Ganga Caukeedaaranee Ki Katha in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | गंगा चौकीदारानी की कथा

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गंगा चौकीदारानी की कथा

15.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 49, शब्द-संख्या 16,867)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

गंगा चौकीदारनी की कथा

प्रकाश मनु

*

545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

**

प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

*

जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिसेज मजूमदार’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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ई-बुक की शक्ल में आने वाली मेरी नई पुस्तक है, ‘गंगा चौकीदारनी की कथा’। इसमें मेरी बहुचर्चित कहानी ‘गंगा चौकीदारनी की कथा’ के साथ दो छोटी-छोटी पर बड़ी मानीखेज कहानियाँ शामिल हैं, ‘संस्कृति’ और ‘संदर्भ’।

‘गंगा चौकीदारनी की कथा’ मेरी कहानियों के विपुल संसार में सबसे अलग और विशिष्ट कहानी है। इसलिए कि इसमें एक मेहनतकश गरीब स्त्री के अभाव जर्जर जीवन के दांपत्य प्रेम का बखान है। उसके विचित्र उलझावों, पूरे विस्तार और उतार-चढ़ाव के साथ यह वर्णन इतनी प्रामाणिकता के साथ सामने आता है, कि पाठकों को लगेगा, वे कहानी नहीं पढ़ रहे। एक पूरी फिल्म उनकी आँखों के आगे चल रही है।

आखिर एक दीन-हीन समझ ली गई गरीब स्त्री के भीतर भी अपना स्त्री होने का अहसास तो होता ही है। और बहुत दबाए जाने पर वह किस तरह प्रचंड आँधी की तरह बहुत कुछ दरहम-बरहम करता सामने आता है, पाठक खुद यह कहानी पढ़कर उससे रूबरू होंगे। हालाँकि उस स्त्री के भीतर का प्रेमल और कोमल मन और उसका अपराजित मातृत्व कैसे खुद ही उन तूफानों पर पानी डाल-डालकर उसे शांत करता है, ताकि उसका जीवन एक समतल पटरी पर चलता रहे, यह विचित्र और अविश्वसनीय कथा भी साथ ही साथ किसी अंतर्धारा की तरह बहती महसूस होती है। और यही द्वंद्व, यही बार-बार इस छोर से उस छोर पर भागना और निरंतर किसी समतल भूमि की तलाश... संभवतः यही उस चौकीदारनी के चरित्र को इकहरा नहीं रहने देता और उसकी कथा का हर हर्फ साँस रोककर पढ़ना पड़ता है।

‘गंगा चौकीदारनी की कथा’ के साथ ही दी गईं दो छोटी कहानियाँ ‘संस्कृति’ और ‘संदर्भ’ भी मानो गहरे अंधड़ से गुजरकर आई हैं और बहुत बेचैन हालत में लिखी गई हैं। ये तीनों ऐसी कहानियाँ हैं, जिन्हें आत्मकथात्मक कहानियाँ कहना बेहतर होगा। इनके पात्र एकदम सच्चे और असली हैं और उनसे मेरा करीबी रिश्ता भी रहा। इनमें एक ऐसी कशिश है कि इन्हें पढ़ने के बाद पाठक खुद को इनके प्रवाह में बहता हुआ पाएँगे।

इन पर पाठकों की इतनी ऊष्माभरी और अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएँ मिलती रही हैं, कि सचमुच ताज्जुब होता है। और तब लगता है, एक लंबे अरसे तक ‘भूमिगत’ रही, अंदर ही अंदर बहती मेरी कथा-यात्रा अकारथ तो नहीं गई। यों यह बात अपनी जगह सही है कि ‘यह जो दिल्ली है’ और ‘कथा सर्कस’ उपन्यासों की जबरदस्त चर्चा के कारण मेरे बहुत-से निकटस्थ मित्रों-लेखकों का ध्यान इस ओर न जाता, तो यह कथा-यात्रा अभी तक भूमिगत ही रहती। इनमें हादसे हैं। हादसों की तकलीफें हैं। गुस्सा है, तो मेरे कुछ एकांतिक मूड्स भी, जो शायद कहानियों के अलावा कहीं और इस कदर खुले ही नहीं।...घर हो, दफ्तर या फिर साहित्यिक महाप्रभुओं का हिंसक मुस्कानों भरा दंगल, हर जगह आप ‘मिसफिट’ हैं, क्योंकि आपको चेहरे उतारने, पहनने का खेल नहीं आता। यही दुख-दाह भरे हादसे न जाने कब, चुपचाप मेरी कहानियों में उतरते चले गए।

मेरी प्रिय कहानियों की इस पुस्तक पर स्नेहिल पाठकों की प्रतिक्रियाओं का स्वागत है।

15 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

अनुक्रम

  • गंगा चौकीदारनी की कथा
  • संस्कृति
  • संदर्भ

  • 1

    गंगा चौकीदारनी की कथा

    प्रकाश मनु

    *

    सुबह-सुबह अभी हम उठे ही थे कि दौड़ी-दौड़ी चौकीदारनी आई। हाँफती हुई। उसे इस कदर हैरान-परेशान और बदहवास कभी न देखा था। चेहरे पर एक ऐसा असमंजस जो एक पैर इधर, एक पैर उधर रखने से होता है। सुनंदा से जल्दी-जल्दी में एक-दो बातें हुईं, फिर वह बोली, “अच्छा भैनजी, हम जा रहे हैं। कोई गलती हुई हो माफ करना।”

    फिर चलते-चलते मेरी ओर देखकर बोली, “बाबूजी, राम-राम!” और फिर घूम गई।

    यह इतनी तेजी से और आकस्मिक रूप से हुआ था कि सुनंदा यह पूछना तक भूल गई कि वह कहाँ जा रही है और क्यों? चौकीदारनी जब दो-एक डग बाहर की ओर धर चुकी, तो उसने उसे पुकारकर फिर से पास बुला लिया और पूछा, “तुम कहाँ जा रही हो चौकीदारनी? यह तो बताया नहीं तुमने?”

    “आगरा...!” उसके मुँह से जवाब सुनकर सुनंदा ही नहीं, मैं भी चौंक गया। भला इसे उसी अँधेरे ‘तहखाने’ में फिर से जाने की जरूरत क्या थी, जहाँ की तकलीफों का लंबा इतिहास हमने उसके शरीर और आत्मा के नंगे, खुले घावों में देखा था?

    सुनंदा की आँखों में उगा प्रश्नवाचक-चिह्न शायद चौकीदारनी ने पढ़ लिया था। इसलिए खुद-ब-खुद बोली, “क्या करूँ भैनजी, मुझे कुछ सूझता ही नहीं। जैसा उसने कहा, मान लिया। वो कहता है, आगरा अपना घर है, आगरे ही रहेंगे तो मैंने कहा—‘ठीक!’ यों भी यहाँ काम का कोई ठीक-ठिकाना तो है नहीं। कभी मिलता है, कभी नहीं, इसलिए सोचा कि अब...”

    सुनंदा एक क्षण चुप रही, फिर गहरी-गहरी सी आँखों से उसे देखते हुए बोली, “अब ठीक है न तुम लोगों का? मतलब...मारता-पीटता तो नहीं?”

    इस पर गंगा चौकीदारनी के चेहरे पर जैसे स्याही सी पुत गई। आँखों में एक ऐसा अजब सा भय और बेचारगी का भाव जो शायद वध-स्थल पर ले जाए जाते बकरे की आँखों में होता है। इससे उबरने में उसे थोड़ा समय लगा। फिर जैसे न चाहते हुए भी उसने बताया, “ठीक तो क्या है भैनजी। अब क्या बताऊँ आपको, क्या नहीं! मगर जिस बंदे के साथ रहना है, वह भला-बुरा जैसा भी है, निभानी तो है। फिर मारे-पीटे, जो भी करे। अपना मरद है...!”

    एक क्षण के लिए उसके होंठ अजीब-सी चुप्पी में थरथराए। फिर बोली, “आपसे झूठ क्यों बोलूँ भैनजी! कह तो बहुत दिनों से रहा था वह आगरा चलने को, पर कल उसने पक्का कह दिया कि या तो चलो मेरे साथ या फिर पड़ी रहो यहीं, मैं तो चला।”

    “लेकिन क्यों...? ढूँढो तो काम-वाम तो बहुतेरा है यहाँ, काम की तो कोई कमी नहीं! फिर आगरा जाकर ही क्या हो जाएगा! यहाँ इतने मकान बन रहे हैं नए। किसी की भी चौकीदारी मिल जाएगी।”

    “अब क्या कह सकती हूँ भैनजी! वही उसका पुराना राग...!” वह अचकचाई। फिर आँख झुकाकर बोली, “कहता है, यहाँ तुम्हारी न जाने किस-किस राज-बेलदार से, रिक्सा वालों से आसनाई है। यहाँ से चलो, वरना...”

    कहते-कहते उसके होंठों में एक अजीब-सा कंपन नजर आया। शायद मेरी उपस्थिति से भी वह झेंप रही थी। लिहाजा मैंने अखबार खींचा और उसे पढ़ने का दिखावा करने लगा।

    “तो वहाँ...! वहाँ तुम्हें लगता है, ठीक हो जाएगा सब?” सुनंदा पूछ रही थी।

    “अब यह तो क्या कह सकती हूँ भैनजी! पर भगवान भी तो देखने वाला है न! हम गरीबों का उसके सिवा कौन है?” उसका गला भर आया था और आवाज भी भारी हो गई थी। लगता था, कुछ और बात हुई, तो यह अभी यहीं रो पड़ेगी।

    सुनंदा भी यह समझ गई, इसलिए जल्दी से बात समेटती हुई बोली, “अच्छा ठीक है, चिट्ठी लिखना।” लेकिन फिर उसे याद आया, “पता तो मैंने तुम्हें दिया ही नहीं।” और सुनंदा ने बगल में रखे राइटिंग पैड से एक कागज फाड़कर उस पर पता लिखा और फोन नंबर भी। फिर चौकीदारनी के कंधे को धीरे से छूकर बोली, “कभी ज्यादा परेशान हो, तो फोन पर बता देना। ऐं, ठीक है ना?”

    “जी भैनजी। अब तो आप लोगों का ही सहारा है।” कहते-कहते वह मुड़ी, जैसे नजरें बचाकर जा रही हो। और किसी और का नहीं, अब खुद का सामना करने की ताब भी उसमें नहीं रह गई हो।

    अचानक सुनंदा को कुछ याद आया। “कौन सी गाड़ी से जा रही हो चौकीदारनी?”

    “सवेरे नौ बजे खुलती है भैनजी, ओल्ड फरीदाबाद के स्टेसन से।”

    “तब तो थोड़ा ही टाइम बचा है, सामान-वामान...?”

    “सामान तो रात में ही बाँध दिया था भैनजी। मेरे पास है भी क्या? बच्चों के कपड़े-लत्ते हैं, बरतन हैं। हो जाएँगी दो-तीन गठरियाँ, बस।”

    ...और हाथ जोड़कर वह तेजी से आगे बढ़ गई।

    2

    एक क्षण में गंगा चौकीदारनी का पूरा ‘इतिहास’ मेरी आँख के आगे तिर आया। उससे हुए परिचय को पाँच-छह साल तो हो ही गए और इन पाँच-छह सालों में गंगा चौकीदारनी की विपदा का पूरा एक महाभारत हमने देख लिया था। उसका कष्ट कई बार इतना तिलमिला देता था कि मैं और सुनंदा भीतर ही भीतर छटपटाते थे। पर कुछ कर पाने की हालत में हम कहाँ थे!

    गंगा चौकीदारनी से परिचय भी बड़े अजब ढंग से हुआ था। हमारे घर के सामने जो मकान बन रहा था, उसमें हम अकसर उसे चौकीदार के साथ देखते और जब देखो तब किसी न किसी काम में लगा हुआ ही पाते। चौकीदार तो अकसर मजे में चारपाई पर बैठा या पसरा हुआ ही दिखाई पड़ता था। या फिर कभी-कभी उसके ऊपर नाराज होता, चीखता-चिल्लाता, डपटता हुआ। लेकिन हैरानी है, इसके जवाब में चौकीदारनी की आवाज हमें कभी सुनाई न दी। लगता था, पूरे घर में एक ही शख्स है जो जोर-जोर से बोल रहा है, बक-झक कर रहा है और जो दूसरी है, वह सुबह उठते ही मुँह अँधेरे सबसे पहले मकान की तराई करती है, फिर खाना बनाती, बच्चों को खिलाती है। फिर शाम को तराई, फिर खाना बनाना, चौकीदार और बच्चों को खिलाने के बाद खुद खाना, बरतन धोना और फिर देर रात को कोठरी में सोने के लिए जाना।...इसके अलावा कभी-कभी चौकीदार की डाँट और मार खाना भी इसमें शामिल है। यहाँ तक कि कभी-कभी चौकीदार द्वारा चौकीदारनी की डंडे से पिटाई और चौकीदारनी की ‘दइया री बचाओ’ जैसी चीख भी हमें सुनने को मिल जाती।

    कभी-कभी चौकीदारनी हमारे यहाँ पीने का पानी लेने चली आती, या फिर कभी चौकीदार के खाने के लिए सब्जी या अचार लेने। आते ही बड़ी दीन-हीन मुद्रा में कहती, “भैनजी, कोई दाल या सब्जी पड़ी हो तो दे दो, आज बना नहीं पाई। पैसे नहीं थे...चौकीदार नाराज होगा।”

    हमें अजीब लगता। जब घर में पैसा नहीं है, तो भला पत्नी कहाँ से सब्जी या दाल लाकर बनाए? फिर इसमें नाराज होने की क्या बात? कैसा आदमी है यह।

    फिर भी घर में जो कुछ होता, सुनंदा भरकर दे देती। कभी कटोरी भर दाल, कभी कटोरी भर सब्जी। कुछ और नहीं तो अचार की पाँच-सात फाँकें ही।

    कभी-कभी चौकीदारनी आती और घंटे-आध घंटे बैठकर या फिर खड़े-खड़े अपने सुख-दुख की व्यथा कह जाती। सुनंदा जितना भी होता, सुनती और दिलासा देती। कुछ रोज बाद यह जो हलका सा परिचय था, थोड़ा और बढ़ा। इसके पीछे एक छोटी-सी घटना है...

    हुआ यह कि मेरी माँ का श्राद्ध था और सुनंदा ने यह सोचकर कि मुझे सुबह-सुबह दफ्तर जाना है, जल्दी उठकर ही काफी कुछ बना लिया था। हालाँकि श्राद्ध और ऐसी ही और चीजें मैं मानता नहीं हूँ, पर कुछ बातें इसलिए मान लेने में मुझे हर्ज नहीं लगता कि चलो, जब सुनंदा का मन है तो उसका मन रखने की खातिर ही शामिल हो लिया जाए। तो कुछ पुरानी रीति-रस्में यों भी चल जाती हैं और तटस्थ भाव से निभने लगती हैं। धीरे-धीरे उनके साथ मानने न मानने का द्वंद्व धीमा पड़ जाता है और हम एक रस्म, एक सांस्कृतिक रस्म की तरह उन्हें निभाने लगते हैं।

    ...तो मैं कह रहा था कि मेरी माँ का श्राद्ध था और सुनंदा के कहने पर मैं मंदिर में पंडितजी को भोजन के लिए बुलाने गया। पंडितजी ने अतिशय व्यस्तता के साथ जुड़ी उपेक्षा दर्शाते हुए पूछा—“क्या पूजा भी होनी है?” मैंने कहा, “नहीं पंडितजी, बस, भोजन करना है आपको।” सुनते ही पंडितजी के चेहरे पर उपेक्षा का भाव और गहरा गया। बोले, “अच्छा, ठीक है, मैं आता हूँ।” और यह भी बड़े अनिच्छा भरे स्वर में कहा उन्होंने। उनके सामने सेब, केला, अमरूद, पपीता आदि किस्म-किस्म के फलों और अलग-अलग थालों में पूड़ियों और हलवे के जो ढेर लगे थे, उन्हें देखकर समझना मुश्किल नहीं था कि उनकी इस उदासीनता की असली वजह क्या है।

    बहरहाल, हमने घंटे-डेढ़ घंटे तक इंतजार किया। अब सुबह के नौ बजने को थे। मुझे दफ्तर भी जाना था। ज्यादा इंतजार करना मुश्किल था। मैं कमरे में इधर से उधर टहल रहा था और झींक रहा था।

    सुनंदा ने मेरे क्रोध को भाँपकर सकुचाते हुए कहा, “चंदर, एक बार फिर चले जाते!”

    “नहीं, अब मैं नहीं जाऊँगा।” मैंने गुस्से में बिफरते हुए कहा। फिर जाने क्या सूझा कि मैंने कहा, “तुम ऐसा करो, थाली में खाना डालो। सामने चौकीदार का परिवार रहता है, उन लोगों को देकर आता हूँ।”

    सुनंदा को जैसे बात जँच गई। फिर भी जैसे द्वंद्व से निकल न पा रही हो, “अगर वह पंडित आ गया तो...!”

