Misaj Majumdar in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | मिसेज मजूमदार

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मिसेज मजूमदार

12.11.2015

(यूनिकोड-मंगल फौंट, कुल पृष्ठ 50, शब्द-संख्या 17,550)

कहानी-संग्रह (ई-बुक)

मिसेज मजूमदार

प्रकाश मनु

*

545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

मेलआईडी -

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प्रकाश मनु – संक्षिप्त परिचय

*

जन्म : 12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में।

शिक्षा : शुरू में विज्ञान के विद्यार्थी रहे। आगरा कॉलेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एम.एस-सी. (1973)। फिर साहित्यिक रुझान के कारण जीवन का ताना-बाना ही बदल गया। 1975 में आगरा विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए.। 1980 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यायल में यू.जी.सी. के फैलोशिप के तहत ‘छायावाद एवं परवर्ती कविता में सौंदर्यानुभूति’ विषय पर शोध। कुछ वर्ष प्राध्यापक रहे। लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे। अब स्वतंत्र लेखन। बाल साहित्य से जुड़ी कुछ बड़ी योजनाओं पर काम कर रहे हैं।

लीक से हटकर लिखे गए ‘यह जो दिल्ली है’, ‘कथा सर्कस’ और ‘पापा के जाने के बाद’ उपन्यास की बहुत चर्चा हुई। इसके अलावा ‘छूटता हुआ घर’, ‘एक और प्रार्थना’, ‘कविता और कविता के बीच’ (कविता-संग्रह) तथा ‘अंकल को विश नहीं करोगे’, ‘सुकरात मेरे शहर में’, ‘अरुंधती उदास है’, ‘जिंदगीनामा एक जीनियस का’, ‘मिनी बस’, ‘मेरी इकतीस कहानियाँ’, ‘इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ’ समेत बारह कहानी-संग्रह। हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही। ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के अंतरंग संस्मरण। देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र और विष्णु खरे के व्यक्तित्व, सृजन और साहित्यिक योगदान पर अनौपचारिक अंदाज में लिखी गई कुछ अलग ढंग की स्वतंत्र पुस्तकें। लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी की विस्तृत जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी – एक सफरनामा’।

इसके अलावा बाल साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सौ पुस्तकें। इनमें प्रमुख हैं : गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, जंगल की कहानियाँ, पर्यावरण की पुकार, तीस अनूठी हास्य कथाएँ, सीख देने वाली कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से (कहानियाँ), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया (उपन्यास), बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, 101 शिशुगीत, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत (कविताएँ), मेरे प्रिय बाल नाटक, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, विज्ञान फंतासी कहानियाँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की तथा अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य)।

हिंदी में बाल कविता का पहला व्यवस्थित इतिहास 'हिंदी बाल कविता का इतिहास’ लिखा। बाल साहित्य आलोचना की पुस्तक है, हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ। कई महत्वपूर्ण संपादित पुस्तकें भी।

पुरस्कार : साहित्य अकादेमी के पहले बाल साहित्य पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के बाल भारती पुरस्कार तथा हिंदी अकादमी के 'साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित। कविता-संग्रह 'छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार।

पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा)

मो. +91-9810602327

ई-मेल –

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भूमिका

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ई-बुक्स की दुनिया में मेरी नई पुस्तक ‘मिसेज मजूमदार’। यह पुस्तक इस मानी में औरों से अलग और कुछ खास है कि इसमें मेरी लंबी, संवेदनात्मक कहानी ‘मिसेज मजूमदार’, जो मेरी अत्यंत प्रिय कहानी भी है, पाठकों के आगे आ रही है। इसके अलावा इसी भावधारा की एक और कहानी है, ‘अंजलीना का नाटक’। ये दोनों कहानियाँ स्त्री-केंद्रित कहानियाँ हैं, जिसमें स्त्री नायिकाएँ ही नहीं हैं, बल्कि वे अपनी जुदा-जुदा शख्सियत के बावजूद बहुत ऊर्जा-संपन्न स्त्रियाँ हैं और जीवन को गति देने में बहुत बड़ा रोल निभाती हैं। यह अलग बात है कि स्त्री-जीवन और स्त्री की शख्सियत के भी बहुत उलझाव और जटिलताएँ हैं, जो इन कहानियों में पूरे नाटकीय विस्तार के साथ खुलती हैं और अंततः पाठकों को भी अपनी जद में ले लेती हैं। इससे वे स्त्री जीवन के उस पीड़ादायक महाभारत से परचते हैं, जिसे उन्होंने जब-तब कई रूपों में देखा भले ही हो, पर इस शिद्दत और कशिश के साथ जानने-समझने की तड़प शायद उनके भीतर कभी न रही हो।

इस नाते इस पुस्तक में शामिल दोनों कहानियाँ पाठकों को सीधे-सीधे स्त्री-मन और स्त्री-जीवन से रूबरू कराने वाली बड़ी मर्मस्पर्शी और संवेदनात्मक कहानियाँ हैं, जो एक बार पढ़ने के बाद आसानी से भूलती नहीं हैं और हमेशा-हमेशा के लिए हमारे और आपके जीवन का एक जरूरी हिस्सा बन जाती हैं।

मेरी ज्यादातर लंबी कहानियाँ एक औपन्यासिक विस्तार लिए होती हैं, जिनमें जीवन क्रमशः परत-दर-परत खुलता है। शायद इसीलिए मेरे मित्रों और पाठकों को वे अत्यंत प्रिय रही हैं। मुझे याद पड़ता है कि मेरी एक लंबी और भावप्रवण कहानी डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार जैसे प्यारे लेखक-मित्रों के बीच हिंदुस्तान टाइम्स की कैंटीन में पढ़ी गई, तो कहानी सुनते हुए डॉ. माहेश्वर की आँखों में आँसू छलछला आए थे। कहानी बीच में रोकनी पड़ी थी, और एक अंतराल के बाद वह फिर शुरू हुई। इस लंबी कहानी के पूरे होते-होते रात घिर आई थी। मैंने डॉ. माहेश्वर और श्रवणकुमार दोनों मित्रों से क्षमा माँगते हुए कहा, “माफ करें, कहानी बहुत लंबी थी। इस वजह से आपको देर हो गई।”

इस पर डॉ. माहेश्वर ने एक सीझी हुई हँसी के साथ कहा था, “दोस्त, यही तो तुम्हारी अदा है कि जिस चीज का भी वर्णन करते हो, तुम उसके इतने बारीक से बारीक डिटेल्स देते जाते हो कि सुनने वाला ताज्जुब में पड़ जाता है। कितने लेखक हैं, जिनमें अपने पात्रों के भीतर इतनी गहराई में उतरने का धीरज है, तो तुम अपनी कहानी के लंबे होने से क्यों परेशान हो? प्रकाश मनु ऐसी कहानियाँ नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा?”

बेशक कहीं न कहीं इन कहानियों में मेरी आत्मकथा के पन्ने इनमें फड़फड़ा रहे हैं और वे इन कहानियों के पात्रों को एक अतिरिक्त ममत्व और गहरी छुअन दे देती हैं, जिससे ये कहानियाँ सीधे पाठकों के दिलों में उतर जाती हैं। मानो शब्दों में बयान की जा रही कहानी एकाएक शब्द की सीमा से निकलकर, आँखों के आगे सदेह होकर जीवन के विविध रस-रंगों वाली मायावी लीलाभूमि पर उपस्थित हो जाती हो!

यों भी अलग-अलग दौर में लिखी गई और अलग-अलग शक्लों में सामने आई मेरी इन बहुचर्चित कहानियों पर समय-समय पर पाठकों की इतनी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएँ मिलती रहीं, उससे इस बात का भरोसा तो हुआ कि आज के पाठक को भिन्न ढंग, भिन्न स्वाद और अपनी एक अलग ही लीक पर चलने वाली कहानियों में निस्संदेह रुचि है, बशर्ते इन कहानियों के पीछे अनुभव सच्चे, मार्मिक और भीतर तक झिंझोड़ने वाले हों।

इनमें ‘मिसेज मजूमदार’ तो एक ऐसी लंबी कहानी भी है जिसे इन दिनों खींच-खाँचकर या मोटे हरफों में छापकर ‘उपन्यासिका’ कहने का रिवाज बढ़ा है जो मुझे अनुचित लगता है। मेरे लिए तो यह लंबी कहानी ही है। इसी रूप में लिखी और जी गई कृति। हालाँकि कभी-कभी यह सोचकर जरूर ताज्जुब होता है कि इधर लिखी गई मेरी ज्यादातर कहानियाँ खुद-ब-खुद एक औपन्यासिक विस्तार ले लेती हैं। मानो हर कहानी के पीछे एक पूरा उपन्यास छिपा हो, जिसकी छुअन इन कहानियों में भी साफ-साफ महसूस होती है।

यों भी सच तो यह है कि किसी भी कहानी का स्वयं लेखक की पकड़ से छूटकर एक स्वतंत्र डगर ले लेना, उसका कहानी और कला की तयशुदा शर्तों और हदबंदियों से छूटकर जिंदगी के साथ हो लेना है और जिंदगी के साथ-साथ, एक स्वतंत्र सृष्टि या सदानीरा की तरह बहना है। इस रूप में देखें, तो किसी भी लेखक को अपनी यह स्वतंत्र सृष्टि ही शायद सर्वाधिक प्रिय भी होती है।

अलबत्ता, इन कहानियों पर पाठकों की खुली और बेबाक प्रतिक्रियाओं की मुझे उत्सुकता से प्रतीक्षा रहेगी।

13 नवंबर, 2015

प्रकाश मनु, 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,

मो. +91-9810602327

कहानी-क्रम

  • मिसेज मजूमदार
  • अंजलीना का नाटक
  • 1

    मिसेज मजूमदार

    प्रकाश मनु

    *

    दफ्तर से लौटा ही था कि हाथ में पानी का गिलास पकड़ाते हुए श्यामला ने कहा, “आज मिसेज मजूमदार आई थीं।”

    “अच्छा!” मैंने कहा। थोड़ी अनिच्छा से, मानो मन ही मन चाह रहा होऊँ कि यह प्रसंग बंद हो। कोई और बात शुरू हो जाए।

    पर श्यामला के जी का कुछ पता नहीं। आज वह अपनी ही धुन में थी।

    “बहुत दुखी थीं बेचारी!” हलके से चर्चा को कुछ और आगे सरकाया गया।

    “अच्छा!” अनिच्छा का दबाव मेरी छाती पर कुछ और बढ़ गया है। और मैं तेजी से कोई बहाना ढूँढ़ रहा हूँ, जिससे जल्दी ही कोई दूसरा प्रसंग हाथ में आ जाए और मिसेज मजूमदार परदे की ओट में...

    “इस बार शायद दीवाली पर दफ्तर से कंबल मिलेंगे गिफ्ट में। बड़ा कलरफुल है, दर्शनीय!” मैंने कहा, “आज सुबह ही रामलुभाया जी बता रहे थे। वैसे वे कह रहे थे कि हम च्वॉइस भी रखेंगे कि या तो कुकर ले लो या फिर कंबल! कुकर हॉकिंस का है चार लिटर...!”

    “कंबल ही ठीक है! सर्दियाँ आ रही हैं, कोई आया-गया हो तो काम आ जाता है। यों तो कुकर भी बड़े दिनों से खराब पड़ा था, पर पिछले हफ्ते उसका ढक्कन ठीक करा लिया। अब तो मजे में चलेगा दो-ढाई बरस और...फिर देखेंगे।”

    कहते-कहते श्यामला चौंकी, “अरे, ठहरो, चाय तो मैं भूल ही गई। अभी लाई।”

    मुझे हलकी-सी खुशी हुई, बजरिए कंबल और कुकर, मिसेज मजूमदार से मुक्ति पाने की खुशी।

    2

    लेकिन चाय पीते हुए मिसेज मजूमदार फिर उपस्थित थीं। ऐन आँख के आगे आकर आराम से बैठी थीं—मजे में टाँगें फैलाए!

    “मेरी तो उनके बारे में राय बदलती जा रही है, अक्षय।” श्यामला कह रही थी, “बल्कि मुझे लगता है, कहीं हम ज्यादती तो नहीं करते आ रहे उनके साथ? आखिर वे इतनी क्रूर तो नहीं हो सकतीं जितना हमने...!”

    मैंने सवालिया नजरें अब श्यामला के चेहरे पर गड़ा दी हैं।

    श्यामला को इससे शायद थोड़ी दिक्कत-सी हुई होगी। पर जल्दी ही उसने खुद को साध लिया है और अब बड़े ही सधे हुए स्वर में कह रही है, “मुझे लगता है, अक्षय, मिसेज मजूमदार नफरत नहीं, दया की पात्र हैं। असल में...” श्यामला एक क्षण के लिए अटकी। फिर बोली, “असल में जब हम किसी के बारे में एक ही तरह से...अम् किसी खास तरह से सोचते हैं तो वही सही लगने लगता है! वह तुमने ही तो सुनाया था न, कितना कथन है कि कॉल अ मैन हंड्रेड टाइम्स डॉग, एंड ही विल बिकम अ डॉग! ठीक बात है, क्यों?”

    मेरी समझ में नहीं आया, श्यामला क्यों मेरे धैर्य की परीक्षा ले रही है। मिसेज मजूमदार से जो भी मोटा-महीन झगड़ा था, उसी का था, मेरा तो नहीं। और मिसेज मजूमदार ने उसे जो दुस्सह दुख दिया, मैं तो उन्हीं को देख-देखकर पगलाया करता था। आज वही श्यामला कह रही है कि मिसेज मजूमदार नफरत नहीं, दया की पात्र हैं। क्या समचुच?

    खैर, नफरत की पात्र तो मैंने उन्हें कभी नहीं समझा था, पर शायद दया की पात्र भी वे नहीं हैं। मुझे लगता है, वे उन लोगों में से हैं, जिनकी चर्चा से हमें बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे लोग जहाँ भी रहेंगे, यहाँ तक कि उनकी स्मृति भी, मनहूसियत ही फैलाएगी।

    “यह...यह मैंने पहली औरत देखी है श्यामला, अपनी अब तक की जिंदगी में, जो मनहूसियत की साकार प्रतिमा है, सिर से पैर तक।” कहते-कहते मेरा स्वर नफरत से भर गया था। मैं निश्चय ही कुछ ज्यादा आवेश में आ गया था।

    पर श्यामला पर इसका कोई खास असर पड़ा हो, नहीं लगता। हाँ, उसके चेहरे की गंभीरता थोड़ी बढ़ गई और आँखों में एक ऐसा पनीला भाव, जिसे समझना मुश्किल।...यह शायद करुणा है।

    “कल तक मुझे भी यही लगता था, अक्षय, पर...”

    “पर...पर क्या?” मैं कुछ खीज-सा गया।

    “अब लगता है, हमने...यकीनन हमने गलती की उन्हें समझने में। असल में हर आदमी वैसा ही नहीं होता, जैसा वह ऊपर से नजर आता है। मिसेज मजूमदार में एक और मिसेज मजूमदार हैं, जिन्हें हम नहीं समझे। नहीं समझ पाए। अब समझ रही हूँ थोड़ा-थोड़ा।”

    “अच्छा!” कहते-कहते मेरी आँखों में शायद एक नुकीला व्यंग्य भी आ गया होगा। श्यामला को वह चुभा जरूर, पर वह बचा गई।

    वह शायद अपनी ही रौ में थी और कुछ कहकर हलका होना चाहती थी।

    “बल्कि अक्षय, मुझे लगता है,” वह कह रही थी, “मुझे लगता है, जब मिसेज मजूमदार हमारे पड़ोस में थीं और रोज-रोज उनसे झगड़ा होता था, तब भी हमने चाहा होता तो ये झगड़े निबट सकते थे। तुम जरा सोचकर तो देखो। पर हमने भी थोड़ा ऊपर उठकर नहीं देखा। हम भी मानो एक पक्ष होकर ही सोचते रहे। भले ही यह एक पीड़ित पक्ष था...पर हमें किसी और तरह भी सोचना चाहिए था। सारी चीजों से ऊपर उठकर, ह्यूमन प्वॉइंट ऑफ व्यू से। या कि कहिए, साइकोलॉजिकल स्टडी ऑफ अ वुमन...अ डिप्रेस्ड वुमन रादर! यह बहुत दिलचस्प होता और शायद ज्यादा सहानुभूति से...”

    कहते-कहते श्यामला क्षण भर के लिए रुकी। शायद अपनी उत्तेजना पर काबू पाना चाहती हो। फिर बोली, “अच्छा देखो अक्षय, तुम खुद ही सोचो। अगर कोई रोज-रोज हमारे पास शिकायतें लेकर आएगा कि आपने यह ठीक नहीं किया, वह नहीं किया तो हमारा रवैया कैसा होगा?...भले ही वे शिकायतें कितनी सही हों। हम चिढ़ेंगे न! मुझे लगता है, यही गलती हमसे हुई। उससे वह और टेढ़ी होती चली गईं। मैं नहीं कहती कि गड़बडिय़ाँ मिसेज मजूमदार में नहीं थीं। जरूर रही होंगी, पर उन्हें नजरअंदाज करने वाले और खूब प्यार करने वाले लोग उन्हें कहाँ मिले! मिलते तो यकीनन वे ऐसी न रहतीं!

    “तुम तो जानते ही हो, अक्षय, कि प्रतिक्रिया में कोई भी शख्स कैसे तनता चला जाता है और फिर धीरे-धीरे उसकी कोमलता के सारे तंतु खत्म होते चले जाते हैं। उसी से वह बुरा-सा प्रसंग भी हमें झेलना पड़ा कि अंजू को उन्होंने जब वह उनकी क्यारी से अपनी गेंद निकाल रही थी, चार-पाँच चाँटे जड़ दिए। वैसे सोचो, अक्षय, अंजू को भी तो मिसेज मजूमदार से पूछकर ही उनकी क्यारी का गेट खोलना चाहिए था। यों भी तो पूरा मोहल्ला जानता है कि मिसेज मजूमदार अपनी क्यारी के पेड़-पौधों को कितना प्यार करती हैं। एक-एक पत्ती-टहनी किस तरह काटती-तराशती हैं, जैसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी हो!”

