चाहूँ, मैं उसे छू सकता हूँ, वह मुझे! वह एक दिन अंतत: दिल्ली छोड़कर शिमला चली गई, तब भी...

    वहाँ से सिर्फ एक मुँह चिढ़ाती हुई चिट्ठी ढाई-तीन लाइनों की उसकी आई है—एक ‘टालू’ पोस्टकार्ड! ‘न’ से बदतर।

    लेकिन यह मैं कभी नहीं भूल पाया, आज तक—कि वह है। मैं जब चाहूँ उसे छू सकता हूँ, उससे बोल-बतिया सकता हूँ, इसीलिए वह है।

    नीरजा एक साथ मेरा अतीत, मेरा वर्तमान भी है। और भविष्य...?

    3

    मंडी हाउस की उस संक्षिप्त सी मुलाकात के बाद जब मैंने अपने कंधे पर उसका नरम हाथ महसूस किया था, और उसने बड़े सीधे और सादा लफ्जों में चाय ऑफर की थी कुछ घटा था। बेमालूम सा कुछ। हालाँकि वह नाकुछ ही था। और हम कुछ पढ़ी हुई किताबों, निजी सनकों और अपनी अच्छी-बुरी आदतों पर बात करते रहे थे। बातें, बातें और बातें, जिनका कोई ओर-छोर न था। और पहली बार महसूस किया कि बातों में कुछ ऐसी मिठास भी होती है कि लगता है, वे कभी खत्म ही न हों!

    जब हम उठे, शाम घिर आई थी और अँधेरे और रोशनी की शहतीरों का ‘खेल’ चालू हो गया था।

    और उधर मेरे भीतर एक ही नाटक चालू था—सवालों और सवालों और सवालों का खेल!

    नीरजा इस कदर मेरे चारों तरफ क्यों है? उसकी एक-एक शब्द को पीती हुई उत्सुक, अधीर लेकिन बहुत-बहुत चौकन्नी आँखें। उसके बालों की खुशबू...और उससे भी बढ़कर उसकी बातों की खुशबू! यह क्यों है, यह क्या...? मैंने अपने आपसे पूछा था।

    सवालों और सवालों और सवालों का जंगल। यानी कि आप देखिए कि यह क्या होता है कि मैं उस निहायत भद्र महिला की उच्च कुलीन संभ्रांतता से बेहद-बेहद नफरत करते हुए, साहित्य अकादमी के बाहर जो काली, कद्दावर पुश्किन की मूर्ति है न, उसके ठीक नीचे की घास से अदावत करती हलकी नीली बुँदकियों वाली उसकी कीमती सफेद साड़ी पर ठठाकर हँसते हुए—कहना चाहता था कि—‘नीरजा हमारे रास्ते अलग-अलग हैं।’ मगर कह गया कुछ और!

    कुछ और! जिसके लिए मुझे कामायनी की श्रद्धा के ‘नील परिधान बीच सुकुमार...’ और रघुवीर सहाय के ‘एक रंग होता है नीला...’ की दुनिया में जाना पड़ा था।

    जो कहा था, उसका एक-एक शब्द अब भी पूरे उतार-चढ़ाव के साथ, यहाँ तक कि उस पर नीरजा की सलज्ज प्रतिक्रिया यानी उसके चेहरे की पूरी ‘अरुण-अरुण’ भाव-भंगिमा तक मुझे अब भी ज्यों की त्यों याद है। पर माफ कीजिए, अपनी कुछ बुनियादी मानव-दुर्बलताओं की वजह से, मैं उन्हें लिख नहीं पा रहा। असल में अब आपसे क्या छिपाना, नीरजा ने ही मुझे इस सबके लिए रोका था। और जाने क्यों जहाँ उसने मुझसे ही पैन उधार माँगकर, मेरे ही पैन से ‘न’ की लकीर फेर दी, वहाँ ‘हाँ’ लिखने की हिम्मत मुझमें अब भी नहीं है!

    मगर...इस खेल के पीछे कोई और भी खेल था! यानी हम अपनी तरह से खेलते हैं और प्रकृति अपना विराट हरियाला हाथ फैलाकर हमें उस पर धरपटक करती, अपनी तरह से खिलाने लगती है—कोई और, कोई और ही खेल! मिट्टी के राजा-रानी या कपड़ों की रंग-बिरंगी थिगलियों से बने गुड्डे-गुड़िया वाला।

    क्या ‘यह जो प्रकृति है’ यह भी कुछ सोचती है? सोचकर खिलाती है हमें खेल? कौन जाने! लेकिन फिर नीरजा! उसके पास आने और धीरे-धीरे रेशा-रेशा मुझ पर छा जाने की वजह?...क्या सिर्फ इसलिए कि नीरजा चित्रकार है और नीले और मटमैले रंगों के मिश्रण से कुछ ऐसे शोकपूर्ण या उदास किस्म के चित्र बनाया करती थी जिनमें मेरी खास दिलचस्पी थी? लेकिन चित्रकार या चितेरियाँ बहुत होती हैं इस दुनिया में, मगर वे सब की सब नीरजाएँ तो नहीं होतीं?...हो भी कैसे सकती हैं! नीरजा तो एक होती है—बमुश्कित एक—हर किसी की जिंदगी में! आप अपना दिल टटोलिए साहब! और फिर एक दिन वह ऐसे चली गई जैसे कभी थी ही नहीं। क्या यह भी प्रकृति के उस दुर्दांत खेल का ही कोई अदेखा, अनिवार्य हिस्सा है?

    तो फिर उसके शब्दों की वह खुशबू जो मेरे इर्द-गिर्द बिखरी हुई है, और उसके उन लहरीले साँप जैसे खूबसूरत बालों की खुशबू जो उसने विमुग्ध तंद्रा की हालत में कभी मेरे कंधे पर छितराए थे, और वे उठी हुई उत्सुक, अधीर, मगर बहुत-बहुत चौकन्नी आँखें...जिनमें किसी एक अनाविल क्षण में सृष्टि का समूचा विस्मय समा गया था! और उससे छूट निकलने की कोशिश में अचानक मैं चीखा था—मैं कहाँ हूँ...? कहाँ!

    बहरहाल, यह तो बाद की बात है और इसे बार-बार दोहराने से फायदा भी क्या? मुझे तो उन दिनों की कथा-कहानी चाहिए, जब नीरजा को मुझसे, मुझे नीरजा से मिले बगैर चैन ही न था। हालाँकि हमारी बातें कोई बहुत ‘सॉफ्ट...सॉफ्ट...’ या मुलायम और नशीली किस्म की नहीं होती थीं। मौका पड़ने पर हम एक-दूसरे को खूब जली-कटी सुनाने से भी न चूकते। मगर इस जली-कटी का भी अपना मजा था। कुछ दिनों तक कान में ऐसे छेदते हुए तीखे, तल्ख बल्कि गरम भाप की तरह जलाते शब्द न पड़ते, तो कान शिकायत करने लगते, ‘कुछ गड़बड़ है, कहीं कुछ बड़ी गड़बड़...!’ और फौरन हम दीवानावार हाथ फैला-फैला एक-दूसरे को ढूँढना शुरू कर देते! ताकि...ताकि गालियाँ...!

    उफ, गालियाँ! जिंदगी की कितनी बड़ी जरूरत हैं वे, अगर सच्ची हों!

    4

    उन्हीं दिनों का किस्सा है, जब कई दिनों तक ‘भीतर की पुकार’ पर नीरजा से मुलाकात नहीं हुई, तो ‘ट्रांस’ ने पहले हलकी ‘टिक-टिक, टिक-टिक’ करके बताया फिर एकाएक अलार्म बजाकर सावधान कर दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ है, सुधाकर! कहीं कुछ बड़ी गड़बड़!

    इस तरह के ‘लाल गूँजदार सिग्नल’ एक के बाद एक आ रहे थे तथा भय और चिंता के मारे मेरा गला सूख रहा था। मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ता जा रहा था और दवाएँ काम नहीं आ रही थीं। मित्रों ने चिट्ठियाँ लिख-लिखकर ‘डिप्रेशन’ की दवाएँ सुझाईं, जिन्हें वे स्वयं आजमा चुके थे और जो हर तरह से ‘खतरे’ और ‘आफ्टर इफेक्ट’ वगैरह से मुक्त थीं। मगर वे चिट्ठियाँ मेज पर पड़ी-पड़ी धूल खाती रहीं, मैंने उनकी ओर देखा तक नहीं। और बार-बार दुखी और कातर होकर भीतर-बाहर की हर चीज, हर शै से पूछता, ‘ओ री प्रकृति, ओ! तेरे खेल में यह गड़बड़ कहाँ से हुई? तू बता न, कि यह जो नीरजा है, यह जो, यह जो...!!’

    फिर एक दिन पता चला कि वह बीमार है! ओह! मैं विचलित हो उठा—नहीं-नहीं, नीरजा से मिलना ही चाहिए और ऐसे कष्टकारी क्षणों में तो जरूर!

    मैं ग्रेटर कैलाश, उसके घर गया तो वह शरीर से नहीं, मन से बीमार नजर आई। खुद में डूबी-डूबी, खोई-खोई, उदास। मैं सोचने लगा—इतना उदास नीरजा को पहले कब देखा था? यह तो सबको पेट भरकर हँसाती और खुशियाँ लुटाती थी, फिर...क्या हुआ उसे?

    नीरजा के माथे पर हाथ लगाया, तो उसकी आँखें खामखा गीली होती चली गईं, “नहीं, बुखार तो अब उतरा हुआ है। ठीक हूँ!”

    “सच...?” मैंने मुसकराकर देखा उसकी ओर तो सोचा नहीं था कि वह इस कदर टूट जाएगी।

    “मैं बहुत अकेली हूँ, बहुत। कभी-कभी तो खुद को खत्म तक कर लेने की इच्छा होती है।”

    “ऐसी बात करोगी तो मैं भाग जाऊँगा। चलो, उठो, मुँह धोओ।”

    उठकर नीरजा गई तो मैंने कमरे में इधर-उधर नजर डाली। कोने में एक कैनवस था। कैनवस पर अधबना चित्र!...

    कुछ और आँख गड़ाकर देखा तो लगा, कोई स्त्री है। तो क्या सेल्फ पोट्र्रेट? हाँ-हाँ, वही। गहरी नीलिमा के भीतर एक औरत...धुँधले अक्स!

    ...पलटकर नीरजा को देखा, जो अभी-अभी मुँह धोकर पलंग पर आकर बैठी थी, तो किसी विस्मय की तरह पाया कि जो रंग सेल्फ पोट्र्रेट में हैं, वे ही किसी न किसी तौर पर नीरजा में भी! कुछ रंग तो पहले ही नीरजा की नीली साड़ी और चिट्टे चेहरे पर उछल आए थे और कुछ कैनवस के रंग भी उसकी साड़ी पर ता-ता-थैया कर रहे थे। हालाँकि इतनी अस्त-व्यस्त साड़ी और इतनी अस्त-व्यस्त मन:स्थिति में मैंने नीरजा को शायद ही कभी देखा हो।

    “हाँ, लेकिन अलग ढंग का। मैं असल में एक उदास औरत का—अपने भीतर की उदास औरत का चित्र बनाना चाहती थी। कुछ-कुछ इंप्रेशनिस्टिक किस्म का चित्र, जिसे तुम हिंदी वाले क्या बोलते हो—प्रभाववादी? यही न!”