    “वह मुस्टंडा अब नहीं आएगा।” मैंने क्रोध में भुनभुनाते हुए कहा, “उसके सामने पूड़ियों का एक पूरा गोवर्धन पहाड़ लगा हुआ था। वही क्या कम था, जो वो तुम्हारे घर खाना खाने चला आएगा।”

    सुनंदा को बात ठीक लगी। बस, पंडित को ‘मुस्टंडा’ कहना ही उसे नहीं भाया। बोली, “ठीक है, पंडितजी आएँगे, तो उन्हें भी बिठाकर खिला देंगे। अभी फिलहाल मैं चौकीदारनी को बुला लाती हूँ। बेचारी बड़ी भली है। कई बार आई है, कोई छोटी-मोटी चीज लेने। दो-चार सुख-दुख की बातें भी कह जाती है। इसके बोलने, बात करने में बड़ा सलीका है। खाकर जाएगी, तो माताजी की आत्मा तृप्त होगी।”

    सुनंदा गई और चौकीदारनी को झट साथ लेकर आई। चौकीदारनी सकुचा रही थी। पंडितजी की जगह भला वह कैसे खाए? उसने बहाना बनाया, “खाना तो सुबह ही खा लिया भैनजी। अब भूख तो है नहीं।”

    सुनंदा ने बड़े प्यार से कहा, “तुम बैठ जाओ। खाना मैं ले आती हूँ। दो कौर यहीं बैठकर खा लो, बाकी साथ लिए जाना बच्चों के लिए।”

    यही हुआ। उसने थोड़ा हलवा, एक पूड़ी खाई और फिर थाली लेकर चलने लगी। तभी सुनंदा ने आवाज लगाई, “रुको चौकीदारनी!” और दौड़कर भीतर से दस-पंद्रह पूरियाँ, हलवा और सब्जी डाल दी। कहा, “अब तो शायद तुम सबके लिए हो जाएगा।”

    “हाँ भैनजी, बहुत है।” चौकीदारनी की आँखों में जैसे कृतज्ञता भर आई।

    3

    यह एक छोटी-सी घटना थी, पर मैं समझता हूँ, इससे चौकीदारनी के मन का संकोच काफी कम हो गया। हमारा घर शायद उसे कुछ अलग सा लगा होगा। और सुनंदा का व्यवहार भी, जिसे और स्त्रियों जैसे ‘निंदा पुराण’ या किसी की मीन-मेख निकालने में ज्यादा रुचि नहीं है। खैर, जो भी बात रही हो, चौकीदारनी अब अकसर हमारे घर आने लगी। कभी घंटा-आध घंटा बैठती, तो कभी पाँच-सात मिनट में ही उठ लेती, “चलती हूँ भैन जी। चौकीदार नाराज होगा। सवेरे से तना बैठा है...!”

    अब जब वह आती, तो उसकी दो छोटी बच्चियाँ भी साथ होतीं। एक बच्ची गोद में थी, दूसरी पाँच-छह बरस की रही होगी।

    सुनंदा बड़ी वाली को कभी अमरूद, केला तो कभी टॉफी-बिस्कुट दे देती। और तब उसके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झाँईं आती, उसे बता पाना मुश्किल है। फिर एक प्रसन्नता हमारे घर में उसकी यह थी कि यहाँ उसके लिए कोई रोक-टोक न थी। आते ही वह पूरे घर में इधर से उधर दौड़ना शुरू कर देती। एक दिन मैंने पूछ लिया, “ऐ ऊधमी लड़की, नाम क्या है तेरा?”

    वह हँसकर बोली, “ऊसा।”

    “और तेरी छोटी बहन का?” तो उसके मुँह से थोड़ी मुश्किल से निकला “सुचि...सुचि...!”

    “सुचि क्या?” मैंने परेशान होकर पूछा।...

    “बस, सुचि है बाबूजी!” कहकर वह दौड़ गई।

    मुझे देर से समझ में आया, कहीं यह शुचि तो नहीं, जो उसकी जुबान पर आते-आते ‘सुचि’ हो गया हो? यानी नाम तो खासे ठीक-ठाक रखे हैं गंगा चौकीदारनी ने अपनी बेटियों के।

    सुनंदा से कहा तो वह बोली, “बड़ी वाली का ‘उषा’ तो इसने खुद ही रखा था, लेकिन छोटी वाली का ‘शुचि’ कपूरनी ने रखा है।...मिसेज कपूर! वहाँ जाती है कभी-कभी कुछ काम करने। कुछ झाड़ू-पोंछा कर देती है, पंखे वगैरह साफ कर देती है, घर की कुछ साफ-सफाई कर देती है। दो-एक बार कपड़े भी धुलवाए। बदले में वह पैसे दे देती है और बच्चों के लिए कपड़े, खाना वगैरह भी, सो काम चल जाता है बेचारी का। आजकल बेलदारी का काम छूट गया है, तो इसी से काम चलाती है। एक दिन बता रही थी कि छोटी का नाम ‘शुचि’ उन्होंने ही रखा। कहती थी, हमसे तो बोलते भी नहीं बनता भैनजी, पर उनने रखा है तो अच्छा ही होगा।”

    गंगा चौकीदारनी अब अकसर रोज ही आती और दोपहर में घंटा-डेढ़ घंटा बैठकर बातें करती। उन्हीं से हमें उसके बारे में पता चला कि वह टूँडले के किसी गाँव की है। चार-पाँच बहनें थीं, यह बड़ी है। बड़ी मुश्किल से बाप ने पैसे जुटाकर शादी की। सो घर जो मिला, वह ठीक ही है।...ज्यादा देखने की फुर्सत ही किसे थी! बाप को बोझ उतारना था, किसी भी तरह।

    सुनंदा बोली, “मैंने तो उसे समझाया है कि देख चौकीदारनी, तेरी दो बेटियाँ हैं, यही ठीक है। अब लड़के की आस में और ज्यादा नहीं करता, नहीं तो फँस जाएगी। आजकल बच्चे कम रहें, तभी गुजारा हो पाता है।...बस, इसी चीज का खयाल रखना कि जो तुम्हें सहना पड़ा है, वह तुम्हारी बेटियों को न सहना पड़े।”

    चौकीदारनी ने बात शायद गाँठ बाँध ली और फिर उसका परिवार आगे नहीं बढ़ा, तो नहीं ही बढ़ा।

    सामने वाले मकान का काम खत्म हो गया था। एक दिन गृह-प्रवेश हुआ और घर के मालिक जो कोई दक्षिण भारतीय इंजीनियर साहब थे, आ गए। इसी के साथ ही चौकीदार-चौकीदारनी का डेरा भी वहाँ से उठ गया।...एक दिन चौकीदारनी आई और बता गई कि “हम जा रहे हैं। दो गली छोड़कर एक प्लाट मिल गया है चौकीदारी के लिए। वहाँ नया मकान बन रहा है। वैसे कभी-कभार तो आती ही रहूँगी भैनजी! यहाँ आकर जरा चैन मिल जाता है। मैं कहीं भी रहूँ, यहाँ आऊँगी जरूर।”

    सुनंदा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “तेरा ही घर है पगली। इसमें कहने की क्या जरूरत? कभी कोई दुख-परेशानी हो तो तू बेफिक्र होकर आना। वैसे भी जब-जब तेरा मन हो, आती रहना।”

    और सचमुच चौकीदारनी का अपनी बच्चियों समेत यहाँ घंटे-आध घंटे के लिए आने-बैठने का सिलसिला चलता रहा।

    सुनंदा ने एक दिन यों ही बातों-बातों में पूछ लिया, “जिस नए प्लाट पर तुम्हें चौकीदारी मिली, उसका पता कैसे चला? तुम्हें मालूम था कि इस प्लाट पर काम होना है...?”

    “अरे भैनजी, यह चौकीदार बड़ा तेज है। यों भी करता क्या है! यही तो करता है सारे दिन कि इधर-उधर का हाल पता करता रहता है। काम तो मैं ही करती हूँ। काम से इसे क्या मतलब? लेकिन बातों में बड़ा तेज है। इससे कोई पहली बार मिले, तो लगेगा कि इससे अच्छा तो कोई आदमी दुनिया में है ही नहीं। कौन यकीन करेगा कि मेरे साथ यह सलूक...? मैं तो इसके जुल्म सहते-सहते पागल हो जाऊँगी।” और उसकी आँखें डबडबा गईं।

    उस समय मैं दफ्तर से घर पहुँचा ही था। मुझे देखकर जल्दी से उठती हुई चौकीदारनी बोली, “अब चलती हूँ भैनजी। बाबूजी भी क्या सोचेंगे, यह तो पीछे ही पड़ गई!”

    “तुझे जाना है तो जा। वैसे बाबूजी ऐसे नहीं हैं। तुझे बाबूजी की चिंता करने की बिलकुल जरूरत नहीं है।” सुनंदा ने हँसते हुए कहा।

    इस पर चौकीदारनी के दुखी चेहरे पर भी एक डरी-डरी-सी, मद्धिम मुसकान आ गई।

    4

    फिर एक दिन वह बड़ी सुबह ही रोती-रोती आई। पूरा चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ। साथ में दोनों बच्चियाँ। छोटी को तो इस सबका क्या पता होता, लेकिन बड़ी वाली बुरी तरह से सहमी हुई थी।

    बहुत पूछने पर भी चौकीदारनी कुछ बता नहीं पा रही थी। उसके मुँह से शब्द निकलते ही न थे, लेकिन उसका आर्तनाद कलेजा कँपा रहा था। देखकर दोनों बेटियों ने भी रोना शुरू कर दिया था।

    सुनंदा को काफी देर लगी उन्हें चुप कराने में। चौकीदारनी को अच्छी तरह तसल्ली देने के बाद उसने भीतर से पानी लाकर दिया। पानी पीकर वह थोड़ी सुस्थिर हुई। फिर खुद उठकर बच्चों को भी पानी पिलाया।

    थोड़ी देर बाद चौकीदारनी ने सिलसिलेवार सब कुछ बताया कि चौकीदार ने उसे लात-घूँसों से मारा और बच्चों समेत कोठरी से बाहर निकाल दिया। सर्दियों की रात... पर उसे जरा भी दया नहीं आई। बोला, “निकल जा घर से बाहर। उन्हीं के पास जा, जो तेरे बड़े हमदर्द बने फिरते हैं।” बच्चों को भी साथ ही धकेल दिया कि “ले जा इन्हें भी। जहाँ तू मरेगी, वहाँ ये भी मर जाएँ, तो छुट्टी!”

    “फिर...?” पूछते हुए सुनंदा का पूरा चेहरा विवर्ण हो गया।

    “फिर क्या भैनजी! सर्दी में रात भर बच्चों समेत ठिठुरती रही। दो-तीन बार डरते-डरते दरवाजा खटखटाया। पर क्या तरस आएगा ऐसे आदमी को, जिसे अपने अलावा कुछ नजर ही नहीं आता। उसके सारे आराम पूरे होने चाहिए, फिर चाहे कोई जिए, मरे! एक बार आधी रात को बाहर आया, तो मैंने पैर पकड़ लिए। पर राच्छस को जरा भी दया नहीं आई भैनजी। दो लातें मारकर फिर अंदर चला गया। मैं गिड़गिड़ाकर बोली कि मेरी नहीं तो अपने बच्चों की तो परवाह कर। इस पर थोबड़ा उठाकर बोला—मेरे थोड़े ही हैं। जिनके हैं, उनके पास जा।”

    “तो...रात कैसे काटी? इतनी सर्दी में तो जान निकल गई होगी।” कहते-कहते मानो काँप गई सुनंदा और वैसी ही थरथराहट मुझे भी महसूस हुई। उस समय हम रजाई में थे और जैसे ठिठुर रहे थे!...इतवार का दिन था। न बाहर निकलने की इच्छा हो रही थी और न रजाई ही बाहर निकलने देती थी। मगर यह जो सामने औरत खड़ी थी, इसने सारी रात खुले में काटी थी। और न सिर्फ इसने, बल्कि इसके छोटे-छोटे मासूम बच्चों ने भी।

    “बस भैनजी, पाँच-सात सीमेंट के खाली बोरे पड़े थे। उन्हीं में दो-एक बिछा लिए और बाकी को शरीर पर डाल लिया। दीवार के कोने से लगकर बैठी रही, ताकि हवा से बचाव होता रहे। ऊसा को एक तरफ चिपकाया, दूसरी तरफ सुचि को, ताकि शरीर की गरमी से ही थोड़ा गरमी मिले। फिर भी सुचि की तबीयत लगता है, बिगड़ी है। कहीं बुखार आ गया तो...? मेरे पास तो भैनजी, पैसे भी नहीं हैं दवाई के लिए!”

    “ओह!” सुनंदा के मुँह से कराह सी निकल गई। “इतनी सर्दी में तू मरती रही। इससे तो अच्छा था, तू हमारे घर आ जाती। एक रजाई-कंबल तो हम तुझे दे ही सकते थे।”

    चौकीदारनी थोड़ी देर चुप रही, भीतर के महाभारत को सँभालने की आधी-अधूरी कोशिश करती हुई सी। फिर धीरे से ज़मीन की ओर देखकर पतियाए स्वर में बोली, “कैसे आ जाती भैनजी! आप जानती नहीं हैं, कैसा राच्छस है वो। रात मैं इधर आ जाती तो कहता—चली गई न अपने नए खसम के पास। उस बाबू से तू क्या काम कराके आती है, मुझे सब मालूम है! आपको भैनजी, पता नहीं है, वो क्या-क्या बोलता-बकता रहता है बाबूजी के बारे में कि इस साले बाबू ने मेरी बीवी को फाँस लिया है। मैं ठीक करूँगा इसे किसी दिन। इसके दरवाजे पर खड़े होकर चिल्ला-चिल्लाकर दुनिया को बताऊँगा इसकी करतूत।...”

    सुनकर सुनंदा का चेहरा उबल पड़ा। आँखें जैसे अभी-अभी बाहर निकल आएँगी, “आए तो सही वह कमीना, यहाँ पैर तो रखे! उसकी टाँगें न तोड़ दूँगी! उसकी यह मजाल?”

    पर अगले ही क्षण उसका स्वर थोड़ा धीमा और पस्त पड़ गया था। शायद भीतर ही भीतर समझ गई थी कि एक आदमी जो धूर्तता का पुतला है और किसी भी कीमत पर दूसरे को बदनाम करके अपनी रोटियाँ सेंकना चाहता है, उसे रोका नहीं जा सकता। यह मुश्किल है, बहुत मुश्किल। और उसके लिए अपनी और अपने परिवार की शांति को तो जरूर खोना पड़ेगा।

    इस अचानक मिले झटके और अपमान से मेरा चेहरा भी तमतमा उठा था। गुस्से से ऐंठा हुआ, लाल चेहरा लिए मैं भीतर चला गया। लेकिन भीतर भी चैन कहाँ था! कोई कुल्हाड़ा लेकर जैसे मुझे शाख-दर-शाख काट रहा था। ऐसा आरोप...ऐसा घटिया आरोप! ऐसा घटियातम आरोप शायद ही जिंदगी में कभी किसी ने मुझ पर लगाया हो।

    लेकिन...अगर वह सचमुच ही इस कमीनगी पर आ गया तो? यही सब साबित करने पर तुल गया तो? और ऐसी चार बातें जमाने में उड़ती हैं या कोई बात चार दफे कही जाती है, तो लोग समझने लगते हैं कि इसके पीछे कुछ न कुछ सच्चाई है जरूर। और यहाँ तो एक अमोघ अस्त्र है इसके पास। वह चिल्ला-चिल्लाकर सारी दुनिया को बता सकता है कि अगर यह सब नहीं है, तो क्यों मेरी बीवी के साथ ऐसी हमदर्दी जताई जाती है? किसलिए?...किसलिए उसे खाने, कपड़े-लत्ते की मदद देते हैं ये लोग? भला कोई करता है दुनिया में...!

    गुस्से के मारे मेरा सारा शरीर झनझना रहा था। मन हुआ कि जाकर सुनंदा से कहूँ कि वह अभी-अभी चौकीदारनी को बाहर जाने के लिए कह दे। या अगर वह अभी न निकाले, तो कम से कम इतना तो कह ही सकती है कि वह आइंदा इधर, हमारे घर न आए!

    गुस्सा किसी जरूरतमंद के प्रति हमदर्दी दिखाने की अपनी बेवकूफी पर आ रहा था। गुस्सा सुनंदा के प्रति भी भड़क रहा था। यह औरत है ही ऐसी, जिसको देखो, अपना बनाके बैठ जाएगी। अब ले लो मजे! अरे, किसी के प्रति सहानुभूति है तो दे दो दो-चार पैसे और पीछा छुड़ाओ। एकाध कपड़ा दे दो, खाना दे दो, और भी जो चीज दे सकती हो, दे दो और उसे दूर जाने दो। मगर यह तो जी, जिसके प्रति द्रवित होगी, उसे चिपटाके बैठ जाएगी। छेड़ देगी उसके सुख-दुख के किस्से-तराने और वो ऐसे खुलेंगे कि कभी खत्म होने में नहीं आएँगे।...