    इतना लंबा भाषण, बाप रे! मैं एक क्षण के लिए चुप, बल्कि स्तब्ध रह गया और गौर से श्यामला के चेहरे को देखने लगा।

    क्या है इसमें आज, कोई खास बात?...है कुछ न कुछ तो जरूर। नहीं तो आज चीजें इस कदर उलटी दिशा में कैसे दौड़ने लगीं?

    कुछ न कुछ खास तो जरूर है, वरना तो अभी हाल का थोड़ा-सा समय छोड़ दें तो उससे पहले श्यामला की बातों का केंद्रीय विषय यही होता था कि मिसेज मजूमदार ने आज ऐसा कर दिया, आज वैसा कह दिया। हर बार पड़ोसन के रूप में रणचंडी बनकर आईं मिसेज मजूमदार उसे कोई न कोई नई सूई चुभो देती थीं। श्यामला मुझे वह दिखाती और फफकती थी। और मेरा काम होता था उन सूइयों को निकालना और जहाँ रक्त बह रहा हो, वहाँ रुई के फाहे रखना।

    3

    मिसेज मजूमदार कोई चार-साढ़े चार बरस हमारे पड़ोस में रहीं। और ये दिन...अपनी जिंदगी के कोई पंद्रह-सोलह सौ दिन हमने नरक-कुंड में काटे थे।

    पड़ोस का मामला ऐसा होता है कि आप भीतर ही भीतर कितना ही तिलमिलाएँ, हाय-हाय करें, पर न कहीं कुछ आप बदल सकते हैं, न ढक सकते हैं। शुरू-शुरू में तो हमें यकीन ही नहीं हुआ कि कोई स्त्री ऐसी भी हो सकती है, एकदम पत्थर-दिल, क्रूर! और हमने यह सोचकर उसे नजरअंदाज करना शुरू किया कि यह किसी खास मूड का मामला है। हो सकता है, उस दिन पति-पत्नी में आपस में झगड़ा हुआ हो या फिर कोई और चक्कर हो, मानसिक दबाव...!

    लेकिन फिर चीजें बर्दाश्त से बाहर होती चली गईं और अंजू और विक्की के मामले में सिमेज मजूमदार की क्रूरता को भुला पाना तो मेरे लिए असंभव है।

    बच्चे शायद जल्दी पहचान जाते हैं इन चीजों को। इसलिए एकदम शुरू में ही अंजू और विक्की ने तो उन्हें बाकायदा ‘ताड़का माई’ कहना ही शुरू कर दिया था। बाद में उन्होंने इसमें थोड़ा सा सुधार भी कर लिया था। और वे उसे ‘ताड़का आंटी’ या ‘ताड़का चाची’ कहने लगे थे।

    श्यामला ने एक-दो बार बरजा भी, पर बच्चों ने भी आखिर श्यामला की बातों में से ही यह अद्भुत संबोधन पकड़ा था। तो फिर श्यामला के कहने-मात्र से कैसे बदल देते?

    और मजे की बात यह है कि एक-दो बार तो मिसेज मजूमदार ने भी अपने कानों से अपना यह नया ‘पौराणिक’ नाम सुन लिया था। अपने इस आला नामकरण पर कई दिनों तक बड़बड़ाकर वे अपनी नाखुशी जाहिर करती रही थीं।

    ये वे दिन थे जब मिसेज मजूमदार की क्रूरता चरम पर थी और वे हर रोज हमें तंग करने का कोई नया रास्ता ईजाद कर लेतीं। कुछ और नहीं तो वे हमारे पौधों पर ही अपना गुस्सा उतारतीं। उन्हें बेहूदे ढंग से कतर डालतीं या उनके पत्ते नोच डालतीं और फिर उन्हें हमारे यहाँ फेंक देतीं। कभी-कभी हमारे घर के ऐन दरवाजे के आगे उनके कूड़े के ढेर आ लगता। और पूछने पर उनकी तटस्थ मुद्रा, “हमें क्या पता, रख गया होगा कोई! क्या कूड़े पर हमारा नाम लिखा है जो...”

    और हम? घर के चारों प्राणी मानो हर क्षण प्रार्थना में होते थे और उस प्रार्थना का केंद्रीय स्वर था, “हमें बचाओ, प्रभु! इस ताड़का माई से बचाओ।”

    हालाँकि झेलना सबसे ज्यादा श्यामला को ही पड़ता था और हम बाकी जने उसके दुख से दुखी और कातर होने लगते थे। अब दो ही रास्ते थे—या तो झगड़ा किया जाए या फिर सह जाए! और हमने सहने के पक्ष में निर्णय किया था। हमारा मोटो यह था—‘झगड़ा नहीं, झगड़ा हरगिज नहीं!’

    और आज वही श्यामला पादरियों की तरह शांति का प्रवचन देती हुई उलटी पटरियों पर दौड़ रही है कि “नहीं अक्षय, मिसेज मजूमदार उतनी बुरी तो नहीं हैं!” और आँखों में ऐसा प्रशांत गहरा-गहरा-सा भाव, मानो जीवन का बहुत बड़ा सत्य पा लिया हो।

    “क्या बात है आज, श्यामला? मिसेज मजूमदार कोई बंगाली जादू-वादू तो नहीं कर गईं?” जब नहीं रहा गया तो मैंने सीधे-सीधे पूछ लिया।

    श्यामला एक क्षण के लिए चुप। अबोल, अडोल! फिर मानो सीझी हुई आवाज में बोली, “आज वे इस कदर दुखी थीं, अक्षय कि...रहने दो, तुम नहीं समझोगे। मैंने जरा-सा उनके कंधे को छुआ दिलासा देने के लिए, तो वे फूट-फूटकर रो पड़ीं। मुझे बहुत वक्त लगा उन्हें समझाने में, वरना उनके आँसू रुक ही नहीं रहे थे। कोई पंद्रह-बीस मिनट तक, बल्कि उससे ज्यादा, ही, वे सुबकती रहीं। मैंने पीठ पर हाथ फेरा, चाय बनाकर पिलाई, तब कहीं जाकर नॉर्मल हुईं। चलते वक्त बोलीं कि श्यामला, बस तुम्हारे आगे दिल खोला है पहली बार! रहा नहीं गया। पर किसी और से न कहना, वरना लोग समझेंगे कि यह औरत तो बड़ी कमजोर निकली!

    “और एक मजे की बात और, अक्षय। मालूम है, जाते-जाते क्या कह रही थीं? कह रही थीं कि अरे, सुनो श्यामला! जब हमारे झगड़े होते थे, तब भी क्या मैं जानती नहीं थी कि तुम अच्छी हो, बहुत अच्छी। तभी तो तुमसे झगड़ने की तबीयत हो आती थी। वरना तुम्हारे सिवा, बताओ तो, किसी और से झगड़ा हुआ क्या? जब बोलना ही नहीं तो झगड़ा कैसा? तुम लोग बोलते नहीं थे, तो यह भी बोलने का बहाना ही था।”

    श्यामला बारीक-बारीक-सा हँसी।

    “यह तो अच्छा बहाना है। इधर हमारी जान पर बीत रही है और उधर प्यार-प्रदर्शन हो रहा है! ऐसा प्यार तो विलक्षण है।” मुझे हँसी आ गई, “वैसे श्यामला, अगर ताड़का चाची को तुम पे ऐसा ही प्यार आ रहा है, तब तो समझो, सचमुच ही प्यारी हो तुम...यानी मेरी च्वॉइस गलत नहीं रही। क्यों?”

    इस पर श्यामला ने क्षण भर के लिए आँखें तरेरकर मुझे देखा और हँस पड़ी। आँखों में ऐसी चमक, जो उसे सच ही श्यामला बनाती थी।

    शायद उसकी देह का भीतरी प्रकंप ही था...कि कानों की बालियाँ हौले-हौले हिलने लगी थीं। गाल सुर्ख लाल। एक ऐसा क्षण, जब श्यामला को बाँहों में भरकर प्यार करने की अपनी इच्छा को दबाना मेरे लिए मुश्किल होता है, बल्कि नामुमकिन।

    हाँ, लेकिन बात तो मिसेज मजूमदार की हो रही थी न! आज लगता है, मिसेज मजूमदार बिलकुल चैन नहीं लेने देंगी।

    वे जब कोई चार-साढ़े चार बस तक पड़ोस में थीं तो हमारा जीना हराम हो गया था। एक-एक दिन गरम तवे पर पड़ी पानी की बूँदों सरीखा बीतता था। और जब वे यह घर बेचकर तीन गली दूर चली गईं, तब हम सबने ईश्वर के आगे हाथ जोड़े थे, ‘हे करुणानिधान! ऐसे ही रक्षा करते रहना।’ और हमने यह स्वीकार किया था कि “हाँ, इस शहर में आने के बाद हमारे जीवन की ठीक-ठीक शुरुआत तो अब हुई है।”

    पर उनके चले जाने के बाद भी, क्या वे पूरी तरह जा सकीं? हमने उन्हें भुलाने की कोशिशें तो तमाम कीं, पर जाने क्यों, जो कुछ विरूप था, असुंदर था, अवांछित था, उसे देखते ही खुद ब खुद याद आ जाती थीं मिसेज मजूमदार।

    शायद इसलिए कि पहले ही दिन अपनी घोर असभ्यता से जो झटका उन्होंने हमें दिया था, उसका असर हमारे दिलों पर से कभी उतरा नहीं।

    4

    उन दिनों हम नए-नए ही इस जवाहर कॉलोनी में आए थे। आस-पास बहुत कम घर थे। दूर-दूर तक उजाड़ के बीच इक्का-दुक्का घर नजर आता था और हम लोगों के चेहरे तक देखने को तरस जाते थे। जाहिर है, तब श्यामला के मन में पड़ोस प्रेम के साथ-साथ नवागंतुकों के प्रति प्रेम का भाव भी कुछ अधिक प्रबल रहा होगा। इसके पीछे श्यामला का एकाकीपन भी एक कारण हो सकता है। इसलिए कि मुझे तो सुबह से देर रात तक दफ्तर में खटना होता था। घर आते-आते नौ बजते थे। बच्चे छोटे थे और पीछे से श्यामला अकेली। सोचती थी, कोई और भला सा परिवार आए तो समय काटने में थोड़ी आसानी रहेगी। एक तरह की मानसिक असुरक्षा से भी मुक्ति मिलेगी।

    पड़ोस का 72 नंबर मकान खाली था। पर उसमें लटका पीपल का बड़ा-सा हरीसन ताला हमेशा हमारा मुँह चिढ़ाता रहता।

    फिर पता चला कि यह मकान बिक गया है और इसमें कोई बंगाली मोशाय आ रहे हैं।

    इसलिए जिस दिन ट्रक में ढेरों सामान और अंगड़-बंगड़ के साथ-साथ लदी हुई स्थूलकाय मिसेज मजूमदार पड़ोस के 72 नंबर मकान में आ पहुँची, श्यामला का मन उछालें-सी भरता रहा। मिसेज मजूमदार के पति और बच्चों को भी एकाध झलक नजर आई। पर वे महा व्यक्तित्वशाली मिसेज मजूमदार के व्यक्तित्व की एक लघु छाया भर ही थे।

    बहरहाल उसी दिन श्यामला ने मिसेज मजूमदार के दरवाजे पर दस्तक दी।

    मिसेज मजूमदार ने बाहर एक संभ्रांत स्त्री को खड़े देखा तो फाटक के पास आकर खड़ी हो गईं। कुछ रूखे, सतर्क स्वर में बोलीं, “क्या काम है?”

    “काम...!” श्यामला हक्की-बक्की, यह कैसा प्रश्न? मुसकराकर बोली, “काम तो मुझे कोई नहीं है। हम लोग आपके पड़ोस में ही हैं। मैं यो यह पूछने आई थी कि आपको पानी-वानी किसी चीज की जरूरत तो नहीं है? यहाँ पानी अक्सर चला जाता है और फिर कोई ठिकाना नहीं कि कब आएगा। पीने के लिए चाहिए तो जग में भरकर ला देती हूँ। और भी किसी चीज की जरूरत हो तो निस्संकोच कहें।”

    “आच्छा...आच्छा! ठीक है, बताएँगा। जरूरत होगा तो बताएँगा!” उस साँवली भारी-भरकम काया ने कहा।

    “श्यामला है मेरा नाम।” एक क्षीण सी हँसी के साथ श्यामला ने कहा।

    “और हम—मिसेज मजूमदार।” जवाब आया।

    इतने में उनके पति भी निकलकर आ गए। एक भले, संभ्रांत व्यक्ति। दुबले-पतले और खासे लंबे, सलीकेदार।

    जब उन्हें मिसेज मजूमदार ने बताया कि ये लोग हमारे पड़ोस में ही हैं, तो मुसकराकर बोले, “आइए...आप भीतर आइए। चाय पीकर जाइए।”

    “बस, देर हो रही है। फिर कभी।” श्यामला ने कहा और विदा लेकर चली आई।

    5

    लौटकर श्यामला ने मुँह बनाते हुए कहा, “उफ! कैसी सड़ियल औरत है। एकदम निखद्द। भीतर आने तक के लिए नहीं कहा। और तो और, गेट ही नहीं खोला और पूछने लगी, क्या काम है?”

    “तुम्हें वहाँ जाने की जरूरत क्या थी आखिर?” मैंने कहा, “खुद अपना अपमान कराने जाओगी तो किसका मन नहीं होगा दो ठोकरें लगाने का।” फिर उसे समझाते हुए कहा, “यह पहले वाला सीधा-सरल समाज नहीं है, मैडम। दुनियादार, मुखौटेबाज लोगों के बीच रहना है और उनसे वास्ता रखना है तो थोड़ा सतर्क तो होना ही पड़ेगा।”

    श्यामला के चेहरे पर हलका अपराध-बोध नजर आया, पर उसे अंदर ही अंदर दबाते हुए बोली, “देखो अक्षय, मोहल्ले में कोई नया आदमी आता है तो उसकी सौ जरूरतें होती हैं। उसे पता नहीं होता चीजों का। मैं तो इसी आपसदारी की वजह से चली गई थी। अब देखो ना, पानी चला गया। पता नहीं उन्होंने पीने के लिए पानी भरा भी कि नहीं! और ऊपर से गरमी भी कितनी पड़ रही है! ऐसे में ही तो आदमी आदमी के काम आता है। और पड़ोस होता किसलिए है? तुम्हें पता नहीं, जब हम लोग नए-नए इस कॉलोनी में आए थे तो पूनम के मम्मी-पापा ने कितनी मदद की थी। वे तो कोई पड़ोसी भी नहीं थे हमारे। एक गली छोड़कर रहते थे...पर छोटी-बड़ी कितनी चीजों में उनसे हमें मदद मिल गई। तो हम क्या आज तक भूल पाए इस बात को? “

    “ओहो...! तो यह कहो ना, पुन्न कमाने गई थीं आप!” मैंने हँसकर कहा, “वाह जी श्यामला जी, धन्य हो! पर भई, इस मामले में एक अच्छी बात कोई समझदार शख्स कह गया है कि नेकी कर और कुएँ में डाल। तुम तो भले के लिए गई थीं। मन साफ है तुम्हारा। वो तुम्हारी भावना को नहीं समझ सकीं तो भूलो उसे।”

    “अब ज्यादा अपनी बातों का छौंक-बघार मत लगाओ।” कुढ़ गई श्यामला, “मैं तो वैसे ही परेशान हूँ और ऊपर से...!”

    फिर पास आकर चुपके से उसने कानों में कहा, “तुमने देख ली वह महाकाया...मिसेज मजूमदार?”

    “ना, नहीं।”

    “देखना भी मत।”

    “क्यों?...क्यों?” मुझे उत्सुकता हुई।

    “डर जाओगे।” कहकर वह हँसने लगी।

    फिर आँखें खूब फैलाकर बोली, ‘ताड़का है, पूरी ताड़का माई। और शरीर ऐसा है कि अच्छे से अच्छे पहलवान का क्या होगा!....बस, अपने को दुगना, बल्कि ढाई गुना करके देख लो।’

    “ऐं...ऐसा?” मुझे यकीन नहीं हुआ।

    “और क्या! मैं झूठ बोल रही हूँ?” श्यामला ने हाथ हिलाकर कहा, “और चेहरा ऐसा, हाय राम! मैं तो डर गई। बस, समझो कि रामायण में राक्षसनियों का जो वर्णन है, एकदम याद आ गया! वह तो उसका पति आ गया जो शरीफ सा आदमी है बेचारा, वरना तो मैं सचमुच बेहोश हो जाती और तुम्हें उठाकर लाना पड़ता। बस समझो कि दुर्घटना होते-होते बच गई।”

    श्यामला फिर हँसने लगी। मंद-मंद हँसी। थोड़ी शरारती भी।

    “तो क्या यही खुफियागीरी तुम वहाँ करने गई थीं, मैडम?” मैंने हँसकर पूछा।

    पर श्यामला अपनी ही रौ में थी।

    “मुझे तो तरस आता है उस आदमी पर, बेचारा! क्या-क्या सहना पड़ा होगा उसे! कैसे काट दी पूरी जिंदगी!” और फिर वही खुदर-खुदर, खुदर-खुदर।

    6

    यों जिस दिन से वह बंगाली परिवार हमारे पड़ोस में आया, हमारे घर की चहल-पहल काफी बढ़ गई।

    श्यामला के उत्साह का तो ठिकाना ही नहीं था। और जब कभी मैं उस पर अचरज जताता, वह एकाएक सुरक्षात्मक खोल में घुस जाती और धीरे से कहती, “बड़े दिनों बाद पड़ोस में किसी बंदे की शक्ल देखने को मिली है, अक्षय। नहीं बोलते तो न सही। पर सुख-दुख में आदमी ही आदमी के काम आता है।...नहीं?”

    फिर पता चला कि ये लोग बिहार में टाटा नगर से आए हैं। वहाँ मिस्टर मजूमदार किसी सरकारी दफ्तर में बड़े ओहदे पर थे। वहाँ से रिटायरमेंट के बाद दिल्ली नजर आई और फिर दिल्ली से जुड़ा यह छोटा-सा शहर। इस छोटे-से शहर की नई-नई बसी जवाहर कॉलोनी का मकान नंबर 72!...

