Sahitya Me Triveni Sangha Aura Triveni Sangha Ka Sahitya in Hindi Magazine by Pramod Ranjan books and stories PDF | त्रिवेणी संघ का साहित्य

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त्रिवेणी संघ का साहित्य

साहित्य में त्रिवेणी संघ और त्रिवेणी संघ का साहित्य

प्रमोद रंजन

सन् 1930 के दशक में जो युद्ध समाप्त हो गया था, उसे जारी करना होगा’! मधुकर सिंह के वर्ष 2002 में प्रकाशित उपन्यास 'कथा कहो कुंती माई’में बिहारी टोला के लोग इस संकल्प को बार-बार दुहाराते हैं। भोजपुर (बिहार) के नक्सल आंदोलन पर केंद्रित मधुकर सिंह का यह उपन्यास 1968 से 1974 के बीच की घटनाओं पर केंद्रित है। लेकिन उपन्यास की नायिका व अन्य पात्र बार-बार 1930 के दशक के उस 'युद्ध’को याद करते हैं, जो दुर्भाग्यवश अधूरा ही 'समाप्त’हो गया था। पूरे उपन्यास में यह '1930 का दशक’एक फैंटेसी की तरह है, जिससे पात्रों की अतृप्त आकांक्षाएं जुड़ी हैं।

साहित्य में त्रिवेणी संघ

आखिर, 1930 के दशक का वह कौन सा युद्ध है, जिसे दलित, खेतिहर और शिल्पकार जातियों के लोग फिर से 'जारी’करना चाहते हैं? भारतीय इतिहास में हम जिन आंदोलनों, 'युद्धों’के बारे में पढ़ते रहे हैं, उसके अनुसार तो 1930 के दशक में ऐसा कोई आंदोलन नहीं था, जिसकी याद इन निम्न जातीय किसान-मजदूरों को इतना आलोडि़त करे। वह भी नक्सलवाद जैसी परिवर्तनकामी उग्र विचारधारा के समर्थक कथा-पात्रों को!

इतिहास की पुस्तकों से गायब इस 'युद्ध’का संकेत 'कथा कहो कुंती माई’के इस प्रसंग में देखिए :

''शहादत के बावजूद मास्साहेब (नक्सली नेता जगदीश प्रसाद महतो, जो बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास 'मास्टर साब’के भी नायक हैं) आज भी भोजपुर के गांवों में जिंदा हैं। हर कोई यही कहता हुआ मिलता है, रात मास्साहेब मेरे घर रूके थे और कह रहे थे - हमारी लड़ाई बहुत लंबी है। उनका संकल्प भी लोग दोहराते हैं - सन् 1930 के दशक में जो युद्ध समाप्त हो चुका था, उसे जारी करना पड़ेगा। उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव की तरह किसानों के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष करना होगा। दूसरी लड़ाई का समय करीब आ चुका है, लेकिन इस बार किसी त्रिवेणी संघ के नेतृत्व में नहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी) के नेतृत्व में।’’

जाहिर है वह युद्ध 'त्रिवेणी संघ’का युद्ध है, जिसका बिगुल बिहार की पिछड़ी जातियों ने देश की आजादी के पहले फूंका था। उपन्यास के पात्र उसी असमाप्त युद्ध को सातवें दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी) के माध्यम से लड़ रहे हैं।

वर्ष 1998 में प्रकाशित प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत के शोध 'बही धार त्रिवेणी की’ (लोकतंत्र प्रकाशन, पटना) से पहली बार 'प्रमाणिक’रूप से ज्ञात हुआ कि त्रिवेणी संघ की स्थापना 30 मई, 1933 को हुई थी। इसकी स्थापना के लिए सम्मेलन बिहार के तत्कालीन शाहाबाद जिले के करगहर बाजार के पास स्थिति गर्भे गांव में आयोजित हुआ था तथा चौधरी जेएनपी मेहता, सरदार जगदेव सिंह यादव और शिवपूजन सिंह आदि इसके संस्थापक थे। 1935 ई. में इसका प्रादेशिक स्तर पर गठन हुआ, जिसके प्रथम अध्यक्ष दासू सिंह बने। हालांकि लंबे समय तक यही माना जाता रहा था कि त्रिवेणी संघ का गठन 1930 से पूर्व हुआ था। बिहार के चर्चित राजनेता अनुग्रह नारायण सिन्हा ने भी अपने संस्मरण में त्रिवेणी संघ के गठन का काल '1930 के पूर्व’लिखा है।

प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत द्वारा किया गया उपरोक्त श्रमसाध्य और दृष्टिसंपन्न अध्ययन कमोवेश थोड़े फेरफार के साथ उनकी दो अन्य पुस्तकों - 'बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’, (वाणी प्रकाशन, 2001) तथा 'बिहार में सामाजिक परिवर्तन’,(विद्या विहार, 2010) में भी संकलित है। इसके अतिरिक्त के.के वर्मा के 'चेजिंग रोल ऑफ कास्ट एसोसिएशन’, कल्याण मुखर्जी/राजेंद्र सिंह यादव के 'भोजपुर बिहार में नक्सलवादी आंदोलन’में भी इस आंदोलन की चर्चा है।

आखिर, यह त्रिवेणी संघ था क्या? फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्यिक गुरू रहे बांग्ला लेखक सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास 'ढोड़ाय चरितमानस’के पात्रों से सुनिए :

''कुर्मी क्षत्री, कुशवाहा क्षत्री और यदुवंशी क्षत्री, ये तीनों जातियां मिलकर राजपूतों और भूमिहारों के विरुद्ध खड़े होंगे, इन तीनों जातियों से मिलकर बना है त्रिवेणी संघ!

क्या सुंदर नाम है त्रिवेणी संघ। बूढ़ा गरभू पतनीदार को सुनाकर बिल्टा से पूछता है, इतनी बुद्धि भरी बात जिंदगी में कभी सुनी थी? गीदड़ अब तक बोला नहीं। सभी के उठने के समय इतना ही कहता है, जो जाति सोई रहती है, वह जाति जीती नहीं है।’’

याद होगा, रेणु पर कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि उन्होंने 'मैला आंचल’उपरोक्त 'ढोड़ाय चरितमानस’के शिल्प और कथ्य की चोरी कर लिखा है। हालांकि बाद में सतीनाथ भादुड़ी अपने शिष्य के बचाव में उतरे तथा उन्होंने इन अरोपों को मिथ्या बताया। बहरहाल, भादुड़ी जी ने ''भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को अपने महान उपन्यास ढोड़ाय चरितमानस में आधार बनाया है। आजादी के लिए संघर्ष करते हुए अधपेटे, अधनंगे, निरक्षर लोगों की जैसी मर्मांतक कथा उन्होंने कही है, (वैसी) अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने लालची भूपतियों, स्वार्थी व्यवसायियों तथा अवसरवादी बुद्धिजीवियों की दोरंगी भूमिका का निर्देश, उसी समय पर दिया, जब देश आजाद होने को था।..इसलिए इस उपन्यास को नवोदित भारत का महाकाव्य कहा जाता है।’’ नवोदित भारत के इस महान महाकाव्य में 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’की आवाज साफ सुनाई देती है।