    अब यही लो! ऐसे उसमें घुसी जा रही है, जैसे बचपन की कोई सखी-सहेली है। तो लो और ले लो मजे! जिस दिन आएगा इसका घर वाला बाहर और चिल्लाएगा सड़क पर खड़े होकर कि इस घर में उसकी औरत के साथ न जाने क्या-क्या कुकर्म होता है? उस दिन...उस दिन यही सुनंदा खुद निकलकर आए बाहर और जवाब दे, मुझसे तो न होगा। दुनिया बाहर तमाशा देखेगी और हम घर में छिपकर बैठेंगे। थर-थर काँपते हुए कि देखो-देखो, बाहर कैसी नीलामी हो रही है हमारी इज्जत की!

    चौकीदारनी साथ वाले कमरे में सुनंदा के पास बैठी बातें करती रही और मैं न जाने क्या-क्या ऊटपटाँग सोचता रहा। वह जो अनिष्ट था और कभी भी सामने आ सकता था, वह मानो सामने दिखाई पड़ रहा था। और मैं घूँसे मार-मारकर जैसे उसे चकनाचूर कर देना चाहता था।

    इतवार का दिन था। यह दिन बच्चों को गणित और विज्ञान पढ़ाने का होता है, ताकि हफ्ते भर अपनी हिसाब और साइंस की जो भी मुश्किलें हैं, वे हल कर लें। मगर बच्चे पढ़ने के लिए आए, तो मैंने सिरदर्द का बहाना बनाया। और कहा, इस हफ्ते वे खुद ही तीया-पाँचा कर लें, जो भी उन्हें करना है।

    अखबार आए, पड़े रहे मेज पर, मगर उन्हें पढ़ने की मुझमें इच्छा तक नहीं रही।

    रह-रहकर एक ही विचार जेहन में आता था और हथौड़े चलाता था कि मेरी इज्जत नीलाम हो रही है और हम अपनी आँख से उसे देख रहे हैं। आस-पड़ोस के लोग और कपूर-कपूरनी वगैरह भी हँस-हँसकर मजे ले रहे हैं कि बड़ा भला करने चले थे, अब ले लो मजे।

    थोड़ी देर बाद सुनंदा भीतर आई और कुछ सोचती हुई सी मेरी ओर बढ़ी। शायद कुछ कहना चाहती थी, लेकिन मेरा सफेद चेहरा देख, डर गई और भूल गई कि क्या कहना चाहती थी।

    पास आकर उसने सर्दी के बावजूद तपते हुए मेरे माथे पर हाथ रखा। बोली, “क्यों परेशान हो? तुम तो खामखा डर गए।”

    “गई?” मैंने ऐसे कहा, जैसे मैं किसी विकट बला के बारे में पूछ रहा होऊँ!

    “अरे तुम तो ऐसे डर गए, जैसे सामने ही साँप देख लिया हो!” सुनंदा ने फटकारते हुए कहा, “कैसे मर्द हो तुम? छी:! छी:! वह जो राक्षस है इसका आदमी, वह कुछ कह देगा, इस नाते हम इस बेचारी औरत को थोड़ी सी हमदर्दी भी नहीं दे सकते। तब तो यह औरत बेचारी दोनों तरफ से गई। उधर वह मारेगा, इधर हम धक्का देकर सड़क पर खड़ा कर देंगे। ठीक लगती है क्या तुम्हें यह बात? यह तुम्हें सुहाएगा? इससे तो बदनाम होना लाख दरजे अच्छा! अगर वह झूठ-मूठ बकेगा, तो बकने दो। झूठ कै दिन चलता है?...और तुमने यह कैसे समझ लिया कि लोग उसकी बात मान लेंगे। असलियत किसी से छिपती है?”

    मैं अपने आपे में कहाँ था, जो उसकी बात ठीक तरह से सुन पाता। कुछ सुन पा रहा था, कुछ नहीं। फिर भी सुनंदा की बातों ने मेरी हारी हुई हिम्मत को फिर से खड़ा कर दिया था।

    फिर उसी ने बताया कि, “इनका असल झगड़ा यह है कि घर में पैसे तो ज्यादा होते नहीं, मगर चौकीदार को लत है शराब की। जैसे-तैसे मार-पीटकर शराब पीने के लिए पैसे ले जाता है। घर में आटे-दाल के लिए पैसे बचें या नहीं, उसे कोई परवाह नहीं। फिर अच्छा खाने-पीने को भी चाहिए। खासा शौकीन है ये खाने-पीने का। कभी पनीर चाहिए, कभी गोभी, कभी मटर! अंडा तो रोज ही। मीट का भी शौकीन है। कहाँ से लाए भला यह औरत?...यही कहती है चौकीदारनी तो मारता है, पीटता है। गालियाँ देता है। बोलता है—बाऊ से ला। तेरा नया-नया आसिक है न वो! पहले दाल-सब्जी ले जाती थी यहाँ से, अब सोचता है ज्यादा डाँटूँगा, मारूँगा तो पैसे भी लेकर आएगी। बस, उसका काम चलता रहे। हराम की आदत पड़ गई है। वो कहाँ जाएगी?”

    “अरे! फिर तो हम पुराना कपड़ा-लत्ता या खाना जो कुछ भी देंगे, वो देकर उसकी आदत ही बिगाडेंग़े। यह सब तो, इसका मतलब है, गलत ढंग से इंटरपे्रट हो रहा है।”

    “जो भी हो...जो भी हो, चंदर वह अलग बात है। लेकिन पहला सवाल तो यही है कि हम इस औरत को मरने दें? छोटे-छोटे बच्चे हैं इसके। ऐसी भयंकर शीत से ठिठुरते हुए कहाँ जाएँगे बिचारे?”

    “तो क्या वे यहीं डेरा जमाएँगे?” मैं जैसे डर सा गया।

    “नहीं, वो तो चली भी गई।” सुनंदा ने बताया। “मैंने उसे कहा था, यहीं नहा-धो ले और अच्छी तरह खा-पी ले। उसको और बच्चों को ठीक से खिला-पिलाकर भेजा। साथ में लोटा भरकर अदरक वाली चाय रख दी, ताकि पीकर थोड़ी गरमी आए। चौकीदार के लिए खाने की थाली ले गई है। डर रही थी कि वो मारेगा। क्या-क्या नहीं बोलेगा! घर में घुसने नहीं देगा। पर मैंने कहा कि तू कहना, भैनजी ने भेजा है। रात में या सवेरे हम आएँगे, उससे बात भी करेंगे।”

    अभी हम बात कर ही रहे थे कि कहीं से घूमता-भटकता चौकीदार आया। मैंने पहली बार उस पर गौर किया। एक दुबली-पतली मरगिल्ली काया, गहरा साँवला रंग। एक हड्डी का आदमी कैसा होता है, समझ लो वैसा ही। मुझे हैरानी हुई, यह आदमी चौकीदारनी पर लात चलाता है, पीटता है और वह सारी रात कोठरी से बाहर सर्दी में बैठी ठिठुरती रहती है बच्चों समेत। अगर वह अच्छी तरह इसके दोनों बाजू हाथ से पकड़ के हिला दे, तो इसके अंजर-पंजर का पता नहीं चलेगा। मगर...यह तो हिंदुस्तानी औरत ही है ना, जिसे हर हाल में पिटना है। हर हाल में...

    अब तक चौकीदार हमारे बिलकुल पास आ गया था। थोड़े धीमे ‘सुर’ में किसी ढीठ की तरह बोला, “चौकीदारनी कहाँ है?”

    “नहीं है चौकीदारनी, घुल गई हवा में!” सुनंदा ने जैसे गरम तपता हुआ थप्पड़ उसके गाल पर दे मारा हो। फिर गरजकर जैसे प्रचंड मुद्रा में बोली, “तुमने मारा उसे और रात में कोठरी से बाहर निकाल दिया। यह भी नहीं सोचा कि छोटे-छोटे दो मासूम बच्चे भी हैं उसके साथ। रात में उन पर क्या बीतेगी? तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आई, जरा भी दया-ममता नहीं है तुममें? अपनी घर वाली और बच्चों तक के लिए? कैसे आदमी हो तुम?”

    चौकीदार को शायद ऐसी प्रचंड बाण-वर्षा की उम्मीद नहीं थी। और इधर सुनंदा, लगता था, पूरी चंडी हो रही है। देखकर वह कुछ अचकचा सा गया और उसका सिर झुक गया। नीचे धरती पर देखता हुआ बोला, “तो क्या यहाँ नहीं आई चौकीदारनी?”

    “आई थी।” सुनंदा ने रूखेपन से कहा, “अभी-अभी गई है तुम्हारे लिए खाना लेकर। तुम्हें तो चिंता नहीं कि वह जीती है कि मरती, मगर उसे चिंता थी कि चौकीदार ने अभी खाना नहीं खाया।”

    सुनकर चौकीदार कुछ असमंजस में पड़ गया। बोला, “लेकिन...घर में तो नहीं है। मैं तो घर से ही आ रहा हूँ।”

    “तुम सड़क से घूमते-घूमते आए होगे। वह बीच से...सामने वाले रास्ते से निकली है। शायद अब तक घर पहुँच गई होगी। मगर अब लड़ना नहीं उससे और चुपचाप खाना खा लेना। समझे!”

    चौकीदार जो सुनंदा के तेवर से थोड़ा घबरा सा गया था, शुरू से ही असहज था और यहाँ से छूट निकलने का मौका चाहता था। सुनंदा की बात पूरी होते ही वह सिर हिलाता हुआ चला गया।

    उसके जाने के बाद मैंने सुनंदा से कहा, “बस, अब यह प्रकरण बंद। अब थोड़ी अपनी भी चिंता कर लो। कब तक हम इनके लिए अपने घर की शांति भंग करते रहेंगे?”

    सुनंदा कुछ नहीं बोली, मगर उसकी मौन मुद्रा भी जैसे कह रही हो—करना पड़ता है चंदर! यह सब भी जरूरी है, वरना इनसानियत के क्या माने। कुछ देर बाद उसकी तनी हुई मुख-मुद्रा को भेदती सी एक मुसकान उसके होंठों पर खिल गई। बोली, “अगर वो दो हाथ कभी जमके लगा दे चौकीदार को, तो मामला ही न सुलझ जाए? कल आएगी तो कहूँगी!” कहते-कहते उसकी हँसी छूट गई और मेरी भी।

    5

    हालाँकि उस क्षण हम हँस चाहे लिए हों, लेकिन रात भर कलेजा हमारा धड़धड़ाता रहा। रात भर...हमारे भीतर यही आशंका सिर उठाती रही कि कहीं फिर कुछ न हुआ हो। कहीं उसने ईंट-वींट उठाकर मार दी चौकीदारनी को तो हो जाएगा महीनों का हिसाब! चौकीदारनी कह रही थी कि “शरीर से हलका है, मगर एकदम बिच्छू है, बिच्छू! गुस्से में आ जाए तो यह कुछ भी कर सकता है भैनजी।”

    अगले दिन सुबह उठते ही चाय पीकर घूमने निकले, तो मन में आया पहले चौकीदार-चौकीदारनी की ही खबर लेनी चाहिए। लेकिन ईश्वर का शुक्र है कि वे ठीक-ठाक थे और आपस में हँस-बोल रहे थे।

    हमारे वहाँ जाते ही चौकीदारनी तो आई ही, चौकीदार भी झट खाट से उठकर खड़ा हो गया और वहीं से उसने हाथ जोड़ दिए।

    सुनंदा ने चौकीदार की ओर सीधे देखते हुए पूछा, “रात में फिर लड़ाई तो नहीं हुई ना! या फिर तुमने इसे मारा-पीटा?”

    “नईं जी, बिलकुल नईं!” चौकीदार थोड़ा-थोड़ा हँसते हुए बोला। लगता था, वह खुश है और अपनी खुशी और कृतज्ञता को छिपा नहीं पा रहा। हो सकता है, कल इसके लिए सुनंदा ने थाली भरकर बढ़िया सा खाना भेजा था, उसका यह असर हो।

    कुछ देर में चौकीदारनी आई तो चौकीदार ने जैसे सफाई देते हुए कहा, “जरा भी हममें झगड़ा नहीं हुआ। आप चाहें तो इससे पूछ लीजिए।”

    “देखो, झगड़े की जरूरत ही क्या है।” सुनंदा अब बड़ी बहन वाली ‘पैट’ भूमिका में आ गई थी। समझाती हुई बोली, “इस दुनिया में सबसे बड़ी नेमत है प्यार। इससे बड़ी कोई चीज नहीं, कोई खजाना नहीं। आदमी झोंपड़ी में भी खुश रह सकता है, अगर मन में प्यार हो। और फिर तुम्हें दुख किस बात का है? क्यों शराब पी-पीकर गर्क कर रहे हो खुद को और अपने परिवार को भी? तुम अगर बदलना चाहो, तो आज से ही सुधर सकती है तुम्हारी जिंदगी।”

    सुनंदा बोलती रही, बोलती रही। चौकीदार सिर झुकाए सुनता रहा, जैसे उसने अपनी गलती मान ली हो।

    वातावरण शांत ही नहीं, शुद्ध सात्विक भी हो आया था। लिहाजा मैंने भी अपनी ओर से ‘टेक’ लगाते हुए कहा, “तुम दो लोग हो और अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी! दोनों भले-चंगे हो, मेहनत कर सकते हो। और दो छोटी-छोटी बेटियाँ हैं तुम्हारी, इतनी प्यारी, इनकी ओर देखो तो जरा। इन्हें तुमसे क्या-क्या उम्मीदें हैं! और अभी पूरा जीवन तुम्हारे सामने है। इसे चाहो तो तुम स्वर्ग बना सकते हो, चाहो तो नरक। अगर झगड़ो, तो यही घर नरक बन जाएगा और प्यार से रहोगे तो यही स्वर्ग!...स्वर्ग और नरक दोनों इसी धरती पर हैं।”

    चौकीदार और चौकीदारनी क्लास के दो अच्छे बच्चों की तरह सिर हिलाते हुए हमारा प्रवचन सुनते रहे और उस पर खुशी प्रकट करते रहे।

    “अच्छा, चलते हैं। बच्चे इंतजार कर रहे होंगे।” कहकर हम चलने लगे, तो उन दोनों ने ही नमस्कार किया। बल्कि उनकी बड़ी बेटी उषा भी हमारे पास आकर खड़ी हो गई। मैंने और सुनंदा ने उसके सिर पर हाथ फेरा। फिर हम घर की ओर चल पड़े।

    सब कुछ भला-भला सा लगा। रास्ते में पुलकित मन से मैंने सुनंदा से कहा, “चौकीदार इतना बुरा तो नहीं लगा। क्यों?”

    सुनंदा कुछ देर चुप रही। यह शायद सहमति और असहमति के बीच की स्थिति थी। बोली, “चौकीदारनी ने कहा था ना कि यह आदमी बड़ा चतुर है। सबको अपनी बातों से प्रभावित कर लेता है। थोड़े दिन में हो सकता है कि वह यह साबित करने में सफल हो पाए कि वही ठीक है और चौकीदारनी का चाल-चलन ही कुछ गड़बड़ है।”

    मैं चुप हो गया। लगा, सुनंदा की बात सच हो सकती है, नहीं भी। मन में एक तेज उधेड़बुन सी थी। ‘खैर, जो होगा, देखा जाएगा।’ मैंने अपने आपसे कहा। शायद सुनंदा ने भी मन ही मन यही दोहराया।

    6

    हमने सोचा कि अब मामला सुलट गया...कि जो चौकीदार इतना विनम्र और भला-भला सा हो सकता है, वह भला अपनी पत्नी के साथ इतनी क्रूरता का बर्ताव कैसे करेगा!

    लेकिन नहीं, डेढ़-दो महीने मुश्किल से निकले होंगे। उसके बाद उनका फिर वही ढर्रा चल निकला। और दो महीने गुजरते न गुजरते चौकीदारनी अपने फटे हुए, लहूलुहान माथे के साथ फिर हमारे घर चली आई। साथ में डरी हुई अभागी बच्चियाँ। छोटी शुचि भी अब कोई तीन-साढ़े तीन साल की हो गई थी, और कुछ-कुछ समझने लगी थी। कम से कम अपनी माँ के दुख में रोना तो उसे आ ही गया था।

    सुबह-सुबह की भड़भड़। कोई आठ-साढ़े आठ का समय था और मैं दफ्तर जाने की उतावली में था कि इतने में ही यह घटा।

    आते ही चौकीदारनी ने गुस्से में तमतमाते हुए बताया कि उस दुष्ट राक्षस ने आज उसे लाठी से पीटा। पीठ और टाँगों पर तो लाठियाँ मारीं ही, गिर गई तो सिर पर भी लाठी चला दी। “इस नीच को मैं छोड़ूँगी नहीं भैनजी। अभी-अभी पुलिस में रपट कराके आई हूँ।” वह बता रही थी, तो शब्द नहीं, अंगार उसके मुख से निकल रहे थे।

    “लेकिन पुलिस? पुलिस आई तो उसे गिरफ्तार करके ले जाएगी। फिर...?” सुनंदा ने कहा।

    “ले जाए, हजार बार ले जाए। मरे, कीड़े पड़ें उसे! मेरे लिए तो वो कभी का मर गया। अब उस घर में मैं कभी नहीं जाऊँगी, कभी नहीं!” कहते-कहते उसकी रुलाई छूट निकली, “इससे तो भैनजी मौत भली!”