    फिर यह भी पता चला कि मिसेज मजूमदार के एक बेटा, एक बेटी है। बेटा पिता पर गया है और बेटी बिलकुल माँ की ट्रू कॉपी। बेटा लंबा-दुबला और बेटी की काया उसी तरह लंबी-चौड़ी, गठीली जैसी माँ की। और फिर यह भी पता चला कि मिसेज मजूमदार का पूरा नाम है—पूर्णिमा मजूमदार।

    सुनकर मुझे भीषण हैरानी हुई।

    “पूर्णिमा...?” मैंने भौचक्के होकर पूछा। दोबारा सुनिश्चित करने के लिए, क्योंकि मैं भी अब तक उस महाकाया का दर्शन कर चुका था। तारकोल से पुती उस भीषण देह में भला पूर्णिमा की उजास और कोमलता कहाँ?

    “बताओ, कैसे-कैसे नाम रख लेते हैं लोग भी! इससे बढक़र व्यंग्य और क्या हो सकता है?” अचरज से भरी हुई श्यामला कह रही थी।

    पलटकर मैंने कहा, “नाम तो होते ही हैं ऐसे। पर तुम्हें कुछ ज्यादा ही अटपटा लग रहा है।”

    “मुझे क्यों?” श्यामला तुनककर बोली।

    “अब देखो ना, श्यामला, बुरा तो लगना ही है।” मैंने मुसकराकर कहा, “विधि का विधान तो देखो कि तुम जैसी शुभ्र गौरवर्णी का नाम श्यामला और वह काली ताड़का माई हो गई पूर्णिमा। जाहिर है, इसलिए चोट तुम्हें कुछ ज्यादा लगी।”

    इस पर श्यामला की आँखों में जो कुछ चंचल-चंचल-सा तैरता नजर आया, उसी को लक्ष्य करके मैंने जोड़ा, “तुम ऐसा क्यों नहीं कर लेतीं, श्यामला, कि नाम की अदला-बदला कर लो मिसेज मजूमदार से। उनको अपना नाम दे दो, पूर्णिमा तुम रख लो। यों पड़ोस भी अच्छा निभ जाएगा।”

    इस पर श्यामला ने घूँसा तानकर जिन कठिन-कठोर नजरों से मेरी ओर देखा, उससे मैं थोड़ा नर्वस और प्रकंपित हो गया।

    मगर इससे मिसेज मजूमदार...मिसेज पूर्णिमा मजूमदार की कहानी भला कैसे रुकती! क्यों रुकती?

    वह हर क्षण चलायमान थी और उसमें एक से एक नए एपिसोड जुड़ते जा रहे थे। और इनमें से ज्यादातर के केंद्र हमारे और अड़ोस-पड़ोस के बच्चे ही थे, जो शाम के समय सामने वाले मैदान में चिड़ी-बल्ला या गेंद-बल्ला खेलते थे। जब तक उनका खेल जारी रहता, मिसेज मजूमदार किसी बाघिन की-सी खा जानेवाली नजरों से उन्हें ताकती रहतीं। बच्चे इस बात को लेकर बेहद-बेहद चौकन्ने थे कि उनकी चिड़ी या गेंद उछलकर किसी तरह मिसेज मजूमदार की क्यारी में न पहुँच जाए। वरना उसे पाना उतना ही मुश्किल था, जैसा लंका में रावण के साम्राज्य में बंदी सीता का।

    लिहाजा बच्चे डरते-डरते अब बेहद सतर्क होकर खेलते थे। और इस चक्कर में अक्सर जीतते-जीतते हार जाते थे। बीच-बीच में वे भयभीत नजरों से अपने घर के चबूतरे पर किसी काली शिला की तरह अडोल बैठी मिसेज मजूमदार की ओर देख लेते थे और एक-दूसरे को इशारा कर देते थे, ‘सावधान!’ इसलिए कि मिसेज मजूमदार भले ही अडोल बैठी रहती हों, लेकिन उनकी आँखें बड़ी तेजी से काल-चक्र की तरह इधर-उधर घूमती रहती थीं। मानो वे इसकी प्रतीक्षा में हों कि कोई बच्चा या उसकी गेंद या चिड़ी भूल से उनके निकट आए और वे उसे झट दबोच लें, जैसे बगुला किसी मछली को निगल जाता है।

    ...दो-चार बच्चे मिसेज मजूमदार से थोड़ा-बहुत पिटाई का प्रसाद भी पा चुके थे और उनकी कई चिडिय़ाँ और गेंदें मिसेज मजूमदार के दानवी किले में कैद थीं। अब वे रात-दिन इसी बात के सपने देखते और जादुई योजनाएँ बनाया करते थे कि कैसे उन बंदी गेंदों और चिडिय़ों को वहाँ से आजाद कराया जाए?

    बच्चों को इसमें सफलता बिलकुल नहीं मिल पा रही थी और मिसेज मजूमदार का आतंक हर दिन थोड़ा और बढ़ जाता था।

    इधर हमारे घर सूचनाओं का आदान-प्रदान जोरों से हो रहा था। और सच तो यह है कि पड़ोस में जब यह बंगाली परिवार आया था, तब शुरू-शुरू में श्यामला के मन में कुछ अधिक ही रंग और उत्साह बिखर गया था। फिर वे रंग मैले और काले पड़े...फिर उनमें हलके भय की छायाएँ पड़ती चली गईं। फिर भय ही नहीं, कड़वाहट भी गाढ़ी होती गई। लेकिन मिसेज मजूमदार जिस दिन से आई थीं, उस दिन के बाद से अमहत्वपूर्ण कभी नहीं हुईं। वे हर क्षण थीं, हर क्षण मौजूद थीं—हमारे पड़ोस में ही नहीं, हमारे जेहन में भी। हम आँखें बंद करें या खोलें, वे हमेशा दिखाई देती थीं। एक काली विशाल चट्टान, जिसे न नजरअंदाज करना संभव था और न अपनी जगह से तिल भर हिलाना।

    और यह कहूँ तो झूठ नहीं होगा कि मिसेज मजूमदार बड़ी जल्दी ‘मिसेज टेरर’ के रूप में हम सभी के हृदय प्रदेश में जगह बना चुकी थीं।

    हम उन्हें भुलाना चाहते थे, तो भी जाने क्यों यह असंभव था कि उनकी तरफ हमारा ध्यान ही न जाए।

    हम अनचाहे उनकी चर्चा करते थे और सिर धुनते थे। और उसमें सबसे विचित्र हालत होती थी श्यामला की, जिसे अपना पड़ोस निभाना भी होता था और अपने स्वत्व की रक्षा भी करनी होती थी।

    कभी-कभी भय की इन छायाओं को चीरते हुए उसकी सहानुभूति मिसेज मजूमदार के परिवार तक जा पहुँचती और वह कहती, “ठीक है अक्षय, हम इस भीषण महिला से दुखी हैं। पर हमारा दुख तो छोटा है। जरा इसके अपने परिवार वालों के बारे में तो सोचो। इसका अपना पति, बेटा, बेटी...! उन्हें कितना झेलना पड़ता होगा। मुझे लगता है, इस भीषण सन्नारी की छाया ने इन सबको दबा दिया है। वरना बताओ तो, इनके घर से कभी किसी की आवाज आती है, बोलने, चहकने, खिलखिलाने की आवाज? जैसे मिसेज मजूमदार ने सबकी हँसी पर ताला जड़ दिया हो।”

    और मुझे लगा, श्यामला सच ही तो कह रही है।

    7

    फिर एक दिन, एक आश्चर्य-वृत्तांत। सुबह-सुबह सितार के साथ-साथ मधुर कंठ में रवींद्रनाथ ठाकुर के एक भक्ति गीत के बोल सुनकर हैरान हुआ, “सुनो श्यामला, सुनो! कोई गा रहा है।”

    मेरे लिए यह हैरानी की बात इसलिए थी कि हमारी जवाहर कॉलोनी में या तो फिल्मी गीतों की धुनें तैरती रहती थीं या टीवी सीरियलों के धाँसू संवाद और चटपटे बोल इधर से उधर उछलते फिरते थे। किसी घर के आगे से निकलो तो लगता था कि या तो घरके सभी लोग आपस में झगड़ रहे हैं या रो-पीट रहे हैं। फिर थोड़ी देर में समझ में आता था, अरे, यह तो टीवी है।

    ऐसा महा-महा ध्वनि प्रदूषण के बीच यह क्या! सितार के साथ-साथ इतना शुद्ध गायन—राग जै-जैवंती।

    श्यामला मुसकराई, “मिसेज मजूमदार की बेटी गा रही है—सुप्रिया!”

    “अच्छा!” मेरी हैरानी और बढ़ गई।

    सुप्रिया को एक-दो बार देखा था फेंस के उधर आते-जाते, या फिर साफ-सफाई करते। मिसेज मजूमदार की तरह ही लंबा-चौड़ा डील-डौल, प्रदीर्घ काया। काला, ठस्स, भावहीन चेहरा। उसके साथ किसी तरह की कला का कोई रिश्ता जुड़ता ही नहीं था।

    “गाती तो अच्छा है!” मेरे मुँह से खुद-ब-खुद ये प्रशंसात्मक शब्द निकले।

    “हाँ, अच्छा गाती है!” श्यामला ने ताईद की। फिर हँसकर बोली, “शक्ल माँ पर गई है, पर यह गुण शायद पिता का, गलती से!”

    “पिता...? यानी मिस्टर मजूमदार! तो वे भी गायक है?” मैं चौंका।

    “गायक कैसे हैं, यह तो नहीं कह सकती।” श्यामला मुसकराई, “उतना कभी सुना तो नहीं, पर गाते तो हैं शौक से।”

    “तुमने कब सुन लिया?” मैंने हैरानी से पूछा।

    “कभी-कभार रियाज करते हैं तो क्या, आवाज तो कानों में पड़ती ही है। दो-एक बार देखा भी है। खूब बड़ा-सा भव्य सितार है, उसे बजा रहे थे बिलकुल लीन होकर। इस आदमी में कुछ तो है आखिर...यानी वह जो बंगाली मोशाय वाली सुरुचि होती है, समझ गए न!” श्यामला ने कहा।

    “हाँ, पर बाहर कम ही निकलते देखा है।”

    “घर-घुसरे हैं ये सबके सब।” श्यामला हँसी, “बंगाली लोग तो सुना है, बड़े सोशल बंदे होते हैं। ये पता नहीं, कैसे हैं।” कहते-कहते श्यामला ने थोड़े रहस्यात्मक भाव से कहा, “उस आदमी को मैंने देखा है। या तो किताब पढ़ता रहता है या फिर सितार पर रियाज करता रहता है। और बीवी सब दिन थानेदार की तरह घर में इधर से उधर, उधर से इधर...! शायद यह डरता भी है अपनी बीवी से।”

    “ओह! काफी जानकारियाँ इकट्ठी कर ली हैं पड़ोसियों के बारे में!” अबके मेरी हँसी टूट गई।

    “मुझे क्या करना?” श्यामला सीरियस हो गई, “खुद-ब-खुद जो पता चलता है, वह क्या कम है? वह तो उस दिन दही-बड़े देने गई थी तो देखा, मिसेज मजूमदार डाँट रही थीं अपने मियाँ जी को कि तुम्हीं ने सिर पर चढ़ाया है बेटे और बेटी को, वरना मैं तो सीधा कर देती।”

    “ओह, ऐसा!” मैंने कहा, “पर यह दही-बड़ों का लेना-देना कैसे शुरू हो गया?”

    “होना क्या था, अक्षय!” श्यामला ने किस्सा सुनाया, “एक दिन मिसेज मजूमदार प्लेट में दो ‘रोशोगुल्ले’ रखकर लाई थीं। बाहर दरवाजे पर ही अंजू को बुलाकर प्लेट पकड़ा गईं कि कोलकाता से आए हैं, तुम लोग भी जरा चखकर देखो। अब मुझे किसी का एहसान रखने की क्या जरूरत है! प्लेट लौटाने गई तो उस दिन खूब बढ़िया-से दही-बड़े बने थे, इमली की चटनी भी थी। एक प्लेट में भरकर चटनी डालकर वहीं दे आई। खूब चटपटे थे, खाए होंगे तो याद रखेंगे।”

    “ठीक...ठीक।” कहते-कहते मेरी हँसी छूट गई, “वाह श्यामला, वाह! चिढ़ती भी हो और छूट भी नहीं पा रही हो इस महान महिला से!”

    “क्या करें, पड़ोस का मामला है!” श्यामला ने समझाया था। फिर पास आकर बोली, “आजकल बेटी की शादी को लेकर परेशान हैं मिसेज मजूमदार। यह जो बेटी का रवींद्र-संगीत का चक्कर चला है, वह इसलिए कि इनके यहाँ लड़कियों को थोड़ा गाना और संगीत जरूरी है। शादी के वक्त देखा जाता है। जैसे पाक-कला, वैसे संगीत।”

    फिर पता चला कि सुप्रिया को देखने के लिए कोई सज्जन कोलकाता से आए थे। पहले तो हाँ-हाँ करते रहे, फिर चुप्पी साध ली। अब उनकी इनकार की चिट्ठी आ गई।

    फिर पता चला कि दिल्ली में आर.के. पुरम में कोई बंगाली परिवार है, वहाँ बातचीत चल रही है। और लगभग ‘हाँ’ वाली बात है।

    फिर पता चला कि वह ‘लगभग हाँ’ अब पूरी ‘हाँ’ में बदल गई है। और इसके प्रमाण के रूप में घर की ताबड़तोड़ सज्जा और कुछ नया निर्माण शुरू हो गया। छत पर दो कमरे और एक रसोई। नीचे नया स्टोर, रसोई और बाथरूम में शानदार टाइलें। पूरे घर में बढ़िया वाला प्लास्टिक पेंट। सब कुछ युद्ध-स्तर पर। महीने भर में घर लकदक-लकदक करने लगा।

    फिर नवंबर में शादी का कार्ड भी मिल गया। खूब जोर-शोर से तैयारियाँ, टैंट, झंडिय़ाँ, अल्पना। आर.के. पुरम से बारात आनी थी। आई। साथ ही कॉलोनी के लोगों और खासकर अड़ोस-पड़ोस वालों की जोरदार दावत! मिसेज मजूमदार को इतना खुश पहले कभी नहीं देखा गया था, न इससे पहले, न बाद में। उनके साँवलेपन में एक जोत खिली-खिली-सी थी।

    आस-पड़ोस वालों के स्वागत-सत्कार में मिस्टर और मिसेज मजूमदार बिछे-बिछे पड़ रहे थे।...और सुशांत, उनका बेटा! सारी तैयारी तो उसी ने की थी। उसके दोस्तों की पूरी सेना इंतजाम में यहाँ से वहाँ जुटी थी।

    8

    लेकिन...यह खुशी अधिक दिन तक नहीं रह पाई।

    कुछ दिन बाद सुप्रिया लौटी तो उसका ही नहीं, मिसेज मजूमदार का चेहरा भी उतर गया था। मिस्टर मजूमदार, जो अब पिछले कुछ दिनों से बाहर आकर शक्ल दिखाने और थोड़ी गपशप में रुचि लेने लगे थे, एकाएक फिर आत्मनिर्वासन में चले गए। और उनके होने का अहसास सिर्फ घर में इधर से उधर जाती छाया या सितार के रियाज से ही लगाया जा सकता था।

    उसके बाद तो हालत यह हुई कि हर हफ्ते-पंद्रह दिन बाद सुप्रिया लौटती और चार-छह रोज यहीं गुजारकर जाती। उन दिनों मिसेज मजूमदार का चेहरा कुछ और काला हो जाता और वे कहीं अधिक कठिन, फौलादी चेहरा पहन लेतीं। बाद में सुप्रिया कभी-कभी महीने, दो-दो महीने के लिए भी उन्हीं के पास नजर आती। और मिसेज मजूमदार लोहे का चेहरा पहने, लोगों को समझाती फिरतीं कि “ऐसा है बहन जी, इसके पति की ड्यूटी सेल्स में है। कभी-कभी दो-दो, चार-चार हफ्ते के लिए बाहर जाना पड़ता है। इसलिए लड़की अकेली रहे, इससे तो ज्यादा अच्छा है, यहाँ चली आए। वहाँ बहुत बड़ा घर है इनका। पाँच सौ गज की कोठी है। आठ-दस कमरे हैं। अकेली लड़की का जी घबरा जाता है तो बेचारी दौड़कर यहाँ आ जाती है। माँ के पास न आए तो कहाँ जाए बेचारी?”

    और मिसेज मजूमदार ने जैसा कहा था, वैसा ही सबने मान लिया था। हालाँकि एक शक लोगों के मन में कभी-कभी उभरता था कि मिसेज मजूमदार ने ही पहले कभी बताया था कि लड़की संयुक्त परिवार में है। लेकिन संयुक्त परिवार में है तो पति के बाहर जाने पर इतना अकेलापन कैसे?

    लेकिन साल बीतते न बीतते बातें साफ होती चली गईं। इसलिए कि सुप्रिया अब स्थायी रूप से माँ के पास ही रहने लगी थी। और यहीं उसकी संतान भी हुई थी, एक नन्हा-सा बेटा। फिर घर में आने-जाने वाले लोगों के ऊँचे स्वर में झगड़ों से रही-सही बात भी साफ हुई।

    मालूम पड़ा कि वे लोग तो सुप्रिया को ले जाना चाहते हैं, मगर सुप्रिया जाना नहीं चाहती और अपने नन्हे बेटे के साथ अब एक नई जिंदगी शुरू करना चाहती है। मिस्टर और मिसेज मजूमदार का भी यही ख्याल है और उसका भाई सुशांत तो यह चाहता ही है। कई बार उसका यह स्वर साझी दीवार को फलाँगकर हमारे घर तक ला आया था कि क्या हम इतने असमर्थ हैं कि एक बहन का खर्चा नहीं उठा सकते! फिर यह जॉब कर लेगी तो इसे चाहिए भी क्या? किसी से कम थोड़ी है हमारी बहन। क्यों जाए वहाँ उस मनहूस के पास?