'कथा कहो कुंती माई’और 'ढोड़ाय चरितमानस’के अतिरिक्त अन्य अनेक ऐसे उपन्यास, कहानियां और कविताएं हैं, जिन पर त्रिवेणी संघ के आंदोलन का प्रभाव है। रेणु के उपन्यासों और कहानियों पर भी त्रिवेणी संघ की छाया दिखाई देती है। त्रिवेणी संघ के प्रथम प्रदेश अध्यक्ष दासू सिंह का चरित्र-चित्रण करती प्रेमकुमार मणि की एक कहानी है - 'उसका वोट’ ('खोज तथा अन्य कहानियां’, आधार प्रकाशन, 1999)। उनके चर्चित उपन्यास 'ढलान’ (वाणी प्रकाशन) में भी त्रिवेणी संघ पर एक लंबा प्रसंग है। बिहार के एक लेखक सीडी सिंह का उपन्यास ही है - 'त्रिवेणी’, जो वर्ष 2004 में डेहरी-ऑन-सोन स्थित 'त्रिवेणी प्रकाशन’से छपा है। संभवत: उपन्यास के लेखक ही इसके प्रकाशक भी हैं। और भी अनेक रचनाएं होंगी। स्वातंत्र्योत्तर काल के अनेक हिंदी लेखकों पर इस आंदोलन का गहरा वैचारिक प्रभाव रहा है।

'बहुजन’दृष्टिकोण की जरूरत

त्रिवेणी संघ 'हिंदी आलोचना’से गायब है। साहित्य पर व्यापक प्रभाव के बावजूद 'हिंदी आलोचना’में इसका उल्लेख तक नहीं मिलता।

हिंदी की कथित 'मार्क्‍सवादी, प्रगतिशील, जनपक्षधर’आलोचना द्वारा साहित्य पर संघ के प्रभावों की उपेक्षा का क्या कारण हो सकता है? क्या इस संघ का दर्शन पूंजीवादी, प्रतिगामी और जनविरोधी था? क्या वह कलावादी, अस्तित्ववादी-व्यक्तिवादी या सांप्रदायिक विचारों की प्रस्तावना कर रहा था? निश्चित रूप से नहीं। उसने तो बिगुल बजाकर कहा था :

''त्रिवेणी संघ है शोषित, शासित तथा दलित, कृषक, मजदूर और व्यवसायियों के अश्रुओं की धारा तथा आहों का नगाड़ा। जिनके धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकारों को कुचलकर, भारत के ही नहीं, बल्कि सारे संसार के अल्पसंख्यक लोग कर रहे हैं मौज। जो दुर्भेद्य आवाजों से अपने हक और अधिकारों के लिए एक बार अपनी ताल मिलाकर करता है विश्व शांति की कामना।’’('त्रिवेणी संघ का बिगुल’, 1940)

हिंदी आलोचना द्वारा त्रिवेणी संघ व इस जैसे अनेक महत्वपूर्ण आंदोलनों, दर्शनों, विचारों की उपेक्षा का कारण है - 'बहुजन दृष्टिकोण’का अभाव। 'अभिजन दृष्टि’तो स्वाभाविक तौर पर इन चिंतनों को अपनी चुप्पियों के माध्यम से अथवा विभिन्न आरोप-प्रत्यारोप लगाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेकने के लिए उद्धत रहती है। दूसरी ओर, आलोचना की 'माक्‍सर्वादी, प्रगतिशील, जनपक्षधर’दृष्टि को भारत के अभिजनों के एक तबके ने स्वयं पर आरोपित तो कर लिया, लेकिन वस्तुत: इस दृष्टि को अपने रूढ़ संस्कारों के कारण आत्मसात नहीं कर सका। उसकी रटी-रटाई शब्दावलियां थोड़ी आगे बढ़ीं भी तो 'अछूतों’के प्रति सहानुभूति तक आकर ठहर गईं। चूंकि उनकी यह सहानुभूति भी आरोपित थी, इसलिए उन्हें अपने भीतर संवेदना का उद्रेक करने के लिए अधिकाधिक जुगुप्साकारी, कारूणिक और विषाद उत्पादक चित्रों की आवश्यकता होती रही। अपनी व्यथाओं का वर्णन करने वाला 'अछूतों’का साहित्य उनकी इस आवश्यकता को उसी प्रकार पूरा करता है, जिस प्रकार प्लेटॉनिक प्रेम में डूबे किसी किशोर की भावनात्मक जरूरत को धर्मवीर भारती का 'गुनाहों का देवता’या शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का 'देवदास’।

द्विज मार्क्‍सवादी आलोचकों ने अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए 'दलित’शब्द के व्यापक अर्थ को संकुचित कर डालने में हर संभव सहयोग किया। जिस 'दलित’शब्द का अर्थ साहित्य और समाज में 'गैर-द्विज’शोषित सामाजिक समुदाय था, जिसमें अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़े, निम्न वैश्य और महिलाएं शामिल थीं, उसे उन्होंने 'अनुसूचित जाति’तक सीमित कर डाला। अनुसूचित जातियों के कुछ बुद्धिजीवियों ने भी उन्हें अपना शुभचिंतक समझने की गफलत की और इसमें कम से कम अपना तात्कालिक लाभ देखा। इन कारणों से ऐसे आंदोलन, दर्शन और विचार, जो गैर-द्विज, बहुजन तबकों के साझा थे या जो अनुसूचित जातियों की तुलना में अन्य पिछड़ा वर्ग में अधिक लोकप्रिय थे, उनका अध्य्यन, विश्लेषण कम होते-होते आखिरकार बंद ही हो गया।

इसका नतीजा क्या हुआ, यह जानने के लिए त्रिवेणी संघ का ही उदाहरण काफी है। एक व्यापक आंदोलन, जिसके पास सुदृढ़ दार्शनिक आधार था तथा जो ''जमींदारों, बड़े व्यवसायियों और पूंजीपतियों तथा उच्च वेतनभोगी सरकारी अधिकारियों के बरखिलाफ किसानों, मजदूरों और व्यवसायियों का संश्रय था’’, उसे जातिवादी और देशद्रोही संगठन बता, लांक्षित कर इतिहास के कूड़ेदान में फेक देने की कोशिशें होती रही, लेकिन उसके बचाव में कथित 'मार्क्‍सवादी, प्रगतिशील, जनपक्षधर’बौद्धिकता नहीं उतरी। जबकि वह बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय के दर्शन पर चलने वाला आंदोलन था, जिसका चिंतन आज भी राजनीति ही नहीं, साहित्य की वैचारिकी के लिए भी पथप्रदर्शक मशाल बनने के सर्वथा योग्य है।

इन कारणों से आवश्यक हो गया है कि साहित्य को देखने-परखने की एक ऐसी 'बहुजन आलोचना दृष्टि’का विकास किया जाए, जो माक्‍सर्वादी आलोचना की तरह न जाति आधारित विमर्शों की उपेक्षा करे, न ही दलित आलोचना की तरह एकांगी हो। इस आलोचना दृष्टि में मार्क्‍स और आम्बेडकर समेत बिरसा, फुले, पेरियार, नारायण गुरु, त्रिवेणी संघ, अर्जक संघ जैसी जनपक्षधर विचारधाराएं अग्रचारी दिशानिर्देशक की भूमिका में हों।