    “तो ठीक है, हिम्मत के साथ रहो। अकेली रहो।” सुनंदा बोली, “मैंने तुम्हें कई बार समझाया। ऐसे आदमी के साथ रहने से अकेले रहना ज्यादा अच्छा है। क्या तुम मेहनत नहीं कर सकती हो, अकेले बच्चे नहीं पाल सकती हो? किस चीज की कमी है तुम्हें। वैसे भी मर्द का कौन सा सुख मिल रहा है तुम्हें?”

    चौकीदारनी चुप थी, मगर चुप भी वह कहाँ थी! उसके होंठ बुरी तरह भिंचे हुए थे, जैसे उसके भीतर तेज अंतद्र्वंद्व की आँधी चल रही हो और उसे काबू में करने के लिए उसे पूरी ताकत लगानी पड़ रही हो।

    कुछ सोचकर मैंने कहा, “एक बार चौकीदार को बुलाकर बात तो करनी चाहिए। पुलिस आई तो फिर कुछ नहीं हो सकता। फिर तो पूरी तरह से कानून के हाथ में है। छूटे या फिर जेल में सड़ता रहे!”

    “नहीं बाबूजी, नहीं।” चौकीदारनी बिफरकर बोली। जैसे उन्माद का तेज दौरा पड़ा हो। बोली, “मरने दो उसे। मेरे सामने ही कोई बोटी-बोटी काट डाले उसकी तो भी नहीं बोलूँगी।”

    “ठीक है, पर बात क्या हुई है? कुछ बताओ तो सही।” मैंने उसे थोड़ा सम पर लाते हुए कहा, ताकि उसके मन का गर्द-गुबार थोड़ा कम हो जाए।

    चौकीदारनी शायद कुछ भी बता सकने की हालत में नहीं थी। धीरे-धीरे, टुकड़ों-टुकड़ों में जो कुछ पता चला, उससे मालूम पड़ा कि वह कोई औरत थी, जिसे चौकीदार रोज रात अपनी कोठरी में ले आता था और चौकीदारनी को बाहर निकालकर अंदर दरवाजा बंद करके पड़ा रहता था। दो-चार रोज तो चौकीदारनी ने किसी तरह बर्दाश्त किया। फिर आपस में तू-तू, मैं-मैं हुई। झगड़ा बढ़ा। चौकीदारनी ने ऊँची आवाज में कुछ कह दिया, तो फौरन चौकीदार लाठी लेकर पिल पड़ा और उसे रुई की तरह धुन दिया। जब ये चिल्लाई कि ‘मर जाऊँगी’, तो बोला, “जा मर, जल्दी मर, ताकि छुट्टी हो। मैं रुपए खर्च करके नई बीवी ले आऊँगा, तेरे से ऊब गया हूँ।”

    “लाठी से तेरा सिर फूट गया, तो भी कुछ नहीं किया उसने? कोई पट्टी-वट्टी...!” सुनंदा गुस्से में भुनभुनाती हुई बोली।

    “पट्टी-वट्टी की क्या बात करती हो भैनजी। अगर मैं वहाँ से भाग न आती, तो हो सकता है, मेरी जान ही ले लेता। मैं चिल्लाते हुए भागी कि मैं पुलिस के पास जा रही हूँ। तुझे जेहल करवाऊँगी! तो बोला—जो करवाना है करवा ले। मेरे पास चाँदी का जूता है, जिसके सिर पर मारूँगा, वही दुम हिलाएगा।” चौकीदारनी फिर से रोने लग गई थी।...

    उसे जैसे-तैसे चुप कराकर सुनंदा ने पूछा, “तूने ये बात नहीं कही थाने में?”

    “कही थी भैनजी। तभी तो थानेदार उबल पड़ा। बड़े गुस्से में है। बोल रहा था, इसी लाठी से साले को धुनूँगा। बस, तू मत कुछ बोलना। बाकी मैं देख लूँगा।”

    सुनंदा चौकीदारनी को साथ लेकर हमारे घर के पास वाली डॉक्टरनी मिसेज शर्मा के यहाँ ले गई। बाद में चौकीदारनी और बच्चों को खिलाया-पिलाया। उन्होंने छत पर चटाई बिछा ली। शुरुआती मार्च की धूप थी इससे शायद उसके शरीर की सिंकाई ही हो रही हो।

    थोड़ी देर बाद सुनंदा छत पर गई, तो देखा, चौकीदारनी सो रही है और दोनों बच्चे उससे लिपटे नींद के हिंडोले पर हैं।

    7

    मैं और सुनंदा एक-दूसरे की ओर देख रहे थे पर चुप थे। एक अजब सी परेशानी थी मन में, जिसे न सुनंदा मुझसे कह पा रही थी और न मैं उससे।

    “चौकीदारनी को यह क्या सूझी पुलिस थाने में जाने की?” मैंने कहा, “इससे न जाने और क्या बखेड़ा खड़ा होगा?...कैसे सँभलेगी बात?”

    “ठीक किया उसने, क्यों न जाती?” सुनंदा ने कुछ तनकर कहा, “अगर इस लाचार औरत की जान ही चली जाती तो? ऐसे गंदे आदमी को सजा मिलनी ही चाहिए। अब जो होता हो, हो।”

    “लेकिन जब पुलिस आएगी तो एक को नहीं, दोनों को परेशान करेगी। तुम जानती तो हो इन पुलिस वालों का चरित्र! चौकीदारनी को भी अगर साथ में पकड़कर ले गए तो...?”

    “इतना आसान नहीं। यहाँ इतने सारे लोग हैं, कुछ तो शर्म होगी! फिर यह कोई गाँव तो है नहीं, शहर है। पुलिस को भी डर होगा। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि चौकीदारनी गई होगी थाने में, तो कुछ तो उसने भी सोचा होगा।”

    इसके बाद न सुनंदा ने कुछ कहा, न मैंने। बस चौकीदारनी की टुकड़ा-टुकड़ा कहानी जो सुनंदा से सुनी थी, मेरी आँखों के आगे घूमने लगी।

    वे लोग पहले आगरे में थे, ताजमहल के पास वाले मोहल्ले ताजगंज में। फिर न जाने क्यों उन्हें आगरा छोड़कर फरीदाबाद आना ठीक लगा। पिछले सात-आठ सालों से वे फरीदाबाद में ही थे और तीन-साढ़े तीन साल तो हमें भी उन्हें देखते हो गए थे। और यह बात हम क्या पूरा मोहल्ला ही जानता है कि चौकीदार खुद कुछ करता नहीं। पत्नी ही सारा काम-धाम करती है। पत्नी की कमाई हड़पता है और बदले में उसे मारता भी है।

    पता चला कि चौकीदार पहले मिलिट्री में था। वहीं एक बार टै्रकिंग करते हुए किसी ऊँची चट्टान से गिर जाने से उसकी टाँग टूट गई। मिलिट्री हॉस्पीटल में महीनों इलाज चला। कई बार प्लास्टर चढ़ाया गया। ऑपरेशन हुए, फिर भी टाँग जो टेढ़ी जुड़ी थी, अंत तक टेढ़ी ही रही। तो वहाँ मिलिट्री से टाइम से पहले ही इसे रिटायर कर दिया गया और पेंशन मिलने लगी।...उसी पेंशन की वह अकड़ है कि वह टेढ़ा-टेढ़ा चलता है। और सोचता है कि उस जैसा तो कोई है ही नहीं। ऊपर से चौकीदारी के जो एक-डेढ़ हजार रुपए मिलते हैं, वह खुद झपट लेता है और चौकीदारनी को लतियाता है। कहता है, ‘मुझे किस चीज की कमी है! तू जा, भाग जा। मैं दूसरी ले आऊँगा।’

    सुनंदा ने जब मुझे यह सारा किस्सा सुनाया था तो बहुत हैरानी हुई थी। समझना मुश्किल था, क्यों ले आएगा दूसरी? चौकीदारनी में भला किस चीज की कमी है जो...! इतनी सुंदर, सुघड़ है, नाक-नक्श तीखे, आकर्षक, लंबी-सी काया। बात-वात करने का सलीका भी है। बच्चों को ढंग से रखती है, प्यार करती है। फिर कितना कुछ सहती है। दूसरी आ जाएगी, तो क्या इससे अच्छी होगी?

    तब तक चौकीदारनी उठकर नीचे आ गई थी और शायद हमारी बातचीत उसके कानों में पड़ी थी। पता नहीं कैसी उत्तेजना थी उसके मन में कि खुद को सँभाल नहीं पाई।

    “इसको तो लगता है, मैं मरूँ तो चैन पड़े। अभी मेरे होते ही दूसरी औरतों को लाता है। बाद में तो कहना ही क्या!” चौकीदारनी ने तड़पते हुए शब्दों में कहा।

    “लेकिन...ऐसी क्या हवस है इसे? इस आदमी को क्या कुछ भी खयाल नहीं है?” सुनंदा ने परेशान होकर कहा।

    “हवस है, तभी तो...! न अपने शरीर की चिंता है न अपनी जान की। बीमारी मोल ले रखी है। उसका इलाज तो करवाता नहीं, उलटा चाहता है, मैं भी फँस जाऊँ!...”

    मेरी बिलकुल समझ में नहीं आया कि क्या कहना चाहती है चौकीदारनी? सुनंदा को भी शायद बहुत हलका सा पता था।

    तब पहली बार इस कहानी का एक तीसरा पेंच खुला कि चौकीदार को कोई दो साल से टी.बी. है।

    चौकीदारनी सुनंदा को बता रही थी, “ये तो टी.बी. का मरीज है भैनजी, लेकिन इलाज नहीं कराता ढंग से। उलटे मुझे रात में बुलाता है बाँह पकड़ के!...अब बताओ भैनजी, ये तो शरीर की आग बुझा लेगा, मगर मुझे भी लग गई बीमारी तो बच्चों को कौन देखेगा? है कोई इनका खयाल रखने वाला? मुझे तो अपने आपको बचाकर रखना है न भैनजी।”

    सुनकर मैं और सुनंदा दोनों एक क्षण के लिए सकपका से गए। चौकीदारनी ने अभी तक इस सबकी चर्चा नहीं की थी, और जब करने पर आई तो...

    “पर टी.बी. तो कोई ऐसी बीमारी नहीं जो ठीक न हो।” सुनंदा ने कहा, “आजकल तो इलाज हो जाता है। दवा भी ज्यादा महँगी नहीं है।”

    “सो तो है भैनजी, पर टिककर यह मरदूद अपना इलाज कराए, तब ना! दो-तीन बार ऐसा हुआ कि बड़े सरकारी अस्पताल वालों ने इसे दाखिल कर लिया। कहा कि दो-तीन महीने इलाज चलेगा, फिर तुम घर चले जाना। वहाँ खर्चा तो कुछ भी नहीं था। खाना-पीना मुफ्त, दवाई मुफ्त, इलाज मुफ्त...और इतना बढ़िया खाना है वहाँ भैनजी, कि क्या कहूँ! खुद बताता है कि नाश्ते में अंडे, बे्रड, दूध। दो बार खाने में दाल-सब्जी। रात को फिर दूध। कोई खर्चा नहीं एक पैसे का। मगर यह वहाँ टिकता ही नहीं। सात-आठ दिन रहा, फिर कोई न कोई बहाना करके भाग आया। बोला, कि दवाई दे दो, मैं घर पर ही लेता रहूँगा।”

    “क्यों मगर? इसे क्या परेशानी है वहाँ?”

    “बस, ऐसे ही! बल्कि घर पर भी दवा कहाँ लेता है? और परहेज तो बिलकुल ही नहीं। डॉक्टर लोग कई बार कह चुके हैं कि ऐसा ही चलता रहा, तो एक दिन बीमारी से हड्डियाँ गल जाएँगी, मर जाएगा। मगर जाने क्या इसे आग लगी है कि टिकता ही नहीं। कहता है, बस दवाई लिख दो, घर जाऊँगा। फिर घर में तो भैनजी, छोटे-छोटे बच्चे हैं। मुझे अपना भी खयाल रखना है। मैं भी पड़ गई खाट पर तो कौन सँभालेगा घर? पर यह मानता ही नहीं। एक बार ढंग से इलाज करा ले, तो बीमारी से हमेशा के लिए छुट्टी हो जाए। वो क्या अच्छा नहीं है?”

    बात तो चौकीदारनी की ठीक ही थी। हम उसकी समझदारी के भी कायल थे। समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी छोटी-सी बात चौकीदार की समझ में क्यों नहीं आती?

    लेकिन इसका जवाब तो बाद में चौकीदारनी की बातों से ही मिला। बोली, “सच्ची बात तो यह है भैनजी, कि इसे शक है, मैं पीछे से गुलछर्रे उड़ाती हूँू। कहता भी है—हाँ, हाँ, तू तो चाहती ही है कि मैं अस्पताल में पड़ा-पड़ा सड़ता रहूँ। पीछे तू न जाने किन-किन यारों से चिपटी रहती होगी...कि तेरा कोई एक है, पचासों से तेरी आसनाई है!”

    इसका जवाब क्या हो सकता था? सुनंदा चुप रही और मैं गंभीरता से गंगा चौकीदारनी की कथा में आए इस नए पेंच को सुलझाने में लग गया था।

    थोड़ी देर तो चौकीदारनी खुद ही भौचक सी बैठी रही, जैसे खुद ही तय न कर पा रही हो कि जो कुछ उसने अभी-अभी बताया, वह ठीक किया कि नहीं? फिर जैसे खुद ही उससे उबरते हुए बोली, “ऐसा दईमारा है यह मरद कि किसी के साथ हँसकर बोल लूँ, तो इसे आग लग जाती है। सोचता है, मैं न जाने किस-किस से फँ सी हुई हूँ। इसीलिए जब देखो, बगैर बात डाँटता है, पीटता है। बोलता है, तू हँसती क्यों है? जैसे कि किसी और का हँसना ही पाप हो। मैं तो कहती हूँ कि पाप मेरे में नहीं, तेरे में है। जब मन में पाप हो, तो सारी दुनिया ही मैली लगती है।...क्यों भैनजी, ठीक है न!

    “और आपको बताया तो था, खुद दूसरी औरतों, बेलदारिनों को बुलाकर मेरे सामने क्या-क्या करतूतें नहीं करता। मैं बच्चों को लेकर बाहर खाना बनाती रहती हूँ, तराई करती हूँ, सफाई-वफाई करती हूँ। अंदर यह कुठरिया बंद करके किसी किराए की औरत से लगा रहता है। कभी टोकूँ तो कहता है, मेरे पास पैसा है, पेंशन आती है, तेरे को क्या? तू नहीं सोएगी मेरे साथ तो क्या? मुझे तो एक नहीं पचास मिल जाएँगी। जेब में पैसा होना चाहिए।...एक दिन की बात हो, तो मैं सह भी लूँ। ये तो भैनजी, आए दिन मुझे बाहर धकेलता रहता है। रात-रात भर मजदूरिनों के साथ गुलछर्रे उड़ाता है। मैं कहाँ तक बर्दास्त करूँ?”

    8

    अब यह हमारे चौंकने की बारी थी। यानी पिछली बार जब इसने बताया था कि चौकीदार ने इसे बाहर निकाल दिया बच्चों समेत, तो वह अद्र्धसत्य था। पूरी बात यह थी कि उसे किसी दूसरी औरत के साथ रात बितानी थी, इसलिए इसे बच्चों समेत बाहर धकिया दिया गया।...सर्दियों की ऐसी भीषण रात में जब ठंडी हवा से हड्डियाँ तक गलती हैं। और छोटी-छोटी बच्चियाँ! उन्होंने कैसे सहा होगा? उफ! क्रूरता की हद है।

    और चौकीदारनी ने भी शायद हमें इसलिए नहीं बताया कि इसके पीछे पूरी कहानी थी, जो अभी-अभी हमारी आँखों के आगे खुली है। शायद इसलिए नहीं बताया होगा कि इसके साथ खुद के भी उघड़ने का डर है!...ऐसी चीजें कोई जाने किस रूप में समझे?