    फिर पता चला कि सुप्रिया का घरवाला पियक्कड़ है, ड्रग-एडिक्ट है। सुप्रिया को बुरी तरह मारता है और एक बार तो उसका सिर फोड़ देने के लिए वह कुल्हाड़ी भी उठा लाया था। बस, उसके माँ-बाप ने किसी तरह पकड़कर बचा लिया। तब से सुप्रिया ने फैसला कर लिया कि वह ससुराल में कदम नहीं रखेगी।

    फिर पता चला, मिसेज मजूमदार ने बेटी के लिए पड़ोस में एक कमरा ले लिया, ताकि अड़ोस-पड़ोस की ‘बे-फालतू’ चर्चाओं पर विराम लगाया जा सके। कुछ रोज बाद सुप्रिया को विवेकानंद मॉडल स्कूल में संगीत अध्यापिका की नौकरी मिल गई। वह सुबह जाती तो नन्हे अभि को माँ के पास छोड़ जाती और लौटती तो उसे यहाँ से लेती हुई फिर अपने कमरे पर जाती।

    पता चला कि सुप्रिया को विवेकानंद मॉडल स्कूल से जो तनख्वाह मिलती है, उससे घर का खर्च नहीं चलता। इसलिए मिसेज मजूमदार बेटी को हर महीने घर-गृहस्थी और खाने-पीने की ढेरों चीजें खरीदकर देती हैं। यहाँ तक कि दूध और सब्जी भी खुद मिसेज मजूमदार उसके लिए खरीदकर अलग से रखती हैं। शाम को सुप्रिया रिक्शे पर आती है तो थोड़ी देर ठहरकर, सब कुछ समेटकर वापस चली जाती है।

    मिसेज मजूमदार मोहल्ले के लोगों से बेटी का चेहरा ही नहीं, बेटी के दांपत्य की अंतर्कथा भी छिपाना चाहती थीं। लिहाजा उन्होंने खुद यह लोहे का चेहरा पहन लिया।

    बेटे सुशांत की शादी की बातें वे पहले खूब जोर-शोर और उल्लास से करती थीं कि उसके लिए ऐसी लड़की देख रही हैं, वैसा घर देखा है, पर इधर यह चर्चा उन्होंने बिलकुल बंद कर दी थी।

    हाँ, सुशांत ने कोई साल-डेढ़ साल से स्कूल में साइंस टीचर की नौकरी छोड़कर म्यूजिकल हॉर्न बनाने का काम शुरू कर दिया था। और यह काम अच्छा चल निकला था।

    9

    इन्हीं दिनों मिसेज मजूमदार के चेहरे में नए-नए चेहरे और उन चेहरों की कुछ खास तरह की जटिलताएँ जुड़ी। यह वह समय था, जब एक ओर वे बेटी के दुख से लदी हुई थीं तो दूसरी ओर घर में पैसे और सुविधाओं की आमद बढ़ी। इस बढ़ी हुई आमद का श्रेय सीधे-सीधे मिसेज मजूमदार को जाता था।

    इसलिए कि सुशांत बिजनेस शुरू करे, यह फैसला मिस्टर मजूमदार का नहीं, मिसेज मजूमदार का था। मिस्टर मजूमदार तो यही चाहते थे कि सुशांत उन्हीं की तरह कोई अच्छी सरकारी नौकरी हासिल कर ले, जीवन आराम और शांति से गुजारे। लेकिन मिसेज मजूमदार की महत्वाकांक्षाएँ ऊँची थीं। ईमानदारी की नौकरी करने वाले पति से वे असंतुष्ट थीं तो बेटे को उन्होंने अपने रंग में ढाल लिया था।

    जो भी हो, इससे मिसेज मजूमदार के व्यक्तित्व में अजब-सी ठसक आ गई थी। वे कर्कशा तो पहले ही थीं, अब अबूझ और अव्याख्येय भी हो गईं। अंदर ही अंदर किसी चीज से वे बुरी तरह लड़ती और किसी हिंसक द्वंद्व में फँसी नजर आती थीं। हालाँकि ऊपर से वह कम, बहुत कम नजर आए, इसका जुगाड़ भी उन्होंने कर लिया था। और जैसा कि श्यामला ने एक दफे कहा, सच्ची-मुच्ची लोहे का चेहरा पहन लिया था उन्होंने!

    लेकिन आँखें? भला अपनी आँखों का क्या करें वे, जो सब कुछ सही-सही कह देती थीं। और सच तो यह था कि अब वे अक्सर भन्नाए हुए चेहरे और तन्नाई हुई आँखों से यहाँ-वहाँ देखती पाई जाती थीं।

    जाने कौन शत्रु था, जिसके लिए गुस्सा अंदर ही अंदर उनके भीतर भरता जा रहा था और वे किसी पहलवान की तरह अंदर ही अंदर उससे गुत्थमगुत्था नजर आती थीं।

    उन्हीं दिनों का यह प्रसंग है कि उन्होंने हमारी बेटी अंजू को बुरी तरह पीट डाला था। एक के बाद एक पाँच-सात चाँटे! और उनकी लोहे की उँगलियाँ अंजू के कोमल गालों पर छप गई थीं।...

    अंजू रोती-रोती घर आई। उसकी हालत देखकर श्यामला गुस्से से काँप उठी थी। थरथराकर बोली, “इस राक्षसी की यह हिम्मत! मैं छोड़ँूगी नहीं इसे। देखो, किस बुरी तरह मारा है मेरी फूल जैसी बच्ची को।...गाल सूज गए!”

    “हुआ क्या था?” मैने अंजू से पूछा, पर अंजू लगातार रोए जा रही थी। बहुत देर तक वह कुछ भी कहने को तैयार नहीं हुई और ‘मोटी ताड़का माई, मोटी ताड़का माई’ कह-कहकर रोती रही।

    गुस्सा तो मुझे भी बेहद आ रहा था, पर इसी बात पर पड़ोस से झगड़ा बढ़ा लेना मुझे ठीक नहीं लगा।

    फिर पता चली पूरी कहानी। हुआ यह कि अंजू विक्की और दूसरे बच्चों के साथ सामने के मैदान में खेल रही थी। पूरी सावधानी से वे खेल रहे थे कि गेंद इधर न आए। फिर भी अंजू की गेंद किसी तरह मिसेज मजूमदार की क्यारी में चली गई थी। उसने दो-तीन बार घंटी बजाई, ‘आंटी-आंटी’ कहकर गेट खटखटाया। लेकिन जब कोई बाहर नहीं निकला तो खुद क्यारी को गेट खोलकर गेंद लेने अंदर घुसी। तभी न जाने किस चमत्कार से मिसेज मजूमदार वहाँ नमूदार हुईं और बोलीं, ‘ठहर, तेरी यह मजाल!’ और तड़ातड़ एक के बाद एक कई चाँटे मार-मारकर अंजू के गाल लाल कर दिए।

    “पूरी राक्षसी है यह तो। मैं तो शक्ल देखकर ही कहा करती थी, पर यह तो अक्ल से भी वही है। पूरी, पक्की ताड़का!” श्यामला गुस्से से उफन रही थी। फिर थोड़ा सम पर आकर बोली, “तुम मिस्टर मजूमदार से कहो, जाकर सँभाले अपनी घरवाली को! वह फिर भी भला आदमी है।”

    “रहने दो, बात बढ़ेगी। किसी दिन दिखाई पड़ गए तो कहूँगा।”

    इससे श्यामला का गुस्सा फिर भड़क गया। बोली, “तुम्हारे बस का नहीं है तो मैं जाती हूँ अभी। सीधा करके आती हूँ उस चंडी को। पैसे वाले हैं तो क्या जान ले लेंगे हमारी!”

    “तुम जरा शांति से सोचो, श्यामला।” मैंने समझाने की कोशिश की, “आखिर गलती तो अंजू की है ना! अगर वह पूछकर जाती तो...?”

    “अरे, बच्चे खेलते हैं तो गेंद उछलकर चली ही जाती है किसी के घर। ये तो घर में नहीं, बाहर क्यारी में ही गई थी। तो क्या बड़ों का यह फर्ज है कि बच्चों को धुन डालें? इतनी भी अक्ल नहीं है इस औरत में?” थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा एक अव्यक्त सी करुणा और खीज में बदला, “अरे, इसे तो खुश होना चाहिए। बच्चे आसपास खेलते-चहचहाते हैं तो उनके साथ-साथ पूरा घर भी हँसता-खिलखिलाता है। बच्चों से ही तो रौनक है इस दुनिया की, और इसे बच्चे ही नहीं सुहाते! तभी तो देखते नहीं, कैसी मनहूसियत बिखरी पड़ी है इनके घर में! नहीं तो अब तक घर बच्चों से गुलजार होता। पर शाप लगा है इन पर। देखाना तरसेेंगे एक दिन, बुरी तरह—बुरी तरह...!”

    श्यामला भुनभुनाती रही देर तक और मैं बिना उसकी तरफ देखे भी, उसकी बातों में छिपे मर्म को देख पा रहे था।

    10

    उन्हीं दिनों—कोई महीने, पंद्रह दिन बाद ही—विक्की के साथ भी यही चक्कर पड़ा। विक्की की पतंग कटकर मिसेज मजूमदार की छत पर जा पहुँची। वह बाउंड्री फलाँगकर पतंग लेने गया तो आवाज शायद नीचे बैठी मिसेज मजूमदार के पतले, बहुत कानों में भी जा पहुँची। विक्की पतंग हाथ में लेकर लौट रहा था। तभी हाथ में डंडा लिए गरजती हुई मिसेज मजूमदार दिखाई दीं। इतनी तेजी से वे लपकीं कि छत की बाउंड्री पार करते विक्की लड़खड़ाया और संतुलन खोकर ऐन सिर के बल जा गिरा। उसका माथा लहूलुहान हो गया।...मैं और श्यामला दौड़कर पड़ोस की डॉक्टर शोभा के पास गए। दो-तीन टाँके लगे थे। पट्टी बँधवाकर लौटे तो अंजू एकाकी घर में उदास इधर-उधर टहल रही थी, बुरी तरह परेशान।

    श्यामला और मैं दुखी होकर पूरी रात जागते रहे। विक्की को बहुत देर में नींद आई। हम अंदर-अंदर रो रहे थे और बाहर मीठी-मीठी बातों से उसे हँस-हँसकर बहला रहे थे।

    विक्की के सो जाने के बाद भी नींद हमारी आँखें से कोसों दूर थी। और हैरानी की बात यह कि नींद अंजू को भी नहीं रही थी। वह अपनी चारपाई से उठकर मम्मी के पास आकर बैठ गई। बोली, “मम्मी, जब आप लोग भैया की पट्टी कराने गए तो पीछे से मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। मैंने भगवान जी से प्रार्थना की कि इस ताड़का माई को इतने कष्ट देना, इतने कष्ट कि जिंदगी भर याद रखे। मम्मी, मैंने ठीक किया ना!”

    श्यामला ने अंजू को गोद में लिया और फफककर रो पड़ी।

    बहुत मुश्किल से अंजू उस दिन सोई और हम देर रात तक जागते, बातें करते रहे।

    “हम बच्चों को समझा सकते हैं, श्यामला, कि तुम यह सोचो, कोई नहीं है हमारे पड़ोस में! इनसे जितना हो सके, दूर रहो!” मैं निराश स्वर में कह रहा था।

    “कैसे सोचें? आखिर ये आदमी हैं कि हैवान, जो बच्चों से इतनी नफरत करते हैं। जैसे खुद कभी बच्चे रहे नहीं होंगे!” अंजू कड़वाहट से भरकर कह रही थी।

    “पता नहीं, अपने बच्चे कैसे पाले होंगे इस चंडी ने! वे भी छोटे होंगे कभी न कभी। कुछ तो शरारतें करते होंगे।” श्यामला कह रही थी।

    “ऐसे ही पीटते होंगे बेरहमी से, और क्या!” अंजू ने चिढक़र मुँह बनाया। देखकर मुझे हँसी भी आई, गुस्सा भी।

    माहौल कुछ हलका हुआ तो अंजू सोई। मेरी और श्यामला की आँख तो बस सुबह ही कुछ देर के लिए लगी।

    अगले दिन हम सोच रहे थे कि मिस्टर मजूमदार को बुलाकर सारी बात कहें, पर वे खुद ही चले आए। आते ही बोले, “माफी माँगने आया हूँ। मेरी मिसेज थोड़ी ज्यादा गुस्से वाली हैं। मुझे ही वो कुछ नहीं मानतीं तो औरों को क्या समझेंगी! पर इतनी जिंदगी काट दी तो अब कुछ कह भी नहीं सकता। हाँ, उसकी ओर से मैं माफी माँग लेता हूँ दोनों हाथ जोड़कर!”

    अब आगे और बात क्या हो सकती है? हम यह सोचकर संतुष्ट थे कि चलो, इतना बड़ा आदमी आकर खुद माफी माँग गया। यही क्या कम है!

    पर श्यामला के मन में संदेह था—कहीं यह इन लोगों का बना-बनाया तरीका तो नहीं कि एक नरम रहे, एक गरम, ताकि कोई कुछ कह ना पाए। ऐसा शायद इसलिए उसने सोचा कि उसके बाद भी मिसेज मजूमदार की हरकतों में कमी नहीं आई। उनकी यह स्थायी टेक थी कि ‘आपके पेड़ों के पत्ते हमारी तरफ गिरते है। इन्हें कटवाइए, नहीं तो मैं खुद काट दूँगी।’ और फिर बड़बड़ाहट की तरह ये शब्द इधर से उधर गिरते-पड़ते सुनाई देने लगे।

    फिर कुछ रोज बाद यह बड़बड़ाहट कार्य-रूप में भी परिणत हो गई। वे नौकर को बुलाकर हमारे पेड़-पौधों को बुरी तरह कटवा देतीं और बहाना यह रहता कि पत्ते हमारी तरफ गिरते हैं। और कुछ रोज बाद तो उनके आँगन का सारा कूड़ा हमारे आँगन में आ गिरता। उसके पीछे भी तर्क यही है कि ‘आपके पेड़ों के पत्ते हमारी तरफ गिरते हैं, लिहाजा...!’ इधर हम पौधों में पानी डालें और दो-चार बूँदें भी उधर चली लाएँ तो प्रलय हो जाती कि अरे रे बाबा, सारा फर्श गीला हो गया! अब हमें फिर झाड़ू लगानी पड़ेगी। और इसके पीछे भी असली तर्क यही था कि उनके आँगन का फर्श कीमती मार्बल का था और हमारा फर्श कच्चा! लिहाजा हमारे यहाँ कूड़ा भी डालो तो जायज और उनके यहाँ पानी की दो-चार बूँदें भी चली जाएँ तो यह हमारी घोर असभ्यता थी।

    और एक दिन तो श्यामला ने मिसेज मजूमदार को सुबह-सुबह हमारे आँगन में कूड़ा फेंकते हुए साफ पकड़ लिया। जोर से चिल्लाई, “क्या कर रही हैं आप? बताइए!”

    इस पर एक क्षण के लिए तो उनका चेहरा भय के कारण सफेद पड़ गया, पर फिर अगले ही क्षण वे तेज कदमों से घर के अंदर घुस गईं।

    मिस्टर मजूमदार को अंदर से बुलाकर वह कूड़ा दिखाया गया। पर वे अंदर से ही हाथ जोड़े हुए निकले थे और माफी पर माफी माँग रहे थे।, बोले, “मैंने तो आपको पहले ही बताया कि ज्यादा गुस्से वाली है यह औरत। अब मेरा जीवन तो हैल किया सो किया, मैं कहता हूँ, पड़ोसियों का तो न करो।”

    “ज्यादा गुस्से वाली है तो क्या दूसरों का सिर फोड़ देगी?” श्यामला ने गुस्से में कहा, “ज्यादा गुस्सा है तो अपने घर में दिखाए, दीवारों से सिर मारे।”

    “असल में बेटी की बात...बेटी की बात! वह आप नहीं समझेंगे। बहुत बड़ा सदमा लगा है इस लेडी को। बेटी से ज्यादा प्यार वह किसी को नहीं करती। पर आप जानते ही हैं, इसी बात पर वो गुस्सा है, कलपती रहती है और घर में यही गुस्सा हम सब पर! आप प्लीज, उसे माफ कर दीजिए।” मिस्टर मजूमदार ने एक बार फिर हाथ जोड़े।

    लेकिन मिसेज मजूमदार का गुस्सा वही। उनकी हरकतें भी उसी तरह की ओछी, घटिया। उनको लगता था, हमारे पेड़ के दो-चार पत्ते अगर उधर गिर जाएँ तो इसमें क्या गलत है कि वे अपने आँगन का सारा कूड़ा हमारे आँगन में डाल देती हैं। और बच्चों के लिए तो वे हर वक्त दाँत किटकिटाती नजर आतीं।

    ‘यहाँ का बाच्चा लोग बहुत बदमाश है।’ यह उनकी बातचीत या भुनभुनाहट की स्थायी टेक थी। और दो-एक दिन छोड़कर कोई न कोई बच्चा उनकी गिरफ्त में आ जाता। बुरी तरह पिटता था। और फिर लड़ाइयाँ, झगड़े। मिस्टर मजूमदार का माफीनामा! दो-एक लोगों ने तो पुलिस में जाने की धमकी भी दे दी थी। लेकिन मिसेज मजूमदार का व्यवहार वही और चेहरा पहले से अधिक क्रूर और चटियल।

    “क्या होता जा रहा है इस औरत को? कहीं यह मानसिक रोगी तो नहीं?” श्यामला का गुस्सा कई बार अबूझ करुणा में बदल जाता।

    “यह है ही ऐसी, श्यामला। मैंने ऐसी घटिया औरत अपनी पूरी जिंदगी में कोई और नहीं देखी।” चिढक़र मैं कहता।

    “घटिया नहीं, अजीब! जरूर इसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है, अक्षय। मुझे अब पूरा यकीन हो चला है।” कहकर श्यामला बातचीत को एक अलग संदर्भ दे देती। लगता था, मिसेज मजूमदार का उसने कोई गहरा-गहरा-सा साइकोएनालिसिस किया है।

    11

    फिर मिसेज मजूमदार का वह रूप भी दिखाई दिया, जिसकी किसी को खबर नहीं थी।

    हुआ यह कि उनके दामाद के सीरियसली बीमार होने की खबर लोगों को मिली और फिर एकाएक गुजर जाने की। सबसे पहले वेलफेयर कमेटी के मिस्टर सोनी को यह खबर मिली। फिर मिसेज सोनी ने अड़ोस-पड़ोस की औरतों तक इसे पहुँचाया। वे सब मिलकर श्यामला के पास आईं। बोलीं, “देखो बहन, इस दुख की घड़ी में तो हमें मिसेज मजूमदार को सांत्वना देने जाना ही चाहिए। फिर चाहे वे जैसी भी हों, घमंडी, लड़ाका या और कुछ भी।...”