    “वह तो मैं समझ ही गया था।” मैं हँसा, “लेकिन यह रोग तुम्हें लगा कब?”

    “बहुत पहले...दरअसल, शुरू-शुरू में मैं आर्टिस्ट ही बनना चाहती थी। मुझे यामिनी राय और नंदलाल बसु बेहद पसंद थे कभी। फिर छूट गया, जब से साहित्य का चस्का लगा!” नीरजा हँसी है। बड़ी ही फीकी, बेनूर हँसी।

    “कभी बताया नहीं पहले?” मैं गंभीर दिखने की भरसक कोशिश करता हूँ।

    “तुमने कभी अपने बारे में कुछ कहने का मौका ही कब दिया?” नीरजा कह रही थी तो उसकी नजरों के ‘तंज’ का पीछा करते-करते मेरी आँखें भी एक मधुबनी पेंटिंग पर चली जाती हैं। भीड़ में एक औरत...भीड़ में चीखती हुई एक मामूली औरत। हालाँकि आसपास के वातावरण को गौर से देखें तो रामलीला का दृश्य भी बनता है और चीखती हुई औरत सीता बन जाती है। परंपरा के बाहर की एक और सीता। मधुबनी पेंटिंग में आधुनिकता का हस्तक्षेप!...फिर भी मामला कहीं गड़बड़ाता नहीं लगता। कमाल तो है ही! नीचे नजर डालता हूँ—नीरजा, 1970

    “मगर...अब दोबारा से! अचानक इतने बरसों बाद...!” टुकड़ों-टुकड़ों में मैं अपना आश्चर्य जताता हूँ।

    “नहीं, अचानक नहीं! मैं...दरअसल तैयारी तो मैं कर ही रही थी। और तैयारी क्या? तैयार तो असल में अपने मन को करना होता है। मैं उसी कोशिश में थी। सुधाकर, असल में तो मैं इतना ढेर सारा अकेलापन महसूस कर रही थी, इसलिए...!” कहते-कहते उसने रूमाल निकाला, माथे का पसीना पोंछा और कैनवस के अधूरे चित्र को देखते-देखते उसमें ऐसी खो गई, मानो वह उसी का एक हिस्सा हो। उसी से पैदा होकर उसी में विलीन हो जाना चाहती हो। और मैं...मैं कोई नहीं, मैं कुछ भी नहीं।”

    “कहाँ हो तुम? नीरजा...नीरजा तुम्हें क्या हो गया है?” मैंने चीखना चाहा, पर लगा, आवाज गले से निकल ही नहीं रही।

    “महीने, डेढ़ महीने तक लगता है, मैं इसी पेंटिंग में बिजी रहूँगी। और तब तक बाहर निकलना बंद।”

    “मेरा आना भी...?” मैंने पूछा तो शरारत से था, मगर अचानक कोई तार टूट सा गया और मैं उदास हो गया।

    “ओ, नहीं...यह तुम क्या कह रहे हो?” उसने बुरा सा मुँह बनाया। फिर जैसे सपने से जागते हुए कहा, “अरे भई, तुम्हारे लिए चाय तो रह ही गई। ठहरो, अभी... अभी लाई।”

    “नहीं-नहीं, रहने दो।” मैं जल्दी से जल्दी उठ जाना चाहता था।

    “क्यों?” नीरजा विकल हो उठी।

    “तुम्हारा इतना उदास-उदास चित्र पीने के बाद अब चाय...? नहीं-नहीं, कुछ दिनों तक तो इस चित्र को ही पिऊँगा चाय की जगह।” असल में नीरजा के आभिजात्य से मैं कुछ आक्रांत हो गया था और यह सब अब ‘अझेलनीय’ होता जा रहा था।

    “दुष्ट...!”

    नीरजा चाय बनाकर लाई, तब तक मैं कैनवस पर की अधीर औरत से संभाषण करता रहा। दूर-दूर तक अनंत नीलेपन के बीच एक औरत। बहुत उदास, नीले भूरेपन से करीब-करीब ढकी एक औरत। चेहरा हलकी सी लंबाई लिए हुए गोल, शरीर भरा-भरा। मगर एक बुझा-बुझापन उस पर इस कदर हावी है कि लगता है, जरा सी कोई बात करो तो अभी-अभी रो देगी...

    और जब वह चाय बनाकर लाई, तो जाने क्यों मुझे लगा कि चाय के कप में वही अधूरी औरत तैर रही है।

    “मैं इसे पूरा किए बगैर रह नहीं सकती सुधाकर, मैं...मैं शायद पागल हो जाऊँगी इसके बगैर!”

    “मगर...यह तो करीब-करीब पूरी ही है।” मैंने गौर से उसे देखते हुए कहा।

    “हाँ...है, मगर इसमें वो बात नहीं सुधाकर, वो...जो मैं लाना चाहती थी।” चाय के कप में तैरती अधूरी औरत अब इतरा रही थी।

    चाय पीकर मुझे चुपके से उठ आना बेहतर लगा। लेकिन उठकर बाहर जाने लगा तो नीरजा ने धीमे से कहा, “खाना खाकर जाना। मैंने लछमो से कह दिया है। अब तक बना लिया होगा।”

    5

    हम बाहर पेड़ों के झुरमुट के बीच बाँस के टट्टर से बनी हवादार कुटिया में जाकर बैठ गए। वहाँ पेड़ के तनों को काटकर बनाए गए ठोस आकारों वाले स्टूल थे। जाने क्यों वे मुझे जँचे नहीं। लगा कि यह पेड़ों का अपमान है। क्या मेनका गांधी से पूछा जाए? मैं सोचता हूँ।

    थोड़ी देर में सुरजू—लछमो का बेटा, खाना रख गया। उम्र कोई सोलह-सत्रह साल। काला आबनूसी रंग, नीरजा की किसी ताजा पेंटिंग की तरह। मुझे हँसी आई।

    खाने में आलू-गोभी, रायता, फुलके, दाल-चावल, पापड़...खाना खाते समय नीरजा ज्यादातर लछमो और सुरजू की बातें करती रही। वे कोठी के पीछे बने ‘आरामदायक’ सर्वेंट क्वार्टर में बरसों से रहते आ रहे थे। यही था नीरजा का असली परिवार।...

    उसी क्षण नीरजा की जिंदगी के एक और अभिन्न हिस्से से परिचय हुआ, यह एक काली बिल्ली थी जिसकी आँखों में बड़ी डरावनी चमक थी। कम से कम मैं उसे देखकर डर गया। लेकिन नीरजा जब उसे गोदी में लेकर प्यार कर रही थी और साथ-साथ खिलाने भी लगी तो लगा—नहीं, इससे डरने की तो कोई बात नहीं।

    खाना खाने के बाद एक प्लेट में सौंफ और सुपाड़ी के टुकड़े आ गए। साथ ही एक छोटा-सा खिलौनानुमा सरौंता भी, जिससे नीरजा सुपाड़ी के बने टुकड़ों को और बारीक कतरती जाती थी। सुपाड़ी चबाते हुए नीरजा किसी बात पर हँसी तो मैंने नोट किया आज पहली बार, उसके दाँत बरसों से सुपाड़ी खाते आ रहे हैं।

    इस बात की बड़ी साफ पहचान वहाँ अंकित थी! फिर भी मैंने पूछ लिया, “कब से शौक है इसका?”

    “सुपाड़ी का...?”

    “हाँ...!”

    “बहुत पुराना...बहो...त पुराना!” नीरजा ने हँसते हुए कहा, “थोड़े दिन पान का नशा रहा। पान मसाले का भी। मगर...बात बनी नहीं। आप कह सकते हैं, सुपाड़ी को लेकर मेरे मन में कुछ-कुछ वह है जिसे शास्त्रों में अव्यभिचारी प्रेम कहते हैं।”

    “ओह...!”

    “ओह क्या...?”

    “यूँ ही...यूँ ही कुछ याद आया गया!”

    “माँ खाती थीं, उन्हें सदा से खाते हुए देखा। अकसर खाना खाने के बाद...या फिर शाम को। घर से बाहर निकलते वक्त भी जरूर चबाती जाती थीं।” नीरजा ने बताया, शायद बात जारी रखने के लिहाज से।

    अचानक मैंने पूछ लिया—एक प्रश्न, जिसे मैं बहुत दिनों से भीतर खूँटी पर अटकाए हुए था, “नीरजा, तुमने कभी बताया नहीं अपने बारे में? इतनी बड़ी कोठी में अकेली रहती हो। डर नहीं लगता?”

    “डर...?” नीरजा की भौंहें कुछ-कुछ तन गईं, “डर किस बात का...मुझे कोई खा जाएगा?”

    लेकिन उसकी भंगिमा जो थी और जो एक मंद-मंद सी शरारत उसके होंठों पर खेल रही थी, उससे साहस थोड़ा खुला।

    “नीरजा, माफ करना!” मैंने कहा, “मैं नहीं जानता, मुझे यह सवाल पूछना चाहिए या नहीं, लेकिन...शायद तुम्हें समझने के लिए यह है। तुमने...नीरजा, विवाह नहीं किया?”

    “नहीं।”

    “कोई विशेष कारण था इसके पीछे या...?”

    “नहीं।”

    “तो फिर...?”

    “बस, नहीं किया! मुझे नहीं समझ में आता, औरत का विवाह करना ही क्यों सहज बात समझी जाती है इस दुनिया में? विवाह करने की तरह विवाह न करना भी तो सहज हो सकता है।” नीरजा के स्वर में कुछ झुँझलाहट है।

    “सवाल औरत और मर्द का नहीं है नीरजा।” अपनी बात को थोड़ा साफ करते हुए मैंने कहा, “लेकिन हमारे समाज में आज भी...उन स्त्री-पुरुषों की बात छोड़ दो जिनका किन्हीं कारणों से विवाह नहीं हो सका, इसके अलावा कोई भी औरत या मर्द अगर विवाह नहीं करता और अपनी इच्छा से विवाह नहीं करता, तो उसका व्यक्तित्व कुछ न कुछ खास तो होता ही होगा।”

    “उतनी खास तो मैं वैसे ही हूँ, विवाह कर लेती तो भी यकीनन होती।” नीरजा भौंहों में हँसी।

    “होतीं,” मैंने टोका, “मगर इतनी नहीं। मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ, क्योंकि पति की इच्छा भी कहीं न कहीं तो उसे बाधित करती है। बल्कि अब तो...” उसकी आँखों से सीधे देखते हुए मैंने कहा, “मैं साफ-साफ कह सकता हूँ, तुम्हारे विवाह न करने का कारण भी यहीं कहीं, इसके आसपास है नीरजा! तुम अपनी इच्छा को हर हाल में सबसे ऊपर रखना चाहती हो और किसी की इच्छा के हिसाब से जीवन जीने, किसी की इच्छा के अनुसार ढल जाने के खयाल से ही तुम्हें दहशत होने लगती है। जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारे विवाह न करने का यही कारण होगा नीरजा!”