    सुनंदा क्र ोध में आकर बोली, “थू है ऐसे मर्द पर! तू छोड़ क्यों नहीं देती इसे? तू जवान है, मेहनत-मजदूरी कर सकती है। इतना तो कमा ही सकती है कि बच्चों को रूखा-सूखा ही मिले, मगर पल जाएँ। तू छोड़ इसे और अपनी जिंदगी अपनी तरह से जी। इसे चौकीदारी का काम मिल सकता है तो तुझे नहीं मिल सकता? काम तो सारा तू ही करती है ना? फिर...काहे को मार खाती है इससे? तू काम कर और बच्चे पाल। ऐसे मर्द को लेकर चाटेगी तू?”

    सुनकर गंगा चौकीदारनी एक क्षण उदास सी रही, फिर गहरी व्यथा के साथ बोली, “इतना आसान कहाँ है इससे पिंड छुड़ाना? आप जानती नहीं हो भैनजी, ये वहाँ भी आ जाएगा। एक दफा दो दिन के लिए मैं इसे छोड़कर इसी मोहल्ले में, एक दूसरे मकान में चली गई। वहाँ मुझे काम मिल गया था। वहीं रहने भी लगी। इसे बताया भी नहीं मैंने कि कहाँ हूँ, पर जाने कैसे पता लगा लिया इसने और पुलिस में रपट करा दी कि मेरे पाँच हजार रुपए लेकर भाग गई है! पुलिस ने इतना मारा, तंग किया कि क्या कहें! फिर यही राच्छस छुड़ाकर भी लाया!...बस, तब से हिम्मत नहीं होती भैनजी!”

    “और अब जो तू पुलिस में रपट लिखाके आई है वो?...अब पुलिस तंग नहीं करेगी तुझे?”

    “कहाँ...! रपट लिखी कहाँ बाबू?” गंगा चौकीदारनी बोली, “एक कागज पर बस मकान नंबर लिख लिया और सेक्टर का नंबर। थानेदार बोला—‘तू जा, हम अभी आते हैं। मालूम है, आ के भी क्या करेगा? ये उलटा उससे मुझी को पिटवाएगा।... पर जो मैं कर सकती हूँ, तो मैं क्यों न करूँ? अब जो होगा, देखा जाएगा बाबूजी। हो साला जो होना ही है, इस पार या उस पार...!”

    कह तो गई गंगा चौकीदारनी, पर अब उसके चेहरे पर पुलिस का खौफ साफ पढ़ा जा रहा था। जैसे अंदरखाते दुचित्तेपन में घिरी हो, कि पुलिस के पास जाकर सही किया कि नहीं?

    फिर देर तक कुछ और बात नहीं हुई। हम जैसे अपनी-अपनी तरह से उस ‘अनागत’ की प्रतीक्षा में बैठ गए, जो किसी भी करवट बैठ सकता था। और कुछ भी कर सकता था। हम जैसे अंदर ही अंदर उसका सामना करने के लिए खुद को तैयार कर रहे थे।

    थोड़ी देर में हरियाणा पुलिस का एक मोटा सा वर्दीधारी सिपाही हमें अपनी ओर आता दिखाई दिया। उसके साथ-साथ चौकीदार था, उसे रास्ता बताता हुआ।

    “तू यहाँ क्यों आ गई? थाने में रपट कराती है, फिर घर से भाग जाती है। हम तुझे कहाँ ढूँढते फिरें? जैसे यही हमारा काम है...क्यों? हैं!” सिपाही ने जैसे आते ही रौब गालिब करना चाहा।

    लेकिन जवाब में हम सब इस कदर चुप और चौकन्ने थे कि उसने शायद अपने आपको चुप्पी के एक किले में कैद पाया और कुछ असहज सा हो गया। वह कुछ बोलता, इससे पहले ही चौकीदारनी ने बेखौफ ढंग से, मगर धीमी आवाज में कहा, “यह मुझे मारता है दीवान साहब। मैं क्या करती...? अभी तो सिर ही फोड़ा है।”

    “पर यह तो बोल रहा है कि तूने इसे ईंट मारी पैरों पर...!” सिपाही ने घुड़का।

    “मारी...! हाँ मारी ईंट मैंने इसे।” चौकीदारनी जैसे रणचंडी बन गई, “पर जरा सा इसके पैर पर लगा होगा। लेकिन पूछिए जरा इससे, पहले इसने मुझे कितना तंग किया था। और बाद में इतना मारा कि पता नहीं जिंदा कैसे हूँ मैं!”

    मैंने सिपाही से कहा, “इसकी हालत तो आप देख ही रहे हैं, कितनी बुरी तरह इसका माथा फूटा है। लिहाजा इसने थाने में जो रिपार्ट की थी, पहले तो इसी से उसके बारे में ठीक से सुन लीजिए और फिर तफ्तीश कीजिए।”

    चौकीदारनी तो भरी बैठी थी ही। उसने सब कुछ बताया कि कई रातों से चौकीदार उसे बाहर निकाल देता था और वह सर्दी में छोटे-छोटे बच्चों के साथ काँपती-ठिठुरती रहती है। फिर उसने सुबह की पिटाई का किस्सा बताया कि मेरा सिर तो बिलकुल खील-खील कर दिया था इसने। वो तो साथ में भैनजी गईं और डॉक्टर से पट्टी करवाकर लाईं, वरना सिर तो खूनमखून था। खून रुकने में नहीं आ रहा था...पूरे सात टाँके लगे हैं।”

    चौकीदारनी ने जिस ढंग से यह पूरा किस्सा सुनाया, उसमें चौकीदार के पास कहने के लिए कोई जवाब था ही नहीं! उसका चेहरा सफेद पड़ गया था। उसने सोचा था, चौकीदारनी कुछ इस ढंग से कहेगी कि उसका थोड़ा-बहुत बचाव हो जाए, पर यहाँ तो...!

    चौकीदार की आँखों में अब एक भयकातरता साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी। सिपाही भी अब तक चौकीदार द्वारा पढ़ाई गई पट्टी भूल चुका था। समर्थन के लिए उसने एक बार हम सबकी ओर देखा और फिर चौकीदार से घुड़ककर बोला, “चल, पहले तो तुझे हवालात में बंद करता हूँ। तेरी घर वाली है ये, साले, हरामी! इतना भी भूल गया? ऐसे तो कोई जानवर को भी नहीं मारता।”

    इसके साथ ही सिपाही का डंडा चौकीदार की ओर बढ़ा ही था कि चौकीदारनी बीच में आ गई थी। बोली, “इसने जो कुछ किया, सो किया। अब आप इसको समझा दो, बस! यह मुझे मारे नहीं, मैं बस इतना ही चाहती हूँ दीवान साहब!”

    तब तक आस-पड़ोस के दो-चार घरों के लोग और आ गए थे। इनमें कपूर और कपूरनी सबसे आगे थे। बगल के बंगाली सज्जन भी थे, जो एसोसिएशन के सेक्रेटरी थे। चौकीदार की हालत अब और ज्यादा दयनीय हो गई थी और वह डर के मारे कुछ-कुछ काँप रहा था। आँखों में एक याचना का भाव कि बड़ी कृपा हो, अगर उसे बचा लिया जाए!

    बहरहाल, चौकीदार ने सभी के सामने कसम खाई कि आगे कभी वह चौकीदारनी पर हाथ नहीं उठाएगा, नहीं तो चाहे इसकी जो भी सजा दे दी जाए।

    सिपाही एक क्षण के लिए सख्ती से उसे देखता रहा, फिर धमकाकर चला गया कि हरामजादे, हमारा क्या यही काम है! आगे से कभी तेरे खिलाफ रिपोर्ट आई, तो बस फिर जेल की चक्की पीसना...

    सिपाही के जाने के बाद मैं, सुनंदा, बंगाली महाशय, पड़ोस की मिसेज कपूर जिनके घर चौकीदारनी कभी-कभी झाड़-पोंछ और सफाई का काम करती थी और सामने वाले घर की माताजी, जो जगमाताजी हैं, सभी ने चौकीदार को अपने-अपने ढंग से समझाया। और वह किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सिर झुकाए ‘हाँ, हूँ’ करता रहा। लगा कि अब मामला निबट गया है।

    9

    इसके कोई सात-आठ महीने बल्कि कह लीजिए, साल भर तक उनमें कोई खटपट नहीं हुई। कोई छोटा-मोटा झमेला हुआ हो, तो वह बाहर नहीं आया, अंदर ही सुलझा लिया गया।

    लेकिन मुश्किल तो अब हमारी हो गई। अब मैं और सुनंदा जब भी बात करते, पता नहीं किस जादू के जोर से गंगा चौकीदारनी हमारी गंभीर बातचीत और बहसों के बीच फिसल आती और हम कुछ इस तरह उसके व्यक्तित्व और स्थितियों का विश्लेषण करने में जुट जाते, जैसे किसी ताजी पढ़ी हुई किताब पर, खासकर उपन्यास को लेकर, हममें घंटों बातें होतीं।

    यों भी गंगा चौकीदारनी और चौकीदार के चरित्र किसी उपन्यास के जटिलतम चरित्रों से भी ज्यादा जटिल और पेंचदार थे।

    हम जितना देखते, हर बार उससे कहीं ज्यादा दिख जाता। जितना सोचते, हर बार कोई नई मुश्किल या पेंच सामने आ जाता। चौकीदार की टी.बी. की बीमारी और चौकीदारनी का उससे दूर-दूर रहना, खुद को हाथ न लगाने देना, बदले में चौकीदार का हर दूसरी-चौथी रात उसे पीटना या फिर नई-नई औरतों को लाकर उसे जलाना भी कुछ ऐसा ही माजरा था।...यह कहानी को किसी अंतहीन सुरंग में बदले दे रहा था, जिसका कोई ओर-छोर या सिरा मिलता ही नहीं था।

    बल्कि सुनंदा कह रही थी, “अब तो अजब ढंग की मुश्किल आ गई है इन दोनों में। दोनों कुत्ते-बिल्लियों की तरह झगड़ते हैं। चौकीदारनी जब मना करती है, तो चौकीदार उस पर आरोप जड़ता है, ‘तू तो पचास मर्दों से फँसी हुई है!’ इस पर चौकीदारनी बिफरकर कहती है, ‘नाम बताओ किसी एक का भी?’ जवाब में चौकीदार ढीठता से आरोप जड़ता है, ‘मैं क्यों बताऊँ? जब मेरे से नहीं रहा जाता और मैं दूसरी औरतों को लाता हूँ तो तू भी अपनी आग बुझाने कहीं जाती होगी? अब मुझे क्या पता किस-किस के पास जाती है और क्या-क्या काम कराती फिरती है!”

    सचमुच यह चौकीदार और चौकीदारनी के दांपत्य जीवन का एक ऐसा पेंच था, जिसे कोई दूसरा हल नहीं कर सकता था। इसमें उलझाव पर उलझाव थे और आड़ी-तिरछी हदबंदियाँ। रास्ता अगर कोई निकल सकता था, तो वह उन्हें ही निकालना था।

    “यह एक बार इलाज क्यों नहीं करा लेता तसल्ली से? फिर कोई समस्या ही न रह जाती?” मैंने बातों-बातों में सुनंदा के आगे यह राय प्रकट की।

    “यही तो...यही तो चौकीदारनी भी कहती है। कहती है, एक बार तो बड़े सरकारी अस्पताल में खुद दाखिल करवा के आई थी। उन्होंने इसे देखते ही कह दिया था कि हालत बहुत सीरियस है, दाखिल कराना जरूरी है, वरना यह बचेगा नहीं। तो चौकीदारनी दाखिल कराकर चली आई। पीछे से हफ्ते, दस दिन में यह भी बहाना बनाकर घर भाग आया। अब इसमें चौकीदारनी भला क्या कर सकती है? चौकीदारनी ने पूछा, इलाज पूरा क्यों नहीं कराया? तो कहता है—हाँ-हाँ, तू तो चाहती है, मैं वहाँ अस्पताल में पड़ा-पड़ा सड़ता रहूँ और पीछे से तू यहाँ...!” सुनंदा ने बात अधूरी छोड़ दी और बोली, “चौकीदारनी कहती है, बड़ी भद्दी-भद्दी बातें कहता है उसके चरित्र के बारे में।”

    “अगर ऐसा है सुनंदा, तो माफ करना, कुछ न कुछ तुम्हारी इस चौकीदारनी का भी कसूर होगा जरूर। हो सकता है, ज्यादा नहीं, थोड़ा हो। मगर कुछ न कुछ होगा जरूर, वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि...?” मेरे मुँह से निकला।

    इस पर सुनंदा की भौंहें तन गर्इं। मेरी ओर तीखी नजरों से देखकर बोली, “तुम भी मर्द हो न! मैं जानती हूँ, मर्द सारे एक से होते हैं। वे मर्द के फेवर में ही सोचेंगे।”

    सुनंदा के स्वर में रोष ही नहीं, एक गहरी लपलपाती उत्तेजना भी थी। मुझे लगा, मामला कुछ ज्यादा सीरियस हुआ जाता है। सो इसे यहीं छोड़ देना जरूरी है। क्यों हम चौकीदार-चौकीदारनी के दांपत्य संबंध की अशांति की समस्या सुलझाते-सुलझाते खुद के जीवन में झगड़ालू अशांति ले आएँ!

    सुनंदा समझ गई कि उसकी बातों से मुझे ठेस लगी है। लिहाजा थोड़ा स्वर बदलकर बोली, “तुम जरा यह तो सोचो चंदर, कितनी मुश्किल से यह खुद अपना और बच्चों का पेट पाल रही है और चौकीदार का भी। तुम्हें मालूम नहीं, कितना खयाल रखती है वह उसका। खुद चाहे भूखी रह ले, पर उसे बढ़िया से बढ़िया चीजें खाने को लाकर देगी। पनीर, फल, सब्जियाँ, जिसकी भी वह फरमाइश करे! इतनी सेवा-टहल करती है, इसी से टिका हुआ है। वरना कभी का ऊपर चला गया होता!”

    मैं चुप था। अभी सुनंदा का ‘मर्दवादी’ होने का ताना ही मुझे अंदर-अंदर तिलमिला रहा था। सुनंदा अच्छी तरह जानती है कि और चाहे कुछ भी हो, मगर यह चीज नहीं है मुझमें। या अगर परंपरा से प्राप्त जैविक प्रवृत्तियों के कारण है भी थोड़ी-बहुत, तो मैं खुद ही उससे लड़ता-भिड़ता रहता हूँ। फिर भी...फिर भी उसने कहा, उसने यह सब कहा? सुनंदा ने सच ही मुझे कहीं अंदर तक आहत कर दिया था।

    मैं बार-बार अपनी इस हालत से उबरने की कोशिश कर रहा था। पर बार-बार वहीं फँस जाता था। उधर सुनंदा अपनी ही रौ में बहती जा रही थी—

    “तुम तो जानते ही हो चंदर, पहले ही दिन से हम देख रहे हैं, वह दिन भर बैठा-बैठा चारपाई तोड़ा करता है और यह पूरे दिन काम में जुटी रहती है। खटती है, हाड़ तोड़ती है। चौकीदारी के काम में भी मजाल है कि चौकीदार ने कभी अपने हाथ से तराई की हो। या कुछ थोड़ी-बहुत सफाई की हो। एक ईंट का टुकड़ा भी इधर से उधर रखा हो। यही सब करती है सुबह-सुबह उठके। फिर खाना बनाती है, बेलदारी करती है, बच्चों का खयाल करती है। क्या-क्या करे बेचारी? मालूम है, तुम्हें परसों का किस्सा! उसकी जो छोटी वाली बेटी है शुचि, उसका बदन बुखार से तप रहा था। चौकीदारनी रो-रोकर पैसे माँगती रही इलाज के लिए, मगर उस बदमाश ने नहीं दिए। तब मुझसे लेकर गई पचास रुपए। जाकर दवा लाई। यही करती है न और कितनी मुश्किलों में करती है...”

    “हाँ, यह तो ठीक है। मैं कब कहता हूँ कि नहीं करती?” मैंने बीच में टोका, “यह तो शुरू से ही हम लोग देख रहे हैं, पर कहीं कुछ है जो चौकीदार को अस्पताल से घर भागकर आने के लिए मजबूर करता है। वह क्या है? मेरा खयाल है, चाहे कोई छोटा-सा ही कारण हो, मगर कुछ न कुछ है जरूर इसके पीछे।”

    “अच्छा, क्या यह उसकी अपनी हीनता के कारण नहीं हो सकता कि हमेशा अपनी पत्नी के चरित्र को लेकर उसके मन में शक का कीड़ा रेंगता रहता है?” सुनंदा ने अपना तर्क पेश किया।

    “हाँ, हो तो सकता है।” मुझे मानना पड़ा।

    “तो मेरे खयाल से वही है, कुछ और नहीं।” कहकर सुनंदा ने अपनी ओर से बात खत्म कर दी। पर शायद हम दोनों ही जानते थे कि बात खत्म नहीं हुई।

    10

    लेकिन...