    श्यामला क्या कहती! वह चुपचाप उनके साथ चल पड़ी। इतनी औरतों को दरवाजे पर आया देख, मिसेज मजूमदार बाहर निकलकर आईं। बगैर फाटक खोले सवालिया नजरों से उनकी तरफ देखा और पूछा, “कहिए?”

    अब क्या कहा जाए, किसी की समझ में नहीं आया। वे दुख में सांत्वना प्रकट करने आई थीं, पर यहाँ जो औरत थी, वह दुख में दुखी कम, रणचंडी अधिक लगती थी।

    “सुना है, मिसेज मजूमदार, आपके दामाद...!” मिसेज सोनी ने किसी तरह हिम्मत की।

    “हमारा उससे कोई मतलब नहीं। आप लोग जाइए।” मिसेज मजूमदार हाथ फटकारकर बोलीं, तो औरतें और अधिक हक्की-बक्की रह गईं।

    सारी औरतें उलटे पैर लौट आईं और आपस में खुस-फुस करने लगीं।

    “हे राम! ऐसी भी हो सकती है कोई औरत!” शीला हैरानी से कह रही थी।

    “हमें अच्छी तरह पता है,” मिसेज सोनी बता रही थीं, “इसके मरद के एक दोस्त ने खुद बताया हमारे हस्बेंड को कि ये लोग सबके सब गए थे जीवन नर्सिंग होम में। पूरे तीन दिन रहे हैं वहाँ। लड़की भी साथ गई थी। कल देर रात लौटे हैं और अब ड्रामा कर रहे हैं कि हमारा कुछ मतलब नहीं। कैसी दुचाली हौरत है!”

    “मौत पर भी ड्रामा! हे राम, ऐसी कोई औरत तो देखी नहीं हमने अपनी पूरी जिंदगी में!”

    और श्यामला सोच रही थी, मुझे क्या जरूरत थी खामखा अपनी इंसल्ट कराने की? इतने दिनों से अबोला वैसे ही था। अब यह ऊपर से डंडे की मार और!

    “कैसी अजीब औरत है!” उस दिन लौटकर श्यामला ने मुझे बताया था, “जब मोहल्ले की इतनी औरतें आकर दरवाजे पर खड़ी हैं तो कम से कम इतनी सभ्यता तो होनी ही चाहिए कि दरवाजा खोलकर अंदर बिठा लें। वरना फालतू टाइम किसके पास है? हम खुद ही दो मिनट बाद उठकर चले आते।”

    उससे श्यामला को वह प्रसंग एक बार फिर याद आ गया, जब पहली बार वह पड़ोस होने के नाते मिसेज मजूमदार से मिलने गई थी कि उन्हें किसी चीज की जरूरत तो नहीं! और उन्होंने उलटा चेहरे पर सवालिया निशान बनाकर पूछा था, क्या काम है? “यह औरत तो बात करने लायक ही नहीं है। यह नहीं कि इसमें ऐटीकेट्स नहीं हैं, बल्कि यह भीतर से जानवर है, जानवर!”

    श्यामला धीरे-धीरे बुदबुदा रही थी। फिर एकाएक जोर से बोली, “नहीं, अब कभी नहीं जाना इसके घर। बेटी की शादी में चले गए, यही भारी गलती की। मगर अब खत्म, हमेशा-हमेशा के लिए खत्म!”

    लौटकर उसने निश्चयात्मक स्वर में, लेकिन हलके विषाद के साथ बताया, “लो, छुटकारा मिल गया! अब हमेशा-हमेशा के लिए संबंध खत्म। न कभी शक्ल दिखाई पड़ेगी और न अच्छा-बुरा कुछ सोचने की...!”

    पर मामले क्या उस तरह खत्म होते हैं, जैसे हम चाहते हैं?

    12

    जिस दिन सुबह उठते ही श्यामला ने साझी दीवार पर गमले रखे थे, उसी दिन से फेंस के दूसरी ओर मिसेज मजूमदार की बड़बड़ाहट शुरू हो गई।

    “पहले हवा तो आती थी, अब हवा भी बंद कर दी। कैसे लोग हैं! हवा क्यों बंद कर दी? देखना, मैं उठवा दूँगी इनको, जरूर उठवा दूँगी।”

    शाम को मिसेज मजूमदार और उनके घरेलू नौकर श्यामू का संवाद भी सुनाई दिया।

    “श्यामू, कल सुबह-सुबह उतार के रख देना इनको। याद रहेगा ना?”

    “उतारकर रखूँगा कहाँ, बीबी जी?”

    “अरे, इनकी तरफ ही पटक देना कहीं!”

    “रहने दो, बीबी जी!”

    “रहने क्यों दूँ?...हवा नहीं आती। मेरी हवा क्यों रोक ली?”

    श्यामला ने सुना, पर निश्चिंत रही। बोली, “देखना, बड़बड़ा तो रही है, पर हिम्मत इसकी नहीं पड़ेगी गमलों को हाथ लगाने की! अब जान गई है मुझे भी कि मैं दबने वाली नहीं!”

    दो-तीन दिन गुजरे। फिर एक दिन गमला जरा सा सरकाकर मिसेज मजूमदार का चेहरा नमूदार हुआ। सामने अंजू दिखाई पड़ी तो उसी को इशारा करके बोली “बेटा, अपनी मम्मी को तो बुला।”

    श्यामला के आते ही वह चालू हो गई, “देखिए, मैं आपसे कह रही हूँ, ये गमले हटा लीजिए, वरना मैं श्यामू से कहूँगी। हटवा दूँगी किसी दिन रात को। मुझे नहीं अच्छे लगते, हवा रोक दी है मेरी सारी।”

    इधर श्यामला भी भरी बैठी थी। एकाएक आगबबूला होकर बोली, “अगर इन गमलों को किसी ने हाथ भी लगाया तो देखना, उठा-उठाकर आपके सारे गमले जमीन पर पटक दूँगी। समझा क्या है! हम बर्दाश्त करते जा रहे हैं इसीलिए?”

    फिर थोड़ी तंज के साथ बोली, “जब हम एक-दूसरे की शक्ल ही नहीं देखना चाहते, दो बात भी नहीं करना चाहते तो क्या जरूरी है कि दिखाई दें एक-दूसरे को? ये गमले मैंने इसीलिए रखे हैं। न एक-दूसरे की शक्ल देखेंगे और न मन में कोई बात आएगी।”

    श्यामला इतने जोर से बिफर पड़ी थी कि मिसेज मजूमदार हक्की-बक्की रह गईं। बल्कि उनके हाथ-पैर काँपने लगे और यह कंपन उनके चेहरे को देखकर भी लक्षित किया जा सकता था। वे दौड़कर भीतर चली गईं। और श्यामला ने गमले को फिर हिलाकर पहले वाली जगह पर रख दिया।

    13

    उसके दो दिन बाद फिर मिसेज मजूमदार की बड़बड़ाहट शुरू हो गई। पहले थोड़ी धीमी, फिर थोड़ी तेज। और आश्चर्य, हमारी तरफ आकर थोड़ी हलकी पड़ जाने पर भी उसका मतलब साफ-साफ समझ में आ जाता था।

    “हाँ-हाँ, मैं काली हूँ ना! जानती हूँ, मेरी शक्ल अच्छी नहीं है। इसलिए मेरी शक्ल नहीं देखना चाहती। मुझसे नफरत करती है।...जानती नहीं हूँ क्या मैं, सब जानती हूँ।”

    दो-तीन दफा जब यही डायलॉग सुन लिया श्यामला ने तो अपनी तरफ से चिल्लाकर कहा, “शक्ल कौन देखता है, मिसेज मजूमदार? आदमी की इंसानियत देखी जाती है, इंसानियत! शक्ल न अच्छी हो, पर किसी से दो मीठे बोल बोलने में तो कुछ नहीं जाता। कड़वा बोलो तो अपना भी जी दुखता है, सामने वाले का भी।”

    न श्यामला मिसेज मजूमदार को देख पा रही थी और न मिसेज मजूमदार श्यामला को। मगर बगैर शक्ल देखे भी डायलॉग बदस्तूर जारी था। और ईंट पर पत्थर की तरह जवाब पर जवाब दिए जा रहे थे।

    इसका नतीजा यह हुआ कि मिसेज मजूमदार की बड़बड़ाहट बंद हो गई। मगर कड़वेपन का दंश उनके भीतर से नहीं गया। इसका सबूत भी जल्दी ही मिल गया।

    मिसेज मजूमदार की कोई परिचित भद्र महिला आई हुई थीं। शायद कोलकाता के दिनों की पुरानी पहचान थी। उनके आगे वे बखान कर रही थीं, “अब देखो ना, हम बंगाली लोगों का कल्चर कितना अच्छा है। यहाँ का कल्चर तो बस एग्रीकल्चर है! बाकी कुछ नहीं जानता यहाँ हरियाणा का लोग। यहाँ का लोग तो भैंस का दूध पीता है और भैंस वाली अक्कल...!”

    श्यामला ने मुझे बुलाया और कहा, “देखो, कैसी भद्दी बातें कर रही है और वह भी हमें सुना-सुनाकर!”

    हमने सोचा, कुछ देर बाद यह प्रसंग खुद-ब-खुद थम जाएगा। पर मिसेज मजूमदार तो आज अपनी कल्चर की महिमा बखानने में पूरी तरह लीन थीं। इस पर श्यामला के लिए खुद को जज्ब करना मुश्किल हो गया। चिल्लाकर बोली, “यहाँ के लोगों का कल्चर अगर एग्रीकल्चर है तो क्या बुरी बात है! कम से कम इतनी तमीज तो लोगों में है कि कोई मिलने आए तो दरवाजा खोलकर भीतर बिठा लें। चाय-पानी पूछते हैं, दो बातें करते हैं, जबकि कल्चर वाले को तो इतनी भी तमीज नहीं कि कोई मिलने आए तो जरा गेट ही खोल दें। ऐसे कल्चर से तो एग्रीकल्चर ही भला!”

    इस पर दूसरी ओर ऐसा सन्नाटा छा गया, जैसे पूरी की पूरी फौज धराशायी हो गई हो। और बात करना तो छोड़, कोई हिल-डुल भी न रहा हो।

    “देख लिया ना! अब क्यों साँप सूँघ गया? असलियत सामने आ गई, इसलिए...?” कहकर श्यामला विजय-गर्व के साथ दनदनाती हुई अंदर चली आई।

    उसके बाद महीनों युद्धभूमि में शांति का पसारा रहा।

    14

    “जो भी हो, लेकिन बेटा अच्छा है इनका।” एक दिन सुशांत मोटर साइकिल पर घर से निकला तो उसे लक्ष्य कर, श्यामला ने कहा। फिर कुछ सोचती हुई सी बोली, “हर वक्त काम में लगा रहता है। बस, अपने काम से काम। डेढ़-दो साल से फैक्टरी खोली है, तब से तो और भी ज्यादा बिजी हो गया है। न दिन को दिन समझता है, न रात को रात। बस दौड़ता ही रहता है। इस उम्र में लड़कों में सौ ऐब होते हैं, मगर यह एकदम अलग है। पहले भी मैं देखा करती थी, जब ट्यूशन पढ़ाया करता था बच्चों को, लड़के-लड़कियाँ रात-दिन पढ़ने आते थे। कई-कई बैच...! कई बार देखा, बाहर खड़ा उनसे बातें कर रहा है। हँसी-मजाक भी कर लेगा, पर मजाल है, किसी लड़की तरफ आँख उठाकर भी देख ले।”

    कुछ देर बाद हँसकर बोली, “पता नहीं, इस लड़ाका औरत के घर पैदा कैसे हो गया? जैसा प्यारा नाम, वैसा ही प्यारा लड़का है।”

    फिर मुझे चुप और गंभीर देखकर थोड़ी पास आई और बोली, “बेटी से बिलकुल ही उम्मीद टूट गई मिसेज मजूमदार की। पर हाँ, अब यह बेटा है जिस पर जान निसार करती हैं।” कुछ देर बाद बोली, “हालाँकि यह औरत ऐसी महाचंडी है, अक्षय, कि मुझे लगता है, इसके अभिशाप की छाया इसके बेटे को भी ले डूबेगी। देखना, देख लेना तुम!”

    फिर एक उसी तरह गेट पर से दो बंगाली रसगुल्ले एक प्लेट पर सवार होकर अंदर सरके। अंजू को अंदर से बुलाकर वह प्लेट थमाई गई। और जब श्यामला अंदर से निकलकर बाहर आई तो देखा, सकपकाई हुई मिसेज मजूमदार चेहरे को कोमल-कोमल-सा बनाकर कह रही थीं, “लड़की देख ली है अपने सुशू के लिए। अगले महीने शादी है—15 दिसंबर! आना है आप सभी को।”

    और रात में श्यामला ने मुझे बताया, “मैं तो मना करने वाली थी, अक्षय, पर वह लड़का सुशांत कितना अच्छा है, कितना प्यारा है कि मन से आशीर्वाद निकलता है। कभी-कभार मुसकराकर ‘विश’ भी कर लेता है। बात भी करता है तो खूब समझदारी की। उस पर असर नहीं है इस रणचंडी का।”

    बहरहाल सुशांत की शादी हुई तो थोड़ी अनिच्छा से ही सही, हम सभी शामिल हुए। सबसे ज्यादा उत्साहित थी श्यामला। मानो मिसेज मजूमदार के साथ हुए पिछले सारे झगड़ों का कड़वा इतिहास भूल चुकी हो। उत्साह उनके भीतर से फूट-फूटकर बह रहा था। अंजू और विक्की भी खुश थे, पर इतना उत्साहित तो शायद हममें से कोई नहीं था जितनी श्यामला।

    फिर नई बहू के आने पर उसके स्वभाव और मुँह दिखाई की चर्चा हुई।

    “नई बहू पतली-सी, सुंदर, सुसंस्कारित लगती है।” श्यामला ने ही बताया।

    कुछ रोज बाद उसी से समाचार मिला, “नई बहू एकदम सीधी-सादी है। कोई छल-कपट, कोई आडंबर नहीं। हे भगवान, कैसे बच पाएगी इस ताड़का से?” श्यामला ने कुछ चिंतित होकर कहा।

    “अरे, उसे इस ताड़का माई से निभाना है कि अपने आदमी से? तुम भी खामखा चक्कर में पड़ जाती हो।” मैंने छेड़छाड़ की।

    पर श्यामला वाकई चिंतित थी। बोली, “तुम नहीं जानते, इस घर में ताड़का माई के सिवा किसी और की नहीं चलती। लड़का भी ऐसा मातृभक्त है कि माँ कहे, धूप में एक टाँग पर खड़े रहो दिन भर तो खड़ा रहेगा।”

    और सचमुच जो आशंका श्यामला ने जताई थी, उसके प्रमाण भी मिलने शुरू हो गए थे।

    अभी तक नौकरों और माइयों पर धौंस जमाती आई थी मिसेज मजूमदार। तमाम माइयाँ छोड़-छोड़कर चली गई थीं। उनके यहाँ कोई माई टिकती ही नहीं थी। लेकिन अब जो घर में एक स्थायी नौकर आ गई थी, उसे वे भला कैसे छोड़तीं? बात-बात में उसकी गलतियाँ निकाली जातीं कि ‘रंजना को खाना पकाना नहीं आता। रंजना गाना नहीं गा सकती। हमारी बेटी सुप्रिया देखो, रवींद्र-संगीत में कैसी पारंगत है। और एक यह है, हूँ!’

    दीवाली से शायद दो-एक रोज पहले की बात है, बहू सुबह-सुबह घर के द्वार पर अल्पना बना रही थी और सास किसी डिक्टेटर की तरह पास में तनकर खड़ी थी। मुँह चढ़ाए नुक्स निकाल रही थी। ऐसे नहीं वैसे, यह बिगाड़ दिया, वह बिगाड़ दिया।...

    हम सुबह-सुबह घूमने निकले थे और इस दृश्य को चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सके। हमारा ध्यान उधर जाते ही बहू के चेहरे पर जो सकपकाहट और रुकी हुई रुलाई आ गई, उसी से हम समझ गए कि कहीं कुछ गलत है। यानी इसकी भाग्य-लिपि के अक्षर सीधे नहीं। फिर सास के डपटने और बहू के रोने की आवाजें दूर तक और देर तक हमारा पीछा करती रहीं।

    लगता है, अशुभ घट चुका था।

    ...दीवाली के अगले रोज बहू गई, तो बहुत दिनों तक लौटकर नहीं आई।

    एक-दो नहीं, पूरे छह महीने बीत गए। फिर आई कुछ रोज के लिए और फिर रोते-फफकते हुए विदा हुई। शायद उसके अपने माँ-बाप ही आकर ले गए। बड़ी गरमागरमी हुई, बड़ा शोर, जिसमें कुछ भी साफ समझ में नहीं आ रहा था। मगर इतना जरूर समझ में आ रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ है। कहीं कुछ भारी गड़बड़!

    फिर साल भर होते न होते मिसेज मजूमदार के अमृत-वाक्य हवा में इधर-उधर तैरते पाए गए कि ‘हमें तो लड़की शुरू से ही पसंद नहीं थी। हम तो फँस गए, धोखा खा गए। लड़की को कैरेक्टर ठीक नहीं था और वैसे भी, माँ-बाप ने कुछ नहीं सिखाया। किसी काम की नहीं, कोई अक्कल नहीं।’

    फिर कुछ रोज बाद मिसेज मजूमदार ने किसी गली-मोहल्ले की परिचित महिला से बात चलने पर साफ-साफ घोषणा ही कर दी, “अब वो नहीं आएगी। हमने तो तलाक की तैयारी कर ली है। हमारा तो सोने जैसा बेटा है, फँस गया। लड़की न शक्ल की, न अक्ल की। जाने कैसे इसके पल्ले बँध गई!”