    सुनकर नीरजा इस कदर सीरियस हो गई कि मुझे आशंका हुई, “मैंने कुछ गलत कहा नीरजा?”

    “नहीं।” वह अब भी जैसे कहीं और थी, कुछ और सोच रही थी। फिर इस घेरे से निकलते हुए उसने कहा, “सुधाकर, तुम थोड़े-थोड़े साइकोपैथ भी मालूम पड़ते हो। चीजों को इस ढंग से सुलझा देते हो कि...!” एक निरर्थक सी हँसी हँसते हुए उसने कहा, “अब यही देखो, मेरे मन में यह बात साफ-साफ इस ढंग से पहले कभी नहीं आई। हालाँकिअब पीछे देखती हूँ तो लगता है, कारण तो कुछ-कुछ इसी तरह का रहा होगा।”

    फिर उसकी पूरी कहानी पता चली, “पिता फौज में थे। लेफ्टिनेंट कर्नल। कोई बयालीस बरस के थे, तब चीन के साथ युद्ध में उनकी मौत हुई। और उसके बाद ससुराल में माँ पर सास और जेठानी के भीषण अत्याचार का जो सिलसिला चला, उसमें पहले से ही दुखी माँ और दुखी हुई, टूटी। मैं अकेली माँ की संतान थी। तब दस-ग्यारह बरस की रही होऊँगी। सब देखती थी हालाँकि कह कुछ नहीं सकती थी। कोई चार-पाँच बरस इसी नरक में कटे। फिर माँ ने अपने बचे-खुचे आत्मविश्वास को बटोरकर अलग होने का फैसला किया। संपत्ति को लेकर झगड़े हुए।

    “...ससुराल वालों ने सोचा, अकेली औरत है, कहाँ तक लड़ेगी? लेकिन मेरी माँ कमजोर और असहाय बना देनी वाली स्थितियों में रहती हुई भी भीतर से दिलेर थी। शेरनी कह लो! उसने अपने हक की लड़ाई लड़ने का फैसला किया। सुधाकर, कैन यू बिलीव, बारह साल तक मुकदमा चला। पूरे बारह साल...! और इन बारह सालों में उसने न जाने कितनी बार कोर्ट-कचहरी की धूल खाई। वकील के हाथों परेशान हुई...। लेकिन जितनी वह परेशान होती गई, उसका आत्मविश्वास उतना ही बढ़ता गया। वह किसी कटखनी बिल्ली की तरह सख्त और कठोर होती गई। और आखिर वह जीती। यह कोठी माँ ने खुद अपने सामने बैठ-बैठकर बनवाई है।...बस, आखिर के कुछ बरस ही उसकी जिंदगी में चैन के थे। अब तो उसे गुजरे भी पूरे चौदह बरस हो गए हैं और मुझे लगता है, कल की ही बात है...।”

    6

    सरौंते से सुपाड़ी का एक छोटा टुकड़ा काटकर नीरजा ने मुँह में रखा। फिर एक टुकड़ा मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, “अब सोचती हूँ तो बार-बार एक यही विचार आता है सुधाकर, कितनी मजबूत थी मेरी माँ, लेकिन देखते ही देखते क्या से क्या हो गई थी! इतनी कमजोर कि मैं चाहती तो उसे अपनी गोद में लेकर घर भर में घुमाती रहती। अकसर उस पर इतना प्यार आता कि मैं उसका सिर अपनी गोदी में रखकर किसी बच्ची की तरह घंटों दुलारती और बातें करती रहती...”

    मैंने सुपाड़ी का टुकड़ा मुँह में डाल लिया। नीरजा अभी तक अतीत के धुँधलके में थी, माँ के साथ, “और सच बात तो यह है सुधाकर कि शादी न करने का फैसला इसलिए किया कि जो माँ की नियति है, वह मेरी नियति न हो। आखिर क्या सुख पा लिया इस कमजोर और जर्जर औरत ने शादी करके? मैं अकसर अपनी माँ को देखकर सोचा करती थी। हालाँकि शुरू-शुरू में विवाह नहीं किया तो इसलिए कि माँ को सँभालने की चिंता रहती थी। वह बीमार रहती थी और इतनी कमजोर हो गई थी कि अपने पहले वाले रूप की छाया भर नजर आती थी। मुझे बेहद प्यार था अपनी माँ से, लेकिन मैं अकसर सोचा करती—जिससे मेरा विवाह होगा, उसे भी होगा क्या? और माँ के प्रति मेरा प्रेम उसे अखरेगा नहीं, इसकी क्या गारंटी है? और सुधाकर मैं दुनिया की हर चीज को छोड़ सकती थी, लेकिन माँ को नहीं...हरगिज नहीं!”

    पता नहीं कितनी देर तक नीरजा अतीत की स्मृतियों को बिलोती रही।

    फिर सब कुछ थिर सा हो गया। लॉन की हरी घास के तिनकों से लेकर पीलेपन से लदे, सामने के अमलतास के पत्तों और आसमान के प्याजी बादलों तक। पर मेरे भीतर धक-धक थी—नीरजा...अकेली...?

    “माँ ने जोर नहीं दिया कभी विवाह करने को?” मैंने बत्तमीजी से सवाल की नोंक फिर वहीं सरका दी, जहाँ से वह बच निकलना चाहती थी।

    “नहीं, वह तो दुखी थी मुझे लेकर!” नीरजा जैसे न बताना चाहते हुए भी खीजकर बता रही थी, “चाहती थी कि शादी करके मैं सैटल होऊँ तो उसे चैन मिले। लेकिन यह भी अच्छी तरह जानती थी कि मैं जिद्दी हूँ, करूँगी अपने मन की ही। वह चाहती थी, मैं उससे उतना प्रेम न करूँ। आखिर जाने वाले का कोई कब तक साथ दे सकता है?...लेकिन मैं उसके बगैर रह ही नहीं सकती थी। आज भी जब वह नहीं है, इस घर में माँ की स्मृतियाँ ठीक माँ की तरह ही रहती हैं।”

    कुछ देर बाद उसकी आवाज में एक अडोल धीरज और ठहराव आ गया, हद है भई!

    “यह लछमो उन्हीं के समय से है। सुरजू यहीं, इसी घर में पैदा हुआ। माँ गई तो दो-ढाई बरस का था।...” और नटखट सुरजू की पूरी कहानी बताने के बाद कुछ रुककर साँस लेते हुए कहा, “उसे पढ़ाती-लिखाती हूँ। कभी-कभी कुछ और बच्चे भी आ जाते हैं, उन्हें चित्रकला सिखाती हूँ। और जितना सिखाती हूँ उससे अधिक सीखती भी हूँ। समय कट जाता है...”

    “ओह...!” मैंने सिहरन सी महसूस की।

    “क्यों, इतनी लंबी ओs...ह किसलिए...?”

    “वैसे ही...?”

    “मुझ पर दया आ रही है?” नीरजा हँसी, मगर भौंहों में!

    मैं भौचक्का—यह स्त्री है या...बला? “यह जीवन जितना तुम समझ रही हो, उससे कहीं कठोर है नीरजा! कहीं आगे चलकर तुम्हें पछतावा न हो...कभी सोचा है इस बारे में?” मैं पता नहीं किस झोंक में कह जाता हूँ।

    “जितना तुम देख रहे हो सुधाकर, उससे अधिक कठोरताएँ देखी हैं मैंने।” नीरजा अचानक सीरियस हो गई, “हँसती हूँ तो इसका यह मतलब तो नहीं कि मैं कठोर होना नहीं जानती या भीतर से सख्त नहीं हूँ। मेरे जैसी हर औरत बहुत जल्दी जीवन के सब रंग और मुद्राएँ देख लेती है। ठीक वैसे ही, जैसे तुम्हें दिखाई पड़े या नहीं, मेरे जैसी औरत के भीतर एक श्मशान भी होता है जिसमें से लगातार चिताओं के जलने का धुआँ निकलता रहता है। किसी फैक्टरी की चिमनी की तरह...काला, कड़वाहट भरा!”

    कुछ देर बाद थोड़ा सँभल गई, “इतने-इतने दुखदायी प्रसंग हैं सुधाकर, मैंने उन्हें कभी लिखा नहीं। उन कहानियों का किसी से जिक्र भी नहीं किया। लेकिन जो चित्र मैं इधर बनाना चाह रही हूँ, शायद उन कहानियों को कहें। शब्दों में नहीं, रंगों और रेखाओं की भाषा में!”

    “यह तो अच्छा है नीरजा। मैं समझता हूँ, एक अच्छा रास्ता निकाल लिया तुमने जीने का। लेकिन नीरजा, क्या तुम्हें कभी पछतावा नहीं होता? कोई जरूरी तो नहीं कि जो माँ के साथ हुआ, वही कुछ तुम्हारे हिस्से भी...”

    “छोड़ो यार, मैं अब पचास के आसपास होने को आई। अब मुझमें रह ही क्या गया है?”

    नीरजा के भीतर से अचानक फिर वही पहले वाली नीरजा—एक बिंदास औरत, जिससे पहलेपहल मंडी हाउस में मिला था, निकली और उछलती हुई धम से सामने आ बैठी। और अब वह मुझे समझा रही है, “एक राज की बात कहूँ सुधाकर—और यह तुम्हें कोई और बताएगा नहीं सिवा मेरे—कि पचास के आसपास पहुँचते-पहुँचते औरत और मर्द का फर्क गायब हो जाता है और वे सिर्फ ‘नरदेही’ रह जाते हैं। और उनके सोच-विचार का ढंग एकदम बदल जाता है—एकदम!”

    कहते-कहते उसका जोरदार ठहाका हवा में गूँजा।

    “सत्य वचन महाराज। आज तो आपने पंडित-पुरोहितों की तरह ज्ञान के बोझ से लाद दिया।”

    “अब तो चाहती हूँ कि...” नीरजा ने छद्म गंभीरता की मुद्रा चिपकाई, “बाकी का जीवन भी इसी तरह शिष्यों को, बुद्धुओं, अज्ञानियों को ज्ञान का प्रवचन देते-देते बीत जाए। इसी से मुक्ति है—मेरी भी, दूसरों की भी!”

    “तुम संतोषी माता टाइप की कोई चीज बनने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? इसमें नाम भी है, नामा भी।”

    “हाँ, सोच रही हूँ आजकल सीरियसली...!”

    “किसी पी.एस. या प्राइवेट सेक्रेटरी की जरूरत हो तो मेरे नाम पर विचार किया जाए।” मैंने प्रस्ताव किया।

    “स्वीकार...!” नीरजा का हाथ अभय की मुद्रा में उठ गया। फिर उसके ‘चरणों की धूलि’ लेने का सुनहरा मौका भला मैं कैसे गँवाता?