    लेकिन चौकीदार-चौकीदारनी का किस्सा कोई दो-एक दिन का तो था नहीं। एक सनातन इतिहास-कथा थी। नए युग की रामायण समझ लो। थोड़े दिन बाद फिर उनमें गुत्थमगुत्था शुरू हो गई। तू-तू, मैं-मैं। मार-कुटाई। सभी कुछ।

    एक दिन दफ्तर से घर पहुँचा ही था कि सुनंदा ने झटपट चाय बनाकर कप सामने रखे। फिर बोली, “लो पियो, चंदर। मैं तो आज दिन भर बहुत परेशान रही।”

    “क्यों? वही चौकीदारनी वाला मसला होगा! तुम इस किस्से को दफन नहीं कर सकतीं!” चाय का कप होंठों से लगाकर मैंने खीजते हुए कहा।

    “प्लीज चंदर, इस तरह मत कहो। मैं थोड़े टेंशन में हूँ।”

    “बात क्या है? कुछ बताओ तो।”

    “बात कुछ भी नहीं। वही इनका तो सनातन मसला है। पर मैं सोचती हूँ इन दोनों को किसी साइकेट्रिक को न दिखा दें, जिससे मसला हल हो जाए? लगता है, असली परेशानी ये है कि दोनों के मन में अपनी-अपनी गुत्थियाँ हैं। यों देखा जाए तो समस्या कुछ खास नहीं है।”

    फिर उसने बताया, “आज सुबह चौकीदारनी आई थी। कह रही थी, यह मरदुआ न जीने देता है न मरने। एकदम जान खा ली है भैनजी। एक ही बात मन में आती है कि जहर खा लँू और किस्सा खत्म!” कुछ ठहरकर तरल स्वर में सुनंदा ने कहा, “वह बार-बार एक ही बात दोहराती थी चंदर, कि मैं तो भैनजी, न जिंदों में शामिल हूँ न मरों में। बच्चों की चिंता न होती, तो कभी की रेल के नीचे आकर कट जाती।”

    “समस्या क्या है? क्या कह रही थी?” मैंने अपने रूखेपन को कुछ कम करते हुए कहा।

    “समस्या क्या होती है! समस्या यही है कि बुरी तरह पीटता है इसे। कल आई तो निशान पड़े हुए थे इसके शरीर पर, जैसे लाठियों से धुन दिया गया हो! पूरी पीठ सूजी पड़ी थी। इसने कपड़ा हटाकर दिखाया—ऐसे नीले-नीले निशान, जैसे बंदे ने नहीं, जानवर ने पीटा हो। और टाँगें, बाँहें, गाल सब नीले-पीले हो रहे थे। बता रही थी, जब मारता है तो बिलकुल दरिंदा बन जाता है। और बस किस्सा एक ही। ये उसके पास जाने से मना कर देती है तो पैरों के नीचे डाल लेता है और लातों से, घूँसों से, लाठियों से मार-मारकर भुरकस बना देता है। कहता है—मिलिट्री मैन हूँ, सँभलकर रह। किसी दिन बोटी-बोटी काटकर फेंक दूँगा। वरना बता, तू किस-किस के पास जाती है, जो तुझे मेरी बिलकुल चाहत नहीं। जरूर दूसरे आदमियों के पास जाती होगी तू!”

    कहते-कहते खुद सुनंदा बुरी तरह उत्तेजित हो गई थी। कुछ ठहरकर बोली, “मैंने पूछ लिया कि इतना शक किसलिए है, चौकीदारनी, उसके मन में? कहीं कोई बात तो नहीं है तेरी तरफ से? सुनकर वह तो गुस्से में एकदम आग-बबूला हो गई। बोली कि अरे, आप भी उसकी बातों में आ गईं न भैनजी। मैंने बोला तो था न आपको कि आदमी के मन में पाप हो तो उसे सारी दुनिया ही मैली लगती है। खुद रँगरेली करता है इतनी औरतों के साथ, तो सोचता है भला ये कैसे रह सकती है! उसके मन में बस यही बात रहती है कि मैं नहीं रह सकता तो ये भी नहीं रह सकती। जरूर इसके भीतर कोई खोट है। पर भैनजी, मैं कसम खा सकती हूँ और क्या कहूँ! उसको नईं पता, मर्द करे न करे, औरत जात बहुत सबर कर सकती है। मैं तो कहती हूँ, तू ठीक हो जा। अच्छी तरह अपना इलाज करवा, फिर तेरे लिए ही है सब-कुछ...किसी गैर के लिए थोड़े ही है।

    “बहुत मुश्किल से उसे चुप कराया।” सुनंदा बता रही थी, “हो सकता है, वह कुछ कर ही लेती। बोल रही थी, अब तो मैं कुछ कर लूँगी भैनजी, देखना एक दिन...!”

    11

    इसी तरह मारपीट, आपाधापी, लू-लू लू-लू में कुछ महीने और गुजरे। रोज नई-नई सूचनाएँ। खबरें, जिनमें नयापन कुछ नहीं था। पर कैसे कहूँ कि नहीं था। तो फिर क्यों रोज-रोज चाय पीते हुए या फिर अपनी सुबह-शाम की घुमाई के क्षणों में हम ‘डिस्कस’ किया करते थे!

    अचानक एक दिन सुबह-सुबह चौकीदारनी आई, तो उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। किसी एक नई करुण-कथा का ताना-बाना उसके चेहरे की आड़ी-तिरछी रेखाओं में फैला था। आते ही उसने किसी बड़ी दुर्घटना के समाचार की तरह बताया कि चौकीदार चला गया।

    “हैंऽ चला गया?...क्यों, कहाँ?” एक साथ मेरे होंठों से निकला।

    “पता नहीं भैनजी, बताकर तो गया नहीं।” चौकीदारनी ने बहुत टूटी सी, मरी-मरी आवाज में बताया, “बोल रहा था, मैं जा रहा हूँ और कभी नहीं आऊँगा। मैं मरूँ कि जिऊँ, पर तेरे पास लौटकर नहीं आऊँगा।”

    कहते-कहते चौकीदारनी का चेहरा फक पड़ गया और वह जैसे एक मूक विलाप सा करने लगी।

    “लेकिन...बात क्या हुई थी?” सुनंदा ने पूछा।

    थोड़ी देर के लिए एक अजब सा असमंजस का भाव चौकीदारनी के चेहरे पर नजर आया। उससे उबरने के लिए उसे शायद काफी कोशिश करनी पड़ी थी। बोली, “बात क्या है! वही किस्सा है। कई रोज से रात किसी औरत को लेकर आता था। मैंने तंग आकर कल टोका, तो लाठी लेकर पिल पड़ा मुझ पे। सारी पीठ पर, टाँगों पर आप देखो भैनजी, कैसे नील पड़ गए हैं।...

    “अब भैनजी, मैं भी कहाँ तक सहूँ! मैंने कहा—ठीक है, मैं जाती हूँ थाने में रिपोर्ट करने। इस पर बोला—तू मेरी औरत नहीं है, दुसमन है, दुसमन। मैं तेरे साथ नहीं रह सकता, जा रहा हूँ। मैं कुछ कहती, इसके पहले ही अपना झोला उठाया और चल पड़ा। जाते-जाते बोला—अब कभी नहीं आऊँगा तेरे पास। मेरे लिए तो तू मर गई!” कहते-कहते चौकीदारनी उदास हो गई।

    “कहाँ गया होगा, आगरा?” सुनंदा ने पूछा।

    “हाँ भैनजी, वहीं और कहाँ जाएगा?” चौकीदारनी का मुँह उतर गया था। एक कराह सी भरकर बोली, “कुछ भी कह लो भैनजी, बहुत दर्द दिए उसने, बहुत मारा भी। पर अच्छा-बुरा चाहे जैसा था, था तो अपना मरद ही। मरद कुछ न करे, पर उसका सहारा ही बहुत है। पर अपने तो नसीब ही खोटे हैं भैनजी!”

    “तू चिंता न कर, देखना खुद आएगा महीने-पंद्रह दिन में तेरे पास।” सुनंदा ने जैसे दिलासा दिया, “अकेला रहेगा तो पता चल जाएगा आटे-दाल का भाव। कौन मिलेगा उसे तेरे जैसी सेवा करने वाला?” फिर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली, “तू अपने बच्चे पाल चौकीदारनी। तू मेहनत कर सकती है, फिर किसी चीज की कमी है तुझे?”

    इस बीच चौकीदारनी का हमारे घर आना बढ़ गया। कई बार घर के छोटे-मोटे काम, झाड़ू-पोंछा वगैरह कर देती। कभी अलमारियों की सफाई करती या अलमारी में रखे कपड़े तरतीब से लगा देती। कभी पंखे साफ कर देती। सुनंदा बदले में पचीस-पचास रुपए दे देती, बच्चों और खुद चौकीदारनी का खाना-कपड़े तो देती ही। हमारी देखा-देखी कुछ और घरों में चौकीदारनी को झाड़ू-पोंछे का काम मिल गया। उसकी ठीक-ठाक कमाई होने लगी। अब उसने बेलदारी का काम छोड़ दिया। चार-पाँच घरों की साफ-सफाई में ही उसे काफी कुछ मिल जाता।

    धीरे-धीरे हमारे जैसे कई घर हो गए, जिनसे उसे खाना-कपड़ा मिलता और हमदर्दी भी। लिहाजा उसका काम चल जाता। खुद खाना पकाने की भी जरूरत न पड़ती। रात में चौकीदारी के डेढ़ हजार रुपए अलग से मिलते। चौकीदारनी का जीवन फिर से अपने रंग में चलने लगा। चौकीदार की बात चलने पर वह फिर से दुखी हो जाती। बात करते-करते उसकी आँखें भर आतीं, “अब वह नहीं आएगा। शायद आगरा ही चला गया है बाबूजी। वहाँ इसके भाइयों ने जरूर कान भरे होंगे। आप जानते नहीं हो, इनके घर का हाल। पाँच भाई हैं। एक इसे छोड़कर किसी की भी शादी नहीं हुई, न कोई पढ़ा-लिखा है। एक बेलदारी करता है, एक कुली है, दो बीमार-सिमार से हैं, घर में ही पड़े रहते हैं। बस, आपस में ही लड़ना, गाली-गलौज। यही एक था जो घर में ठीक-ठाक था। अब देख लो इसका भी हाल। इसके सब भाई तो बड़े खुस होंगे। सोचते होंगे कि हमारा घर नहीं बसा, तो इसका ही क्यों बसे?”

    हमें बड़ी हैरानी होती। जो आदमी इसे इतनी बुरी तरह पीटकर, लताड़कर गया है और जिसकी हरकतें बताते हुए ये नफरत से भर जाती थी, उसी के जाने पर ऐसी किल-किल, ऐसा रोना-धोना!

    “लेकिन क्या किया जाए? आदमी का चरित्र बड़ा जटिल है, खासकर एक हिंदुस्तानी औरत!” मैंने सुनंदा को थोड़ा छेड़ते हुए कहा, “तुमने तो सुना ही होगा वो किस्सा, न जाने किस पुराण या महाग्रंथ में है कि एक सती औरत थी। आदमी उसका लूला-लँगड़ा, कोढ़ी था। वेश्यागमन की उसे इच्छा थी। लिहाजा उसकी सती स्त्री उसे सिर पर उठाकर वेश्या के यहाँ ले जाती है। ऐसा महान आदर्श! यह तो सतियों को देश है सुनंदे!...हला!”

    “हाँ आर्यपुत्र!” जवाब में सुनंदा भी उसी सुर में सुर मिलाती और हम दोनों हँस पड़ते।

    12

    इस बीच चौकीदारनी के बारे में तमाम तरह की नई-पुरानी सूचनाएँ मिलती रही हैं। बल्कि सच कहूँ तो सुनंदा के मन में अब उसके प्रति एक तरह की विरक्ति का भाव पैदा होने लगा है।

    “अरे, यह तो ऐसी ही है, कामचोर कहीं की!” एक दिन सुनंदा ने बताया, “पड़ोस में जिन दो-तीन घरों में उसे काम मिला था, उन्होंने जवाब दे दिया। यह सोचती है, काम तो करना न पड़े, पर इसे और इसके बच्चों को टॉफी-बिस्कुट, खाना, चाय सभी कुछ मिलता रहे। घर में खाने की कोई चीज पड़ी देखेगी तो कहेगी कि ये केले या अमरूद बच्चों को खिला दूँ भैनजी, बहुत भूखे हैं! दो-चार रोज तो चल सकता है, लेकिन रोज-रोज कौन खिलाएगा इसे? और काम भी ऐसे ढीले हाथों से करती है, जैसे टाल रही हो। घंटे भर का काम हो, तो आधा दिन लगा देगी। इतनी देर में इसके बच्चों की खाने-पीने की फरमाइशें पूरी करते रहो। इसीलिए मिसेज भाटिया और मिसेज गुप्ता ने तो जवाब दे दिया।”

    फिर एक दिन सुनंदा ने मेरे कानों में फुसफुसाते हुए सूचना दी, “तुम्हें पता है, चौकीदारनी ने सोने की नई बालियाँ बनवा ली हैं!”

    “हैंऽ...!” मैंने हैरानी से कहा, “इतना पैसा है इसके पास?”

    “हाँ, और क्या! बता रही थी कि जो पैसे हम लोगों से मिलते थे, वो सारे के सारे जोड़ती जाती थी। बाकी कोई खाने-पहनने का खर्च तो है नहीं। जानती है कि रोऊँगी-धोऊँगी तो इतने सारे घर हैं, कोई न कोई कर ही देगा। फिर पड़ोस वाली कपूरनी है। वह तो ढेर-ढेर सा देती है खाने-पहनने को। कुछ-कुछ परेशान भी होती है, पर देती है। बता रही थी कि उसके बच्चों को तो ऐसी आदत पड़ गई है कि घर में घुसेंगे बाद में, पहले चिल्लाना शुरू कर देंगे कि मम्मी, ये ले दो, वो ले दो! बस, अब तो इसका रोज का नियम बन गया है। उनके घर आराम से रोजाना उन्हीं के बाथरूम में नहाती-धोती है। बच्चों को नहलाती है, कपड़े धोती है। बच्चों को खाना खिलाती है, खुद खाती है और फिर थोड़ा-बहुत काम इधर-उधर सरका के निकल जाती है। कम मत समझो, बहुत चालाक औरत है।”

    “क्या आई थी बालियाँ दिखाने के लिए?” मैं ही उत्सुकतावश पूछता हूँ।

    “हाँ, कह रही थी कि भैनजी, और चीजें तो आनी-जानी हैं। कोई गहना-गुरिया बन जाए, तो पक्की चीज हो जाती है हमेशा के लिए।”

    सुनंदा कुढ़कर बोली, “असल में इधर-उधर से माँगकर खाने की आदत पड़ गई है इसे। मैंने कितनी बार समझाया कि पैसे मिलते ही तू इकट्ठा आटा और बाकी राशन ले लिया कर। तुझे क्या जरूरत है किसी के आगे हाथ फैलाने की? पर इसे लगता है, यह तो फिजूल की बात है। ‘हींग लगे न फिटकरी’ वाला मामला ही ज्यादा अच्छा है।...”

    फिर कुछ रोज बाद सुनाई पड़ा, “चौकीदार के जाने के बाद तो यह ज्यादा ही मस्ता गई है...!”

    शुरू-शुरू में मुझे बिलकुल यकीन नहीं हुआ कि क्या यह सुनंदा ही है जो यह सब कह रही है? पर फिर लगा कि सुनंदा जो कह रही है, उसके पीछे उसके जीवनानुभवों का कोई न कोई गहरा निष्कर्ष जरूर है।

    मुझे मौन देखकर सुनंदा ने खुद ही बात बढ़ाई, “आज देखा था चौकीदारनी को सज-धजकर, खूब अच्छी तरह बिंदी-पाउडर लगाकर जा रही थी रिक्शे पर। रिक्शे वाले से ऐसे हँस-हँसकर बात कर रही थी कि जैसे उसका खसम हो।”

    मेरा कहने का मन हुआ, ‘आ गईं न तुम भी चौकीदार की बातों में?’ पर कुछ सोचकर चुप रहा। लगा, सुनंदा जो कह रही है, पहले उसे सुनना चाहिए।

    सुनंदा ने आगे उसी रौ में बहते हुए बताया, “वह जो गली के नुक्कड़ वाला दुकानदार धमीजा है न, कह रहा था—इसका तो यही चक्कर है आंटी! कभी इस रिक्शे वाले के साथ, कभी उस रिक्शे वाले के साथ। खुला खेल है। जो चाहे पैसे देकर अपने साथ ले जाए! बोल रहा था, इनका क्या है, इनका कोई कैरेक्टर है!...”

