गुलाबी आँखों वाली
दूसरो की गुलाबी आँखें गुस्से में लाल हो जाती होंगी शायद पर मेरी गुलाबी आँखें तो दाल के लिए तैयार खौलते घी में जले काले लहसुन सी हो गयी थीं । मई की चढ़ती धूप में जितनी गर्मी थी उससे कई अधिक ताप मैं अपनी आत्मा में धँसाए बस स्टैंड पर बैठी थी । सम्पत्ति के नाम पर चार माह का गर्भ और हाथ में भारी सूटकेस के साथ ढाई साल का पहला बच्चा साथ लिए । आती –जाती बसें , कारें , स्कूटर शायद मेरी जलती आँखों से भस्म होकर कब के चूर्ण बन चुके थे । मुझे जाना कहाँ है और करना क्या है से ज्यादा दिमाग अतीत के पन्नो को मोड़ –मोड़ कर बेल सेंक रहा था । दिमाग दिल के पाले में गेंद उछालता था और पूछता था – आखिर इन आँखों ने मुझे धोखा दिया तो कैसे ??
इन्होने मुझे कभी शर्मसार नहीं होने दिया था तब भी नहीं जब महावारी के शुरुआती दिनों में मुझे कपड़ा इस्तेमाल करने की समझ नहीं थी । एक बार तो गेम्स पीरियड में दौड़ते –दौड़ते मुझे एक कपड़ा नजर आया , मैंने सोचा कुछ जाना पहचाना सा लगता है । दूसरे चक्कर में फिर देखा तो याद आया की ये वही कपड़ा है जिसे आज मैंने इस्तेमाल किया है । पर नजरे झुकी नहीं ,आखिर बिन माँ की बच्ची शुरुआत में कैसे जान सकती थी की कपड़ा कैसे इस्तेमाल होता है । निडरता से , बिना झिझके मैंने गेम्स की टीचर को बता दिया था "मैम गड़बड़ हो गयी है । लड़कियों ने घेर कर मुझे मेडिकल रूम तक पहुंचाया था जैसे रानी मक्खी बाकी मक्खियों में घिरी हो । फिर टीचर ने सिखाया था की कैसा और कैसे कपड़ा इस्तेमाल किया जाता है । उस दिन लड़कियों के झुंड ने ही मुझे घेर कर घर तक पहुंचाया था और ये बात स्कूल में आग की तरह फैल गयी थी , पर क्या .....?? कुछ गलत थोड़े ही किया है ॰ प्राकृतिक परिवर्तन है यही तो पढ़ रहे थे ना हम , ऊपर से घर में कोई औरत नहीं । क्यों शर्म से नजरें झुकाऊँ मैं ,क्यों खुद पर गुस्सा करूँ ?मेरी जगह कोई और लड़की होती तो दो चार दिन तक शर्म से स्कूल ना जाती पर मैं तो मैं थी ..गुलाबी आँखों वाली ।
इन आँखों ने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा था हर समय मेरी माँ बनी रहीं । गोरे पतले चेहरे पर सामान्य से कुछ बड़ी गुलाबी आँखें , भूरे लंबे बालों में मुझे अलग ही पहचान दिलाती थी । मेरा पतला दुबला बांस जैसा सीधा शरीर जिसे मैं और भी ज्यादा अकड़ाए रखती थी जिससे लोगो को मेरा आत्मविश्वास दूर से ही नजर आ जाए । आंठवी की छात्रा हो जाने के बावजूद भी अभी तक यौवन ने मेरे दरवाजे पर दस्तक नहीं दी थी ऊपर से मेरी चमड़ी फाड़ दृष्टि – जैसे आँखों के जरिये सामने वाले की पसलियाँ ही गिन लूँगी । कई बार लोगो ने मुझे टोका "तुम्हें यूं हर किसी से आँख से आँख मिलाकर बात नहीं करनी चाहिए पर जो सच्चे होते है वो आँख नहीं चुराते मेरा तो यही फलसफा चलता रहा । मैंने अपनी आँखों को एक दीवार के रूप में तैयार कर लिया था जो मुझे दुनिया की समझ देती थीं । माँ की तरह दूसरों को पढ़कर सजग होने की हिदायत देती थी । इन आँखों का कहा मैंने कभी नहीं टाला था , ये जिसको अपने अनुभव से जैसा पढ़ती गईं मैं व्यवहार में लाती गयी ।