    फिर मालूम पड़ा कि तलाक नहीं, आपसी सहमति से मामला बन गया है। पूरे सात लाख देने पड़े। कागजों पर दस्तखत हुए और मामला खत्म! लड़का खुद गया था, साथ में माँ-बाप और बहन भी। किसी मध्यस्थ के घर में जाकर सारी कागजी कार्रवाई हुई। लड़की और उसके माँ-बाप वहीं आ गए थे और सब कुछ बगैर तनाव के शांतिपूर्वक निबट गया।

    फिर सुना, सुशांत की दूसरी शादी की तैयारियाँ हो रही हैं। लड़की देखी जा रही है। नहीं, देख ली गई है!

    फिर सुना कि यह मकान ही मनहूस है। यहाँ बेटी का भी काम बिगड़ा, बेटे का भी। अब यहाँ और नहीं रहना। शादी नए मकान में जाकर होगी।

    फिर सुना कि ये लोग और भी बड़ा मकान ढूँढ़ रहे हैं, तीन मंजिल वाला। बेटे की शादी होगी तो एक फ्लोर पर सास-ससुर, दूसरे पर बेटा-बहू, तीसरे पर बिजनेस का सामान और स्टोर वगैरह।

    और फिर एक दिन सभी चर्चाओं पर विराम लगाकर पति और बेटे सहित ट्रक पर सामान लादकर मिसेज मजमूदार चली गईं।

    हाँ, जाने से पहले वे अनपेक्षित रूप से श्यामला से मिलने आईं और उनके मुख पर बोल थे, “जो गलती हुई, वो तुमसे हुई या हमसे हुई, उसे भूल जाओ!”

    जाने से पहले वे अपना पता दे गईं, “जरूर आना! गेट खोलकर अंदर बैठाऊँगी, चाय भी पिलाऊँगी।” एक फीकी-सी हँसी।

    भले ही बीते दिनों के झगड़े को उन्होंने मजाक का रूप दे दिया हो, पर पहली बार उनके चेहरे पर एक अजब-सी लाचारी नजर आई। एक लाचार, टूटी हुई औरत। आश्चर्य! इससे पहले वे कभी ऐसी नहीं लगी थीं।

    15

    मिसेज मजूमदार ने चलने से पहले जब श्यामला का हाथ थामकर कहा था, “आना, जरूर आना!” तब शायद वे भी जानती रही होंगी और श्यामला भी कि आना-जाना किसने है?

    पर बहुत-सी चीजें, जो हम सोच नहीं पा रहे होते, वे भी होती हैं।

    हुआ यह कि एक दिन रास्ते में श्यामला को मिसेज मजूमदार दिखाई दे गईं तो उन्होंने हाथ पकड़कर कहा, “एक अच्छा समाचार है। चलो, घर चलो।”

    श्यामला सब्जी खरीदकर आ रही थी, हाथ में झोला था। बोली, “फिर आऊँगी।” पर मिसेज मजूमदार का प्यार आज उफान पर था। बोलीं, “नहीं, चलो, चलना है।”

    श्यामला मिसेज मजूमदार के साथ उनके घर गई तो यहाँ सुशांत की नई बहू वर्तिका से मिलना हुआ। एकदम अनपेक्षित, आह्लादक।

    वही चाय बनाकर लाई थी। खूब सलीकेदार, सुसंस्कारित लड़की! श्यामला कोई घंटे भर वहाँ बैठी और इस घंटे भर में बहुत-सी बातें हुईं, खूब जी भरकर। तभी पता चला कि वर्तिका की साहित्य और संगीत में रुचि है और वह सितार बहुत अच्छा बजाती है। श्यामला ने भी साहित्य और संगीत की बात छेड़ी तो दोनों देर तक एक ही सुर-लय में बहती रहीं और मिसेज मजूूमदार देख-देखकर गद्गद।

    ये मिसेज मजूमदार पुरानी मिसेज मजूमदार से भला कितनी अलग थीं।

    लौटकर श्यामला ने वर्तिका के बारे में अपनी भली-भली सी राय के इजहार के साथ एक लंबी साँस लेकर कहा था, “हे ईश्वर, इस पर बुरी छाया न डालना। ये दोनों प्राणी सुखी रहें, खुशी मनाएँ।”

    इसके कुछ रोज बाद मिसेज मजूमदार आईं तो वे पहले से अधिक थकी हुई और हताश लगीं। श्यामला ने उनका मन बढ़ाने के लिए कहा, “अब तो सबको खुश होना चाहिए, मिसेज मजूमदार! बहू आ गई है और इतनी अच्छी बहू कि क्या कहा जाए!”

    इस पर मिसेज मजूमदार के चेहरे पर सुख की एक अव्यक्त-सी लौ कँपकँपाई और बुझ गई। बोली, “हाँ, बहू तो अच्छी है, पर क्या कहूँ श्यामला, अपने में बंद-बंद-सी है। तुम आईं उस रोज तो तुमसे कितनी सारी बातें कर ली, पर हमसे कोई बात नहीं होती। पूरा-पूरा दिन गुजर जाता है, पर एक भी बात नहीं होती। कोई काम बताओ तो चुपचाप कर देगी, पर बात नहीं। मैं टोकती हूँ तो कहती है, ‘मम्मी, क्या बात करूँ?’ बताओ, ऐसी भी होती है कोई बहू!” कहते-कहते उनके चेहरे पर एक लंबी थकान तारी हो गई थी।

    फिर उन्होंने बताया, “अब तो बहू ऊपर ही रहती है, नीचे नहीं आती। सारा दिन अकेलेपन में काटना पड़ता है!”

    “मिस्टर मजूमदार सुबह-सुबह फैक्टरी चले जाते हैं। बेटा भी दिन भर फील्ड में रहता है। अब रह गईं हम दो जानीं। दोनों अलग-अलग फ्लोर पर पड़ी रहती हैं, दो भटकती आत्माओं की तरह। मैं कभी-कभी आवाज देकर बुला लेती हूँ कि ‘आओ वर्तिका, नीचे आ जाओ। दो बात कर लो!’ पर वह चुप लगा जाती है। एक बार चुप लगा ले तो उसके मुँह से कोई एक शब्द नहीं सुन सकता। ऐसा पक्का अलीगढ़ी ताला लग जाता है।”

    कहते-कहते पता नहीं, मिसेज मजूमदार हँस रही थीं या रो रही थीं।

    “कोई बात नहीं मिसेज मजूमदार, बेटा-बहू तो खुश हैं ना। और आपको चाहिए भी क्या!”

    “हाँ!” मिसेज मजूमदार की खोई-खोई-सी आवाज आसपास जाने कहाँ-कहाँ चक्कर काटती हुई सी मँडराती है। पंखकटे परिंदे जैसी।

    सब कुछ पाकर भी क्या है जो खो गया है, वे जान नहीं पातीं। और श्यामला के भरपूर तसल्ली देने के बाद भी वे अंदर से खाली-खाली हैं। लौटकर गईं तो श्यामला के भीतर अपनी उन्हीं दो खाली-खाली आँखों के अक्स छोड़ गईं।

    उस रात देर तक श्यामला मिसेज मजूमदार की ही बातें करती रही थी। उनके घर का जो चित्र उसने मेरी आँखों के आगे खींचा था, वह विचित्र और हैरान कर देने वाला था। खूब बड़ा सा, कई कमरों वाला तिमंजिला मकान। एक फ्लोर पर अकेली स्त्री नीचे, दूसरे फ्लोर पर अकेली स्त्री ऊपर। तीसरा फ्लोर खाली-खाली, भूत महल-सा, जिसमें थोड़ा-सा कूड़ा-कबाड़ भरा है। इतने बड़े घर में दो स्त्रियाँ अलग-अलग हवा में साँस लेती हुई और उनमें कोई संवाद नहीं! एक शब्द का भी परस्पर विनियम नहीं! यह कैसी जिंदगी है? कैसा रिश्ता?

    सुनकर मैंने कहा, “चिंता न करो, श्यामला। जब तक यह संवादहीनता है, तभी तक नई बहू बची हुई है। संवाद शुरू होते ही यह नुक्ताचीनी शुरू हो जाएगी कि बहू को यह नहीं आता, वह नहीं आता! फिर दाँत किटकिटाए जाएँगे। तब फिर पहले जैसी हालत होते क्या देर लगेगी? तो यह संवादहीनता तो नई बहू की सुरक्षा कवच है—आयरन कर्टेन! मुझे तो बहुत समझदार लगी यह।”

    पर श्यामला चुप है। एकदम चुप। थोड़ी देर बाद किसी कराह की तरह उसके भीतर से निकलता है, “पर मिसेज मजूमदार का दर्द भी तो समझो, अक्षय। वह जो इतनी दबंग औरत है, लेकिन आज...!”

    “पता नहीं क्यों, मुझे वह नहीं व्यापता, श्यामला।” मैंने कहा और बात झटके से खत्म कर दी।

    असल में, झूठ क्यों बोलूँ, श्यामला का मिसेज मजूमदार के लिए द्रवित होना मुझे जरा भी नहीं सुहाता। बार-बार मेरे भीतर से ये शब्द निकलते हैं, ‘यह जघन्य अपराधी के प्रति द्रवित होना है। जिसका कोई मतलब नहीं—कुछ मतलब नहीं!’

    16

    मिसेज मजूमदार का हमारे घर आना-जाना इधर बढ़ा है। मुझे यह खतरे की घंटी लगती है और यह भय भीतर सनसनाता-सा रहता है कि कहीं फिर इनमें आपस में किसी बात पर ठन ना जाए।

    पर श्यामला अक्सर बड़ी संजीदगी से मिसेज मजूमदार का जिक्र करती है कि वे आई थीं, बेचारी परेशान हैं।

    “परेशान?” मैं भौंहों में हँसता हूँ, “मिसेज मजूमदार और परेशान?”

    “हाँ, वही चक्कर!” श्यामला सीरियस होकर बताती है, “बहू जब से ऊपर गई है, तब से उसने समझ लिया है कि मेरा घर तो ऊपर है। इधर मिसेज मजूमदार सारे दिन घर में ऐसे चक्कर काटती हैं जैसे काल-कोठरी में हों। कह रही थीं, ऐसे तो मैं पागल ही हो जाऊँगी, श्यामला! फिर बोलीं, ‘तुम भी कभी-कभी आ जाया करो ना! तुमसे तो उस दिन कितनी अच्छी बातें की थीं वर्तिका ने। बाद में भी बड़ी तारीफ करती रही कि ये मुझे पढ़ी-लिखी, संभ्रांत महिला लगती हैं। खुद भी आजकल रिसर्च कर रही हैं न बँगला पोएट्री पर! रात-दिन बस, किताबें...पढ़ाई! मैं कहती हूँ, पढ़ाई से क्या होगा वर्तिका? पर उसकी समझ में आता ही नहीं। आप आइए, आकर समझाइए कभी!’ मुझसे कम से कम तीन-चार बार कहकर गई हैं मिसेज मजूमदार। अब मैंने ऊपर-ऊपर से कह तो दिया कि आऊँगी, पर अंदर से हिम्मत नहीं पड़ती उस विशाल किले के अंदर दाखिल होने की!” श्यामला बता रही थी।

    “मैंने तो यह भी कहा कि वैसे तो मिसेज मजूमदार, बस थोड़े दिन की ही बात है। एक बच्चा आ जाए आपके घर में, तो उस नन्हे-मुन्ने मेहमान के आने से आपका पूरा घर ठुमकने लगेगा। नीचे-ऊपर का सारा अलगाव खत्म! इस पर मिसेज मजूमदार के चेहरे पर बड़ा कोमल-कोमल-सा भाव आ गया था। बोलीं—हाँ, बात तो ठीक कह रही हो श्यामला, पर मुझे तो नजर नहीं आ रहा। अभी तो कोई लक्षण नहीं! मैंने पूछा—कहीं ऐसा तो नहीं कि वर्तिका अभी चाहती न हो? पढ़ाई-लिखाई के लिए उसे ज्यादा समय की दरकार हो! इस पर बोलीं—नहीं, कितनी जगह तो दिखा चुकी! कहते-कहते उनका चेहरा दरक-सा गया।

    “मैंने तसल्ली देते हुए कहा कि चिंता न कीजिए मिसेज मजूमदार, कभी-कभी देर हो जाती है। पर ऐसा कुछ नहीं है, आपका घर तो गुलजार होगा ही! ऐसा अच्छा बेटा, ऐसी प्यारी बहू है तो! इस पर जवाब में ‘हाँ, वह तो है, पर...’ कहती मिसेज मजूमदार की आँखें छलछला आई थीं। फिर मानो रोते-रोते ही उन्होंने बात कहीं थी कि सुख नहीं है हमारे घर में श्यामला, सुख नहीं है। यों ईश्वर का दिया सब कुछ है, पर बेकार!”

    श्यामला मिसेज मजूमदार से हुई बातचीत को पूरे भाव-प्रदर्शन के साथ बता रही है। नाटक के भीतर का एक नाटक उसकी आँखों में साफ दिखता है।

    बीच-बीच में उसे टोकने की इच्छा होती है, “श्यामला, बचो! इस खामखा की भावुकता से बचो!” पर जाने क्यों, मेरी हिम्मत नहीं होती।

    17

    आज इतवार है। चाय पीकर अखबार देखने में जुटा हूँ। पर मिसेज मजूमदार अखबारों को परे सरकाकर फिर ऐन आँख के आगे आकर बैठ गई हैं। उसी तरह पालथी मारकर जैसे कभी अपने घर के दरवाजे पर बैठा करती थीं। मकान नंबर 72 की भारी-भरकम मालकिन।

    श्यामला के खजाने से आजकल सारी बातें खत्म हो गई हैं! बस, एक मिसेज मजूमदार, वही दिन में...वही रात। उनके जिक्र के बगैर उसकी कोई बात पूरी नहीं होती।

    मैं अभी सोच ही रहा हूँ कि अखबार पढ़ने के बाद कौन सा काम हाथ में लिया जाए कि श्यामला ने फिर गंभीरता, अतिशय गंभीरता से वही सुर-ताल छेड़ दिया है—मिसेज मजूमदार!

    “मैंने हर तरह, हर कोण से विचार किया है, अक्षय! और मुझे लगता है मिसेज मजूमदार के घर में यह सुख कहीं और से नहीं आएगा। इस घर में ही जन्म लेगा, एक बच्चे की शक्ल में। वह पूरा घर मानो उसी बच्चे की प्रतीक्षा कर रहा है।”

    श्यामला के विचार मानो सारे-रे-गा-मा के संगीत पर बहे जा रहे हैं—जल में कमल की तरह।

    मुझे चुप देखकर वह अपने ख्यालों की डोर को कुछ और आगे बढ़ाती है, “मुझे तो यह एक अद्भुत फेंटेसी की तरह लगता है, अक्षय! एक अनोखी परीकथा कि एक पूरा घर, वहाँ के सभी लोगों और सामान के साथ-साथ मूच्र्छित पड़ा है।...बेहोश या निर्जीव कह लो। वह बस बच्चे की प्रतीक्षा में है। उस बच्चे के पैर के अँगूठे का स्पर्श होते ही मानो हर चीज में जान पड़ जाती है और घर के लोग आपस में बोलने-बतियाने, चलने और हँसने लगते हैं। है न अद्भुत! कितना अद्भुत है!!”

    श्यामला अपनी भावना में बहती हुई बता रही है, पर जाने क्यों, मुझे यह सब नहीं व्यापता।

    मुझे इसी समय याद आता है कि अंजू और विक्की की किस बुरी तरह धुनाई की थी उस रणचंडिका ने। सामने मैदान में खेलते छोटे-छोटे मासूम बच्चों को देखकर कैसे दाँत किटकिटाती थी। बच्चों की शक्ल देखते ही इसकी आँखें में काँटे उग आते थे, क्योंकि वे दूसरों के बच्चे थे और आज...?

    मैं उत्तेजना में यही सब श्यामला के आगे उगल देता हूँ। गुस्सैल शब्दों का एक बेतरतीब ढेर। कहता हूँ, “यह तो इतनी क्रूर महिला है, श्यामला, कि इसको यही समझ नहीं कि बच्चे दूसरों के हों या अपने, वे तो बच्चे ही हैं। और बच्चे तो सभी के प्यारे होते हैं! और तो और, यह तो हमारे पेड़ों तक से ईष्र्या करती थी और बार-बार बड़बड़ाती थी कि हमारे आँगन में आपके पेड़ों के पत्ते गिरते हैं। उसके एवज में अपने आँगन का सारा कूड़ा हमारे आँगन में फेंकती थी। याद है?

    “और आज एक बच्चा...सिर्फ एक बच्चा हो जाता तो इनके घर में प्राण पड़ जाते। यही कह रही हो न तुम? मगर यह सजा क्या इन्हें नहीं झेलनी चाहिए? सोचो, ईश्वर ने कितने नायाब ढंग से इसे दंडित किया है कि...इतने बड़े घर में सिर्फ दो औरतें हैं, जिनकी आपस में बिलकुल बात नहीं होती। वह सीढिय़ाँ नहीं उतरती, यह सीढिय़ाँ नहीं चढ़ती और देखो, ये सास-बहू हैं। जाने किसने कहा है कि खुदा की लाठी में मार होती है, आवाज नहीं होती! बस, वही किस्सा समझो।”

    श्यामला एक क्षण के लिए एकदम चुप। फिर सूचना देने वाले अंदाज में कहती है, “मिसेज मजूमदार ने तो दो-एक बार सुशांत से कहा कि बेटा, अपनी बीवी को समझाओ। पर उसने पलटकर जवाब दिया, ‘क्या कहूँ मम्मी! वह कहती है, तुम्हारी माँ से डर लगता है।’ मुझे बता रही थीं मिसेज मजूमदार तो रो रही थीं। कह रही थीं, ‘अब तुम्हीं बताओ श्यामला, मैं काली हूँ...काले रंग की हूँ तो क्या किसी को खा जाऊँगी? क्या अपने बेटे-बहू से मुझे प्यार नहीं? बाप-बेटा दोनों इस तरह उस पराई लड़की के बॉडीगार्ड बन गए हैं जैसे मैं उसकी दुश्मन हूँ। वो तीनों मिलकर एक हो गए हैं और मुझे अलग कर दिया है—एकदम।’

    “पिछले हफ्ते फिर शायद मिसेज मजूमदार ने बेटे के आगे यह प्रसंग छेड़ा होगा।” श्यामला बता रही थी, “इस पर बेटे ने बहू की बात सीधे-सीधे माँ के आगे रख दी कि मम्मी, वो कहती है, ‘मेरा तो इसी तरह ठीक है। मुझे नीचे जाने के लिए बार-बार कहोगे तो देखना, मैं कुछ कर लूँगी। फिर मत कहना! तुम्हारी पहली पत्नी पर तो इनकी नजर लग ही गई, अब मैं नया शिकार नहीं बनूँगी!’