त्रिवेणी संघ का इतिहास

त्रिवेणी संघ की सक्रियता का काल 1933 से लेकर 1942 ईसवी तक माना जाता है। इस समय ''बीसवीं सदी अपने शैशवकाल को समाप्त कर युवावस्था को प्राप्त कर रही थी। उसका बिगुल दुनिया भर में बजना शुरू हो रहा था। सभी जातियां, धर्म, देश तथा समाज अपने-अपने को संभालने में लगे हुए थे। सभी अपनी-अपनी उन्नति के लिए अग्रसर हो रहे थे। पर, साथ ही साथ शोषक और शासक भी चुपचाप बैठे न रहे। उन्होंने अत्याचारों का पारा बढ़ाना शुरू किया। जो जाति उठना चाहती थी, उनको दबाना शुरू किया। किसी के जनेऊ तोड़े जाने लगे, किसी का विवाह-शादी बंद किया जाने लगा। किसी पर मालगुजारी की नालिश होने लगी तो किसी का खेत नीलाम किया गया। किसी के लिए इनार-कुंए बंद किए जाने लगे तो किसी के रास्ते रोक दिए गए।..यानी, चारों तरफ से जालिमों ने दबाना शुरू कर दिया।’’ जागरूक होते पिछड़े-दलित समुदायों और उनके दमन, शोषण की इस तरह की चौतरफा कोशिश के बीच जन्मे त्रिवेणी संघ का ''उद्देश्य तथा कार्यक्रम शोषित, शासित तथा दलित यानी सभी अनुन्नत समाज की उन्नति’’था। उसने उद्घोष किया - ''जमीन किसकी है? जमीन हल चलाने वाले किसानों की है।’’''संघ का संगठन खूब जोरों पर चला और सभी अनुन्नत समाजों ने इसमें भाग लिया। फलस्वरूप कितने ही गर्वियों के गर्व चूर हो गये।’’ संघ ने अनुन्नत समाज के धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक तीनों क्षेत्रों में आंदोलन चलाया।

1937 के बिहार विधान सभा चुनाव तथा 1939 के जिला बोर्ड चुनावों में उम्मीदवार देकर संघ ने अपना संख्या-बल दिखाया। 1937 के चुनाव में भले ही उसके सभी उम्मीदवार हार गए, लेकिन उसने साबित कर दिया कि पिछड़ों-दलितों में सामाजिक जागरूकता पैदा कर राजनीतिक लड़ाई भी लड़ी जा सकती है। 1939 के जिला बोर्ड चुनावों में भी उसने अपने उम्मीदवार उतारे। इस बार संघ के कुल 21 उम्मीदवारों में से पांच विजयी हुए तथा अन्य उम्मीदवारों को भी अच्छी संख्या में वोट मिले। यादव, कोइरी, कुर्मी व अन्य पिछड़ी-दलित जातियों के अलावा इस चुनाव में ''दुसाध भी त्रिवेणी संघ के साथ थे। चौकीदारों के बीच उनकी अच्छी खासी संख्या थी। संघ को इस तरह गांव-गांव में अपना प्रचारक और एजेंट मिल गया। मतदान केंद्रों पर मतदाताओं की पहचान चौकीदार ही किया करते थे-और यह काम इन दुसाध चौकीदारों ने बखूबी निभाया। उन्होंने कई परदानशीन उच्च जाति की महिलाओं को पहचानने से इंकार कर दिया।’’ इन दो चुनावों में संघ के बैनर तले पिछड़ों-दलितों की सक्रियता का व्यापक असर हुआ। कांग्रेस को बिहार में उच्च जातियों पर आधारित अपने संगठानात्मक ढांचे में परिवर्तन लाने के लिए विवश होना पड़ा।

त्रिवेणी संघ के प्रमुख सिद्धांतकार थे यदुनंदन प्रसाद मेहता (जेएनपी मेहता) ऊर्फ स्वाामी सहस्रानन सरस्वती (18 फरवरी 1911 - 3 जनवरी 1986)।श्री मेहता का जन्म शाहाबाद जिला के जितौरा गांव में लाखनटोला में हुआ था। ''1940 ईसवी में उन्होंने 'त्रिवेणी बंधु चौधरी जेएनपी मेहता’के नाम से 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’नामक पुस्तक की रचना की। प्रकाशक के रूप में नाम था - त्रिवेणी शक्ति कार्यालय, जितौरा, शाहाबाद। यह पिछड़ों का अपना विचारधारात्मक-राजनीतिक दर्शन विकसित करने का संभवत: पहला प्रयास था।’’

श्री मेहता ने भोजपुर के जगदीशपुर में एक प्रेस की भी स्थापना की तथा उन्होंने 'आगे बढऩे की राहें’, 'गांव का सोना’, 'आगे बढ़ो’, आदि कई पुस्तकें लिखीं व 1948 में 'शोषित पुकार’नामक एक पत्रिका का भी संपादन शुरू किया। त्रिवेणी संघ में उनके साथी रहे कुछ अन्य लोग भी साहित्य सृजन से जुड़े थे। संघ का संविधान तैयार किए जाने की भी सूचना मिलती है, लेकिन संघ का अधिकांश साहित्य आज तक प्राप्त नहीं हो सका है। ''1945 आते-आते त्रिवेणी संघ का प्राय:पतन हो चुका था।’’

त्रिवेणी संघ की किताब

'त्रिवेणी संघ का बिगुल’संघ का एकमात्र उपलब्ध दस्तावेज है, जिसमें संघ की विश्वदृष्टि, विचारधारा तथा कार्य-योजनाओं का ब्योरा है। पुस्तक के लेखक जेएनपी मेहता ने इसे 'त्रिवेणी संघ की किताब’बताया है। एक आंदोलन के लिए लिखी जाने के बावजूद यह कोई शुष्क या महज उपदेशपरक पुस्तक नहीं है, बल्कि मुहावरे-लोकोक्तियों, विविध बिंबों, उपमाओं से युक्त तथा कथारस से सराबोर है व हर प्रकार से एक साहित्यिक कृति की भांति भी पाठ किए जाने योग्य है। पुस्तक में मेहता जब किसी घटना का वर्णन करते हैं, तो ऐसा डूबते हैं, मानो चित्र बना रहे हों। उनके ये शब्द-चित्र न सिर्फ कथ्य के मुख्य भाग को बल्कि उसकी विराट पृष्ठिभूमि को भी संपूर्णता में उजागर कर डालते हैं। पुस्तक के कुछ हिस्सेतो इतने मार्मिक, गहरे तथा संशलिष्ट अर्थ-छवियों वाले हैं कि उनसे गुजरते हुए ऐसा लगता है कि जैसे अचानक किसी भेदक प्रकाशपूंज से घनघोर अंधकार में डूबी कोई घाटी अपने संपूर्ण सौंदर्य और भयावहता के साथ दृश्यमान हो गई हो।

भाषा के शहरीपन के लिहाज से भी, साहित्यिक क्षेत्र में जैसी हिंदी 1930-40 में लिखी जा रही थी, 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’उससे बीस ही है, उन्नीस नहीं। पुस्तक की विषयवस्तु इतनी विचारोत्तेजक और भाषा इतनी प्रवाहमान है, जिससे किसी बड़े से बड़े लेखक को भी रश्क होना चाहिए। जेएनपी मेहता के लेखन की सिद्धस्तता पर उस समय और आश्चर्य होता है, जब वे बताते हैं कि -''बंधुओ! इस पुस्तक को जैसा परिपूर्ण होना चाहिए, मुझसे हो न सका क्योंकि मैं विद्वान आदमी नहीं-साधारण पढ़ा-लिखा आदमी हूं। तिस पर भी यह मेरा पहला प्रयास है और किताब प्रेस में लिखते-लिखते ही छपी है।’’ इस लेख में हम इसी पुस्तक के आधार पर संघ के विभिन्न विषयों पर विचारों पर संक्षेप में नजर डालेंगे।