इन आँखों की बोली यानि आँखें धँसा कर सामने वाले को बेबाक देखते रहने के कारण मैं स्कूल मौहल्ले में घमंडी और चतुर समझी जाने लगी । पर मैं हर पल सजग रहती की कोई इस बिन माँ की बच्ची को बहका ना ले आखिर दोष तो इन्ही पर आएगा –"नैन मट्ट्का करती फिरती होगी माँ तो है नहीं देखने को ,फिर पापा के शब्द भी जैसे माथे पर छपे थे "तुम्हारी आजादी कभी भी हमारी बदनामी का कारण नहीं बननी चाहिए वरना हम और माँ –बाप की तरह गिड़गिड़ाएंगे नहीं ,तुम्हें भी सीधे घर से बाहर फेंक देंगे बिल्कुल तुम्हारी ...........हमेशा बात यहीं अधूरी छोड़ देने की पापा की आदत को मैं तब तो नहीं समझ पाई थी लेकिन वक्त को अभी मुझे बहुत कुछ बताना था ।
समय ने कोमल करवटें ली थी और मैं पतली दुबली लड़की से छरहरी युवती में तबदील होती जा रही थी । पढ़ाई में अव्वल ,अन्य प्रतियोगिताओ में भी आगे ,स्कूल की हेड गर्ल और टीचर्स की चहेती लेकिन घर के कामों में मैं फूहड्डों की श्रेणी में कुछ ऊपर आती थी । मैंने कभी मौहल्ले पड़ोस की औरतों में बैठ कर घर संभालने की विद्या सीखने का प्रयास नहीं किया था , जितना भी पापा ने सिखाया था मेरे लिए काफ़ी था । वक्त गुजर रहा था ऐशों आराम से तो नहीं हाँ चैन से जरूर... तभी एक दिन उनके मिल जाने के कारण जीवन में कोहराम मच गया । उनके यानि मेरी "माँ ".. भाई पापा से रूठकर स्कूल गया था और छुट्टी हो जाने के बाद भी वहीं स्कूल के बाहर बैठा था तभी वह वहाँ से गुजरी थीं । भाई को देखकर रुकी और फिर उसे सीने से लगाकर वहीं रोड पर दहाड़ें मारकर रोईं थी । आने जाने वालों का मजमा छटा तो माँ भाई को अपने घर ले गयी और घंटे भर बाद ढेर सारी चाकलेट और मिठाइयों के साथ हमारे घर से कुछ दूरी पर छोड़ गयी थीं । इतना सामान देखकर पापा को कुछ शक तो हुआ था लेकिन भाई के कह देने पर की उसके सबसे अच्छे दोस्त की मम्मी जो उसे बहुत प्यार करती हैं और माँ ना होने के कारण बेटे जैसा मानती है ने दिया है , वह शांत हो गए थे । रात को छत पर सोने के समय भाई ने हम सब को माँ के बारे में बताया था । उस समय ज़्यादातर लोगों का छतों और बालकनियों में सोना आम बात थी । जब मैं सात बरस की थी तभी माँ का पापा से तलाक हो चुका था और उनकी दूसरी शादी हो चुकी थी लेकिन कोई बच्चा नहीं था । समझौते के तहत हुई इस शादी से माँ ने अपनी देह को तो जमाने की नजरों से बचा लिया था लेकिन किसी अन्य बच्चे के लिए वह तैयार नहीं थीं । वे हमारा इंतजार कर रहीं थी और इसी इंतजार के चलते अक्सर चोरी छुपे हमारे स्कूलों के आस पास चक्कर लगाती रहती थीं । किस्मत और उनके विश्वास की जीत हुई थी और हम लोग पापा की चोरी से उनसे मिलने लगे थे । उनके कड़वे अनुभवों की दास्तान और मजबूरियों ने मेरी गुलाबी आँखों को और भी ज्यादा बारीकी से स्कैन करने वाली मशीन में बदल दिया था लेकिन जल्द ही स्कैन होने की बारी हमारी थी । पापा को सब कुछ पता चल चुका था । उन्होने कई बार हम लोगो का पीछा किया था और अब हमारी ज़िंदगी बदलने की बारी थी ...........