    लेकिन जब चलने लगा तो नीरजा सच में गंभीर हो आई, “सुनो सुधाकर, कभी-कभी आते रहो!...वादा करो कि आओगे। मुझे सचमुच तुम्हारी ही जरूरत पड़ेगी उस गड्ढे से बाहर आने के लिए जिसे यकीन करो, मैंने खुद अपने लिए नहीं खोदा था। मगर वह है, इस बात से इनकार कैसे करूँ?”

    कह रही थी नीरजा तो उसकी पालतू बिल्ली कहीं से आई और लड़ियाकर गोद में बैठ गई। अब नीरजा उसके पंजे को हाथ में लेकर गुदगुदी कर रही है।

    वही काली बिल्ली, वही आँखें...भयानक रूप से चमकीली! पर मुझे इस समय वह कुछ-कुछ प्यारी लगी।

    वापस लौट रहा था तो मन में एक बड़ी प्यारी सी कल्पना आई—यह बिल्ली जो नीरजा की गोद में है, धीरे-धीरे उसकी गोद से सरकती हुई उसकी पेंटिंग्स में समाती जा रही है। और मुझे लगने लगा, अगली बार आऊँगा तो नीरजा की ‘एक उदास औरत’ की गोद में काली बिल्ली जरूर होगी।

    7

    और सचमुच अगली बार—शायद कोई दस-पंद्रह दिन बाद ही नीरजा के यहाँ गया, तो जैसा मैंने सोचा था, ‘एक उदास औरत’ की गोद में वही काली बिल्ली थी।

    हालाँकि पता नहीं क्यों, काली बिल्ली को मैं या मुझे काली बिल्ली कुछ ज्यादा पसंद नहीं आए। और देखते ही देखते, आपको यकीन नहीं आएगा—वही काली बिल्ली नीरजा और मेरे बीच एक काली, अभेद्य दीवार बनती चली गई।

    कई बार मैंने खुद से पूछा है, क्या यह विराट, सचेतन प्रकृति का कोई अजीब, अबूझा, रहस्यपूर्ण या ऊधमी खेल था? क्या काली बिल्ली को लेकर मेरे मन में कोई अंधविश्वास या बचपन की कोई ग्रंथि काम कर रही थी?...या फिर काली बिल्ली की वे आँखें, जो मुझ पर लोहे की गरम सलाखों जैसी गिरी थीं, उस वक्त जब मैं नीरजा के बहुत पास खड़ा, उसके कंधे और चिबुक को छूकर विदा माँग रहा था—क्या उन आँखों में कुछ ऐसा था कि मैं डर और सिहर गया था और मैं नीरजा से, नीरजा मुझसे दूर होती चली गई थी।...और इससे भी बढ़कर सवाल यह (मैं बहुत डरते-डरते भाइयो, यह सवाल पूछ रहा हूँ, इसलिए कि आप मुझे सच्ची-मुच्ची पागल न समझ बैठें) कि...नहीं-नहीं, काली बिल्ली, नहीं, कारण कुछ और हो। कुछ और...एकदम अबूझा और विस्मयजनक।

    पर जाने क्यों मुझे लगता है, हालाँकि इसका कोई तर्क मेरे पास नहीं है, कि कारण इन्हीं में से कोई था, खासकर वह जो मैंने अपने अंत में बताया है, यानी काली बिल्ली की आँखें...! हाँ-हाँ, ये काली बिल्ली की आँखें ही हैं जिन्होंने हमें, यानी मुझे और नीरजा को अलगाया, बल्कि कुछ ही समय में दो अलग किनारों पर पटक दिया। बस, वह अपनी काली बिल्ली को बहुत-बहुत पसंद करती थी और मैं नहीं करता था। इस बात से भी आपको यकीन नहीं आएगा, रिश्तों के बड़े-बड़े और मजबूत पुल टूट सकते हैं। मैं तो, अगर आप इजाजत दें तो—यह भी कहने को तैयार हूँ कि दिल्ली की ग्रेटर कैलाश जैसी पॉश कॉलोनी में इतनी अच्छी भव्य कोठी को लावारिस छोड़कर नीरजा के शिमला चले जाने की वजह भी यहीं कहीं होगी।

    यानी फिर वही काली बिल्ली! अब सुधी पाठको, उस काली बिल्ली को आप प्रतीक मानते हैं या जिंदगी की ठोस हकीकत—यह मैं फिलहाल आप ही पर छोड़ता हूँ।

    बस, आप यही समझ लीजिए कि नीरजा के बालों और बातों की बड़ी धीमी-धीमी सी महक और उसकी उठी हुई उदास, अधीर और कुछ-कुछ चौकन्नी आँखों के दुर्निवार आकर्षण के बावजूद बरसों से उससे मेरी मुलाकात नहीं हुई। और न अब उसकी कोई उम्मीद ही रह गई है। तो जनाब, आप अब इजाजत दें। किस्सा यहीं खत्म करता हूँ, क्योंकि इसे इससे ज्यादा और बढ़ाने की कूवत मुझमें नहीं है।

    हाँ, आप चाहें—और आपका भी कोई ऐसा किस्सा हो जिसे आपने सात परतों में छिपाकर रखा हो और कभी-कभी बटुआ खोलकर देख लेते हों, तो उसे सुविधानुसार कहानी के बिलकुल शुरू, बीच या अंत में कहीं जोड़ लें। मुझे सचमुच कोई आपत्ति न होगी।

    **

    3

    धन्य-धन्य धंधा

    प्रकाश मनु

    *

    उस छोटे से कस्बे में जाकर पहली बार इस कदर भयानक धूल, कीचड़ और मच्छर भरे माहौल से परिचय हुआ था। इसी तरह इस महामारी से पहला परिचय भी वहीं हुआ था। यह अलग बात है कि यह महामारी वहाँ एक ‘महापर्व’ समझी जाती थी और इसके स्वागत में साथी प्राध्यापक वैसे ही उत्साह प्रदर्शित करते थे, जैसे वसंत के आगमन पर विरहिणी नायिका का मन प्रिय-मिलन के लिए उत्कंठित हो उठता है।

    वैसे, उनकी यह बेचैनी तो सत्र की शुरुआत यानी जुलाई से ही प्रकट होने लगती थी। बारिश के खत्म होते न होते सभी प्राध्यापक अपने आसपास घिरते लड़के-लड़कियों की संख्या को देखकर, यह साल कैसा गुजरेगा, धंधा मंदा रहेगा या चोखा, इस बात का अनुमान लगा लेते थे। सितंबर तक उन्हें आने वाले भविष्य और ‘मौसम’ की पूरी जानकारी मिल जाती थीं।

    अक्तूबर से यह खास मौसम शुरू हो जाता था। जिसका प्रचार-अभियान कामयाब होता और धंधा चल निकलता था, उनके चेहरे पर परमानंद की झलक दिखाई पड़ती थी। उसे देखकर उनके पास ट्यूशन के लिए आने वाले विद्यार्थियों की संख्या को कूता जा सकता था।

    मेरे लिए यह सब नया था, अजीबोगरीब था। किसी अज्ञात ‘प्रभु’ के ‘मायाजाल’ की तरह। प्रभु की माया जैसे ठीक-ठीक समझ में नहीं आती, वैसे ही...वैसे ही यह मामला भी!

    “क्या चक्कर है भाईजान?” एक दिन परेशान होकर मैंने अपने साथी प्राध्यापक प्रियरंजन जी से पूछ ही लिया।

    “तुम्हें नहीं मालूम...?” उन्होंने महीन-महीन हँसते हुए पूछा। जैसे पल भर में वे प्रियरंजन से छलिया कृष्ण बन गए हों।

    “नहीं तो।”

    “तुम्हें फिजा में कोई बदलाव, मेरा मतलब है नयापन...?”

    “सो तो है, लगता है कोई ऐसा पर्व आने वाला हे जो सिर्फ यहीं मानाया जाता है।”

    “क्या तुम्हारे साथ ऐसा कुछ है?”

    “ऐं, क्या?” मैं चौंका, “नहीं...नहीं...!”

    “क्या तुम्हें आजकल लड़के-लड़कियाँ नहीं घेरते?”

    “नहीं...नहीं!” मैं घबरा गया। “मैं तो बिलकुल सही-सलामत हूँ, मुझसे किसी को कोई शिकायत भी नहीं है।”

    “अरे, तुम नहीं समझोगे। तुम हो भोले भंडारी और यह...!” कहकर उन्होंने मुसकराते हुए अपनी दृष्टि फेर ली।

    यह उस ‘मौसम’ यानी धंधे से मेरा पहला परिचय था। जिसमें रहस्य कम होने की बजाय कुछ और गहरा हो गया था।

    अभी तो हलकी सर्दियाँ थीं, मगर सब कुछ कुहरीला-कुहरीला।

    2

    इसके कुछ ही दिनों बाद मैंने महसूस किया कि मेरा एक अभिन्न साथी प्रशांत गोडबोले, जिसके साथ अक्सर मेरी शामें गुजरती थीं, अब हवा में उड़ने लगा है। मुझसे दूर, बहुत दूर। मैं कोशिश करके पकड़ना चाहूँ, तो भी मुश्किल।...

    ‘ओह, यह क्या मामला है यारब?’ मैं चौंका। कहाँ तो हालत यह थी कि तकरीबन रोज का साथ-साथ उठना-बैठना था। शहर के मशहूर ‘आओ जी’ रेस्तराँ में उससे गपशप का सिलसिला चल पड़ता, तो निजी सुख-दुख से लेकर साहित्य और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आने वाले तूफानों तक पर जमकर चर्चा होती। मगर हा हंत! वही मेरा अजीज दोस्त प्रशांत गोडबोले मुझसे एकदम कटा-कटा रहने लगा है।

    अब जब भी मैंने उसे अपने यहाँ निमंत्रित किया या उसके यहाँ आने की बात कही, या अपने चिरपरिचित रेस्तराँ के कोने वाली उस खास मेज पर चाय और चर्चा का प्रस्ताव रखा, वह कोई न कोई बहाना करके टाल जाता था। या हर बार, हर बात को ‘इतवार’ पर ले जाता था।

    “इतवार को आओ न? जमकर बातें होंगी। साथ में ‘उमराव जान’ की गजलें और कॉफी, खूब मजे रहेंगे।”

    पर हमउम्र दोस्तों में तमाम ऐसी बातें होती हैं, जिनके लिए इतवार तक का इंतजार ऐसा लगता है, जैसे इधर-उधर प्रेमी-प्रेमिका खड़े हों और बीच में कोई विशालकाय पहाड़ आ गया हो।

    खैर, उसकी व्यस्तता की वजह और सही हालत जानने के लिए एक दिन मैं बिना बताए उसके यहाँ जा धमका। घंटी बजाई तो बहुत देर बाद दरवाजा खुला। इस पर प्रशांत को आड़े हाथों लेने का मन था, पर यह देखकर चुप रह गया कि दरवाजा प्रशांत ने नहीं, सुमिता भाभी ने खोला है।

    “नमस्कार, भाईसाहब।” सुमिता भाभी ने मुसकराते हुए कहा।

    “नमस्कार, प्रशांत नहीं है क्या?”