किसान, मजदूर और छोटे व्यवसायियों की आवाज

लिफाफे को देखकर ही मजमून का हाल मालूम हो जाता है। 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’के 'समर्पण’पृष्ठ पर ही लेखक कहता है, यह पुस्तक -''जिसके हृदय में देश तथा समाज के शोषितों, शासितों तथा दलितों के प्रति अपार श्रद्धा है - जिसके हृदय में अन्यायों, अत्याचारों तथा जुल्मों को नाश करने के लिए चिनगारियां निकल रही हैं - जिसके हृदय में किसान, मजदूर और व्यवसायियों के लिए अमृत की वर्षा हो रही है, उसके कर कमलों में सादर समर्पित’’।

यह दीगर बात है कि उत्तर बिहार में ग्रामीण स्तर पर नक्सलवादियों ने भी त्रिवेणी संघ को अपना प्रेरणाश्रोत बनाया, लेकिन 'त्रिवेणी संघ’की नीति वैसी उग्रता और राज्य के बहिष्कार की नहीं बल्कि सरकारी व निजी, सभी शक्ति-श्रोतों में लोकतांत्रिक तरीके से वंचित तबकों के लिए रियायत हासिल करने की थी। उसका कहना था कि ''इस देश की 90 प्रतिशत जनता अनुन्नत अवस्था में है।..त्रिवेणी संघ इस अनुउन्नत समाज के लिए पब्लिक या सरकारी सभी जगहों में रियायत चाहता है, जिससे पिछड़ी हुई जनता आगे बढ़ सके।’’ इस रियायत को पाने के लिए वे 'वोट’की ताकत के इस्तेमाल का आह्वान करते थे - ''हम लोगों को चाहिए कि जितने चुनाव आवें, उन सब में अपने योग्य और ईमानदार उम्मीदवार खड़े किए जाएं और अपना सब वोट उन्हीं को दिया जाए।’’

संघ कहता था कि ''हमने राष्ट्र की त्रिवेणी किसान, मजदूर और व्यवसायियों को पाया, जिसके बिना कोई राष्ट्र तैयार ही नहीं हो सकता। किसान चीजों को पैदा करते हैं और मजदूर उसे भिन्न रूपों में तैयार कर व्यवसाय के योग्य बनाते हैं और व्यवसायी उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं -जिसे कहते हैं संसार का व्यापार। क्योंकि उत्तम तीनों का प्राकृतिक संबंध है -जिसे कहते हैं त्रिवेणी संगम या त्रिवेणी संघम्।’’ संघ की नजर में किसान हैं आज की पिछड़ी जातियों के लोग, मजदूर हैं समाज बहिष्कृत अछूत और व्यवसायी हैं निम्न वैश्य, जो छोटे-मोटे व्यवसाय करते हैं।

संघ के बिगुल की आवाज में इस त्रिवेणी समाज का विवरण सुनिए :

किसानों, मजदूरों और छोटे व्यवसायियों की दशा ''बड़ी ही दयनीय है। बेचारे किसान - बूढ़े-बूढ़ी, युवक-युवती, बाल-बच्चे सभी रात को रात और दिन को दिन न समझते हुए, जेठ की दुपहरी में आग के समान लू की लपट उठ रही है और बेचारे किसान इसकी परवाह न कर खून को पसीने में बहा-बहाकर खेतों में काम कर रहे हैं, और सारी दुनिया चादर तान कर फों-फों कर रही है। सावन और भादो के महीनों में मुसलाधार वृष्टि हो रही है, हफ्तों सूर्य के दर्शन नहीं, वर्षा की झडियां लगी हुई हैं, पर किसान सपरिवार ठिठुरते हुए धानों की रोपनी कर रहे हैं और सारी दुनिया झरोखों में बैठ कजरियों की तान छेड़ रही है। पूस और माघ के महीने हैं। खेत और खलिहान में धान की ढेरियां लगी हुई हैं। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा है, पर पुवाल के सिवा ओढऩा नहीं। छोटा सा लड़का एक पैसे की मिठाई के लिए अपने पिता से दांत खिखड़ रहा है और पिता शर्म से भू माता की ओर देख रहा है। उसके नयन से आंसू टपक रहे हैं। मानो, कह रहा है - हाय भू माता! अपने बाल-बच्चों के लिए मैंने तुझे उत्पीडऩ करके धान उपजाया, लेकिन (मैं) एक पैसे का धान बेचने का (भी) अधिकारी नहीं क्योंकि जमींदार का पहरा पड़ा हुआ है। फटो हे माता! मुझ अभागे किसान को शरण दो।...मजदूरों की दशा भी कम सोचनीय नहीं है। बेचारे गरीब मजदूरों से दिन भर पशुओं की तरह काम लिया जाता है और केवल तीन सेर धान उन गरीबों को दिया जाता है, जो उनके परिवार के लिए आधे पेट होना भी मुश्किल है। जमींदारों और पूंजीपतियों ने तो गजब ढा दिया है। जमींदार इतना जुल्म करते हैं कि मजदूरी भी नहीं देते और देते भी हैं तो बहुत कम। बल्कि इनाम में लात-मुक्के, घूंसे तथा गालियों की बौछार लगा देते हैं। पूंजीपति भी तो इनके चचेरे भाई ही हैं, जो रात-दिन पशुओं की तरह मजदूरों से काम लेते हैं और मजदूरी का बीसों गुणा नफा आप लेते हैं।..ठीक ऐसी ही हालत हमारे छोटे-छोटे व्यवसायी भाइयों की भी है। वे तो बड़े व्यवसायियों से ही शोषण कर लिए जाते हैं। पर सरकार का इनकम टैक्स विभाग भी इनको दम लेने नहीं देता। टैक्स के योग्य न होते हुए भी अफसरों की दुर्निगाहों से बेचारों पर टैक्स का बोझ लाद दिया जाता है। लाख चिल्लाते रहते हैं, पर गरीबों की सुनता कौन है!’’

त्रिवेणी संघ ''भारत के अंदर ही नहीं बल्कि विश्व के अंदर सुराज्य, सुख, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सामानता, शांति और प्रेम’के प्रसार का आग्रही था।’’ और यह सिर्फ बाहरी अथवा राजनीतिक बयान के रूप में नहीं था। वह सभी शोषित वर्गों की एकता, साक्षरता, स्त्री शिक्षा, स्वास्थ्य, पौष्टिक खान-पान और सुसंचालित पारिवारिक जीवन जैसी स्थाई महत्व की चीजों पर अपना ध्यान अधिकाधिक केंद्रित करने पर बल देता था। संघ का कहना था कि ''प्रेम से लोथ-पोथ हो। क्योंकि प्रेम ही जीवन का प्राण है, जिसमें प्रेम नहीं, वह केवल मांस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है।’’

त्रिवेणी संघ की काव्याभिव्यक्ति

सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक विषयों पर कथारस से सराबोर चिंतन के साथ-साथ 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’में 11 काव्य रचनाएं भी संकलित हैं। जेएनपी मेहता एक सुगढ़ कवि भी थे तथा वे 'इन्द्र’, 'माधव’आदि तख्लुस का इस्तेमाल भी किया करते थे। किताब की शुरूआत 'ईश-प्रार्थना’से की गई है। लेकिन इस प्रार्थना की तासीर अलग है, इसमें प्रेम को सर्वव्याापी बना डालने का आह्वान है। कुछ पंक्तियां देखिए :

''भगवान हमारा जीवन संसार के लिए हो।

यह जिंदगी हो लेकिन उपकार के लिए हो।।

...