    “जब वह रिक्शे पर बैठकर जा रही थी, तो तुमसे बात नहीं हुई?” मैंने पूछा।

    “हुई क्यों नहीं?” सुनंदा भड़ककर बोली, “कह रही थी, डॉक्टर के पास जा रही हूँ भैनजी।...पर पूछो इससे, डॉक्टर के पास कोई ऐसे सज-धजकर जाता है?”

    “तो बच्चों को किसके सहारे छोड़ जाती है?”

    “बच्चों को तो साथ ही ले जाती है? मैंने देखा, बच्चे भी साथ ही थे रिक्शे पर ताकि किसी को शक न हो।”

    “पर ऐसा रोज-रोज कैसे चल सकता है? आखिर मकान की चौकीदारी के लिए इसका यहाँ रहना भी तो जरूरी है। मकान मालिक क्या नाराज न होगा?”

    “दिन में क्या जरूरत है?...दिन में तो वैसे भी काम होता ही रहता है। सो रात होने से पहले लौट आती होगी। दो-तीन घंटे के लिए कुठरिया में ताला मारा और निकल गई। क्या फर्क पड़ता है! कभी मालिक आया और पूछताछ की तो बता देगी कि मैं तो जी, यहीं कहीं पड़ोस में थी।”

    सच कहूँ तो सुनंदा की बातें सुन-सुनकर थोड़ा-बहुत तो मुझ पर भी असर होने लगा था। हठात मेरे मुँह से निकला, “देखो, मैं कहता था न, यह तुम्हारी गंगा भी मैली है सुनंदा!”

    इस पर सुनंदा ने जैसे अफसोस जताया, “हाँ, मैं तो इसे भोली ही जानती थी। अंदर क्या छिपा था, मैं क्या जानूँ? यह तो बिलकुल ही चालू चीज निकली। हो सकता है, बेचारा चौकीदार इसीलिए परेशान रहता हो!”

    “देखो, तुम मुझे कह रही थी! पर अब तो तुम पर चौकीदार की बातों का कहीं ज्यादा असर होने लगा?” मैंने तंज के साथ सुनंदा से कहा।

    “वह जरूर जानता होगा इसकी असलियत, इसीलिए अस्पताल में टिकता नहीं था। परेशान होकर वहाँ से घर भागता था कि पता नहीं यह किन-किन के साथ...!” एक गहरी जुगुप्सा का भाव सुनंदा के चेहरे पर नजर आया।

    “और देखो चंदर, मुझे तो यह भी नाटक ही लगता है।” सुनंदा कह रही थी, “कि पति को टी.बी. है, बीमारी है, इसलिए उसके साथ सोऊँ कैसे? असल में तो जो इतनों के साथ सोती है, उसे पति की जरूरत ही क्या है! बेचारा ठीक ही कलपता था चौकीदार!”

    “अरे, तुम तो बिलकुल ही दूसरे धुर तक पहँुच गईं!” मुझे सुनंदा को टोकना पड़ा।

    इस पर वह बोली, “पता नहीं चंदर, क्या हो गया है मुझे? सारी उलटी बातें ही सूझ रही हैं। पता नहीं क्यों...?” सुनंदा ने मुझसे नहीं, जैसे अपने आपसे ही पूछा हो। फिर अचानक उसके चेहरे पर हलकी स्मिति नजर आई। बोली, “तुम्हें एक मजेदार किस्सा तो बताया ही नहीं मैंने?”

    “किस्सा...कौन सा?” मैंने चौंककर पूछा।

    सुनंदा हँसी। बोली, “जिन दिनों चौकीदार यहाँ था, तब का किस्सा है। एक दिन चौकीदारनी दौड़ी-दौड़ी आई और पूछने लगी कि भैनजी, ‘एडैस’ क्या बला है? मैंने कहा, एडैस तो कुछ नहीं होता। तू बता तो सही, चक्कर क्या है! इस पर बोली, भैनजी, आज रात चौकीदार ने मुझे दो-तीन बार हाथ पकड़कर पास खींचा। मैंने कहा कि नहीं, तुझे टी.बी. है। इस पर एकदम गुस्से में बिफरता हुआ बोला कि मुझे तो टी.बी. है, पर तुझे तो एडैस है, एडैस!”

    “ओह, एड्स...!” मैंने कहा, “एड्स के बारे में कह रहा था क्या?”

    “हाँ, और क्या! मुझे भी बड़ी देर में यह बात समझ में आई। और मैं इतनी जोर से हँसी कि क्या कहूँ।” और सचमुच सुनंदा की खिलखिलाहट चालू हुई तो फिर वह देर तक बंद होने में ही नहीं आई।

    फिर मेरे कान के पास होंठ लाकर उसने फुसफुसाकर कहा, “तुम्हें पता है, इसने रुपए जमा कर रखे हैं कपूरनी के पास? पूरे पाँच हजार! कहती है, आपके पास सँभले रहेंगे। जब जाऊँगी तो साथ ले जाऊँगी।”

    13

    इस बीच फिर एक दिन एक ‘बेपर की खबर’ की तरह चौकीदार आ धमका।

    खुद चौकीदारनी आकर यह बता गई। वह खूब खुश-खुश, लेकिन कुछ घबराई हुई भी थी।

    बहरहाल, चौकीदारनी का जीवन-क्रम फिर से बदल गया। उसमें एक लंबी आत्मनिर्भरता के चलते, पहले की बनिस्पत आत्मविश्वास आ गया था। लिहाजा चौकीदार कुछ रोज तो दबा-दबा सा रहा। जैसे चौकीदारनी के आभा-मंडल को भेद न पा रहा हो। लेकिन फिर उसने शायद पहले की ही तरह मार-पीटकर मर्दानगी दिखानी शुरू कर दी और फिर पहले वाली तर्ज पर ही झगड़े-झंझट शुरू हुए।

    इस बीच चौकीदारनी का हमारी पड़ोसन कपूरनी के घर कुछ अधिक आना-जाना हो गया था। कपूरनी कोई न कोई छोटा-मोटा काम रोजाना उसके लिए निकालकर रखती और चौकीदारनी, जैसी कि उसकी आदत थी, देर तक लमका-लमकाकर उसे पूरा करती। पैसा उन लोगों के पास ज्यादा था, इसलिए पैसे से वे लोग मदद भी ज्यादा कर देते थे।

    फिर इसमें एक नई कड़ी और जुड़ी। मिस्टर कपूर के यहाँ महीने में दो-तीन बार मीट बनता था, तो वे चौकीदारनी के हाथ चौकीदार के लिए जरूर देते। अपनी शराब पार्टियों में भी वे चौकीदार को कभी-कभी शामिल कर लेते। लिहाजा मिस्टर कपूर और कपूरनी का उनके यहाँ दखल कुछ ज्यादा बढ़ गया था। चौकीदारनी भी अकसर वहाँ घंटों बैठी नजर आती। वहीं से ज्यादातर दाल-सब्जी, अचार ले जाती।

    इस बीच चौकीदारनी को फिर चौकीदार ने एक बार लाठी से पीटा। वह भागकर कपूरनी के घर आ गई। रात उन्हीं के घर छत की मियानी में सोई। सुबह-सुबह मि. कपूर ने नौकर को भेजकर चौकीदार को बुलवाया, ताकि उसकी हेकड़ी दूर कर दी जाए।

    लेकिन हुआ उलटा। चौकीदार आया और आते ही, जो भी उसके मन में आया, वाही-तबाही बकने लगा। इस पर मि. कपूर ने तैश में आकर गला पकड़ा और एक झन्नाटेदार झापड़ दिया।...मगर चौकीदार पर इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। वह गुस्से में बड़बड़ाता हुआ उनके घर से बाहर निकला और सड़क पर खड़ा होकर चिल्लाने लगा, “हाँ-हाँ, मार लो मुझे, लेकिन मारकर मेरी जबान थोड़ी काट लोगे! मैं हजार बार कहूँगा, तुम बदमाश हो, लुच्चे हो, पैसे वाले हो, तो क्या! मैं देख लूँगा, छोड़ूँगा नहीं। मेरी बीवी को तुमने फाँस रखा है। उसके साथ क्या-क्या होता है, मुझे पता नहीं है क्या? इतना काम वह तुम्हारा करती है और बदले में तुमने दिया ही क्या है! महीने में पचास-सौ रुपए रख देते हो उसकी हथेली पर।...मैं हिसाब लूँगा, पूरा हिसाब! देख लूँगा मैं तुम्हें!”

    कोई आधे घंटे तक चौकीदार इसी तरह चीखता-चिल्लाता, गुस्से में नाचता रहा! कपूरनी खींचकर मि. कपूर को अंदर ले गई। मि. कपूर बार-बार गुस्से में भड़ककर खड़े हो जाते और बाहर दौड़ने लगते। लेकिन कपूरनी उन्हें बार-बार अपने प्राणों का वास्ता देकर अंदर ले आती। मि. कपूर बड़बड़ा रहे थे, “मैं इस चौकीदार का कत्ल कर दूँगा। इसने मेरी इज्जत पर हमला किया है!” पर कपूरनी उन्हें रोक लेती... अजीब दृश्य था।

    सुनंदा ने मुझे यह खबर दी तो मन न जाने कैसा-कैसा सा हो गया। समझ में नहीं आया, भलाई का यह कैसा अंजाम? आखिर कपूर लोगों ने तो इनका हर तरह से भला ही किया था न।

    14

    यह सब सुनकर मन इस कदर खराब हो गया कि जब भी सुनंदा गंगा चौकीदारनी की कोई बात चलाती, तो मैं टोक देता, “रहने दो, मन खराब मत करो। दोनों में से कोई भी सही नहीं है। और यह चौकीदारनी? यह भी मिली हुई है अंदरले खाते चौकीदार से। बाहर झगड़े का नाटक चलता है दूसरों को ठगने के लिए!...”

    सुनंदा ने चुपके से एक दिन फिर एक रहस्य खोला, “तुम्हें पता है एक बात? हमारे घर जब पेंट और पुताई का काम हो रहा था, तो मैंने इसे सफाई के लिए कहा था। इसने सफाई-वफाई तो क्या करनी थी, उलटे दो जवान मजदूरों से ऐसी फँस गई थी और ऐसे हँस-हँसकर उनसे मजाक कर रही थी कि सारे राज-मजदूर सकते में थे। बार-बार उसे बाथरूम में लेकर जाए और कहे कि मुझे जरा घिसाई के लिए रेगमार चाहिए, पत्ती चाहिए और न जाने क्या-क्या! माँग कुछ रही है, आँखें कुछ और कह रही हैं। अब तुम्हीं बताओ, यह आमंत्रण देना हुआ या कुछ और?”

    सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा और मन की कुछ ऐसी हालत हुई, जैसे सामने तराजू के दो पलड़े हों और वे लगातार किसी अंधड़ में नीचे-ऊपर हो रहे हों।

    मैंने सुनंदा को समझाते हुए कहा, “देखो अब तुम इस पचड़े में मत पड़ो। यह खामखा अपनी फजीहत करवाना ही है। पता नहीं इनमें कौन सही है, कौन नहीं और इनके अंदर-बाहर क्या है? हम कौन होते हैं फै सला करने वाले?”

    लेकिन यह तटस्थता ज्यादा दिन नहीं चली। इसलिए कि एक दिन हमें ही नहीं, हमारे अड़ोस-पड़ोस सभी को चौंकाती हुई यह खबर आई कि चौकीदारनी चली गई अपने बच्चों को लेकर।

    सुनंदा ने जब मुझे यह बताया, तो वह बहुत घबराई हुई थी। ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे।

    “अरे! कैसे पता चला तुम्हें?” मैंने संजीदगी से कहा।

    “फोन आया था कपूरनी के घर, पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन से!” सुनंदा जैसे रोने-रोने को हो रही थी। बोली, “अभी कपूरनी ही आके बता गई है। तब से मेरी तो अजीब हालत है।...कपूरनी ने बताया कि चौकीदारनी बहुत परेशान थी। बोल रही थी कि चौकीदार ने फिर से पीटा था, इसलिए अब वह घर नहीं आएगी। उसने कपूरनी से कहा है कि चौकीदार कभी घर आए और पूछे तो उसे न बताया जाए कि वह कहाँ है...”

    “तो क्या कह रही थी वह, कहाँ रहेगी? क्या अब कभी घर नहीं आएगी?”

    “पता नहीं!” सुनंदा ने भरी हुई आँखों से कहा, “अभी परसों ही आई थी। बता रही थी कि रेल के नीचे कटकर रहेगी। मुझे तो डर लगता है, कहीं कुछ कर न ले।” कुछ रु ककर करुण स्वर में बोली, “हो सकता है, कल अखबार आए, तो उसमें खबर छपी हो कि एक लावारिस और दो छोटी-छोटी बच्चियों समेत...!” और किसी अज्ञात आशंका से सुनंदा की आँखें भर आईं।

    सुनकर सीरियस तो मैं भी हुआ, पर जाने क्यों मेरे मुँह से निकल गया, “देखना, कुछ नहीं होगा। दो दिन में ही वापस आ जाएगी।”

    “आ जाए तो अच्छा है, वैसे मुझे तो नहीं लगता।” सुनंदा ने फिर से आशंका प्रकट की और उसका चेहरा उदासी में डूब गया।

    हैरानी की बात है, रात को हम ये बातें कर रहे थे कि अगली सुबह खबर मिली, चौकीदारनी वापस आ गई है।

    मैंने हँसकर सुनंदा से कहा, “अब तो मानोगी न कि तुम्हारी तुलना में मेरी कैरेक्टर रीडिंग—कम से कम चौकीदारनी के बारे में, कहीं ज्यादा सही है।”

    “खैर, तुम्हें पता कैसे चला?” कुछ देर बाद मैंने सुनंदा से पूछा।

    “पता कैसे चलता! कपूरनी ही बता रही थी।” सुनंदा बोली, “सुबह ही शायद वह उनके घर पहुँच गई थी। अपने घर जाने की शायद उसकी हिम्मत नहीं हो रही होगी। सोचती थी, मामला नॉर्मल हो तो...”

    “पर इसे पता कैसे चला कि मामला नॉर्मल...!”

    “पता चलेगा कैसे नहीं? आखिर चौकीदारनी को क्या तुमने कोई मामूली औरत समझ रखा है! हजार तरीके आते हैं इसे जताने के।”

    “ठीक...मेरी ही बात कह रही हो न!” मैं हँसा।

    उसके बाद फिर सब कुछ ठीक-ठाक चलने लगा और जैसी कि हमें उम्मीद थी, कोई पाँच-सात महीने उनके रुटीन शिकवे-शिकायतों और झगड़ों के साथ ठीक-ठाक गुजर गए।...ठीक-ठाक माने, कोई बड़ी घटना या दुर्घटना इस बीच नहीं हुई। बल्कि इसके उलट, चौकीदार ने चौकीदारनी को चाँदी की पाजेबें बनवाकर दीं, जिन्हें वह पूरे मोहल्ले में गर्व से खनकाती और दिखाती घूमती रही।...

    15

    फिर एक दिन पता चला कि चौकीदार चला गया।

    सुनंदा से यह खबर सुनकर मैंने कहा, “देख लेना सुनंदा, यह भी लौट आएगा हफ्ते-दस दिन में। इनके चक्करों में फिजूल दिमाग खराब करना छोड़ो।”

    “नहीं, ऐसा नहीं! इस बार तो वह बड़ी बेटी उषा को साथ लेकर गया है आगरा और हमेशा के लिए फै सला करके गया है!” सुनंदा चिंतित थी। कुछ रु ककर बोली, “चौकीदारनी बहुत परेशान है। आज सवेरे आई तो बहुत रो रही थी। कह रही थी, खुद गया तो कोई बात नहीं, बेटी को क्यों साथ ले गया? बेटी के बगैर मैं एक दिन नहीं रह सकती।...”

    मुझे चुप देखकर सुनंदा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा, “इस बार मामला सीरियस लगता है, चंदर! चौकीदारनी कह रही थी, उस घर में कोई औरत तो है नहीं। बस, यही मेरी फूल सी बेटी ऊसा है, नौ-दस साल की। दिन भर इसे काम में जोते रखेगा, मारेगा-पीटेगा। और क्या पता बड़ी होने पर इससे पेशा भी कराए। इसका क्या ठिकाना! बाप थोड़े ई है, बिलकुल राच्छस है, राच्छस!”

    कुछ दिन इसी तरह चले। चौकीदारनी रात-दिन कलपती-बड़बड़ाती रहती, “बेटी ऊसा...हाय, मेरी ऊसा!” कहती, “उसे क्या हक था मेरी बेटी को साथ ले जाने का? वैसे भी बच्चों को इसने कब अपना समझा है। खुद बैठा-बैठा फल-दूध, पनीर कुछ भी चबड़-चबड़ खाता रहता है। मजाल है जो बच्चों को एक टुकड़ा भी दे दे। बेचारे दूर बैठे तरसते रहते हैं।...और घर के काम के लिए नौकरानी की जरूरत हुई, तो कैसे हाथ पकड़कर ठम-ठम करता ले गया कि मेरी बेटी है। मैं साथ ले जा रहा हूँ, तुझे क्या!”