    “भीतर हैं, आप आइए तो!” और मुझे बैठक की जगह भीतर वाले कमरे में बिठा दिया गया।

    इसके बाद प्रशांत आया। उसके होठों पर एक फीके से उत्साह वाली मुसकराहट थी, “ऐसा हे दोस्त, कि कुछ विद्यार्थी आ गए हैं पढ़ने के लिए।”

    “ठीक है, तुम पढ़ा लो। मैं तब तक कोई पत्रिका पढ़ लेता हूँ।”

    “पर यार, इसके बाद दो ग्रुप और आएँगे। शाम आठ बजे फुरसत मिलेगी।”

    “ग्रुप!” शब्द पर आँखें फाड़े उसे देखता रह गया। यानी ट्यूशन। तो यह जनाब भी इस रोग की लपेट में आ गए।

    “अच्छा, मैं सवा आठ बजे आऊँगा।” कहकर मैं निकल गया।

    इस बीच मैं पार्क की सैर कर आया। कुछ देर सड़कें नापता रहा। एक वाचनालय में जाकर अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ीं और फिर ठीक सवा आठ बजे वहाँ पहुँच गया।

    अब तक मेरा दोस्त विद्यार्थियों की तीन टोलियाँ निबटा चुका था। अगले दिन दो एकदम सुबह-सुबह आनी थीं। ट्यूशन का नशा अब उसकी आँखों में उतर आया था। उसने टेपरिकार्डर चालू कर दिया, “इस दस्त में एक शहर था, इस दस्त में...!”

    गुलाम अली कमरे में झूमने लगे। फिर खुद भी थोड़ा झूमते हुए उसने चाय के लिए आवाज दी और बिना मुझे कुछ पूछने का मौका दिए, खुद ही शुरू हो गया :

    “तुम ही सोचो, यार, हर महीने कम से कम बीस हजार रुपए फालतू मिल जाते हैं। किसे बुरे लगते हैं? जनवरी-फरवरी में तो सात-आठ तक ग्रुप बन जाते हैं। हर ग्रुप का पाँच हजार, यानी कुल मिलाकर चालीस हजार रुपए...! दो-तीन साल में मेरा अपना मकान बन जाएगा। लड़कों को किसी अच्छी जगह पढ़ने भेजूँगा। आखिर आदमी को शान से जीना चाहिए, क्यों?”

    मैं क्या जवाब देता? अलबत्ता यह देख रहा था कि यह धंधा किसी भले-चंगे आदमी पर भी इस कदर सवार हो सकता है कि उसे सावन के अंधे की तरह हरे-हरे (नोटों) के सिवा कुछ और दिखाई ही न दे।

    लौटा तो टेपरिकार्डर पर शिवकुमार बटालवी थिरक रहे थे, “किन्नी पीत्ती ते किन्नी पीनी है, मैंने एहो, हिसाब ले बैठा...मैंने एहो...एहो...ऐहो हिसाब लै बैठा...!”

    पता नहीं, क्या हुआ कि मैं जल्दी से बाहर आ गया।

    3

    इसके बाद नया साल आया तो इस धंधे में एकाएक उछाल आ गया। अब तो ऐसे प्राध्यापक भी जिनकी ज्यादा साख नहीं थी, या जो इसी साल नए-नए आए थे, या क्लास में जिनके अटक-अटककर पढ़ाने और बार-बार भूल जाने पर सीटियाँ बजती थीं, बहुत व्यस्त दिखाई पड़ने लगे थे। फिर जो पुराने और ‘अनुभवी’ थे, उनका तो कहना ही क्या? असली बिजनेस घर हो रहा था, महज ‘साइड जॉब’ के लिए कालेज आते थे। तमाम लोग तो खाली पीरियड्स में भी अगली-बगली झाँकते हुए दो-एक टोलियाँ निबटा देते थे।

    इसके बाद एक ऐसी चीज हुई जो मेरे लिए एकदम कल्पनातीत थी। यानी जितने भी पुराने प्राध्यापक थे, वे अक्सर हफ्ते या दो-दो हफ्ते की छुट्टी पर रहने लगे।

    इस वजह से कई बार विद्यार्थियों के दो-दो, तीन-तीन पीरियड खाली होते और वे ‘हो-हो’ करते हुए कैंटीन के आगे खड़े हो जाते। कैंटीन वाले से जबरदस्ती चाय पीते, फिर धूप में गोला बनाकर भँगड़ा शुरू कर देते थे।

    जो दो-एक क्लासें लग रही होतीं, उनके विद्यार्थी भी ‘हो-हो’ करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। वे भी क्लास छुड़वाकर उछलते-कूदते हुए भँगड़ा देखने चल पड़ते थे।

    और फिर भँगड़ा कब डिस्को डांस में बदल जाता और डिस्को गीतों में लड़कियों के नाम ले-लेकर उन पर व्यंग्य और अश्लील फब्तियों का प्रवाह शुरू हो जाता, यह किसी को पता न चलता।

    कालेज के वाइस प्रिंसिपल कैलाश जी थोड़े बुजुर्ग से थे और उनका हर कोई सम्मान करता था। वहाँ आकर वे एक-एक विद्यार्थी का नाम लेकर बुलाते और अलग से समझाते थे।

    उनके सामने वह विद्यार्थी मान जाता, पर मौका पाकर फिर चुपके से उस भीड़ में शामिल हो जाता था।

    “देखो, साहब नाराज हो रहे हैं।” आखिर वे गुस्से में दहाड़ते।

    “सर, साहब-वाहब की तो छोड़िए। हाँ, आप जो भी कहेंगे, उसे हम मान लेंगे।” विद्यार्थी उन्हें खुश करने की कोशिश करते थे।

    “तो ठीक है, तुम लोग घर चले जाओ।”

    अगले ही क्षण विद्यार्थियों का रेला नारे लगाता हुआ सड़कों पर दिखाई देता था और कालेज में परम शांति विराज रही होती थी।

    इस बीच मक्खीकट मूँछों वाले प्राचार्य महोदय रलियाराम कुंडा अपनी कुरसी से उठकर कमरे में तेजी से घूमते रहते। उनकी खासियत यह थी कि वे सीरियस हैं, मंद-मंद मुसकरा रहे हैं या उदास हैं, उनका चेहरा देखकर कुछ भी पता न चलता। अलबत्ता यह समाचार मिलने पर कि विद्यार्थी चले गए हैं और अब सब कुछ शांत है, वे निश्चिंतता की साँस लेते और बड़ी आराम की मुद्रा में अपनी कुरसी पर बैठते थे।

    और शायद ऊँघने भी लगते थे।

    4

    यह सब क्या हो रहा है? सब लोग देखते हुए भी स्थिति को क्यों नजरअंदाज कर रहे हैं? यह समझना मेरे लिए मुश्किल था। पर एक दिन प्रियरंजन जी ने इतवार को घर पर निमंत्रित किया तो मौजूदा हालात का ‘मर्म’ एकदम उजागर हो गया।

    “क्या बात है, पंद्रह दिनों से आप छुटटी पर ही चल रहे हैं? तबीयत तो ठीक है न?”

    “तबीयत को क्या होना है, यार? हाँ, धंधा चोखा चल रहा है। काफी मेहनत हो जाती है। सुबह छह बजे से रात ग्यारह बजे तक सिलसिला चलता ही रहता है। बीच में नहाने और खाने के दो घंटे निकाल दो।”

    “सिलसिला...! यानी सिलसिला ट्यूशन का?” मैं बुरी तरह चौंका।

    “और क्या?” वह आँख मिचकाकर बोले, “इस वक्त मैं नंबर वन हूँ।”

    “तो क्या इसीलिए कालेज से छुट्टी...?”

    “अरे यार, वहाँ मिलता ही क्या है? हजार रुपल्ली एक रोज की, बस! और यहाँ कम से कम डेढ़-दो हजार रुपए रोज बैठते हैं आजकल। कभी-कभी ज्यादा भी। फिर क्या मेरा दिमाग खराब है जो वहाँ सिर खपाऊँ? आखिर हर इंसान वही काम करता है जिसमें फायदा हो!”

    “मगर नैतिकता, फर्ज...? आखिर कुछ तो...!”

    “सब बातें हैं यार, सिर्फ तुम्हारे जैसे चुगद लोगों को बहकाने के लिए।”

    “पर समाज में इसी से तो एक अध्यापक का सम्मान होता है। उस पर एक बड़ी जिम्मेदारी है, राष्ट्र-निर्माण की...मतलब, देशसेवा, युवा पीढ़ी का निर्माण!” मैंने कुछ अटकते हुए कहा।

    “कौन करता है सम्मान? सब पैसे को पूजते हैं। पचीस-तीस हजार रुपए तनखा में क्या होता है? एक खोमचे वाला भी कमा लेता है इतना तो। एक छोटा-मोटा व्यापारी पचास-साठ हजार रुपए महीने कमा सकता है तो हम क्यों नहीं? हम भी कर दिखाएँगे!” उन्होंने मुट्ठी तानकर क्रांति लाने वाली मुद्रा में कहा।

    “पर भाईजान, एक बात समझ में नहीं आती, आखिर इतने ट्यूशंस की जरूरत क्या है? क्यों इतने विद्यार्थी...?”

    अब वे हँस दिए, “तुम्हारे पास नहीं आते न?”

    “नहीं।”

    “क्लास में कितना कोर्स खत्म करा दिया है?”

    “करीब करीब पूरा। कुछ जरूरी सवालों के जवाब भी लिखा दिए हैं। रिवीजन चल रहा है।”

    “तो ट्यूशन कोई खाक करेगा?”

    “पर मुझे तो चाहिए नहीं।”

    “पर हमें तो चाहिए और इसलिए हम शुरू से ही पूरा इंतजाम करते हैं।”

    “वह कैसे?”

    “क्लास में पढ़ाते भी हैं और नहीं भी पढ़ाते।”

    “यानी?” मैं चौंका—अजब उलटबाँसी है ससुरी!