उत्तम स्वभाव हमारा, दुश्मन का मन रिझाए।

वह देखते ही कह दे, तुम प्यार के लिए हो।।’’

'प्रेम’त्रिवेणी संघ के चिंतन का स्थायी भाव है। वह मानता है कि सर्वव्यापी ''प्रेम से ही दुनिया में सुख और शांति का सुराज्य हो सकता है।’’ लेकिन आततायियों के समक्ष त्रिवेणी संघ स्वयं को अदम्य साहस से संपन्न विकराल शक्तिशाली के रूप में प्रस्तुत करता है :

''पापिन के पाप नाशै, त्रास यमदूतन के,

भव-रूज परिवार नाशै धार त्रिवेणी की।

...

मान और गुमान नाशै, जाल दुष्ट जालिम के,

सबै भांति सहाय करै, शोषित दल श्रेणी की।’’

पुस्तक में संकलित कविताएं अलग से साहित्यिक पाठ की मांग करती हैं, लेकिन फिलहाल हम इस लेख को उस दिशा में नहीं ले जाकर संघ के मुख्य विचारों को ही देखने की कोशिश करें।

त्रिवेणी संघ का कहना था कि ''संसार में अनेक तरह के पाप हैं, लेकिन इससे बढ़कर कोई पाप नहीं है जो अन्याय और अत्याचार को बर्दाश्त कर लिया जाए और उसका प्रतिकार न किया जाए।..यदि कोई शक्तिशाली निर्बल और असहायों को सता रहा है, तो उसका प्रतिकार करना परम धर्म है। यदि उसमें कदाचित हिंसा भी हो जाए तो वह हिंसा धर्मयुक्त है।’’'दीन-हीन के बचाव में’आश्यकता पडऩे पर हिंसा से भी पीछे न हटने की यह सीख दरअसल बर्बर अत्याचारों को सहते-सहते टूट चुके समुदायों के उस ग्रामीण हिरावल दस्ते के लिए थी, जिसके लिए समाज के पास कुछ भी नहीं था। यह एक ऐसी कौम का आह्वान करती आवाज थी, जो 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक साम्राज्यवाद’की सदियों से कैदी थी। उसका अपना हिंदू-सनातन धर्म भी उसके साथ नहीं था। उसके धर्म को भी उसके कुछ उच्च वर्ण के धर्मबंधु समुदायों ने बंधक बना रखा था।

संघ की शब्दावली पर एक नजर

एक समय अछूत और बाद में हरिजन कही जाने वाली जातियों को आज 'दलित’तथा हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार शूद्र मानी जानी वाली अधिकांश जातियां को आज 'ओबीसी’या 'पिछड़ा’कहा जाता है। साहित्य, समाजशास्त्रीय विमर्शों तथा राजनीतिक बोलचाल की यह लगभग सर्वमान्य शब्दावली हो गई है। लेकिन आजादी के कई वर्षों बाद तक ऐसा नहीं था। 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’में आज के ओबीसी के लिए 'अनुन्नत समाज’ ('अनुन्नत समाज’के बगल में कोष्टक में इसे अंग्रेजी की रोमन लिपी में Backward भी लिखा गया है), 'पिछड़े हुए लोग’तथा कहीं-कहीं 'दलित’शब्द का भी उपयोग किया गया है। अधिकांश जगहों पर आज की 'अनुसूचित जाति’के लिए भी'अनुन्नत समाज’व 'बैकवर्ड’शब्द का प्रयोग है। यानी, बैकवर्ड, पिछड़ा और दलित - तीनों शब्दों का उपयोग आज की ओबीसी और अनुसूचित जाति, दोनों जाति समूहों के लिए किया गया है। अनेक स्थानों पर आज की अनुसूचित जाति के लिए 'अछूत’शब्द का प्रयोग भी है। कुछ जगहों पर 'अछूत’के बगल में कोष्टक में 'शूद्र’भी लिखा गया है। 'किसान’और 'मजदूर’शब्द का प्रयोग भी प्राय: क्रमश: इन्हीं दो अलग-अलग समुदायों के संदर्भ में है। 'सवर्ण/द्विज’जातियों को प्राय: अत्याचारी, शोषक आदि नामों से संबोधित किया गया है। एक जगह इन्हें 'उच्च जाति’ (कोष्टक में इसे अंग्रेजी की रोमन लिपी में High Class लिखा गया है) तथा एक जगह अन्यत्र अनुन्नत जातियों को पब्लिक और सरकारी पदों पर विशेष रियायत देने की मांग करते हुए इन्हें 'फारवार्ड (Forward)’बनाए जाने की आवश्यकता बताई गयी है। 'फारवर्ड’शब्द का उपयोग यहां द्विज/सवर्ण जाति के संदर्भ में नहीं है। दलित, ओबीसी और सवर्णों को व्याख्यायित करने वाली 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’की यह शब्दावली भी अलग से ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय विश्लेषण की मांग करती है।

वंचित समुदायों की एकता का आह्वान

त्रिवेणी संघ 'अनुन्नत समाज’और 'अछूत समाज’की चट्टानी एकता का पक्षधर था। उसका कहना था कि ''जिस प्रकार धनियों की स्वार्थपरता ने पूँजीवाद को जन्म दिया, उसी प्रकार धर्मांधों और समाज-खूँखारों ने गुलाम बनाने के लिए 'अछूत’ (शूद्र) शब्द को पैदा किया।.. त्रिवेणी संघ..इस अछूत शब्द को तो दुनिया से विदा कर देना चाहता है।’’

संघ के सक्रियता काल में बिहार समेत देश के अधिकांश हिस्सों में कांग्रेस और उसके द्विज-गांधीवाद का बोलबाला था, जबकि बिहार में भूमिहार किसानों के नेता के रूप में स्वामी सहजानंद और उनकी किसान सभा भी काफी सक्रिय थी। त्रिवेणी संघ ने महात्मा गांधी के व्याक्तित्व के सम्मोहन को स्वीकार किया तथा उनके अनेक विचारों से प्रेरणा ग्रहण की, लेकिन स्वामी सहजानंद की किसान सभा, कांग्रेस और उसके द्विज-गांधीवाद को उसने प्रश्नांकित किया।

गांधी जी द्वारा अछूतोद्धार के लिए किए गए अनशन ने कांग्रेस के प्रति अछूतों के आकर्षण को बढ़ा दिया था। इस प्रसंग में त्रिवेणी संघ ने उन्हें इन गांधीवादियों की वास्तविकता बताते हुए कहा- ''जब महात्मा गांधी ने आपके उद्धार के लिए अनशन की घोषणा की थी, उस समय क्या हो रहा था? कहीं अछूतों की सभा करा-कराकर बड़ी-बड़ी स्पीचें झाड़ी जाती थीं, तो कहीं कुँओं पर पानी भरवाया जाता था। इस तरह भारत के कोने-कोने से महात्मा जी के पास तार और चिटि्ठयां पहुंचने लगी थीं कि हम लोगों ने अछूतों को अपना लिया है। हम लोगों को उनसे किसी प्रकार की घृणा नहीं है। इसी तरह अछूतों की तरफ से भी पत्र पहुंचने लगे कि हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं। हमारा अधिकार भी सवर्ण हिंदुओं-सा हो गया है।...लेकिन क्या हुआ? आपका उद्धार हुआ? फिर वही रंगत, वही चाल और वही खंजडी, वही ताल।’’ संघ ने अछूतों को इस तरह के गांधीवाद से सावधान करते हुए कहा कि ''भाई, धनी की सहायता धनी करता है और गरीब की सहायता गरीब ही। इसलिए आप सब त्रिवेणी संघ के झंडे के नीचे चले आवो, क्योंकि त्रिवेणी संघ गरीबों की ही संस्था है।’’