मम्मा .. मम्मा .. क्यूटर क्यूटर ......
निक्की मेरी चुन्नी खींच रहा था और एक स्कूटर की ओर इशारा कर रहा था । मैं एक ही क्षण में जैसे अतीत के कुएं में डूबते-डूबते रस्सी से खींच ली गयी थी । निक्की को शांत कराकर मैंने ज़ोर से आ रही कै को वापिस भीतर गटका और स्कूटर में सवार हो गयी फिर उसी घर जाने को जहां से मैं विदा हुई थी । अभी मुझे आराम और दिमागी शांति की जरूरत थी , मैं अपनी आँखों के धोखे की सजा इन दो मासूमों को नहीं दे सकती थी ।
सारे रास्ते अनगढ़ कहानियाँ गढ़ती गई की घर जाकर सबको क्या कहना है लेकिन अपनों को सामने पाकर भीतर का दुख कुलांचे मारकर इन्ही धोखेबाज आँखों से बाहर आ गया ।
"अनुराग ने घर से निकल जाने को कहा है माँ । तुम तो जानती हो उनकी बड़ी बहन से कुछ वर्षों से मेरा विवाद चलता है , उनके घर वाले आए हुए हैं और वो भी आने वाली थी । मैं उसका चेहरा भी नहीं देखना चाहती ,उसने मेरे साथ बहुत बुरा –बुरा सुलूक किया है । मेरे मना करने पर अनुराग ने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया और मेरा आत्मसम्मान भी मुझे वहाँ रोके नहीं रख सकता था । उनकी माँ और उनका साफ कहना है की ये घर हमारा है और हम जिसे चाहे वो आएगा तुम्हें पसंद ना हो तो जा सकती हो । अनुराग ने ना तो मेरी प्रेग्नेंसी का ख़्याल किया और ना ही निक्की का , माँ मेरी प्रेग्नेंसी क्रिटिकल है और मुझे बेड रेस्ट है । ऐसे में उन लोगो ने मेरे साथ इंसानियत का भी रिश्ता नहीं निभाया । ये घर भी उनकी बेटी का और उसका ससुराल भी उसका फिर मेरा क्या है माँ ???मैंने कै और आँसुओं को एक साथ गले में घोट लिया ।
कहने के लिए अनुराग ने मुझसे पूरे परिवार के विरूद्ध जाकर शादी की थी लेकिन ये विरूद्ध जाना था या उन लोगों के डर से छुपकर शादी करना ,मैं आज तक नहीं समझ पाई थी ठीक वैसे ही जैसे अपने पापा के व्यवहार को मैं समझ नहीं पाई थी ...