    “यानी...इस तरह पढ़ाते हैं कि लगे बहुत मेहनत कर रहे हैं, पर असल में किसी की समझ में भी न आए। बातों को खूब उलझाते हैं या फिर जमाने भर की गप्पें सुनाते हैं।” प्रियरंजन जी हँसे, “हमारा दूध वाला दूध में नाले का पानी मिलाता है, हम भी वही करते हैं।”

    “नाले का पानी...?” मेरी आँखें फटने को हो आईं।

    “हाँ, इससे दूध पतला नहीं, कुछ गाढ़ा दिखता है। हम भी क्लास में न पढ़ाने का यही फार्मूला अपनाते हैं।”

    अब और पूछने का मन नहीं था। पर प्रियरंजन जी मूड में आ चुके थे। इसलिए इस धंधे की कुछ और अंदरूनी बातें उन्होंने खुद ही उघाड़ दीं।

    जरूरत पड़े तो कुछ विद्यार्थियों को पटा लिया जाता है। उनसे कहते हैं कि तुम तो भई, हमारे अपने हो। तुम से हजार की जगह पाँच सौ रुपए ले लेंगे। हाँ, अपने साथ पाँच-सात ट्यूशन और लेकर आओ।...अब वह खुद ही ढूँढक़र लाएगा।

    “पिछले साल सिद्धू नंबर वन पर था, इस साल मैं हूँ। जानते हो कैसे? मैंने उसके खिलाफ प्रचार करा दिया कि यह लड़कियों के मामले में...” प्रियरंजन जी ने आँख मिचका दी। बोले, “अब लड़कियों के ट्यूशन मेरे पास ज्यादा आते हैं।”

    फिर कुछ गंभीरता ओढक़र उन्होंने कहा, “सिद्धू पिछली बार पकड़ा गया था, एक ट्यूशन वाली लड़की को इम्तिहान में नकल कराते हुए। खुद उसके हाथ की लिखी परची पकड़ी गई थी। पर हम यह सब नहीं करते। आखिर आदमी को इज्जत वाला धंधा करना चाहिए। क्यों, है न?”

    मैं टुकुर-टुकुर देखता रह गया। क्या कहना चाहते हैं प्रियरंजन जी?

    “देख यार, मैंने इस साल से एक दूसरा साइड बिजनेस शुरू किया है। इससे ट्यूशन का धंधा और जोर-शोर से चलेगा। वो मैथ्स वाला बग्गा है न, ससुरा यही करता है। उसने मुझे सिखाया है कि...!”

    “वह क्या...?”

    “इम्तिहान खत्म होते ही लड़कों के नंबर बढ़वाने के लिए कुछ अटैची टूर करने होंगे।”

    “आप...?”

    “हाँ-हाँ, क्या बुराई है इसमें? इतने सालों से पढ़ा रहा हूँ। सब मुझे जानते हैं। मेरे पास आकर काम करा ले जाते हैं। आखिर मुझे भी तो कुछ फायदा उठाना चाहिए। एक बार मेरे ट्यूशन वालों के नंबर 60 या 70 प्रतिशत तक पहुँचे, तो फिर ट्यूशन का सारा रेला मेरी तरफ खिंचा चला आएगा। मेरी तरफ, हा-हा-हा!”

    मैं प्रियरंजन जी की शक्ल देखता रह गया। फिर धीरे से पूछा, “एक बात बताइए, प्राचार्य जी कोई ऐतराज नहीं करते?”

    “ऐतराज...!” प्रियरंजन जी हो-हो करके हँसे, “जनाब, आप किस दुनिया में रहते हैं? उनका हिस्सा बँधा-बँधाया है। साल के आखिर में पहुँच जाता है। वे भला क्या करेंगे ऐतराज, क्यों करेंगे?”

    मुझे लगा, जैसे नागफनी के तमाम जहरीले काँटे मेरे शरीर में धँस गए हैं और मैं चेतनाशून्य होता जा रहा हूँ।

    “अरे, तुम बिस्कुट नहीं ले रहे हो? और यह सिगरेट विदेश से मेरे एक दोस्त ने भेजी है। नायाब है। भई मजे हैं विदेशों के तो! लो भई, एक तो...”

    “नहीं, धन्यवाद!” जैसे तैसे चाय के दो घूँट पीकर मैं जीने से नीचे उतर आया।

    “आना भई, अगले किसी इतवार को, खुलकर बातें होंगी। बाकी दिनों में तो तुम जानते ही हो कि...” उनकी मुसमुसी आवाज और खोखली हँसी अब भी सुनाई दे रही थी।

    **

    4

    एक बूढ़े आदमी के खिलौने

    प्रकाश मनु

    *

    आज उस बूढ़े को याद करने से फायदा? मैं सोचता हूँ। उसे गुजरे तो कोई साल भर होने को आया। पिछली सर्दियों की बात थी। जाड़ा उस बरस भी खासा पड़ा था और दिसंबर के महीने मे आते-आते तो उसका रंग इतना गाढ़ा हो गया था कि अच्छे-अच्छे खाँ चीं बोल गए थे।...तब वह बूढ़ा! सबसे त्याज्य, निरुद्देश्य जीवन जीता हुआ! उसे गुजरना था, वह गुजर गया। जीता रहता भी तो क्या लेता? उसकी जिंदगी में अब बचा ही क्या था!

    दो बेटे थे, वे दूर-दूर थे। एक हैदराबाद में, दूसरा कलकत्ता! पत्नी पहले ही गुजर चुकी थी। बेटों का, बहुओं का क्या! फिर बेटों के बेटे-बेटियों, नाती, पोते-पोतियों का कोई खास लगाव था उस बूढ़े के साथ, ऐसा तो कभी कोई खास जिक्र उसने नहीं किया था! हाँ, छोटे बेटे का एक छोटा-सा अप्पू था, तीन बरस का उस बूढ़े का पोता, जो जरूर यहाँ आने पर उससे बातें करता था और उसे अपने खिलौने दे गया था, एकांत काटने के लिए! जी हाँ, खिलौने...! भालू, हाथी, हिरन, जोकर वगैरह-वगैरह। आपको यकीन नहीं आया?

    अलबत्ता ऐसा अकेला!...बिलकुल अकेला और अकारज-अकारथ आदमी! ठंड लगी, नहीं बर्दाश्त कर पाया और चल बसा तो इसमें कौन सी अनहोनी हो गई, भई राजेश्वर बाबू? दुनिया में इतने लोग रोजाना मरते हैं, उसे भी मरना था। तब भी, जब से वह गुजरा है, यह निरंतर जी को कलपाने वाला शोक कि वह बूढ़ा...वह बूढ़ा...वह बूढ़ा! क्यों भई, उस बूढ़े की माला अपने से तुम्हें क्या मिलने वाला है मि. राजेश्वर कौशिक?

    मेरे भीतर जाने कौन है जो हँसा है और मैं थरथरा उठा हूँ!

    उफ, हँसी ऐसी कातिल—क्रूर! क्या यह समय है? आज का समय, जिसमें मौत भी मजाक है, खिल-खिल, हँसने की चीज है!

    जितना-जितना उसकी मौत को छोटा किया जा रहा है, उतना-उतना मेरे भीतर प्रचंड आँधी-सी उठती है, नहीं-नहीं-नहीं...! और मौत के खिलाफ उस बूढ़े का लंबा, अनवरत संघर्ष मुझे याद आता है। उसकी जीने की अपरंपार ललक। उसकी गहरी, गहरी, बहुत-बहुत गहरी जिजीविषा! याद करता हूँ, तो आँखें बरसने लगती हैं, वह बूढ़ा... वह अकेला, एकाकी बूढ़ा, महाभारत के भीष्म पितामह-सा! आह, वह बूढ़ा!

    यों मेरा उसका रिश्ता तो क्या था? सोचता हूँ। सोचता हूँ तो सोच की धारा रुकने का नाम ही नहीं लेती और यादों की वेगवान नदी के साथ बहुत कुछ अल्लम-गल्लम बहता चला आता है।

    2

    हाँ, पर मेरा उसे रिश्ता ही क्या था? कौन सा भावनात्मक तंतु...!

    बस, यही न कि सुबह-सुबह मुँह अँधेरे जब हम दोनों पति-पत्नी घूमने जाते थे, तब वह कृशकाय, सौम्य बूढ़ा अक्सर हमें चौराहे के पास वाली पुलिया पर बैठा नजर आता था। और हमें देखते ही उसकी आँखों की चमक थोड़ी बढ़ जाती थी। झुर्रियों से भरे चेहरे पर जरा लुनाई आ जाती थी, या शायद ऐसा हमें ही लगता था। और फिर उसका दिल की मिठास से पगा सा सुर, ‘राम-राम... बाबू जी राम-राम!’ अचानक छलक पड़ता था।

    “राम-राम, बाबा राम-राम!...ठीक तो हो न!” रोज-रोज मेरा वही चिर-परिचत ढंग बात शुरू करने का। जवाब में रोज की उसकी वही चिर-परिचित हँसी। बड़ी सरल, निष्कलुष और अपनापे से भरी हुई।

    “ठीक हूँ... बाबू! ठीक हूँ, एकदम फस्र्ट क्लास!”

    ‘फस्र्ट क्लास’ कहने में, लगता था...हमेशा लगता था कि उसे थोड़ा ज्यादा जोर लगाना पड़ रहा है, ताकि भीतर जो चोर था वह पकड़ में न आए। लिहाजा कुछ अतिरिक्त उत्साह से निकलता था—‘फस्र्ट क्लास! एकदम फस्र्ट क्लास!’

    यों बरसों की मुलाकातों के बाद भी परिचय उससे कुछ खास नहीं था। हाँ, उसके ‘राम-राम बाबू जी!’ अभिवादन के साथ बात कभी थोड़ी इधर, थोड़ी उधर बढ़ जाती थी कि यानी उसने हमारे घर का नंबर ले लिया, हमने उसके घर का। वह शहर की एक पुरानी ‘अशर्फीलाल एंड संस’ नाम की कंपनी में एकाउटेंट था और अब पिछले पाँच-सात बरसों से सेवामुक्त था। नाम रमाकांत सहाय।...यह भी भला कोई ऐसा परिचय हो सकता है जिसे उत्सुकता से याद रखा जाए?

    और उसे भी हमारे बारे में सिर्फ इतना पता था कि हम दोनों पति-पत्नी सुबह-सुबह बिना नागा घूमने निकलते हैं। चाहे गरमी हो, घोर जाड़ा या बारिश। कोई भी मौसम हमारे कदमों को रोक नहीं पाता। घूमते हुए न जाने कब...शायद बरबस ही आसपास और दुनिया-जहान की बातें हमारी बातचीत में उतरने लगती हैं। पता नहीं कब उस बूढ़े के कानों में वे बातें पड़ी होंगी और उसे लगा होगा, ये लोग कुछ अलग-से हैं। तभी से वह बस उत्सुकता से हमें बातें करते बगल से गुजरते देखता था। और फिर ‘राम-राम...बाबू जी, राम-राम!’ का यह सिलसिला।

    कोई ढाई तीन बरस तो हो ही गए।

    एकाध बार, याद पड़ता है, उसने बताया था कि हैदराबाद वाला यानी छोटा बेटा दिनेशकांत सहाय घर आ रहा है, पत्नी और बच्चों के साथ। कलकत्ते वाला यानी बड़ा बेटा सुमनकांत सहाय तो कभी आता-जाता नहीं। उसकी पत्नी नखरीली है, बड़े घर की है। उसका तो रंग-ढंग ही कुछ और है! पर हैदराबाद वाला जो छोटा बेटा है, उसमें अब भी थोड़ा दिल बचा है, अब भी बूढे़ बाप को कभी याद कर लेता है। फोन पर हाल-चाल तो लेता ही रहता है।

    “शुरू से ही साहब, वह पढ़ाई में तेज है।” कहते-कहते बूढ़े की गदरन हलके-से तन गई। बोला, “मैंने ये उससे कह दिया था बाबू जी, कि तुम्हें जितना पढ़ना है, पढ़ लो। मैं दफ्तर से लोन ले लूँगा। कोई कसर नहीं छोड़ी अपनी तरफ से तो बाबू जी! अब वह वहाँ कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के काम में लगा है।...मियाँ-बीबी दोनों ही नौकरी करते हैं। पचास-साठ हजार से कम तो क्या कमाते होंगे! साल में एकाध बार छुट्टी लेकर कभी-कभार हवा पानी बदलने को इधर आ जाते हैं। तब मेरा घर भी गुलजार हो जाता है।...बच्चों का हँसी-मजाक, दौड़ने-कूदने, फलाँगने का ऐसा छनछनाता संगीत गूँजता है पूरे घर में कि जैसे घर भी जवान हो गया हो। और मुझे तो लगता है कि यह घर मुझसे भी ज्यादा उनका ही इंतजार करता है कि वे लोग आएँ, तो घर में फिर वही चहल-पहल हो, फिर वही सुर-संगीत! मुझे तो बाबू जी, अकेले घर में टीवी खोलकर बैठना भी अच्छा नहीं लगता। अकेले घर में टीवी खोलकर बैठो तो लगता है मनहूसियत टपक रही है। क्यों, मैं ठीक कह रहा हूँ न बाबू जी!”