    सुनंदा ने समझाया भी कि “अरे नहीं, बाप है वह। ऐसा क्यों सोचती है? उसके दिल में क्या बिलकुल दया-ममता न होगी!”

    इस पर बोली, “काहे का बाप, भैनजी। खाली नाम के लिए? दिन भर बोलता-बकता रहता है, ये मेरे बगो नहीं हैं, जाने किस-किसका पाप ले आई है। तो फिर वो भला उन्हें कैसे अपना समझ सकता है? हो सकता है, लड़की बड़ी हो जाए तो खुद ही इसके साथ...!”

    “बस...बस रहने दो!” सुनंदा ने टोका, “तुम भी चौकीदारनी...”

    “मैं सच्ची कहती हूँ भैनजी। यह ऐसा आदमी है जिसमें इनसानियत एक बूँद नहीं है, एक बूँद!” चौकीदारनी बिलख उठी।

    फिर तीसरे-चौथे रोज सुनंदा ने ही बताया कि चौकीदारनी आगरा गई है।

    “आगरा?” मैं चौंका।

    “हाँ-हाँ! पीछे बहुत परेशान थी कि बेटी की बहुत याद आ रही है। तो आज सुबह ही रेलगाड़ी से गई है।”

    “तो वहाँ चौकीदार क्या कुछ न कहेगा? फिर कोई झगड़ा-झंझट होगा...”

    “पता नहीं...!” सुनंदा ने जैसे बुदबुदाते हुए कहा, “जो भी हो, औरत हिम्मत वाली है।”

    और तीसरे दिन चौकीदारनी आगरा से वापस आ गई।

    “सब ठीक-ठाक तो है! कोई झंझट तो नहीं हुआ चौकीदार से?” चौकीदारनी के आने की खबर मुझे सुनंदा ने दी, तो मैंने यों ही पूछ लिया।

    “नहीं।” सुनंदा ने बताया, “वह चौकीदार से मिली ही कहाँ! बता रही थी कि चौकीदार की एक बुआ रहती है उसके घर के पास। वहीं उसने लड़की को किसी बहाने बुलाया, उसे टॉफी दी, मिठाई खिलाई, खूब प्यार किया...और फिर चली आई।”

    कुछ रु ककर सुनंदा ने कहा, “बता रही थी चौकीदारनी कि लड़की की हालत बहुत खराब है। एकदम सहम सी गई है। बता रही थी कि पापा दिन भर घँूसे-थप्पड़ मारता है और काम में लगाए रखता है। न ठीक से खाना न पीना, बस सारे दिन काम ही काम, ऊपर से डाँट-फटकार। लड़की के दिमाग पर कुछ असर हो गया है।”

    इसके बाद कुछ रोज ऐसे कष्ट भरे गुजरे कि घड़ी-घड़ी चौकीदारनी का अपनी बेटी के लिए तड़पना हमारी नींद तक में प्रवेश कर गया और हमें अजीब-अजीब-से सपने आने लगे। सुनंदा मुझसे और मैं सुनंदा से कहता, “तुम अब मन से उतारो यह प्रकरण!” पर जाने क्या बात थी, कहना जितना आसान था, कर पाना उतना ही मुश्किल। चौकीदारनी की जीवन-कथा न जाने कब, कैसे हमारी अंतश्चेतना का एक जरूरी हिस्सा बन गई थी।

    फिर जैसा कि होना ही था, कोई महीने-डेढ़ महीने बाद बेटी को साथ लेकर चौकीदार फिर से नमूदार हुआ।

    इस सारे प्रकरण से मन इतना खराब हो चुका था कि सुनंदा ने जब यह खबर दी, मैंने कुछ-कुछ डपटते हुए कहा, “अब बंद भी करो सुनंदा। मेरा तो माथा खराब हो गया। क्या यह रोज-रोज ‘चौकीदारनी...चौकीदारनी’ लगा रखा है! क्या कोई और टॉपिक ही नहीं रह गया हमारी बातचीत के लिए?”

    सुनंदा एक क्षण के लिए जैसे सन्न रह गई। कुछ बुझी हुई सी आवाज में बोली, “ठीक है, अब आगे से कोई बात नहीं करूँगी।”

    असल में जो ज्यादा बड़ी मुश्किल थी, वह यह कि चौकीदार और चौकीदारनी का जो किस्सा था, वह अब हमारी मध्यवर्गीय नैतिकता के फ्रेम को उलाँघकर बेशर्मी से बाहर आ गया था। और हमें बुरी तरह जीभ दिखाते हुए, खिजा रहा था। यह ऐसी हालत थी कि हम न चाहते हुए भी चिढ़ते थे और कभी-कभी तो बेवजह आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगते थे।

    और इससे भी बुरी बात यह थी चौकीदार हो या चौकीदारनी, दोनों में से अब कोई भी हमें पाक साफ और निर्मल नहीं लगता था। लगता था, दोनों ही चालाक बन रहे हैं। दोनों में ही कुछ न कुछ खोट है। बस, अपनी-अपनी सुनाते हैं और सामने वाले की सहानुभूति बटोरने के लिए ‘नाटक’ करते हैं! “यह भी एक तरह का इमोशनल ब्लैकमेल है सुनंदा।” मैंने कहा, पर सुनंदा हमेशा की तरह आधी सहमत, आधी असहमत थी। लिहाजा बात यहीं खत्म हो गई।

    कहीं न कहीं अंदरखाते मेरा भी मन यह होने लगा कि अब यह किस्सा खत्म हो, हमेशा के लिए खत्म हो। इसलिए जब दोनों के जाने की बात सुनी तो शुरुआती ‘धक्’ के बाद मन को एक तरह से चैन ही पड़ा, ‘चलो, अब इस पुराने उबाऊ और पेंचदार किस्से से राहत मिलेगी, जो किसी पुराने दमे की तरह हमारे प्राण लेने पर उतारू है। आखिर कब तक सुनते रहें हम इनकी रोज-रोज की तू-तू, मैं-मैं और खामखा दो लड़ने वाली पतंगों के पेंच सुलझाते रहें।...किसलिए?’

    16

    पर अभी हफ्ते-पंद्रह दिन पहले आगरा से चौकीदारनी का फोन आया। उसने फोन पर रो-रोकर अपनी विपदा सुनाई और फिर हमारा मन कातर हो आया।

    फोन पर पूरी बात तो क्या होती, लेकिन जो कुछ उसने थोड़े दबे-ढके शब्दों में बताया, उसके मुताबिक चौकीदार क्रूरता और जंगलीपन की सारी हदें पार कर गया है। बिलकुल यमदूत की तरह हर रोज पीटता है।...घर में ही सब भाई मिलकर देसी शराब की बोतलें खोल लेते हैं और यह हवा में बोतल लहराकर कहता है, हम पाँच भाइयों में केवल मेरी शादी हुई है तो हिस्सा मेरा नहीं, सभी का है। सभी एक ही बोतल में से बारी-बारी से पिएँगे! मैंने ‘न’ किया तो फिर सबने मिलकर इतना पीटा, इतना कि पड़ोसियों तक ने मेरी चीखें सुनी होंगी। आसपास के लोग दौड़कर आ गए, वरना तो ये दरिंदे मार ही डालते।

    सुनंदा ने पूछा, “क्या डॉक्टर को दिखाया, पट्टी वगैरह करवाई?”

    चौकीदारनी बोली, “कहाँ-कहाँ बँधवाऊँगी पट्टी...पूरे सरीर में तो जखम हैं।”

    सुनंदा ने करुणार्द्र होकर कहा, “तू बच्चों को लेकर यहीं आ जा। यहीं इलाज हो जाएगा।”

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    तीसरे रोज चौकीदारनी अपने शरीर के अनंत जख्मों, टूटे मन और दोनों बेटियों को लेकर हमारे यहाँ आ गई। सुनंदा जब उसे हमारी परिचित डॉक्टर मिसेज शर्मा के पास ले गई तो वह भौचक्की सी देखती रह गई, “अरे, मुझे तो हैरानी है, इतनी मार खाकर यह बच कैसे गई?...बड़ी खाँटी औरत है।”

    बहरहाल सुनंदा और मिसेज कपूरनी ने मिलकर अगल-बगल में ढूँढा, तो चौकीदारनी को एक नए बन रहे मकान में फिर से चौकीदारी का काम मिल गया।

    कम से कम ऊपर से देखने पर चौकीदारनी का जीवन अब फिर से ‘सम’ पर आ गया है। सुनंदा की जिद पर उसने बड़ी बेटी उषा को पास के एक स्कूल में नर्सरी में दाखिला दिलवा दिया।

    और मेरे लिए इस पूरे प्रकरण में अब राहत की बात सिर्फ इतनी है कि सुनंदा, अब चौकीदारनी की कम, ऊषा की ज्यादा बात करती है कि वह अब धीमे-धीमे अपने सहमेपन से उबर रही है...कि वह पढ़ाई में तेज है और उसमें खासा आत्मविश्वास भी आ गया है!

    यह एक उदास ‘कथा’ में से एक नई उम्मीद भरी कथा का सिरा निकलने की तरह है। और मुझे यह सोचकर रोमांच सा होता है कि चौकीदारनी ने अपनी बेटी का नाम ‘उषा’ कितना मानीखेज रखा है।

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    संस्कृति

    प्रकाश मनु

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    छुट्टी का दिन। गरमियाँ...और तंग कमरे की भभक। ‘घर से दूर इस कंकरीट के शहर में छुट्टी का दिन काटना किसी जेलखाने से कम तो नहीं। पर नौकरी जो न कराए सो कम। साली जिंदगी भी क्या चीज है...!’ बुदबुदाए सत्येन बाबू।

    अलबत्ता किसी तरह अँधेरी सुरंग टाइप इस कमरे में गरमियों की दोपहर काटने के बाद, उन्हें शाम के वक्त कहीं बाहर घूमने की इच्छा हुई। ताकि थोड़ा थोड़ा बाहर की जिंदगी भी देख लें।

    लेकिन इस अपरिचित शहर में वे जाएँ तो जाएँ कहाँ? यहाँ तो बस मकानों पर मकान हैं। दफ्तर हैं, बसों की कान फोड़ने वाली आवाजें और धुआँ है। आसपास कोई पार्क भी नजर नहीं आ रहा। फिर भी सड़क पर जिधर भी उनका मन आता, मस्ती में टहल रहे थे। एक सड़क से दूसरी सड़क। दूसरी से तीसरी। तीसरी से चौथी। बेमतलब। बेमजा।

    “वाह जी वाह, एक फुकरे की ऐश...!” उन्होंने अपने आप से कहा और अकेले में हँसने की कोशिश की, मगर होंठ सिकुड़े ही रहे। माथा भी।

    तभी राह चलते हुए पान की दुकान देखकर उनके पाँव अचानक ठिठक गए, “चलो, एक ठो पान ही खा लिया जाए, सत्येन बाबू। कहिए, क्या खयाल है आपका?” उन्होंने खुद को बड़े आदर से संबोधित किया और खरामाँ-खरामाँ पान वाली दुकान की ओर बढ़ गए।

    “एक सादा पान और दो ठो पनामा सिगरेट।” एक ही साँस में बोलने के बाद उनकी निगाहें दुकान का नजारा लेने को उत्सुक हो उठीं।

    सामने टँगे रंग-बिरंगे पोस्टरों में अलग-अलग पोज और बाँकी अदाओं में मौजूद माधुरी दीक्षित, सलमान, शाहरुख और करिश्मा कपूर...! एक से एक नजारे। देखकर वे चौंक गए। आहा, क्या ठसका है, क्या बाँकपन। जैसे आँखों-आँखों में बहती देशी शराब!

    ठीक ऐसे ही फोटो उनके शहर में मुरली पान की दुकान पर भी थे, जहाँ वे रोज बिला नागा पान खाया करते थे। बिल्कुल यही पोज, यही रंग, अंदाज...!

    “अरे, कौन कहता है यार, कि मैं किसी नई जगह पर आ गया हूँ। आखिर तो भारत एक है!” उन्होंने खुद को समझाया, “देख लो ये तस्वीरें...! हमारी एक ही सभ्यता, एक ही सस्कृति की प्रतीक। गोरखपुर हो, दिल्ली या कलकत्ता, वही लीक अलबत्ता....हा-हा-हा।”

    कहकर सत्येन बाबू ठठाकर हँसे और इस हल्की सी तुकबंदी के साथ ही वे निश्चंतता से पान चबाते हुए आगे बढ़ गए।

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    संदर्भ

    प्रकाश मनु

    वे बीस थे और खूब खाए-पिए, घाघ, टेरिकाट-पोलिएस्टर सभ्यता के चमकदार प्रतिनिधि। वह अकेला, दुबला-पतला, सींकिया—मैले कपड़ों में। वे कई साल से डटे थे, वेतन से ज्यादा रिश्वत के कौर पर कौर तोड़े जा रहे थे। वह कई भूखे साल गुजारने के बाद, कई बेचैन अर्जियों की नाकामयाबी से होते हुए मर-खप के कुछ महीनों का काम पा सका था उस दफ्तर में। सो भी पार्ट-टाइम।

    वह आया तो चूँकि बेमेल-सा था, इसलिए वे हँसे। वह चुप रहा। न घबराया, न डरा, न गुस्सा हुआ और इधर-उधर सतर्क निगाहों से देखने-परखने लगा।

    वे हँसते रहे लगातार। वह उस हँसी को भीतर तक परखता, बीड़ियाँ फूँकता और ईमानदारी से अपना काम करता रहा।

    कोई हफ्ता भर यह चला।...फिर वे सहमे। डरे। चौंके, कि “यह कोई अफलातून है क्या?”

    उनमें से कुछ ने कहा, “हमारे साथ आओ, हम देंगे तुम्हें स्तर।”

    दूसरी तरफ भी थे कुछ घाघ, कुछ महाघाघ। बत्तीसी फाड़े। वे उसका हाथ पकड़कर अपनी तरफ ले गए, “हम तुम्हें असलियत बताएँगे और ठाटदार बातें करेंगे।”

    वह न इधर गया, न उधर। जो भी दोनों-तीनों तरफ से लोग बोले, गौर से सुना। उसमें से कुछ पास रखा, ज्यादातर एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया और चुप संलाप करता रहा बीड़ियों और माथे की ऊबड़-खाबड़ बेचैन लकीरों से।

    “यहाँ बहुत लड्डू हैं, हम तुम्हें फोड़ना सिखाएँगे। तुम आखिर इतने बेचैन क्यों हो?” एसोसिएशन के प्रेजीडेंट चित्रगुप्त ने महँगी विदेशी सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए, यारबाश लहजे में कहा। सेक्रेटरी ने हा-हा की। हू-हू किया। उसने उन्हें घूरा नफरत की नजर से, और चुपचाप अपनी फाइल में जुट गया।

    अब वे सब एक हो गए फिर से। और वह अकेला और चुप—वैसा ही।

    “बड़े बनते हैं लाट साब, तो चले आए क्यों यहाँ? बने रहें ऐम्मे...ऐम्मेसी, पी.एच-डी.। कौन पूछता है? आदमी जाना तो अपने काम से जाता है।” उसके पीछे अकसर ऐसी बातें होतीं। उसे कई दफे सुनाई दे जाता यह। सुनाकर कही जाती भी थी बात, पर वह बीड़ी के धुएँ के साथ निकाल देता। निर्लिप्त।

    फिर उसका कार्यकाल खत्म हुआ और वह जाने लगा।

    “भई, जाते-जाते भी तुम अपना रहस्य खोलोगे कि नहीं?” आखिर एक ने सीधी-सादी भाषा में पूछा।

    “कोई रहस्य नहीं।” वह पहली दफे मुसकराया, “मेरे लिए तुम और तुम्हारे लिए मैं सही संदर्भ नहीं हैं। बस, इतनी-सी बात है।”

    “क्या मतलब...?”

    “मतलब यह...कि तुम लोग मेरे लिए उपन्यास में चित्रित पात्र जैसे हो, सो उतना ही नाता है तुमसे।” वह गंभीर हुआ एक क्षण, फिर मुसकराया, “मैं तुम लोगों पर कहानी लिखूँगा कोई, और भेजूँगा।”

    फिर वह उन खाए-पिए, घाघ लोगों पर एक संपूर्ण दृष्टि डालकर, और उसके बाद अपनी मैली, सफेद कमीज और बेतरह घिसी हुई सलेटी पेंट को देखता हुआ, धीरे-धीरे सामने की तपती काली सड़क की ओर बढ़ गया।

    जाने से पहले उसने जल्दी-जल्दी बीड़ी के तीन-चार कश लिए थे और उसे वहीं फेंककर चला गया था। जलता हुआ वह बीड़ी का टुकड़ा उन सबके चेहरों पर प्रश्नवाचक चिह्न बनकर दहकने लगा था।

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    प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

    मो. +91-9810602327