ब्राह्मणवाद का विरोध और धर्मनिरपेक्षता

त्रिवेणी संघ का जोर ब्राह्मणवाद और द्विजवाद की कटु आलोचना पर था। वे अपने 'सनातन धर्म’के कर्मकांडों व पाखंडों के निर्मम आलोचक थे, लेकिन उनका मानना था कि ''सनातन धर्म की नींव इतनी मजबूत है कि उसका विच्छेद कालत्रय में भी नहीं हो सकता।’’'त्रिवेणी संघ का बिगुल’से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि डॉ. आम्बेडकर के आंदोलनों से वे उस समय तक परिचित नहीं थे।

लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा बहुत साफ थी। उनका मानना था कि गरीब चाहे किसी भी धर्म का हो, उनका दुख साझा है और ''राम-रहीम एक ही हैं। हिंदू राम-कृष्ण कह कर पूजते हैं तो मुसलमान अल्लाह और ईसाई गॉड के नाम से। और कुछ नहीं सबके परमात्मा एक ही हैं।..पर नासमझी के कारण खींच-तान हो रही है और दंगे करा करके नाहक खून बहाए जाते हैं।..प्राय: इन दंगों को कराने वाले पंडित और मौलवी ही हुआ करते हैं।..झगड़ा लगाने वाले ताली पीट-पीटकर अपना मतलब साधते हैं, लेकिन गर्दन कटती है आप गरीब भाईयों की।’’

सच्चे देशभक्त पूत

त्रिवेणी संघ ने देश की आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर भाग लिया तथा जमींदारों की खुली मुखालफत की। ''इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रियता से हिस्सा लिया।..भूमिगत हुए और जेल गए।’’ इसके बावजूद उनपर अंग्रेजों और जमींदारों से साठगांठ का आरोप लगाया जाता था।

उस समय ''बिहार के सभी बड़े नेता - डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, श्री कृष्ण सिंह, स्वामी सहजानंद, अनुग्रह नारायण सिंह आदि अपनी-अपनी जातीय सभाओं से जुड़ रहे थे।’’इन उच्च जाति नेताओं के अपनी जाति सभाओं में सक्रिय रहने पर कोई सवाल नहीं उठता था, लेकिन त्रिवेणी संघ, जिसने वास्तव में जाति से जमात की ओर यात्रा की थी, को 'जातिवादी’, 'सामुदायिक विभाजन’करने वाला तथा 'देशद्रोही’तक ठहरा दिया जाता था। संघ को जातिवादी बताने वालों में बिहार के कांग्रेसी अखबार तो थे ही, जवाहरलाल नेहरू भी थे और 'किसान सभा’के नेता स्वामी सहजानंद भी। लेकिन इससे भी अधिक आश्चर्यजनक थी स्वामी सहजानंद की जाति से आने वाले हिंदी के दो बड़े लेखकों राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी की जाति आधारित पक्षधरता। बेनीपुरी जी तो सीधे-सीधे 'किसान सभा’से जुड़े थे, जो संघ का विरोधी था। राहुल सांकृत्यायन ने त्रिवेणी संघ पर जमींदारों का पिट्ठू होने का आरोप लगाया था। अपनी किताब 'दिमागी गुलामी’में उन्होंने कहा कि ''जब से किसान आंदोलन ने जोर पकड़ा है तब से जमींदार श्रेणी किसानों की शक्ति कमजोर करने के लिए मजबूर हुई है।...इसी आधार पर (उन्होंने) खेतिहर मजदूर आंदोलन वैसे ही उठाना चाहा जैसे कि पिछले चुनावों में उन्होंने त्रिवेणी संघ को सलाह और सबसे बढ़कर रूपयों की मदद दी थी।’’ स्पष्ट रूप से राहुल जी का आरोप न सिर्फ सरासर मिथ्या था, बल्कि तथ्य इसके ठीक उलट थे। त्रिवेणी संघ का जन्म ही जमींदारों और सामंतों के विरोध में हुआ था, तथा उसे जमींदारों का हिंसक विरोध झेलना पड़ा था।

संघ की देशभक्ति की तासीर महसूस करनी हो तो 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’में संकलित काव्य रचनाओं को देख लेना पर्याप्त होगा। मसलन, उसका 'जुलूस गान’है :

''त्रिवेणी संघ के सैनिक हैं, हम समरांगण में जाएंगे।

आवेश भरा है नस नस में हम करके कुछ दिखलाएंगे।।

...

माता को धैर्य बंधायेंगे, हम काम देश के आएंगे।

दुखिया के दिन फिर जाएंगे, हम सच्चे पूत कहलायेंगे’’

गांव, शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार

त्रिवेणी संघ का कहना था कि ''उत्थान की सारी कुंजियां राजनीतिक क्षेत्र में रहती हैं। राजकीय विभाग में जिस समाज का बल जितना ही अधिक होगा, वह समाज उतना ही आगे बढ़ सकेगा।..बिना संगठन के कुछ नहीं हो सकता। अस्तु, हम लोगों को चाहिए कि आपस में भेद-भावों को छोड़कर संगठित हो जाएं।’’ इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका सूत्र वाक्य था - ''संघे शक्ति कलीयुगे!’’ लेकिन राजनीतिक जीत ही उनका साध्य नहीं था।

एक छोटे से संगठन के बूते बिहार की राजनीति में हलचल पैदा कर देने, कांग्रेस और किसान सभा में समाई हुई भूमिहार-राजपूत और कायस्थों की भीमकाय राजनीतिक ताकत को तिलमिला देने, झुकने को मजबूर कर देने से 'त्रिवेणी संघ’को न तो ज्यादा खुशी हुई थी, न ही संतोष।

इसलिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उन्होंने अपने संगठन की शक्ति का उपयोग अधिकाधिक किन उद्देश्यों के लिए करने का प्रस्ताव किया था। इसके लिए 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’का अध्याय 'हमारा प्रोग्राम’देखना चाहिए। 'हमारा प्रोग्राम’में लेखक कहता है कि - ''बंधुओं! आपने शोषित-शासित तथा दलितों को उन्नत बनाने के लिए, अन्याय और अत्याचारों का नाश करने के लिए, मनुष्य को मनुष्य का सा व्यवहार करने का पाठ पढ़ाने के लिए, परतंत्र हृदय में स्वतंत्रता का बिगुल फूंकने के लिए, मानव समाज का अधिकार बताने के लिए, देश को स्वतंत्र बनाने के लिए, किसान, व्यवसायी तथा मजदूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए तथा कृषि, शिल्प कला आदि उद्योग धंधों को उन्नत बनाने के लिए त्रिवेणी संघ को पैदा किया। लेकिन अभी तक आप अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कोई ठोस रूप में कार्य न कर सके हैं।’’

वे कौन से ठोस कार्य हैं, जिनकी पूर्ति न हो सकने के कारण त्रिवेणी संघ चिंतित है? उसका मूल उद्देश्य था, दलित और अनुन्नत समाजों की 'शारीरिक, मानसिक और आत्मिक’उन्नति। संघ कहता है, इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ''ऐसे तो कार्य बहुत हैं, लेकिन चलो, चलें गांवों की ओर देहातों में, जहां देश के 90 प्रतिशत मनुष्य भारत के लिए ही नहीं, बल्कि मानव समाज के लिए, सूर्य की प्रचंड से प्रचंड किरणों में, मेघों के घोर से घोर गर्जन और वर्षन में, शीत की खूब से खूब थरथराहट में कायिक तपस्या कर रहे हैं। इसलिए चलो, चलें उन्हीं की सेवा की जाए क्योंकि वे ही राष्ट्र के देवता हैं।’’