    ऐसे ही बातों-बातों में उसने अपने छोटे पोते अप्पू के बारे में बताया था कि वह किस कदर नटखट है। बिलकुल आफत का परकाला।

    “बाबू जी, बड़ा शैतान है वह।” हँसते-हँसते उसने बताया था, “इतनी बातें करता है, इतनी बातें कि मेरे तो कान खा जाता है। कहता है—दादा जी, चलो, हमारे साथ हैदराबाद चलो। यहाँ रहने से क्या फायदा? मैं पूछता हूँ कि वहाँ चलकर क्या करूँगा? तो कहता है—अरे वाह, आपको अपने साथ पूरा शहर घुमाऊँगा। हम दोनों दो दोस्तों की तरह सुबह-शाम साथ-साथ घूमा करेंगे और खूब बातें करेंगे, क्यों दादा जी? मम्मी-पापा दोनों को फुर्सत नहीं है, तो फिर हम दोनों क्यों न दोस्ती कर लें! इस पर बेटे ने कहा, बहू ने भी कि चलिए बाबू जी, वहीं चलकर रहिए हमारे पास। यहाँ अकेले क्यों पड़े हैं? मैंने पल भर सोचा भी, पर नहीं, बाबू जी, मेरा मन नहीं हुआ। जिस शहर में अपनी जड़ें हैं, उसे छोड़कर जाना? आप देखो, यहीं खेला-कूदा, बचपन गुजारा। शादी हुई, बच्चे हुए। उन्हें पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया। फिर यहीं घरवाली की यादें हैं साहब, घर के चप्पे-चप्पे में!...नहीं बाबू जी, नहीं! मैंने मना कर दिया।”

    “जड़ें...?” सुना तो मुझे कुछ अजीब-सा लगा।

    यह बूढ़ा क्या कह रहा है? ऐसी भाषा तो बरसों से सुनी नहीं मैंने।

    अरे, जड़ें-वड़ें क्या होती हैं! जहाँ फायदा देखा, पैसा देखा, उधर भाग निकले। मगर...मगर यह बूढ़ा तो जड़ों की बातें कर रहा है। इक्कीसवीं सदी में भी? अजीब बात है, बहुत अजीब बात!

    3

    उन दिनों जब शायद दीवाली के आसपास जब उसके घर बेटा-बहू आए हुए थे, उसके बार-बार बुलाने पर भी हम नहीं जा सके। ऐसा नहीं कि मन न था। पर व्यस्तता कुछ ऐसी थी कि एक पैर भी इधर से उधर रखना मुश्किल! सुबह-सबह घूमकर आने के बाद बच्चों के स्कूल जाने की तैयारी। इसी बीच मेरा आध घंटा अखबार पढ़ना। फिर झटपट तैयार हो टिफिन हाथ में लिए दिल्ली के लिए बस पकड़ना। भागमभाग। और रात लौटने पर तो देह और मन में ऐसी थकान उतर आती थी कि फिर कुछ और करने या कहीं आने-जाने का मन ही नहीं होता था!

    पर नहीं, हम गए उसके घर! तब नहीं, जब उसने बुलाया था, बल्कि तब, जब उसने नहीं बुलाया था। और हमारे भीतर उसकी दस्तकों पर दस्तकें इतनी तेज हो गई थीं कि हम जाए बगैर रह ही नहीं सके थे।

    हुआ यह है कि सर्दी बढ़ रही थी, लगातार बढ़ रही थी और अब तो दो-एक दिन से हड्डियों तक को कँपाने लगी थी। और वह बूढ़ा अब कई दिनों से दिखाई नहीं देता था। तब तारा ने कहा कि राजेश्वर, हमें उसके घर जाकर उसका हाल-चाल लेना चाहिए।

    मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस...! ढूँढ़ना इतना मुश्किल तो नहीं था। पर वहाँ जाने पर उस बूढ़े को देखा, तो उसके भीतर उस बूढ़े को ढूँढ़ना वाकई थोड़ा मुश्किल लगा, जो रोज सुबह हमें चौराहे के पास वाली पुलिस पर मिलता था, और जिससे मीठी-मीठी ‘राम-राम’ होती थी।

    कोई पंद्रह दिन से उससे मुलाकात नहीं हुई थी...बस, पंद्रह दिन! और इन पंद्रह दिनों में, हैरानी है, वह महज हड्डियाँ का ढाँचा रह गया था।

    हालाँकि हमें देखकर उसने ठीक-ठीक पहचाना। उसी तरह मुसकराकर स्वागत भी किया। बोला, “आप आ गए बाबू जी, बड़ा अच्छा किया! आपको देखकर तबीयत खुश हो गई। मुझे उम्मीद थी, आप आएँगे, आप जरूर आएँगे। कोई और न आए पर आप...!”

    कोई और? कुछ था जो मेरे भीतर गड़ गया। वह क्या था?

    आखिर कौन ऐसा है, जिसकी यह बूढ़ा प्रतीक्षा कर रहा है, जबकि पूरे शहर में अपना कहने को अब इसका कोई नहीं, कोई भी नहीं। कुछ लोग दूर-दूर की जान-पहचान वाले हैं, पर आदमी अकेला होता है, तो सारे रिश्ते टूटने लगते हैं। “बाबू जी, राम-राम! भइया जी, राम-राम...बहन जी, राम-राम! माता जी, राम-राम!” मानो जितना-जितना वह अकेला होता जा रहा था, उतना-उतना वह अपने को सीधा-सरल और अभिमानशून्य होकर फैलाता जा रहा था, हममें-तुममें...सबमें!

    तो क्या यह इसीलिए था? इसी उम्मीद में कि जब कोई न रहेगा और वह अकेला होगा, एकदम निपट अकेला और असहाय, तो कोई न कोई तो उसकी परेशानी में साथ देने आएगा। कोई न कोई...! क्या वह इसी की याचना कर रहा था?

    और क्या इसी को जड़ें कह रहा था यह बूढ़ा? जड़ें माने? धरती में जड़ें! लोगों के दिलों में जड़ें...मिलने वालों के दिलों में जड़ें।

    पर उससे बात करने पर लगा कि बीमारी जितनी शरीर की है, उससे ज्यादा मन की है। बुखार आया तो कोई तीन-चार दिन तक उतरा ही नहीं। उसने हैदराबाद में बेटे को फोन किया, तो उसने दो-टूक लहजे में कहा, “बाबू जी, अभी तो हम लोग महीने भर पहले वहाँ रहकर गए थे। अब बार-बार आना तो हमारे लिए मुश्किल है। यहाँ नौकरी की अपनी परेशानियाँ और झंझट हैं। फिर पैसा भी लगता है आने-जाने में। अब या तो आप यहाँ हमारे पास आकर रह लीजिए या फिर अकेले फेस कीजिए।...जो कुछ होना होगा, वह तो होगा ही! डॉक्टर बी.एन. शर्मा को मैं पंद्रह हजार रुपया दे आया हूँ। जब-जब आप फोन करेंगे, वे देखने आ जाएँगेे। वैसे भी ठीक तो डॉक्टर ने ही करना है, हम ही वहाँ आकर क्या कर लेंगे?”

    कहते-कहते बूढ़े की आवाज जैसे बिखर गई। पहले तार पतला हुआ और फिर पतला होते-होते जैसे टूट गया। अब उसके चेहरे पर निराशा ही नहीं, खौफ भी था और एक टूटन। बुरी तरह टूटन।

    “आप चिंता न करें, हम बीच-बीच में मिलने के लिए आ जाया करेंगे।” तारा ने मानो ढाढ़स बँधाया। फिर कहा, “खाने की दिक्कत हो, तो मैं किसी को खाना पकाने के लिए भेज दूँगी।”

    “नहीं, एक लड़की है पड़ोस में, जो आ जाती है। झाड़ू-पोंछा कर जाती है और खाना भी! बेटा सारा इंतजाम कर गया है। ऐसा नहीं कि वो मुझसे प्यार नहीं करता, पर मजबूरियाँ हैं उसकी भी। आजकल अच्छी नौकरी कहाँ मिलती है बाबू जी! हमारे जैसे लोगों को तो मरना ही है, आज नहीं को कल। कब तक कोई उसकी चिंता...!” कहते-कहते उसकी आवाज लड़खड़ा गई।

    “अगर डॉक्टर शर्मा की दवा से ज्यादा फायदा न हो तो बताइए, किसी और को दिखा देते हैं। हमारे पड़ोस में भी एक अच्छे डॉक्टर हैं बी.के . दत्त। हमें जानते हैंअच्छी तरह।” मैंने सुझाया।

    “नहीं बाबू जी। डॉक्टर के बस की अब कोई बात नहीं रही। रोग शरीर में नहीं, भीतर है। उसका कोई क्या इलाज करेगा?” अब उसके चेहरे पर लाचारी साफ झलक आई थी।

    “तो भी हमारे लायक जो भी काम हो तो आप बेशक बताइए। यों भी हम कभी-कभार तो मिलने आते ही रहेंगे।” मैंने अपनी ओर से दिलासा दिया।

    इस पर वह हँसा। बड़ी अजीब-सी रोती हुई हँसी। बोला, “आप क्यों करेंगे? आप लोग काम करने वाले लोग हैं। एक बीमार, मरते हुए बूढ़े के लिए इतना कुछ...?”

    पर फिर हम दोनों पति-पत्नी ने तय कर लिया कि सुबह घूमने के बजाए हम घंटा, आध घंटा उस बूढे़ के पास ही बिताया करेंगे। मानो यही हमारा रोज का घूमना हो गया। ...और फिर सचमुच यह सिलसिला शुरू हो गया। हम वहाँ जाते तो वह बूढ़ा जाग रहा होता और एक तरह से हमारे इंतजार में ही होता। वहाँ जाकर तारा चाय बनाती और मैं उससे बातों में मशगूल हो जाता।

    4

    एक दिन गया तो चकरा गया। देखा, उस बूढ़े की रजाई के नीचे से कपड़े के कुछ खिलौने झाँक रहे हैं। भालू, हाथी, हिरन और न जाने क्या-क्या! बाप रे,, इतने सारे खिलौने!