हम लोग माँ से मिलते हैं ये पता चलते ही उन्होने हम तीनों भाई बहनो को घर से निकाल दिया था ,बहुत हू –हुज्जत से घर के एक कमरे में रहना तो मिल गया था लेकिन राशन-पानी , बिजली-विजली सब बंद । अब पढ़ाई , भाई बहनो की जिम्मेदारी के साथ एक और रोना खड़ा हो गया – पेट भरने का रोना । माँ थोड़ी बहुत मदद तो कर सकती थी लेकिन तीन बच्चों की पूरी–पूरी जिम्मेदारी अपने दूसरे पति पर कैसे डाल सकती थीं ? यहीं से शुरू हुआ था मेरा आंतरिक और बाहरी संघर्ष ।
कम उम्र ,बिना अनुभव ,बिना ऊंची पढ़ाई अच्छी नौकरी नहीं मिल सकती थी और नई खिलती कली हर दफ्तरी बुड्ढे के लिए माल मसाले से कम नहीं थी । मैं पढ़ाई के साथ-साथ दफ्तरों में छोटे-मोटे काम करती रही । जहां भी नजरों में गड़बड़ को मेरी गुलाबी आँखें भाँप जाती थी वहाँ से मैं हट जाती थी । कई बार तो तनख्वाह छोड़कर भी , सभी प्रकार की आर्थिक परेशानियों के बावजूद मैं किसी को भी अपनी देह और दिल की गलियाँ घुमाने को तैयार नहीं थी । अब मैं नजर नीचे किए सड़क नापती घर से निकलती थी और सीधी आफिस जाकर रुकती थी । बीच में क्या आया –क्या गया इसकी मुझे खबर ना रहती । बैंक ऑफ पंजाब के एक डीएसए में मुझे 5000/- महीने पर टेलीफोन कालर की जाब मिल गयी थी । आफिस में काम और सिर्फ काम से काम । छ बजते ही मैं घर के लिए चल देती थी । अपने कपड़ो और अक्खड़ व्यवहार के चलते मैं आफिस के स्टाफ़ से सदैव कटी ही रही । बहनजी टाइप फूल स्लीव कालर बंद सूट और ऊपर से लंबी चोटी , कुछ लोग तो मुझे पीछे से जस्सी जैसी कोई नहीं भी कहने लगे थे । मैंने अपने आस पास एक दायरा बना लिया था । मैं वो कली थी जिसके पास या तो भँवरे मारे डर के आना ही नहीं चाहते थे या मुझसे इमप्रैस ही नहीं होते थे । कभी-कभी आफिस की और लड़कियों की तरह मचलने को जी चाहता भी तो पारिवारिक पिंजरा खुलने से पहले ही मेरे पर कुत्तर देता ।
आठ - नौ महीनों में ही मैंने अपनी मेहनत से प्रमोशन हासिल कर ली थी। अब मैं ग्रेजुएट , बहनजी टाइप स्टाफ मैनेजर थी। जिसे पहली बार मिलकर कोई भी भौंचक्क हो जाता था। फोन पर मेरी मीठी सुरीली अंग्रेजी में पिरोई हुई आवाज़ मेरे सामने आते ही गाय के गोबर में भिनभिना रही मक्खी के समान जान पड़ती थी। कुछ लोगों का तो कहना था ये फोन वाली नहीं है। फिर मेरी आवाज़ और फोन वाली की आवाज़ को मन ही मन मिलाने लगते। तीन चार महीने में मैं अपनी मेहनत के चलते बैंक की अन्य शाखाओं में भी जानी जाने लगी और साथ ही दिल्ली की बहनजी के नाम से भी। जिसे आज तक कोई लड़का डेट नहीं कर पाया था। कुछ सहेलियाँ मुझे ठंडी , बोर और किताबी कीड़ा भी कहने लगी थी।