    “अक्षय, इस औरत की हालत अब तो बहुत बुरी है, एकदम टूट चुकी है। बोलती है तो रोती है! ‘एक बच्चा हो जाता तो हमारा तो वही खिलौना हो जाता। हम तो उसी से जी बहला लेते। न कोई बोले, क्या फर्क पड़ता है!’ कहते-कहते उनकी आँखें छलछला आई थीं। और मैंने बड़ी मुश्किल से उन्हें सँभाला था, अक्षय, बड़ी मुश्किल से!” श्यामला का स्वर सीझ गया था। और न जाने कब क्यों, मैं उसके साथ-साथ बह चला था।

    “मैं इतनी अभागी क्योंं हूँ? मैंने कितने पाप किए हैं—कहते-कहते मिसेज मजूमदार एकाएक फूट-फूटकर रो पड़ी थीं। और मैंने दिलासा दिया था कि नहीं मिसेज मजूमदार, ईश्वर सबको देखता है, सबकी जरूरतें समझता है। देता भी है, पर अपने समय से, आदमी की इच्छा से नहीं, ताकि किसी आदमी को अपने सर्वशक्तिमान् होने का घमंड न हो जाए। इसलिए आपका काम प्रतीक्षा करना है। विशुद्ध मन से और कृतज्ञ भाव से प्रतीक्षा कीजिए, प्रतीक्षा!”

    श्यामला की आवाज में एक अजब-सी दृढ़ता है, जो किसी बड़ी आध्यात्मिक ताकत से आती है।

    “इस पर मिसेज मजूमदार हैरानी से मेरा मुँह देखती रह गई थीं। बोलीं—कितनी अच्छी बातें करती हो तुम, श्यामला! मेरी बहू भी शुरू-शुरू में कभी मूड में होती थी तो ऐसी ही बातें किया करती थी। ज्यादा दुनियादारी की बातें उसे अच्छी नहीं लगतीं!

    “फिर एकाएक जैसे प्रार्थना-सी करती हुई बोली थीं—तुम कभी-कभार आ जाया करो ना, श्यामला! बच्चों को भी साथ लाना, अक्षय को भी! थोड़ा चेंज होगा, थोड़ा जी बहलेगा। मेरी बहू दो-तीन बार ही मिली है तुमसे, पर हर घड़ी तुम्हारी प्रशंसा करती है कि बड़ी सभ्य, सलीकेदार महिला हैं! फिर तुमसे दो बातें होंगी तो मेरा भी जी जुड़ेगा। दो बातें तुमसे भी जो जाएँगी। कहते-कहते आँसू पोंछती हुई उठकर अपने घर चली गई थीं।”

    मैं हैरानी से श्यामला की ओर देखता हूँ। उसकी आँखों में आँसू हैं—क्या उन्हीं मिसेज मजूमदार के लिए, जिन्होंने कभी उसे इतना सताया था। इतना कि गुस्से और झल्लाहट के मारे वह पूरी-पूरी रात सो नहीं पाती थी।

    ओह ईश्वर, स्त्री को समझना कितना मुश्किल है! शायद दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से एक।

    और मैं श्यामला के आँसुओं के जरिए मिसेज मजूमदार के दर्द का ‘भाष्य’ समझने में जुट जाता हूँ।

    18

    लगता है, रास्ता यहीं से जाता है।...

    पता नहीं, श्यामला की बातों में ऐसा क्या है कि रात देर तक मुझे नींद से लड़ना पड़ा। बहुत देर बाद नींद आई, लेकिन तब तक सिर पत्थर की तरह हो गया था।

    और फिर नींद में सपना। एक अजीब सपना!...मिसेज मजूमदार मुहल्ले के जितने बच्चे हैं, उनको पास बुला-बुलाकर छाती से चिपका रही हैं। सबके सिर पर हाथ फेरकर कह रही हैं—‘बेटा, आंटी को माफी दे दो! माफी दे दो और ईश्वर से प्रार्थना करो, वह तुम्हारे जैसा एक गोल-मटोल, प्यारा-सा बच्चा हमारे घर भी दे!’

    अचानक दृश्य बदलता है। और अब एक महल है, जहाँ सोने के पलंग हैं, सोने के दरवाजे। सोने-चाँदी के बरतन। दूधिया दीवारें। लकदक-लकदक फर्श। मद्धिम रोशनी में झलमलाते झाड़-फानूस और भव्यता का साम्राज्य। लेकिन घर के जितने प्राणी हैं, वे सब अपनी-अपनी जगह पर मूचर््िछत पड़े हैं। यहाँ तक कि कुत्ते, बिल्लियाँ और छिपकलियाँ तक। सब इंतजार कर रहे हैं किसी नटखट फूल जैसे बच्चे का, जिसके छोटे गुलाबी पैरों की छुअन से मानो हर चीज से फिर से प्राण लौट आएँगे। खाली-खाली सुनसान महल में जीवन का गुंजार सुनाई देने लगेगा।

    सपना फिर रंग बदलता है...अब एक खाली-खाली पथरीला उजाड़ है और तेज काली आँधियाँ चल रही हैं। उसमें एक अधेड़ बदहवास औरत हाथ में लाठी लिए डगमग-डगमग करती धीरे-धीरे बुदबुदाती हुई आगे बढ़ रही है—‘नहीं-नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ एक बँूद प्यार, एक मुट्ठी भर हरियाली!’

    अचानक उस औरत का हताश चेहरा ‘क्लोज अप’ में पूरे स्क्रीन पर फैल जाता है। और में जोरों से चिल्लाता हूँ—‘अरे! अरे! मिसेज मजूमदार। सुनिए, मिसेज मजूमदार...!!’

    न जाने कब मेरे हाथ खुद-ब-खुद प्रार्थना की लय में जुड़ जाते हैं।

    **

    2

    अंजलीना का नाटक

    प्रकाश मनु

    *

    प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू अपने दफ्तर में बैठे थे। कुछ जरूरी काम निबटाने के बाद सोच रहे थे, ‘अब जरा स्कूल का एक राउंड ले लिया जाए।’

    वे उठने की सोच ही रहे थे कि अचानक दरवाजे का परदा हटा और एक हँसती हुई सुंदर, लंबी-सी युवती अंदर आई। बोली, “नमस्कार...पहचाना आपने?”

    गोवर्धन बाबू चकराए। बोले, “कुछ ठीक-ठीक याद नहीं आता। आइए, बैठिए तो!”

    इस पर थोड़ी चंचल मुसकान वाली वह हँसमुख युवती बोली, “अंजलीना मेरा नाम है। अब शायद आप पहचान जाएँगे।”

    “अरे हाँ भई, पहचान गया। अब क्यों न पहचानूँगा?” प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू जैसे एक सुखद आवेग में बह निकले। बोले, “अंजलीना नाम औरों से इतना अलग है और खास कि उसे तो भूलना ही मुश्किल है। फिर जिसने तुम्हारा नाटक देखा हो, वो तो उसे भूल सकता ही नहीं! वह नाटक भी तुम्हारा अंजलीना, गजब का ही था...एकदम गजब!”

    गोवर्धन बाबू शुरू में थोड़ा ठिठके थे, मगर अब बहे तो बहते ही चले गए। बोले, “सचमुच अंजलीना, उसके बाद बहुत से नाटक किए, पर मुझे आज भी लगता है, उसमें तुमने जो अभिनय किया था, उसका जवाब नहीं। तब तो तुम बहुत छोटी-सी थीं न। अब तो बड़ी हो गई हो। हो गए कोई पंद्रह-सोलह साल!...क्यों, ठीक कह रहा हूँ न?”

    हँसकर बोली अंजलीना, “हाँ, इतने तो हो ही गए। पर वह नाटक! वह नाटक, नाटक कहाँ रहा? असल में आपने वह नाटक कराके मेरी तो जिंदगी ही बदल दी। मुझे क्या पता था कि कोई नाटक ऐसा भी हो सकता है जो किसी की सारी जिंदगी बदल दे। पता नहीं, ऐसा कब...कैसे होता है? पर होता तो है न सर, जरूर होता है!”

    कहते-कहते अंजलीना के भीतर जाने क्या कुछ उपजा—थोड़ा दिव्य, अनिर्वचनीय और कुछ-कुछ रूहानी-सा, कि प्रिंसिपल गोर्वधन बाबू को वह एकदम बदली-बदली-सी लगी। आषाढ़ की पहली किशोर बदली, जिसके चारों ओर एक स्वर्णिम आभा खेल रही थी।

    “मगर कैसे भला! यह तो तुमने नहीं बताया। उस नाटक का तुम्हारी जिंदगी से मतलब...?” गोवर्धन बाबू ने हैरान होकर पूछा।

    “है, बहुत कुछ है सर!” अंजलीना थोड़ा गंभीर हो गई। फिर कुछ अजीब-सी हँसी हँसते हुए बोली, “क्योंकि अब नाटक ही मेरी जिंदगी है। जगह-जगह जाती हूँ, नाटक करती हूँ। खासकर छोटे-बड़े बच्चों के बीच नाटक करवाती हूँ, तो बड़ा अच्छा लगता है। लगता है, बच्चे नहीं, ये छोटे-छोटे ऊर्जा-पिंड है। इतने ताजे, मासूम, प्रसन्न... कि उनके बीच जाकर मैं खुद ताजगी से भर जाती हूँ।”

    “अच्छा, यह तो...एक नेक काम कर रही हो तुम। वाकई!” गोवर्धन बाबू की आँखों में अंजलीना के लिए प्यार और आशीर्वाद का भाव उमड़ आया।

    “पर सर, वह नाटक यहीं खत्म नहीं होता। वह थोड़ा और भी आगे चलता है।” अंजलीना हँस रही थी। मगर यह हँसी कुछ खुली-खुली तो कुछ बंद पहेलियों जैसी। जैसे तिलिस्मी डिब्बियों के बीच डिब्बियाँ।...जादू!

    “यानी...?” गोवर्धन बाबू के माथे पर पसीना छलछला आया।

    “वही बताने तो आई हूँ सर!” अंजलीना अब एकदम बच्चों की तरह हँसी। खिल...खिल, खुदर-खुदर-खुदर। बोली, “तब आपने जो नाटक करवाया था, उसे मैं तो खैर जीवन भर भूल ही नहीं सकती। और आप भी नहीं भूले होंगे। वह नाटक था ही ऐसा—एक भूत का नाटक। भूत क्या, महाभूत कहिए! वह विशालकाय काला-काला डरावना भूत एक बस्ती और उसके लोगों को खूब डराता, खूब परेशान करता। लोग बेहाल हैं। रो रहे हैं, परेशान हैं। कभी किसी के यहाँ वह चीजें तोड़ जाता है, बिखरा जाता है। कभी कहीं आग लगा जाता है। कभी किसी घर में इस तरह तोडफ़ोड़ और कुहराम मचा देता है, जैसे भीषण भूचाल आया हो। कभी बिना बात झगड़ा करवा देता है।

    “और जब सुबह होती है, तो उस घर के सभी लोगों के सिर लहूलुहान मिलते हैं। कपड़े कीचड़ और कालोंच से भरे हुए। आधी-आधी रात को बच्चे ‘भूत-भूत’ चीखते उठते हैं। मगर वह भूत नजर नहीं आता। हमारे उठते ही भाग जाता है। जैसे ही जगार होती है—गायब! एकदम गायब। मगर उसके हाथ-पैरों और उसकी दुष्ट शरारतों के निशान आसपास हर कहीं नजर आ जाते हैं!”

    2

    गोवर्धन बाबू चुप, अपने आपमें लीन! जैसे किसी ने उन्हें वर्तमान से उठाकर किसी और देश-काल में पहुँचा दिया हो। बरसों पुराना वह नाटक जैसे फिर से आँखों के आगे खेला जा रहा हो और वे उसकी रंग-छायाओं और संगीत के सुर-ताल में खो-से गए हों।

    फिर अपने इस दिवास्वप्न से उबरे तो अंजलीना की ओर उनका ध्यान गया। उन्हें लग रहा था कि इस बीच अंजलीना कितनी बदल गई है! उन दिनों की उस छोटी-सी लड़की में भी गजब की हिम्मत और दिलेरी थी, पर उम्र बढ़ने के साथ उसका आत्मविश्वास भी जैसे आदमकद हो गया हो।

    उधर अंजलीना! मानो वह कोई लड़की नहीं, हवा का झोंका थी जो तेजी से कमरे में इधर से उधर, उधर से इधर बह रही थी।

    और उस नाटक की व्याख्या करते-करते वह शायद भूल ही गई कि उसके सामने कोई अनाड़ी श्रोता नहीं, गोवर्धन बाबू बैठे हैं, जिन्होंने खुद वह नाटक लिखा और निर्देशित किया था।

    “सर...सर, आपको याद आ गया न! आ गया सर?” अंजलीना नाटक के बारे में बताते-बताते जैसे खुद नाटक में दाखिल हो चली है—“और फिर...इस तमाम मारा-मारी और रोने-धोने के बीच आखिर एक छोटी-सी लड़की निकलकर सामने आती है। वह छोटी-सी है, मगर हिम्मत वाली है। वह छोटी-सी है, मगर सोचना जानती है और वह सोचती है कि इस भूत को भगाया जाए, जिसने सारी बस्ती को परेशान कर रखा है। उसके हिंदी के मास्टर साहब आशीर्वादीलाल जी ने एक दफा उसे बताया था कि बेटी, भूत-वूत कुछ नहीं होता है। ये सब मन के वहम हैं...एक किस्म का पागलपन! झूठ-मूठ की बात। तो...तो फिर जिस भूत की सब बात करते हैं, वह क्या है? वह छोटी-सी लड़की तो एकदम चकरा ही गई थी। उसे बहुत हैरान-परेशान देखकर हिंदी के मास्टर आशीर्वादीलाल जी ने उसे समझाया था कि बेटी, यह भूत असल में अशिक्षा और दरिद्रता का भूत है। यह अँधेरे में आता है, उजाले से भागता है। यह शब्दों की रोशनी से भागता है। हिम्मत से भागता और आपस में सच्चा प्रेम हो, तो भागता है...

    “आप सुन रहे हैं सर!...तो उस बच्ची को यह बात समझ में आ गई। और समझ में आते ही, जैसे एक लौ-सी लग गई। अब वह बच्ची रात-रात भर जागकर किताबें पढ़ती है, ताकि भूत भागे। घर के आसपास दीए जलाती है। दूसरों के सुख-दुख में मदद करती हैं। आपस के झगड़े शांत करती हैं। लोगों के ईष्र्या-द्वेष मिटाती है और एक दिन भूत सच्ची-मुच्ची खत्म, भूत खत्म!...सब कहने लगे कि वाह, भई वाह! यह बच्ची तो बड़ी हिम्मती है, इसने भूत को भगा दिया। पर वह बच्ची जानती थी कि भूत कोई नहीं था, कहीं नहीं था। लोग ही एक-दूसरे को डराते थे, लोग ही एक-दूसरे का नुकसान करते थे। लोग ही एक-दूसरे के घरों में आग लगाते थे। और जब यह इष्र्या-द्वेष और नफरत खत्म हुई, तो भूत खुद-ब-खुद चला गया।...मैं ठीक कह रही हूँ न सर? आपके नाटक का मूल आइडिया मेरे ख्याल से यही है।”

    गोवर्धन बाबू ने जो चुपचाप अंजलीना के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, धीरे से सिर हिलाया। कहा कुछ नहीं। मानो कुछ कहकर अंजलीना के तीव्र भावावेग में बाधा न पहुँचाना चाह रहे हो।

    वैसे भी उस पल अंजलीना को रोकना न तो उनके बस की बात थी और न खुद उसके बस की बात! कोई आँधी थी जो उसे और उसके शब्दों को तीव्रता से उड़ाए लिए जा रही थी—

    “और सर, अब आगे की कहानी...? आपको क्या बताना, पर मुझे खुद ही दोहराना अच्छा लग रहा है। आप देखिएगा सर, कितना मैं समझ पाई?...तो हुआ यह कि एक दिन बस्ती के लोग शांत बैठे हुए उस भूत की चर्चा कर रहे थे तो वह भूत आया। सचमुच आया। और वह भूत क्या था, एक काला-सा विशालकाय साया। आते ही बोला, ‘आओ लोगो, मुझे हाथ लगाओ, मुझे छुओ। मैं असल आदमी नहीं, सिर्फ एक साया हूँ, एक भ्रम! और मैं सिर्फ उन्हें सताता हूँ, जो आपस में झगड़ते हैं और एक-दूसरे से नफरत करते हैं। अगर तुम प्रेम से रहोगे, तो मैं फिर तुम्हारे पास कभी नहीं आऊँगा। और आपस में लड़ना-झगड़ना शुरू कर दोगे, तो मैं एक दिन फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगा। याद रखना मेरी बात!’

    “इस पर बस्ती के सब लोग हैरान। मगर वह छोटी-सी बच्ची—नाम भी उसका अंजलीना आपने ही रखा था, उठी और बोली, ‘नहीं अब हम नहीं लड़ेंगे। इसके बजाए हम पढ़ेंगे, हम आगे बढ़ेंगे।’ और उस लड़की ने आखिर बस्ती के सारे बच्चों को पढ़ाने का निश्चय कर लिया।”

    इतना कहने के बाद अंजलीना एक क्षण के लिए रुकी, जैसे अपने ही शब्दों की गरमी और उत्तेजना के मारे हाँफने-सी लगी हो और कुछ भी कह न पा रहा हो। फिर उससे उबरकर बोली, “सर, तब तो आपने नहीं बताया था, और इतना भर कहा था कि बरसों पहले मेरा एक बचपन का दोस्त इस नाटक की पांडुलिपि मेरे पास छोड़ गया था। पर अब मैं कह सकती हूँ—शर्तिया कह सकती हूँ कि वह नाटक आपका ही लिखा हुआ था—आपका!”