त्रिवेणी संघ ग्राम सुधार के लिए कृतसंकल्प था तथा हर गांव में 'त्रिवेणी सेवा दल’के नाम से स्वयंसेवकों की एक टोली बनाना चाहता था। इस टोली की जिम्मेवारी निर्धारित की गई थी - निरक्षरता निवारण, हर गांव में पुस्तकालय की स्थापना, स्वच्छता अभियान चलाना तथा व्यायामशाला (अखाड़ा) आदि की सुचारु व्यवस्था। व्यायाम के संबंध में संघ का संदेश था कि ''यह मत पूछो कि कसरत करने से क्या फायदा होगा। एक मतवाले हाथी को ही देखकर अंदाजा लगा लो कि किस तरह उसका रास्ता साफ हुआ चला जाता है...नवजवानो! शरीर के लिए जितना जरूरी तुम खाने और पखाने को समझते हो, उसी तरह करसत को भी समझो।’’ स्वस्थ मन और स्वस्थ शरीर के उनके ऐजेंडे को देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी सोच कितनी दूरगामी थी। त्रिवेणी संघ की विचारधारा तात्कालिक जीत-हार को महत्व देने वाली नहीं है। उसकी निगाह आने वाली पीढिय़ों के सर्वोन्मुखी विकास पर रहती है।

उसका संघर्ष विशुद्ध जमीनी था और कार्ययोजना नितांत व्यवहारिक। वह किसी भी प्रकार के वाग्जाल और थोथी दार्शनिकता में फंसने से इंकार करने वाली विचाधारा थी। उसके आदर्श समाज की परिकल्पना थी, जीवन के उल्लास से परिपूर्ण व्यक्ति और सुखी परिवार। उसका मानना था कि ''क्या स्वर्ण का सुख उसे लुभा सकता है, जिसका वास सुव्यवस्थित और सुसंचालित परिवार में कुछ दिन भी हुआ हो?’’ लेकिन उसे पता था कि बिना आर्थिक आजादी के 'सुव्यवस्थित और सुसंचालित परिवार’की बात करना दिवास्वप्न ही है तथा पिछड़े-दलित परिवारों की बेहद दयनीय आर्थिक अवस्था उनके 'शारीरिक, मानसिक और आत्मिक’उन्नति में पहली और सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए उसने अपने बिगुल में महात्मा तिरूवल्लुवर की शिक्षाओं की फूंक दी कि ''दयाद्रता, जो प्रेम की संपत्ति है, उसका पालन पोषण करने के लिए संपत्ति रूपिणी दायलु धाय की आवश्यकता होती है। ..धन पैदा करो क्योंकि अप्रसिद्ध और बेकद्रोकीमत लोगों को प्रतिष्ठित बनाने में जितना धन समर्थ है, उतना और कोई पदार्थ नहीं।’’

अंतरजातीय विवाह और स्त्री

त्रिवेणी संघ अंतरजातीय प्रेम विवाह, स्त्री के समान अधिकारों तथा विधवा विवाह का पक्षधर था। हालांकि 'त्रिवेणी संघ का बिगुल’स्त्री को मुख्य रूप से 'पत्नी’, 'बहु’और 'सास’की भूमिका में संबोधित करता है और कहता है - ''जिसको बल नहीं, उसका धन और स्त्री को दूसरे के हाथ में गया समझो।’’ लेकिन सिर्फ इस कारण से त्रिवेणी संघ के स्त्री विषयक चिंतन को प्रतिगामी ठहराना उचित नहीं कहा जा सकता। जैसा कि लेखक ने पुस्तक की भूमिका में भी बताया है कि यह 'किताब प्रेस में लिखते-लिखते छपी है’, इसलिए यह समझा जा सकता है कि संघ के विचार पुस्तक में सुनियोजित रूप से नहीं आ पाए हैं। किताब के स्त्री विषयक चिंतन को इकट्ठा करने पर उसकी विश्रृंखलता विशेष तौर पर झलकती है। वह कहता है कि ''जो लोग अपनी स्त्रियों के श्रीचरणों की अर्चना में लगे रहते हैं, वे कभी महत्व को प्राप्त नहीं कर सकते हैं और जो महान् कार्य करने की उच्चाशा रखते हैं, वे ऐसे वाहियात प्रेम के फंदे में नहीं पड़ते’’लेकिन वह उससे कहीं अधिक बल देकर कहता है कि ''विवाह-शादी में भी लोगों ने धर्म की टांग को अड़ा दिया है। यदि किसी जाति का पुरूष दूसरी जाति की स्त्री से शादी कर ले तो वह धर्म-भ्रष्ट समझा जाता है।... क्या यह देश और समाज के लिए अफसोसजनक नहीं है? क्या सचमुच धर्म ने अडंग़ा लगाया है? नहीं-नहीं! धर्म तो कहता है एक स्त्री जाति है और दूसरी पुरूष।.. यदि इस तरह की (अंतरजातीय)शादी प्रचलित हो जाती हैं तो भारत के अच्छे दिन आते देर न लगेंगे।’’

इसी तरह, एक ओर वह बहु को कहता है कि ''यदि सास तुम्हें गालियां दे रही है तो कानों में उँगली डाल लो। यही शरीफ घर की लड़कियों की निशानी है।’’लेकिन दूसरी ओर सास को कहता है कि ''तुम अपनी बहुओं को बहुत तंग किया करती हो। मैं मानता हूं कि उनके स्वभाव अभी कुछ उतावले हैं, पर वे स्वाभाविक हैं।.. देखो, जब तुम्हारी बहु गर्भवती हो, उसे भूलकर भी तंग न करो। उसके हृदय को चोट न पहुंचाओ। ..बल्कि उसकी चिंताओं को दूर कर उसे सदा प्रसन्न रखो’’। बहु और सास को दी जाने वाली ये नसीहतें भले ही कुछ लोगों को गैर-जरूरी लगें, किन्तु समग्रता में ये सर्वकालिक महत्व की और पिछड़े-दलित परिवारों की स्थिति को देखते हुए निहायत जरूरी शिक्षाएं हैं। संघ का स्त्री-पुरूष की समानता विषयक चिंतन उस समय और स्पष्ट हो जाता है, जब वह धर्माचार्यों से पूछता है-''क्या यह कानून बनाते समय आपको शर्म नहीं आई कि औरतों की गलती पर तो उन्हें कत्ल कर दिया जाए, पर पुरूषों की पीठ ठोकी जाए?..क्या आपने विधवाओं की लाल-लाल आंखों को देखा है, जो रोते-रोते फूल गई हैं?’’संघ अपने लोगों का आह्वान करता है कि ''स्त्रियों की निरक्षरता तो देश और समाज को और भी रसातल में लिए जा रही है, क्योंकि समाज की उन्नति औरतों के ही अधिक हाथ में है।...पढ़े-लिखे युवकों को तो अपनी-अपनी औरतों को पढ़ाने के लिए आज से ही प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए।’’

संघ की प्रेरणाओं, गुणों और भावनाओं का विकास

''त्रिवेणी संघ का कार्य क्षेत्र बिहार ही था, लेकिन बिहार की सीमा से लगा पूर्वी उत्तर प्रदेश भी इससे प्रभावित हुआ था।’’