    “आप...आप इन खिलौनों का क्या करते है?” मुझे ताज्जुब हो रहा था, “क्या खेलते हैं इनसे?”

    “असल में अप्पू...बाबू जी, अप्पू छोड़ गया था इन्हें! तो इनमें अप्पू की याद...” कहते-कहते बूढ़े की आवाज में एक अलग-सा रोमांच, एक अलग-सा कंपन उभर आया।

    तब तक तारा भी चाय लेकर आ गई थी। हम दोनों की उत्सुकता देखकर बूढ़े ने बड़े चंचल भाव से वे खिलौने हमें दिखाए। वे कपड़े के बने रंग-बिरंगे खिलौने थे। उनमें फूले गालों वाला एक गोल-मटोल गुड्डा था, एक प्यारी-सी सजीली-सी गुड़िया। हो रहा था, एक ढोलक बजाता हुआ मोटे पेट वाला भालू। एक चालाक-सा ललमुँहा बंदर। एक भागता हुआ चंचल सुंदर हिरन। दो-तीन मोती जड़ी, सफेद बतखें। एक खूब बड़ा सा हाथी...और एक तोंद फुलाए हुए ही-ही-ही हँसता जोकर!

    “अरे, अप्पू को याद नहीं रहे अपने ये खिलौने?” तारा ने अचरज से भरकर पूछा।

    “हाँ, बच्चे अक्सर भूलते तो नहीं हैं अपने खिलौने!” मेरे मुँह से भी निकला।

    सुनकर बूढ़ा एक क्षण के लिए चुप रह गया, जैसे सोच न पा रहा हो कि बताए न बताए। फिर शरमाकर उसने कह दिया, “बाबू जी, सच्ची कहूँ, अप्पू जान-बूझकर मेरे लिए छोड़ गया है ये खिलौने। पूछता था—तुम क्या करते हो दादा जी, सारे सारे दिन? फिर यह जानकार कि मैं अकेला हूँ, उसने कहा—दादा जी, दादा जी, आप तो बहुत बोर होते होंगे। सो पिटी ऑफ यू...! तो मैं ये करता हूँ दादा जी, कि अपने खिलौने छोड़ जाता हूँ। आप इनसे खेलना। फिर टाइम आसानी से कटेगा। मैं भी तो यही करता हूँ। मेरे पास वहाँ बहुत खिलौने हैं। कुछ पापा से कहकर और मँगवा लूँगा। आप मेरे खिलौने ले लो दादा जी!...”

    “फिर बाबू जी, मैंने हँसकर कहा—ठीक है, लाओ। तो बोला कि मेरे बड़े प्यारे खिलौने हैं, इनको सँभालकर रखना दादा जी। इनको खराब नहीं करना। खोना भी मत...प्रॉमिस?”

    “प्रॉमिस—मैंने कहा। इस पर ‘याद रखना दादा जी। नहीं तो कुट्टी हो जाएगी।’ अप्पू बोला। और फिर अपना खजाना...अपना सबसे बड़ा और प्यारा खजाना मेरे लिए छोड़कर चला गया। और अब तुम यकीन मानो या न मानो, बाबू जी, मैं तो अक्सर इन्हीं के साथ खेलता और समय बिताता हूँ।

    “इनके साथ खेलते-खेलते समय का कुछ पता ही नहीं चलता। जैसे तेज घोड़े पर बैठकर बरसों बरस इधर से उधर और उधर से इधर चले आते हैं। बड़े मजे की बात है, है न!” कहते-कहते बूढ़ा हँसा तो साथ-साथ हमारी भी हँसी छूट गई।

    लेकिन बूढ़ा जल्दी ही फिर उसी सुर में आ गया। बोला, “कभी-कभी इनसे खेलता हूँ बाबू जी, तो लगता है, मेरा पोता अप्पू एकदम मेरे सामने है और खेल में मेरा साथ दे रहा है। कभी-कभी अप्पू की जगह उसका बाप आ जाता है। यानी हैदराबाद वाला मेरा छोटा बेटा दिनेश। देखते ही देखते वह इतना छोटा हो जाता है, जैसे कि अप्पू।...कभी कलकत्ते वाला बेटा सुमन आ जाता है और वह भी बिलकुल वैसा नजर आता है। गोलमटोल, गदबदा सा, जैसे बचपन में था। मै उनके साथ बातें करता हूँ, खेलता हूँ और समय का कुछ पता ही नहीं चलता!... कभी-कभी तो बाबू जी, पूरी रात नींद नहीं आती। तब पूरी-पूरी रात यही खेल चलता है बाबू जी! तब ये भालू, ये हाथी, ये हिरन, ये जोकर...ये सबके सब जिंदा हो जाते हैं! और यह जोकर—सच्ची कहूँ कोई और नहीं, मैं हूँ बाबू जी, मैं! और क्या, बूढ़ा होकर आदमी जोकर ही तो हो जाता है...क्यों बाबू जी!

    कहते-कहते वह बड़े जोर से हँसा। बोला, “मेरे एक बुजुर्ग दोस्त, जब मैं जवान था, तब कहा करते थे कि बुढ़ापा इज ए फनी थिंग। पर इसका आदमी को पता तब चलता है, जब वह खुद बूढ़ा होता है!...हा-हा-हा!”

    बूढ़ा इतने जोर से हँसा कि देर तक हमारी निगाहें उसके चेहरे से नहीं हटीं। फिर खुद पर काबू पाकर बोला, “आपको बताऊँ बाबू जी, ये खिलौने बड़े शातिर हैं! अभी तीन दिन पहले की ही तो बात है। मैं इन खिलौनों से खेल रहा था कि पता नहीं कैसे, इस हिरन की नाक में एकाएक झट से पार्वती की-सी नाक चमकी और माथा भी! और फिर आप यकीन नहीं करेंगे, हिरन नहीं, हिरन की जगह पार्वती आकर शामिल हो गई खेल में। मेरे दिनेश और सुमन की माँ, जिसे गुजरे आज चार साल होने को आए! पर वह इतनी छोटी हो गई थी, इतनी छोटी कि एकदम बच्ची समझो!

    “बाबू जी, हैरान न होना, पिछले तीन दिनों से तो अजीब हालत है। जब मैं इन खिलौनों से घर-घर खेलता हूँ, तो मैं भी बच्चा बन जाता हूँ और पार्वती भी बच्ची बनकर सामने आकर बैठ जाती है। और हम खेलते हैं, खेलते रहते हैं देर तक। फिर यों ही खेलते-खेलते पूरी रात गुजर जाती है। आप यकीन नहीं करेंगे बाबू जी, पिछले तीन दिनों से तो जब-जब आँख लगती हैं, बस पार्वती के ही सपने आते हैं... कि वह छोटी बच्ची बन गई है, मैं भी। और वह मेरा हाथ पकड़कर दौड़ रही है। बस, दौड़ती जा रही है—आसमान तक!”

    कहते-कहते बूढ़ा चुप हुआ, तो मैंने देखा, उसकी एक आँख हँस रही थी, एक रो रही थी।...

    5

    इसके बाद भी, याद पड़ता है, उस बूढ़े को दो-तीन और मुलाकातें हुईं। और हर बार उन खिलौनों की बात छिड़ने पर बूढ़े की वही सनक भरी, लेकिन प्यारी-प्यारी बातें।

    और फिर एक दिन....

    ‘ट्रीं...ट्रीं...!’

    फोन की घंटी। फिर फोन पर एक अपरिचित रोबदार आवाज। कोई चालीस-पैंतालीस की उम्र का युवक रहा होगा। बोला, “अंकल, हमारे पिता जी को लकवा मार गया है। आपसे मिलने के लिए बहुत बेचैन है। आप शायद जानते है उन्हें... मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस!”

    —नौ सौ सत्ताईस?

    —हाँ-हाँ, मकान नंबर नौ सौ सत्ताईस...

    — क्या हुआ, क्या!

    —याद किया है...आपको।

    6

    हम वहाँ गए तो मौन। जबान जैसे छिन गई हो, फिर भी बोले बगैर चैन न हो। मौन संभाषण! दीर्घ आलाप। लगातार।

    ...आँखें लगातार बरस रहीं थीं।

    हम बैठे रहे। बैठे रहे और एक मूक वेदना को पिघलते हुए महसूस करते रहे। धीरे-धीरे, शांत पिघलता हुआ हिमालय।

    हिमगिरि गल रहा था। हमने देखा।...हमने देखा, फिर चले आए।

    उसके तीसरे रोज वह बूढ़ा गुजर गया।

    उस मकान का नाम बूढे़ ने न जाने क्या सोचकर ‘आशीर्वाद’ रखा था।...सुना आपने—आशीर्वाद!

    कोई हफ्ते भर के अंदर आशीर्वाद बिक गया। जैसे यह भी कोई नाटक हो। नाटक का कोई दृश्य। पहले से सब कुछ तय। मकान से पहले मकान का सारा सामान बिका और कई बड़े-बड़े नोटों में समा गया।

    ...नोट पर्स में!

    पर्स...तिजोरी में! तिजोरी...?

    और पूरा का पूरा जिंदा और हँसता-बोलता, बतियाता मकान—सिर्फ एक मुट्ठी में! सिर्फ एक मुट्ठी भर नोट...कि गहने...कि...!

    जादू नहीं, हकीकत!

    7

    फिर कुछ रोज बाद देखा, मकान को गिराया जा रहा है। जिस नए आदमी ने मकान को खरीदा था, वह उसे तोड़कर एक नया ‘स्मार्ट’ लुक देना चाहता था।

    ‘आशीर्वाद’ की पत्थर की पट्टिका टूट गई थी और तीन या चार टुकड़ों में एक किनारे पटक दी गई थी।

    बूढ़े का जवानी वाला एक फोटो भी। पुराना, मगर खासा शानदार। दो-एक रोज बाद गली के जमादार ने उसे उठाया और बिजली के खंभे पर लटका दिया।

    आशीर्वाद का मर चुका बूढ़ा अब ‘सड़क का बादशाह’ हो चुका था।

    खंडित इतिहास। खंड-खंड इतिहास...! और एक जिंदा शख्स मुझे लगा—कि तब नहीं, आज खत्म हुआ है।

    मगर...उस बूढ़े का जो आशीर्वाद हमें जो मिला था, वह भी क्या भूलने की चीज है?

    अब भी कभी-कभी सन्नाटे में ‘राम-राम...बाबू जी, राम-राम!’ उस बूढ़े की शहद-सी मीठी गुनगुनी आवाज सुनाई दती है। तब जाने क्यों लगता है, वह बूढ़ा जहाँ भी है, वहाँ से हमारे लिए आशीर्वाद बरस रहा है।

    *

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