    सुनकर गोवर्धन बाबू एक क्षण के लिए चुप। न हूँ, न हाँ। जैसे जो कहा जा रहा है, उससे उनका कोई वास्ता ही न हो।

    लेकिन फिर वे उस आविष्ट मुद्रा से बाहर आए। उन्हें आना ही था।

    “हाँ-हाँ, कैसे भूल सकता हूँ?...कैसे भूल सकता हूँ अंजलीना!” गोवर्धन बाबू धीरे से मुसकराए और बीता हुआ जमाना मानो झप-झप करता हुआ उनकी आँखों के आगे एक फिल्म की तरह साकार हो गया।

    3

    गोवर्धन बाबू को याद आया, आज से कोई पंद्रह वर्ष पहले का समय। तब वे प्रिंसिपल नहीं थे। इस स्कूल में आए हुए उन्हें पाँच-सात साल ही हुए थे और इन पाँच-सात सालों में ही उन्होंने स्कूल के सभी विद्यार्थियों से कुछ अजब ढंग की दोस्ती कर ली थी, जिसे कुछ भी नाम देना मुश्किल है। बच्चे उन्हें अपना दोस्त भी मानते थे, गाइड भी और यहाँ तक कि अभिभावक भी। तब वे हिंदी पढ़ाते थे। साथ ही नाटक लिखते भी थे। मंच पर नाटक कराते भी थे।...तब इन सब कामों में कितना आनंद आता था! एक किस्म का नशा-सा था उन्हें नाटकों का। बरसों नाटक...नाटक...और नाटक। यहाँ तक कि उन्हें सपने में भी नाटक, उसके दृश्य और किरदार ही नजर आते। कभी-कभी तो पूरी-पूरी रात...! और ऐसा भी कई दफा हुआ कि रात जो दृश्य देखे, वे सुबह उठने पर इस कदर ताजे थे स्मृति में कि वे झट लिखने बैठ गए। और बड़े अजब-गजब नाटक लिखे गए इसी तरह। उनका बहुचर्चित ‘भीमा’ नाटक इसी तरह लिखा गया था, ‘धरतीपुत्र’ भी!...

    अब प्रिंसिपल होने के बाद भी वे थोड़ा बहुत समय निकालकर नाटक लिखते हैं। नाटक कराते भी हैं। पर अब दूसरे जरूरी या गैर-जरूरी दफ्तरी काम इतने बढ़ गए हैं कि इतना समय ही नहीं मिल पाता कि पहले की तरह नाटकों की दुनिया में पूरी तरह खो जाएँ। उतनी फुर्सत ही नहीं। पर फिर भी कोई नाटक करने वाला हो या बढ़िया नाटक कहीं हो रहा हो तो गोवर्धन बाबू आज भी उसे देखने से अपने-आपको नहीं रोक पाते। भले ही इसके लिए उन्हें मीलों दूर गाड़ी ड्राइव करके जाना पड़े या कि रात-रात भर जागना पड़े।

    और उन्हें याद आने लगे अपनी अलग-अलग दुनियाओं में खींच ले जाते वे तमाम नाटक जो उन्होंने कराए या फिर जिनसे किसी न किसी रूप में वे जुड़े रहे। और वे भी, जो एक दर्शक के रूप में देखे गए। वे तमाम-तमाम किरदार, दृश्यांकन और अभिनेता, अभिनेत्रियाँ और मित्र-मंडली। एक अजब-सा कोलाज सभी का—अद्भुत! उनकी याद ही रोमांचित कर देती है।

    गोवर्धन बाबू की इस तंद्रा को फिर से अंजलीना ने तोड़ा। बोली, “सर, भूत का वह नाटक ‘भूत हमारे दिल में है’ जिसकी स्क्रिप्ट आपने शब्दों में लिखी थी, मैं गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर उसे हकीकत में लिख रही हूँ। आपके शब्द अब महज शब्द नहीं, सच्चाई में बदल रहे हैं सर!”

    “अरे वाह, वाह अंजलीना!” गोवर्धन बाबू सुनकर इतने खुश हुए कि एकाएक खड़े हो गए और अंजलीना के पास आकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। बोले, “मेरी योग्य शिष्या, तुमने सचमुच वह किया है जो मैं चाहता था, मगर शायद कह नहीं पाता था। जो कह नहीं पाया, उसे भी तुमने समझा और अपनाया। यही...यही एक अच्छे शिष्य की पहचान है।”

    थरथराते हुए भीगे-भीगे शब्द। जितने कहे गए, उससे कहीं ज्यादा अनकहे।

    अंजलीना बोली, “पर अब सिर्फ मुझी को आशीर्वाद देने से नहीं चलेगा सर! अब मैं अकेली नहीं, बहुत-से लोग हैं। एक बहुत बड़ा दल है हमारा, जिसमें छोटे-बड़े हर उम्र के लोग हैं। सभी के सभी एक सपने को लेकर चल रहे हैं। जगह-जगह पढ़ाना, कक्षाएँ लगाना, बातचीत या संवाद। फिर कविताएँ, कहानियाँ, बहुत कुछ। यहाँ तक कि बच्चे ही नहीं, बड़े भी—बच्चों के माता-पिता भी हमारी क्लासों में आते हैं। हम लोग उन्हें कहानियाँ, कविताएँ सुनाते हैं। एक से एक दिलचस्प नाटक किए जाते हैं, जिन्हें सुनकर पेट में बल पड़ जाएँ। मगर हँसी-हँसी में कोई ऐसी उम्दा बात भी कह दी जाती है जो लोगों के दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाए।”

    गोवर्धन बाबू इस तरह हैरान होकर अंजलीना की तरफ देख रहे थे कि जैसे अंजलीना नहीं, उन्हीं का कोई सपना देह धारे सामने बैठा हो। बोले, “सच कहूँ अंजलीना, वो नाटक सिर्फ एक नाटक नहीं, एक सपना था और तुमने उसे वाकई साकार कर दिया।”

    “किंतु सर...!” अंजलीना धीरे से हँसी, “आप अपनी आँखों से उस सपने को साकार होता देखें, इसीलिए मैं यहाँ आई हूँ—आपको निमंत्रण देने।”

    और जब अंजलीना ने विरदीपुर गाँव में हो रहे अपने कार्यक्रम की सूचना दी, तो गोवर्धन बाबू खुश होकर बोले, “ठीक है, मैं आऊँगा। कल सुबह ही तुम्हारा नाटक है न! मैं पहुँचूँगा, जरूर पहुँच जाऊँगा। यों भी विरदीपुर कितनी दूर है—कुल सत्रह किलोमीटर।”

    4

    अगले दिन गोवर्धन बाबू विरदीपुर पहुँचे, तो उनका वही नाटक मंच पर होने जा रहा था, जिसे उन्होंने कोई पंद्रह-सोलह वर्ष पहले लिखा और मंचित किया था। बस, फर्क यह था कि तब उस नाटक के निर्देशक वे थे और आज अंजलीना थी, जो बड़ी होकर सचमुच एक सच्ची कलाकार बन गई थी।...और उस नाटक में भाग लेने वाले पात्र? अंजलीना ने ही बताया, वे आसपास की झुग्गी-झोंपड़ी के लोग थे। सुनकर वे चौंके थे—क्या सचमुच?

    गोवर्धन बाबू ने अपनी निगाहें वहीं जमा दीं, जहाँ नाटक के छोटे-छोटे डिटेल्स की चर्चा करते वे ‘कलाकार’ जमा थे। मैली जिंदगी के कालिदास! एकदम साधारण, मामूली लोग। साधारण और कुछ-कुछ बदरंग कपड़े। साधारण मेकअप। पर ये नन्हे-नन्हे कलाकार थे जिनके भीतर आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था। उनके चेहरे पर इतनी खुशी थी, आँखों में इतनी चमक कि गोवर्धन बाबू बस खोए-खोए-से उन्हें देखते भर गए थे।

    और फिर नाटक शुरू हुआ, लगभग उसी ढंग से जैसे उन्होंने कभी किया था। पर फिर काफी क्षिप्रता से आगे चल पड़ा। काफी तेज गति और भीतर उथल-पुथल मचाने वाले दृश्य।...एकदम जादुई! नाटक सचमुच उससे भी अच्छा था, जैसा गोवर्धन बाबू ने आज से वर्षों पहले करवाया था। खास बात यह कि नाटक एकदम बच्चों की चंचल, चुटीली भाषा में था। अंजलीना ने उसमें छोटे-छोटे बच्चों के लिए कुछ बड़े ही बढ़िया, छोटे-छोटे चंचल संवाद डाल दिए थे। इससे नाटक में एक नया ही नटखटिया रंग आ गया था।

    छोटे-छोटे बच्चों के ये चुस्त संवाद सुनकर लोग खूब हँसे। मजे की बात यह कि नाटक खेलते हुए इन बच्चों के हाव-भाव बखूबी उभरकर आते थे। जैसे एकदम मँजे हुए कलाकार हों। कपड़े साधारण, हैसियत मामूली। लेकिन आत्मविश्वास ऐसा कि उनकी आँखों की चमक देखकर विस्मय होता था।

    नाटक देखते-देखते गोवर्धन बाबू कहाँ से कहाँ जा पहुँचे, खुद उन्हें अंदाजा नहीं था। नाटक जो सामने चल रहा था, वह तो कभी का छूट गया था और आँखों के आगे एक दूसरा ही नाटक चल पड़ा था। कल के भारत का चित्र उनकी आँखों के आगे जगमग-जगमग करने लगा था। जब हर कोई पढ़ेगा, हर बच्चा बस्ता लेकर पढ़ने जाएगा। सबकी आँखों में खुशी की चमक होगी और कोई आधा पेट खाकर नहीं रहेगा। हर ओर भरपूर खुशियाँ होंगी और सपने की एक जगमगाती हुई दुनिया।

    शब्दों की एक जगमग...जगमग...जगमगाती दुनिया! यानी कि रोशनी...रोशनाई... रोशन अक्षर-अक्षर। जग...जगर-मगर।

    पढ़ कबूतर अटर-बटर।

    देख मत बिटर-बिटर...!

    हवा में रोशनी की झालरों की तरह फड़फड़ाते टुकड़ा-टुक्ड़ा संवाद। हर संवाद जिंदगी की एक जिंदा दास्तान खुद में सहेजे हुए। गोवर्धन बाबू फड़क उठे।

    नाटक खत्म होने पर तालियाँ...। खूब-खूब तालियाँ!

    तालियों की उस तेज गडग़ड़ाहट के बीच रंगों और काली, सुरमई छायाकृतियों का पूरा एक कोरस। तेजी से घूमता हुआ चक्र। हरा-नीला-पीला-लाल...! पर उसमें श्वेत और उस श्वेत के भीतर सुनहरा ‘ग्लो’ बार-बार डोमिनेट करता है।

    पीला...सुनहरा रंग! उम्मीद का, आशा का...आने वाले कल का। आने वाले कल के नन्हे-नन्हे हँसते हुए सूरज!

    और नाटक के चरम विश्रांति-बिंदु तक आते-आते यादों और यादों का बहुत बड़ा काफिला। जिंदगी में साथ चलने वाले इतने लोग, इतने ढेर सारे लोग, और इतने चेहरे, इतने कामकाजी वर्षों की थकान और उतार-चढ़ाव। जाने क्या कुछ याद आ रहा गोवर्धन बाबू को! और फिर एकाएक सब कुछ गु-ड़ु-प!

    तालियाँ...! अब वे तालियाँ बजा रहे हैं, लोगों के तालियाँ बजाने के बहुत देर बाद। यह एक नया प्रभात है गोवर्धन बाबू के जीवन में और इस उषावेला की उषा है—अंजलीना।

    उन्होंने अपने भीतर झाँककर देखा। बहुत कुछ...! बहुत कुछ अब जैसे ऊपर की काई हटाकर, एकदम नया-नया होकर चमकता हुआ सामने आ गया था। जैसे कालिख के पहाड़ को फाड़कर बाहर निकला तेजस्वी बाल सूर्र्य। कैसे होता है यह कायाकल्प? अचानक एक पल...और उस पल में बहुत...बहुत कुछ!

    5

    नाटक खत्म होने के बाद अंजलीना ने झोंपड़पट्टी के उन कलाकार बच्चों को प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू से मिलवाया। उस वक्त अँधेरे और रोशनी की परछाइयों के बीच दिप-दिप करते उन बच्चों के चेहरे तो खिले-खिले थे ही, लेकिन उन बच्चों से भी ज्यादा खिले-खिले नजर आ रहे थे गोवर्धन बाबू। आँखों में अनोखा भाव झिलमिल-झिलमिल कर रहा था। बोले तो इतने भावविभोर होकर कि होंठ कँपकँपा रहे थे।

    धीरे-धीरे खुद पर काबू पाकर उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है, बहुत खुशी...बहुत-बहुत खुशी...कि जो काम मैं नहीं कर पाया, वह मेरी बहादुर शिष्या अंजलीना ने कर दिखाया। इसने लगता है कि मेरे ही सपने को पूरा किया है। मैं तो बस इतना ही कह सकता हूँ कि मैं हमेशा-हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। हर सुख-दुख की घड़ी में...हर पल, हर घड़ी!”

    प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू अपने साथ बच्चों के लिए ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें लेकर गए थे। कहानी, कविताओं की, नाटकों की। उनमें डुगडुगी बजाने वाले भालू की कहानी थी, तो किताब पढ़ने वाले खरगोश की भी। बैंड बजाने वाला हँसमुख शेर था, तो सलामी देता हाथी और...और...!

    उन्होंने वे किताबें उन बच्चों को बाँट दीं और सबके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “मैने बहुत सोचा, पर किताब से अच्छा उपहार शायद कोई ओर नहीं हो सकता। वे हर तरह के भूत को भगाती हैं क्योंकि उनके साथ ज्ञान का उजाला होता है। शब्दों का उजाला। और अज्ञान-अशिक्षा के भूत उजाले से भागते हैं। उन्हें सिर्फ अँधेरा ही रास आता है।”

    कहते-कहते गोवर्धन बाबू एक क्षण के लिए रुके। फिर अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों में मुसकराते हुए बोले, “यों वह महाभूत कैसे भागा होगा, इसका कुछ-कुछ अंदाजा मुझे है। मुझे अभी थोड़ी देर पहले बताया था अंजलीना ने कि यह मैदान खुद बच्चों ने झाड़ू लगाकर साफ किया और अंजलीना भी आपके साथ थी। हाथ में झाड़ू लिए सफाई और भागदौड़ करती हुई। इतने बहादुर लोगों का मिलकर एक साथ झाड़ू लगाना! फिर तो वह भूत हो चाहे महाभूत, पूँछ दबाकर भागेगा ही एक मच्छर की तरह। भागना ही होगा उसे...!” गोवर्धन बाबू अपनी बात कहकर खुद ही खुदर-खुदर हँसने लगे और उनके साथ-साथ बच्चे भी।

    गोवर्धन बाबू का भाषण खत्म हुआ तो बच्चों ने देर तक तालियाँ बजाकर अपनी खुशी प्रकट की।

    लेकिन नाटक अभी खत्म कहाँ हुआ था। उसका अंतिम दृश्य भी अभी सामने आना था। और वह आया मिंटी के साथ! मिंटी एक नन्ही-मुन्नी बच्ची थी। कोई चार-पाँच बरस की। वह मंच पर आई और अपनी पतली, लेकिन चटख आवाज में बोली, “मेरा नाम मिंटी है। सर...सर, लगता है, यह नाटक आपने मेरे लिए लिखा है। अंजलीना दीदी बता रही थीं, आप बहुत अच्छे लेखक हैं। तो एक नाटक मेरे लिए और भी लिखिए। उसका नाम मैं बताती हूँ—‘मिंटी, कल के भारत की आशा’। मैं इतनी छोटी होकर भी उस भूत से लड़ने के लिए खुद आगे आ गई हूँ। पढ़ती भी हूँ और अंजलीना दीदी के कहने पर छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती भी हूँ। तो वह भूत कहाँ ठहरेगा? मैं आपको यकीन दिलाती हूँ कि मैं खूब-खूब पढ़ूँगी और आपके काम को आगे बढ़ाऊँगी...और भूत कभी आया तो उस भूत के छक्के छुड़ा दूँगी!”

    सुनकर गोवर्धन बाबू अवाक! उन्होंने प्यार से उस नन्ही नटखट बच्ची को गोद में उठाया और पुचकारा।

    6

    इस क्षण कोई उन्हें पास से देखे, तो उनकी आँखें एकदम गीली-गीली-सी हैं। बरसने को तैयार। खुद पर किसी तरह काबू पाकर बोले, “हाँ, मेरी बच्ची, मैं लिखूँगा नाटक, मैं जरूर लिखूँगा। अभी पिछले कुछ दिनों से तो इतनी निराशा थी मेरे दिल में कि लगने लगा था, जैसे लिखने-पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। पर होता है, बहुत कुछ होता है लिखने-पढ़ने से, अगर मेरा लिखा मिंटी जैसी प्यारी बच्ची के दिल को भी छू गया! मैं जल्दी ही नया नाटक लिखूँगा और उसका नाम होगा—‘मिंटी, कल के भारत की आशा’। जरूर लिखूँगा—जरूर!”

    इस पर इतनी तालियाँ बजीं—इतनी तालियाँ कि गोवर्धन बाबू जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गए। उन्हें मानो कुछ नहीं सुनाई दे रहा था, कुछ भी नहीं।

    बस, कोई भीतर कह रहा था—गोवर्धन बाबू, तुम्हें लिखना...जरूर लिखना है, अंजलीना जैसी बहादुर शिष्या के लिए। इस नन्ही बच्ची मिंटी के लिए, और बहुत-बहुत बच्चों के लिए, जिन्हें इनकी बेहद जरूरत है।

    गोवर्धन बाबू चलने लगे, तो अंजलीना और ढेर-ढेर-से बच्चे उन्हें दूर तक विदा करने आए। गोवर्धन बाबू की कार आगे जा रही थी, पर उन्हें बराबर लग रहा था कि उनका मन तो पीछे अंजलीना और उसकी प्यारी नाटक-मंडली के साथ ही छूट गया है।

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