राजनीतिक स्तर पर संघ की प्रेरणाओं, गुणों और भावनाओं का विकास 1967 में बिहार में जगदेव प्रसाद द्वारा स्थापित 'शोषित दल’के रूप में हुआ। बिहार में 1968 में इस दल की सरकार बनी थी, जिसके मुख्यमंत्री बी.पी. मंडल हुए थे। वही बी.पी. मंडल, जो आगे चलकर भारत सरकार के बहुचर्चित 'मंडल आयोग’के अध्यक्ष बने।

इसी प्रकार सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन के स्तर पर त्रिवेणी संघ का विकास उत्तर प्रदेश में रामस्वरूप वर्मा द्वारा इसी वर्ष (1968 में) स्थापित 'अर्जक संघ’था। इसी वर्ष (१९६८ में ही) जगदेव प्रसाद ने जेएनपी मेहता की पत्रिका 'शोषित पुकार’की तर्ज पर अपनी पत्रिका 'शोषित’का प्रकाशन भी आरंभ किया। अर्जक संघ ने 'शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता’का सैद्धांतिकरण किया तथा इसे धर्म, कला, साहित्य समेत जीवन के सभी क्षेत्रों में पल्लवित करने की कोशिश की। दूसरी ओर राजनीतिक संगठन 'शोषित दल’ने त्रिवेणी संघ की ही तर्ज पर घोषित किया कि ''दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित की लड़ाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज्म की असली लड़ाई है। हरिजन, आदिवासी, मुसलमान कही जाने वाली जातियां शोषित हैं’’ और नारा दिया - ''दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा नहीं चलेगा’’तथा ''जो जमीन जोते बोये, वही जमीन का मालिक होवे’’।

'अर्जक संघ’की स्थापना करने वाले रामस्वरूप वर्मा ने उत्तर प्रदेश में 'अपना दल’नामक राजनीतिक संगठन भी बनाया। 1972 में उनके 'अपना दल’और जगदेव प्रसाद के 'शोषित दल’का विलय हो गया और बना -'शोषित समाज दल’।

अगर त्रिवेणी संघ के खत्म होने के बाद किसी 'त्रिवेणी’की तलाश करनी हो तो वह त्रिवेणी थी - रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद और ललई सिंह यादव के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों की। इस 'त्रिवेणी’ने 1930 के दशक के त्रिवेणी संघ की प्रेरणाओं, गुणों और भावनाओं का सच्चे अर्थों में विकास और विस्तार किया। यह धारा आज भी उत्तर भारत में विभिन्न रूपों में सक्रिय है। खैर, यह सब आपस में जुड़ी हुई, लेकिन अलग कहानी है।

दरअसल, अनेक लोग आजादी के बाद के वर्षों में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में चले 'पिछड़ा पावै सौ में साठ’के आंदोलन को त्रिवेणी संघ का विकास समझने की भूल कर सकते हैं। त्रिवेणी संघ का अध्ययन करते हुए प्रसन्न कुमार चौधरी/ श्रीकांत ने भी डॉ. लोहिया को ''पिछड़ों की सामाजिक क्रांति का अधिक परिपक्व विचारधारात्मक-राजनीतिक दर्शन विकसित करने वाला’’बताया है।

लोहिया की धारा पर भी त्रिवेणी संघ का प्रभाव था, लेकिन वास्तव में डॉ. लोहिया के विचारों ने त्रिवेणी संघ की मूल भावना के विकास में व्यतिक्रम ही उत्पन्न किया था। ''स्वयं लोहिया का व्यक्तित्व इतना विरोधाभासी था कि आज यह समझना कठिन है कि वह चाहते क्या थे। अपनी राजनीति को पुख्ता करने के लिए उन्होंने पिछड़ा पावे सौ में साठ का नारा देकर पिछड़े तबकों से अपनी पार्टी के लिए पर्याप्त समर्थन तो जुटाया, लेकिन ब्राह्मणवादी चिंतन परंपरा पर कोई व्यवस्थित हमला नहीं किया।..लोहिया ने जो समझ विकसित की थी उसके बूते सरकार तो बनाई जा सकती थी, कोई आंदोलन विकसित नहीं किया जा सकता था।’’ यही कारण था कि रामस्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद को डॉ. लोहिया का साथ छोड़ कर अपनी अलग जमीन बनानी पड़ी।

अंत में, स्वराज्य बनाम सुराज्य और एक जरूरी चेतावनी

1909 में प्रकाशित महात्मा गांधी के 'हिंद स्वराज’की आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की विरोधी पोंगापंथी अवधारणाएं त्रिवेणी संघ के सक्रियता-काल में राजनीतिक क्षेत्र में काफी लोकप्रिय थीं, लेकिन त्रिवेणी संघ ने इसे नकारते हुए 'धनिकों और जबरदस्तों’के राज की अवधारणा बताया। 'त्रिवेणी संघ के बिगुल’के स्वर में सुनिए :

''नहीं! नहीं!! स्वराज्य ही नहीं सुराज्य। त्रिवेणी संघ चाहता है सुराज्य। स्वराज्य का माने होता है अपना राज्य - यानी भारत का स्वराज्य हुआ भारतीय राज्य। स्वराज्य मात्र हो जाने से इस देश के लोग सुखी और समृद्धशाली हो जाएंगे, यह मानना कोरी कल्पना है। क्योंकि भारत में तो विदेशियों के राज्य हुए अभी 150 वर्ष भी नहीं हो रहे हैं, पहले भारतीय राज्य ही था। लेकिन मैं पूछता हूं कि सुख और शांति थी? सबको धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में समान अधिकार थे?..यदि नहीं तो ऐसे स्वराज्य से क्या लाभ? ऐसा राज्य तो धनिकों और जबरदस्तों का होगा। फिर हम गरीब और निर्बलों को क्या मिलेगा? वही इनकी गुलामी।’’

इसलिए, सिर्फ अंग्रेजों से देश की आजादी नहीं, ''बल्कि संघ चाहता है धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक साम्राज्यवादों का अंत और उनके स्थान पर धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक साम्यवाद का प्रचार तथा औद्योगिक क्रांति, जिससे सभी फूल-फल सकें और हो सुख और शांति का स्वराज्य।’’

गांधी जी के हिंदी स्वराज के लगभग ठीक एक सदी बाद वर्ष 2010-11 में अन्ना हजारे नामक एक गांधीवादी ने इसी स्वराज की अवधारणा को लेकर आंदोलन शुरू किया था। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय उनके शिष्य भारतीय राजनीति का एक बेहद चर्चित चेहरा और दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने भी वर्ष 2002 में एक किताब 'स्वराज’ शीर्षक से लिखी और कई मामलों में गांधी से कई गुणा अधिक भदेस और प्रतिक्रियावादी ढंग से इस अवधारणा को चित्रित किया। वे इस अवधारणा को आज के भारत पर लागू करने के आकांक्षी हैं। कहने की आवश्कता नहीं कि इस तरह की प्रतिगामी सोच और राजनीति का अचूक उत्तर त्रिवेणी संघ जैसी विचारधाराओं की सैद्धांतिकी और पिछड़े-दलित-आदिवासियों की राजनीतिक एकता से आज भी दिया जा सकता है।

हां, इस लेख के अंत में, त्रिवेणी संघ ने अपने बिगुल में 'त्रिवेणी बंधुओं’की एकता के खंडित होने के खतरे की ओर जो संकेत किया था, उसे भी 'बहुजनों’को याद दिला देना जरूरी है - 'सावधान! जरा भी इधर-उधर हुए कि दाने के समान चुग लिए जावोगे’’!