ऐसे में एक दिन अनुराग का फोन आया। वो मेरे व्यक्तित्व से खासा इम्प्रेस था। वो यकीन नहीं कर पा रहा था की दिल्ली में ऐसी भी लड़कियां होती हैं। उसका एक मित्र पिछले एक बरस से मुझे फॉलो कर रहा था और लड़कियों को चुटकियों में बिस्तर तक ले जाने वाला वो शातिर मेरे आगे घिग्घी बांधे रहता था। इतना स्मार्ट लड़का मुझे पटा नहीं पा रहा मैं उसे भाव नहीं देती ये खबर अनुराग के लिए अजूबा थी। धीरे धीरे बैंक के काम से शुरू होकर पारिवारिक बातों तक पहुंची हमारी दोस्ती केवल फोन तक ही सीमित थी। मुझसे बातों के दौरान ही उसने मुझसे शादी का फैसला कर लिया था। कई महीने हम फोन फ्रेंड रहे और फिर एक दिन मंदिर में मिलने पहुंचे। मैं अपने साथ अपने अंगरक्षक अपनी बहन और मौसी को ले गयी थी। एक – दूसरे को पहली बार मिलने पर ही जाने कौन सी तार मेरे अंदर छिड़ गयी थी। अनुराग की पारिवारिक समझ और स्वभाव की तो मैं पहले ही से कायल थी । मेरी गुलाबी आँखों ने उसे भी सख्ती से स्कैन किया था और उसके अंदर अपने लिए केवल सम्मान, सम्मान और सम्मान पाया था । अब एक बनिया लड़की एक ब्राह्मण लड़के के प्यार में पड़ चुकी थी । डेट्स पर जाने का तो कोई मतलब नहीं था अनुराग जानते थे की मैं वैसी नहीं हूँ इसलिए बात ही शादी से शुरू हुई । वो अपनी माँ को मेरी माँ से मिलाने लाए ,कुंडलियाँ मिलाई गयी , मुझे देखा गया लेकिन सब व्यर्थ ....मेरा अतीत मुझे सीने से चिपकाए था . एक तो अंतरजातीय लड़की उस पर माँ पिता का तलाक . वही हुआ जिसका मुझे डर था . रिश्ता ना हो सका और मैं इसे कठोर नियति मानकर पीछे हट गयी ।
पर अनुराग इस अनुराग को नहीं भूला पा रहे थे और अंतत: उन्होने मुझे और मेरे परिवार को मनाकर मुझसे शादी कर ली । अब मैं एक ब्राह्मण बहू तो थी लेकिन ऊपर से . पूरे परिवार की आंतरिक नफरत के आगे मैं मेमनी सी कटने को खड़ी रहती . कभी प्रतिकार करती तो इतनी भयानक महाभारत तैयार होती की मैं दोनों हाथों से अपने ही हाथ की लकीरों को मिटते पाती । केवल शरीर अनुराग के पास रह गया था ,आत्मा . आत्मसम्मान और अरमानों की तो जैसे धज्जियाँ उड़ चुकी थी । लड़ना भी दुश्वार और चुप रहना भी दुश्वार । अपने माँ बाप के अतीत को दोहरा कर मैं दुनिया को हँसने का मौका भी नहीं दे सकती थी ।
वक्त मरहम का काम करता है ऐसा सोचकर मैं कभी सब कुछ भुलाकर अनुराग के परिवार में घुलने मिलने और उनका दिल जीतने का प्रयास करती तो कभी बार-बार के अपमान से खीज कर किनारा कर लेती । इतने अपमान ने मुझे अनुराग के प्रति भी कठोर कर दिया था . उनका चुप रहना और मेरा कभी साथ ना देना मुझे अंदर ही अंदर खाता जा रहा था .
मैं बाहर से आई वो शेरनी थी जो बाघों के झुंड में मिलना चाहकर भी बार-बार खुद को झुंड के बाहर पाती थी और जो बाघ मुझे इस झुंड में बरगला लाया था वो भी अपने पारिवारिक झुंड में मुझे दरकिनार करने में ही अपनी सदस्यता की सुरक्षा समझ रहा था । मेरी गुलाबी आँखों ने इस बाघ की स्कैनिंग में मुझे धोखा दिया था और मुझे खुद से ही नफरत करने पर मजबूर भी .
मुझे घृणा हो गयी थी अपनी इन मतवाली शराबी गुलाबी आँखों से जिन्होने मुझे कई भेड़ियों से तो बचा लिया था लेकिन एक बाघ के सामने बेबस शिकार बना कर फेंक दिया था .............................।
रचना मेरी अपनी मौलिक और अप्रकाशित है । (सत्यघटना पर आधारित)
संजना अभिषेक तिवारी
आन्ध्रप्रदेश